अमर रचनाओं मे अश्लील क्षेपक / जयप्रकाश चौकसे
अमर रचनाओं मे अश्लील क्षेपक
प्रकाशन तिथि : 25 जुलाई 2012
इंग्लैंड की एक प्रकाशन संस्था साहित्य की अमर रचनाओं के नए संस्करण निकालने जा रही है। उन पुरानी किताबों के मूल पाठ में जहां नायक-नायिका चांदनी रात में नौका विहार कर रहे हैं या जहां नायक नायिका के जूड़े में फूल लगा रहा है, वहां नए संस्करण में उनके शारीरिक संबंध का वासना जगाने वाला विवरण लिखा जाएगा, शेष कथानक जस का तस रहेगा। प्रकाशन संस्था का विचार है कि मूल में प्रेम अभिव्यक्ति का संकोच हटाकर उसे साहसी बनाया जा रहा है, ताकि आज का पाठक उससे तादात्म्य स्थापित कर सके। अत: पुरातन साहित्य को तथाकथित तौर पर आधुनिकता से लबरेज करने का प्रयास किया जा रहा है। प्रकाशक का विचार है कि मूल पाठ में शारीरिक प्रेम के संकेत हैं और उन संकेतों को ही खुलेपन के साथ प्रस्तुत किया जा रहा है।
मूल के मंतव्य में कोई परिवर्तन नहीं किया जा रहा है और चरित्र-चित्रण में भी कोई परिवर्तन नहीं किया जा रहा है। पृष्ठभूमि भी वही है और नए अंतरंग दृश्यों की भाषा भी मूल की तरह ही रहेगी। गोयाकि पुराने पकवान में ‘वियाग्रा’ का तड़का लगाया जा रहा है। यह संभवत: ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’ की विराट सफलता के कारण किया जा रहा है। सिनेमा के अभ्यस्त दर्शक इसे बस यूं समझ लें कि जैसे अनुराग कश्यप ने देवदास का अपना संस्करण ‘देव डी’ बनाया था, कुछ ऐसा ही काम साहित्य में होने जा रहा है।
गौरतलब यह है कि इसी तरह सबसे अधिक बिकने वाली बाइबिल के साथ वे कुछ नहीं कर रहे हैं। साहित्य के साथ छेड़छाड़ पर कोई आंदोलन नहीं होता, परंतु धर्म को लेकर संकेत मात्र देने पर हंगामा हो सकता है। साहित्य आक्रोश नहीं जगाता, वरन् नकारात्मकता का शमन करता है। आजकल खुलेपन की लहर सर्वत्र व्याप्त है। आर्ची कॉमिक्स में भी परिवर्तन हो रहा है। भारत में प्रकाशित चित्र कथाओं में प्रच्छन्न सेक्स चतुराई से आरोपित है और यह सिलसिला तो राजा रवि वर्मा की कलाकृतियों से ही शुरू हो गया था, जब उन्होंने आख्यानों के अमूर्त पात्रों को मूर्त किया था।
कैलेंडर कला भी उसी समय जन्मी। सिनेमा के जनक धुंडिराज गोविंद फाल्के ने कलर प्रिंटिंग जर्मनी जाकर सीखी थी और राजा रवि वर्मा के लोनावाला स्थित रंगीन चित्रों के छापने वाले केंद्र में कुछ समय नौकरी भी की थी। जीडी मुलगांवकर ने राजा रवि वर्मा की प्रेरित कैलेंडर कला में कुछ बोल्ड स्ट्रोक्स जोड़कर बहुत लोकप्रियता अर्जित की। उन्होंने राम को सीता से ज्यादा कोमल और कमनीय रूप में प्रस्तुत किया था। आजकल उस तरह के कैलेंडर नहीं बनते।
