अभिशप्त प्रेम / मुकेश मानस
(1)
"अरे भाग मत। ठोकर लग जाएगी।"
मगर धीरे चलना मेरे वश में नहीं था। मेरे मन में बार-बार यही बात आ रही थी कि जल्दी से जल्दी अपने गांव में कैसे पहुंचा जाए। मां तेज चल ही नहीं सकती थी क्योंकि उसके साथ मेरी छोटी बहन थी। मैंने हालांकि दो झोले अपने कंधों पर उठा रखे थे मगर उनमें कोई वजन मालूम नहीं हो रहा था।
जब हमारे गांव की सीमा पर बहने वाला बम्बा आया तो मैं उसकी पुलिया पर बैठ गया। मां काफी पीछे छूट गई थी। बम्बे में बहते पानी ने वहां की हवा में थोड़ी ठंडक भर दी थी। मैं पसीने से लथपथ था। इसलिए वहां बैठकर सुस्ताना अच्छा लग रहा था।
उन दिनों हमारे गांव तक तांगे नहीं चलते थे। हमारे गांव से पांच किलोमीटर की दूरी पर एक काफी बड़ा गांव था। बसें वहीं तक आती थीं। उस गांव की कई टेढ़ी-मेढ़ी गलियां पार करने के बाद एक कच्चा रास्ता हमारे गांव तक आता था जो सिर्फ कहने भर के लिए रास्ता था। यह दरअसल खेतों के बीच से एक बुग्गी के निकलने भर की जगह थी। इसके दोनों तरफ बुग्गियों के पहियों से बनने वाली दो समांतर गढ्ढेनुमा नालियां थीं। रास्ता था भी काफी ऊंचा-नीचा और टेड़ा-मेढ़ा। बरसातों में इसमें पानी भर जाता और मिट्टी कीचड़ में बदल जाती तो सूखे में मिट्टी सूखकर उड़ने लगती। वक्त-बेवक्त उगकर खड़े हो जाने वाले ऊंचे-ऊंचे, झुंड, ऊपर से लोगों की बहुत ही कम आवाजाही इस रास्ते के किसी भी राहगीर की हिम्मत पस्त कर देने को काफी थे।
मगर गर्मियों की छुट्टियों में गांव आने की ललक और किशोरावस्था के उत्साह के आगे सब नतमस्तक थे। आठवीं कक्षा की परीक्षाएं होते ही मैंने गांव जाने की रट लगा ली थी। पिताजी का काम इधर काफी बढ़ गया था और वो काफी व्यस्त रहने लगे थे। पहले वो भी आना चाह रहे थे पर बाद में वो नाट गए।
"तू तो एकदम तीतरी सौ भगे है।" धीरे-धीरे चलकर आती हुई मां भी पुलिया पर आकर बैठ गई। छोटी बहन इधर उधर घूमने लगी।
सही तो कह रही थी मां। उन दिनों गांव आने का कितना उत्साह हुआ करता था। रोजाना की ऊबाऊ जिंदगी, वही मास्टरों की डांटों और सजाओं से भरा स्कूल और घर के सामने सड़े से पार्क में खेले जाने वाले एक जैसे खेल। दिल्ली शहर की सडांध और बदबू मारती जे. जे. कालोनी में चाहे जितने आकर्षण क्यों न थे मगर गांव की बात ही कुछ और थी। सिकुड़ा-सिकुड़ा थका-थका और ऊबा हुआ मन यहां आकर कितना खुल जाता था। दूर-दूर तक हरे-भरे लहलहाते खेत, बाग-बगीचे मन को छू जाते थे। मन यहां आकर चंचल हो उठता और उसके पंख लग जाते। तितली की तरह कभी यहां, कभी वहां। छुट्टियां कब बीत जातीं पता ही नहीं चलता था।
सुस्ता लेने के बाद हम फिर चल पड़े। हाल फिर वही, मैं आगे-आगे और मां पीछे-पीछे। डरावने बूढ़े बरगद के आने से पहले मैं रूक गया। यह बहुत घना और काफी फैला हुआ बहुत पुराना बरगद था। उसकी शाखाओं से लटकी हुई सैकड़ों जड़ें काफी डरावनी प्रतीत होती थीं। बरगद के चारों तरफ एक गोलाकार चौकी बना दी थी। चौकी पर कुछ ईंटें लगाकर ‘वी’ आकार का एक पूजा स्थल बना दिया गया था। बूढ़े बरगद का पूरा चित्रा किसी को भी डरा देने के लिए काफी था। इस बरगद के साथ जुड़ी अनेक किंवदंतियां और कहानियां ऐसी थीं जो इसे और भयानक बनाती थीं। कुछ ऐसी बातें मुझे पहले से पता थीं। गांव में सब मानते हैं कि इस पर कोई भूत रहता है। कुछ लोगों ने तो उसे साक्षात देखा भी था। उनके मुताबिक डरावने चेहरे, लंबे-लंबे और पैने दांतों वाला यह भूत बड़ा भयानक था। कुछ लोगों ने तो उसकी पूजा भी शुरू कर दी थी ताकि भूत उन्हें ना सताये। उसका आतंक पूरे गांव पर था। रात तो रात लोग दिन में भी अकेले इधर आने से डरते थे। इस रास्ते से गुजरने वाले पहले उसे प्रणाम करते और फिर आगे जाते। बरगद के पास आते कुछ सालों पहले घटी एक घटना मेरे आगे साक्षात हो उठी। मैं खुद इस घटना का चश्मदीद गवाह था।
