अभी न होगा मेरा अंत / रंजना जायसवाल
रिटायर होना वैसे तो ज़िन्दगी का एक अनिवार्य हिस्सा है पर इसका सभी मनुष्यों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। किसी के लिए यह सुकूनदायक है तो किसी के लिए चिंता का विषय। भरे-पूरे समृद्ध व खुशहाल परिवार वाले, अक्सर ये कहते मिलते हैं कि-" अरे, हमें कौन चिंता? जवानी में पेड़ लगाया था। अब बैठ कर आराम से फल खाएँगे। ' पर दुखहाल परिवार के कारण एकाकी जीवन जीने वाले स्त्री या पुरूष खासे परेशान दिखते हैं–अब कैसे काम चलेगा? मन कैसे लगेगा? इनमें से जिन्होंने ख़ासी रकम जोड़ रखी है, वे भी चिंतित दिखते हैं–बैठ कर खाने से तो राजा का गढ़ भी समाप्त हो जाता है और आमदनी का कोई मार्ग नहीं दिख रहा। जो हैंड और माउथ रहे हैं उनकी परेशानी का तो अंत ही नहीं होता। रिश्तेदारों से उम्मीद इनमें से किसी को नहीं होती। दो-चार दिन बाद ही उनकी भौहें टेढ़ी होने लगेंगी। ऐसी-ऐसी कमियाँ निकालने लगेंगे कि रूह फना हो जाए. कमोवेश परिवारी जन भी यही करेंगे, हाँ, उन्हें थोड़ा-बहुत समाज का लिहाज रहेगा पर आत्म सम्मान के साथ जीना वहाँ भी मुश्किल होगा। सुना है दुर्दिन में पुत्र काम आते हैं पर आजकल के पुत्रों की स्वार्थपरता का कोई अंत नहीं दिखता। वे तो सीधे बेहयाई पर उतर आते हैं–आपने किया ही क्या है मेरे लिए, जो उम्मीद रखते हैं। रहा धन तो बुढ़ापे में धन के साथ किसी आत्मीय जन की भी ज़रूरत होती है। पराए लूटकर चल देंगे और अपने निर्मोही हो चले हैं। ऐसे में चिंता तो हो ही जाती है।
एकाकी जीवन जीने वाले की विपदा का तो अंत ही नहीं होगा। जहां जाएंगे, यही सुनने को मिलेगा-जीवन भर तो अकेले कमाए और उड़ाए. अब हमारी याद आई है।
बेचारगी का एहसास रिटायरमेंट के बाद कामकाजी रह चुके हर आदमी को होने लगता है। जीवन भर तना रहने वाला सुढृढ़ वृक्ष भी बूढ़ा होकर झुक जाता है, पर उसकी उपयोगिता कम नहीं होती। कम ही सही पर उस पर भी फल-फूल आते ही हैं। कम से कम पत्तों की घनी छांव तो देता ही है। आदमी भी रिटायर होकर बेकार नहीं हो जाता। उसकी काबिलियत, अनुभव का लाभ दूसरों को मिल सकता है। यह सच है कि शारीरिक दृष्टि से वह उतना कार्य नहीं कर सकता पर अनुभव के कारण उसके काम में क्वालिटी होगी, संपूर्णता होगी। उसके निर्देशन में हुआ काम सर्वश्रेष्ठ होगा जो कई नयों द्वारा संपादित काम पर भारी पड़ेगा। पर ऐसा कितने सोचते हैं?
