अमर्त्यसेन का कल्याणकारी अर्थदर्शन

Gadya Kosh से
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चर्चा लायक बीसवीं शती की बहुत-सी बातें हैं. मसलन इस शताब्दी ने दो विश्वयुद्ध झेले. परमाणु बमों से उत्पन्न भीषण तबाही देखी. साम्राज्यवाद का उत्थान देखा और संग-संग पतन भी. गाँधी जी ने अपने कर्मयोगी जीवन का महत्त्वपूर्ण अंश इसी शताब्दी में जिया. इसी शती में टेलीविजन, ट्रांजिस्टर, पेनसिलिन, सुपर-कंडक्टर, वायुयान की खोज हुई. पेजर, टेलीफोन, मोबाइल, इंटरनेट, कंप्यूटर और लेपटाप, आईपा॓ड जैसे यंत्र आए, जिन्होंने दूरियों को मिटाने का काम किया. अत्याधुनिक तकनीक ने अंतरिक्ष यात्राओं को आसान बना दिया. आदमी को लगने लगा कि ब्रह्मांड मुट्ठी में आ चुका है. सही मायने में यही वह शताब्दी थी, जब आदमी को आधुनिकता का चस्का लगा. इसी शताब्दी में गांधीजी ने अहिंसा के नारे को देश की आजादी का हथियार बनाया. आइंसटाइन के सिद्धांत को लेकर परमाणु बिजलीघर बनाए गए और परमाणु बम भी. इसी शती में साम्यवाद का उत्थान और पतन हुआ. जिन देशों ने समाजवाद का नारा लगाकर आज़ादी प्राप्त की थी, जिनके लिए मार्क्स का कहा एक-एक शब्द गीता की तरह पवित्र था—रूस और चीन सहित वे सभी देश, चाहे-अनचाहे पूंजीवाद के चंगुल में जा फंसे. पीछे-पीछे भारत भी गया. गांधी के देश में, हिंद स्वराज्य के दर्शन-चिंतन वाले देश में पूंजीवाद रंग-रेलियां मनाने लगा. बीयर बार और कैसीनो प्रगति का प्रतीक मान लिए गए. नई आर्थिक व्यवस्था विश्व-ग्राम की संकल्पना को जन्म दिया. पूंजी का जादू चला, दुनिया सिमटकर ग्राहक की जेब में समाने लगी. चूंकि ये संबंध विशुद्ध रूप से आर्थिक आधार पर विकसित हुए थे, इसलिए आत्मीयता का स्थान औपचारिकता ने ले लिया. इससे आपसी व्यवहार में कृत्रिमता बढ़ी. साथ में वैचारिक जड़ता भी. विज्ञान और तकनीक इकीसवीं शताब्दी को विरासत में मिले. साथ में तज्जनित समस्याएं भी. परिणाम यह हुआ है कि इकीसवीं शताब्दी के पहले दशक की समापन बेला की ओर बढ़ते हुए हम सांस्कृतिक, सामाजिक अवमूल्यन, मानवीय मूल्यह्रास, घोर उपभोक्तावाद, पूंजी का अराजक विस्तार और उसकी तानाशाही, समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ती सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक भेदभाव की खाई और तज्जनित महानैराश्य का वातावरण देख रहे हैं. ये स्थितियाँ बीसवीं शती को तो नकारात्मक छवि प्रदान करती ही हैं, इकीसवीं शताब्दी में भी कुछ उम्मीद नहीं जतातीं. इनमें हताशा और कुंठा का प्रतिशत सकारात्मक मानवीय प्रवृत्तियों से कहीं ज्यादा है. सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि पंद्रहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक जिस वैचारिक क्रांति ने पूरी दुनिया को नई-नई उम्मीदों से सराबोर किया था, वे धीरे-धीरे दम तोड़ने लगीं और ‘विचार का अंत’ जैसे मुहावरे फिजा में सिर उठाने लगे, जिन्होंने हमें शुरू से आखिर तक चुनौतियों में डाले रखा. शताब्दी में सभी कुछ निराशाजनक रहा हो, यह कहना भी उचित न होगा. एक बात जो इस शताब्दी के अन्तिम चरण में हमें संबल देती है, उसे हम आशा की क्षीण ज्योति की संज्ञा दें या मनुष्य की आत्मावलोकन की छटपटाहट. चाहें तो विकास की सहज प्रवृत्ति मानकर बात को चलता कर दें. मगर इस तथ्य से इनकार करना संभव नहीं कि इकीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में हम युवावर्ग के भीतर पहले से कहीं अधिक आत्मविश्वास देख रहे हैं. वह पहले से अधिक समझदार और प्रौढ़ नजर आ है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि मा॓ल-संस्कृति के रंग-ढंग में ढली इस शताब्दी ने हमारे बच्चों से हमारी सांस्कृतिक विरासत और जीवन-मूल्य छीने हैं, जो इससे पहले हमारी अस्मिता की पहचान हुआ करते थे. इसने हमें हमारी उम्मीदों, कामनाओं और कल्पनाओं से कहीं ज्यादा व्यक्तिवादी बनाया है. मगर पूंजीवाद की गोद में समाने को आतुर बीसवीं शताब्दी ने अपने अन्तिम सोपान पर, सांकेतिक रूप में ही सही, आम-आदमी की अस्मिता एवं जरूरतों को पहचानने और उन्हें सम्मानित करने की कोशिश भी की गई. उस शताब्दी के अंतिम दशक की दो घटनाएं प्रतीकरूप में चिह्नित की जा सकती हैं. उनमें से एक घटना इस देश में घटी थी, दूसरी बाहर. यद्यपि दोनों ही घटनाओं का संबंध भारत से था. उनमें पहली घटना थी, अमर्त्य सेन को कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विशद् विवेचना के लिए प्रतिष्ठित नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया जाना. दूसरी घटना में पर्यावरण, कुष्ठ रोग निवारण और श्रमिक कल्याण के लिए कार्य करने वाले बाबा आम्टे को ‘गाँधी शान्ति पुरस्कार’ से नवाजा गया था. भारत के संबंध में ये दोनों ही उपलब्धियां यादगार थीं, जिनके लिए उस शताब्दी को भुला पाना आसान नहीं है. यह आलेख पहली घटना को समर्पित है. ज्ञातव्य है कि अमर्त्य सेन ने कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना लगभग पचास वर्ष पहले आरंभ की थी. इस विषय पर उनके सैकड़ों शोधप्रपत्र दुनिया-भर की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए. सराहे गए. अनेक पुस्तकें उन्होंने लिखीं जिनमें अर्थशास्त्र से संबंधित कई मौलिक स्थापनाएं की गई थीं. वे अब सिद्धांतरूप में प्रतिष्ठा पाकर अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित हैं. आजकल उनके आधार पर कल्याण योजनाएं बनाई जाती हैं. विद्वान उनपर बहस करते हैं. बाबा आम्टे ने अपने संस्थान श्रमिक विद्यापीठ के माध्यम से मजदूरों का संचालन किया, किंतु जनमानस के बीच उनकी छवि बनी पर्यावरण सुरक्षा हेतु दामोदर घाटी वृहद परियोजना का विरोध कर रहे एक जुझारू कार्यकर्ता की है. अमर्त्य सेन और बाबा आम्टे दोनों की ही कोशिशें बेलगाम पूंजीवाद को अंकुश लगाने की थी. ताकि शताब्दियों से नदी-जंगल और प्रकृति की गोद में जीवन बिताने वाले आदिवासियों का जीवन न उजड़े. समाज और सरकार आम आदमी को भूल न पाएं और विकास का लाभ किनारे पर स्थित नागरिकों तक भी पहुंचे. इन दोनों महापुरुषों का जीवन-संघर्ष और उनके निष्कर्ष सिद्ध करते हैं कि समाज के सर्वांगीण विकास के लिए उसकी प्रत्येक इकाई का सहयोग अत्यावश्यक है. विश्वकल्याण सभी देशों के संयुक्त-समन्वित प्रयास बिना असंभव है. मुट्ठी-भर पूंजीपति शेयर बाजार की रफ्तार को बढ़ा सकते हैं. गरीब का चूल्हा नहीं जला सकते. लोकतंत्र में यह दायित्व कल्याण सरकार का होता है. उन नेताओं का होता है जो लोकसेवा का वायदा कर जनमताधिकार के बल पर संसद में आते हैं. अतएव सम्पूर्ण विकास की अवधारणा तभी साकार हो सकती है जब समाज की प्रत्येक इकाई मनसा-वाचा-कर्मणा आपसी सहयोग को सदा प्रस्तुत हो. और सरकार अपने नागरिकों को रचनात्मक गतिविधियों में लगाकर उनका अधिकतम उपयोग करना जानती हो. पूंजीवाद विकास के लिए स्पर्धा को जरूरी मानता है. लेकिन कल्याण सरकार जानती है कि यदि सभी को एकसमान विकास के दायरे में लाना है, तो फिर स्पर्धा कैसी! यह कार्य तो आपसी सहयोग के द्वारा ही संभव है. अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन एवं सहकारिता में यही लक्ष्यगत साम्य है. जिसपर हम आगे चर्चा करेंगे. उससे पहले उचित होगा कि हम श्री सेन के व्यक्तित्व और कृतित्व की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कर लें, क्योंकि मनुष्य अपने समाज और आस-पास के वातावरण से ही प्रेरणा लेता है. बचपन और अतीत आजीवन हमें उद्वेलित करते हैं. शायद तभी हम यह सकेंगे कि अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन पर उनके जीवनानुभवों की गहरी छप है. उन संस्कारों की छाप है जो उन्हें शांतिनिकेतन की पढ़ाई के दौरान मिले. उनके द्वारा प्रस्तुत कल्याणकारी अर्थशास्त्र उस वौद्धिक संवेदनशीलता का चिंतन-कर्म है, जो बंगाल के वौद्धिक वातावरण की खासियत है.

