अमृतसर आज़ादी के बाद / कृश्न चन्दर
पन्द्रह अगस्त 1947 ईस्वी को हिन्दोस्तान आज़ाद हुआ। पाकिस्तान आज़ाद हुआ। पन्द्रह अगस्त 1947 ईस्वी को हिन्दोस्तान भर में जश्न-ए-आज़ादी मनाया जा रहा था और कराची में आज़ाद पाकिस्तान के फ़र्हत-नाक नारे बुलन्द हो रहे थे। पन्द्रह अगस्त 1947-ईस्वी को लाहौर जल रहा था और अमृतसर में हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख अवाम फ़िर्क़ा-वाराना फ़साद की हौलनाक चपेट में आ चुके थे, क्योंकि किसी ने पंजाब की अवाम से नहीं पूछा था कि तुम अलग रहना चाहते हो या मिलजुल कर, जैसा तुम सदियों से रहते चले आए हो।
सदियों पहले मुतलक़-उल-इनानी का दौर-दौरा था और किसी ने अवाम से कभी ना पूछा था, फिर अंग्रेज़ों ने अपने सामराज की बुनियाद डाली और उन्होंने पंजाब से सिपाही और घोड़े अपनी फ़ौज में भर्ती किए और इसके इवज़ पंजाब को नहरें, पैंशनें अता फ़रमाईं, लेकिन उन्होंने भी पंजाबी अवाम से ये सब कुछ पूछ के थोड़े ही किया था।
उसके बाद सयासी शऊर आया और सियासी शऊर के साथ जम्हूरियत आई और जम्हूरियत के साथ जम्हूरी सियास्तदान आए और सयासी जमातें आईं लेकिन फ़ैसला करते वक़्त उन्होंने पंजाबी अवाम से कुछ ना पूछा। एक नक़्शा सामने रख कर पंजाब की सर-ज़मीन के नोक-ए-क़लम से दो टुकड़े कर दीए। फ़ैसला करने वाले सियास्तदान गुजराती थे, कश्मीरी थे। इस लिए पंजाब के नक़्शे को सामने रखकर उस पर क़लम से एक लकीर, एक हद-ए-फ़ासिल क़ायम कर देना उनके लिए ज़्यादा मुश्किल ना था। नक़्शा एक निहायत ही मामूली सी चीज़ है। आठ आने, रुपय में पंजाब का नक़्शा मिलता है। उस पर लकीर खींच देना भी आसान है। एक काग़ज़ का टुकड़ा, एक रोशनाई की लकीर, वो कैसे पंजाब के दुख को समझ सकते थे। इस लकीर की माहीयत को जो इस नक़्शे को नहीं पंजाब के दिल को चीरती हुई चली जा रही थी।
पंजाब के तीन मज़हब थे, लेकिन उसका दिल एक था। लिबास एक था, उस की ज़बान एक थी, उस के गीत एक थे। उसके खेत एक थे। उसके खेतों की रूमानी फ़िज़ा और उसके किसानों के पंचायती वलवले एक थे। पंजाब में वो सब बातें मौजूद थीं जो एक तहज़ीब, एक देस, एक क़ौमियत के वजूद का अहाता करती हैं, फिर किस लिए उस के गले पर छुरी चलाई गई? किस लिए उस की रगों में साल-हा-साल की नफ़रत का बीज बो दिया गया। किस लिए उस के खलियानों को शैतानियत और ज़ुल्म और मज़हबी आग से जलाया गया? हमें मालूम ना था। हमें बड़ा अफ़सोस है। हम इस ज़ुल्म की मज़म्मत करते हैं।
ज़ुल्म और नफ़रत और मज़हबी जुनून को भड़काने वाले, पंजाब की वहदत को मिटा देने वाले आज मगरमच्छ के आँसू बहा रहे हैं और आज पंजाब के बेटे दिल्ली की गलीयों में और कराची के बाज़ारों में भीक मांग रहे हैं और उनकी औरतों की इस्मत लुट चुकी है और उनके खेत वीरान पड़े हैं। कहा जाता है कि हिन्दोस्तान और पाकिस्तान की हुकूमतों ने आज तक पंजाबी पनाह गज़ीनों के लिए बीस करोड़ रुपय सर्फ़ किए हैं यानी फ़ी कस बीस रुपय। बड़ा एहसान किया है। हमारी सात पुश्तों पर। अरे हम तो महीने में बीस रुपय की लस्सी पी जाते हैं और आज तुम उन लोगों को ख़ैरात देने चले हो जो कल तक हिन्दोस्तान के किसानों में सबसे ज़्यादा ख़ुश-हाल थे।
