अभिशाप / आलोक कुमार
अवध नारायण अपने गाँव शंकरपुर में अपनी डीह पर बूढ़े पिता के साथ रहते थे। माँ बचपन में ही गुजर गई थी। दोनों बाप बेटे मिलजुल कर खाना बनाते और अपनी थोड़ी-सी खेती और गाय के झुंड की देखभाल करते। अपनी डीह पर केवल दो प्राणी और आसपास के लोगों का बड़ा परिवार था।
मासूम अवध नारायण अपने पिता से पूछते-'बाबूजी और लोगों का इतना भरा-पूरा परिवार है, चाचा, ताऊ, चचेरे भाई, गोतिया-दियाद, पर अपना तो कोई नहीं है'।
बाबूजी एक ठंडी सांस लेते और बोलते-'बेटा इस डीह पर जहाँ तक मुझे याद है, बस एक ही बेटा पैदा होता है। पता नहीं ये कैसा अभिशाप है इस डीह पर कि वंश बेल यहाँ बढ़ता ही नहीं। मैं एक, मेरे बाबूजी एक, मेरे दादाजी एक और अब देखो, तुम भी एक, तो फिर चाचा, ताऊ, गोतिया-दियाद कहाँ से होगा'।
अवध नारायण का पूरा बचपन बाबूजी के प्यार के सहारे ही गुजरा। बाक़ी जगह या तो था तिरस्कार या थी सहानुभूति। दूसरे बच्चों से झगड़ा भी होता तो दब जाते क्योंकि इनकी पीठ पर ख़ुद के अलावा दूसरा कोई और लड़नेवाला नहीं था। खेत अपना था लेकिन लहलहाते फ़सल के बीच गाँव का कोई आदमी अपने मवेशी को घुसा देता। जब पता चलता तो वह हँस देता। बोलता-'अरे पशु ही है, घुस गया तो क्या हुआ निकाल दो'। मासूम अवध नारायण इन बातों से बहुत आहत होता। जी करता कि उनके मवेशियों को लाठी से पीटकर खेत से निकाल दें, लेकिन डरता कि बात बढ़ गई तो फिर लेने के देने पड़ जाएंगे। गाँव वालों के इन्हीं तिरस्कार व सहानुभूति के बीच वह पहले किशोर व फिर जवान हो गया। लेकिन एक बात उसके जेहन में घर कर गई कि ताकत के बगैर जीना बेकार है।
जब से थोड़ी बुद्धि हुई तभी से कुश्ती शुरू कर दिया। अखाड़े में नियमित जाने से कुछ और लड़कों से दोस्ती हुई। हालांकि कद-काठी ने उनका उतना साथ नहीं दिया लेकिन दांव-पेंच से कुश्ती के अच्छे खिलाड़ियों में उनकी गिनती होने लगी। जब बड़े हुए तो एक पहलवान के रूप में उनकी ख्याति थोड़ी बढ़ी और कुछ छोटे लड़के उनसे कुश्ती के दांव-पेंच सीखने भी आने लगे। आदमी जिस चीज की लालसा रखता है, अपना सारा ध्यान उधर ही लगा देता है। वह भी अपना पूरा ध्यान अपने शारीरिक सौष्ठव और दोस्तों के साथ दोस्ती गाँठने में लगाता।
दिन तेजी से बीत रहा था। इस बीच उसकी शादी भी हो गई। बचपन की कुंठा थोड़ी कम हुई। खेती इतनी थी कि आराम से घर चल जाता था। लेकिन एक बात हमेशा दिल को कचोटती। कारण ये था कि उसके खेत का एक-दो टुकड़ा गाँव के ही दबंग जबरन जोतते थे। उसकी फ़सल पर उन दबंगों का ही अधिकार था। जब थोड़ा आत्मविश्वास बढ़ा तो एक साल एक खेत को, जिसे अब तक गाँव का ही कोई दबंग जबर्दस्ती जोतता था, उसने ख़ुद ही जोता। गाँव में बड़ी हलचल हुई। दबंग के लठैत लाठी भाला लेकर खेत में पहुँच गए लेकिन उसका आत्मविश्वास डिगा नहीं। अकेले अपने एक दो साथियों के साथ लाठी लेकर खेत में डट गया। अंग्रेजों का जमाना था। कानून से लोग डरते थे। जब दूसरे पक्ष ने देखा कि अवध नारायण आज प्रण करके आया है कि जब तक जान है तब तक लड़ेंगे तो उसने अपने लठैतों को वापस आने का इशारा किया और खेत पर अपना दावा छोड़ दिया। ये अवध नारायण की पहली जीत थी और आज उसे पहली बार लगा कि इस गाँव में उसका भी कोई अस्तित्व है।
