अभिशप्त (पृष्ठ-1) / तेजेन्द्र शर्मा

Gadya Kosh से
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आज का दिन बाकी दिनों से कोई भिन्न नहीं है। रजनीकांत आज भी सुबह सवा छः बजे उठा; सुबह के कामों से निवृत्त हुआ, अपने लिए चाय बनाई और रात की बची रोटियों के साथ उसे गटक गया। रात की बची ठंडी रोटियां खाना रजनीकांत के लिए कोई मजबूरी नहीं है, बस सोचता है - कौन गरम करे! अंदर बेडरूम में बिजली-चालित कंबल की गरमी में आराम की नींद सो रहे हैं - निशा और हैरी।

हर रोज़ यही तो होता है। रजनीकांत पहले स्वयं उठकर तैयार होता है; नाश्ता करता है और काम पर जाने से पहले निशा को जगा देता है। निशा अलसाई-सी उठती है। आधी बंद आंखों से ही अपने काम निबटाती है। हैरी को जगाने में ही आधा घंटा लग जाता है। वह नख़रे करता है, ठुनकता है, रोता है, बिलबिलाकर उठता है और नन्हे-नन्हे हाथों से स्कूल जाने की तैयारी करता है। गोरा, चिट्टा गब्दू सा लगता है हैरी - हर्षद! निशा और रजनीकांत का पुत्र। निशा काम पर जाते-जाते कार से पुत्र को स्कूल छोड़ती जाती है।

रजनीकांत बस से अपने वेयर-हाउस चला जाता है।

आज भी हुआ तो यही सब। रजनीकांत 'हैरो-वील्ड' से बस में बैठा; फिर 'हैरो ऑन द हिल' से बस बदली और अपने वेयर-हाउस पहुंच गया। वहां दिन-भर बोझा ढोया और ओवर-टाइम करके रात नौ बजे वापस घर पहुंचा। घर आकर नहाया। लंदन में रात को नहाने की प्रथा का पहले-पहल रजनीकांत मज़ाक उड़ाया करता था। परंतु धीरे-धीरे उसे भी समझ में आने लगा कि गीले बालों के साथ सुबह-सुबह बाहर निकलना बीमारी को खुली दावत देना है, इसलिए अब वह रात को ही नहाता है, और हां नहाने के बाद पूजा अवश्य करता है। वही उसने आज भी किया। फिर आदत के अनुसार उसने बीयर का डिब्बा खोला और ठंडी बीयर को अपने शरीर में उतारने लगा।

किंतु आज दो डिब्बे बीयर पीने के बाद भी वह तरो-ताज़ा महसूस नहीं कर रहा था। जैसे एक बोझ उसे दबाए जा रहा था। वह बोझ कई बार रजनीकांत के दिलो-दिमाग़ को झकझोरता रहता है; और उसे इस हद तक परेशान कर देता है कि वह रात-भर करवटें बदलता रहता है। निशा और रात के होते हुए भी रजनीकांत सो नहीं पाता।

जब से लंदन में 'ज़ी' चैनल टेलीविजन पर दिखाया जाने लगा है, रजनीकांत रात को कुछ समय तक हिंदी के कार्यक्रम अवश्य देखता है। आज भी टेलीविजन पर हिंदी फ़िल्म चल रही है। रजनीकांत ने फिल्म बीच में से देखनी शुरू की है। कलाकारों और गीत से अदांज़ लगाने की कोशिश कर रहा है कि फ़िल्म का नाम क्या हो सकता है। वैसे नाम पता चल जाने से क्या होगा? सभी हिंदी फिल्में अंतत: होती तो एक सी ही हैं। उनमें कोई बदलाव तो आने से रहा, ठीक रजनीकांत के अपने जीवन की तरह।

रजनीकांत ने बीयर के खाली डिब्बे की ओर देखा और कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। टेलीविज़न पर चल रहे दर्द-भरे गीतों के साथ अपना सुर मिलाता रहा। फिर एक झटके से उठा और स्कॉच की बोतल निकाल ली। गिलास में बर्फ़ के टुकड़े डाले और उन पर व्हिस्की उंड़ेलने लगा। उसे 'ग्लेन फिड़िश', 'आन दी राक्स' ही अच्छी लगती है। गांव में कहां शराब पीता था, वहां तो 'बा' थी, 'बापूजी' थे। वहां तो शराब के बारे में सोचना भी पाप था। वहां तो छाछ पीता था, या फिर चाय। समय और स्थान के साथ-साथ पेय भी बदल जाते है, और पीने वाले भी।

