अमिताभ बच्चन: आधी सदी की अभिनय यात्रा / जयप्रकाश चौकसे

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अमिताभ बच्चन: आधी सदी की अभिनय यात्रा
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2018

छोटे परदे पर अमिताभ बच्चन द्वारा संचालित कार्यक्रम को 18 वर्ष हो गए हैं। अन्य कार्यक्रमों की तरह इस अवधारणा का जन्म भी विदेश में हुआ है और इसकी रॉयल्टी भी विदेश भेजी जाती है। भारत महान अभी तक अपना कोई खेल रच नहीं पाया है। 'दस का दम' और 'बिग बॉस' भी आयात किए गए कार्यक्रम हैं। अमिताभ बच्चन की फिल्म निर्माण संस्था और उद्योगों में भारी घाटा हुआ। कर्ज का पहाड़ खड़ा हो गया। उन दिनों मुकेश अंबानी ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें पुनः अभिनय क्षेत्र में लौटना चाहिए। उन्हें वही काम करना चाहिए, जिसमें उन्हें विशेष योग्यता प्राप्त है। उसी समय सिनर्जी कंपनी के सिद्धार्थ बसु उनके पास 'कौन बनेगा करोड़पति' को संचालित करने का प्रस्ताव लेकर आए। यह उनके आर्थिक संकट के समय लिया गया महत्वपूर्ण कदम सिद्ध हुआ। उसी दौर में यश राज चोपड़ा की 'मोहब्बतें' में अभिनय का प्रस्ताव भी आया। 'कौन बनेगा करोड़पति' अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुआ और 'मोहब्बतें' ने उनके लिए चरित्र भूमिकाओं के द्वार खोल दिए। उनकी दूसरी पारी अत्यंत लाभ देने वाले सिद्ध हुई। सारे कर्जे भी अदा कर दिए गए।

अमिताभ बच्चन ने 1969 में ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म 'सात हिंदुस्तानी' से अपनी यात्रा प्रारंभ की थी। उनकी प्रारंभिक फिल्म असफल सिद्ध हुई। सलीम जावेद और प्रकाश मेहरा की 'जंजीर' से राकेश सिप्पी द्वारा निर्देशित 'शक्ति' तक उन्होंने अनेक सफल फिल्मों में अभिनय किया। उनके परिवार की मित्रता नेहरू परिवार से उनके जन्म से पहले ही प्रारंभ हो चुकी थी। जब हरिवंश राय बच्चन लंदन से साहित्य में डॉक्टरेट लेकर आए तब विश्वविद्यालय की भीतरी राजनीति के कारण उन्हें काम नहीं दिया गया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें विदेश विभाग में हिंदी के अधिकारी का पद दिया तथा बाद में राज्यसभा में नामांकित किया गया और प्रधानमंत्री निवास से लगा हुआ मकान भी प्रदान किया गया। अमिताभ बच्चन की स्कूली शिक्षा के दरमियान ही उन्होंने एक नाटक में अभिनय किया। उन्हें ज्यॉफ्रे केंडल पुरस्कार प्राप्त हुआ। ज्ञातव्य है कि केंडल परिवार स्कूलों में शेक्सपीयर के नाटक मंचित करते थे। जेनिफर केंडल का विवाह शशि कपूर हुआ था। अमिताभ बच्चन ने 'जंजीर' के पहले कुछ फिल्मों में छोटी भूमिकाएं भी अभिनीत की थी। निर्माता शिवदासानी की फिल्म 'पाप और पुण्य' में शशि कपूर नायक थे। एक दिन सेट पर उन्होंने अमिताभ बच्चन को महल के चोबदार की भूमिका में अभिनय के लिए तैयार देखा तो उनसे कहा कि उन्हें इस तरह की भूमिका नहीं करनी चाहिए और अगर धन का ही संकट है तो वे जब चाहे जितना धन उनकी निर्माण संस्था शेक्सपीयरवाला से ले सकते हैं। संभवत: इसी पहल के कारण सफल होते ही अमिताभ बच्चन अपने भाई की भूमिका के लिए शशि कपूर की सिफारिश करते थे। उन दोनों ने कई सफल फिल्मों में काम किया।