समय के साथ घर में एक नया मेहमान आया तो वह ख़ुशी से फूला न समाया। उनकी धर्मपत्नी स्वयं पढ़ी लिखी तो नहीं थी लेकिन उनके मायके में उनके भाई पढे लिखे थे। उन्होंने उसी वक़्त फ़ैसला ले लिया कि बच्चा बड़ा होकर अपने ननिहाल में अपने मामा के पास पढ़ाई करेगा। अवध नारायण इस बात से सहमत नहीं थे। उनका तो मन था कि इस डीह पर बच्चों की किलकारियाँ गूँजे लेकिन होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। कुछ दिनों के बाद घर में एक और बच्चे ने जन्म लिया लेकिन महज़ 5-6 दिनों में ही चल बसा। उनका मन हमेशा सशंकित रहता कि पता नहीं इस डीह पर दूसरा बेटा होगा या नहीं। जब दो वर्ष बाद एक और बेटा हुआ और कुछ दिनों बाद वह भी चल बसा तब अवध नारायण का मन पूरी तरह से डर गया। सबसे पहले तो उसने अपने बड़े बेटे को ननिहाल उसके मामा के पास भेज दिया और घर में गृह शांति के लिए पूजा पाठ भी कराया। इससे कुछ फायदा हुआ या नहीं परंतु उसके मन को शांति अवश्य मिली। पूजा पाठ का प्रताप था या कुछ और एक बार फिर से एक और बेटे का जन्म हुआ। इस बार दोनों प्राणी काफ़ी चौकन्ने थे और पंडितजी द्वारा बताई गई सारी प्रक्रियाओं का पालन भी कर रहे थे। बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा और जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ती गई, अवध नारायण का डर भी कम होता गया। उनकी धर्मपत्नी इस बेटे को भी ननिहाल भेजना चाहती थी लेकिन इस बार अवध नारायण अड़ गया और इस पुत्र को अपने पास ही रखा। इसके बाद एक-एक कर दो और पुत्र हुए और कुछ ही दिनों में डीह पर बच्चों की किलकारियाँ गूंजने लगी। अवध नारायण बच्चों की किलकारियों से फूला न समाता। लगता चलो इस डीह का अभिशाप मिटा। वंश बेल ने पहली बार एक से ज़्यादा शाखाएँ देखी थी।
धीरे-धीरे बच्चे बड़े होने लगे। वे सब गाँव के स्कूल में ही पढ़ने जाते। बड़ा बेटा इन सबसे ज़्यादा बड़ा था और जब आई॰ एससी॰ करने के बाद दूर के एक गाँव में हाई स्कूल में बतौर साइन्स टीचर बहाल हुआ तो अवध नारायण की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। गाँव में घूम-घूम कर सबको बताया कि बड़ा वाला लड़का स्कूल में मास्टर हो गया है। फिर सारे छोटे भाई बड़े वाले के पास रहकर ही पढ़ने लगे। अवध नारायण खुश था, लेकिन एक बात उसे खटकती थी कि अगर सारे बच्चे इसी तरह पढ़-लिख कर बाहर चले जाएंगे तो फिर तो गाँव में वह अकेला ही रह जाएगा। मगर फिर लगता कि चलो अच्छा ही है, पढ़-लिखकर बच्चे काबिल हो जाएंगे, दो चार पैसे कमाएंगे तो सब मिलकर बड़ा-सा घर बनाएँगे। पैसा रहेगा तो खेती भी अच्छी होगी।