पानी में तिड़कती-पिघलती बर्फ़, बाहर आसमान से रुई के फाहे सी गिरती बर्फ़; रजनी और निशा के संबंधों में पैठी बर्फ़ - हर तरफ ठंड-ही-ठंड - एक सर्द......भयानक सर्द सन्नाटा  ! शायद बर्फ़ सी ठंडी स्कॉच रजनीकांत के जिस्म को थोड़ी गर्मी और दिमाग़ को सुकून दे सके ! ...सोच उसका पीछा नहीं छोड़ती... स्कॉच ने बीयर के साथ मिलकर उसके दिमाग में हलचल मचा दी है। रह-रहकर एक ही प्रश्न उसे मथे जा रहे था - मैं यहां इस देश में क्या कर रहा हूं? ...क्यों कर रहा हूं? ...अपनों से दूर ...इतनी दूर...! मैं यहां करने क्या आया था? ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उसे परेशान किये रहते हैं।

परेशानी ने उसका साथ पिछले सात वर्षों में कभी नहीं छोड़ा। अब तो हालत यह हो गई है कि यदि किसी परेशानी ने उसे न घेर रखा हो तो वह बेचैन हो उठता है कि कोई परेशानी है क्यों नहीं। एक बार फिर वह अतीत की गलियों में खो गया था।

...बापूजी तो आनंद में भी मज़दूरी ही किया करते थे। अपने रजनी का जीवन संवारने की चाह ने उन्हें मजबूर कर दिया कि किसी भी तरह रजनी को कॉलेज भेजने का जुगाड़ करें, और किया भी। गुजराती माध्यम से रजनीकांत बी0ए0 पास हो गया - इतिहास और राजनीति शास्त्र में बी0ए0 की डिग्री से नौकरी का जुगाड़ होता भी तो कैसे। नौकरी उसे कोई नहीं मिली। भला बापूजी अपने पढ़े-लिखे पुत्र को मजदूरी कैसे करने देते!

अब रजनीकांत भी सोचने लगा कि वह अपने गांव से कहीं दूर चला जाए, इतनी दूर कि उसे पहचानने वाला कोई न हो। वहां और कुछ नहीं तो कम से कम पेट पालने के लिए मज़दूरी तो कर पाएगा। दूर की बहन गांव आई है। बहुत दूर रहती है - लंदन! बापूजी अपनी चिंता उसके सामने लेकर बैठ जाते हैं, 'बेटी, मुझे तो रजनी की चिंता खाए जा रही है। उसकी यह बी.ए. की डिग्री तो गले की फांस बनती जा रही है। ...समझ नही नहीं आता कि क्या करूं?'

'करना क्या है मौसाजी, बस हमारे साथ लंदन भेज दीजिए, बाकी हम पर छोड़ दीजिए, वहीं इसकी शादी करवा देंगे। देख लीजिएगा, एक बार वहां पहुंच गया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखेगा।' बापूजी परेशान! पुत्र को सदा के लिए खो दें या यूं ही भटकने दें। रजनीकांत ने भी दूर की बहन की बात दूर से सुन ली थी। लंदन में विवाह! तो फिर स्नेहा का क्या होगा? स्नेहा भी तो रजनीकांत के साथ सपने देख रही है! ...रजनी की नौकरी लगेगी तभी तो स्नेहा की मां आकर 'बा' से बात शुरू करेंगी। क्या लंदन वाले रजनीकांत के जीवन में स्नेहा के लिए कोई स्थान होगा?

अभी तो काफ़ी समय है। पासपोर्ट बनेगा, वीज़े के लिए मुंबई जाना होगा। क्या स्नेहा के प्रेम को अभी से भूलना होगा? यदि विवाह किसी और से होना है तो क्या स्नेहा से प्रेम करना उचित होगा? क्या विवाह प्रेम की कसौटी है? क्या प्रेम केवल शारीरिक संबंध या वासना ही है? किंतु रजनीकांत ने तो आज तक स्नेहा को वासना की दृष्टि से छुआ तक नहीं।

उसका प्रेम तो बस एक-दूसरे के साथ बैठने या बोलने तक ही सीमित है। उसने तो आज भी स्नेहा से मिलने के लिए समय तय कर रखा है - पतली, छरहरी और गोरी-सी स्नेहा! माता-पिता की इकलौती संतान, कॉलेज में पढ़ रही है। गृह-कार्य में दक्ष है। क्या पासपोर्ट, वीजा और लंदन के बोझ के नीचे उसकी स्नेहा दम तोड़ देगी?

निशा उठकर कमरे से बाहर आ गई है। 'क्या कर रहे हो? ...यह क्या? अभी खाना खुरू भी नहीं किया?'

'अभी तो गरम ही नहीं किया।'

'क्या कर रहे हो इतनी देर से? ...अभी तक ड्रिंक खत्म नहीं हुआ?'

