अमर / प्रतिभा राय / दिनेश कुमार माली

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प्रतिभा राय का जन्म 21 जनवरी 1941 में जगतसिंह पुर जिले के बालीकुडा क्षेत्र के एक दूरवर्ती गाँव में हुआ. ओडिया साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए आपको ओडीशा साहित्य अकादमी पुरूस्कार (1985), झंकार पुरूस्कार (1988),ओडिशा साहित्य का सर्वोच्च सारला दास पुरूस्कार (1990) के अतिरिक्त अनेकों संस्थाओं जैसे भारतीय ज्ञानपीठ ट्रस्ट का मूर्तिदेवी पुरूस्कार(1991), केरल स्थित अमृता कृति पुरस्कार, (2006), भारत सरकार का पदम् श्री (2007) तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार (2011) मिल चुका है। उनके उपन्यास अपरिचिता तथा मोक्ष पर ओडिशा सरकार ने फिल्मे भी बनाई हैं। इसके अतिरिक्त,आप कई प्रतिष्ठित संस्थाओं जैसे इंडियन काउंसिल फार कल्चरल रिलेशन, सेंट्रल बोर्ड आफ फिल्म सर्टिफिकेशन , इंडियन रेड क्रास सोसाइटी, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नेशनल बुक ट्रस्ट आफ इंडिया तथा सेंट्रल एकेडेमी ऑफ़ लैटर्स की सदस्या हैं। उनके मुख्य उपन्यास बरसा बसंत बैशाख (1974), निषिद्ध पृथ्वी (1978) परिचय (1979), अपरिचिता (1979), पुण्यतोया (1979), मेघमेदूरा (1980), आशाबारी (1980) अयमारम्भा (1981), नील तृष्णा (1981) समुद्र स्वर (1982) शिला पदम् (1983) याज्ञसेनी (1984) शिष्य पदम् (1985) देहातीत (1986) उत्तर मार्ग (1988) आदि भूमि महामोह (1998) मेघना भाटी (2004)तथा लघु कहानी संग्रहों में सामान्य कथानक (1978), असम्प्ता (1980) एकतान (1981), गंग शिवली (1982), आना बाना (1983), हताबक्स (1983), घास और आकाश (1984), चन्द्र भागा और चन्द्र कला (1985), अव्यक्त (1986), इतिवृतक (1987), हरितपात्र (1989), पृथक ईश्वर (1991), भगवार देश (1991), मनुष्य स्वर (1992), मोक्ष (1993), उल्लंघन (1998), निवेदानिम (2000) गान्धींक गाँव (2003), जोटी पाका कांधा (2008), इत्यादि हैं।


"किन्तु", महामंत्री खड़े- खड़े हाथ जोड़ कर कहने लगा.

अपनी धनुष आकार भृकुटी तानते हुए आँखें विस्तारित करते हुए महाराज कहने लगे, "मेरे राज्य की सीमा में किन्तु का स्थान कहाँ! "

रास्ते में चलते हुए किसी हाथी ने मेरा राज्याभिषेक करके राजपद नहीं दिया है, मै राजा बना हूँ तो मेरे पिता, दादा और तेंतीस करोड़ पूर्वजों के वंशानुक्रमिक अधिकार के बल पर। इस वंश की रगों में राजसत्ता का खून सदियों से बहता आया है। कहो महामंत्री निसंकोच कहो, ऐसी बुनियाद वाले राज्य की परिसीमा में 'किन्तु ' जैसी चीज फिर, क्यों और कहाँ आती है।

"महाराज, ! आपके राज्य की परिसीमा के भीतर में कहीं इन्द्रपुरी है तो कहीं बैकुंठ भवन! सुख- शान्ति, आलस्य, विलास, मद, मात्सर्य, यश, पौरुष का कहीं अभाव नहीं फिर भी...... "

"फिर भी! कहो महामंत्री कौन है वह दुराचारी 'फिर भी' मै उसको राज्य की सीमा से बाहर खदेड़ दूंगा या फिर प्राण दंड दूंगा! "

"महाराज, बहुत चेष्ठा करने पर भी मृत्यु को इस राज्य से देश निकाला नहीं दिया जा सका। इस राज्य के पहाड़ी इलाकों में बहुत सी जनता मृत्यु का शिकार हो रही है।"

आनंद, विस्मय और विरक्ति के सम्मलित भाव वाली महाराजा की हँसी ने महामंत्री की धड़कन को क्षण भर के लिए रोक दिया.

