अभिषेक कपूर से भव्य आशाएं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 अक्तूबर 2013
रॉक ऑन' एवं 'काई पो छे' के लिए प्रसिद्ध युवा फिल्मकार अभिषेक कपूर चाल्र्स डिकेंस के उपन्यास 'द ग्रेट एक्सपेक्टेशन' से प्रेरित फिल्म बनाने जा रहे हैं, जिसमें नायक सुशांत सिंह राजपूत एवं नायिका कैटरीना कैफ प्रेमियों की भूमिका करने जा रहे हैं और मिस हैविशम की महत्वपूर्ण भूमिका के लिए श्रीदेवी से बात की जा रही है। उपन्यास में यह बूढ़ी अविवाहित धनाढ्य महिला अत्यंत सनकी और कड़वाहट से भरी है, क्योंकि जवानी के दिनों में उसने प्रेम में धोखा खाया था और युवा नायिका के प्रेम-प्रसंग को तोडऩे में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है तथा वर्षों बाद पश्चाताप करते हुए वह अपनी सारी संपत्ति नायिका के नाम कर देती है। उपन्यास का अंत सुखद है।
अभिषेक कपूर ने चेतन भगत के उपन्यास 'थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ' को 'काई पो छे' के रूप में अत्यंत बुद्धिमानी से गढ़ा था, गोया कि उन्हें उपन्यास से फिल्म बनाने का अनुभव है और हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे महान चाल्र्स डिकेंस के साथ भी न्याय करेंगे। ज्ञातव्य है कि चाल्र्स डिकेंस के 'ओलिवर ट्विस्ट' पर संजीव कुमार और पद्मिनी के साथ 'मस्ताना' सन 1970 में बनाई जा चुकी है और दूसरी बार इसी उपन्यास पर नसीरुद्दीन शाह और अमजद खान के साथ 'कन्हैया' नामक फिल्म 1980 में प्रदर्शित हुई थी, जिसमें खाकसार कार्यकारी निर्माता था। इन प्रयासों के बावजूद प्रसिद्ध लेखक अरविंद अडिगा के मतानुसार चाल्र्स डिकेंस का रचना-संसार भारत में केवल राज कपूर की 'आवारा', 'श्री 420' एवं 'बूट पॉलिश' में विश्वसनीयता के साथ नजर आता है, जबकि इन तीनों फिल्मों की कथाओं का डिकेंस साहित्य से कुछ लेना-देना नहीं है। अडिगा साहब का आशय यह है कि समाज के शोषित, गरीब वर्ग का यथार्थ चित्रण इन फिल्मों को डिकेंस रचना-संसार से जोड़ता है। अडिगा साहब ने यह संशय भी अभिव्यक्त किया था कि राज कपूर ने संभवत: डिकेंस पढ़ा ही नहीं है, परंतु इन फिल्मों में प्रस्तुत संवेदना और वातावरण डिकेंसमय है। अडिगा साहब की सेवा में निवेदन है कि हर वह सृजनधर्मी जिसके हृदय में आम आदमी के लिए दर्द है, वह स्वाभाविक रूप से डिकेंस से जुड़ा हुआ लगता है। राज कपूर ने डिकेंसेनियन गरीबी और हताशा के यथार्थ चित्रण में आशावादी गाने रखे, जैसे 'तू बढ़ता चल, तारों के हाथ पकड़ता चल, ये रात गई, वह सुबह नई' या 'जख्मों से भरा सीना है पर हंसती है ये मेरी मस्त नजर' या 'भूख ने है बड़े प्यार से पाला' इत्यादि। यह नितांत भारतीयता ही राज कपूर को डिकेंसमय होकर भी डिकेंस से मुक्त करती है।
अगर अभिषेक कपूर चाहें तो संदर्भ के लिए इन तीनों फिल्मों को देख लें, परंतु शंकर-जयकिशन और शैलेंद्र अब उन्हें कहां मिलेंगे? बहरहाल, उपन्यास में वर्णित बूढ़ी, सनकी, निर्मम और धनाढ्य मिस हैविशम की भूमिका में श्रीदेवी को लेते ही उन्हें पात्र पैंतालीस या पचास वर्षीय करना होगा और उसकी सनक तथा निर्ममता को कम करना होगा। साहित्य से फिल्म में किसी कृति को बदलने में सबसे बड़ी बाधा सितारा छवि ही होती है। श्रीदेवी की छवि में बाल सुलभ मासूमियत और यौवन की मादकता का नशीला मिश्रण है, जिसकी खातिर उन्हें मूल पात्र में परिवर्तन करना होगा। अगर कपूर इस मासूमियत व मादकता को अधेड़ अवस्था में ढाल सके तो कमाल हो जाएगा।
भारतीय सिनेमा में साहित्य से सिनेमा में बदलने के तीन सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं - नवेंदु घोष द्वारा फणीश्वरनाथ रेणु की 'तीसरी कसम', विजय आनंद द्वारा आरके नारायण की 'गाइड' और अबरार अल्वी एवं गुरुदत्त द्वारा विमल मित्र की 'साहब बीवी और गुलाम'। इस सूची में जरासंघ की 'लौह कपाट' को बिमल रॉय और नवेन्दु घोष द्वारा 'बंदिनी' को टालना भी शामिल करना चाहिए। स्वयं अभिषेक कपूर ने चेतन साहब की किताब का अत्यंत प्रभावोत्पादक रूपांतरण 'काई पो छे' में किया है, जबकि मूल पुस्तक महान साहित्य नहीं वरन लुगदी साहित्य है।