जम्हूरियत के परसतारो ज़रा पंजाब के किसानों से, उसके तालिब-ए-इल्मों से, उसके खेत के मज़दूरों से, उसके दुकानदारों से, उसकी माओं, बेटों और बहुओं ही से पूछ तो लिया होता कि इस नक़्शे पर जो काली लकीर लग रही है इसके मुताल्लिक़ तुम्हारा क्या ख़्याल है? मगर वहां फ़िक्र किस को होती। किसी का अपना देस होता, किसी का अपना वतन होता, किसी की अपनी ज़बान होती, किसी के अपने गीत होते तो वो समझ सकता कि ये ग़लती क्या है और इस का ख़मयाज़ा किसे भुगतना पड़ेगा। ये दुख वही समझ सकता है जो हीर को राँझे से जुदा होते हुए देखे। जो सोहनी को महींवाल के फ़िराक़ में तड़पता देखे। जिसने पंजाब के खेतों में अपने हाथों से गेहूँ की सब्ज़ बालियाँ उगाई हों और उसके कपास के फूलों के नन्हे चाँदों को चमकता हुआ देखा हो। ये सियासत-दाँ क्या समझ सकते इस दुख को। जम्हूरियत के सियासत-दाँ थे ना।
ख़ैर ये रोना मरना होता रहता है। इन्सान को इन्सान होने में बहुत देर है और फिर एक हेच-मदां अफ़्साना निगार को इन बातों से क्या। उसे ज़िंदगी से, सियासत से, इल्म-ओ-फ़न से, साईंस से, तारीख़-ओ-फ़लसफ़े से क्या लगाव। उसे क्या ग़रज़ कि पंजाब मरता है या जीता है। औरतों की अस्मतें बर्बाद होती हैं या महफ़ूज़ रहती हैं। बच्चों के गले पर छुरी फेरी जाती है या उन पर मेहरबान होंटों के बोसे सब्त होते हैं। उसे इन बातों से अलग हो कर कहानी सुनाना चाहिए। अपनी छोटी-मोटी कहानी जो लोगों के दिलों को ख़ुश कर सके। ये बड़े बोल उसे ज़ेब नहीं देते।
ठीक तो कहते हैं आप, इस लिए अब अमृतसर की आज़ादी की कहानी सुनिए। इस शहर की कहानी जहां जलियाँवाला बाग़ है। जहां शुमाली हिंद की सबसे बड़ी तिजारती मंडी है। जहां सिक्खों का सबसे बड़ा मुक़द्दस गुरु-द्वारा है। जहां की क़ौमी तहरीकों में मुस्लमानों, हिंदूओं और सिक्खों ने एक दूसरे से बढ़-चढ़ के हिस्सा लिया। कहा जाता है कि लाहौर अगर फ़िरक़े-दारी का क़िला है तो अमृतसर क़ौमीयत का मर्कज़ है। इसी क़ौमीयत के सबसे बड़े मर्कज़ की दास्तान सुनिए।
15 अगस्त 1947ई- को अमृतसर आज़ाद हुआ। पड़ोस में लाहौर जल रहा था मगर अमृतसर आज़ाद था और उसके मकानों, दुकानों बाज़ारों पर तिरंगे झंडे लहरा रहे थे, अमृतसर के क़ौम परस्त मुस्लमान इस जश्न-ए-आज़ादी में सबसे आगे थे, क्योंकि वो आज़ादी की तहरीक में सबसे आगे रहे थे। ये अमृतसर अकाली तहरीक ही का अमृतसर ना था ये अहरारी तहरीक का भी अमृतसर था। ये डाक्टर सत्य पाल का अमृतसर ना था ये कुचलो और हुसाम-उद्दीन का अमृतसर था, और आज अमृतसर आज़ाद था और उसकी क़ौम परवर फ़िज़ा में आज़ाद हिन्दोस्तान के नारे गूंज रहे थे और अमृतसर के मुस्लमान और हिंदू और सिक्ख यकजा ख़ुश थे।
जलियाँवाला बाग़ के शहीद ज़िंदा हो गए। शाम को जब स्टेशन पर चिराग़ाँ हुआ तो आज़ाद हिन्दोस्तान और आज़ाद पाकिस्तान से दो स्पैशल गाड़ियाँ आईं। पाकिस्तान से आने वाली गाड़ी में हिंदू और सिक्ख थे। हिन्दोस्तान से आने वाली गाड़ी में मुस्लमान थे। तीन चार हज़ार अफ़राद उस गाड़ी में और इतने ही दूसरी गाड़ी में। कुल छः सात हज़ार अफ़राद। ब-मुश्किल दो हज़ार ज़िंदा होंगे बाक़ी लोग मरे पड़े थे और उनकी लाशें सर-बुरीदा थीं और उनके सर नेज़ों पर लगा के गाड़ियों की खिड़कियों में सजाये गए थे। पाकिस्तान स्पैशल पर उर्दू के मोटे मोटे हुरूफ़ में लिखा था, “क़त्ल करना पाकिस्तान से सीखो” हिन्दोस्तान स्पेशल में लिखा था हिन्दी में “बदला लेना हिन्दोस्तान से सीखो”