एक दिन अवध नारायण खेत में बुनाई कर रहे थे तो देखा कि विपिन दूर से आ रहा है। विपिन उनकी तीसरी संतान थी।
'क्या बात है बेटा, आज खेत में आए हो' ? अवध नारायण उसकी तरफ़ देखकर बोले।
'कुछ नहीं बाबूजी, अब मैं पढ़ने नहीं जाऊंगा'। विपिन का सिर नीचे झुका हुआ था।
'क्यों क्या बात हो गई' ? अवध नारायण ने अचरज से उसकी ओर देखा।
'बाबूजी अगर सभी पढ़ने ही लगेंगे तो आपके बाद खेती कौन करेगा' ? विपिन ने अपने मन की बात बेधड़क कह डाली।
अवध नारायण कुछ पल के लिए सोच में पड़ गए, फिर सोचा चलो बाद में घर जाकर बात करते हैं। घर आकर जब माँ ने विपिन के निर्णय के बारे में सुना तो गुस्से से बोली-तुम ये सब छोड़ो, बस पढ़ाई पर ध्यान दो। लेकिन विपिन ने तो जैसे फ़ैसला कर लिया था। अवध नारायण ने बीवी को समझाया और बोले कि जब सभी लड़के पढ़ ही रहे हैं तो एक बच्चा खेती के लिए भी तो चाहिए। रहने दो, जब इसकी इच्छा नहीं है तो जबर्दस्ती करने का कोई फायदा नहीं है। माँ भी मान गई। विपिन की तो मानो मुराद पूरी हो गई। अब वह पढ़ाई-लिखाई छोड़कर बाबूजी को खेती में मदद करने लगा।
एक दिन जब अवध नारायण खेत में पानी लगा रहे थे तो विपिन ने उनसे पूछा-'बाबूजी, खेत का ये पूरा टुकड़ा कितना होगा' ?
बाबूजी बोले-'बेटे ये एक बीघा है'।
'अच्छा...... एक बीघा इतना बड़ा होता है'। विपिन आश्चर्य से खेत के चारो ओर फैले मेड़ का जायजा अपनी आँखों से लेने लगा।
'अच्छा बाबूजी, अपने पास कुल कितना खेत होगा' ? विपिन की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।
बाबूजी बोले-'बेटा कुल खेत तो करीब सोलह बीघा है लेकिन करीब दो बीघे पर अपना अधिकार नहीं है'।
'मतलब... वह हमारा नहीं है'-विपिन शायद समझ नहीं पाया।
'नहीं बेटा, बिलकुल अपना है, रसीद भी अपने नाम से कटता है लेकिन कुछ ताकतवर लोग जबर्दस्ती उसपर अधिकार जमाये बैठे हैं'। अवध नारायण के सीने से मानो बरसों की दबी आग से चिंगारी-सी उठी।
'कौन हैं वह लोग बाबूजी और कहाँ है वह खेत' ? एक साथ दोनों सवाल विपिन की ज़ुबान से निकले।
'बेटा अपने ही गाँव के लोग हैं'। अवध नारायण ने एक ठंडी सांस ली।
'और बाबूजी वह खेत किधर है' ? विपिन ने अपना सवाल दोहराया था।
'यहीं बेटा, यहाँ अपना कुल तीन बीघा खेत है पर दो बीघे पर उन लोगों का ही कब्जा है'। बाबूजी का दर्द बाहर छलक आया था।
