अमृतलाल नागर जी से भेंट / राजेन्द्र वर्मा
जब मैं नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा था, मेरे एक मित्र गोपाल ने मुझे नृत्यगुरु, वीर विक्रम सिंह जी से मिलवाया। वे कैसरबाग़ (लखनऊ) कोतवाली के पीछे ख़यालीगंज में रहते थे। गोपाल का उनसे कैसे परिचय था, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन इतना याद है कि गोपाल ने मुझे सिंह साहब से मिलवाते हुए कहा था कि इन्हें (मुझे) कोई छोटी-मोटी नौकरी दिलवा दीजिए. ...
यह 15 जून 1977 की बात है। उन्होंने मुझे अगले दिन आने के लिए कहा।
अगले दिन मैं सिंह साहब से मिलने उनके घर पहुँचा। उन्होंने मुझे बैठाया और पानी के लिए पूछा। फिर लिफ़ाफ़े में बंद कर एक पत्र देकर मुझे उ।प्र। संगीत नाटक अकादमी में डॉ. शरद नागर के पास भेजा।
अकादमी का ऑफिस उस समय कैसरबाग़ में भातखंडे संगीत महाविद्यालय के बगलवाली बिल्डिंग में था। पंद्रह मिनट बाद मैं शरद जी के पास था। पत्र-वाला लिफाफा उन्हें पत्र दिया। उसमें क्या लिखा था-यह तो नहीं पता, लेकिन पत्र पढ़ते-ही शरद जी ने मुझे अपने सामने पड़ी कुर्सी पर बिठाया और पानी पिलवाया था। उस समय वे अकादमी में सांस्कृतिक सचिव थे।
शरद जी ने मुझसे कुछ पारिवारिक बातें कीं, स्थानीय निवास के बारे में जानकारी ली और हिन्दी भाषा और साहित्य को लेकर हल्का-फुल्का इंटरव्यू लिया। फिर हिन्दी और अंग्रेज़ी के कुछ शब्दों का इमला बोला जिसे मैंने लगभग सही लिखा। एक पेज हिन्दी और एक पेज अंग्रेज़ी टाइप भी करवाया। ... अगले दिन सवेरे आठ बजे प्रख्यात उपन्यासकार अमृतलाल नागर जी की चौक स्थित कोठी पर आने को कहा।
दूसरे दिन मैं सबेरे के आठ बजे चौक में बान वाली गली में राजाराम की कोठी के रूप में मशहूर हवेली के चबूतरे पर जब चार-पाँच सीढियाँ चढ़कर पहुँचा, तो मन में प्रसन्नता के साथ धुकधुकी-सी लगी थी कि नागर जी से मैं कैसे मिलूँगा? उनसे कैसे बातचीत कर पाऊँगा?
लकड़ी के बड़े से दरवाज़े की बायीं चौखट पर कॉल बेल लगी थी। हिम्मत कर मैंने उसे दबा दी। ... मैं उम्मीद कर रहा था कि कोई आकर दरवाज़ा खोलेगा, लेकिन कोई नहीं आया। हाँ, क़रीब आधे मिनट बाद अन्दर से आवाज़ आयी-"खुला है, आ जाओ!" एक पल्ला ठेल कर मैं अन्दर घुसा, फिर उसे पूर्ववत भिड़ाकर आगे बढ़ा। बरामदे को पार करते ही आँगन शुरू। आँगन में पहुँचते ही पचीस साल के चपेटे में एक आदमी से मुझसे भेंट हुई. यह सुरेश थे-नागर जी के घर-परिवार के सेवक। पता नहीं कैसे उन्होंने समझ लिया कि मुझे नागर जी से ही मिलना है और बिना मेरे कुछ कहे ही, संकेत किया कि आँगन पार कर सामने वाले कमरे में चले जाइए. अभी दो क़दम-ही आगे बढ़ा था कि शरद जी से अपने कमरे से निकलते हुए दिखायी दिये। कोठी में पाँच-छह कमरे थे। नागर जी का परिवार उसी में रहता था। मुझे देखकर शरद जी आँगन में आ गये।
मैं शरद जी के साथ नागर जी के कमरे में पहुँचा। कमरा क्या था, हालनुमा बैठका था! दुर्लभ पुस्तकों, चित्रों और कलाकृतियों के मध्य दो तख़्त जोड़कर बनाये गये दीवान पर दो मनसदों से घिरा उनके बैठने का स्थान निर्धारित था। तख़्त के सामने बेंत का सोफ़ा और हैण्डलूम की कारपेट पर व्यस्थित सेंटर टेबल। कलापूर्ण सादगी ने मन मोह लिया। ... आँखों पर काले रंग के मोटे फ्रेम का चश्मा लगाये नागर जी अपने स्थान पर बैठे कुछ लिख रहे थे-पीठ मसनद से सटाये, गोद में राइटिंग पैड लिये हुए!