महाराज गर्जना से कहने लगे, "मृत्यु, मृत्यु कहाँ नहीं है?, मृत्यु तो जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है इसमें 'किन्तु' तथा 'तथापि' की भूमिका कहाँ हैं।

महामंत्री नाक के अगले भाग पर ध्यान एकत्रित करके बहीखाता खोल कर विनम्र करुणा के स्वर में कहने लगा, यह मृत्यु स्वाभाविक नहीं है, अपमृत्यु है"

"किस प्रकार की अपमृत्यु! । हत्या, आत्महत्या या फिर दैवी प्रकोप?

"नहीं महाराज, इस प्रकार की मृत्यु आजकल स्वाभाविक मृत्यु में परिणित हो गई है, दैनिक जीवन का एक अंग बन गई है। इस तरह की ख़बरें न होने से आजकल के अखबार वास्तव में अपूर्ण नजर आते है। मगर इन मौत की घटनाओं से मै विचलित नहीं हूँ, विचलित हूँ तो अनाहार मृत्यु की ख़बरों से! राज्य में एक तरफ जहाँ अधिक भोजन के कारण कितने व्यक्तियों के प्राण निकालने को है वहाँ दूसरी और भोजन की कमी के कारण कितने लोग प्राण गवाने को मजबूर हैं। अधिक भोजन के कारण कोई भी महाराज को दोषी नहीं ठहराएगा, मगर अनाहार मृत्यु के लिए शत्रु राज्य महाराज पर दोषारोपण करने में बिल्कुल देर नहीं लगाएँगे इसलिए इसका तुरंत निदान किया जाना अत्यंत जरुरी है।

"अनाहार मृत्यु! बिल्कुल भी विश्वास नहीं होता है, राजवैद्य की सलाह से बीच-बीच में मुझे भी आहार त्याग करना पड़ता है पर मेरी तो मृत्यु नहीं हुई "

"महाराज, स्वास्थ्य की देखभाल के लिए आपको थोड़े से समय के लिए आहार त्याग करना पड़ता है मगर कुछ अभागे लोग लगातार अनाहार से भूख के कारण सूख- सूख कर मर रहे हैं। पड़ोसी राज्य के पत्रकार इसकी घोर निंदा कर रहे हैं, इसकी वजह से हमारे देश की ख्याति धुंधली हो रही है। भरसक प्रयास करने के बावजूद भी भूख इस देश से मिट नहीं रही है। यही है आज की सबसे बड़ी चिंता का कारण। "

"भूख! ", महाराज एक बार फिर विस्मयाभिभूत होकर बोले, " भूख कौन? इसकी शक्ल कैसी होती है? कहाँ पर रहती है? वह हमारे राज्य में है और मुझे उसकी खबर तक नहीं! जाओ उसको बंदी बना कर मेरे सामने पेश करो, मै उसकी शक्ल देखना चाहता हूँ "

महामंत्री ने हाथ जोड़कर अपनी असमर्थता प्रकट की "महाराज! 'भूख' होती है प्रजा --जिस पर केवल गरीब जनता का एकाधिकार होता है. राजमहल के इतिहास में भूख का कहीं भी कोई नामोनिशान दर्ज नहीं। यदि इतिहास में नाम नहीं तो क्या हुआ? मेरे राज्यकाल में राजमहल में भूख को बंदी बनाकर नए इतिहास की रचना करनी होगी। इस धरती पर ऐसी कोई चीज नहीं जिस पर राजा का अधिकार नहीं और प्रजा का एकाधिकार है. हजारों कोशिशें करने के बाद भी 'भूख' को आपके दरबार में नहीं लाया जा सकता है। सारे विश्व के इतिहास में किसी भी राजमहल में 'भूख' की मौजूदगी का कोई लेखा -जोखा नहीं हैं। "

"यदि विश्व के इतिहास में उसका नाम नहीं है तो क्या हुआ! मेरे राजमहल में भूख को प्रस्तुत कर नए इतिहास की रचना करो। दुनिया में कोई ऐसी चीज नहीं है जिस पर राजा का अधिकार नहीं हो और जनता का अधिकार हो। मधु हो या जहर राज्य के भीतर के सारे द्रव्य राजा के।

प्रजा का हरेक सुख, जायदाद संपत्ति सब कुछ राजा चाहे तो अपने नाम कर सकता है तब क्या भूख को अपने अधीन नहीं कर सकता। यदि यह संभव नहीं तो महामंत्री भी इस पद पर रहने के योग्य नहीं है। या तो भूख, नहीं तो महामंत्री का इस्तीफ़ा, इन दोनों में से एक का चयन करना होगा। भूख कैसी दिखती है? क्या होती है? अगर ये सब बातें मुझे समझा नहीं सके तो आपका मंत्री पद। .......?