पता नहीं क्यों विपिन शांत हो गया। मन में सवालों की झड़ी लगी थी लेकिन शायद उसे भी अपनी कमजोरी का एहसास था। आख़िर उसके भी तो कोई चाचा ताऊ नहीं थे और बाक़ी भाई भी बाहर रहकर नौकरी व पढ़ाई करते थे। कहते हैं अकेला ब्रह्मा भी झूठा होता है। तन और मन में आग लग रही थी, कैसे कोई जबर्दस्ती हमारा खेत जोत सकता है? बार-बार ये सवाल दिल को बेंध रहा था लेकिन समुचित उत्तर के रास्ते में अपनी कमजोरी बार-बार आड़े आ रही थी। जिस मनःस्थिति से कभी जवानी में अवध नारायण गुजरा था आज वही स्थिति विपिन की भी थी। एक खेत तो अवध नारायण ने छुड़ा लिया था लेकिन दूसरा खेत छुड़ाने की उसकी हिम्मत नहीं हो पायी थी क्योंकि जिसने खेत पर कब्जा किया था, पूरे गाँव में उसकी तूती बोलती थी। विपिन ने मन ही मन फ़ैसला किया कि इस खेत को वह छुड़ाकर ही दम लेगा।
उस दिन से विपिन की दिनचर्या बदल गई। खेती में उसका ध्यान न लगता था। अपने शरीर पर ध्यान देता और दोस्तों के साथ अड्डेबाजी करता। अवध नारायण उसके इस परिवर्तन से ख़फ़ा थे। आए दिन छोटी-मोटी लड़ाइयों में भी उसका नाम आने लगा। लेकिन किसे पता था कि ये किसी बड़ी लड़ाई की तैयारी चल रही थी। गाँव में धीरे-धीरे विपिन की छवि खराब हो रही थी, लेकिन उसका मिशन अभी भी साफ़ था। कभी किसी बड़े ग्रुप को तो कभी किसी बड़े गुंडे को चुनौती देता। कभी जीत मिलती तो कभी हार। लेकिन इसका फल ये हुआ कि उसके दोस्तों की एक मंडली तैयार हो गई और जब एक दिन उसे लगा कि अब वह अपने खेत पर धावा बोल सकता है तो उसने कार्तिक महीने में जैसे ही खेत कोशी की धार से बाहर आया, जाकर उसमें उड़द बो दिया। अमीर और दबंग लोगों के चाटुकार हर जगह होते हैं। ऐसे ही कुछ लोगों ने जाकर दूसरे पक्ष को बता दिया कि इस बार आपके खेत में विपिन ने बीज डाल दिया है। बस फिर क्या था, उन लोगों ने भी उसी खेत में अपना बीज डाल दिया। जब फ़सल थोड़ी तैयार हुई तो विपिन ने दूसरा दाव खेला। वह अपने दोस्तों के साथ खेत जाता और अपने तथा दोस्तों के सारे मवेशियों को खेत में चरने छोड़ देता। ये बात दूसरे पक्ष को रास नहीं आई। वह पूरे दल बल के साथ आया और एक ही दिन में पूरी फ़सल को उखाड़ कर ले गया। लेकिन विपिन तो लंबी लड़ाई के लिए तैयार था। उसने फिर से खेत तो जोतकर दूसरी फ़सल डाल दी। बात पूरे गाँव में फैल चुकी थी।
अवध नारायण ने जब ये बात सुनी तो काफ़ी चिंतित हो गये। गाँव में तरह-तरह की अफवाहें थी। कोई कहता खेत तो अवध नारायण का ही है फिर उसके बेटे ने जोत ही दिया तो क्या ग़लत किया। अब ये दबंगई नहीं चलनेवाली है। कोई कहता ये विपिन दो चार छोटी-मोटी लड़ाई लड़कर फन्ने खाँ बन रहा है। विक्रम चौधरी से पाला नहीं पड़ा है। वही इसका भूत उतारेगा। कोई कहता आज रात में विक्रम राइफल लेकर इसके दरवाजे पर आया था, लेकिन ये डरकर वहाँ नहीं सोया था, नहीं तो आज ही इसका खेल खतम हो जाता। जितने मुंह उतनी बातें। अवध नारायण अपनी सारी बुद्धि लगाकर बेटे के पक्ष में जनमत तैयार करता था लेकिन मन ही मन काफ़ी डरा हुआ था।