रमा भी परेशान है। वह जिस प्राइवेट संस्थान में कार्यरत है, वहाँ रिटायरमेंट की उम्र 58 वर्ष है। और हाईस्कूल के प्रमाणपत्र के अनुसार अगले महीने ही वह 58 की हो जाएगी। कहीं उसे रिटायर न कर दिया जाए. शारीरिक रूप से वह अभी पूर्ण युवा है। हो भी क्यों नहीं? वास्तविक रूप से अभी 48 की होने वाली है। ये तो मात्र पाँचवीं पास पिता की एक भूल के कारण उसकी उम्र दस साल ज़्यादा हो गयी। हुआ ये था कि उसकी जन्मतिथि भरते समय पिता जी ने 68 को 58 जैसा लिख दिया। किसी ने इस पर ध्यान भी नहीं दिया। वैसे भी उस समय की परंपरा के अनुसार बाल विवाह होते थे और कुंडली देखी जाती थी हाईस्कूल का प्रमाण पत्र नहीं। लड़की के दसवीं से अधिक पढ़ाने की बात कोई सोचता ही नहीं था, नौकरी कराना तो दूर की बात है। ये तो हाईस्कूल में अपने कालेज में सबसे अधिक अंक पाने के कारण वह आगे पढ़ने की जिद पर आ गयी। तो माँ ने पिता के विरोध करने पर बावजूद उसका साथ दिया। माँ खुद तीसरी पास थी पर उनमें पढ़ाई की बड़ी ललक थी। अन्य बेटियाँ पढ़ने में मन नहीं लगाती थीं, पर रमा को पढना बहुत अच्छा लगता था।
पर उस समय की परंपरा के हिसाब से जल्दी शादी तो करनी ही थी, सो दसवीं के बाद ही शादी हो गयी। फिर बी ।ए तक दो बच्चे हो गए, पर पढ़ाई का सिलसिला न रूका। पति अपने घर पढ़ रहे थे, वह अपने घर पढ़ रही थी। इंटर के बाद पति तन गए–रमा को नहीं पढना है। पति पत्नी बराबर नहीं पढ़ सकते। रमा ने कहा-फिर कमाओ और साथ रखो। यहाँ रहूँगी तो पढ़ूँगी। तनाव बढ़ा। नाराज पति एक दिन बच्चों को लेकर भाग गए. उस समय रमा एम॰ए की परीक्षा देने गयी थी। अपने परिवार वालों के भरोसे पति बच्चों को पालने लगे, फिर इसी बहाने दूसरी शादी भी कर ली। रमा के वापस लौटने के सारे दरवाजे बंद कर उसी पर यह लेबल चिपकवा दिया–अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण पति पुत्र का त्याग करने वाली स्त्री। बच्चों की परवरिश रमा की खिलाफत से की गयी। बीस साल की रमा एकाकी जीवन बिताने लगी।
रमा बेरोजगार थी। उसके माँ-बाप गरीब थे। कोई सहारा नहीं, सहयोगी नहीं। किसके बल पर पति से लड़ाई लड़ती। चुपचाप अपने को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आगे बढ़ती रही। स्थिति बदली, वह आत्मनिर्भर हुई. पर उसे अकेली स्त्री होने का अभिशाप भी झेलना पड़ा। अकेली स्त्री को इस समाज में लावारिस जमीन समझा जाता है, जिस पर कोई भी अपना कूड़ा फेंक देता है। हर कोई उसका मालिक बनना चाहता है, अपने हिसाब से चलाना चाहता है। उफ, कितना कुछ झेलना पड़ा उसे अपनी इज्जत, अपनी अस्मिता की सुरक्षा के लिए. पर उसने कभी कोई समझौता नहीं किया। छोटी-छोटी नौकरी करके काम चलाती रही। उसकी योग्यता के अनुसार नौकरी भी तो नहीं मिली। नौकरी सिर्फ़ योग्यता के बल पर कहाँ मिलती है इस देश। बहुत बाद में यह ढंग की नौकरी उसे मिली थी।
जीवन के तमाम कडवे अनुभवों से गुजरती वह उम्र के इस पड़ाव पर आ पहुंची है। जब सब ठीक हो रहा था तो यह समस्या आ गयी। अब उसकी उम्र का सवाल आ खड़ा हुआ है। रिटायमेंट की खबर ने उसके होश उड़ा दिए हैं। उसे अपनी बेरोजगारी के दिन याद आ रहे हैं। जब एक–एक पैसा उसके लिए कितना मायने रखता था। क्या-क्या नहीं झेलना पड़ा था उसे। माँ रोज उसे घर से अंदर-बाहर करती, भाई-बहन तानें देते। समाज थू-थू करता। उधर पति जुगाड़ लगाकर सरकारी मास्टर बन गया था। दो और बच्चे पैदा कर लिए थे और चारों बच्चों के साथ दशरथ बना शान से जी रहा था। इस समाज में पुरूष का कुछ नहीं बिगड़ता, उससे कोई सवाल नहीं करता। किसी ने नहीं पूछा उसके पति से कि दो बच्चों के रहते और पहली पत्नी को बिना तलाक दिए उसने दूसरी शादी कैसे कर ली? अगर बच्चों की परवरिश के लिए किया तो फिर दो और बच्चे क्यों पैदा किए? कोई तो पूछता रमा का क्या अपराध था? पढना ही तो चाहती थी ताकि अपने बच्चों को अच्छी ज़िन्दगी दे सके. एक दो नहीं शादी के कई वर्ष हो चुके थे। वह मायके पड़ी थी। दो-दो बच्चों के साथ। एक-एक पैसे को मोहताज। कभी कुछ मांगा था उससे? बदचलन थी? फिर क्यों? सिर्फ इस अहंकार के कारण कि औरत पति से कम पढी होनी ज़रूरी है। कैसी सोच थी यह? इस सोच का विरोध ही अभिशाप बन गया। उसके बच्चों को उससे छीन लिया गया। महत्त्वाकांक्षी कहकर उसे समाज की नजरों से गिराया गया। पर उसने भी हार कहाँ मानी? झुकी नहीं, टूटी नहीं। लड़ती रही भाग्य से जीवन से, समाज से पर अब उम्र से कैसे लड़े? पिता की उस छोटी-सी भूल से कैसे लड़े?