मेरी आंखों में एकाएक किसना का चेहरा उभर आया। भरा-भरा चेहरा, बड़ी-बड़ी आंखें, सुतवां नाक के नीचे घनी काली मूंछे और हट्टे-कट्टे शरीर का मालिक, गबरू जवान-किसना। पिताजी के पहलवानी वाले दिनों का उनका पट् शिष्य, बेहद उत्साही और हिम्मती किसना। उसे लगता था कि बरगद के पेड़ पर कोई भूत-वूत नहीं था। भूत की बात सिर्फ हमारे लोगों में दहशत फैलाने के लिए गांव के ठाकुरों ने ही उड़ाई थी। ताकि रात में नम्बर आने पर भी भूत के डर के मारे हमारे लोग अपने खेतों में पानी देने ना जा पाएं। एक रात किसना ने भूत के भय को खत्म करने की ठान ली। वह रात को अकेला ही अपने खेत में पानी देने निकला। पूरी रात उसने पूरी निडरता से खेत में पानी दिया। मगर सुबह बरगद के नीचे उसकी क्षत-विक्षत लाश मिली। उसकी क्षत-विक्षत लाश देखकर मैं तो डर ही गया था। लोगों के मन में भूत की बात और पुख्ता हो गई थी...मेरे भीतर भी भूत का भय समा गया था।
"क्या हुआ?" मां ने पास आकर मुझे झकझोरा। वह मेरे भीतर पैदा हो चुके भय को समझ गई थी शायद। अब मैं उसके साथ-साथ चलने लगा। बरगद के पास आते ही उसने सर पर पल्लू डाल लिया।
"हे अऊत सत्तियों, हे दई-देवताओं, भूल-चूक माफ करना।"
मां हाथ जोड़कर, आंखें बंद कर बुदबुदा रही थी। मैं भी किसी भय से प्रेरित होकर भगवान को याद करने लगा। भूत का डर तो था मगर भीतर से कहीं यह आवाज़ भी आ रही थी कि भूत-बूत कुछ नहीं होता।
फिर हम जल्दी-जल्दी बरगद के आगे से गुजर गए।
(2)
गांव में जीवन मेरे लिए एकदम निर्बंध हो जाता। सुबह खा-पीकर बम्बे की तरफ निकल जाना, घंटों बहते पानी में अपने हमउम्र लड़कों के साथ उछल-कूद मचाते हुए नहाना। और जब मन भर जाता तो बम्बे के किनारे बैठकर बहते पानी को देखना। फिर किसी अमराई में डेरा डालना, किसी पेड़ की शाख पर चढ़ना-उतरना और दिल्ली के बारे में सच्ची-झूठी बातें सुनाना। भूख लगने पर घर जाकर खाना खा लेना और फिर वही बम्बा, फिर वही अमराई या फिर लहलहाती फसलों की आंखों को ठंडक देती हरियाली और मन को प्रमुदित कर देने वाली भीनी-भीनी सुगंध के बीच घूमते रहना। यही था यहां का जीवन जिसके लिए मैं तरसता था। वक्त यहां पानी की तरह निर्मल और हवा की मानिंद तनावमुक्त था।
दिन-भर तो मैं अपने हमउम्र लड़कों के साथ घूमता-फिरता मगर अंधेरा ढलने से लेकर नींद आने तक का मेरा सारा समय राघौ भइया के साथ ही बीतता था। राधौ भइया के बूढ़े मां-बाप हमारे पड़ौसी थे और रिश्ते में मेरे दादा-दादी ही थे। राघौ भइया उन दिनों बड़े गांव में इंटर कॉलेज में पढ़ते थे। पढ़ाई में तेज होने के साथ-साथ वो चित्राकला में भी पूरे उत्ताद थे। उनके इसी फ+न के कारण मैं उनका फैन था। हँसमुख और विनम्र स्वभाव वाले राघौ भइया एक आकर्षक नैन-नक्श और कद-काठी के मालिक थे। अपने मां-बाप की चार संतानों में अकेले राघौ भइया ही बचे थे। इसीलिए वो अपने मां-बाप के लाड़ले भी थे।
एक दिन दोपहर में अकेला मैं राघौ भइया के खेतों से गुजर रहा था। खेत के साथ-साथ सिंचाई की नाली थी जिसकी मेंड़ पर चला जा रहा था। नाली में बड़ तेजी पानी बह रहा था। भरी दोपहरी... सूनसान और एकदम निर्जन जगह...मेरे भीतर भय की एक लहर सी उठ रही थी। अचानक मेरी नज़र बूढ़े बरगद पर चली गई। वह भयभीत कर देने वाले बिम्ब में तब्दील हो चुका था। उसे देखकर मैं वाकई डर गया। एकाएक मुझे खेतों से किसी के फुसफुसाने की आवाज सुनाई पड़ी। मेरा दिल जोर-जोर से धडकने लगा, मेरी चाल में तेज आ गई। फिर अचानक मैं भागने लगा और भागमभाग में अचानक नाली में गिर पड़ा। तभी एक आवाज़ आई।
