अमरबोध की दुश्चिन्ता / रूपसिह चंदेल
वैसे उनका वास्तविक था हूंदराज शर्मा। लेकिन जब से लेखन में उन्होंने प्रवेश किया वे अमरबोध हो गये। प्रारंभ में नाम से केवल शर्मा गायब होकर ’अमरबोध’ जुड़ा और वे अपने को हूंदराज ’अमरबोध’ लिखने लगे। लेकिन एक दिन अचानक उन्होंने हूंदराज को भी गायब कर दिया और केवल ’अमरबोध’ रह गये। हूंदराज शर्मा से वे ’ अमरबोध’ इसलिये नहीं बन अए थे कि उन्हें अपनी अमरता का बोध हो गया था। हालांकि वे मानते हैं कि उन्होंने जो सौ के लगभग कृतियां साहित्य जगत को प्रदान की हैं, उनमें कई कालजयी हैं, लेकिन इसके बावजूद वे यह भी मानते हैं कि अपनी उन कृतियों के बल पर अमर हो जाने की गलतफहमी उन्हें नहीं है। क्योंकि उनके मुताबिक साहित्य में अमरता तो नामवर आलोचकों की लेखनी पर निर्भर करती है और नाम पर आलोचक आजकल मुंहदेखी और पक्षपात पूर्ण आलोचना करने लगे हैं। इसीलिए उन्होंने कभी आलोचकों की चिन्ता नहीं की, और न ही इस ओर कभी ध्यान दिया कि आलोचकों ने उइनकी चिन्ता की या नहीं। वे एवल अपने को सरस्वती का उपासक और लेखन को जीवन का पर्याय मनते हैं और एक के बाद एक कृति साहित्य जगत को देते जा रहे हैं।
वे हूंदराज शर्मा से अमरबोध कैसे बन गए इसका श्रेय वे मुक्तिबोध को देते हैं। बात तब की है जब उन्होंने लिखना शुरू ही किया था। तब वे हूंदराज शर्मा ही थे। एक दिन किसी गोष्ठी में उन्होंने मुक्तिबोध को देखा-सुना और उनके मुरीद हो गए। बाद में उनसे तीन बारे मिले और उन्हें अपनी रचनाएं दिखाकर प्रशंसा भी पायी। वे बताते हैं कि तीसरी बार उनकी रचना सुनकर मुक्तिबोध ने भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उनकी पीठ थप-थपाकर कहा था, "खूब लिखते हो---- तुम अवश्य एक दिन साहित्य में अपना नाम अमर करोगे।"
और उसी दिन के बाद उन्होंने यह स्चलिया कि वे लिखेंगे-खूब लिखेगें - जमकर लिखेगें और इतना लिखेगें कि साहित्य में उन्हें याद किया जाए। मुक्ति बोध की प्रशंसा ने जहां उन्हें खूब लिखने के लिए प्रेरित किया वहीं एक बात की प्रेरणा उन्हें उनसे और मिली। उन्होंने अपने नामे के साथ ’अमरबोध’ लिखना शुरू कर दिया। इस बारे में वे बताते हैं कि यह नाम उन्होंने मुक्तिबोध की नकल में रखा हो, ऎसा नहीं है। दरअसल हुआ यह था कि तीसरी बार मुक्तिबोध को अपनी रचना सुनाकर वापस लौटे अधिक दिन नहीं हुए थे कि उन्हें समाचारमिला कि मुक्तिबोध नहीं रहे। उनसे प्रेरित हूंदराज शर्मा का साहित्यकार उन्हें याद कर-करके पहले तो खूब तोआ। बाद में उसने निर्णय किया कि अपने नामे के साथवे एक ऎसा नाम जोड़ेगें, जिससे तीसरी मुलाकात में उनके लिए मुक्तिबोध द्वारा कही गई बात और मुक्तिबोध दोनों को ही स्मरण रखा जा सके। और उन्होंने मुक्तिबोध की बात से लिया ’अमर’ और मुक्तिबोध से ’बोध’ और बन गए हूंदराज शर्मा से ’अमरबोध’।