शरद जी ने मुझे नागर जी से परिचित कराया-"बाबूजी! ये हैं राजेन्द्र, मैनुस्क्रिप्ट लिखेंगे।"
उस समय वे बहुचर्चित उपन्यास 'नाच्यो बहुत गोपाल' लिख रहे थे। उन्होंने थोड़ा-सा सिर उठाया-"अच्छा, बेटा लिखोगे?" एक अपरिचित से भी आत्मीयता से भरा प्रश्नवाचक वाक्य सुन मेरी असहजता लुप्त हो गयी।
"जी बाबूजी!" मैंने उत्साह से कहा था।
उन्होंने तुरन्त ही अपने तख़्त पर मुझे बिठा लिया और राइटिंग पैड पकड़ा दिया। कोई पूछताँछ नहीं। इस बात की भी जाँच नहीं कि मैं लिख भी पाऊँगा कि नहीं! एक ही नज़र में उन्होंने जैसे मुझे और मेरी क्षमता को परख लिया और आश्वस्त हो गये।
यह मेरे लिए अप्रत्याशित था। उस समय मेरी अवस्था 20 वर्ष की थी, लेकिन देखने में, मैं 18 का ही लगता था-सवा पाँच फ़िटी दुबली-पतली काया, दाढ़ी-मूँछ का कहीं पता नहीं, हल्की-सी रेख थी! कुर्ता-पायजामा और साधारण चप्पलें पहने मैं धूल-पसीने से गन्दे हो चुके पैरों से तख़्त पर पालथी मारकर बैठने का साहस जुटा-ही रहा था कि बाबूजी ने बैठने का संकेत कर मेरे हाथ में राइटिंग पैड थमा दिया और उपन्यास की पांडुलिपि बोलनी शुरू कर दी।
अपने गन्दे पैरों सहित बैठने के अलावा मेरे पास कोई चारा न था। उनके सम्मुख तख़्त पर पालथी मार बैठ गया और 'इमला' लिखने लगा। ...वे जब स्वयं लिखते थे, तो विचार-प्रवाह भंग हो जाता था। इसलिए वे स्वयं कम ही लिखते थे, बोलकर अधिक लिखाते थे।
आधे-पौन घंटे बाद नाश्ता आया। 'बा' (नागर जी की पत्नी) स्वयं लेकर आयीं। स्वादिष्ट कचौरियाँ और चाय! हालाँकि मैं रास्ते में नाश्ता करके आया था, फिर भी बा और बाबूजी के कहने पर दो कचौरियाँ खानी पड़ीं। इससे पहले मौक़ा निकालकर आँगन में लगी पानी की टोंटी से अपने हाथ-पैर धो चुका था।
लेखनी को विश्राम करना पड़ा था। बाबूजी ने मेरे लिखे हुए इमले की जाँच की। तीन-साढ़े तीन पृष्ठों में चार-पाँच स्थलों पर मामूली संशोधन। ... मैं 'पास' हो गया था।
नाश्ते के बाद मैं फिर अपनी भूमिका में आ गया। करीब ग्यारह बजे पूर्वाह्न तक बोलना-लिखना जारी रहा। फिर मेरा औपचारिक साक्षात्कार। बताने को कुछ ख़ास था ही नहीं-दो-चार मामूली बातें—नाम-पता, शिक्षा-दीक्षा, माता-पिता, स्थाई निवास आदि। ... 'बहुत अच्छा, ख़ूब मेहनत करो, ख़ूब तरक्क़ी करो' जैसे आशीर्वचनों की वर्षा से मैं स्नात हो रहा था। ... अगले दिन थोडा जल्दी, यानी साढ़े सात बजे तक, आने की हिदायत के साथ छुट्टी.