"कौन है?" अब तो मैं सचमुच डर गया। जल्दी-जल्दी नाली से निकला और भागने लगा। "कौन है रे?" आवाज फिर आई। आवाज कड़क और मोटी थी। मगर मैं रुका नहीं। "अरे मल्ला रुक, रुक तो, देख... देख मैं राघौ हूं।"
मुड़कर देखा तो सचमुच राघौ भइया ही थे। मगर तब तक मैं दुबारा नाली में गिर पड़ा। राघौ भइया की हँसी फूट पड़ी। राघौ भइया की हँसी के साथ मुझे एक हँसी और सुनाई पड़ रही थी। मगर मुझे यहां कोई दूसरा आदमी नहीं दिखाई पड़ा। मुझे लगा कि मेरा वहम होगा। राघौ भइया अपने कंधे पर रखे अंगोछे से मुझे पौंछने लगे।
"राघौ भइया, ये दूसरी हँसी किसकी है?" "दूसरी हँसी...मेरे सिवा यहां और कौन है?" "नहीं कोई और भी हँसा था।" "अरे कोई नहीं है...तेरा वहम है।" तभी वो दूसरी हँसी फिर फूट पड़ी। ये शायद किसी लड़की की हँसी थी। मैं राघौ भइया की तरफ देखने लगा और वो मेरी तरफ। वो हँसी रुक नहीं रही थी। वो तो नाली में बहते पानी की तरह बहती जा रही थी। "डरेगा तो नहीं।" "नहीं।" "ये भूतनी की हँसी है।" "भूतनी की हँसी है।" एक पल को तो मैं डर ही गया। भइया मुझे डरा जान खूब जोर-जोर से हँसने लगे। "अरे मत डर। ये किसी भूतनी-वूतनी की आवाज नहीं है। ये तो मेरे दोस्त की हँसी है। उधर मेरे खेत में बैठा है।" "अच्छा! मगर ये तो एक लड़की की आवाज़ है।" अब मैंने भइया के चेहरे पर घबराहट के भाव देखे। वो अपनी घबराहट छुपाकर बोले-"चल तुझे छोड़ आऊँ।"
मैं आगे-आगे चल पड़ा और वो पीछे-पीछे। दो चार कदम चलने के बाद वो जोर-जोर से खांसने लगे। थोड़ी दूर चलकर मैंने पीछे देखा तो देखता ही रह गया। एक लड़की मेंड़ पर खड़ी थी और राघौ भइया इशारे से उसे कुछ कह रहे थे। क्या वो कोई भूतनी थी, अचानक मेरे मन में सवाल गूंजा। राघौ भइया ने मुड़कर मुझे देखा तो सन्न रह गए।
"देख मल्ला मेरी एक बात मानेगा।" राघौ भइया की आवाज में ममता उमड़ आई थी। "हां" "देख किसी से कुछ कहियो मत।" "क्या?" "उस लड़की के बारे में वरना सब मुझे गलत समझेंगे।"
अच्छा तो वो कोई लड़की थी, भूतनी नहीं। मगर राघौ भइया के खेत में क्या कर रही थी वो? मैंने सोचा कि भइया से पूछूं, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। उस दिन के बाद राघौ भइया मेरा कुछ ज्यादा ही ख्याल रखने लगे।
कुछ दिनों बाद मैं दादाजी के साथ मंगल की पैंठ गया। काफी चहल-पहल थी बाजार में। बहुत-सी छोटी-छोटी दुकानें थीं जिन पर भीड़ जमा थी। दिल्ली की कालोनियों में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों जैसा बाजार था ये। दादाजी ने घरेलू जरूरत की चीजें खरीदीं। फिर वो एक दुकान के आगे मुझे खड़ा करके बोले-
"यहीं रहना, मैं अभी आया।"
मैं बाजार में आते-जाते लोगों को देखने लगा। तभी एक दुकान पर मुझे राघौ भइया दिखे। वो एक बिसातिये की दुकान पर खड़े थे। उनके साथ लड़की भी खड़ी थी और बिसातिये से किसी चीज का मोल भाव कर रही थी। अचानक उसने राघौ भइया की तरफ मुड़कर देखा तो मुझे पता चला कि ये तो वही लड़की थी जो मैंने उस दिन उनके खेत की मेंड़ पर देखी थी। लड़की ने कुछ चीजें ले लीं। मैंने देखा कि विसातिये को पैसे राघौ भइया ही दे रहे हैं। अचानक उनकी नज़र मुझसे मिली तो वो घबरा से गए। वो मेरे पास आ गए।