वे बड़बड़ाते रहते हैं और लिखते रहते हैं। पता नहीं कितनी प्रखर कल्पनाशक्ति है उनके पास कि एक के बाद एक कहानी, उपन्यास, नाटक वे लिखते जा रहे हैं। उन्हें जैसे लिखने का रोग-सा हो गया है। इसी रोग के कारण ही उन्होंने नौकरी नहीं की। जबकि वे इस बात का जिक्र कई बारकर चुके हैं कि सरकारी नौकरी के लिए उनके पास अच्छे अवसर थे। उनके फूफा के चाचा के साले अच्चे सरकारी अओहदे पर थे और उनकी नजर इनके जवान खूबसूरत चेहरे पर टिकी थी। क्योंकि उनके घर में उनकी लाडली भी जवान हो रही थी। वह चाहते थे कि अगर हूंदराज शर्मा उनकी लाडली का हाथ धामकर उनका कल्याण कर दें तो वह उनका कल्याण कर सकते हैं अर्थात उन्हें अच्छी नौकरी दिला सकते हैं. लेकिन हूंदराज को नौकरी तो करनी नहीं थी, अतः उन्होंने फूफा के चाचा के साले की लाडली रूपी घंटी को गले में लटकाने से साफ इंकारकर दिया. परिणाम जो होना था वही हुआ. घरवाले और रिश्तेदार नाराज हो गए. लेकिन हूंदराज ने कभी किसी की नाराजगी की चिन्ता नहीं की. उस समय तक वे हूंदराज शर्मा से अमरबोध हो चुके थे और खूब प्रिश्रमपूर्वक लिख रहे थे. विभिन्न सामाजिक विकृतियों का यथार्थपूर्ण चित्रण करने के कारण उनकी रचनाएं लेखकों एवं पाठकों में चर्चित होने लगी थीं।
धीरे-धीरे प्रकाशकों से उनके संबन्ध होतेगए और पुस्तकें छपने लगीं । दुछ पैसा मिलने लगा तो उनके अंदर की लेखन की आवश्यकता के तहत दबी एक और आवश्यकता ऊपर उभरने लगी । उस आवश्यकता की अनुभूति होते ही एक दिन वे एक से दो हो गए। तीन साल बीतते-न-बीतते वे दो से तीन और दसवां वर्ष शुरू होते-होते उनके एक कमरे और छोटी-सी रसोई वाली छोटी-सी किराये की जगह में दो और कोमल पुष्प खल उठे। एक लड़्की और दो लड़्कों के वे पिता बन चुके थे।
तीन बच्चों के पिता बनने के बाद स्वाभाविक रूप से खर्चा भी बढ़ा । अन्य आवश्यकताएं भी बढ़ीं और उसी अनुपात में उनके लिखने की गति भी बढ़ी ए दिन मेम लिखते, रात में भी समय निकालकर लिखते और इतना लिखने के बाद भी जब आवश्यकताएं मुंह फैलाए ज्यों की त्यों किसी-न किसी रूप में सामने खड़ी रहतीं तब खीझकर वे कलम रख देते और मन ही मन पहले भगवाने, फिर पत्नी को, बच्चों को, प्रकाशक को और अंत में अपने को बुरा-भला कहते और दिमाग की तनावग्रस्त नसों को सामान्य करने के लिए छत पर चढ़ जाते। थोड़ी देर टहलते , फिर नीचे आ जाते। नीचे आकर लिखने बैठ जाते। जब तके वे लिखते पत्नी और बच्चे या तो पतली-सी कॉरीडार पर समय गुजारते या रसोई में दुबके रहते। बच्चे कभी-कभी जीने पर ऊधम मचाते रहते और मकान मालकिन की डांट सुनते रहते। लेकिन अमरबोध इन सबसे बेखबर केवल लिखते रहते। जरूरत पड़ने पर पत्नी को आवाज देकर पानी मांग लेते। शुरू-शुरू में आउर शादी के बाद कुछ दिनों तक वे लिखते समय कई बार चाय और बीच में फल भी ले लिया करते थे। लेकिन अब केवल पानी पीकर लिखते रहते हैं।
उस समय भी वे एक गिलास पानी हलक के नीचे उतारकर अपने नये शुरू किए उपन्यास में विश्वविद्यालय के पास वाली पहाड़ी के निकट उन्मुक्त विचारों वाली नायिका और उसके ब्वाय फ्रेण्ड के बीच चल रहे प्रणय-क्रियाओं का चित्रण करने में लीन थे कि उनके मित्र साहित्यकार अभिनव नारायण आ टपके । अभिनव के असमय आगमन से लिखने में जो व्यवधान पैदा हुआ उससे वे अंदर-ही अंदर अत्यधिक कुपित हुए। कुपित इसलिए भी हुएकि उस समय उन्हें नाहिका के प्रणय-चित्रण में स्वयं रस मिल रहा था। उन्होंने