महामंत्री बहुत ज्यादा चिंतित हो गया।

जो इंसान भूख क्या है, यह तक जानता नहीं है और अजीर्ण होने पर खाली पेट रहने से द्राक्षारस, संजीवनी सुरा, शक्तिवर्धक च्यवनप्राश खाता हो उसे भूख का स्वरुप कैसे समझाया जा सकता है। जैसे सौ पुत्रों के पिता धृतराष्ट्र को गर्भ-वेदना का अनुभव करवाना, वैसे ही तेंतीस करोड़ पीढी की बुनियाद वाले वंश-परम्परा के राजा को भूख का अनुभव करवाने के बराबर है।

महाराज भूख खोज रहे हैं, महाराज को भूख वह कहाँ से लाकर देगा, इस बारे में महामंत्री की कन्या चेतावनी ने अपने पिता को सलाह दी।

दूसरे दिन महामंत्री ने राजा से गुहार लगाई, " महाराज भूख गरीब के पेट में छुपकर रहती है इसलिए उसे देखना अति कठिन है। कीटाणुओं, जीवाणुओं से भी उसका रूप सूक्ष्म है इसलिए उसे आँखों से देखा नहीं, केवल महसूस किया जा सकता है "।

महाराज ने आदेश दिया, " गरीबों का पेट फाड़कर भूख के जीवाणुओं को बाहर निकालो। मेरे सामने हाजिर करो उन्हें। 'भूख' को समझा दो कि राजा के उदार पेट में जगह की कोई कमी है जो वह केवल प्रजा के पेट में छिपकर रहती है। "

महामंत्री ने प्रस्ताव दिया, " महाराज भूख खोजने के लिए उन सुदूर पहाड़ी इलाकों में जाना होगा, जहाँ से प्रति वर्ष भूख की वजह से मृत्यु की ख़बरें फैलती हैं "

"यात्रा का प्रबंध करो, और देरी किस बात की? भूख क्या चीज होती है? नहीं जानने से मुझे नींद नहीं आएगी। दुनिया में इस तरह का कोई पदार्थ होगा जिसे प्रजा भोग करेगी और राजा नहीं? "

राजा के नाम पर यह बहुत बड़ा आघात है। शीघ्र वहाँ जाने की व्यवस्था करो "

"यात्रा पथ में खाद्य और पेय का नितांत अभाव है। पहाड़ी रास्तों पर महाराज के खाने योग्य अच्छी वस्तुएं दुष्प्राप्य हैं। बीच- बीच में खाली पेट रहना पड़ सकता है, महाराज क्या इसे सहन कर पाएंगें? "

"चिंता नहीं, महामंत्री, भूख को खोजने के लिए मै किसी भी विषम परिस्थिति का सामना कर सकता हूँ, दो- तीन दिन न खाने से राजा की जान नहीं चली जाएगी, राजा की जीवन शक्ति इतनी भी कमजोर नहीं है "

महामंत्री बहुत खुश हो गया कि भूख खोजने के लिए रास्ते में महाराज निश्चय ही भूख के जीवाणुओं को अपने भीतर खोज लेंगे और उसका मंत्रीपद सुरक्षित हो जाएगा। रास्ते में खाना नहीं मिलने पर जब महाराज प्रश्न करेंगे, " महामंत्री, कौन मेरे पेट के अन्दर इस तरह उत्पात कर रहा है? क्यों मेरा शरीर कमजोर लग रहा है? हाथ पाँव दुर्बल लग रहे है, पेट के अन्दर ये किस तरह की अजीब-यंत्रणा, किस तरह की पीड़ा है। इसका क्या नाम है?