"अरे तू। मल्ला तू अकेला यहां क्या कर रहा है।" उनके साथ खड़ी लड़की मुस्कराई और आगे बढ़ गई। फिर भीड़ में खो गई। "मैं अकेला नहीं हूं, दादाजी के साथ आया हूं।" "अच्छा। कहां गए मौसा?" "वो कुछ लेने गए हैं।" मैं राघौ भइया को उस जगह ले आया जहां दादाजी मुझे खड़ा कर गए थे। तभी दादाजी भी आ गए। राघौ को देख वो मुस्कराए। "चलौ।" दादाजी बोले। "राघौ भईया तुम भी चलो।" मैंने कहा तो राघौ भैया बोले- "नहीं तू मौसा के संग जा, मुझे अभी कुछ सामान खरीदना है।" "अच्छा" मैं दादाजी के पीछे जाने के लिए मुड़ा कि राधौ भैया ने मेरा हाथ पकड़ लिया और धीरे से मेरे कान में फुसफुसाए- "मेरी बात याद है।" "कौन-सी बात?" "वही, वो लड़की वाली बात।" "अच्छा वो।" मुझे उनकी बात याद आ गई। "हां, वही" राघौ भइया को इत्मीनान हो गया। "याद है।" मैंने कहा। "किसी से कहियो मत।" राघौ भइया ने जैसे गुहार की। "नहीं कहूगा।"
मैंने दौड़कर दादाजी का हाथ पकड़ लिया। पीछे मुड़कर देखा तो राघौ भइया वहीं के वहीं खड़े थे-गुमसुम और मायूस। उन्हें शायद अभी भी ये डर सता रहा होगा कि मैं उनकी बात किसी से कह न दूं।
(3)
गांव में दो महीने कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। छुट्टियां खत्म होने से पहले पिताजी हमें लेने गांव आ गए। राघौ भइया उदास मन से हमें बस अड्डे तक छोड़ने आए थे। दिल्ली आकर जिंदगी पुराने ढर्रे पर चल पड़ी। अब मैं नौवीं कक्षा में आ गया था। धीरे-धीरे पूरा साल गुजर गया। इस पूरे साल के दौरान कोई ऐसी बात नहीं हुई जिसकी वजह से गांव जाने का मौका पाता। वार्षिक परीक्षाएं हो जाने के बाद मैं पिताजी से गांव जाने की ज़िद करने लगा। पिताजी ने कुछ दिन ठहरने को कहा। मगर मुझमें इतना सब्र कहां था। मेरा मन तो बार-बार गांव जाने को मचल रहा था। एक दिन खेल-कूद कर घर लौटा तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। गांव में हमारे मुहल्ले का एक लड़का हमारे घर आया हुआ था। उसका नाम रामेश्वर था। उसके पिता दिल्ली में ही किसी कारखाने में काम करते थे। गांव में वह राघौ भइया के साथ ही कॉलेज में पढ़ता था। मैंने उसे हाथ जोड़कर नमस्ते की। उसने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फिराया।
"अरे तू तो एक साल में ही इतना बढ़ गया?" मैं क्या कहता। "और बता। पेपर हो गए तेरे?" "हां? "कैसे हुए?" "अच्छे हो गए?" "भइया बड़ी अच्छी बात है।" उसने संतोष जताया। "भइया! आज रात को आप हमारे घर रुकोगे।" मैंने पूछा।
मैंने इसलिए पूछा कि एक तो मैं उससे गांव के बारे में बात करना चाहता था। दूसरे अगर वो अगले दिन लौटेगा तो मैं पिताजी से कहूंगा कि मुझे उसके साथ गांव भेज दें।
"आप गांव वापस कब जाओगे?" मैंने फिर पूछा। "कल जाऊंगा। कहो?" "मैं भी आपके साथ गांव चलूंगा?" "अच्छा। चाचा कहेंगे तो तुझे अपने साथ ले चलूंगा।" पिताजी घर आये तो मैंने उनके सामने अपनी बात दोहराई। "कल देखेंगे। अभी तू खा-पी के सो जा।" पिताजी ने बड़े दुलार से मुझे कहा।
फिर पिताजी बाहर बरामदे में चारपाई डालकर रामेश्वर के साथ बात करने लगे। खाना खाकर मैं भी उनके पास जा बैठा। "खाना खा लिया?" पिताजी ने पूछा। "हां।" "तो जा, जाकर सो जा।"
मगर मेरा मन तो उनके पास बैठकर उनकी बातें सुनने को कर रहा था। "जा बेटा, जाकर सो जा।"
पिताजी ने कहा तो प्यार से था मगर उनकी आवाज़ में एक हल्की झिड़की भी थी। भीतर से मां ने भी आवाज लगाई। मैं मन मारकर सोने चला गया। मां उन दोनों को खाना परोसने चली गई। खाना खाते हुए भी वे दोनों बातें किए जा रहे थे। जल्दी ही मुझे नींद आ गई। सुबह उठा तो पता चला रामेश्वर जा चुका था। पिताजी भी जाने की तैयारी कर रहे थे। "रामेश्वर भैया चले गए?" "हां, चले गए।" "मुझे नहीं ले गए?" मैं लगभग रूआंसा हो आया। "तुझे गांव जाने की बड़ी जल्दी है।" पिताजी मेरी रोनी सूरत देखकर हँसते हुए बोले। "अब