अमर बेलि बिना मूल के / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि!

रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि!

प्राथमिक कक्षा में रहीम का यह दोहा पढ़ा था। गुरु जी ने बड़े मनोयोग से प्रभु की कृपा का बखान किया था। अमरबेल के बारे में बताया था कि वह बिना मूल के भी हरी-भरी रहती है। भगवान उसका पालन करते हैं। हम अमरबेल को घासबेल के रूप में भी जानते थे, जो किसी भी शीशम, शहतूत के पेड़ या झाड़-झँखाड़ पर लिपटी हुई मिल जाती थी। किसी को चोट लग जाए, तो घासबेल को उबालकर उसके पानी से घाव को या चोट को झारते थे, तो आराम मिलता था। इसका कोई अन्य भी अर्थ होता है, मुझे पता नहीं था। समय के बदलाव के साथ अब अमरबेल और प्रभु के कई अर्थ मेरे सामने हैं।

पहली बात अमरबेल बिना मूल के होती है, अत: उसे जीवित रहने के लिए अपने से बड़े का सहारा चाहिए। यानी किसी वृक्ष पर उसको लिपटना ही चहिए। वह जिस वृक्ष से लिपटेगी, उसका कालान्तर में सूख जाना बहुत ज़रूरी है। अमरबेल का एक अदद प्रभु भी होता है, जो उसका पालन करता है। मूल न होने पर भी अमरबेल को जीवन भर ब्याज खाने को मिलता है। हमें हर क्षेत्र में अमरबेल के दर्शन होते हैं, क्या साहित्य, क्या राजनीति, क्या धर्म, क्या समाजसेवा। ये अपने प्रभु या आका की दया पर पलते हैं, इसलिए अमरबेल कहलाते हैं।

अमरबेल की श्रेणी में एक वर्ग किसी संस्था के अध्यक्ष का होता है। उसे अध्यक्षीय भाषण देना ही पड़ता है। वह क्योंकि अध्यक्ष होता है, बड़ा होता है-पद में भी अज्ञान में भी; इसलिए वह किसी भी वक्ता के चर्चित वाक्यांश को उड़ाकर और अपने अनर्गल विचारों के साथ घालमेल कर इस रूप में प्रस्तुत करता है, जैसे इस वैचारिक धरोहर को सर्व प्रथम उसी ने खोज निकाला है। यदि वक्ता उससे उम्र में छोटा और प्रबुद्ध है, तो वह बड़ी चालाकी से विषयान्तर जाकर उसके वक्तव्य की उस कमी के बारे में भी बताने लगता है, जिसका उसने उल्लेख नहीं किया है या जो विषय के अन्तर्गत आती ही नहीं। उस समय उसका मूर्खता-मिश्रित बयान सुनकर उसके प्रति प्रबुद्ध श्रोता के मन में पक्का विश्वास हो जाता है कि वह भी किसी अमरबेल का ही रूप है। उसका भी कोई प्रभु रहा होगा, जिसने कृपा करके यह पद उसको दे दिया होगा।

चतुर भाषा-ज्ञानी जानते हैं कि विशेषण का बहुत महत्त्व है। गली-मुहल्ले, गाँव-शहर और प्रदेश-देश में जिनकी दाल न गलती हो, वे किसी भी ऐसी संस्था में घुसपैठिया बनकर घुस जाते हैं, जिस संस्था के साथ विश्व शब्द लिखा हुआ हो। बस फिर क्या है, मूर्ख और यशलोभी उनके पीछे ऐसे भिनभिनाने लगते हैं, जैसे घाव पर मक्खियाँ। सारा ज्ञान उनके आभामण्डल के आसपास धकियाने, लतियाने लगता है। उनको जैसे ही अवसर मिलता है, वे जनबल, धनबल और छलबल से उस संस्था पर कुण्डली मारकर बैठ जाते हैं। उनके ज्ञान-गहन, गरिष्ठ लेख (जिसे उनके चेले-चपाटे या बाबू सृजित करते हैं) किसी भी ऑनलाइन या ऑफ़लाइन माध्यम पर नाली के कीड़ों की तरह बजबजाने लगते हैं। किसी की क्या मज़ाल, कोई उनके कथन को काट दे। अगर कोई ऐसा करता भी है, तो वे कटखने कुत्ते की तरह उसके पीछे भौंकने लगते हैं। वे रावण तो नहीं होते, पर उनका अहंकार रावण से भी बड़ा होता है। उनके कुतर्क आन्दोलित कूपमण्डूकों की तरह होते हैं। बिना अध्ययन और ज्ञान के वे घण्टों बोल सकते हैं, बस सुनने वालों में जड़ता जैसा धैर्य होना चाहिए।

शिक्षा-संस्थानों में दिनभर गुलगपाड़ा करने वाले अमरबेल दृष्टिगोचर हो जाएँगे, जो किसी प्रभु की कृपा से वहाँ तक पहुँचे हैं। जब कोई महत्त्वपूर्ण कार्य सिर पर आ पड़ेगा, तब उनके घर-परिवार में कोई न कोई गम्भीर घटना हो जाएगी, उसको समेटने के लिए वे गायब हो जाएँगे, ताकि उनके कर्मठ साथी विभाग की साख बचाने के लिए बिना खाए-पिये, बिना आराम किए जी-जान से काम में जुट जाएँ। जब काम सम्पन्न हो जाएगा, वे 'मैं कुछ मदद करूँ क्या' का सहयोगी भाव लेकर सहायता करने के लिए दुर्भाग्य की तरह प्रकट हो जाएँगे।

साहित्य में तो अमरबेल का जंगल ही उगा हुआ है। एक सम्प्रदाय तो ऐसा है, जो लिखने से पहले भूमिका लेखक की तलाश में तथा प्रकाशन से पूर्व पुस्तक प्रतिक्रिया के लिए अपने गैंग की तलाश में दौड़ पड़ता है। पुस्तक छपते ही यह वर्ग पुरस्कृत करने वालों के पाक (पकाया हुआ) गठजोड़ की खोज में छापेमारी करने लगता है। जिस विधा में न लिखा हो, उसका पुरस्कार लेने में भी उन्हें लज्जा नहीं आती, क्योंकि लज्जा उनकी आवश्यकता नहीं। वह तो उनके जूते के तल्ले में वास करती है। बस पुरस्कार मिल जाए, भले ही पुरस्कार की राशि पार्टी फ़ण्ड में जाए या निर्धारण-समिति के पास जाए। गत वर्षों में ऐसे लेखक पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं, जिनका लेखन भूसे की गाड़ी बन चुका है।

ठीक से देखें, तो राजनीति में अहर्निश पनपती अमरबेलें जनता के सुख को चूसती जा रही हैं और हम हैं कि मुस्कुराकर जय-जयकार कर रहे हैं।