इस पर हिंदुओं और सिक्खों को बड़ा तैश आया। ज़ालिमों ने हमारे भाईयों के साथ कितना बुरा सुलूक किया है। हाय ये हमारे हिंदू और सिक्ख पनाह-गुज़ीं और वाक़ई उनकी हालत भी क़ाबिल-ए-रहम थी। उन्हें फ़ौरन गाड़ी से निकाल कर पनाह-गुज़ीनों के कैंप में पहुंचाया गया और सिक्खों और हिंदूओं ने मुस्लमानों की गाड़ी पर धावा बोल दिया यानी अगर निहत्ते नीम मुर्दा मुहाजिरीन पर हमला को “धावा” कह सकते हैं तो वाक़ई ये धावा था। आधे से ज़्यादा आदमी मार डाले गए। तब कहीं जा कर मिल्ट्री ने हालात पर क़ाबू पाया।
गाड़ी में एक बुढ़िया औरत बैठी थी और उसकी गोद में उसका नन्हा पोता था। रास्ते में उसका बेटा मारा गया उसकी बहू को जाट उठा कर ले गए थे उस के ख़ाविंद को लोगों ने भालों से टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। अब वो चुप-चाप बैठी थी। उसके लबों पर आहें ना थीं उसकी आँखों में आँसू ना थे। उसके दिल में दुआ ना थी। उसके ईमान में क़ुव्वत ना थी। वो पत्थर का बुत बनी चुप-चाप बैठी थी जैसे वो कुछ सुन ना सकती थी कुछ देख ना सकती थी कुछ महसूस ना कर सकती थी।
बच्चे ने कहा, “दादी अम्माँ पानी।”
दादी चुप रही। बच्चा चीख़ा, “दादी अम्माँ पानी।”
दादी ने कहा, “बेटा पाकिस्तान आएगा तो पानी मिलेगा।”
बच्चे ने कहा , “दादी अम्माँ क्या हिन्दोस्तान में पानी नहीं है?”
दादी ने कहा, “बेटा अब हमारे देस में पानी नहीं है”
बच्चे ने कहा, “क्यों नहीं है? मुझे प्यास लगी है। मैं तो पानी पियूँगा, पानी, पानी, पानी। दादी अम्माँ पानी पियूँगा। मैं पानी पियूँगा।”
“पानी पियोगे?” एक अकाली रज़ाकार वहां से गुज़र रहा था उसने ख़शमगीं निगाहों से बच्चे की तरफ़ देख के कहा। “पानी पियोगे ना?”
“हाँ...” बच्चे ने सर हिलाया।
“नहीं नहीं” दादी ने ख़ौफ़ज़दा हो कर कहा। “ये कुछ नहीं कहता आपको, ये कुछ नहीं मांगता आपसे। ख़ुदा के लिए सरदार साहिब उसे छोड़ दीजिए। मेरे पास अब कुछ नहीं है।”
अकाली रज़ाकार हंसा। उसने पाएदान से रिसते हुए ख़ून को अपनी ओक में जमा किया और उसे बच्चे के क़रीब ले जा के कहने लगा, “लो प्यास लगी है। तो ये पी लो बड़ा अच्छा ख़ून है मुस्लमान का ख़ून है।”
दादी पीछे हट गई बच्चा रोने लगा। दादी ने बच्चे को अपने पीले दुपट्टे से ढक लिया और अकाली रज़ाकार हँसता हुआ आगे चला गया।
दादी सोचने लगी कब ये गाड़ी चलेगी मेरे अल्लाह पाकिस्तान कब आएगा।
एक हिंदू पानी का गिलास लेकर आया “लो पानी पिला दो उसे”
लड़के ने अपनी बाँहें आगे बढ़ाईं, उस के होंट काँप रह थे उस की आँखें बाहर निकली पड़ी थीं। उसके जिस्म का रुआँ रुआँ पानी मांग रहा था। हिंदू ने गिलास ज़रा पीछे सरका लिया। बोला, “इस पानी की क़ीमत है मुस्लमान बच्चे को पानी मुफ़्त नहीं मिलता। इस गिलास की क़ीमत पच्चास रुपय है।”
“पच्चास रुपय” दादी ने आजिज़ी से कहा। “बेटा मेरे पास तो चांदी का एक छल्ला भी नहीं है मैं पच्चास रुपय कहाँ से दूँगी
“पानी, पानी, पानी पानी मुझे दो, पानी का गिलास मुझे दे दो, दादी अम्माँ देखो ये हमें पानी पीने नहीं देता।”