आप पता नहीं कब भेजोगे। रामेश्वर भइया के साथ चला जाता।" "अरे, इतनी भी क्या जल्दी है। भेज दूंगा। अभी गांव जाना ठीक नहीं है?" "क्यों जाना ठीक नहीं है?" मैंने सवाल किया। "अभी गांव का माहौल खराब है भइया। जब ठीक हो जाएगा तो मैं तुझे ले चलूंगा।" मुझे आश्चर्य हुआ कि गांव में ऐसा क्या हो गया जिसकी वज़ह से पिताजी मुझे नहीं भेज रहे हैं। क्या कोई महामारी फैल गई है या कोई अनहोनी घट गई है। गांव के माहौल के खराब हाने की बात मेरी समझ नहीं आई। "क्यों खराब हो गया?" "अब तुझे क्या बताऊं? तू नहीं समझेगा। तू अभी छोटा है।"
पिताजी तैयार होकर अपने काम पर चले गए। मैंने मां से पूछा तो उसने यह कहकर अपना पल्ला छुड़ा लिया कि मोये ना पतो। पिताजी कुछ बता नहीं रहे थे और मां ने मानो जुबान सिल ली थी। मगर मेरे अंदर जानने की खदबद लगी हुई थी। इन गर्मियों में पिताजी ने हमें गांव नहीं भेजा। जब भी पूछता तो एक ही जवाब मिलता कि जैसे ही गांव का माहौल ठीक हो जाएगा, भेज दूंगा। अब मैं गांव के माहौल के ठीक होने का इंतजार करने लगा।
(4)
उस साल की गर्मी की छुट्टियों में पिताजी ने मुझे गांव भेजा ही नहीं। कुछ समय तक तो छुट्टियों में गांव ना जा पाने’ की दुख मुझे सालता रहा। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। पिताजी के काम की जगह हमारे घर से बहुत ज्यादा दूर नहीं थी। मेरा स्कूल भी घर के पास ही था। स्कूल जाने से पहले मैं अक्सर पिताजी को दोपहर का खाना देने जाया करता था।
एक दिन मैं उन्हें खाना पहुंचाने गया तो मेरी हैरानी का ठिकाना ना रहा। पिताजी के सामने राघौ भइया बैठै थे। मैंने खाने का डिब्बा मेज पर रखा और राघौ से लिपट गया। राघौ भैया और पिताजी हँसने लगे। राघौ भैया और पिताजी ने साथ-साथ खाना खाया। खाना खाने के बाद "अभी आया" कहकर पिताजी कहीं चले गए। मैं तो राघौ भइया के साथ बात करने को बेताब था ही। पिताजी ने बहुत अच्छा मौका दिया।
राघौ भइया ने मुझसे मेरी पढ़ाई के बारे में, स्कूल के बारे में, मास्टरों के बारे में बातचीत की। मैंने सब कुछ उन्हें विस्तार से बता दिया। साथ ही उन्हें ये भी बता दिया कि इस बार की छुट्टियों में बिल्कुल मज़ा नहीं आया। बोर होता रहा पूरी छुट्टियों में। मैंने नोट किया कि भइया अब पहले जैसे नहीं रहे थे। वो काफी बदल से गए थे। बात-बात में हँस पड़ने वाले राघौ भइया कुछ गंभीर से हो गए थे...शायद कुछ गुमसुम कुछ उदास से। वो मुझसे कुछ ना कुछ पूछे जा रहे थे। मैं भी उनसे कुछ जानने को बेताब था....उस बात का उत्तर जिसे पिताजी और मां आज तक टालते आए थे और जो मेरे भीतर लगातार हलचल मचाती आ रही थी। मैंने जी कड़ा करके आखिर उनसे वो बात पूछ ही ली।
"राघो भइया, एक बात पूछू?" गांव का माहौल कैसा है?" "क्यूं... गांव के माहौल को क्या हुआ?" "नहीं, पिताजी बता रहे थे कि गांव का माहौल खराब है।" "नहीं, सब कुछ ठीक तो है।" "पिताजी ने इस बार मुझे छुट्टियों में गांव नहीं भेजा। बोले-"कि गांव जाना ठीक नहीं।" "नहीं, ऐसी बात नहीं। कोई और बात होगी।" "वैसे क्या हुआ गांव में।" "अरे, कुछ भी तो नहीं हुआ। कुछ भी तो नहीं बदला, सब कुछ वैसे ही है। इस बार छुट्टियों में आकर देख लेना।" लेकिन मैं उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हुआ। जाने क्यों मुझे ऐसा लगा रहा था कि राघौ भइया मुझे टाल रहे हैं। "अच्छा इस बार की छुट्टियों में गांव जरूर आऊंगा।" "हां, जरूर आना।" राघौ भईया अचानक फिर से गुमसुम हो गए। इससे पहले कि मैं कोई और बात शुरू करता, पिताजी आ गए। पिताजी ने अपनी जेब से सौ-सौ के कुछ नोट निकाले और राघौ भइया को देते हुए बोले- "ले अभी यही मिले। इन्हीं से काम चला। जल्दी ही काम लगवा दूंगा फिर सब ठीक हो जाएगा।" "ठीक है।" राघौ भइया ने रुपये अपनी जेब में रखे और जाने को उठ खड़े हुए। फिर उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फिराया। "मल्ला तो अब बड़ों की तरह बातें करने लगा है चाचा। काफी समझदार हो गया है।" फिर मेरी तरफ देखकर बोले-"पढ़ने-लिखने में मन लगाओ। फिर आऊंगा...अच्छा।" कहकर राघौ भइया चले गए।