दबंगई जब शीर्ष पर पहुँचती है तो उसे बरकरार रखने की जद्दोजहद शुरू होती है। वहाँ उत्साह की कमी होती है, बस दाव-पेंच लगाकर किसी तरह उस आसन पर क़ायम रहने की कोशिश होती है। परन्तु जहाँ लड़ाई अपने अस्तित्व की होती है, वहाँ उत्साह भरपूर होता है और लोग जान की बाजी लगाने से भी नहीं डरते हैं। शायद यही अंतर इस लड़ाई में था। विक्रम चौधरी अपने शीर्ष पर था और इस छोटी लड़ाई में उलझना नहीं चाहता था। इस लड़ाई में उसकी जीत से उसके पद में या उसकी प्रतिष्ठा में कुछ फ़र्क़ नहीं पड़नेवाला था, परंतु हार की स्थिति में गाँव पर उसके अघोषित वर्चस्व में सेंध लग जाती। इधर विपिन के पास खोने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं था और जीत उसको शीर्ष पर बिठा देती। लेकिन तभी विक्रम चौधरी ने एक सधा हुआ दाव खेला और बोला कि जिसके पास ज़मीन का असली कागज़ हो वही खेत पर अधिकार पाये और ये फ़ैसला गाँव के पंच करें। हमें किसी की ज़मीन जबरदस्ती खाने का कोई शौक नहीं है। मेरे पास ख़ुद के सौ बीघे ज़मीन है। इस दो बीघे से हमारा घर नहीं चलता है। चाल सधी हुई थी कि अगर ज़मीन जाती भी है तो अपनी बादशाहत पर कोई बट्टा न लगे।
अवध नारायण ने जब ये बात सुनी तो ख़ुशी से फूले न समाये। एक-एक कागज़ जोड़-जोड़ कर निकाला और अंत में पंच के फैसले से ज़मीन उन्हें मिल गई। विक्रम चौधरी की इज्ज़त और बढ़ गई। उसने पंचायती के बाद कहा कि हमने तो बचपन से ही इसे अपना खेत समझा था, इसीलिए जोतकर खाते थे। प्रत्येक ज़मीन का कागज़ थोड़े ही देखते रहते हैं। अब जब पता चला कि असल में ज़मीन विपिन की है तो हम ऐसे नहीं कि किसी की ज़मीन जबर्दस्ती खाएँ। पर विपिन के लिए इस जीत के अलग मायने थे। बूढ़े अवध नारायण ने विपिन को गले से लगा लिया। आँखों से ख़ुशी के आँसू छलक पड़े।
'बेटा जो मैं न कर सका, वह तुमने कर दिखाया। जिसकी आग आज तक मेरे सीने में दफन थी, उसे आज ठंढक पहुँची है'। बूढ़ा अवध नारायण भावुक हो गया था।
विपिन भी ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था। उस खेत की अगली फ़सल विपिन को सुपुर्द कर दी गई। अवध नारायण को अब अपने बेटे के न पढ़ने का कोई अफ़सोस नहीं रहा। लगा ये तो अच्छा ही हुआ कि तीन बेटे पढ़-लिखकर नौकरी करेंगे और एक विपिन गाँव में खेती संभालेगा। हुआ भी ऐसा ही। बाक़ी के पुत्र धीरे-धीरे एक-एक कर नौकरी करने लगे। अवध नारायण का तो जैसे सपना ही पूरा हो गया। बेटे छुट्टियों में घर आते, सब के लिए कुछ न कुछ लाते। विपिन कभी किसी भाई का दुशाला, किसी का स्वेटर, किसी का जाकेट पहन लेता। जिस चीज को वह पहन लेता, भाई भी वापस नहीं मांगते।
गाँव वाले बोलते-'अरे विपिन तुम्हारे सारे भाई नौकरी करते हैं और तुम ऐसे ही गाँव में घूमते रहते हो'
तो विपिन पलटकर जवाब देता-
'चाचा, उन लोगों को भगवान ने कर्मयोगी बनाकर भेजा है और मुझे राजयोगी बनाकर। सभी कमाएंगे ही तो फिर भोगेगा कौन? कम से कम एक भाई तो उसको भोगनेवाला भी होना चाहिए ना'।