“मुझे दो, मुझे दो” एक दूसरे मुसाफ़िर ने कहा “लो मेरे पास पच्चास रुपय हैं।”
हिंदू हँसने लगा, “ये पच्चास रुपय तो बच्चे के लिए थे, तुम्हारे लिए इस गिलास की क़ीमत सौ रुपय है सौ रुपय दो और ये पानी का गिलास पी लो।”
“अच्छा ये सौ रुपया ही ले लो, ये लो” दूसरे मुस्लमान मुसाफ़िर ने सौ रुपया अदा कर के गिलास ले लिया। और उसे गटा-गट पीने लगा।
बच्चा उसे देखकर और भी चिल्लाने लगा “पानी, पानी, पानी दादी अम्माँ पानी।”
“एक घूँट उसे भी दे दो, ख़ुदा और रसूल के लिए”
मुस्लमान काफ़िर ने गिलास ख़ाली कर के अपनी आँखें बंद कर लीं, गिलास उस के हाथ से छूट कर फ़र्श पर जा गिरा और पानी की चंद बूँदें फ़र्श पर बिखर गईं। बच्चा गोद से उतर कर फ़र्श पर चला गया। पहले उसने ख़ाली गिलास को चाटने की कोशिश की, फिर फ़र्श पर गिरी चंद बूँदों को, फिर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा, “दादी अम्माँ पानी, पानी”
पानी मौजूद था और पानी नहीं था। हिंदू पनाह-गुज़ीं पानी पी रहे थे और मुस्लमान पनाह-गुज़ीं प्यासे थे। पानी मौजूद था और मटकों की क़तारें स्टेशन के प्लेटफार्म पर सजी हुई थीं और पानी के नल खुले थे और भंगी आब-ए-दस्त के लिए पानी हिंदू मुसाफ़िरों को दे रहे थे। लेकिन पानी नहीं था तो मुस्लमान मुहाजिरीन के लिए क्योंकि पंजाब के नक़्शे पर एक काली मौत की लकीर खींच गई थी और कल का भाई आज दुश्मन हो गया था और कल जिसको हमने बहन कहा था आज वो हमारे लिए तवायफ़ से भी बदतर थी और कल जो माँ थी आज बेटे ने उसको डायन समझ कर उस के गले पर छुरी फेर दी थी।
पानी हिन्दोस्तान में था और पानी पाकिस्तान में भी था। लेकिन पानी कहीं नहीं था क्योंकि आँखों का पानी मर गया था और ये दोनों मुल्क नफ़रत के सहरा बन गए थे और उनकी तपती हुई रेत पर चलते हुए कारवाँ बाद-ए-सुमूम की बर्बादियों के शिकार हो गए थे। पानी था मगर सराब था। जिस देस में लस्सी और दूध पानी की तरह बहते थे, वहां आज पानी नहीं था और उसके बेटे प्यास से बिलक-बिलक कर मर रहे थे लेकिन दिल के दरिया सूख गए थे इस लिए पानी था और नहीं भी था।
फिर आज़ादी की रात आई। दीवाली पर भी ऐसा चिराग़ां नहीं होता क्योंकि दीवाली पर तो सिर्फ दीए जलते हैं। यहां घरों के घर जल रहे थे। दीवाली पर आतिश-बाज़ी होती है, पटाख़े फूटते हैं। यहां बम फट रहे थे और मशीन गनें चल रही थीं। अंग्रेज़ों के राज में एक पिस्तौल भी भूले से कहीं नहीं मिलता था और आज़ादी की रात ना जाने कहाँ से इतने सारे बम, हैंड ग्रेनेड मशीन गन, स्टेन गन, ब्रेन गन टपक पड़े। ये असलाह जात बर्तानवी और अमरीकी कंपनियों के बनाए हुए थे और आज आज़ादी की रात हिन्दोस्तानियों और पाकिस्तानीयों के दिल छेद रहे थे। लड़े जाओ बहादुरो, मरे जाओ बहादुरो, हम असलाह जात तैयार करेंगे तुम लोग लड़ोगे शाबाश बहादुरो, देखना कहीं हमारे गोला बारूद के कारख़ानों का मुनाफ़ा कम ना हो जाये।