जीवन नवम्बर मास विश्वभर में चर्चित हस्तियों को जन्म देने वाला महीना रहा हैं इस महीने की तीन तारीख को, वर्ष 1933 में अमर्त्य सेन का जन्म हुआ था. शांतिनिकेतन की पुण्य धरा पर. पिता आशुतोष सेन ढाका में रसायन शास्त्र के अध्यापक थे. देश के प्रमुख रक्षा वैज्ञानिक थे और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के सहयोगी भी. घर ढाका में था. मगर शांति-निकेतन से गहरा संबंध था. साथ में खूब आना-जाना भी. जब भी वहां जाते तो गुरुदेव से अंतरंग बातें होतीं. परिवार में शिक्षा और संस्कृति के संस्कार थे. माँ सुसंस्कृत और विदुषी महिला थीं. अमर्त्य सेन के नाना क्षितिजमोहन सेन की गिनती उस समय के प्रमुख संस्कृत विद्वानों में थी. अपने नाना के प्रभाव से ही अमर्त्य ने संस्कृत सीखी और भाषायी विद्वत्ता हासिल की. संगीत के प्रति प्रेम गुरुदेव के सान्निध्य में रहकर प्राप्त हुआ. अमर्त्य के पूरे परिवार पर गुरुदेव का विशेष स्नेह और आशीर्वाद था. इसलिए जब आशुतोष सेन के परिवार के नए रहस्य का आगमन हुआ तो उसे भी आशीर्वाद के लिए गुरुदेव के समक्ष लाया गया. गुरुदेव ने पूरे स्नेह और दुलार के साथ नवशिशु को नाम दिया—‘अमर्त्य’. सेन उनका कुलनाम था इसलिए पूरा नाम हुआ अमर्त्य सेन. बालक का नामकरण करते हुए गुरुदेव ने कहा था— ‘‘यह असामान्य बालक है. बड़ा होने पर असाधारण व्यक्ति बनेगा. इसका नाम दिग-दिगंत में फैलेगा. मरकर भी इसका नाम अक्षुण्ण रहेगा. इसलिए हमें इसे ‘अमर्त्य’ के नाम से पुकारना चाहिए.’’ कहने की आवश्यकता नहीं कि अजब अमर्त्य सेन नोबल पुरस्कार ग्रहण कर रहे थे तब गुरुदेव का आशीर्वाद और उनकी भविष्यवाणी ही फलित हो रही थी. प्रारंभिक शिक्षा के लिए शांतिनिकेतन से उपयुक्त जगह और भला क्या हो सकती थी. प्रारंभ में संस्कृत विद्वान और डा॓क्टर बनने का सपना देखा था अमर्त्य ने. इसी धुन में स्कूली शिक्षा पूरी की. इंटरमीडिएट में पहुँचे तो उनकी गिनती का॓लेज के मेधावी छात्रों में होने लगी. संस्कृत के अलावा गणित और भौतिक विज्ञान लेकर उन्होंने परीक्षा दी. परिणाम घोषित हुआ. अमर्त्य सर्वाधिक अंक पाकर प्रथम स्थान पर थे. अचानक उनका अर्थशास्त्र के प्रति मोह जाग्रत हुआ. यह परिवर्तन अनायास भी नहीं था. विज्ञान से वैचारिक प्रकृति की परिणति थी. जिसे समझने के लिए हमें अमर्त्य के अतीत में जाना पड़ेगा. वर्ष 1943, बंगाल के इतिहास में काले वर्ष के रूप में दर्ज़ है. अमर्त्य की अवस्था उस समय केवल दस वर्ष की थी. उस वर्ष बंगाल में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा. ढाका में अपने घर के सामने अमर्त्य ने लोगों को भूख संघर्ष करते, भीषण गरीबी की वजह से टूटते, एक-एक दाने के लिए गिड़गिड़ाते, भूख दम तोड़ते-तड़फते हुए लोगों को देखा था. अपनों को आंखों के सामने मौत के मुंह में जाते देख लोगों का रोना-बिलखना सुना था. मनुष्य की वह दुर्दशा भीषण थी. उसको देख अमर्त्य का बाल-मन रो उठा. बचपन की वह छाप जिंदगी-भर पड़ी रही. आज भी अमर्त्य को वे दिन ज्यों के त्यों याद हैं. मानो स्मृति-शिला पर टंके आलेख हों. उस दुर्भिक्ष में डेढ़ लाख से ज्यादा जानें गई थीं. हजारों परिवार उजड़े थे. मरने वालों में अधिकांश गरीब थे. मेहनत-मजदूरी करने वाले. अमीरों के घर तब भी धन-धान्य से भरे हुए थे. अमर्त्य जानते थे कि अमीर अगर अपने आस-पास रह रहे गरीबों के प्रति थोड़ी-सी भी सहृदयता दर्शाते तो हजारों जानें बचाई जा सकती थीं. यह दुःखद घटना अमर्त्य के लिए बहुत क्रांतिकारी सिद्ध हुई. उस घटना ने जीवन की दिशा निर्धारित करने का काम किया. उनके मन में गरीब लोगों के लिए काम करने की ललक बढ़ी. एक और घटना उनके सोच पर गहरा असर डाला. उन दिनों अमर्त्य अपने पिता के पास ढाका में रहते थे. उन दिनों अंग्रेज भारत-विभाजन का निर्णय ले चुके थे. जगह-जगह सांप्रदायिक तनाव व्याप्त था. लोग अपने बच्चों को अकेले बाहर भेजने से डरते थे. एक आदमी दूर गांव से चलकर ढाका काम की तलाश में आया था, कि सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गया. वह लोगों को अपनी स्थिति के बारे में कुछ बता पाए उससे पहले ही कुछ जुनूनी लोगों ने उसपर हमला बोल दिया. चाकुओं की मार से वह पल भर में लहुलुहान होकर जमीन पर लुढ़कने लगा. धर्म के नाम पर हुई उस हिò वारदात ने अमर्त्य को भीतर तक हिला दिया. उसी के धर्म के खाते-पीते लोग उस समय भी बाजार में मौजूद थे. उनपर किसी को हाथ उठाने की हिम्मत न थी. उस दिन अमर्त्य इस नतीजे पर पहुंचे कि आग चाहे गरीबी की हो या सांप्रदायिकता की, उसमें झुलसना गरीब को ही पड़ता है. इन घटनाओं ने उन्हें अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया. अमर्त्य ने कहा भी कि अर्थशास्त्र का संबंध समाज के गरीब और उपेक्षित लोगों के सुधार से है. विज्ञान विषयों का मोह त्यागकर अर्थशास्त्र से जुड़ने का निर्णय भी इसी भावना के साथ लिया गया था. काॅलेज की पढ़ाई के लिए अमर्त्य को कोलकाता जाना पड़ा. दाखिला मिला प्रेसीडेंसी काॅलेज में. प्रकृति अपना काम कर रही थी. उस वर्ष प्रेसीडेंसी का॓लेज में एक और विलक्षण छात्र ने दाखिला लिया था. उनका नाम था सुखमय चक्रवर्ती. अमर्त्य ने विज्ञान वर्ग के विद्यार्थियों में प्रथम स्थान पाया था तो सुखमय कलावर्ग के विद्यार्थयों में सर्वाधिक अंक लेकर प्रथम स्थान पर आए थे. दोनों एक समान मेधावी थे, इसलिए मित्र बनते देर न लगी. दोनों की इच्छा अर्थशास्त्र में बी.ए. आनर्स करने की थी. शीघ्र ही प्रेसीडेंसी काॅलेज उनकी प्रतिभा की खुशबू से महक उठा. गुरुजन इन दोनों छात्रों की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे। अमर्त्य के एक प्रोफेसर भवदोष दत्त ने तो अपने इन दोनों शिष्यों के बारे में लिखा भी है— ‘‘मैं समझ गया था कि दोनों छात्र असाधारण हैं. उनकी उत्तर पुस्तिकाएं जांचते समय मैं असमंजस में पड़ जाता था. दोनों के उत्तर इतने उत्कृष्ट होते थे कि अपनी दुविधा मिटाने के लिए मैं दोनों को समान अंक देता था.’’ अमर्त्य और सुखमय के बीच गहन मैत्री थी. स्वस्थ स्पर्धा की भावना भी. किसी भी प्रकार का ईष्र्या-द्वेष उनके बीच न था. मगर वार्षिक परीक्षा में बाजी अमर्त्य के हाथ ही लगी. वे प्रथम स्थान पर आए. सुखमय को दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा. प्रथम स्थान पर आकर अमर्त्य को न तो किसी प्रकार का स्वयं पर गर्व हुआ. न सुखमय के मन में उनके प्रति कोई ईर्ष्या-भाव जागा. आगे की पढाई के लिए अमर्त्य को कैम्ब्रिज जाना पड़ा. वहाँ भी अर्थशास्त्र के साथ उन्होंने विशेष प्रणीवता के सहित ट्राइपोस (आ॓नर्स) परीक्षा पास की. उन दिनों अमर्त्य का झुकाव साम्यवादी विचारधारा की ओर था. आगे चलकर साम्यवाद से उनका मोह भंग होता चला गया। उसका स्थान लोकतांत्रिक व्यवस्था ने ले लिया. अर्थशास्त्र के विशद अध्ययन के दौरान अमर्त्य सेन ने अफ्रीकी और एशियाई देशों में पड़े अकालों का विवेचन किया. यही नहीं उन्होंने कोलकाता में पड़े भीषण दुर्भिक्ष को भी अपने अध्ययन का विषय बनाया. लंबे अध्ययन और गहन विश्लेषण के पश्चात् वे इस परिणाम पर पहुँचे कि 1943 का अकाल निरी प्राकृतिक आपदा नहीं थी. बल्कि अकाल जैसी व्यवस्था थी. वह कृत्रिम अकाल एक गैर-जिम्मेदार शासन-व्यवस्था की देन था. ऐसी शासन-व्यवस्था की जो जनसमस्याओं से पूर्णतः अनभिज्ञ थी. जिसके लिए मात्र शोषण ही शासन का पर्याय था. स्वार्थ में डूबी उस व्यवस्था को जनाकांक्षाओं से कोई मतलब न था. एक ओर नियोजन के स्तर पर लापरवाही और अज्ञानता थी, दूसरी ओर जन-आवश्यकताओं की उपेक्षा करते हुए सरकार ने अपने समस्त संसाधन, अनाज, और भोजन-सामग्री