अमृतसर आज़ादी से पहले / कृश्न चन्दर
1
जलियांवाला बाग़ मैं हज़ारों का मजमा था। इस मजमा में हिंदू थे, सिख भी थे और मुस्लमान भी। हिंदू मुस्लमानों से और मुस्लमान सिखों से अलग साफ़ पहचाने जाते थे। सूरतों अलग थीं, मिज़ाज अलग थे, तहज़ीबें अलग थीं। मज़हब अलग थे लेकिन आज ये सब लोग जलियांवाला बाग़ में एक ही दिल ले के आए थे। इस दिल में एक ही जज़बा था और इस जज़बे की तेज़ और तुंद आँच ने मुख़्तलिफ़ तमद्दुन और समाज एक कर दिए थे। दिलों में इन्क़िलाब की एक ऐसी पैहम रो थी कि जिसने आस-पास के माहौल को भी बुर्का दिया था। ऐसा मालूम होता था कि इस शहर के बाज़ारों का हर पत्थर और इस के मकानों की लहर एक ईंट इस ख़ामोश जज़बे की गूंज से आश्ना है और इस लरज़ती हुई धड़कन से नग़मारेज़ है। जो हर लम्हे के साथ गोया कहती जाती हो। आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी.... जलियांवाला बाग़ मैं हज़ारों का मजमा था और सभी नहत्ते थे और सभी आज़ादी के प्रुस्तार थे। हाथों में लाठ्गि थीं ना रीवोलवर ना ब्रेन गुण ना असटीन गुण। हिंड ग्रेनेड ना थे। देसी या वलाएती साख़त के बिंब भी ना थे मगर पास कुछ ना होते हुए भी निगाहों की गर्मी किसी भूचाल के क़यामत-ख़ेज़ लावे की हिद्दत का पता देती थी। सामराजी फ़ौजों के पास लोहे के हथियार थे। यहां दिल फ़ौलाद के बन के रह गए थे और रूहों में ऐसी पाकीज़गी सी आ गई थी जो सिर्फ आला द अर्फ़ा क़ुर्बानी से हासिल होती है। पंजाब के पांचों दरियाओं का पानी और उनके रूमान और उनका सच्चा इशक़ और उनकी तारीख़ी बहादुरी आज हर फ़र्द बशर बच्चे बूढ़े के टिमटिमाते हुए रुख़्सारों में थी, एक ऐसा उजला उजला ग़रूर जो उसी वक़्त हासिल होता है जब क़ौम जवान हो जाती है और सोया हुआ टुक बेदार हो जाता है। जिन्हों ने अमृतसर के ये तेवर देखे हैं। वो इन गुरूओं के इस मुक़द्दस शर को कभी नहीं भुला सकते। जलियांवाला बाग़ मैं हज़ारों का मजमा था और गोली भी हज़ारों पर चली। तीनों तरफ़ रास्ता बंद था और चौथी तरफ़ एक छोटा सा दरवाज़ा था। ये दरवाज़ा जो ज़िंदगी से मौत को जाता था। हज़ारों ने ख़ुशी ख़ुशी जाम-ए-शहादत पिया, आज़ादी की ख़ातिर, हिंदू मुस्लमानों और सिखों ने मिलकर अपने सीनों के खज़ाने लुटा दीए और पांचों दरियाओं की सरज़मीन में एक छुटे दरिया का इज़ाफ़ा किया था। ये उनके मिले जले ख़ून का दरिया था ये उनके लहू की तूफ़ानी नदी थी जो अपनी उमँडती हुई लहरों को लिए हुए उठी और समाजी कुव्वतों को ख़स-ओ-ख़ाशाक की तरह बहा ले गई, पंजाब ने सारे मलिक के लिए अपने ख़ून की क़ुर्बानी दी थी और इस वसीअ आसमान तले किसी ने आज तक मुख़्तलिफ़ तहज़ीबों, मुख़्तलिफ़ मज़हबों और मुख़्तलिफ़ मिज़ाजों को एक ही जज़बे की ख़ातिर यूं मुदग़म होते ना देखा था। जज़बा शहीदों के ख़ून से उस्तिवार हो गया था। इस में रंग आ गया था। हुस्न, रानाई और तख़लीक़ की चमक से जगमगा उठा.. आज़ादी.. आज़ादी..आज़ादी।
2
सिद्दीक़ कटरा फ़त्ह ख़ां में रहता था। कटरा फ़त्ह ख़ां में ओम प्रकाश भी रहता था जो अमृतसर के एक मशहूर बयोपोरी का बेटा था। सिद्दीक़ उसे और अदम प्रकाश सिद्दीक़ को बचन से जानता था। वो दोनों दोस्त ना थे क्योंकि सिद्दीक़ का बाप कच्चा चमड़ा बेचता था और ग़रीब था और ओम प्रकाश का बाप बैंकर था और अमीर था लेकिन दोनों एक दूसरे को जानते थे। दोनों हम-साए थे और आज जलियांवाला बाग़ में दोनों इकट्ठे हो कर एक ही जगह पर अपने रहनुमाओं के ख़्यालात और उनके तास्सुरात को अपने दिल में जगह दे रहे थे। कभी कभी वो यूं एक दूसरे की तरफ़ देख लेते और यूं मुस्कुरा उठते जैसे वो सदा से बचन के साथी हैं और एक दूसरे का भेद जानते हैं। दिल की बात निगाहों में निथर आई थी.. आज़ादी.. आज़ादी..आज़ादी।