घमसान का रन रहे तो मज़ा है। चीन वाले लड़ते हैं तो हिन्दोस्तान और पाकिस्तान वाले क्यों ना लड़ें। वो भी एशियाई हैं, तुम भी एशियाई हो। एशिया की इज़्ज़त बरक़रार रखो। लड़े जाओ बहादुरो, तुमने लड़ना बंद किया तो एशिया का रुख दूसरी तरफ़ पलट जाएगा और फिर हमारे कारख़ानों के मुनाफ़ा और हिस्से और हमारी सामराजी ख़ुशहाली ख़तरे में पड़ जाएगी। लड़े जाओ बहादुरो। पहले तुम हमारे मुल्कों से कपड़ा और शीशे का सामान और अत्रियात मंगाते थे, अब हम तुम्हें असलाह जात भेजेंगे और बम और हवाई जहाज़ और कारतूस। क्योंकि अब तुम आज़ाद हो गए हो। मुसल्लह हिंदू और सिक्ख रज़ाकार मुस्लमानों के घरों को आग लगा रहे थे और जय हिंद के नारे गूंज रहे थे। मुस्लमान अपने घरों की कमीं-गाहों में छिप कर हमला आवरों पर मशीनगनों से हमला कर रहे थे और हैंड ग्रेनेड फेंकते थे।
आज़ादी की रात और उसके तीन चार रोज़ बाद तक इस तरह मुक़ाबला रहा। फिर सिक्खों और हिंदूओं की मदद के लिए आस-पास की रियास्तों से रज़ाकार पहुंच गए और मुस्लमानों ने अपने घर ख़ाली करने शुरू किए। घर, महल्ले, बाज़ार जल रहे थे। हिंदूओं के घर और मुस्लमानों के घर और सिक्खों के घर।
लेकिन आख़िर में मुस्लमानों के घर सबसे ज़्यादा जले और आख़िर हज़ारों की तादाद में मुस्लमान इकट्ठे हो कर शहर से भागने लगे। इस मौक़े पर जो कुछ हुआ उसे तारीख़ में “अमृतसर का क़त्ल-ए-आम” कहा जाएगा। लेकिन मिल्ट्री ने हालात पर जल्द क़ाबू पा लिया। क़त्ल-ए-आम बंद हुआ और हिंदू और मुस्लमान दो मुख़्तलिफ़ कैम्पों में बंद हो कर पनाह-गुज़ीन कहलाने लगे। हिंदू शरणार्थी कहलाते थे और मुस्लमान पनाह-गुज़ीन मुहाजिरीन। गो मुसीबत दोनों पर एक ही थी, लेकिन उनके नाम अलग अलग कर दिए थे ताकि मुसीबत में भी ये लोग इकट्ठे ना मिलें। दोनों कैम्पों पर ना छत थी ना रोशनी का इंतिज़ाम था ना सोने के लिए बिस्तर थे ना पायख़ाने। लेकिन एक कैंप हिंदू और सिक्ख शरणार्थियों का कैंप कहलाता था दूसरा मुस्लमान मुहाजिरीन का।
हिंदू शरणार्थियों के कैंप में आज़ादी की रात को शदीद बुख़ार में लरज़ती हुई एक माँ अपने बीमार बेटे के सामने दम तोड़ रही थी। ये लोग मग़रिबी पंजाब से आए पंद्रह आदमियों का ख़ानदान था। पाकिस्तान से हिन्दोस्तान आते सिर्फ दो अफ़राद रह गए थे और अब उनमें भी एक बीमार था। दूसरा दम तोड़ रहा था।
जब ये पंद्रह अफ़राद का क़ाफ़िला घर से चला था तो उनके पास बिस्तर थे। सामान ख़ुर्द-ओ-नोश था, कपड़ों से भरे हुए ट्रंक थे, रूपयों की पोटलियाँ थीं और औरतों के जिस्मों पर ज़ेवर थे। लड़के के पास एक बाई-स्किल थी और ये सब पंद्रह आदमी थे। गुजराँवाला तक पहुंचते-पहुंचते दस आदमी रह गए। पहले रुपया गया, फिर ज़ेवर, फिर औरतों के जिस्म। लाहौर आते आते छः आदमी रह गए। कपड़ों के ट्रंक गए और बिस्तर भी। और लड़के को अपनी बाई-स्किल के छिन जाने का बड़ा अफ़सोस था। और जब मुग़लपुरा से आगे बढ़े तो सिर्फ़ दो रह गए। माँ और एक बेटा और एक लिहाफ़ जो दम तोड़ती हुई औरत लरज़े के बुख़ार में इस वक़्त ओढ़े हुए थी। इस वक़्त आधी रात के वक़्त, आज़ादी की पहली रात को वो औरत मर रही थी और उसका बेटा चुप-चाप, उस के सिरहाने बैठा हुआ बुख़ार से काँप रहा था और उसकी किट-किटी बंधी हुई थी और आँसू एक मुद्दत हुई ख़त्म हो चुके थे। और जब उस की माँ मर गई तो उसने आहिस्ता से लिहाफ़ को उसके जिस्म से अलग किया और उसे ओढ़ कर कैंप के दूसरे कोने में चला गया। थोड़ी देर के बाद एक रज़ाकार उस के पास आया और उससे कहने लगा, “वो, उधर... तुम्हारी माँ थी, जो मर गई है?”
