अभिशप्त / पृथ्वी पाल रैणा
कहानी: पृथ्वी पाल रैणा
गर्मियों के दिन थे फाइनल परीक्षा सिर पर थी। सभी लड़के अपने कमरों में रह कर परीक्षा की तैयारी में व्यस्त थे। मैं और रंजीत एक प्राइवेट होस्टल में रहते थे जिसमें ज्यादर तर बीएड के लड़के रहते थे। उन दिनों बीएड की परीक्षाऐं समाप्त हो चुकी थी इसलिए सभी लड़के कमरे खाली कर के जा चुके थे। मैस भी बंद हो चुका था। हमारे दोनों के सिवा आजकल वहाँ कोई नहीं रहता था। पढ़ाई ठीक से कर सकें इसलिए बाज़ार में भी कुछ लड़के कमरा लेकर रहते थे। उस दिन रंजीत ने उनके साथ रात को फिल्म शो देखने का प्रोग्राम बना लिया था जिसके लिए मैंने मना कर दिया था। उन लोगों के जाने के बाद मैंने पतीले में चावल उबाल कर रख लिए थे और बाजार से दही भी ले आया था। काफी देर तक पढ़ते पढ़ते पता नहीं कब नींद आगई और यों ही अधलेटा सा सो गया।
रात काफी होचुकी थी पता नहीं कब तक सोया रहा कि अचानक दरबाज़े पर दस्तक हुई और मैं आँखे मलते और लडख़ड़ाते हुए लिए उठा और दरबाज़ा खोलकर खोल कर फिर बिस्तर पर टांगें लटका कर बैठ गया और आँखें मल कर बाहर देखने लगा कि कोई अंदर आया क्यों नहीं। मैंने देखा जैसे रंजीत बाहर ही खड़ा रह कर मुझे बाहर आने के लिए इशारे से बुला रहा था। पता नहीं क्यों मैंने सोचा और बाहर आगया। रंजीत पीछे की ओर मुड़ा और मुझे अपने पीछे आने का इशारा कर के चलने लगा। मैं भी उसके पीछे चलने लगा। हम लोग नदी की ओर जाने वाली 108 सीढिय़ाँ उतर कर सड़क पर पहुंच गए और नदी के पुल की ओर निकल गए। पुल से थोड़ा सा पहले एक हल्की सी ढलान थी और कुल्ह पार करके एक बहुत सुंदर सा मैदान था जो चारों ओर से झाडिय़ों से घिरा था। मैं कभी इस ओर आया नहीं था इसलिए मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। मैंने रंजीत को पूछना चाहा कि इतनी सुंदर जगह की खोज उसने कब और कैसे की लेकिन उसने अपने होठों पर उंगली रख कर मुझे चुप रहने को कहा तो मैं चुप होगया। मैंने पूछना चाहा कि इस समय वह मुझे यहाँ क्यों लाया है तो भी उसने मुझे घूर देखा जैसे एकदम चुप रहने के लिए कह रहा हो। मैं थोड़ा सा सहम गया क्योंकि रंजीत का व्यवहार मुझे कु छ अजीब सा लग रहा था, इस तरह का कठोर व्यवहार उसने कभी किया नहीं था। मेरे हिसाब से तो वह एक निहायत ही शरीफ और सीधा सादा लड़का है फिर आज यह ऐसा क्यों कर रहा था, मैं सोच ही रहा था कि उसने अजीब अंदाज में सीटी बजाई। मैं थोड़ा सा घबराया भी क्योंकि मैंने रंजीत को इस तरह दबंग अंदाज में सीटी बजाते कभी देखा नहीं था। मेरी सोच थोड़ा सा आगे चलती इससे पहले ही चार लोग एक लम्बा सा कॉफिन के बाक्स जैसा कुछ उठा कर ले आए और वहाँ लाकर रख दिया।