"भूख! महाराज आप अपने अद्वितीय त्याग और साधना के बल पर भूख का अनुभव कर रहे हैं "

प्रश्न और उत्तर की कल्पना में महामंत्री खो गए।

महाराज की पालकी आगे बढ रही थी। दुर्गम पहाड़ी रास्तें, नाले प्रदेश में जगह- जगह सुसज्जित तोरण रातों- रात जैसे विश्वकर्मा ने सजा दिए हो। महाराज के आने की सूचना पाकर रातो- रात इस तरह कदम उठाएँ जाएँगे, इसकी तो महामंत्री ने भी कल्पना नहीं की थी। महामंत्री एकदम से आश्वस्त था कि महाराज के दिमाग में यह बात आ रही होगी कि राज्य में सब जगह सुख, शान्ति, स्वच्छता, प्रकाश, खाद्य पदार्थ, जल, फल, बाग़ -बगीचे हैं।

जंगल में भी सभ्यता का प्रकाश, अँधेरी रात में जुगनू की तरह बीच- बीच में जगमगा रहा है। राज्य उन्नति के रास्ते पर आगे बढ रहा है, इसमें कोई शक नहीं।

रास्ते में बीच- बीच में विश्राम लेने हेतु मंडपों की तैयारी की गई है। खाने- पीने की बाढ़ में सूखे का उन्मूलन होने जैसे लग रहा है।

खाने के समय महाराज मंत्री परिषद् और नौकरों चाकरों की तारीफ़ करने लगे, " वाह- वाह! यहाँ तो हर चीज मिलती है। राजमहल से भी ज्यादा स्वादिष्ट भोजन यहाँ मिलता है। सारे रास्ते साफ़ सुथरे हैं, चारों दिशाओं में एक स्वस्थ परिमल वातावरण दिखाई पड़ रहा है। राजधानी के भीड़भाड़ वाले दूषित और कोलाहल भरे वातावरण की तुलना में जंगल का अविकसित परिवेश ज्यादा स्वास्थ्यकर प्रतीत हो रहा है। यहाँ के वाशिंदे हमारी तुलना में अधिक भाग्यवान है। "

मंत्री, कर्मचारी, जनता कृतकृत्य और गर्वित। अपनी जगह का गौरव भला किसे अच्छा नहीं लगता।

दोल मंडप की तरफ जाते समय जगन्नाथ भगवान् जिस तरह कई बार भोग खाते हैं उसी तरह महाराज को भी सारे पहाड़ी रास्तों पर जगह- जगह दिव्य भोजन दिया जा रहा है। फूल मालाओं, उपहारों आदि के लिए अलग से एक वाहन की जरुरत पड़ रही है। मनोरंजन आदि किसी भी तरह की सुविधाओं में कोई भी कमी नजर नहीं आ रही है।

महाराज अपने मोटे पेट पर हाथ घुमाते हुए डकार मारकर महामंत्री को कहने लगे, " आप तो कह रहे थे कि भूख खोजने जाते समय अनेक कष्टों का सामना करना पड़ेगा, मगर मै तो देख रहा हूँ यात्रा में बहुत आनंद आ रहा है। "

महामंत्री फिर से घोर चिंता में डूब गए, महाराज को पहाड़ी रास्तों में किसी तरह का कष्ट सहना न पड़े इसके लिए उसने जो कुछ व्यवस्था की, उसके लिए महाराज तो खुश हो गए पर जिसके लिए उन्होंने यात्रा शुरू की थी, उस अंचल की वास्तविकता के दृश्य नजर नहीं आये। महाराज अगर निर्धारित रास्ते को छोड़कर किसी और रास्ते से किसी गाँव में पहुँच जाए तो वे सत्य का सामना करने से पहले ही सबको नौकरी से निकाल देंगे इसमें जरा-सा भी संदेह नहीं था। यह बहुत ही बड़ा विषम संकट है। सत्य छुपाने से पाप। ......और प्रकट करने से संताप!

महाराज निर्धारित समय पर निर्दिष्ट अनाहार प्रपीडित अंचल में पहुँच गए। गाँव के रास्ते साफ़ सुथरे और रास्ते में तोरण, मंडप सब कुछ वैसे ही जैसे महाराज की इच्छा के अनुरूप। महाराज ने गली कोनों में घूम- घूम कर आखिरकार निरीह नागरिकों के घर में प्रवेश किया। जीवन यहाँ हवा की तरह, चिड़ियों की तरह, सूर्य की रोशनी की तरह, पूर्णतया उन्मुक्त. न आगे कोई रुकावट न कोई बाधा- बंधन। राजधानी में सभ्य नागरिकों के आवास में महराजा हो कर भी इस तरह बिना रोक- टोक के वह घुसने का दु:साहस नहीं कर सके थे।

महाराज मिट्टी के फर्श के ऊपर बैठ गए, हमेशा ऊँचे सिंहासन पर बैठने के कारण एक विरक्त भाव उत्पन्न हो गया था। जनता टुकर- टुकर देख रही थी कृतज्ञता से। महाराज सुख- दुःख पूछने लगे, " तुम्हे किसी चीज का अभाव है? "

"अभाव" जिसे किसी तरह के भाव के बारे में मालूम नहीं -वह अभाव क्या जान पाएगा?