रात को चारपाई पर मैं पिताजी के बगल में लेटा सोने की कोशिश कर रहा था। मां भी वहीं पास में बैठी थी। मुझे सोया जानकर मां और पिताजी आपस में बातचीत करने लगे। "राघौ आया था।" "अच्छा।" "यहीं शास्त्री नगर में रह रहा है।" "अभी नौकरी छूट गई है। रुपये मांगने आया था मेरे पास।" "कुछ बतायो उसने।" "हां, सब ठीक है। लड़का हुआ है उसे।" "चलो, ये तो अच्छी बात है।" "वो लौंड़िया ठीक है।"
लौंड़िया माने लड़की। भइया को लड़का हुआ है यानी उन्होंने शादी कर ली। मगर किससे? क्या उसी से जिसे मैंने उनके खेत की मेंड़ और बिसातिये की दुकान पर देखा था। मेरे मन में सवाल खदबदाने लगा।
"ठीक है। कह रहा था, अच्छी लड़की है। मगर उसकी वजह से गांव तो नहीं जा सकेगा।" "ठाकुर तो अभी भी गड़सा उठाए, फनफनाए घूम रहे हैं। बीच-बीच में उसके मां-बाप को धमकाने आ जाते हैं कि राघौ को छोड़ेंगे ना।" “ग़ैर-जात की लड़की से शादी ना करनी चाइये। फिर ये तो शादी करके भी नहीं लाया, भगाकर लाया है। ये ठाकुर भौत खराब हैं। भगवान जाने क्या होगा?"
मां के स्वर में भय उतर आया था। मेरे भीतर भी भय की फुरफरी सी उठ गई। मैं सब समझ गया। मेरे भीतर खदबदाते आ रहे सवाल का जवाब मुझे मिल गया था। ठाकुरों और जाटवों की रंजिशों की जाने कितनी ही कहानियां मैं गांव से सुन आया था।
उस दिन के बाद मैं राघौ भैया के आने का इंतजार करने लगा। मैंने पिताजी से कई बार राघौ भइया से मिला लाने की ज़िद की। मगर हर बार वो मझे यह कर कर टाल देते कि उन्हें नहीं मालूम कि राघौ कहां रहता है और कहाँ काम करता है। इस बीच दो-तीन महीने और बीत गए। राघौ भइया तो नहीं आये मगर एक दिन सुबह-सुबह भरतसिंह आया। भरत सिंह को मैं जानता था। वह हमारे गांव के एक ठाकुर का लड़का था। भरतसिंह था तो ठाकुर पर ठाकुरों जैसा उसमें कुछ भी नहीं था। वो एक सीधा-सादा लड़का था और राघौ भइया के जिगरी दोस्तों में एक था। उसका एक बड़ा भाई दिल्ली में ही काम करता था। इसलिए उसका दिल्ली आना-जाना लगा रहता था। वह मेरे पिताजी की भी बड़ी इज्+ज़त करता था। इसलिए जब भी दिल्ली आता तो मेरे पिताजी से जरूर मिलकर जाता। उसने बताया कि गांव में माहौल अब काफी शान्त है। ठाकुर भी अब थक हार कर बैठ गए हैं।
एक दिन ट्यूशन से घर लौटा तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। भीतर के कमरे में राघौ भइया चारपाई पर बैठे हुए थे। पहले तो उन्हें पहचानने में मुझे थोड़ी दिक्कत हुई। उन्होंने मूंछें रख ली थीं। मुझे अससमंजस में देखकर राघौ भइया हँस पड़े। यह उन्हीं की हँसी थी। उसके साथ-साथ उनके बगल में बैठी औरत भी हँस पड़ी। वो हँसी भी मुझे जानी-पहचानी सी लगी। उसकी गोद में एक सुंदर-सा बच्चा था। तभी मां चाय लेकर अंदर आई। मैंने इशारा करके राघौ भइया से उस औरत के बारे में पूछा- "...ये है तेरी भाभी। चल नमस्ते कर।" मैंने हाथ जोड़कर नमस्ते की। "चल जा...अपने चाचा के पास जा।" कहकर भाभी ने बच्चे को मुझे दे दिया। मैंने बच्चा गोद में उठा लिया। ताज्+ज़ुब था बच्चा मेरी गोद में आकर रोया नहीं। "कितना बड़ा हो गया?" "पूरे एक साल का हो गया।" "क्या नाम है।" "नाम...नाम है इसका चन्द्रभान" "बड़ा अच्छा नाम है।" "तुझे अच्छा लगा।" "हां" मैं उसे लेकर एक कोने में बैठ गया। "रामवीर ठाकुर को कैसे पता चला।"