मन-ही मन अभिनव नारायण को कोसा। लेकिन उनकी ओर मुस्कराकर हालचाल पूछा। जबकि अंदर से अभी भी वे कुढ़ रहे थे। लेकिन जब अभिनव नारायण ने उन्हें बताया कि उन्होंने सुना है कि आज प्रकाशक संघ की बैठक थी, जिसमें सभी प्रकाशकों ने एक मत से यह निर्णय किया है कि सभी अपने लेखकों को पूरी रायल्टी दिया करेंगे और जिन लेखकों की पिछली रायल्टी उन लोगों ने दबा रखी है, वह पूरी की पूरी ईमानदारी से वे दे देंगे तब अमरबोध अपने आसन से उछल पड़े , पिर खड़े होकर उन्होंने अभिनव नारायण को गले लगा लिया। बोले, "काश! अभिनव एसा हो जाय।"
"हो जाय नहीं बन्धु, हो गया। बस अब शीघ्र ही कायापलट हुई समझो।" अमरबोध से अपने को चुड़ाते हे अभिनव नारायण ने कहा।
वे फिर बैठ गए और क्षणों के लिए कहीं खो गए। फिर कुच याद कर पत्नी को आवाज देकर अभिनव के लिए पानी मंगवाया। पानी पीकर और उनके लिए खश्खबरी छोड़्कर जब अभिनव नारायण विदा हो गए तब उन्होंने उपन्यास को एक ओर सर्का दिया और कागज लेकर लगे अपनी पुस्तकों की रॉयल्टी का हिसाब लगाने। संध्या हो गई लेकिन उन्हें होश न था। वे हिसाब लगाते रहे। रात के आठ बज गए। खाने का समय हो रहा था। पत्नी प्रतीक्षा कर रही थी कि कब वे लिखना बन्द करें और वह खाने की थाली ले जाय। आखिर उन्हें उठता न देखकर वह थाली लेकर पहुंच गयी, "लो पहले खाना खा लो, फिर लिख लेना।"
उन्होंने पत्नी की ओर घूरकर देखा और बोले, "मुझे यही नहीं पता कि मैं लिख रहा हूं या हिसाब लगा रहा हुं. पता है कब से इन प्रकाशकों ने मेरी कितनी रॉयल्टी मारी हुई है. एक-एक पुस्तक के पांच-पांच संस्करण छपने के बाद भी मुझे क्या मिला ढाक के तीन पात. लेकिन जब उन लोंगों ने ईमानदारी से पिछली औराअगे की रॉयल्टी देने की कसमें खायीं हैं तब हिसाब लगाना तो जरूरी है---- यह देख मेरी सारी पुस्तकों की रॉयल्टी बनती है --- डेढ़ लाख रुपये. ईश्वर ने चायातो अब जल्दी ही अपना मकान हो जायेगा. बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिल करवा दूंगा. अब कभी किसी बात की तंगी...।"
उनकी बात पूरी होने से पहले ही पत्नी बोली, "पहले खाना खा लीजिए, फिर हिसाब लगाइएगा---- बच्चे रो रहे हैं भूख से।" और थाली उनके सामजे रखकर वह चली गई। पत्नी की हरकत पर उन्हें गुस्सा आया। मन हुआ कि थाली उठाकर फेंक दें, लेकिन यह अपढ़-मुर्ख क्या जाने यह सब सोचकर उन्होंने र‘यल्टी का कागज एक ओर रखा और खाना खाने लगे. खाकर फिरहिसाब लिखने लगे. अब आवश्यक था कि प्रत्येक प्रकाशक का पुस्तकानुसार विस्तृत हिसाब लिखा जाय. पत्नी कब थाली उठा ले गयी और कब बच्चों को लेकरवह चुपचाप कमरेमें आकर सो गयी उन्हें पता नहीं चला. वे हिसाब लिखते रहे।
सारा लिखने तक नींद के झोंके उन्हें आने लगे थे। प्रत्येक प्रकाशक का कागज अलग-अलग संभालकर उन्होंने रखा, बत्ती बुझाई और फर्श पर ही लेट गए। लेटते ही नींद आ गई। अधिक देर न सो पाये होंगे कि किसी के चीखने से उनकी नींद उचत गयी। आंखें मलकर उठ हैठे। देखा नन्हूं मं के स्तनों को चिचोड़ने की कोशिश कर रहा था और दूध न निकलने के कारण चीख कर रो रहा था।
"क्यों मदर डेयरी का दूध नहीं है क्या ?"