"कुछ नहीं महाराज भगवान् ने सब कुछ तो दिया है, पहाड़, नदी, वन, झरने, पेड़-पौधे सब कुछ तो है "

तुम्हारे यहाँ किसी की अनाहार-मृत्यु हुई है? "

"अनाहार का अर्थ क्या है? "

महामंत्री ने समझाया, " अनाहार का अर्थ बिना आहार के दिन बिताना। खाना न मिलने के कारण यहाँ किसी की मृत्यु हुई है क्या? "

"नहीं, हुजूर- हमारे देश में अनाहार नहीं, भगवान् ने जिसको जन्म दिया है उनके लिए जंगलों में आहार की सुविधा की है - पानी, हवा सभी तो दिए हैं पेड़- पौधे, इमली, कर्मंगा, केंदू, जामुन, साग, बेर, आम, गुठली जब तक है बिना आहार के मरने की बात हमारे गाँव में कभी सुनाई नहीं देगी। कुछ भी नहीं होने से हवा, पानी तो है ही और पानी- हवा खाकर जंगल में अनेकों साधु- संत जिन्दा रहते है।

यहाँ अगर कोई मरता है तो आयु पूरी होने पर ही मरता है, जन्म के साथ- साथ मरण भगवान् ने ही बनाया है।

महाराज प्रफुल्लित होकर कहने लगे, " महामंत्री, सुन लिया अपने कानों से? इस राज्य में अनाहार मृत्यु नहीं है। "

महाराज ने जनता से फिर से एक बार कुशल क्षेम पूछी, " तुम्हारे गाँव में भूख नाम की कोई चीज है क्या? "

कांपते- कांपते एक बुढ़िया अपना पोपला मुँह खोलकर हंसने लगी। कंपित स्वर को लम्बा करके कहने लगी, " भूख! जन्म से मृत्यु पर्यंत जो आधा पेट खाते है, भूख तो उसका जीवन साथी है जन्म- मरण का साथी है, भूख के लिए जीवन तो रुकेगा नहीं। एक पेट की भूख को दूसरा आदमी नहीं समझ पायेगा। तो हुजूर भूख कैसे दिखाई जाएगी?। "

"और दारिद्र्य? गरीबी? "

"हमारे गाँव में सब एक जैसे है - समान, कोई किसी को गरीब क्यों सोचेगा? खुद को गरीब मानने की फुर्सत ही कहाँ है "

महामन्त्री स्तब्ध और महाराज मुग्ध!

उसके बाद युवक -युवतियां, बूढ़े - बुढियां सभी मिलकर नाचने गाने लगे.

महाराज तो मतवाले हो गए जैसे। महाराज की इच्छा हो रही थी कि राजगद्दी से उतर कर इसी गाँव में रह जाएँ और नाचे गाए। बेशक वह बात उनके लिए मुमकिन नहीं थी परन्तु सोचने भर से ही इतना आनंद मिल रहा था।

विदाई भाषण में महाराज कहने लगे,

"मै भूख खोजने आया था, अनाहार मृत्यु का पता करने आया था। खोज -खोजकर निराश हो गया। मेरे राज्य में अनाहार मृत्यु नहीं है, भूख अवश्य है। भूख को बिना समझे अज्ञानी लोग व्यर्थ में उसकी निंदा करते हैं। भूख को मैंने खोज लिया है, भूख महान है! जहाँ भूख नहीं, वहाँ संगीत नहीं, आनंद नहीं, जीवन नहीं। मैंने शहर में बहुत संगीत सुना है, नृत्य देखा है, किन्तु वहाँ जीवन का स्वच्छंद प्रकाश नहीं, यहाँ जैसा माधुर्य नहीं, अंतरंगता नहीं। लेकिन भूख का स्वरुप जो भी हो भूख अनंत काल तक बची रहे। क्योंकि भूख ही संगीत, नृत्य, आनंद, जीवन है।

महामंत्री और परिषद्गण नारा लगाने लगे,

"महाराज की जय हो! भूख जिंदाबाद! "

पर्वतों- पर्वतों में प्रतिध्वनि गूंजने लगी

"भूख अमर रहे! भूख जिंदाबाद! "