मां ने भाभी की तरफ इशारा करते हुए पूछा। राघौ भइया ने पूरी कहानी सुना दी। "एक दिन हम दोनों ‘मिलन’ पर फिल्म देखने गए थे। वहां हमें रामवीर चाचा दिख गए। हम निगाह बचाकर निकलने लगे। मगर उन्होंने हमें देख लिया। वो हमारे पास आये और बोले कि मुझसे क्यूं डरते हो, बेटा। इसने उनके पांच छू लिए। उन्होंने इसके सिर पर हाथ रखा, इक्यावन रुपये दिये और बोले कि इसे मेरी तरफ से कन्यादान समझो। रामवीर ठाकुर हमारे ही गांव के ठाकुर थे। "रामवीर ठाकुर हैं तो अच्छे। पर हैं तो ठाकुर, पुराना खून हैं।" मां की आवाज में भय था। थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही। कोई कुछ नहीं बोला। "अरे चाची डरै मत। सब ठीक होगा।" राघौ भइया ने चुप्पी तोड़ी। "तेरे बाबा आये थे हियां।" मां ने पूछा। "दो बार आये। पहली बार आये तो मेरे संग खूब गाली-गलौच करके गए। जब इसने उनके पांव छुए तो उनके मन का गुबार निकल गया। बाद में खूब आर्शीवाद देके गए अपने पोते को। बता रहे थे कि ठाकुर आये दिन तंग करते रहते हैं, गाली-गलौच करते रहते हैं। पिछले हफ्ते आए तो कह रहे थे कि इसके बापू अब शांत हैं। कहने लगे हमारी लौंडिया अगर खुश है तो हमें क्या गम। वाकी खुशी में ही हम खुश हैं। अबकी जाओ तो बच्चों को कहना कि हमें हमारे नाती का मुंह तो दिखा दो।" "गांव मत जाना भैया...कभी मत जाना।" मैं बीच में ही बोल पड़ा। "अरे नहीं जाऊंगा। तू घबरा मत। शहर में रहकर भी डरता है।"
राघौ भइया हँसने लगे। मगर उनकी हँसी में पहले जैसी बात नहीं थी। उनकी हँसी मेरे सीने में धंसती चली गई। तभी बच्चे ने मेरी पेंट पर मूत दिया। मुझे अजीब सा महसूस हुआ। मेरे चेहरे को देखकर सभी जोर-जोर से हँसने लगे। उसके बाद मेरे दिन राघौ भइया के बारे मेंं सोचते हुए ही बीतने लगे। उनको लेकर मैं अक्सर एक भय से आतंकित रहता।
(5)
एक दिन मैं अपनी मां और छोटी बहन को लेकर ‘मिलन’ पर फिल्म देखने गया। पिताजी ने काम निबटाकर सीधे हाल पर पहुंचने का वायदा किया था। हमारे पास एक पास था। ‘मिलन’ में पिताजी की कोई जान-पहचान थी। नई फिल्म आने पर पिताजी अक्सर ही पास ले आया करते थे। हम हॉल के ‘मेन गेट’ के पास खड़े होकर पिताजी का इंतजार कर रहे थे। मैं उन्हें इधर-उधर देख रहा था। तभी मेरी नज़र एक लड़की और एक लड़के पर पड़ी। वे दोनों साथ-साथ खड़े थे चुपचाप। मैं हैरान था। मेरी हैरानी का सबब उनकी चुप्पी ही था। सिनेमा हॉल पर जब भी मैं किसी लड़का-लड़की को साथ-साथ देखता था तो उन्हें हमेशा एक दूसरे से बातचीत करते हुए ही देखता था। मगर ये दोनों एकदम चुपचाप थे। मुझे उनकी चुप्पी अजीब लग रही थी। तभी उनके पास एक बड़ी उम्र का एक आदमी आया। उसके घनी सी दाड़ी थी। वो आदमी उन दोनों से बातचीत करने लगा। उससे बातचीत करते हुए लड़का थोड़ा संयत दिख रहा था मगर लड़की घबड़ाई सी थी। अचानक वो दाड़ी वाला आदमी चीखने-चिल्लाने लगी। उसकी चीख-चिल्लाहट सुनकर उनके आस-पास लोग इकट्ठा होने लगे। मैं भी ज़रा उधर हो लिया।