"---मदर डेयरी का दूध होता तो अपने स्तन कटवाती? आधा लीटर ही आता है---- वह तो दोपहर को ही खत्म हो गया था।"
वे चुप होकर लेट गये। सोचते रहे कि सुबह ’आलोक प्रकाशन’ जायेंगे। कुछ न कुछ झड़ककर लाएंगे। उनके हिसाब के मुताबिक ग्यारह हजार तीन सौ तिरपन रुपये इक्यासी पैसे रॉयल्टी के उससे उन्हें और मिलने चाहिए। रात में उन्हें नींद ठीक से नहीं आयी। सुबह वे आलोक प्रकाशन के कार्यालय जा पहुंचे। प्रकाशक से बोले, "गुप्ता जी, कल प्रकाशक संघ ने लेखकों के हित में बड़ा क्रान्तिकारी निर्णय लिया है. अब सभी लेखक सुखी हो सकेगें।"
"कौन-सा क्रान्तिकारी निर्णय?" गुप्ता ने अनभिज्ञता दिखाई तो वे क्रोधित हो उठे, "तो आप मुझे मूर्ख समझते हैं. अभी भी क्या आप बदाया रॉयल्टी नहीं देना चाहते.?" उन्होंने रॉयल्टी के हिसाब का कागजे , जो उन्होंने तैयार किया था, उसके सामने रख दिया।
"मैं आपकी बात बिल्कुल नहीं समझ पा रहा अमरबोध जी. जरा स्पष्ट करें." गुप्ता ने फिर अनभिज्ञता दिखाई। उन्होंने अभिनव नारायण की बात बतायी तो पहले तो गुप्ता ठहाका मारकर हंसा, फिर बोला, "अरे अमरबोध जी ये निर्णय-विर्णय तो होते ही रहते हैं. लेकिन अमल कितनों पर हो पता है ? अब देखिए न हमारी सरकार जनता की भलाई के लिए हर दिन कोई-न कोई निर्णय लेती है... लेकिन उनमें से कितनों...।"
"इसका मतलब है कि आप स्पष्ट इंकार कर रहे हैं"
"नहीं... नहीं अमरबोध जी... मैंने कब इंकार किया. आपको पहले भी मैं अपने हिसाब से सही रॉयल्टी देता रहा हूं और अब भी देता रहूंगा. और वह आपको समय से मिलती रहेगी. आपने नाहक इतनी दूर आने का कष्ट किया." और गुप्ता मुस्कराने लगा.
गुप्ता मुस्कराने लगा तो उनके अंदर बदूले से उठने लगे. बगूले से तो उठने लगे लेकिन मुंह से शब्द न निकले. अतः उन्होंने अब बैठना व्यर्थ समझा और उठकर कमरे से बाहर निकल आए. गुप्ता अभी भी मुस्करा रहा था. और वे दुश्चिन्तित सोच रहे थे कि आज रात फिर नन्हूं मां के स्तनों को चिंचोंड़ता हुआ चीखेगा और वे सो न सकेगें