अमिताभ बच्चन का सीरियल युद्ध / जयप्रकाश चौकसे

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अमिताभ बच्चन का सीरियल युद्ध
प्रकाशन तिथि : 14 जुलाई 2014


खबर है कि इतवार की रात ब्राजील में खेले जा रहे फुटबॉल फाइनल देखने अमिताभ बच्चन वहां मौजूद होंगे आैर यकीनन विशेष अतिथि दीर्घा में उनकी झलकियां टेलीविजन पर हम देखेंगे। अमिताभ बच्चन की पहली पोस्टिंग कलकत्ता में हुई थी, अत: यह संभव है कि उनका फुटबॉल प्रेम वहां जागा हो। उन दिनों भी उनकी रूचि फुटबॉल आैर सिनेमा में थी। वे सत्यजीत रॉय की शूटिंग देखने जाते थे आैर उन दिनों टीनू आनंद सत्यजीत रॉय के सहायक निर्देशक थे आैर उन दोनों की उन दिनों की मुलाकातों का ही नतीजा है, 'कालिया', 'शहनशाह', 'मेजर साहब', 'आजाद' नामक चार अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्मों के टीनू आनंद का निर्देशक होना। टीनू आनंद ने 'अग्निपथ' में चरित्र भूमिका का निर्वाह किया था आैर आक्रोश से पगला गए पात्र की भूमिका में टीनू आनंद ने कमाल किया था।

आज की रात टेलीविजन पर हम अमिताभ बच्चन द्वारा निर्मित आैर अभिनीत तथा अनुराग कश्यप निर्देशित सीरियल 'युद्ध' देखेंगे। एक दौर में अपनी आक्रोश की मुद्रा की मार्केटिंग करते हुए अनुराग कश्यप ने अमिताभ बच्चन की कटु आलोचना की थी क्योंकि शिखर पर बैठे व्यक्ति की आलोचना करने पर लाइम लाइट में जाना पुराना आजमाया हुआ नुस्खा है आैर मजे की बात यह है कि अमिताभ बच्चन को भी बतौर अभिनेता आक्रोश की छवि से ही सफलता मिली थी आैर उस छवि को सलीम-जावेद ने रचा था परंतु उन भूमिकाओं का आक्रोश व्यक्तिगत बदला लेना था आैर वह वृहद सामाजिक अन्याय के खिलाफ विद्रोह नहीं था जैसा कि हमने बाद में विजय तेंदुलकर की लिखी आैर गोविंद निहलानी निर्देशित 'अर्ध सत्य' में देखा। यह जरूर गौरतलब है कि नेहरु फैलोशिप पाकर भारतीय समाज में हिंसा पर शोध करने वाले विद्वान विजय तेंदुलकर द्वारा आक्रोश की प्रस्तुति आैर सलीम-जावेद द्वारा गढ़ी आक्रोश की छवि में अंतर है।

सलीम जावेद बॉक्स ऑफिस की मांग को समझते थे आैर उन्होंने अत्यंत चतुराई से यह लोकप्रिय छवि गढ़ी है परंतु विजय तेंदुलकर के बौद्धिक संसार में बॉक्स ऑफिस का कोई अस्तित्व नहीं था। उन्होंने तो अत्यंत निर्मम होकर आम आदमी को उसके सुविधा भोगी हाेने पर भी लताड़ा है गोयाकि वे ऐसे लेखक थे जो अपने पाठक को प्यार नहीं करते थे वरन् उसकी बुराइयों पर निर्मम प्रहार करते थे। भारत के लेखन को दो हिस्सों के सरलीकरण में हम इस तरह भी देख सकते है परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि 'अर्ध सत्य' ने भी लागत पर मुनाफा कमाया था परंतु यह मुनाफा 'जंजीर' आैर 'दीवार' की तुलना में बहुत कम था। विजय तेंदुलकर के लिखे नाटक आज भी खेले जाते हैं आैर सौ साल बाद भी खेले जाऐंगे क्योंकि उन्होंने समाज की जिन कमजोरियों पर प्रहार किया था वे हजारों वर्ष पुरानी हैं आैर हजारों वर्ष कायम रहने वाली है।

बहरहाल 'युद्ध' के प्रोमो में एक संवाद गौरतलब है कि "यह खेल अब मेरे नियमों पर चलेगा" हमारे मनोरंजन जगत में 'लार्जर देन लाइफ' नायक ही इस तरह से युद्ध के नियम तय करता है आैर 'चित भी उसकी होती है पुट भी उसकी होती है।' वह युद्ध की जमीन आैर हथियार दोनों चुनता है, सच तो यह है कि जीत भी उसी का अधिकार है। 'शहनशाह' में संवाद था कि "हम जहां खड़े होते है, वही अदालत है" या "जहां हम खड़े होते हैं, लाइन वही से शुरु होती है"। हमारे सिनेमा में आक्रोश फिल्मकार के अनचाहे ही अराजकता का मुखौटा हो जाता है आैर फिल्में अनाम तानाशाह के नाम लिखे आमंत्रण पत्रों की तरह होती है आैर हमेशा लगता है कि वह आएगा, शायद वह चुका है। सिनेमा के जामेजम (क्रिस्टिल बॉल जिसमें जिप्सी भविष्य देखते हैं) में सब नजर आता है।

बहरहाल अब भारत की सेना के लिए खरीदे जाने वाले हथियारों इत्यादि में 49 प्रतिशत फॉरेन डायरेक्ट इंवेस्टमेंट जायज घोषित हो चुका है जिसका अर्थ यह है कि अमेरिका का युद्ध उद्योग अब भारत जाएगा। अत: अमेरिका की गिरती अर्थ व्यवस्था को सहारा मिलेगा आैर कालांतर में अमेरिका ही तय करेगा कि यदि चीन से युद्ध लड़ना भी पड़े तो वह भारत की भूमि पर लड़ा जाएगा। यूरोप दो महायुद्ध के पश्चात अब तीसरा नहीं चाहता। अत: युद्ध के नियम, जमीन इत्यादि सभी कुछ शक्तिशाली देश ही तय करता है। बहरहाल अनिल कपूर के "24" के बाद उसी तर्ज पर उससे बेहतर गुणवत: "युद्ध" की होगी। "24" हमने अमेरिका से आयात किया था।