मैं करीब गया तो पता चला कि वो आदमी उस लड़की को बुरी-बुरी गालियां दे रहा था। मामला क्या है, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। लड़की ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और रोते हुए ही उसे कुछ कहने लगी... फिर अचानक वो उसके पैरों में गिर पड़ी। लड़के ने उसे उठाया। वह आदमी क्रोध से तमतमा रहा था। अचानक उसने एक लड़की का हाथ पकड़ा और उसने खींचकर ले जाने लगा। यह देखकर भीड़ से सुगबुगाहट होने लगी। मगर उस आदमी से बोला कोई कुछ भी नहीं। लड़के ने दौड़कर उस आदमी के हाथों में लड़की का हाथ छुड़ाया...!!! मगर वह आदमी उस लड़की से चिपट गया। कोई कुछ समझ पाता इससे पहले ही उस आदमी ने अपने कुर्ते की जेब से चाकू निकाल कर लड़की के पेट में घुसेड़ दिया। उसने धड़ाधड़ तीन-चार वार और कर दिए। लड़की गिर पड़ी। वह खून से लहू-लुहान थी। उसको खूनमखून देखकर लड़का चीख-मार कर उस आदमी पर लपका। उस पर शायद हैवानियत सवार थी। उसने आव-देखा न ताव, लड़के पर भी भी-तीन वार कर दिए। लड़के की कमीज खून से सन गई। वह भी एक तरफ को गिर पड़ा। भीड़ में खड़ी औरतें चीखने-चिल्लाने लगीं। थोड़ी देर तक तो वह आदमी भी हक्का बक्का सा खड़ा रहा। फिर वह भागने लगा। उसको भागते देख भीड़ सक्रिय हो गई। कुछ लोग उस आदमी के पीछे भागे और पकड़ लिया और पीटने लगी। थोड़ी देर बाद पुलिस आ गई।
"मल्ला...मल्ला। इधर आ वहाँ क्या कर रहा है।”
पिताजी की आवाज़ थी। मगर मैं अपनी जगह से हिल न सका। पिताजी ने मेरे पास आकर मेरा हाथ पकड़ा और लगभग घसीटते हुए मां के पास ले आए।...ऐसी दुर्घटना के बाद फिल्म कौन देखता था। पिताजी ने झट एक स्कूटर वाले से बात की और हमें घर ले आये। घर में कोई किसी से कुछ नहीं बोला। मुझे बहुत घबराहट हो रही थी। मेरी कंपकंपी छूट रही थी। मुझे शायद भय के कारण बुखार हो गया था। जल्दी ही मैं सो गया...जब उठा तो रात हो चुकी थी। पिताजी मेरे पास आए उनके हाथ में पानी का गिलास था। उन्होंने एनासिन की एक एक गोली मुझे खाने को दी। मैं गोली खाकर फिर लेट गया तो मां बोली-"खाना तो खा ले।"
मगर मेरी भूख मर चुकी थी। मैंने मना कर दिया। उस रात मुझे बहुत बुरा सपना आया। मैं उस लड़के में राघौ भइया को देख रहा था। सुबह उठा तो देखा कि सामने वाली चारपाई पर राघौ भइया बैठे चाय पी रहे थे। उन्होंने मुझे देखा तो मुस्करा उठे। काफी देर तक मेरे मुंह से कोई बोल नहीं फूटा...काफी देर बाद मैंने एक ही बात कही... राघौ भइया गांव मत जाना...!!! "अच्छा नहीं जाऊंगा।" यह कहकर वो जोर-जोर से हँसने लगे। जाने क्यों राघौ भइया का इस तरह से हँसना मुझे अच्छा नहीं लगा।
अच्छा तो मुझे तब भी नहीं लगा जब दो-तीन महीने बाद मुझे पता चला कि राघौ भइया अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर गांव चले गए हैं। भरत सिंह भइया दिल्ली आये थे तो उन्होंने ही ये सब बताया। उन्होंने बताया कि भाभी के पिताजी ही आकर उनको गांव ले गए हैं। हमारे गांव के ही एक आदमी ने भाभी के पिताजी को उनका पता-ठिकाना बताया था। भरत सिंह ने ही बताया था कि राघौ गांव में खुश है। अब वो शायद दिल्ली नहीं लौटेंगे, गांव में खेती-बाड़ी करेंगे। अब सब ठीक है। "अब सब ठीक है।" सुनकर मुझे लगा कि कुछ भी ठीक नहीं है।
सिनेमा हॉल पर घटी वो घटना बार-बार मेरी आंखों में घूम जाती। मैं रोजाना राघौ भइया की सलामती की प्रार्थना करता। मगर तीन-चार महीने बाद गांव से जो खबर आई उसने मेरे होश उड़ा दिए। पता चला कि एक दिन भरी दुपहरी में किसी के खेत की मेड़ पर राघौ भइया की पत्नी और उनका बच्चा मरे पड़े मिले। खबर सुनते ही पिताजी गांव चले गए। दूसरे दिन वापस भी लौट आए। उनके चेहरे पर उदासी और मायूसी छाई हुई थी। अगले कई दिनों तक वो उदासी और मायूसी हमारे घर के भीतर बनी रही।
कुछ दिनों बाद वो खबर सुनने को मिली जो सिर्फ खबर नहीं थी। इस देश की हक+ीकत थी। गांव के उसी भूतिया बरगद के नीचे...टुकड़ों-टुकड़ों में राघौ भइया की लाश मिली...हिन्दुस्तान के अभिशप्त प्रेम की लाश..!!!
अपेक्षा के कहानी विशेषांक में प्रकाशित