एक ऐसे युद्ध की तैयारियों में झोंक दिए थे, जिसका भारत अथवा यहां की जनता से कोई संबंध न था. अमर्त्य का मानना है कि यदि निरंकुश शासन के स्थान पर उस समय देश में जनता के प्रति जवाब देह शासन-व्यवस्था होती तो वह बदनामी से बचने के लिए ऐसे उपाय करती जिनसे उस अकाल जैसी अवस्था से बचा जा सकता था. यह लोकपक्षधरता जनता के मताधिकार द्वारा बनी सरकार द्वारा ही संभव है. अध्ययन पूरा कर अमर्त्य भारत लौटे. मगर नौकरी के लिए भटकना न पड़ा. एक अच्छा अवसर मानो स्वयं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था. लौटते ही वे जाधवपुर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बन गए. उस समय उनकी आयु मात्र तेइस वर्ष थी. मानो यह पद विश्वविद्यालय ने अमर्त्य को न देकर उनकी विलक्षण प्रतिभा को दिया था. इसके पश्चात् अध्ययन-अध्यापन का दौर साथ-साथ चलता रहा. जाधवपुर विश्वविद्यालय से वे दिल्ली स्कूल आ॓फ इकाना॓मिक्स आए. नए अनुभव हुए. मगर राजधानी की आकादमिक क्षेत्र की राजनीति से मन खिन्न रहने लगा. कोलकाता की बार-बार याद आती. बार-बार याद आता शांति-निकेतन का माहौल. गुरुदेव की कविताएं और रवीन्द्र-संगीत. दिल्ली में आठ वर्ष तक अध्यापन दायित्व संभालने के बाद वे लंदन चले गए. वहां ‘लंदन स्कूल आ॓फ इकाना॓मिक्स में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर लग गए. वहां से आक्सफोर्ड. फिर अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय में अध्ययन किया. यात्रा चलती रही. कुछ महीनों बाद ट्रिनिटी विश्वविद्यालय में अध्यापन का प्रस्ताव मिला. हावर्ड की तुलना में यहां वेतन आधा था. सुविधाएं भी कम थीं. मगर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा और पद की गरिमा को देखते हुए अमर्त्य ने वह प्रस्ताव स्वीकार लिया. ट्रिनिटी में वे अकेले गैर अंग्रेज थे जिन्हें यह सम्मान प्राप्त हुआ था. अमर्त्य सेन का निजी जीवन बहुत हलचल भरा और उतार-चढ़ाव वाला रहा. उन्हें जीभ का कैंसर था. बड़े मुश्किल से, लंबे उपचार के पश्चात उन्हें इस जानलेवा बीमारी से मुक्ति मिल सकी. अर्थशास्त्र की बड़ी-बड़ी गुत्थियां सुलझाने वाले अमर्त्य परिवार की पहेलियों में उलझते चले गए. एक के बाद एक उन्होंने तीन विवाह किए. पहला बाँग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका-साहित्यकार नवनीता के साथ हुआ. दोनों के संबंध पंद्रह वर्ष तक खिंचा भी. उसके बाद दोनों का संबंध विच्छेद हो गया. नवनीता से अमर्त्य की दो पुत्रियों ने जन्म लिया— उनका नाम है अंतरा और नंदना. उन्होंने दूसरा विवाह इवा कार्लोनी के संग किया. इवा बहुत स्नेहिल महिला थीं. मगर विडंबना देखिए, वे कैंसर की मरीज बीमारी थीं. इस कारण उनका दांपत्य जीवन बहुत लंबा न खिंच सका. इवा ने भी अमर्त्य की दो संतानों—इंद्राणी और कबीर को जन्म दिया. इवा बीमारी में चल बसीं. अमर्त्य अकेले रह गए. उनका अकेलापन उन्हें एम्मा राइथ्स चाइल्ड के निकट ले गया. एम्मा कभी उनकी शिष्या हुआ करती थीं. बाद में दोनों दांपत्य बंधन में बंध गए. एक ओर विज्ञान से लगाव. डा॓क्टर और संस्कृत विद्वान बनने का सपना. दूसरी ओर अर्थशास्त्र में पांडित्य प्राप्तकर दर्शनशास्त्र के अध्यापन की जिम्मेदारी संभालना, दोनों अलग-अलग धाराएं हैं. एक पूरब को जाती है तो दूसरी पश्चिम की ओर. मगर अमर्त्य सेन ने इसका सफलतापूर्वक निर्वाह किया. इसलिए उनकी विलक्षण प्रतिभा का जितना बखान किया जाए वह कम है. महत्त्वपूर्ण पदों पर रहते हुए, दर्शनशास्त्र और अर्थशास्त्र के अध्यापन का भार तो उन्होंने संभाला ही, कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी लिखीं. महत्त्वपूर्ण उनके सैंकड़ों शोध-निबंध विश्वस्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर विश्व-भर के विद्वानों की सराहना बटोर चुके हैं. उनकी पुस्तकों में ‘पावर्टी एण्ड फेमिंस: एन एस्से आ॓न एन्टाटलमेंट एंड डिप्राइवेशन’ को विशेष ख्याति मिली. अमर्त्य सेन की अन्य प्रमुख कृतियां—‘वेलफेयर एण्ड मैनेजमेंट’, ‘चा॓यस आ॓फ टेकनीक’, ‘हंगर एंड पब्लिक एक्शन’, ‘वेल्यूज एण्ड डेवलपमेंट’, ‘ऐथिक्स एंड इका॓नामिक्स’ आदि हैं. उन्होंने अकाल और उसके पीछे निहित कारणों का गहन अध्ययन किया है, जिसमें उन्होंने भारत, बांग्लादेश, सहाराई देशों तथा चीन में आई प्राकृतिक आपदाओं का विश्लेषणात्मक व तुलनात्मक अध्ययन किया. इससे जो निष्कर्ष निकाले वे न केवल चौकाने वाले हैं, बल्कि इस संबंध में बनी हमारी अब तक की मान्यताओं का निषेध करते हैं. विलक्षण और ख्याति प्राप्त विद्वान होने के बावजूद अमर्त्य सेन आदमी से कितना गहरे तक जुड़े हैं, यह बात न केवल उनके कृतित्व में साफ़ झलकती है बल्कि उनका व्यक्तित्व भी इसे दर्शाता है. कल्याणकारी अर्थशास्त्र में महिलाओं और वंचित वर्ग की आकांक्षाओं को मूर्त्त-रूप देने का स्वप्न उन्होंने देखा है. उनका व्यवहार भी इसके बहुत निकट है. हर वर्ष वे कम से कम तीन बार हिंदुस्तान आते हैं. यहाँ आकर शांतिनिकेतन न जाएं यह संभव नहीं है. विद्यार्थी जीवन में पिता ने एक फिलिप्स साईकिल खरीद कर दी थी. अब वह अमर्त्य सेन जैसी ही बूढ़ी हो चुकी है. साठ वर्ष से लंबी उम्र है उसकी. जब युवा थे तो शांतिनिकेतन में उस साइकिल पर खूब दौड़ लगाया करते थे. अब भी वे दिन याद हैं. शांतिनिकेतन प्रवास के दौरान वह साइकिल आज भी उनके लिए वाहन का काम करती है. उम्र, व्यस्तता और मित्रों की भीड़ के चलते उस साइकिल पर पहले जैसी सवारी भले न गांठ पाएं. पर उसको देखकर देह में वैसा ही रक्त संचार होने लगता है, जो साठ-पैंसठ वर्ष पहले होता था. मौका मिले तो साइकिल पर सवार हो वे घूमने के बहाने निकल जाते हैं. आम जन-जीवन की पड़ताल करने. या कहो कि पीड़ित समाज की नब्ज टटोलने. उस समय अमर्त्य का विराट व्यक्तित्व कहीं गायब हो जाता है. तब ये बिलकुल आम आदमी होते हैं. साइकिल खींचते हुए जब थक जाते हैं तो सड़क किनारे बनी किसी भी मामूली चाय की दुकान पर जाकर खड़े हो जाते हैं. ज्यादातर दुकानदार उन्हें पहचानते हैं. इसलिए देखते ही चाय का पानी चढ़ा देते हैं. तब अमर्त्य दुकान की साधारण-सी बैंच पर बैठकर या फिर खड़े-खड़े ही चाय सुकड़ते हैं. खाने में आज भी उन्हें बंगाली व्यंजन प्रिय हैं. मिट्टी का स्वाद जीवन की सांस-सांस में घुला है. अमर्त्य सेन ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि चिंतन व्यवहार में ढल जाने के बाद ही सार्थक होता है. समाज से परे न कोई सच होता है, न विवेक. उनके कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना भी विशुद्ध शास्त्रीय न होकर मानवीय आकांक्षाओं के अनुरूप है. तभी वह प्रशंसनीय है. उनका मानना है कि किसी भी समाज का विकास तभी संभव है जब उसके विकास के नाम पर बनाई जा रही योजनाएं न केवल जनोन्मुखी हों, बल्कि वे जनसहयोग की अपेक्षा भी रखती हों. आमूल विकास के लिए जरूरी है कि लोग अपनी समस्याओं को समझें, सोचें-विचारें और संगठित होकर समाधान की खोज करें. विकास की राह में पड़ने वाली बाधाओं से जूझने का उनमें विवेक हो. यही बात है जो कल्याणकारी अर्थशास्त्र और सहकारिता को एकबद्ध करती है. आधुनिक कल्याणकारी अर्थशास्त्र और सहकारिता के अंतःसंबंधों की पड़ताल की कोशिश इस आलेख के अगले हिस्सों में जारी रहेगी. फिलहाल इतना बता देना पर्याप्त होगा कि कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना में जिन सामाजिक लक्ष्यों को मात्र मनुष्य के लिए हितकर और आवश्यक माना गया है, उन्हें प्राप्त करने के लिए सहकारिता केवल माध्यम-भर नहीं है, बल्कि इसे जीवन-पद्धति बनाने पर भी जोर दिया गया है.