“नहीं-नहीं मुझे कुछ मालूम नहीं। वो कौन थी।”
लड़के ने ख़ौफ़ज़दा हो कर कहा। और ज़ोर से लिहाफ़ को अपने गर्द लपेटते हुए बोला। “वो मेरी माँ नहीं थी। ये लिहाफ़ मेरा है। ये लिहाफ़ मेरा है। मैं ये लिहाफ़ नहीं दूँगा। ये लिहाफ़ मेरा है।” वो ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगा। “वो मेरी माँ नहीं थी। ये लिहाफ़ मेरा है। मैं उसे किसी को ना दूँगा। ये लिहाफ़ मैं साथ लाया हूँ, नहीं दूँगा, नहीं...” एक लिहाफ़, एक माँ, एक मुर्दा इन्सानियत, किसे मालूम था कि एक दिन इस नई तस्लीस की कहानी भी मुझे आपको सुनानी पड़ेगी।
जब मुस्लमान भागे तो उनके घर लुटने शुरू हो गए। शायद ही कोई शरीफ़ आदमी रहा हो जिसने इस लूट में हिस्सा ना लिया हो। आज़ादी के तीसरे दिन की बात है में अपनी गाय को गली के बाहर नल पर पानी पिलाने ले जा रहा था। बाल्टी मेरे हाथ में थी। दूसरे हाथ में गाय के गले से बंधी हुई रस्सी थी। गली के मोड़ पर पहुंच कर मैंने म्यूंसिपल्टी के लैंप वाले खम्बे से गाय को बांध दिया और नल की जानिब बाल्टी लिए मुड़ गया कि बाल्टी में पानी भर लाऊँ। थोड़ी देर के बाद जब बाल्टी भर के लाया तो क्या देखता हूँ कि गाय ग़ायब है। इधर-उधर बहुतेरा देखा लेकिन गाय कहीं नज़र ना आई। यकायक मेरी निगाह साथ वाले मकान के आँगन में गई, देखता हूँ, तो गाय आँगन में बंधी खड़ी है। मैं घर में घुसा।
“क्या है भई, कौन हो तुम?” एक सरदार साहिब ने निहायत ख़ुशवंत से कहा।
मैंने कहा, “मैं अभी अपनी गाय को उससे बांध कर्नल पर पानी लाने गया था। ये गाय तो मेरी है सरदार जी।”
सरदार जी मुस्कुराए, “कोई गल नहीं। मैंने समझा किसी मुस्लमान की गाय है। ये आपकी गाय है तो फिर ले जाईए।” इतना कह कर उन्होंने गाय की रस्सी खोल कर मेरे हाथ में थमा दी।
“माफ़ करना” मेरे चलते चलते उन्होंने फिर कहा, “आपां समझिया किसी मुस्लमान दी गाय है।”
मैंने ये वाक़िया अपने दोस्त सरदार सुंदर सिंह से बयान किया तो वो बहुत हंसा। “भला इसमें हंसने की क्या बात है” मैंने उससे पूछा तो वो और भी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। सुंदर सिंह, मैं आपको बता दूँ इश्तिराकी है, इसलिए फ़िर्का-वाराना इनाद से बहुत दूर रहता है। वो मेरे उन चंद अहबाब में से है जिन्होंने इस लूट मार में बिलकुल कोई हिस्सा नहीं लिया। मैंने कहा, “तुम उसे अच्छा समझते हो?” वो बोला। “नहीं ये बात नहीं है। मैं हंस रहा था क्योंकि आज सुबह एक ऐसा ही वाक़िया ख़ुद मुझे पेश आया। मैं हाल बाज़ार में से गुज़र रहा था कि मैंने सोचा सामने कटरे में से सरदार सवेरा सिंह जी को देखता चलूँ। पुराने ग़दर पार्टी के लीडर हैं ना वो। उन्होंने अपने गांव में तीन चार-सौ मुस्लमानों को पनाह दे रखी है। सोचा पूछता चलूँ, उनका क्या हुआ। उन्हें वहां से निकाल कर मुहाजिरीन के कैंप में ले जाने की क्या सबील की जाये। ये सोच कर मैंने अपनी गाड़ी मुहम्मद रज़्ज़ाक़ जूते वाले की दुकान (जो अब लुट चुकी है) के आगे खड़ी की और कटरे में घुस गया। चंद मिनट के बाद ही लौट कर आ गया। क्योंकि बाबा-जी घर पर मिले नहीं। आ के देखता हूँ तो गाड़ी ग़ायब है। अभी तो यहीं छोड़ी थी। पूछने पर भी किसी ने नहीं बताया। इतने में मेरी नज़र हाल बाज़ार के आख़िरी कोने पर पड़ी। वहां मेरी गाड़ी खड़ी थी लेकिन एक जीप के पीछे बंधी हुई। मैं भागा-भागा वहाँ गया। जीप में सरदार सिंह मशहूर क़ौमी कारकुन बैठे हुए थे। मैंने पूछा, कहाँ जा रहे हो?”
“अपने गांव जा रहा हूँ।”
“और ये मेरी मोटर भी क्या तुम्हारे गांव जाएगी?”
“कौन सी मोटर?”
“वो जो पीछे बंधी हुई है?”