असल बात यह है कि सेक्स बिकता है, चाहे सिनेमा में हो या साहित्य में। दशकों से अपराध और सेक्स सफलता के रसायन का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। ये मनुष्य अवचेतन का भी अविभाज्य हिस्सा रहे हैं। समाज के हर क्षेत्र में खुलेपन की लहर मौजूद है और यह इस दौर का अन्वेषण नहीं है। इस ‘संदिग्ध साहित्य’ के प्रकाशकों का यह दावा है कि पुरानी महान किताबों को आज के दौर में प्रचलित करने का यही कारगर रास्ता है। सवाल यह है कि ये अमर किताबें लंबे अरसे तक लोकप्रिय रही हैं और आज भी पाठ्यक्रम में शामिल होने के कारण ही सही, परंतु पढ़ी जा रही हैं। सदियों से साहित्य में अमर रचना (क्लासिक) होने के लिए दो मानदंड रहे हैं - उसका कालातीत होना और सब जगह पसंद किया जाना, अर्थात सार्वभौमिकता। इसलिए प्रकाशक के इस दावे में कोई दम नहीं है कि वह उन्हें आज के दौर में ‘लोकप्रिय’ करना चाहते हैं। वे महज व्यवसाय कर रहे हैं और धन कमाना चाहते हैं।
प्रकाशक अपने इन नए अध्याय जोड़ने वाले लेखकों से खूब बिकने वाली ‘ग्रे’ किताबें क्यों नहीं लिखवा लेते। ये कारपेंटरनुमा लेखक पुरानी खटिया या मेज की मरम्मत करना चाहते हैं, तो उतने ही परिश्रम से अपना नया छतरपलंग क्यों नहीं बना लेते, जिस पर वे बिना रुकावट रति क्रिया कर सकते हैं। शायद वे अपने टाट के परदों पर अमर किताबों का मखमल चढ़ाना चाहते हैं, ताकि ‘भद्रलोक’ में प्रवेश कर सकें। प्रकाशक भी अमर पुस्तकों की ख्याति का लाभ उठाना चाहते हैं। कॉपीराइट एक्ट के तहत प्रकाशन के ६क् वर्ष पश्चात उस पर सबका अधिकार हो जाता है। अत: लेखक को रॉयल्टी देने के खर्च से बच जाते हैं।
ज्ञातव्य है कि कुछ वर्ष पूर्व चार्ली चैपलिन की फिल्मों को रंगीन करने के प्रयास कोर्ट द्वारा रोक दिए गए, क्योंकि एक प्रशंसक ने अर्जी लगाई थी कि अमर कृतियों में हेरा-फेरी करना अपराध है। कुछ फिल्मकार अनुबंध में ही लिखवा लेते हैं कि अंतिम संपादन का अधिकार उनके पास सुरक्षित रहेगा और निर्माता कुछ नहीं कर सकता। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में हॉलीवुड की फिल्म में सेंसर द्वारा काटे गए हिस्से रिश्वत देकर प्राप्त किए जाते हैं और प्रिंट में जोड़ दिए जाते हैं, जिसे इंटरपोलेशन ऑफ प्रिंट्स कहते हैं।
दरअसल संदिग्ध साहित्य और फिल्मों के लिए बाजार में मांग है, अत: इस तरह की रचनाएं होती हैं। आज पश्चिम में ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे’ सबसे अधिक बिकने वाली किताब है और ‘हैरी पॉटर’ श्रंखला को भी इस पुस्तक ने मात दे दी है। जीवन में ऊबे हुए लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही यात्रा करने वालों की संख्या भी बढ़ गई है। आज अनेक व्यवसायी महीने में १५ दिन यात्रा पर रहते हैं। इंटरनेट पर इस तरह की सामग्री विपुल मात्रा में उपलब्ध है और टेक्नोलॉजी ने सेंसरशिप को सर्वथा बेअसर कर दिया है। आज किसी किताब या फिल्म को प्रतिबंधित करने का अर्थ नहीं रह गया है। सेंसरशिप का विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विरोध करता है, परंतु टेक्नोलॉजी ने यह द्वंद्व ही हटा दिया है।
बहरहाल, संजीदा लेखकों के मन में भी ‘साहसी’ रचनाओं की ललक मौजूद रहती है, परंतु वे अपनी ख्याति के कारण खुलकर अभिव्यक्त नहीं हो पाते। हिंदी के एक ख्यातिनाम लेखक ने अपने संघर्ष के दिनों में छद्मनाम से ‘भांग की पकौड़ी’ नुमा किताबें लिखी हैं। अत: अमर रचनाओं को उनके ‘हाल पर छोड़कर भी’ प्रेम की साहसी किताबें लिखी जा सकती हैं। बाजार भी है, मौसम भी है और मांग भी है।