अर्थचिंतन अर्थशास्त्र को सामान्यतः एक शुष्क और उबाऊ विषय माना जाता है. यह धारणा आम है कि अर्थशास्त्र मनुष्य, पूंजी एवं विकास के अंतःसंबंधों की समीक्षा नितांत बौद्धिक तकनीक के आधार पर करता है। अर्थशास्त्र के अनुसार अर्थ-विनियोजन की कुशलता, कम पूंजीनिवेश द्वारा अधिकतम लाभ कमाने की अवधारणा में निहित रहती है. हर पूंजीपति सौ रूपये लगाकर हजार रूपये कमाने का सपना देखता है. मगर यह शोषण के बिना संभव नहीं. अर्थशास्त्र की प्रायः सभी स्थापनाएं, सिद्धांत, नियम आदि आंकड़ों पर निर्भर करते हैं. आंकड़ों की विश्वसनीयता का स्तर ही अर्थशास्त्रीय नियमों की विश्वसनीयता का स्तर ही अर्थशास्त्रीय नियमों की शुद्धता वह प्रमाणिकता को निर्धारित करता है. अर्थशास्त्री अपनी बौद्धिक क्षमता, लगन व परिस्थितियों के अनुसार आंकड़ों का संचयन करता है. उन आंकड़ों का विश्लेषण जिन सामान्य निष्कर्षों की ओर ले जाता है, वही कालांतर में सिद्धांतों का रूप ग्रहण कर लेते हैं. आंकड़ों के विश्लेषण में गणितीय औसत या माध्य की सहायता ली जाती है. गणितीय माध्य एक तरह से बीच का रास्ता है, जो अलग दिखने वाले आंकडों के बीच सामान्यता की स्थिति को दर्शाता है, परंतु सामान्य धारणा के विपरीत आंकड़ों का खेल कभी-कभी हमें यथार्थ स्थिति से दूर भी ले जाता है. तब प्राप्त परिणाम विचित्र-सी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अमर्त्य सेन के योगदान को समझने के लिए आंकड़ों के इस मायाजाल को समझना भी बेहद जरूरी है. अपने समकालीन अर्थशास्त्रियों से एकदम विपरीत वे आंकड़ों बचकर निकलने की कोशिश में रहते हैं. उनके अर्थदर्शन की मुख्य विशेषता भी यही है कि उन्होंने अर्थशास्त्र को निष्ठुर आंकड़ों के जाल से मुक्ति दिलाकर उसे अधिकाधिक मानवीय स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की है. अर्थशास्त्र को गणित से अधिक दर्शनशास्त्र के नजरिये से देखा है उन्होंने. इसलिए वे अर्थव्यवस्था के उद्धार के लिए वैसा कोई रास्ता नहीं सुझाते जो एडम स्मिथ और रिकार्डो जैसे अर्थशास्त्रियों की परिपाटी बन चुका है. वे मानते हैं आंकड़ों की बाजीगरी का लाभ पूंजीपति तो उठा सकता है. इसलिए एडम स्मिथ और रिकार्डो के सिद्धांत पर चलने से पूंजीवाद ही फला-फूला है. बहुत जरूरी है कि आर्थिक मुद्दों पर भी संवेदनशीलता के साथ विचार किया जाए, ताकि आमआदमी की समस्याएं चिंतन के दायरे में आ सकें. अमर्त्य सेन से पहले के अर्थशास्त्री पूंजी, श्रम, निवेश, शेयरबाजार, वित्तीय घाटा, मुद्रास्फीति, उद्योग और विकासदर संबंधी आंकड़ों की व्याख्या में ही उलझे थे. मार्क्स तो इस आधार पर वर्गसंघर्ष का ऐलान भी करा चुका था. वे मार्क्स को गलत नहीं मानते. लेकिन उनका मानना है कि साम्यवाद भी अंततः तानाशाही की व्यवस्था है. अंतर सिर्फ इतना है कि इसमें तानाशाही श्रमिक-संगठनों की ओर से सौंपी जाती है. गरीब आदमी के लिए न्याय तभी संभव है, जब उसके लिए सोचने वाली सरकार हो. इसमें भले ही सरकार का भी अपना स्वार्थ क्यों न हो. सत्ता में बने रहने के लिए लोकतांत्रिक सरकारें जनता की अधिक समय तक उपेक्षा नहीं कर सकतीं. आधुनिक अर्थशास्त्री इस बात के लिए अमर्त्य सेन के ऋणी हो सकते हैं कि उन्हेंने उन्हें भूख, गरीबी, अकाल, स्वास्थ्य, शिक्षा और समानता जैसे उपेक्षित मानवीय विषयों पर विचार करने के लिए प्रेरित किया. आम नागरिक की सत्ता और विवेक में भरोसा जताया. उन्होंने स्वयं भी इस क्षेत्र में काफी कार्य किया. अपनी पुस्तकों एवं आलेखों में उन्होंने इन विषयों पर मानव-कल्याण से जुड़ी ऐसी दुर्लभ शोध-सामग्री दी है जिसे उससे पहले अर्थशास्त्र से बाहर समझा जाता था. यहाँ पर यह स्पष्ट कर देने की भी कोई हर्ज नहीं है कि प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण के लिए अमर्त्य सेन ने भी उन्हीं सांख्यिकीय उपादानों का सहारा लिया है जिन्हें उनके पूर्ववर्ती अर्थशास्त्री उपयोग करते रहे हैं, लेकिन निष्कर्षों तक पहुँचने की प्रक्रिया में उन्होंने मानवीय इच्छाओं, आकांक्षाओं और सपनों की उपेक्षा नहीं की, बल्कि इन मुद्दों को निरंतर अपने अध्ययन की केंद्रीय सामग्री बनाए रखा. अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन की यही विशेषता उन्हें मानववादी अर्थशास्त्री की पहचान देती है. अर्थशास्त्रीय विश्लेषण में निरी-बौद्धिकता के स्थान पर संवेदनायुकत बौद्धिकता क्यों आवश्यक है, यह जानने के लिए हम एक उदाहरण की सहायता लेंगे. एक कारखाने की कल्पना करते हैं, जिसमें ऊपर से नीचे तक कुल सौ कर्मचारी हैं. सबसे ऊपर के स्तर पर मालिक, प्रबंधक, निदेशक आदि आते हैं. जिनकी संख्या दस है. मान लें कि कारखाना इनमें से प्रत्येक पर वेतनादि के रूप में, पचास हजार रुपए खर्च करता है. कारखाने के मध्यस्तर के कर्मचारियों की संख्या बीस है. इस वर्ग में सुपरवाइजर, फोरमेन, मिस्त्री आदि शामिल हैं. मान लें कि कारखाना इनमें से हर एक पर पंद्रह हजार रुपये मासिक खर्च करता है. शेष सत्तर कर्मचारियों में छोटे तकनीशियन, मशीन, आ॓परेटर, सहायक आदि शामिल हैं, जिन्हें हर महीने तीन हजार रुपए औसत वेतन प्राप्त होता है. उल्लेखनीय है कि उदाहरण के रूप में हमने यहाँ जो वेतन मान लिए हैं, वे वास्तविकता के काफी निकट हैं. पूँजीवादी संरचना के अंतर्गत कारखानों की वेतन व्यवस्था आमतौर पर ऐसी ही होती है. यहाँ आंकड़ों की विश्वसनीयता भी असंदिग्ध है, क्योंकि कारखाना वेतन की मद में जो धनराशि खर्च करता है उसका रिकार्ड उपलब्ध है. अब यदि हम कारखाने की कुल वेतन-राशि की गणना करें, तो वह दस लाख दस हजार रुपए बैठती है. इस आधार पर कारखाने के एक कर्मचारी का औसत वेतन दस हजार सौ रुपये आता है. यह वेतनमान न तो उच्च-वर्ग पर तैनात अधिकारियों के वेतन को दर्शाता है, न यह निम्न स्तर के कर्मचारियों के वेतन का प्रतिनिधित्व करता है. वस्तुतः औसत वेतनमान कर्मिक-वर्ग के वेतन से साढ़े तीन गुना अधिक व मालिक-वर्ग के वेतन का लगभग पांचवा हिस्सा है. प्राप्त परिणाम मध्य-स्तर पर तैनात कर्मचारियों के संगत बैठाने की कोशिश करते हैं जिनकी संख्या मात्र बीस प्रतिशत है. इस उदाहरण से स्पष्ट है कि मात्र आय संबंधी आँकड़ों के सामान्यीकरण से किसी व्यक्ति अथवा समूह की आर्थिक स्थिति का सही-सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. विशेषकर उन समाजों में जहाँ अमीरी और गरीबी के बीच बहुत लंबा अंतराल हो. अमर्त्य सेन जिन दिनों अर्थशास्त्र की ओर आकर्षित हुए, तब अर्थशास्त्रीय निष्कर्ष विशुद्ध बौद्धिक व्याख्याओं पर आधारित थे. गरीबी थी और गरीबी की रेखा भी. जिसके अनुसार तय सीमा से कम आय वाले परिवारों को गरीबी की रेखा से नीचे मान लिया जाता था. आय का अभिप्राय किसी खास समयावधि की मौद्रिक उपलब्धियों से था. जीवन-स्तर को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों के अभाव में यह व्यवस्था निर्धनता की वास्तविकता स्थिति को स्पष्ट कर पाने में असमर्थ थी. अमर्त्य सेन ने निर्धनता को बहुत करीब से देखा था. 1943 में बंगाल में पड़े भयंकर दुर्भिक्ष की स्मृति उनके मानस में सुरक्षित थी. ढाका तो वैसे ही गरीबी का मारा हुआ शहर था. किसी जमाने में दुनिया-भर को रेशमी वस्त्रों की आपूर्ति करने वाले कारीगर मशीनों के आगमन के बाद से बेरोजगारी का दंश झेल रहे थे. जिस काम को पीढ़ियों से संभालते आए थे, जिससे उनकी पहचान थी, उनके बच्चे उसी काम से दम तोड़ रहे थे. गरीबी की मार से वहाँ उन्होंने लोगों को एक-एक रोटी की खातिर तड़फते, भूख से फड़फड़ाते, दम तोड़ते, बूढ़े-बच्चों, स्त्री-पुरुषों को देखा था. अर्थशास्त्र को अध्ययन का विषय चुनने के पीछे उनका उद्देश्य गरीबी से जूझना ही था. इसलिए अर्थशास्त्रीय विवेचना के दौरान उन्होंने समाज के निम्नतर व्यक्ति की आर्थिक व सामाजिक जरूरतों को समझने व गरीबी के कारणों की समीक्षा करने पर पूरा ध्यान दिया. उन्होंने समाज में आय-वितरण की स्थिति को दर्शाने के लिए निर्धनता सूचकांक विकसित किया. इसके लिए आय-वितरण, आय में असमानता और विभिन्न आय वितरणों में समाज की क्रय क्षमता के संबंधों की सूक्ष्म, व्याख्या करते हुए, अमर्त्य सेन ने निर्धनता सूचकांक व अन्य कल्याण संकेतकों को परिभाषित किया. यह बड़ा काम था. कल्याण सूचकांकों की आवश्यकता विभिन्न देशों में चल रही कल्याण वितरण की प्रक्रिया का तुलनात्मक अध्ययन अथवा अपने ही देश में कल्याण