“ये तुम्हारी मोटर है? माफ़ करना प्यारे, मैंने पहचानी नहीं। वो मुहम्मद रज़्ज़ाक़ की दुकान के सामने खड़ी थी ना। मैंने सोचा किसी मुस्लमान की होगी। मैंने जीप के पीछे बांध लिया। हा हा हा। मैं तो उसे अपने घर ले जा रहा था। अच्छा हुआ कि तुम वक़्त पर आ गए।”
“और अब कहाँ जाओगे?” मैंने अपनी मोटर खोल कर उसमें बैठते हुए कहा।
“अब? अब कहीं और जाऊँगा। कहीं ना कहीं से कोई माल मिल ही जाएगा।” सरदार सिंह क़ौमी कारकुन हैं। जेल जा चुके हैं। जुर्माने अदा कर चुके हैं। सयासी आज़ादी के हुसूल के लिए क़ुर्बानियाँ दे चुके हैं। ये वाक़िया सुना कर सुंदर सिंह ने कहा। बदमाशी-ओ-बर्बादी इस हद तक फैल गई है कि हमारे अच्छे अच्छे क़ौमी कारकुन भी इससे महफ़ूज़ नहीं रहे। हमारी सयासी जमातों में काम करने वाले तबक़े का एक जुज़ ख़ुद इस लूट मार क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी में शरीक है। इसे रोको अगर इसी वक़्त रोका ना गया तो दोनों जमातें फ़सताई हो जाएँगी। यही कोई दो-चार साल ही हैं।”
सुंदर सिंह का चेहरा मुतफ़क्किर दिखाई दे रहा था। मैं वहां से उठकर चला आया। रास्ते में ख़ालसा कॉलेज रोड पर एक मुस्लमान अमीर की कोठी लूटी जा रही थी। अस्बाब के लदे हुए छकड़े मुख़्तलिफ़ गिरोह ले जा रहे थे। मेरे देखते देखते चंद मिनटों में सब मुआमला ख़त्म हो गया। सड़क पर चलने वाले हिंदू और सिक्ख राहगीर भी कोठी की तरफ़ भागे लेकिन पुलिस के सिपाहीयों को वहां से निकलते देखकर ठिठक गए। पुलिस के सिपाहीयों के हाथों में चंद जुराबें थीं और रेशमी टाईयाँ। एक कोट हैंगर पर मफ़लर पड़ा हुआ था। उन्होंने मुस्कुरा कर लोगों से कहा, “अब कहाँ जाते हो। वहां तो सब कुछ पहले ही ख़त्म हो चुका।”
एक महाशय जो शक्ल-ओ-सूरत से आर्या समाजी मालूम होते थे और मेरे सामने ही कोठी की तरफ़ भागे थे, अब मुड़ कर मेरी तरफ़ देखकर कहने लगे। “देखिए साहिब। दुनिया कैसी पागल हो गई है।”
मेरे क़रीब से एक दूध बेचने वाला भइया गुज़रा। बेचारे के हिस्से में चंद किताबें आई थीं वो उन्हें लिए जा रहा था। मैंने पूछा, “इन किताबों का क्या करोगे। पढ़ सकते हो?”
“ना बाबू जी।”
“फिर?”
उसने किताबों की तरफ़ ग़ुस्से से देखा। बोला, “हम क्या करें बाबू। जिधर जाते हैं लोग पहले ही अच्छा-अच्छा सामान उठा ले जाते हैं। हमारी तो क़िस्मत ख़राब है बाबू।”
उसने फिर किताबों को ग़ुस्से से देखा, उसका इरादा था। उन्हें यहीं सड़क पर फेंक दे। फिर उसका इरादा बदल गया। वो मुस्कुरा कर कहने लगा, “कोई बात नहीं। ये मोटी मोटी किताबें चूल्हे में ख़ूब जलेंगी। रात के भोजन के लिए लकड़ियों की ज़रूरत नहीं!” बड़ी अच्छी किताबें थीं। सब चूल्हे में गईं। अरस्तू, सुक़रात, अफ़लातून, रूसो, शेक्सपियर, सब चूल्हे में गए।
सहि पहर के क़रीब बाज़ार सुनसान पड़ने लगे। कर्फ़्यू होने वाला था। मैं जल्दी जल्दी कूचा राम दास से निकला और मुक़द्दस गुरू द्वारे को तस्लीम देता हुआ अपने घर की जानिब बढ़ गया। रास्ते में अँधेरी गली पड़ती है। जहां जलियाँ वाले बाग़ के रोज़ लोगों को घुटनों के बल चलने पर मजबूर कर दिया गया था। मैंने सोचा मैं इस गली से क्यों ना निकल जाऊँ। ये रास्ता ठीक रहेगा। मैं उसी गली की तरफ़ घूम गया। ये गली तंग है और यहाँ दिन को भी अंधेरा सा रहता है। यहाँ मुस्लमानों के आठ दस घर थे वो सब जलाए गए थे या लूटे गए थे। दरवाज़े खुले थे, खिड़कियाँ टूटी हुईं, कहीं-कहीं छतें जली हुई, गली में सन्नाटा था, गली के फ़र्श पर औरतों की लाशें पड़ी थीं। मैं पलटने लगा, इतने में किसी के कराहने की आवाज़ आई, गली के बीच में लाशों के दरमयान एक बुढ़िया रेंगने की कोशिश कर रही थी। मैंने उसे सहारा दिया।
“पानी। बेटा” मैं ओक में पानी लाया। मुक़द्दस गुरू द्वारे के सामने पानी का नल था। मैंने अपनी ओक उस के होंटों से लगा दी।
“तुम पर ख़ुदा की रहमत हो बेटा तुम कौन हो? ख़ैर तुम जो कोई भी हो तुम पर ख़ुदा की रहमत हो बेटा। ये एक मरने वाली के अल्फ़ाज़ हैं, इन्हें याद रखना।”
मैंने उसे उठाने की कोशिश करते हुए कहा, “तुम्हें कहा चोट आई है माँ?”