मैं आवाक् रह गया और यह सोचने ही लगा था कि यह हो क्या रहा है कि इतने में रंजीत ने उस बॉक्स का ढक्कन खोल दिया। मैंने बॉक्स में झांक कर देखा तो मेरा शरीर जैसे जड़ होगया और एक अजीव सी ठंडक भरी सिहरन मेरे शरीर में ऊपर से नीचे तक दौड़ गई। उस बॉक्स में एक नरकंकाल था जो अजीब ढंग से चमक रहा था, उससे रंगबिरंगी किरणें निकल रही थी। रंजीत ने नीचे झुक कर उसमें से एक भूरे रंग ही छोटी सी हड्डी निकाल कर मेरी ओर बढ़ाकर अपने हाथ में पकडऩे के लिए कहा। मैंने हाथ बढ़ाकर हड्डी हाथ में पकड़ ली। रंजीत का चेरिा अभी भी दूसरी ओर ही था और मैं उसे देख नहीं पा रहा था। उसने उस कंकाल से एक एक करके हड्डियाँ निकाल कर उन लोगों के हाथों में देकर एक हड्डी अपने हाथ में ले ली तब मेरी ओर मुड़कर देखा। उसने हुक्मियाँ अंदाज़ में इशारे से मुझे उस हड्डी को खाने के लिए कहा। मैंने देखा कि उसके सारे साथी इधर उधर पत्थरों पर बैठ कर हड्डियाँ चबाने लगे थे। मैंने रंजीत की ओर गौर से देखा तो बुरी तरह से काँप गया क्योंकि मेरे सामने एक सपाट नीले चेहरे वाला संबेदनहीन बुत हवा में लटका खड़ा था जिसे मैं रंजीत समझ रहा था। अब सोचने का समय नहीं था, मैं मुट्ठियाँ भींचे धीरे धीरे पीछे हटने लगा।
जैसे ही मेरे पाँव कुल्ह के ठण्डे पानी में पड़े एकदम जैसे भूचाल सा आगया, मैं पूरी तरह जग गया था। इधर उधर उड़ती हुई नज़र से परिस्थिति को भांपने की कोशिश करते ही ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं किसी और ही दुनिया में था और अचानक इस सुनसान में आ गिरा हूँ। वहां कोई भी नहीं था। न रंजीत, न वे उसके चार चमचे और न वह सुन्दर मैदान वहां तो भीषण सन्नाटे का साम्राज्य पसरा पड़ा था। स्थान और समय का करिश्मा ही है परिस्थिति जिसमें नदी के किनारे की शीतल बयार आधी रात को शमशान घाट की दिल दहलाने वाली सायं-सायं भी हो जाती है। मैंने भागना ही ठीक समझा और वह भी जितना तेज़ भागा जा सके। मुझे याद नहीं कि मैं कभी पहले इतना तेज़ भागा था या नहीं लेकिन आज और कोई चारा था ही नहीं। भागते भागते मैंने जऱा सी भी कोशिश पीछे मुड़ कर देखने की नहीं की, लेकिन कुछ ऐसा एहसास सा हो रहा था जैसे कोई मेरे कंधे के साथ हवा की तरह बहता हुआ बिना किसी छेड़-छुणक के चला आ रहा है और लगातार बिना किसी आवाज़ के कुछ कहता जा रहा है कि भागो मत रुक जाओ। ठहरो...रुको...मेरी बात तो सुनो...धीरे धीरे वह आवाज़ धीमी होती जा रही थी जैसे हवा की सरसराहट में घुलती जा रही थी। कभी मेरे भीतर और कभी बहुत दूर महसूस हो रही थी...वह कहता जा रहा था...मेरा कोई चेहरा नहीं...मेरे पास तुम्हारी तरह देखने के लिए आंखें नहीं...पकडऩे के लिए हाथ नहीं...चलने के लिए पैर नहीं...मुझे भूख नहीं लगती...मुझे सर्दी-गर्मी का भी कोई ऐहसास नहीं होता...मैं इस असहाय, नीरस और निर्जीब अस्तित्त्व के संघर्ष में बुरी तरह फंस गया हूं...कोई तो मुझे इस अनस्तित्त्व की स्थिति से बाहर निकालो... मैं भी रोशनी की सत्ता में लौटना चाहता हूं... मेरी मदद करो........उसकी आवाज़ जैसे सिसकियों में बदलती जारही थी और फिर अचानक एक सर्द आह में बदल कर बंद हो गई। मैं सरपट भागता रहा जब तक होस्टल के गेट पर नहीं पहुंच गया। वहां भी मैं शायद नहीं रुकता यदि ठोकर खाकर गिर न जाता। गिरते ही मेरे दोनों हाथ खुल गए और अचानक ख्याल आया कि मैंने मुट्ठी में कुछ पकड़ रखा था। मुट्ठी खुलते ही हथेली में जलन सी महसूस ज़रूर हो रही थी लेकिन वहां था कुछ नहीं। उसी समय संयोगवश ऊपरी मंजि़ल में किनारे के कमरे का दरबाज़ा फटाक से बंद हुआ जैसे किसी ने अंदर जाकर बंद किया हो।