वितरण की व्यवस्था की समीक्षा एवं उसके प्रभावों का अध्ययन करने के लिए पड़ती है. इससे निर्धनता के लक्षणों को समझना और उसकी वास्तविकता की तह में जाना आसान हो गया. इससे पहले, जैसा कि हम पहले भी स्पष्ट कर चुके हैं, निर्धनता की स्थिति को समझने के लिए जनसंख्या के उस हिस्से को आधार बनाया जाता था जिसकी आमदनी पूर्वनिर्धारित आय अर्थात गरीबी की कथित रेखा से कम होती थी. इस व्यवस्था की सबसे बड़ी दुर्बलता यह है कि समूह की सकल आय बढ़ जाने के बाद भी निर्धनता की वास्तविक स्थिति में सुधार होना, अवश्यंभावी नहीं होता. उपर्युक्त उदाहरण में ही यदि औसत वेतन दुगुना कर दिया तो भी आवश्यक नहीं है कि कारखाने के प्रत्येक कर्मचारी का वेतन दुगुना हो जाएगा। क्योंकि समूह की कुल आमदनी बढ़ने का अभिप्रायः निम्नतर सदस्य की आमदनी बढ़ना नहीं होता. इन समस्याओं का निराकरण करने के अमर्त्य सेन ने शिक्षा, समानता, पोषण और कल्याण कार्यक्रमों में दुर्बल वर्ग की हिस्सेदारी की महत्ता दर्शाते हुए निर्धनता सूचकांकों को युक्ति-संगत बनाने की कोशिश की थी. जिसे आगे चलकर व्यापक स्वीकृति प्राप्त हुई. अमर्त्य सेन द्वारा विकसित निर्धनता सूचकांकों का उपयोग आजकल मानव-विकास सूचकांकों के अध्ययन में भी किया जाता है. अमर्त्य सेन की इस देन की महत्ता को स्वीकारते हुए प्रो. दीपक नायर लिखते हैं— ‘निर्धनता की रेखा की चर्चा अर्थशास्त्री अर्से से करते आ रहे हैं. हर कोई जानता है कि निर्धनता की रेखा भी कुछ होती है. परंतु कोई व्यक्ति इस रेखा से कितना नीचे है, इसे मापने की विधि सेन ने ही बतलाई. इस तरह अमर्त्य सेन द्वारा की गई स्थापनाएं गरीबी की वास्तविक पड़ताल करने के साथ-साथ उन स्थितियों की और भी स्पष्ट संकेत करती हैं जो गरीबी को बनाए रखने में सहायक सिद्ध होती हैं.’ उनकी दृढ़ मान्यता है कि कल्याण की स्थिति तक पहुंचने के लिए समता-महत्त्वपूर्ण नहीं होती, महत्व हमेशा उन गतिविधियों का होता है जिनके लिए समता की आवश्यकता पड़ती है. लोकतंत्र अपने नागरिकों के विकास के लिए सबको समान अवसर उपलब्ध कराने का पक्षधर होता है, लेकिन अवसर ही न हों तो? पुनश्चः समान आय का महत्त्व उसके द्वारा सृजित अवसरों के कारण होता है. अमर्त्य सेन ने इन अवसरों को ‘क्षमताएं’ भी कहा है. इन अवसरों (या क्षमताओं) की आवश्यकता व्यक्ति के स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक समानता तथा संसाधनों के वितरण की स्थिति पर भी निर्भर करती है. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अमर्त्य सेन का इतना ही मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण योगदान अकाल संबंधी अध्ययन के लिए है. इस बारे में अमर्त्य सेन से पहले सामान्य धारणा यह थी कि अकाल खाद्यान्नों की अनुपलब्धता के कारण होते हैं, परन्तु दुनिया में पड़े अकालों के विस्तृत एवं तार्किक विश्लेषण के आधार पर अमर्त्य सेन ने बताया कि अकाल का मुख्य कारण मूलतः वे सामाजिक, आर्थिक अथवा राजनीतिक परिस्थितियां हैं जो व्यक्ति के क्रय शक्ति का ह्रास करती हैं. अपने अकाट्य तर्कों से उन्होंने स्पष्ट किया कि 1943 का पश्चिमी बंगाल का अकाल पूर्णतः प्राकृतिक आपदा नहीं थी. वह मानव-निर्मित आपदा थी. तत्कालीन सरकार ने जनावश्यकताओं की उपेक्षा करते हुए अपने समस्त संसाधनों को विश्वयुद्ध में विभिन्न मोर्चों पर लड़ रही विदेशी सेना के ऊपर झोंक दिया था. जिस समय लोग भूख से दम तोड़ रहे थे, सरकार विश्वयुद्ध में मित्र सेनाओं की विजय-कामना कर रही थी. भारत और यहां के नागरिक गोया युद्ध के अलावा किसी और काम के न थे. दूसरे पश्चिमी बंगाल उन दिनों स्वतंत्रता सेनानियों का गढ़ था. उन पर अपना गुस्सा उतारते हुए अंग्रेज सरकार ने स्थानीय जनता के हितों की भी अनदेखी की. उन दिनों देश के बाकी हिस्सों में अनाज उत्पादन सामान्य रहा था. बंगाल में ही जमींदारों और साहूकारों के गोदाम भरे पड़े थे. सरकार यदि प्रयत्न करती तो जरूरतमंदों के लिए खाद्यान्न की आसानी से आपूर्ति कर सकती थी. इससे आपदाग्रस्त क्षेत्रों में हजारों लोगों को बचाया जा सकता था. मगर सरकार अपने स्वार्थ से एक भी कदम पीछे न हटी. परिणाम यह हुआ कि लाखों लोग अकाल के कारण मौत के आगोश में चले गए. अगर उस समय देश में लोकतंत्र होता तो, जनता और उसके नुमाइंदे संसद में अकालपीड़ितों के पक्ष में आवाज उठाकर सरकार की नाक में दम कर सकते थे. लेकिन साम्राज्यवादी सरकार के आगे आम भारतीय तो दूर, उसके नेताओं की कोई सुनवाई न थी. भारत के अतिरिक्त अमर्त्य सेन ने बांग्लादेश, इथियोपिया, कोरिया और सहारा क्षेत्रों में पड़े अकालों तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं का विशद् एवं तुलनात्मक अध्ययन भी किया. उन्होंने सिद्ध किया कि बांग्लादेश में पड़े अकाल का कारण भी खाद्यानों की कमी नहीं थी उन दिनों बांग्लादेश को भयंकर बाढ़ का सामना करना पड़ा था, जिससे किसानों की फसल तबाह हो गई. बाढ़ में घिरा होने के कारण अगले मौसम की फसलों की बुवाई भी रुक गई, जिससे खेतिहर मजदूरों के रोजगार अवसरों में अप्रत्याशित और भारी गिरावट आई. रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था न होने के कारण लोगों की आमदनी तेजी से गिरी, जिससे उनकी क्रय शक्ति समाप्त हो गई. लोग भूख से मरने लगे. परिणामस्वरूप वहां भी अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई. अफ्रीका में पड़े अकालों या वैसी स्थितियों के कारण भी वहाँ की आर्थिक व राजनैतिक अस्थिरता एवं युद्ध की आशंकाओं में निहित हैं, जिनसे पूंजी को अनुत्पादक मदों में सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति बढ़ती है. अकाल-संबंधी अध्ययन के दौरान अमर्त्य सेन इस चौंकाने वाले परिणाम पर पहुंचे कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अकाल जैसी स्थितियां उत्पन्न नहीं हो पातीं. क्योंकि जनता के प्रति जवाबदेह सरकारों के लिए जनसमस्याओं की अनदेखी कर पाना संभव नहीं होता. भारत का उदाहरण देते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि यहाँ आजादी के बाद कई ऐसे अवसर आए जब खाद्यान्न-उत्पादन आवश्यकता से कम रहा. कई स्थानों पर बाढ़ एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसलों को काफी नुकसान पहुंचा. परंतु सरकार ने वितरण व्यवस्था को चुस्त बनाकर अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न न होने दी. आजकल मुक्त अर्थव्यवस्था और आर्थिक उदारीकरण के सिद्धांत को विश्व के प्रायः सभी देशों में मान्यता प्राप्त है. अधिकांश देश इसे अपना चुके हैं. जो बचे हैं वे इसे अपनाने की प्रक्रिया में हैं. चीन और रूस जैसे साम्यवादी देश भी पूंजीवाद का राग अलाप रहे हैं. अमर्त्य सेन आर्थिक भूमंडलीकरण के सिद्धांत की उपयोगिता को तो स्वीकारते हैं, परंतु उनका मानना है कि मानव संसाधनों के विकास के बिना भूमंडलीकरण के लक्ष्यों को प्राप्त करना संभव नहीं है. शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक समानता के अभाव में भूमंडलीकरण अनेक परेशानियों का जनक भी बन सकता है. विश्व-स्तर पर स्पर्धा के लिए आवश्यक है कि हम भी अपने समाज को भी वैसा ही उन्नत बनाएं. तभी वैश्विक सहभागिता पनप सकती है. भूमंडलीकरण से उनका आशय है, विकास की समरसता. उसमें जन-जन की सहभागिता. इनके अभाव में भूमंडलीकरण किस प्रकार खतरा बन सकता है, इसके लिए वे इंडोनेशिया का उदाहरण देते हैं. बाकी देशों की तरह इंडोनेशिया ने भी मुक्त-व्यवस्था को अपनाते हुए भूमंलडीकरण के सिद्धांत को स्वीकृति दी थी. इससे वहां बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा पूंजी-निवेश की बाढ़-सी आ गई. अर्थव्यवस्था में आश्चर्यजनक सुधार होने लगा. प्रति व्यक्ति आय बढ़ी. समृद्धि आई, परंतु मंदी की संभावना के कारण बहुराष्ट्रीय निगमों ने अचानक पूंजी समेटना शुरू कर दिया. इस अप्रत्याशित पूंजी-पलायन से बेरोज़गारी बढ़ी. बैंक खाली पड़ने लगे. लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. परिणामतः देश गंभीर आर्थिक संकट में फंस गया. अमर्त्य सेन अर्थशास्त्र के फलक को व्यापक बनाना चाहते हैं. उनके सामाजिक सरोकार स्पष्टतः मानवीय हैं. वे प्रश्न करते हैं कि ऐसा क्या और कैसे संभव है कि समाज अपनी प्राथमिकताएं अपने सदस्यों की पसंद और अपेक्षाओं के अनुसार तय करे. आम सहमति के अनुसार ही श्रेष्ठ विकल्प चुना जा सकता है. उसपर किसी प्रकार के विवाद की संभावना नहीं रहती. परंतु एक सार्थक आम-सहमति के लिए समाज के विवेकीकरण की आवश्यकता पड़ती है. यह तभी संभव है, जब समाज का वौद्धिक स्तर ऊंचा हो. उसमें कम से कम आंतरिक तनाव हों. अगर किन्हीं कारणों से आमसहमति अगर न बन पाए तो क्या करें? वह कौन सा रास्ता है जब परस्पर विरोधी दिखने वाले विचारों का समन्वय कर ऐसे निर्णय लिए जा सकते हैं जो सारे समाज के लिए कल्याणकारी सिद्ध हों? अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ये प्रश्न साठ के दशक में ही चर्चा में आ चुके थे. कुछ अर्थशास्त्री इन पर गंभीरतापूर्वक कार्य भी कर रहे थे. 