बुढ़िया ने कहा, “मुझे मत उठाओ। मैं यहीं मरूँगी। अपनी बहू बेटियों के दर्मियान। क्या कहा तुमने, चोट। अरे बेटा ये चोट बहुत गहरी है। ये घाव दिल के अंदर ही बहुत गहरा घाव है। तुम लोग इससे कैसे पनप सकोगे? तुम्हें ख़ुदा कैसे माफ़ करेगा?”
“हमें माफ़ कर दो माँ”
मगर बुढ़िया ने कुछ नहीं सुना। वो आप ही आप कहती जा रही थी, “पहले उन्होंने हमारे मर्दों को मारा। फिरे हमारे घर लूटे। फिर हमें घसीट कर गली में ले आए, और इस गली में इस फ़र्श पर। इस मुक़द्दस गुरू द्वारे के सामने जिसमें हर-रोज़ तालीम दी जाती थी उन्होंने हमारी इस्मत-दरी की और फिर हमें गोली से मार दिया। मैं तो उनकी दादियों के हम-उम्र थी, उन्होंने मुझे भी माफ़ नहीं किया।”
यकायक उसने मुझे आसतीन से पकड़ लिया, “तू जानता है ये अमृतसर का शहर है। ये मेरा शहर है। इस मुक़द्दस गुरू द्वारे को मैं रोज़ सलाम करती थी। जैसे अपनी मस्जिद को रोज़ सलाम करती हूँ, मेरी गली में हिंदू, मुस्लमान, सिक्ख भी बस्ते हैं और कई पुश्तों से हम लोग यहां बस्ते चले आए हैं और हम हमेशा-हमेशा मुहब्बत से और प्यार से और सुलह से रहे और कभी कुछ नहीं हुआ।”
“मेरे हम मज़हबों को माफ़ करो अम्माँ”
“तू जानता है मैं कौन हूँ? मैं ज़ैनब की माँ हूँ, तू जानता है ज़ैनब कौन थी? ज़ैनब वो लड़की थी जिसने जलियाँवाले रोज़ इस गली में गोरे के आगे सर नहीं झुकाया। जो अपने मलिक और अपनी क़ौम के लिए सर ऊँचा किए इस गली में से गुज़र गई। यही वो गली है। यही वो जगह है जहां ज़ैनब शहीद हुई थी। मैं उसी ज़ैनब की माँ हूँ। मैं ऐसी आसानी से तुम्हारा पीछा छोड़ने वाली नहीं हूँ। मुझे सहारा दो। मुझे खड़ा कर दो, में अपनी लुटी हुई आबरू और अपनी बहू बेटियों की बर्बाद अस्मतें लेकर सियासतदानों के पास जाऊँगी। मुझे सहारा दो। मैं उनसे कहूँगी में ज़ैनब की माँ हूँ। मैं अमृतसर की माँ हूँ, मैं पंजाब की माँ हूँ, तुमने मेरी गोद उजाड़ी है। तुमने बुढ़ापे में मेरा मुँह काला किया है। मेरी जवान-जवान बहुओं और बेटीयों की पाक-ओ-साफ़ रूहों को जहन्नुम की आग में झोंका है। मैं उनसे पूछूँगी कि क्या ज़ैनब इसी आज़ादी के लिए क़ुर्बान हुई थी? मैं ज़ैनब की माँ हूँ!”
यकायक वो मेरी गोद में झुक गई। उसके मुँह से ख़ून उबल पड़ा। दूसरे ही लम्हे में उसने जान दे दी।
ज़ैनब की माँ मेरी गोद में मरी पड़ी थी और उसका लहू मेरी क़मीज़ पर है और मैं ज़िंदगी से मौत के दरवाज़े पर झांक रहा हूँ और तख़य्युल में सिद्दीक़ और ओम प्रकाश उभरे चले आते हैं और ज़ैनब का ग़रूर का सर फ़िज़ा में उभरता चला आता है और शहीद मुझसे कहते हैं कि हम फिर आएँगे, सिद्दीक़, ओम प्रकाश हम फिर आएँगे। शाम कौर, ज़ैनब, पारो बेगम हम फिर आएँगे। अपनी इस्मतों का तक़द्दुस लिए हुए। अपनी बेदाग़ रूहों का अज़्म लिए हुए क्योंकि हम इन्सान हैं। हम इस सारी कायनात में तख़लीक़ के अलम-बरदार हैं और कोई तख़लीक़ को मार नहीं सकता। कोई उस की इस्मतदरी नहीं कर सकता। कोई उसे लूट नहीं सकता क्योंकि हम तख़लीक़ हैं और तुम तख़रीब हो। तुम वहशी हो, तुम दरिंदे हो, तुम मर जाओगे लेकिन हम नहीं मरेंगे क्योंकि इन्सान कभी नहीं मरता, वो दरिन्दा नहीं है। वो नेकी की रूह है, ख़ुदाई का हासिल है। कायनात का ग़ुरूर है।