वहां कोई रहता तो था नहीं फिर यह आबाज़ कैसी है और यह सिसकियां किस की हैं। मेरे पास सोचने का वक्त तो था पर हिम्मत नहीं बची थी। ऐसा लग रहा था जैसे होस्टल का भवन मोम का बना हो और सूरज के निकलते ही पिघल जाएगा। सारा शहर जैसे गहरे नीले आकाश में तैरता हुआ शाम का सुनहरा बादल है जो सूरज के ढलते ही काला ढींखर और डरावना हो जाएगा। सारे लोग जो अपने अपने तराशे हुए सपनों के घरौदों में चैन से सोए हैं अभी अदृश्य हो जाऐंगे, कभी न कभी सारे भूत बन कर हवा में तैरने लगेंगे...इसलिए अंदर जाने के बजाए मैं रेलवे स्टेशन की ओर चल दिया। रात अंधेरी थी लेकिन कच्ची सड़क फिर भी हल्की हल्की दिख रही थी। मैं एक यन्त्र सा चलते चलते पक्की सड़क तक पहुंच गया और एक पैरापिट पर बैठ गया। मैं वहां कितनी देर तक और क्यों बैठा रहा कुछ याद नहीं। रेलवे स्टेशन पर इंजन की आबाज़ ज़रूर सुनाई दी थी ऐसा थोड़ा सा याद आ रहा है। रंजीत और दूसरे दोनों दोस्त जब आए तो आधी रात को मुझे पैरापिट पर बैठा देख कर हैरान रह गए लेकिन मुझ में हालात बयां करने की हिम्मत नहीं थी इसलिए चुप ही रहा हां इतना ज़रूर कहा था कि मैं अपने कमरे में नहीं जाऊंगा। उन लोगों ने बिना कुछ कहे सुने यह तय किया कि आज रमेश के कमरे में ही सो जाते हैं, थोड़ी सी रात तो बची है सुबह देखेंगे। रात को मुझे न पूरी तरह नींद आई और न मैं उनके बीच फिल्म की कहानी को लेकर हो रही चर्चा में शामिल हो पाया।
सुबह हुई तो हम अपने कमरे में आगए जो बैसे ही खुला पड़ा था। रंजीत के पिता जो रात की ट्रेन में ड्यूटी पर थे और रात को रेलवे स्टेशन पर ही रुके थे, हमारे कमरे में आए तो कुछ गम्भीर होकर इधर उधर जाँच परख करने लगे। उन्होंने हल्के से पूछा रात को कुछ हुआ था क्या? मैंने उन्हें रात की बात थोड़े से शब्दों में बता दी। उन्होंने रेलवे की नौकरी में रात-बरात आते जाते अपने अनुभव से ही सीखा होगा इस प्रकार की परिस्थितियों से निपटने का तरीका। सभी चुप थे, तभी उन्होंने कागज़ के कुछ टुकड़ काटे और उन्हें एक खास अंदाज़ में बीड़ी की तरह गोल लपेटा फिर मन ही मन कुछ जाप करते हुए एक एक करके उन्हें दियासलाई से जला कर उनका धुंआ फूंक मार कर मेरे चेहरे पर फेंका। काफी देर ऐसा करने से मुझे गहरी नींद आगई और मैं लम्बे समय तक सोता रहा। मुझे पता नहीं कि उन्होंने क्या कहा और वे कब वहां से गए। जब मैं जगा तो छह नम्बर वाले सरदार अमरीक सिंह जी वहाँ बैठ कर अपने ठेठ पंजाबी अंदाज़ में कह रहे थे- 'रंजीते तु मन्न मेरी गल्ल एह कम हैगा ओहदा ही, मेरे सामने दी गल्ल है पिछले साल जद ओहनू गलफाहा लए हाले दो दिन होए सी ताँ ओहदा रूमेट रोंदा कल्पदा मेरे कोल आया कि यार एहे विनै सारी रात सोण नी दिंदा, कमरा भी बदल लेया फिर भी कदे मंजे दे थल्ले ते कदे खिड़की ते बैठा रोंदा पेया रैहंदा है, की करिए। उदों असीं इक बाबा सद्देया सी ओह कुछ कर के गिया सी ताँ साल भर कुछ नी होया। अज एह नवां सियापा पै गिया हुण फेर कुछ करना पऊ।
