अमिताभ बच्चन का जुझारूपन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 14 फरवरी 2013
अमिताभ बच्चन अपनी निर्माण कंपनी के लिए एक डेली सोप ऑपेरा रचने जा रहे हैं, जिसकी केंद्रीय भूमिका वे स्वयं अभिनीत करेंगे। ज्ञातव्य है कि चौदह वर्ष पूर्व उनकी कंपनी में करोड़ों का घाटा हो गया था और कहा जाता है कि उनके मित्र मुकेश अंबानी ने उन्हें सलाह दी कि अभिनय के मार्ग पर पुन: सक्रिय होकर ही वे इस आर्थिक संकट से मुक्त हो सकते हैं। उसी समय उन्होंने यशराज चोपड़ा से मुलाकात की, जिनका बेटा आदित्य उन दिनों 'मोहब्बतें' फिल्म बना रहा था। उसी समय सिनर्जी कंपनी के सिद्धार्थ बसु ने उन्हें 'कौन बनेगा करोड़पति' की अवधारणा सुनाई और संचालन का अनुरोध किया। इस तरह उन्होंने छोटे परदे की दुनिया में प्रवेश किया और हंगामाखेज सफलता अर्जित की। इसलिए उनका टेलीविजन के लिए कुछ रचना एक तरह का शुकराना है और उनकी व्यावसायिक बुद्धि जानती है कि टेलीविजन उद्योग तीस हजार करोड़ रुपए सालाना का उद्योग बनने जा रहा है। अत: डेली सोप में उनका प्रवेश मोटे मुनाफे के साथ उन्हें ऐसी भूमिका करने का अवसर देगा, जो बड़े परदे पर शायद संभव नहीं है। आज सिनेमा में एक से अधिक नायक वाली फिल्म ही उनके लिए आर्थिक रूप से व्यावहारिक हो सकती है।
सत्तर वर्ष की आयु में अनेक व्याधियों से घिरे अमिताभ बच्चन अपने अनुशासन, संयम और दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण ही इतने सक्रिय हैं। जीवन की यह जिजीविषा उनको अपने माता-पिता से जीन्स में ही मिली है और वह अनवरत संघर्ष किए जा रहे हैं। उन्होंने अपनी अभिनय प्रतिभा का जमकर दोहन किया है और कभी विराम नहीं लिया। इस यात्रा में यह संभव है कि उन्होंने कुछ लोगों को आहत किया हो, क्योंकि इस तरह सफलता की यात्रा में निर्ममता सोच का अविभाज्य अंग बन जाती है। दूसरी बात यह कि सारे समय सारे लोग के बीच भले रहना संभव भी नहीं है, महत्वाकांक्षा का श्वेत घोड़ा सरपट भागने में किस कोमल कोपल को कुचलता है, यह वह जानता ही नहीं।
सच तो यह है कि जीवन की विराट अदालत में हम सभी मुजरिम हैं, अत: किसी को किसी और पर कोई निर्णय करने का अधिकार ही नहीं है। अब राजनीति में किसी दल या नीति के प्रति अमिताभ का समर्पित नहीं होना उनका व्यक्तिगत मामला है, जैसे मतदाता भी चुनाव दर चुनाव अपना विचार बदलता है और कई बार विचारहीनता से ग्रसित होकर मुहर लगाता है।
अमिताभ बच्चन ने अपने प्रारंभिक दौर में लगभग दर्जन भर असफल फिल्मों में काम किया और 'मेला'(१९७१) में उन्हें हटाकर संजय खान को लिया गया। इस तरह के अनुभव किसी भी व्यक्ति को हतोत्साहित कर सकते हैं, परंतु बच्चन नहीं टूटे। इसी तरह बोफोर्स के दौर में अफवाहों का अंधड़ भी उन्हें नष्ट कर सकता था। अपनी निर्माण कंपनी का घाटा भी नैराश्य में धकेल सकता था, परंतु वे लगातार काम करते रहे। जीवन में निरंतर काम करते रहने के सिवा कोई और रास्ता भी नहीं है।
अमिताभ बच्चन को पहली सफलता सलीम-जावेद की 'जंजीर' में मिली, जिसके बाद इसी टीम ने अनेक फिल्मों में सफलता के कीर्तिमान बनाए। सलीम-जावेद के रचे पात्रों में आक्रोश था और वह सामाजिक जीवन के अन्याय के प्रति नहीं होते हुए व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के प्रकरण थे। बहरहाल, वे पात्र अपनी परिस्थितियों के कारण थोड़े निर्मम भी हैं और इस टीम की आखिरी फिल्म 'शक्ति' में तो नायक अपने पिता की कर्तव्य-परायणता को समझ नहीं पाता और अंतिम दृश्य में पिता द्वारा गोली मारे जाने के क्षण में उसे अहसास होता है कि उसके पिता उससे हमेशा प्रेम करते थे, परंतु वे कर्तव्य से भी बंधे थे। क्या यह संभव है कि इन पात्रों के मनोभाव अमिताभ बच्चन के अवचेतन में गहरे पैठ गए हैं? या जीवन के अनुभव ने उन्हें ढाला है, जैसा कि साहिर साहब ने लिखा था 'तजुरबाते हवादिस की शक्ल में जो कुछ दुनिया ने दिया है, लौटा रहा हूं मैं'। अवचेतन की रहस्यमय कंदरा हमेशा अबूझ पहेली बनी रहती है, परंतु उसे समझने की चेष्टा मनुष्य करता रहता है।
मनुष्य अवचेतन मानसरोवर झील की तरह है, जिस पर पहाड़ों के पीछे से आती किरणें दिन के अलग समय पर पानी के विविध रंग का आभास रचती हैं। मनुष्य भी परिस्थितियों के कोण के कारण अपनी विविधता के साथ ही उजागर होता है। इसीलिए किसी एक क्षण में किसी कार्य के कारण किसी मनुष्य के बारे में कोई ठोस विचार बनाना ठीक नहीं है। अमिताभ बच्चन का आकलन केवल उनके अभिनय और जीवन में उनके जुझारूपन तथा जीवट के आधार पर ही किया जाना चाहिए और इस कसौटी पर वे खरे उतरते हैं। दरअसल अधिकांश लोगों को व्याधियां ही तोड़ देती हैं। उनकी तो अभी तक सत्रह बार शल्य चिकित्सा हो चुकी है। यह उनके अभिनय का प्रभाव है कि वे एक शक्तिशाली व्य्ति की छवि प्रस्तुत करते हैं या उनका जुझारूपन उनके अभिनय को यह धार देता है।