वह स्वतंत्र स्त्री के रूप में स्थापित है। जिसकी विडम्बना उड़ती चिड़िया-सी होती है। लोग उसके थक जाने, नीचे उतर आने का इन्तजार करते हैं ताकि उसे उड़ने ...लगातार ऊंचाई पर उड़ने का दंड दे सकें।
तो क्या उसे भी दंडित किया जाएगा? कुछ वर्ष पूर्व उसके बच्चे बड़े, सक्षम और आत्मनिर्भर होकर उससे आ मिले थे। उनसे मिलकर लगा शायद विधाता को उसके अकेलेपन पर रहम आ गया है ...शायद उसका बुढ़ापा सुखद होने वाला है। वह अपने पोतों में अपने बेटों का खोया बचपन पा लेगी। पर वह भुलावे में थी। उसका पति अभी तक बेटों के दिमाग को संचालित कर रहा था। वे उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थे। उसने उन्हें उससे जुडने नहीं दिया। उसे असामाजिक करार दे दिया। उसकी सारी कोशिशें नाकामयाब हो गईं। वह उनसे मिलती तो वे बात–बात पर उसे अपमानित करते। पिता की बातें दुहराते–वही महत्त्वाकांक्षी औरत, वही पति-पुत्र का त्याग करने वाली औरत, वही असामाजिक औरत । वह भी आखिर कब तक बेटों द्वारा अपने आत्म-सम्मान को कुचले जाते देखती रहती। भविष्य की सुरक्षा की दृष्टि से, पारिवारिक जीवन की आकांक्षा में कितने अपमान सहती! पोतों के साथ खेलने के उसके सपनों को बेटों ने बेरहमी से तोड़ दिया। तीस साल पहले उनके पिता ने उन्हें उससे अलग कर उसका यह सुख छीना था। कितना तड़पी थी वह उनके लिए. रात-रातभर अकेली छत पर बैठ कर रोती रहती थी। सात और पाँच साल के अपने बच्चों के लिए. हाँ, वह इस बात के लिए निर्मम ज़रूर कही जा सकती है कि बेटों के मोह में भी वह उस दंभी, चरित्रहीन पति को दुबारा स्वीकारने को तैयार नहीं हुई थी। बेटों ने पिता की कैद में बचपन गुजारा। सौतेली माँ की ज़्यादतियाँ सहीं, फिर भी बस उससे ही नाराज रहे। उन्हें लगता रहा कि उसने ही उन्हें छोड़ दिया था। वापस आने पर उन्हें सारी वस्तुस्थिति पता चली, फिर भी वे उसे ही दोषी ठहराते रहे। उनके लिए पिता का हर अपराध क्षम्य था, पर उसका नहीं। पिता के सामंती विचारों की उन पर गहरी छाप थी। वे सोच भी नहीं सकते थे कि पत्नी और माँ होने से पहले स्त्री इंसान होती है। उनके अनुसार स्त्री पर ही घर बनाने व बचाने की ज़िम्मेदारी होती है। चरित्र उसी का देखा जाता है, पुरूष का नहीं। उसे इसी बात का दुख था कि उसके बेटे उसकी प्रगतिशील सोच का हिस्सा नहीं बन पाए और आम पुरूष बन कर रह गए. उसने सोचा पोतों को वह अपनी सोच देगी पर पिता से निर्देशित बेटों ने उसे अपने परिवार का हिस्सा नहीं बनने दिया।