मुझे उसकी बातें एकदम बकवास लग रही थी। मैंने उसकी बात पर कोई प्रतिक्रिया किए बगैर मुँह दूसरी ओर फे र लिया और फिर से सोने का बहाना बना कर यूं ही लेटा रहा। मैं कोई बात नहीं करना चाहता था। मैं भयभीत नहीं था। यह सब क्या था, इसका कोई सिरा हाथ नहीं आ रहा था इस बात से उलझन में ज़रूर था। मुझे नींद में चलने की आदत भी नहीं थी। फिर यह सब आज ही मेरे साथ क्यों हुआ जब मैं होस्टल में अकेला था और रात भी अंधेरी थी। क्या यह मात्र संयोग है या जो लोग कहते हैं वही सच है। कहानियाँ तो कई सुनी थी लेकिन ऐसा लगता था कि यह सब मनघड़ंत किस्से होते हैं क्योंकि जो कहानियाँ सुनाते थे वे कभी उन के निजी अनुभव नहीं होते थे इसलिए उन पर विश्वास करने को मन नहीं करता था। हो सकता है कि मैंने भी किसी सुनी सुनाई बात को गम्भीरता से ले लिया हो और नींद नींद में ही यह सब स्वप्र की तरह गुज़र गया हो लेकिन मैंने तो कभी यह बात सुनी भी नहीं थी कि कभी ऐसी कोई घटना यहाँ घटी भी थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक समय में जितने भी लोग इस संसार में मौजूद हैं वे सब एक दूसरे से आत्मा के स्तर पर जुड़े होते हों और सब का एक दूसरे के साथ कोई न कोई रिश्ता रहता हो तथा सीधे तौर पर एक दूसरे से परिचित भी हों या नहीं इस से कोई अन्तर नहीं पड़ता हो। हो सकता है कि तथा कथित विनय अकेले में किसी से कुछ कहना चाहता हो, आखिर व्यक्ति कुछ इच्छाओं, आकांक्षाओं के अतिरिक्त और है भी क्या! जो भी हो, अमरीक सिंह ने कुछ किया या नहीं, फिर से विनय ने ऐसी कोई हरकत की या नहीं यह तो मैं नहीं जानता लेकिन मैं वहाँ लगभग एक महीना और रहा था और उस दौरान कोई प्रिय अप्रिय घटना नहीं घटी। मैं फिर उस ओर कभी गया भी नहीं। सुना है कि वह इमारत तोड़ दी गई थी और अब वहाँ एक नई भव्य इमारत बना दी गई है। सोचता हूं क्या उस अभिशप्त अनस्तित्त्व से विनय की आत्मा को छुटकारा मिल गया होगा। क्या वह घुल मिल गई होगी रेत, सीमेंट, बजरी और स्टील के जाल में कहीं या फिर यह भी तो हो सकता है उसे आंख, कान, हाथ-पैरों के साथ साथ अपना एक चेहरा भी मिल गया हो और वह अपने साथियों के साथ अपने कंकाल की हड्डियाँ समेट कर किसी दूसरी दुनियाँ में उतर गया हो इस दुनियाँ की सारी यादें अपने साथ लेकर।
जब शरीर नहीं रहा तो देखने के लिए आँखें भी नहीं रहीं, सुनने के लिए कान भी नहीं रहे, सर्दी गर्मी का ऐहसास दिलाने वाली त्वचा भी नहीं रही, चलने के लिए पैर नहीं और पकडऩे के लिए हाथ भी नहीं रहे तो फिर यूं ही हवा बन कर लटके रहने का प्रयोजन क्या? ऐसे में केवल दो ही विकल्प शेष रहते हैं-या तो कण कण में बिखर जाओ, जो अहंकार के रहते सम्भव नहीं लगता; या फिर से एक आश्रय ढूँढ कर अपनी आकांक्षाओं और तृष्णाओं की गठरी कंधे पर बांधे नई यात्रा आरम्भ कर दो...एक नए चेहरे के साथ नया जन्म लेकर फिर से मरने के लिए...फिर से भूत बन जाने के लिए...