गाँव वाले हँसते और बोलते 'सही है भाई असली ठाट तो तुम्हारे ही हैं'। लोग अवध नारायण के परिवार की तरफ़ अब सम्मान से देखते। सम्मान के भूखे अवध नारायण भगवान का लाख-लाख शुक्रिया अदा करते। जिस सम्मान की बचपन में उन्होंने कल्पना कि थी, बुढ़ापे में वह साकार हो रही थी। लेकिन ज़्यादा दिनों तक वह इस जीवन का आनंद नहीं ले पाये और एक दिन अपने सबसे छोटे बेटे की नौकरी के ठीक साल भर बाद अच्छी ख़ासी गृहस्थी छोडकर स्वर्ग को सिधारे।
नियम से कहानी समाप्ति पर आ चुकी थी, लेकिन शायद ये शुरुआत ही थी। वक़्त करवटें ले रहा था, हाँ उसकी आहट थोड़ी धीमी थी। राज्य में लोकतंत्र अपने नए आयाम देख रहा था। सामाजिक न्याय की लड़ाई चरम पर थी। आए दिन दो गाँव, दो जातियों, दो समुदायों में झगड़ा होता। लोगों का पुलिस से भरोसा उठ रहा था। राजनेता गुंडे पालते थे और पुलिस, राजनेता के इशारे पर गुंडो का पोषण करती थी। जब न्याय व्यवस्था कमजोर होती है तो समाज अराजक हो जाता है। अपने साथ हुए अन्याय के लिए ख़ुद ही हथियार उठाने पड़ते हैं। शंकरपुर में भी यही हो रहा था। एक लड़ाई से दूसरी लड़ाई, दूसरी से तीसरी और फिर धीरे-धीरे पूरा गाँव ही इसकी चपेट में आ गया। गाँव में रहने वाले सभी आम और ख़ास इससे प्रभावित थे। विपिन की तो संगति भी ऐसे ही लड़कों से थी, फिर वह कैसे इस लड़ाई के प्रभाव से बच पाता। अब उसके बाक़ी भाई नौकरी करते थे, इसलिए वह न तो खुलकर लड़ाई में कूद सकता था और न ही अपनी संगति के कारण इस लड़ाई से बाहर आ सकता था। वह अगर खुलकर लड़ाई में शामिल हो जाता तो उसके भाई बुरी तरीके से प्रभावित होते, इसलिए वह पूरे मनोयोग से इस युद्ध से दूर ही रहना चाहता था। लेकिन कुछ दिनों में जब लड़ाई अपने चरम पर पहुँची तो उस आग से वह ख़ुद को नहीं बचा पाया। विपिन ने पहले भी कोई लड़ाई भाईयों से पूछकर नहीं लड़ी थी, लेकिन तब उनकी आंच भाईयों पर नहीं आई थी। लेकिन इस बार की लड़ाई भीषण थी और जब इसकी तपन भाईयों तक पहुँची तो उनका मन झुँझला उठा। उन्हें लगने लगा कि विपिन के कारण ही इस झगड़े में हम लोग बेवजह घसीटे जा रहे हैं। कुछ दिनों तक तो भाईयों ने इस बात का इंतज़ार किया कि परिस्थिति खुद-बख़ुद ठीक हो जाएगी। लेकिन जब लड़ाई की भीषणता बढ़ने लगी, आए दिन किसी न किसी की हत्या होने लगी, तब भाइयों को ऐसा लगा जैसे अब पानी सिर से ऊपर आ गया है।
भाई, बंधु, मित्र विपत्तिकाल में ही पहचाने जाते हैं। लड़ाई में नाम उछलने से भाइयों को कोफ्त हो रही थी और लड़ाई से दूर होने पर गाँव के लोगों के लिए हँसी का पात्र बन रहा था। जो लड़का पहले विपिन के एक इशारे पर दौड़-दौड़ कर पानी पिलाता था, वही अब उसका उपहास उड़ाता, पीठ पीछे कायर, भगोड़ा कहता। विपिन खून के घूंट पीकर रह जाता। पल भर को लगता हाथ में बंदूक उठाने भर की देर है, यही लड़के फिर से हमारे पीछे