1972 में प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री कैनेथ केरो ने विभिन्न विचारों के समन्वय और विशिष्ट पसंदों यथा मानवीय मूल्यों एवं कल्याण संसाधनों के वितरण के लिए बहुमत के विकल्प को अपनाने का सुझाव दिया. सहकारिता यह काम उनीसवीं शताब्दी के मध्याह्न में ही प्रारंभ कर चुकी थी. उसने स्वयं को पूंजीवाद के सशक्त विकल्प के रूप में खड़ा किया था. लेकिन बाद में सहकारी संस्थाओं पर भी राजनीति और बाजारवाद का रंग चढ़ने लगा. वे कर्तव्य के बजाय अधिकारों की बातें करने लगीं. नतीजा यह हुआ कि वे अपने लक्ष्य से भटकती चलीं गईं. और आजकल तो बड़े सहकारी संस्थान अपने उद्योगों के प्रबंधन के लिए वही मापदंड अपनाते हैं, जो दूसरे पूंजीवादी कारखानों में चलता है. केरो का यह भी मानना था कि ऐसा कोई निर्णय नहीं है, जो सभी परिस्थितियों में खरा बना रहे. विकल्प की कसौटी के रूप में उन्होंने पांच स्वयंसिद्ध निष्कर्षों की संकल्पना की. केरो के अनुसार स्वयंसिद्ध निष्कर्ष वे हैं जो स्वयं में तर्कपूर्ण प्रतीत हों. जैसे कि व्यक्तिगत अधिकार, स्वास्थ्य, शिखा व समानता आदि. जरा सोचकर देखिए. कोई समाजवादी व्यवस्था भी इसी प्रकार की कामना करती है. अमर्त्य सेन ने केरो की विचारधारा को विकसित करते हुए कहा था कि सामूहिक निर्णयों को सदैव गैर-अधिनायकवादी होना चाहिए. व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा की न्यूनतम शर्त यह है कि यह नियम कुछ भाग के लोगों की व्यक्तिगत क्षेत्र से जुड़ी पसंदों को ध्यान में रखे। व्यक्तिगत और सामाजिक पसंदों के बीच तालमेल बनाए रखना बड़ा जटिल कार्य है. यह अमर्त्य सेन भी मानते हैं. व्यक्तिगत अधिकारों तथा सामूहिक निर्णय के नियम के कल्याणकारी समन्वय के प्रयास में आज भी अनेक अर्थशास्त्री जुटे हुए हैं. अमर्त्य सेन छटे दशक से अर्थशास्त्र के क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं. जिस कल्याणकारी अर्थशास्त्र के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है उसका खुलासा उन्होंने अपनी पुस्तक ‘सामूहिक विकल्प और सामाजिक कल्याण’ में 1970 में ही कर दिया था. मगर तब भूमंलडीकरण का नया जोश था. पूंजीवाद के इशारे पर नाचते देश किसी की सुनने को तैयार न थे. अमर्त्य सेन की स्थापनाएं अर्थशास्त्र के पाठ्यक्रमों में तो स्थान पा सकीं, मगर उन्हें सही सम्मान जिसके वे बहुत पहले से हक़दार थे, मिलने में तीन दशक लग गए. यह सब अचानक नहीं हुआ। बल्कि अनियोजित पूंजीकरण के कारण पैदा हुए असंतुलन के कारण विद्वानों को अमर्त्य सेन को सम्मानित करने के लिए बाध्य होना पड़ा. भूमंडलीकरण अभियान का अगुआ देश अमेरिका भी इस असंतुलन से अछूता नहीं रहा. ‘अंतरराष्ट्रीय शोध संगठन ‘यूनाइटेड फा॓र फेयर इका॓ना॓मी’ की ‘शती की समाप्ति पर आर्थिक असमानता’ शीर्षक से रिपोर्ट में दुनिया-भर की अर्थव्यवस्था को राह दिखाने का दम भरने वाले दंभी अमेरिका के खोखलेपन का उजागर किया गया है. रिपोर्ट में उल्लिखित है कि पिछले दशक में अमेरिका अर्थव्यवस्था ने जहां चंद लोगों को अरबपतियों की कतार में पहुंचाया, वहीं तीस लाख से अधिक आबादी को गरीबी को गर्त में ढकेल दिया. एक सर्वे ने बताया था कि भारत के बीस करोड़ से अधिक लोग प्रतिदिन बीस रुपये कम की आय पर जीवन-निर्वाह करते हैं. वेतन विसंगतियों का हाल यह है कि प्रमुख बड़ी कंपनियों के कार्यकारी अधिकारी, आम फैक्ट्री मजदूर की तुलना में 1000 गुना तक अधिक वेतन लेते हैं. 1968 के मुकाबले अमेरिकी डाॅलर की क्रय क्षमता 31 प्रतिशत घटी है. स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के नाम पर आपाधापी में की गई कोशिशें के नाम पर पूंजीवाद ही थोपा गया है, जिससे कारखानेदार अमीर पर अमीर होते जा रहे, जबकि आम आदमी की गरीबी और दुर्दशा बढ़ती ही जा रही है. साम्राज्यवाद के दौर में औपनिवेशिक देशों की पूंजी अमीर देशों की ओर खिंचती चली जाती है. पूंजीवाद के फलस्वरूप विकासशील देशों में भी अमीरों की संख्या तेजी से बढ़ी है. मगर वहां विकास के नाम पर सिर्फ इतना हुआ है कि आमआदमी की गाढ़ी कमाई उद्योगपतियों का खजाना बढ़ाने में लगी है. लगता है कि हम अमेरिका के किसी आर्थिक उपनिवेश में जी रहे हैं. यह देखते हुए, भारत जैसे देश में, जहां तीन-चौथाई आबादी सरकार की ओर उम्मीद-भरी नजरों से देख रही हो, मुक्त-अर्थव्यवस्था के नाम पर छदम् पूंजीवाद थोपने या दूसरे देशों का अंधानुकरण करने की अपेक्षा अमर्त्य सेन के विचारों से प्रेरणा लेना बहुत आवश्यक है. इस दृष्टि से देखें तो उनके कृत्य का मूल्यांकन देर से ही सही मगर ठीक समय पर हुआ है. अमर्त्य सेन के विचारों का लाभ उठाकर हम भूमंडलीकरण जो आज बदले समय की आवश्यकता बन गया-सा लगता है, की खामियों पर नज़र रख सकते हैं तथा उसके लाभों में उस वंचित वर्ग की सहभागिता सुनिश्चित कर सकते हैं, जो अभी तक चले विकास-आंदोलनों के लाभ से अछूता रहा है. यदि ऐसा तो अमर्त्य सेन सदियों तक याद किए जाएंगे. क्योंकि उनके विचारों में जनाकांक्षाओं की प्रतिध्वनि है. वे अर्थव्यवस्था के विकेंद्रीकरण के प्रबल पक्षधर हैं, जिसकी हिमायत गांधी, लोहिया और विनोबा जैसे नेता भी कर चुके हैं. इसलिए अमर्त्य सेन के विचार न केवल अपने से लगते हैं बल्कि वे भारतीय परिस्थितियों से सर्वाधिक अनुकूल भी हैं. अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन की इससे बड़ी विश्वसनीयता क्या होगी कि राबर्ट सोलो जो स्वयं पूर्व नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री है, उन्हें अपने व्यवसाय यानी अर्थशास्त्र की आत्मा स्वीकारते हैं. जबकि केनेथ केरो निःसंकोच भाव से स्वीकारते हैं— ‘मैंने उन(अमर्त्य सेन)से बहुत कुछ सीखा है.’ केनेथ केरो ही क्यों दुनिया के बहुत से अर्थशास्त्री-विद्वान-विद्यार्थी-समाजशास्त्री, जो समाज में लगातार बढ़ते स्तरीकरण से चिंतित हैं, अमर्त्य सेन के अर्थचिंतन से प्रेरणा लेते नजर आते हैं. अमर्त्य सेन के अर्थचिंतन और सहकारिता का साम्य अमर्त्य सेन के विचार समाजवाद और उसके समानधर्मा विचार सहकारिता की भावना से काफी मेल खाते हैं. अमर्त्य सेन कल्याण सरकार के रूप में जिस व्यवस्था की बात रखते हैं, वही समाजवाद और सहकारिता का सपना है. उल्लेखनीय है कि किसी भी नई खोज अथवा विचार की महत्ता समाज के प्रति उसकी उपयोगिता के आधार पर तय की जाती है. उससे संबंधित सभी पूर्व प्रचलित सिद्धांत अथवा विचार इस निर्णय की कसौटी बनते हैं. तुलनात्मक आधार पर अधिक उपयोगी पाए जाने पर ही नए विचार को सार्वजनिक स्वीकृति मिल पाती है. तथापि यह आवश्यक नहीं है कि नया विचार सर्वथा मौलिक एवं परंपरा से हटकर हो! कभी-कभी पुराने और अप्रचलित सिद्धांत जो विभिन्न कारणों से अप्रासंगिक करार दे दिए जाते हैं, की युगानुकूल एवं तार्किक पुनःव्याख्या भी नए-से लगने वाले सिद्धांत को जन्म दे देती है. इस तरह कालातीत मान लिया गया विचार भी नए सिद्धांत को जन्म दे देती है. अमर्त्य सेन का अर्थदर्शन भी कदाचित ऐसे ही विचारों की जिन्हें विकास की दौड़ से कालातीत अप्रासंगिक, या पिछड़ा मान लिया गया या, समसामयिक एवं युगानुकूल व्याख्या है. सीधे शब्दों में कहें तो अमर्त्य सेन ने आपसी सहयोग, संसाधनों के जनतांत्रिक उपयोग, एवं उत्तरदायी जनतांत्रिक सत्ता के लक्षणों एवं जनकल्याण हेतु इनकी उपयोगिता का अर्थशास्त्रीय भाषा में विश्लेषण किया है. उनके कल्याणकारी अर्थशास्त्र के निहितार्थ महात्मा गाँधी के ग्राम स्वराज व आचार्य विनोबा भावे के सर्वोदय से अलग नहीं हैं. इन दोनों महापुरुषों ने जिस विकेंद्रीकृत व्यवस्था की परिकल्पना की थी, और जिस आत्मनिर्भर समाज का सपना हमें दिखाया था, अमर्त्य सेन का सिद्धांत उसी की अर्थशास्त्रीय व्याख्या