'बस यूं ही, ज़रा फ़िल्म देखने बैठ गया था।'

'अच्छा तुम बैठो, खाना मैं गरम कर लाती हूं।'

'नहीं, तुम क्यूं नाहक परेशान होती हो, मैं ख़ुद ही गरम करके खा लूंगा, जाओ, तुम सो जाओ।'

'तुम्हें पता तो है, जब तक तुम बिस्तर में नहीं आ जाते मुझे नींद नहीं आती! ...मैं खाना गरम कर लाती हूं।'

अजीब संबंध हैं, रजनीकांत और निशा के बीच। चाहे दिन-भर एक दूसरे से बात भी न करें, किंतु रात को बिस्तर में निशा को जब तक उसका हक ना मिल जाए, उसे तृप्ति नहीं होती। वह प्यार भी तर्क की कसौटी पर चाहती है। निशा की बात ने रजनीकांत की भूख ही उड़ा दी है।

निशा अपनी सफ़ेद झीनी नाइटी पहने रजनीकांत का भोजन ले आई। रजनीकांत को एक विचित्र-सी आदत है। वह खाने के साथ, पानी के स्थान पर ठंडा दूध पीता है। ...भारत में भी तो दूध के वतन में ही रहता था। ...निशा की नाइटी उसकी मांसलता को ढक नहीं पा रही है। हैरी के जन्म के निशान निशा के शरीर पर साफ़ दिखाई दे रहे हैं। इन सबसे बेखबर रजनीकांत भोजन शुरू कर देता है।

दूध के गिलास में स्नेहा दिखाई देती है, तो सामने साक्षात निशा दिखाई दे रही है। निशा चाह रही है कि रजनीकांत शीघ्रता से भोजन समाप्त करे और उसे अपनी बाहों में भर ले, लेकिन रजनीकांत के चिंताग्रस्त दिमाग को न तो भोजन में रूचि है और न ही निशा में। मन-ही-मन वह जानता है कि अपना कर्तव्य तो उसे निभाना ही पड़ेगा, नहीं तो, अगले दो दिन लड़ाई-झगड़े की भेंट चढ़ जाएंगे ...निशा के हिसाब से जैसे सुबह का नाश्ता, दोपहर और रात का भोजन और नींद आवश्यक है; उसी तरह हर रात बिस्तर का आनंद भी आवश्यक है, और फिर वह सोचती है कि वह यह सब अपने पति से ही तो मांगती है, व्याभिचार तो नहीं करती। अच्छा है कल रविवार है, कल रजनीकांत देर तक सोएगा और... नाश्ता भी गरम और ताज़ा करेगा।

नाश्ते से पहले रात की नींद रजनीकांत को सपनों के उड़नखटोले पर बिठाकर वतन वापस ले आई। वहां वह सब कुछ देख सकता है, महसूस कर सकता है। उसकी छोटी बहन शालिनी मां के साथ अपने दु:ख-दर्द बांट रही है। शालिनी का पति उसकी गोद में दो बच्चियां डालकर, उसे इस संसार की कठोर सच्चाइयों का सामना करने के लिए अकेली छोड़ गया है। आज मां के जिस पत्र ने उसे परेशान कर रखा है, उसमें यही तो लिखा है।

रजनीकांत पत्र का उत्तर पाने की मां की बेचैनी को महसूस करता है...।

'शालिनी बेटी, डाकिया आया था क्या?'

'हां मां, वह तो पांच बजे ही चक्कर लगा गया था।'

'रजनी की कोई चिट्ठी-पत्री आई?'

'नहीं मां, आज तो कोई भी चिट्ठी नहीं आई।'

'मैंने उसे लिखा है बेटी, कि तेरी बच्चियों की यूनिफ़ार्म सिलवानी है और फिर छत भी ठीक करवानी है। पिछली बरसात में तो बहुत पानी टपक रहा था।'

'मां, भैया को क्या वहां कम दिक्कतें होंगी ? जितना बड़ा शहर होगा, मुसीबतें भी तो उतनी ही अधिक होंगी।'

'वो तो मैं भी समझती हूं बेटी, मगर इस वक्त उसके अलावा मदद की उम्मीद और कहां से कर सकती हूं। अब तो उसे गए कई साल हो गए। अब तक तो सैटल हो गया होगा।'

'...मां, मैं कल दूध की सोसायटी में गई थी, शायद मुझे वहां काम मिल जाए।'

'अच्छा!... मैं तो कहती हूं जहां रहे सुखी रहे, कभी कोई परेशानी उसे छुए भी नहीं।'

परेशानी तो रजनीकांत को बिस्तर पर करवटें बदलने को मजबूर कर रही थी। ...बेबस और लाचार रजनीकांत! निशा अपने हिस्से का सुख पाकर कितनी चैन की नींद सो रही है। अब यदि रजनीकांत बिस्तर छोड़कर सारी रात दूसरे कमरे में भी बैठा रहे, तो भी निशा को कुछ पता नहीं चलेगा।