घूमेंगे। कल तक भैया-भैया बोलकर खुशामद करता था, लेकिन आज जब मैं इस झगड़े से दूर जाना चाहता हूँ तो ये बात मेरी कमजोरी बन रही है। कभी सोचता कि इन लोगों से मेरा क्या मुक़ाबला है। मेरे सारे भाई नौकरी करते हैं। मैंने कोई भी ग़लत क़दम उठाया तो इसकी आंच सभी भाईयों पर पड़ेगी। इन लोगों का क्या है, 'आगे नाथ न पीछे पगहा'। इनको कुछ भी खोने का डर नहीं है। ये सारी बातें सोचकर मन मसोसकर रह जाता। इधर भाईयों का प्यार विपिन के लिए छिछला हो रहा था। जो भाई बाहर रहते थे, उसने गाँव आना ही कम कर दिया। दूर से ही हाल चाल पूछते और विपिन को इन लफड़ों से दूर रहने की सलाह देते। सबसे बड़ा भाई गाँव में ही नौकरी करता था। अब पता नहीं मजबूरी में या फिर प्यारवश वही थोड़ा बहुत विपिन की मदद को तैयार रहते। इसका एक कारण ये भी था कि विपिन के बच्चे इस भाई से बहुत घुले मिले थे और उन बच्चों से शायद वह सचमुच अपने बच्चों जैसा प्यार करते थे। इसीलिए जब बड़े भाई ने गाँव से बाहर शहर में ज़मीन खरीदी तो दो कट्ठा ज़मीन विपिन के नाम से भी लिया।
सबको उम्मीद थी कि ये बुरे दिन किसी बुरे स्वप्न की तरह बीत जाएंगे, लेकिन एक सुबह जब बड़ा भाई सुंदर कांड का पाठ कर रहा था तो दिन दहाड़े घर के पास ही कुछ लोगों ने विपिन को गोली मार दी। मारनेवाले ने इतमीनान से गोली मारी और जब विपिन गिर गया तो वे लोग वहाँ से भाग खड़े हुए। लोगों ने आनन फानन में विपिन को अस्पताल पहुँचाया। अब इसे भगवान की असीम कृपा कहें या उसके पूर्वजों का पुण्य, वह बच गया। ये शायद उस गाँव में उस परिवार का आखिरी लम्हा था। अब गाँव छोड़ने के अलावा उन लोगों के पास और कोई विकल्प नहीं था। दो भाई पहले से बाहर थे। बड़ा वाला जो गाँव में ही शिक्षक था, उसने भी शहर को रुख किया। गाँव छोड़ने का बाक़ी भाईयों पर तो कोई ख़ास असर नहीं पड़ा लेकिन विपिन के लिए ये सब कुछ लुटने जैसा था। कुछ दिन तो विपिन भी अपने बड़े भाई के साथ रहा, लेकिन जब देखा कि इस घर में गाँव के घर जैसा अधिकार नहीं है तो अपने भाई द्वारा दिये गए उसी दो कट्ठे की ज़मीन पर झोपड़ी बनाकर रहने लगा। बड़े वाले भाई ने इतनी मेहरबानी की कि उसके बच्चों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी ले ली। विपिन के लिए यही बहुत था।
साल दर साल बीते। समय ने करवट ली। गाँव में भी धीरे-धीरे शांति लौट आई। कल के दुश्मन अब दोस्त बने फिरते थे। विपिन को लगता कि अगर सारे भाई मिलकर गाँव में मकान बना ले तो अब फिर से गाँव जाकर ही रहें। अवधनरायण के सारे कर्मयोगी पुत्र शहर में अपने मकान में ठाट से रहते थे और राजयोगी विपिन अपनी पत्नी के साथ उस दो कट्ठे की ज़मीन के पास ही बंजारे की ज़िंदगी जी रहा था। एक भाई का अधबना-सा मकान ही आजकल उन दोनों का आशियाना था। भाग्यलक्ष्मी इतनी क्रूर हो सकती है, ये किसने सोचा होगा?