बेटों की जली-कटी ने उसे ब्लडप्रेशर का मरीज बना दिया, तब उसने सोचा-। नहीं, अब और नहीं ...किसी दिन उनकी बातों से उसका बी पी हाई हो जाएगा तो वह असमय मर जाएगी। उसने बेटों को लगभग आजाद कर दिया। बचपन में जब वे अलग कर दिए गए थे तो वास्तव में अलग नहीं हुए थे। हमेशा उसके दिल-दिमाग के करीब रहे थे, पर अब अपनी विषैली बातों के कारण उसके मन से दूर हो गए थे। वैसे भी उन्हें उसकी ज़रूरत नहीं। वे अच्छी सरकारी नौकरी में थे, बीबी–बच्चे साथ थे। ससुराल का पूरा सपोर्ट था। घर में भी माता-पिता, भाई, रिश्तेदार-नातेदार सब उनके साथ थे। एक वही अकेली थी। माँ–बाप के न रहने पर टूअर भी हो गयी थी। एक माँ ही थी जो उसका दर्द समझती थी। भाई-बंधु अपनी दुनिया में ही मगन रहते थे। फिर भी वह निराश नहीं थी। सोचती थी ईश्वर उसके साथ हैं।
उसने संतोष कर लिया था। तीस साल अकेली रही थी, आगे भी रह लेगी। आर्थिक निर्भरता र्है अपना छोटा घर है। हमदर्द बहनें हैं। लिखने-पढ़ने का शौक है जीवन निकल जाएगा।
पर इस आकस्मिक संकट ने उसके होश उड़ा दिए थे। रिटायर होने से पहले ही वह बाद की स्थितियों का आकलन कर रही थी। उसे सब कुछ साफ दिख रहा-रहा था, सब साफ सुनाई दे रहा था, सब समझ में आ रहा था। आर्थिक श्रोत बंद हो जाएगा फिर क्या करेगी? जो थोड़ा-बहुत बैंक बैलेंस है, कितने दिन चलेगा? किससे सहायता मांगेगी, किसके घर रहेगी? वह खुद को उस बेचारी की भूमिका में देख रही थी, जो सबकी दया की आकांक्षिणी हो। जिसकी कमियाँ, गलतियाँ गिनाई जा रही हो, जिसके अनकिए अपराधों की लंबी फेहरिस्त सबके हाथ हो। तानें, उलाहने, नसीहतों पर नसीहतें उफ़!
उसने मित्रो से बात की तो वे कहने लगे–बेटों से पटाकर रहना चाहिए था। पति को नहीं छोड़ना चाहिए था। रिश्तेदारों से मेल-जोल रखना चाहिए था। क्यों सरकारी नौकरी के लिए प्रयास नहीं किया? आदि आदि। बेटों को बताया तो वे और भी तटस्थ हो गए. छोटे बेटे ने तो नश्तर ही चला दिया-आपने किया ही क्या है हमारे लिए, जो उम्मीद रख रही हैं। अपनी व्यवस्था खुद कर लें। भाइयों से बताया तो उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. बहनों ने सहानुभूति दिखाई पर उनके पति कब चाहेंगे कि वह उनके सिर आ गिरे। बुढ़ापे में हारी-बीमारी भी तो लगी रहती है। हे ईश्वर! वह परेशान-सी हो उठी। इधर एक सप्ताह की छुट्टियाँ थीं। इस एक सप्ताह में वह सच ही बीमार और बूढ़ी दिखने लगी थी। भयावह भविष्य उसे डराने लगा था। अकेलापन सालने लगा था।
कार्यालय खुलते ही उसके डायरेक्टर ने उसे बुलाया। उसने सोच लिया कि अब बस। पर डायरेक्टर ने कहा कि आप कागजी रूप से रिटायर होने की उम्र में हैं। मुझे विश्वास नहीं होता। आखिर ऐसा क्यों? उसने डबडबाए स्वर ने सारी स्थिति बयान की, तो वे सहानुभूति से बोले–देखिए मैडम, आप एक योग्य, अनुभवी व कर्मठ कर्मचारी हैं और पूर्ण स्वस्थ भी, इसलिए आप जब तक चाहे मेरे संस्थान में काम कर सकती हैं। उसे विश्वास ही नहीं हुआ। 'अनाथ कौन है यहाँ त्रिलोक नाथ साथ हैं'। कविता की पंक्तियाँ याद आईं। उसके सिर से मानो बोझ उतर गया। वह अपने घर लौटी. चारों तरफ की उदासी छंट गयी थी। उसके प्रिय कवि निराला की पंक्तियाँ उसके होंठों पर मचल उठीं–अभी न होगा मेरा अंत। अभी-अभी तो आया है जीवन में मेरे नवल बसंत।