मुझे उसी दिन मुझे मालूम पड़ा था कि शरद जी, नागर जी के छोटे बेटे थे। बड़े बेटे थे-कुमुद नागर।
अगले दिन से वही दिनचर्या। सवेरे साढ़े सात बजे से लेकर पूर्वाह्न ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे तक लिखना। दोपहर बारह बजे से शाम सात-साढ़े सात बजे तक अकादमी में। उस समय अकादमी के यही ऑफिस-ऑवर्स थे।
उन दिनों मैं गौसनगर-पाण्डेगंज में बिरहाने से आने वाले नाले के पास किराये पर रहता था। जिस कमरे में मैं रहता था, उसकी पीछे मेहतर बस्ती थी और कमरे की पीछे वाली खिड़की नगरपालिका के सार्वजनिक नल को ओर खुलती थी। सवेरे पाँच से रात दस बजे तक चहल-पहल से लेकर गली-गलौज का मनोरंजक माहौल बना रहता था। ग़रीबी और उपेक्षा से निर्मित वातावरण में वह असभ्यता और कुसंस्कृति व्याप्त थी, जो उपन्यास की विषयवस्तु थी। मैं स्वयं ग़रीबी में पला-बढ़ा था और सीमान्त कृषक परिवार से था, अतः आभिजात्यता से चार हाथ की दूरी-ही भाती थी।
नागर जी के मुख से निकले कथोपकथन का मिलान मैं अपने कमरे के पिछवाड़े वाली खिड़की के 'चलचित्रों' से आने वाली आवाज़ों से करता। कहीं 'मिसमैच' होने पर बाबूजी को सूचित करता। कुछ दिनों तक यह क्रम चलता रहा, फिर एक दिन उन्होंने मुझे यह छूट दे दी कि कथोपकथनों में मैं यथावश्यक परिवर्तन कर लूँ। उस समय मैंने इस बात का अधिक महत्त्व नहीं समझा, पर आज मैं इसका महत्त्व समझ सकता हूँ। इसका प्रत्यक्ष लाभ मैंने अपने कहानी-लेखन में उठाया है।
यह स्वीकारने में मुझे किंचित संकोच नहीं कि आज मुझे जो भी उल्टा-सीधा लिखना आता है, उसकी तमीज़ बाबूजी से ही मिली। मेरे घर में कोई साहित्यकार नहीं। हाँ, पिताजी को प्रेमचंद साहित्य और तुलसीकृत रामायण में विशेष रुचि है, पर वे लेखक-कवि नहीं हैं। उनकी इस रुचि के कारण मुझे कोर्स के अतिरिक्त प्रेमचंद की कई कहानियाँ और कुछ अन्य लोकप्रिय साहित्य पढ़ने का अवसर मिला था। 'रामचरितमानस' को तो कई बार फुटकर-फुटकर सस्वर पढ़ चुका था। ... जब इन बातों की चर्चा बाबूजी से हुई, तो उन्होंने कहा था-"तभी तुम बढ़िया लिखते हो!"
"मैं तो वही लिखता हूँ, जो आप लिखाते हैं। इसमें मेरा अपना क्या है?" , मैंने कहा।
"बेटा! यह बात अभी नहीं समझोगे। जब स्वयं कुछ लिखोगे, तब समझ जाओगे।"
'मैं भी लिखूँगा' यह सोचते ही मैं भावुक हो उठा। बाबूजी के पैर छू लिये। उनका आशीष छलक पड़ा। ...