सारे भाई शहर में मकान पर मकान बना रहे थे, लेकिन जब गाँव में मकान बनाने की बात आती तो सबके पास पैसे कम पड़ जाते। पुश्तैनी डीह पर घर बनाना शायद किसी के लिए फायदे का सौदा नहीं था। इसलिए वहाँ घर बनाने के लिए किसी के पास पैसे नहीं थे। कदाचित एक बार चरों बेटे उस घर को स्वर्गवासी पिता कि अधूरी तमन्ना ही मान लेते। लेकिन इन भावों के लिए शायद अब कहीं जगह नहीं बची थी। सबको लगता, मुझे कौन-सा रहना है वहाँ, जो रहेगा वह बनाएगा। अब रहनेवाला तो विपिन ही था, पर उसके पास अकेले अपने बूते घर बनाने का सामर्थ्य नहीं था। विपिन अपनी बेचारगी पर तरस खाता। भाईयों की बेरुखी उसे अंदर तक साल जाती। कभी लगता, अगर उस वक़्त भाईयों की परवाह न कर बंदूक ही उठा लेता तो या तो लड़ाई में मर जाता या फिर सामर्थ्यवान ही बन जाता। कम से कम ये ज़िल्लत भरी ज़िंदगी तो न देखनी पड़ती।
कार्तिक पूर्णिमा का दिन था। शंकरपुर में उत्सव का माहौल था। परंपरा थी कि आज पुरखे कौवा बनकर घर के आँगन में आते हैं और भगवान पर चढ़ाये गए लाय (मूढ़ी और गुड़ से बना एक पकवान) को खाते हैं। लोग कौवे के आने का इंतज़ार करते कि वह लाय लेकर जाये फिर वह प्रसाद आपस में बांटें।
इस बार अवध नारायण अपनी पत्नी के साथ आया था, कौवा बनकर। रास्ते भर बातें करता आया था अपनी पत्नी से कि 'अब चलकर देखते हैं, कैसा घर बना है? अब तो घर पोते-पोतियों से भरा होगा। पता नहीं कौन कौन-सा बेटा आया होगा? कोई बात नहीं विपिन तो होगा ही, उसे कौन-सी कमी होगी? ख़ुद का खेत, तीन-तीन भाई नौकरी करनेवाले। अब वह पहले जैसी बात थोड़ी रही जब डीह पर एक ही दीया जलता था। अब तो चार बेटों का डीह है वह'।
बातों-बातों में कब शंकरपुर आ गया पता ही नहीं चला। अब तो गाँव पूरा बदल गया था। धीरे-धीरे अपना घर ढूँढने लगा, पर घर था कि मिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। आसपास के घरों में कौवे मंडड़ा रहे थे। कुछ झपट्टा मारकर लाय उठा रहे थे। कुछ तो अब वापस भी जा रहे थे। चारों तरफ़ हलचल थी। अवध नारायण अब थोड़े थक भी रहे थे। उसने फिर से एक सिरे से अपने घर को ढूँढना शुरू किया। लेकिन जहाँ वह पहुँचता, वहाँ कोई घर था ही नहीं। उसे लग रहा था कि कुछ गलती हो रही है, घर तो बहुत बड़ा बना होगा। पर ढूँढते-ढूँढते अब उसकी हिम्मत जवाब दे रही थी। किसी आशंका से उसका मन भयभीत हो रहा था। दिमाग़ में विचारों की आँधी चल रही थी। एक बात तो तय थी कि डीह वाली जगह यही है। लेकिन यहाँ तो न कोई आदमी है और न ही कोई घर। कहाँ गए मेरे बेटे? मेरे चार-चार बेटे क्या एक घर भी नहीं बना सके, एक लाय चढ़ानेवाला भी कोई नहीं है। लेकिन विपिन, वह कहाँ गया, वह तो ये गाँव छोडनेवाला नहीं था। अनसुलझे सवालों की गुत्थियाँ जब दिमाग़ को मथने लगी तो भगवान का स्मरण किया, 'हे भगवान मुझे बस एक बार दिखा दो कि मेरे बच्चे कैसे हैं, मैं फिर कुछ नहीं माँगूँगा'। आत्मा ही तो थे वो, फिर परमात्मा उनकी बात कैसे नहीं सुनते? पल भर में पूरा दृश्य उसके सामने था। अवध नारायण देखते हैं कि सारे बेटों का बड़ा-बड़ा घर अलग-अलग शहरों में बना है। चेहरे पर ख़ुशी की स्मित रेखा ठीक से फैली भी नहीं थी कि दृश्य बदल गया। ये क्या—उसका लाड़ला, इस डीह का असली वारिस, राजयोग लेकर पैदा हुआ विपिन किसी तीसरे शहर में अपने किसी भाई के अधबने से मकान में बहुत दयनीय ज़िंदगी गुजार रहा है। अवध नारायण को ये माजरा कुछ समझ में नहीं आया। जब उससे विपिन की हालत नहीं देखी गई तो अपने वर्तमान में आ गया। सामने देखता है कि सूना डीह पड़ा है। उसने मन ही मन सोचा, ' पहले कम से कम एक बेटा तो होता था डीह पर दीया बाती के लिए। ऐसे चार बेटों के वरदान से तो उस एक बेटे का अभिशाप ही बढ़िया था। उसके मुंह से एक आह-सी निकली-"लगता है डीह का अभिशाप और गहरा हो गया है"।