शशि कपूर ने श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म 'जुनून' से फिल्म निर्माण में प्रवेश किया। उनकी 'कलयुग' महाभारत का आधुनिक महानगरी संस्करण थी। गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित 'विजेता' भारतीय वायु सेना की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म थी, जिसमें व्यक्तिगत डर से बाहर आने का संदेश था। गिरीश कर्नाड के निर्देशन में बनने वाली 'उत्सव' में अमिताभ बच्चन ने अभिनय करना स्वीकार किया था परंतु बाद में वे इस फिल्म में अभिनय नहीं कर सके। फिल्म सितारों का किसी फिल्म को स्वीकार करना या अस्वीकार करने का मामला सीधी सरल रेखा के समान नहीं है वरन यह अत्यंत आंकी-बांकी भूल-भुलैया है।

अमिताभ बच्चन की अपनी यात्रा आधी सदी पार कर रही है। उन्होंने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। बोफोर्स घपले में लंदन की अदालत ने उन्हें निर्दोष पाया। इस विवादित बोफोर्स ने ही भारत को करगिल में सफलता दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। पक्ष-प्रतिपक्ष हथियार खरीदी के आरोप लगाती रही है। हथियार खरीदने के व्यापार में कंपनियां हमेशा अपने प्रचारक रखती हैं और उनका खर्च तथा कमीशन इस क्षेत्र में सामान्य बात मानी जाती है। लिट्टे को हथियार इसी कमीशन के खेल से मिले थे। यह सशस्त्रीकरण किया गया था केवल 'वॉयस ऑफ अमेरिका' नामक रेडियो संयंत्र को श्रीलंका में आने से रोकने के लिए।

इतनी लंबी यात्रा संभव हो पाई उनकी प्रतिभा और अनुशासन के कारण। सुबह 10:00 बजे से प्रारंभ होने वाली शूटिंग के लिए वे पूरी तरह तैयार होकर 9:00 बजे स्टूडियो पहुंच जाते थे। उन्हें इतनी बीमारियां हुई हैं कि उनसे बचकर निकलना आसान नहीं था परंतु अपनी इच्छा शक्ति और दृढ़ संकल्प के सहारे वह सब से उबरकर आज भी सक्रिय हैं। यह भी सच है कि हिसाब-किताब के मामले में वे सख्त हैं। इस क्षेत्र में कोई लचीलापन नहीं है। एक आना कम नहीं और 10 पैसे से ज्यादा नहीं लेते। उनके जन्म के पहले उनके पिता ने एक स्वप्न देखा था। स्वप्न में उनके पिता ने अपने माता-पिता को रामचरितमानस की पोथी के मास पारायण के पांचवें विश्राम का पाठ करते देखा। अपने पिता के मुंह से एक-एक शब्द हरिवंश राय बच्चन ने साफ-साफ सुना- 'आपु सरिस खोजौं कहँ जाई नृप तव तनय होब मैं आई।' उस दिन हरिवंश राय बच्चन के पिता की मृत्यु को एक वर्ष हुआ था। इसी स्वप्न के कारण हरिवंशजी ने अपने पुत्र को विशेष माना। उन्होंने पुत्र जन्म के अवसर पर कविता लिखी- 'फुल्ल कमल, गोद नवल, मोद नवल, गेहूं में विनोद नवल ! बाल नवल, लाल नवल, दीपक में ज्वाल नवल ! दूध नवल, पूत नवल, वंश में विभूति नवल ! नवल दृश्य, नवल दृष्टि, जीवन का नव भविष्य, जीवन की नवल सृष्टि।'

आत्मविश्वास होने से बिल्कुल अलग है स्वयं को विशेष मानना। इसमें निहितार्थ है कि अन्य लोग सामान्य है और स्वयं असाधारण हैं। यह पूरा विचार अवतार अवधारणा की तरह है। इस अवतार अवधारणा ने हमें बहुत हानि पहुंचाई है। हमारे सामूहिक अवचेतन में अवतार अवधारणा ऐसे पैंठी हुई है कि हम अपने कल्याण के लिए हमेशा उस पर ही निर्भर करने लगे हैं। मनुष्य के मनुष्य होने पर विश्वास करना गणतांत्रिक बात है। अमिताभ बच्चन अपने विशेष होने के विचार से ही संचालित हैं।