है. सुविज्ञ अर्थशास्त्री होने के कारण अमर्त्य सेन की व्याख्याएं और प्रस्तुतीकरण का ढंग परंपरा से हटकर है. वे अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों का लोक से निरपेक्ष रहकर विश्लेषण नहीं करते, अपितु सरकार के प्रत्येक निर्णय में उसकी भागीदारी को सुनिश्चित रखना चाहते हैं. लोकतंत्र में निर्णय की प्रक्रिया लोकप्रतिनिधियों द्वारा संपन्न होती है, इसलिए वे लोकतंत्र पर जोर देते हैं. उल्लेखनीय है कि समाजवाद और सहकारिता दोनों ही विचार लोकतंत्र पर आश्रित हैं. बल्कि सहकारी समिति तो अपने आप में ही लोकतांत्रिक संगठन होता है. समूह के सदस्य आपसी विकास के लिए अपनी आवश्यकताओं के सामान्यीकरण और संसाधनों के साझा उपयोग पर जोर देते हैं. अमर्त्य सेन का सामूहिक विकल्पों का सिद्धांत सहकारिता के सामूहिक विकास की अभिकल्पना का ही विस्तार है. हालांकि वे सीधे-सीधे सहकारिता का पक्ष नहीं लेते, न वे समाजवाद को आंदोलनों के रूप में आगे बढ़ाने की बात कहते हैं, बल्कि वे सभी लक्ष्य जो समाजवाद और सहकारिता के माध्यम से जा सकते हैं, उन्हें कल्याण सरकार का दायित्व बताकर वे जनप्रतिनिधियों से अधिक जागरूक, समर्पित और सक्रिय बने रहने की अपेक्षा रखते हैं. वे लोक को भी जाग्रत बनाना चाहते हैं. ताकि जनप्रतिनिधियों के चयन के समय बिना किसी भेद-भाव और जातीय पूर्वाग्रह के निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सेदारी कर सकें. अमर्त्य सेन के अर्थचिंतन की प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने जिन विचारों को अपने चिंतन का आधार बनाया है, इससे पहले उन्हें अर्थशास्त्र की विषयवस्तु मानने की परंपरा नहीं थी! उन्हांने सामूहिक विकल्पों के चुनाव पर सर्वाधिक जोर दिया हैं; इसके पीछे उनकी मंशा विकासचक्र को उस गरीब आदमी तक ले जाने की रही है, जो वर्तमान व्यवस्था में वंचित ओर बहिष्कृत है, और यदि हम गंभीरतापूर्वक सोचकर देखें तो यही समाजवाद का उद्देश्य है, यही सहकारिता आपसी मेलजोल के माध्यम से प्राप्त करना चाहती है. सामूहिक विकल्प या विकल्पों के सर्वसम्मति (अथवा कम से कम सामान्य सहमति) से चुनने की अवधारणा, सहकारिता की भावना के काफी निकट है. सहकारिता सर्वसम्मति से लिए गए निर्णयों को, सीमित संसाधनों द्वारा, फलीभूत करने के लिए किए गए प्रयासों का नाम है, जिनमें समूह के प्रत्येक सदस्य की यथा सामथ्र्य साझेदारी होती है. जहां संसाधन सीमित मात्रा संख्या में हों. संसाधनों की प्रचुर उपलब्धता की स्थिति में सहकारिता की जरूरत ही नहीं पड़ती. यद्यपि ऐसा बहुत कम होता पाता है. समाज में लोगों की महत्वाकांक्षाएं जितनी तेजी से बढ़ती हैं, संसाधनों का सृजन उतनी तीव्रता के साथ नहीं हो पाता. अतः सहकारिता की उपयोगिता हमेशा बनी रहती है. सहकारिता का दूसरा और महत्त्वपूर्ण लक्षण है सहकार अर्थात समान उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए एक-दूसरे के साथ संगठित प्रयास करने का संकल्प. अमर्त्य सेन जब कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना करते हैं; तब उनका इशारा निसंदेह विकासशील समाजों की ओर होता है. जहाँ गरीबी है, अशिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हैं, धर्म और जाति के आधार पर भारी भेदभाव हैं. संसाधनों का असमान बंटवारा और विकास के अवसरों में धांधलेबाजी है. इस प्रकार कल्याणकारी अर्थशास्त्र और सहकारिता की आवश्यकता लगभग एक जैसे, विकासमान या विकास की परंपरा से कटे हुए, समाजों में पड़ती है.

किसी समूह द्वारा विकास की दिशा में किए जा रहे संगठित प्रयासों में सफलता के लिए उसके सदस्यों की अधिकतम भागीदारी एवं समूह के लक्ष्यों के प्रति सर्वसहमति अथवा आमसहमति होनी आवश्यक है. साथ ही जरूरी है नेतृत्व के प्रति आस्था! समूह के साथियों के प्रति विश्वास और अपनत्व की भावना. इनके अभाव में समूह के प्रयासों के प्रति असदस्यों का ईमानदार रह पाना संभव नहीं है, जिन्हें नेतृत्व तथा सामूहिक लक्ष्यों के प्रति अनास्था है; या जो मानते हैं कि नेतृत्व द्वारा उनके हितों की निरंतर उपेक्षा की जा रही हैं, वे कालांतर में संगठन से दूर जाने लगते हैं. जिससे सहकारिता और सहविकास का लक्ष्य अधूरा रह जाता है. अभिप्रायः यह है कि समाज के सर्वांगीण विकास के लिए अमर्त्य सेन जैसे कल्याण राज्य की विवेचना अपनी व्याख्याओं में करते हैं, सहकारी समूह के सर्वतोन्मुखी विकास के लिए वैसे ही कल्याणकारी नेतृत्व की जरूरत पड़ती है. अमर्त्य सेन, कल्याणकारी अर्थशास्त्र की विवेचना में राज्य नामक सत्ता का न केवल उल्लेख करते हैं, बल्कि उसके कर्तव्यों का निर्धारण करते हुए भी नज़र आते हैं. यद्यपि राजनीतिक विश्लेषण करना उनका अभीष्ठ नहीं, तथापि कल्याणकारी गतिविधियों की व्याख्या के दौरान राज्य की उपस्थिति पर्यवेक्षक सत्ता के रूप में बनी रहती है. जबकि सहकारी समूह स्वयं अनुशासित व समर्पित मानव इकाई (या इकाइयों) द्वारा संचालित उत्प्रेरित होता है. समूह के सदस्य कर्ता होने के साथ-साथ अपने आचरण के स्वयं-पर्यवेक्षक भी होते हैं. उनका यही गुण उन्हें शेष सदस्यों से तालमेल बनाए रखने, निर्णय की प्रक्रिया के दौरान खुलकर विमर्श करने को प्रेरित करता है. उल्लेखनीय है कि के नेतृत्व की आवश्यकता सहकारी समूहों के लिए भी होती है. मगर इसके लिए जिम्मेदार, समूह की शीर्षस्थ शक्तियों का नैतिक आचरण, लक्ष्यों के प्रति उनका समर्पण भाव तथा लक्ष्यों एवं स्थितियों को समझने की उनकी बौद्धिक कुशलता ही समूह के बीच उन्हें विशिष्ठ दर्जा प्रदान करती है. इस तरह बिना कोई संवैधानिक दर्जा पाए अपनी योग्यता एवं समूह के आन्तरिक अनुशासन के बल पर ही वे शेष इकाइयों के प्रेरणास्रोत एवं मार्गदर्शक बने रहते हैं. कल्याणकारी व्यवस्था में राज्य की जिम्मेदारी होती है कि वह जनहित में लोककल्याण के कार्यक्रमों को अपनाए! सामूहिक लक्ष्यों के प्रति राज्य की रजामंदी एवं सहभागिता उन्हें संवैधानिक वैधता एवं आर्थिक सुदृढ़ता प्रदान करती है. इससे लक्ष्यों को अपेक्षाकृत आसानी से और कम समय में प्राप्त किया जा सकता है. हालांकि इससे समूह के राज्यापेक्षी और परावलंबी बन जाने का खतरा बना रहता है, जो अंत में उसको अपने लक्ष्य से भटका भी सकता है. अमर्त्य सेन तानाशाही राज्यव्यवस्था की खामियों का उल्लेख करते हुए कल्याणकारी व्यवस्था के वाहक के रूप में जनतांत्रिक राज्य की अनुशंसा करते हैं। तानाशाह निष्ठुर होता है वह अपने निर्णयों को बलात् पूरे समाज पर थोप देना चाहता है. मगर तानाशाही का एक मात्र यही दुर्गुण नहीं होता. इस व्यवस्था की सबसे भयावह और दुःखद स्थिति यह है कि निहित स्वार्थी व दुराग्रहों को समर्पित तानाशाह दूसरों के मस्तिष्क पर भी अपना अधिकार जमाए रखना चाहता है. वह समाज से, राज्य द्वारा किए जा रहे कार्यों की समीक्षा का अधिकार छीन लेना चाहता है. इससे वैचारिक जड़ता पनपती है और समाज मानसिक रूप से पंगु होता चला जाता है. अतः तानाशाही व्यवस्था में समाज का सर्वांगीण विकास संभव ही नहीं है. आदर्श स्थिति यह है कि राज्य अपने निर्णयों में अधिकतम की भागीदारी सुनिश्चित करे. दूसरे शब्दों में लोकसत्ता व राज्यसत्ता का समन्वित प्रयास ही समाज को विकास के कल्याणकारी लक्ष्यों की ओर ले जा सकता है. आत्मचेतित सहकारी समूह अपनी सदस्य इकाइयों के भौतिक उत्थान के साथ-साथ उन्हें मानसिक स्तर पर भी इतना परिपक्व बनाने का प्रयास सततरूप से करते रहते हैं; ताकि वे निर्णय लेने में आत्मनिर्भर हो सकें. सहकारिता एक प्राकृतिक सिद्धांत है. व्यवहार में सहकारी संस्था/समिति का अभिप्रायः संस्था पंजीकरण अधिनियम-1860 या समिति पंजीकरण अधिनियम 1912 के अंतर्गत गठित व पंजीकृत, क्रमशः संस्था या समिति से लिया जाता है. यद्यपि सहकार के लिए इस प्रकार की औपचारिकताएं पूरी करना आवश्यक नहीं है. कोई भी दो या अधिक व्यक्ति वगैर किसी विधिक अनुबंध के, अनौपचारिक स्तर पर भी सहकार कर सकते हैं. सहकारी अधिनियम के अंतर्गत गठित होने के बावजूद संस्थाएं निर्णय लेने के मामले में स्वतंत्र होती है. उनपर राज्य का नियंत्रण गौण होता है, जबकि कल्याणकारी अर्थशास्त्र की व्याख्या में राज्य की उपस्थिति कहीं निदेशक तो कहीं पर्यवेक्षक सत्ता के रूप में बनी रहती है. इस तरह सहकारिता का अभिप्राय स्वचेतन, आत्मनिर्भर एवं समानता पर आधारित संग्रह से है, जिसका आंतरिक लोकतंत्र मजबूत और स्थायी होता है.

अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन की लोकपक्षधरता

अमर्त्य सेन के अनुसार, कल्याणकारी राज्य का कोई भी नागरिक स्वयं को उपेक्षित महसूस नहीं करता. यह तभी संभव है, जब राज्य द्वारा संचालित कल्याणकारी कार्यक्रमों का सकारात्मक प्रभाव उस वर्ग पर भी पड़े जो अब तक व्यवस्था में अपेक्षित एवं लाभों से वंचित रहा है. सहकारिता की भावना के प्रति समर्पित समूह का लक्ष्य भी समाज के वंचित और उपेक्षित व्यक्तियों को विकास की सामान्य परिधि मे ले आता है. बल्कि सहकारिता ऐसे नागरिकों को जो विकास की धारा से कटे हैं, आपसी सहयोग और संसाधनों के सामन्जस्य के आधार पर, विकास का अवसर प्रदान करती है. जिससे वे सरकार की मदद के बिना भी स्वयं को मुख्यधारा से जोड़े रह सकते हैं. कहा जा सकता है कि कल्याणकारी राज्य के कार्यक्रम पूरे राष्ट्र की जनता के हित के लिए बनाए जाते हैं, जबकि सहकारी समूह के प्रयास अपनी सदस्य इकाइयों के उत्थान तक ही सीमित रहते हैं. व्यवहार में यह सच है. इसलिए भी कि सहकारी समूह के सदस्य अपने-अपने संसाधनों का समन्वित उपयोग, पूरे समूह के विकास के लिए करते हैं! सहकारिता की प्रारंभिक स्थिति जिसे हम समूह के सदस्यों का प्रशिक्षणकाल भी कह सकते हैं, में ऐसा होना संभव है, परंतु जैसे-जैसे सदस्य इकाइयां सहकारिता की भावना को आत्मसात करती जाती हैं, उनके निजत्व का घेरा भी टूटता चला जाता है. जिस तरह आदर्श राष्ट्र संपूर्ण विश्व को अपना समझता है, उसी प्रकार सहकारी समूह भी अपने समाज से इतर संपूर्ण राष्ट्र की और तदनंतर पूरे विश्व को अपना लेता है. तब व्यक्ति किसी एक समूह या राष्ट्र का नागरिक न रहकर, संपूर्ण विश्व का नागरिक बन जाता है. ‘वषुधैवकुटुम्बकम्’ या ‘विश्वग्राम’ की संकल्पना के पीछे भारतीय मनीषियों की यही अवधारणा रही है. इसी भावना के आधीन आचार्य विनोबा भावे आपसी अभिवादन में ‘जयहिंद’ के स्थान पर ‘जय जगत’ कहने का आग्रह करते थे. कहा यह भी जा सकता है कि यह असंभव है. नितांत आदर्श स्थिति है, जिसे व्यवहार में ढालना संभव ही नहीं है. परंतु सत्य यह भी है कि मानव स्थितियां, भले ही वह काल्पनिक क्यों न हों, आचरण को परखने की कसौटी बनती हैं. नैतिकता भले ही जनसाधारण के लिए सुदूर लक्ष्य हो मगर कर्मयोगियों के आचरण का हिस्सा होती है. ऐसे ही निष्ठावान लोग ही समाज के बाकी सदस्यों के लिए प्रेरणा बनते हैं. भगत सिंह, गांधी और विनोबा का निजी जीवन इसका उदाहरण है. अतः कल्याणकारी अर्थदर्शन एवं सहकारिता में न केवल उद्देश्यगत समानताएं हैं, दोनों की आचारपद्धति भी एक-दूसरे के समानधर्मा और मेल खाती हुई है. दोनों ही कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना करते हैं, वहाँ व्यक्तिमात्र की उपेक्षा संभव ही नहीं है. यही समाजवाद का लक्ष्य है. व्यक्तिमात्र के विकास के लिए संसाधनों के समन्वित उपयोग एवं सबके संगठित प्रयास द्वारा लक्ष्यों की प्राप्ति करना सहकारिता का अभीष्ट है. समाजवाद यह जिम्मेदारी कल्याण सरकार के कंधों पर डाल देता है, ताकि वह संसाधनों को अपने अधीन रखकर, बिना किसी भेदभाव और पूर्वग्रह के सभी नागरिकों के बीच विकास के समान बंटवारे के लिए उपयुक्त योजनाएं बना सके. अकाल-संबंधी अध्ययन के दौरान अमर्त्य सेन इस निष्कर्ष पहुँचे थे कि जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में अकाल जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की क्षमता अधिक होती है. क्योंकि जनता के प्रति जवाबदेह सरकारें जनाकांक्षाओं की अवहेलना नहीं कर पातीं. यहां भी कल्याणकारी स्थिति बनाए रखने के लिए राज्य की भूमिका को रेखांकित किया गया है. किसी भी समाज के लिए बेहतर स्थिति वही हो सकती है जहां राज्य की उपस्थिति नीति-निर्माण एवं सीमित दिशा-निर्देशन तक हो. एक चैतन्य समूह अथवा राष्ट्र जो अपनी समस्याओं, क्षमताओं, उन विशेषताओं के साथ अपनी कमजोरियों से भी परिचय रखता हो, वह ऐसी आपदाओं से स्वयं ही निपट सकता है. अतः कल्याणकारी राज्य में जनहित में जो आयोजन राज्य की की ओर किए जाते हैं, उन्हें सहकारी समूह अपनी क्षमताओं के बल पर अर्जित कर सकता है. शंकाव्यक्त की जा सकती है कि पर्यवेक्षकीय अंकुश के अभाव में संगठन बिखर सकता है, और ऐसा देखने में भी आया है. देश-भर में चल रही हजारों सहकारी संस्थाओं/समितियों का बहुत बड़ा हिस्सा अकुशल नेतृत्व के कारण नाकारा बन चुका है. उनमें से अधिकांश या तो बिखर चुकी हैं अथवा अपनी अकर्मण्यता के कारण सुप्तावस्था में है अथवा उनपर चंद स्वार्थी लोगों ने कब्जा जमा लिया है, जो सहकारिता जैसे जनसंगठन का उपयोग अपनी लिप्साओं को मूर्त्तरूप देने के लिए करते रहते हैं. इसका कारण यह है कि उत्प्रेरक शक्तियां सहकारिता के नाम पर जो संगठन खड़ा करती है, उसके पीछे निहित उनके स्वार्थ प्रभावी रहते हैं. एक कारण यह भी है कि जो संगठन बहुत जल्दबाजी में, सहकारिता की भावना को आत्मसात् किए बिना खड़े कर लिए जाते हैं, वे बहुत जल्दी बिखर जाते हैं. दूसरी ओर देश के विभिन्न हिस्सों से ऐसे समाचार भी समय-समय पर मिलते रहे हैं जब सहकारिता को समर्पित समूहों ने अपने सीमित संसाधनों के बल पर ही अपने लक्ष्यों में चमत्कारिक सफलता हासिल की है. ऐसे ही समूह दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत का काम करते हैं. सहकारी समूह के सदस्य, एक दूसरे से संवेदनाओं के स्तर पर जुड़ते हैं. अमर्त्य सेन के अर्थदर्शन की विशेषता भी यही है कि उन्होंने अर्थशास्त्र को कोरी बौद्धिकता के दायरे से उसे मानवीय संवेदनाओं से जोड़ने की कोशिश की है. आधुनिक समाज की प्रमुख समस्याओं में से यह भी है कि बाजारवाद से प्रेरणाएं लेता है, जो ज्ञान को सूचना में संवेदना को ठोस उत्पादों में ढाल देना चाहता है, ताकि उन्हें बेचकर कमाई की जा सके. साहित्य और कला के विभिन्न रूप जिनमें अमूर्त्त संवेदनाएं निखरकर सामने आती हैं, बाजार के लिए उस समय तक काम के नहीं होते, जब तक कि उपभोक्ता वस्तु के रूप में ढालना संभव न हो. उल्लेखनीय है कि जब भी कोई वस्तु उपभोक्ता वस्तु का रूप धारण करती है, तब उसका आंतरिक गुण महत्त्वहीन हो जाता है. उस समय उसका उत्पादन पूंजीवादी नीतियों के अनुसार होने लगता है, जहां किसी वस्तु का मौद्रिक मूल्य ही सर्वोपरि होता है. इससे संबंधों में कृत्रिमता और औपचारिकता की वृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति अपनी समस्याओं और विकल्पों पर खुलकर विकल्प करने से बचने लगता है. ऐसी स्थिति में वह अपने विकास के लिए सरकार और अन्य संस्थाओं पर आश्रित होकर रह जाता है. यही नहीं वह इस लायक भी नहीं रहता कि सरकार को उसके कर्तव्य की याद दिलाकर अपने अधिकारों के लिए न्यायपूर्ण ढंग से संघर्ष कर सके. प्यार और व्यापार में कुछ भी कहना-करना सामाजिक स्वीकृति पाने लगा है. अपसंस्कृतिकरण का कुप्रभाव सहकारी संगठनों पर भी पड़ा है जिससे उनकी कार्यक्षमता घटी है. अतः ऐसे कठिन समय में जब समाज में जब बाजारवाद सिर चढ़कर बोल रहा हो, सरकार पर यह आरोप लगाए जा रहे हों कि वह विश्वबैंक और मुट्ठी-भर पूंजीपतियों के हाथ का खिलौना बन चुकी है, जबकि पूंजीपति और नौकरशाह सरकार को अपने स्वार्थानुकूल योजनाएं बनाए रखने के लिए बाध्य करते रहते हों. जब सैंसेक्स की रफ्तार को देश की प्रगति का प्रतीक मान लिया जाता हो, मीडिया जगत जब आमआदमी की समस्याओं के बजाय पूंजीपतियों के हित पर विमर्श रचता-गढ़ता हो, मानवीय संवेदनाओं का अकाल पड़ने जैसे हालात हों और जब अपसंस्कृतिकरण को लेकर समाजविज्ञानी, साहित्यकार आदि चिंतित, आकुल-व्याकुल हों—ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में अमर्त्य सेन का कल्याणकारी अर्थदर्शन सहकारिता के लिए भी उतना ही उपयोगी है जिना कि अर्थशास्त्र के लिए, क्योंकि दोनों के लक्ष्य व निहितार्थ एक ही हैं. दोनों ही हमें आश्वस्त करते हैं कि विकल्प अभी मिटे नहीं हैं, कुछ रोशनी अब भी बाकी है.