अक्टूबर-नवम्बर तक उपन्यास पूरा हुआ। बाबूजी ने स्वयं पांडुलिपि सिलकर, उस पर प्रेषक-प्रेष्य का नाम-पता लिखकर मुझे सौंपी-चौक पोस्ट ऑफिस से 'राजपाल एंड संस' को रजिस्ट्री करने के लिए. ... मैंने रजिस्ट्री की और रसीद लाकर बाबूजी को दी। ... आज सोचता हूँ कि जिस विश्वास से बाबूजी ने मुझे 'नाच्यो बहुत गोपाल' की पांडुलिपि रजिस्ट्री के लिए दी थी, उस विश्वास के साथ मैं अपनी पांडुलिपि जिसकी कोई दूसरी प्रति न हो, शायद ही किसी को सौंपूँ!
इसे मैं अपना सौभाग्य ही मानूँगा कि 'नाच्यो बहुत गोपाल' की पांडुलिपि का अधिकांश भाग मुझे लिपिबद्ध करने का अवसर मिला। मुझसे पहले, श्री अशोक ऋषिराज यह कार्य कर रहे थे, पर संभवतः मेरा काम नागर जी को अधिक पसंद आया। तभी, उन्होंने शरद जी से मेरे बारे में एक नहीं, दो बार कहा था कि अबकी बार तुमने अच्छा लिपिक दिया है।
'नाच्यो बहुत गोपाल' हिन्दी साहित्य में अप्रतिम उपन्यासों में है और यह नागर जी के उपन्यासों की लीक से हटकर सर्वथा अनन्य है। इसमें 'मेहतर' कहे जाने वाले अछूतों को लेकर ताना-बाना बुना गया है और उन्नसवी सदी के प्रारंभ की देशव्यापी सामाजिक हलचल का भी हाल मिलता है। नागर जी ने इस उपन्यास की रचना से पूर्व, मेहतर जाति के ऐतिहासिक सन्दर्भों को समझने के लिए जहाँ पर्याप्त अध्ययन किया था, वहीं इस जाति के लोगों, विशेषतः स्त्रियों के मनोविज्ञान को समझने के लिए भंगी बस्ती में सर्वेक्षण कर अनेक पात्रों का इंटरव्यू भी किया था। यही कारण है कि इस उपन्यास के विवरण इतने स्वाभाविक और सटीक हैं कि आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा को कहना पड़ा कि हिन्दी में ऐसा कोई दूसरा उपन्यास देखने को नहीं मिलता।
एक हिसाब से देखा जाय तो नागर जी का सान्निध्य और अकादमी के परिवेश ने ही मुझे लेखक-कवि बनाया। ... 1978 में एक टूटी-फूटी कविता लिखी थी। जब उसे बाबूजी को दिखाया, तो वे हँसकर बोले-"तेवर तो तुम्हारे निराला-वाले हैं, लेकिन बेटा! अभी पढो।" फिर समझाते हुए कहा, "चार-पाँच साल तक कुछ मत लिखना।"
मैंने उनकी बात गाँठ बाँधकर अप्रैल 1982 तक कुछ नहीं लिखा, लेकिन गाँव में अचानक घटी एक घटना ने मुझे उद्वेलित किया और मैंने एक कहानी लिख डाली- 'दंश' । डरते-डरते मैंने उसे जब बाबूजी को दिखाया, तो उन्होंने मेरी ख़ूब पीठ ठोंकी और संशोधन भी सुझाये-भाषा और कथा-विवरण को लेकर। हिदायत भी दी कि एक रचना को कम-से-कम तीन-चार बार रिवाइज करो, फिर उसे फ़ाइनल करो। ... छपाने में तो बिलकुल जल्दबाजी नहीं!
मैंने बाबूजी की बात गाँठ बाँध अवश्य ली, पर मेरा अनुभव यही कहता है कि लेखकों के साथ उपदेश दूर तक नहीं चलते। यश-कामना उन्हें जल्द-ही टँगड़ी मार गिरा देती है।