और जब गोली चली तो पहले ओम प्रकाश को लगी कंधे के पास और वो ज़मीन पर गिर गया। सिद्दीक़ उसे देखने के लिए झुका तो गोली उस की टांग को छेदती हुई पार हो गई। फिर दूसरी गोली आई। फिर तीसरी। फिर जैसे बारिश होती है। बस इसी तरह गोलीयां बरसने लगीं और ख़ून बहने लगा और सिखों का ख़ून मुस्लमानों में और मुस्लमानों का ख़ून हिंदूओं में मुदग़म होता गया। एक ही गोली थी, एक ही क़ुव्वत थी, एक ही निगाह थी जो सब दलों को छेदती चली जा रही थी।
सिद्दीक़ ओम प्रकाश पर और भी झुक गया। उसने अपने जिस्म को ओम प्रकाश के लिए ढाल बना लिया और फिर वो ओम प्रकाश दोनों गोलीयों की बारिश में घुटनों के बल घिसटते घिसटते इस दीवार के पास पहुंचा तो इतनी ऊंची ना थी कि उसे कोई फलाँग ना सकता लेकिन इतनी ऊंची ज़रूर थी कि उसे फलांगते हुए किसी सिपाही की गोली का ख़तरनाक निशाना बनना ज़्यादा मुश्किल ना था। सिद्दीक़ ने अपने आपको दीवार के साथ लगा दिया और जानवर की तरह चारों पंजे ज़मीन पर टेक कर कहा।
लू प्रकाश जी ख़ुदा काम नाम ले के दीवार फलाँग जाओ। गोलीयां बरस रही थीं। प्रकाश ने बड़ी मुश्किल से सिद्दीक़ की पीठ का सहारा लिया और फिर ऊंचा हो कर उसने दीवार को फलांगने की कोशिश की। एक गोली सनसनाती हुई आई।
जल्दी करो सिद्दीक़ ने नीचे से कहा।
लेकिन इस से पहले प्रकाश नीचे जा चुका था। सिद्दीक़ ने इसी तरह अकड़ूं रह कर इधर उधर देखा और फिर यकलख़त सीधे हो कर जो एक जस्त लगाई तो दीवार के दूसरी तरफ़ लेकिन दूसरी जाते-जाते सनसनाती हुई गोली उस की दूसरी टांग के पार हो गई।
सिद्दीक़ प्रकाश के ऊपर जा गिरा फिर जल्दी से अलग हो कर उसे उठाने लगा।
तुम्हें ज़्यादा चोट तो नहीं आई प्रकाश।
लेकिन प्रकाश मरा पड़ा था। इस के हाथ में हीरे की अँगूठी भी ज़िंदा थी। इस की जेब में दो हज़ार के नोट कुलबुला रहे थे। इस का गर्म ख़ून अभी तक ज़मीन को सेराब किए जा रहा था। हरकत थी, ज़िंदगी थी, इज़तिराब था, लेकिन वो ख़ुद मर चुका था।
सिद्दीक़ ने उसे उठाया और उसे घर ले चला, उस की दोनों टांगों में दर्द शिद्दत का था। लहू बह रहा था। हीरे की अँगूठी ने बहुत कुछ कहा सुना, लोगों ने बहुत कुछ समझाया। वो तहज़ीब जो मुख़्तलिफ़ थी। वो मज़हब जो अलग था, वो सोच जो बेगाना था। उसने तंज़-ओ-तशनीअ से भी काम लिया लेकिन सिद्दीक़ ने किसी ना सुनी और अपने बटहते हुए लहू और अपनी निकलती हुई ज़िंदगी की फ़र्याद भी ना सुनी और अपने रास्ते पर चलता गया। ये रास्ता बिलकुल नया था गो कटरा फ़त्ह ख़ां ही को जाता था। आज फ़रिश्ते उस के हमराह थे गो वो एक काफ़िर को अपने कंधे पर उठाए हुए था।
आज उस की रूह इस क़दर अमीर थी कि कटरा फ़त्ह ख़ां पहुंच क्रास ने सबसे कहा ये लो हीरे की अँगूठी और ये लो दो हज़ार रुपय के नोट और ये है शहीद की लाश। इतना कह कर सिद्दीक़ भी वहीं गिर गया और शहर-वालों ने दोनों का जनाज़ा उस धूम से उठाया गोया वो सगे भाई थे।
3
अभी कर्फ़यू ना हुआ था। कूचा राम दास की दो मुस्लमान औरतें, एक सुख औरत और एक हिंदू औरत सब्ज़ी ख़रीदने आएं। वो मुक़द्दस गुरू द्वारे के सामने से गुज़रीं हर एक ने ताज़ीम दी और फिर मुँह फेर कर सब्ज़ी ख़रीदने में मसरूफ़ हो गईं। उन्हें बहुत जल्द लौटना था। कर्फ़यू होने वाला था और फ़िज़ा में शहीदों के ख़ून की गूंज रही थी फिर भी बातें करते और सौदा ख़रीदते उन्हें देर हो गई और जब वापिस चलने लगें तो कर्फ़यू में चंद मिनट ही बाक़ी थे।
बेगम ने कहा आओ इस गली से निकल चलें। वक़्त से पहुंच जाऐंगे।
पारो ने कहा पर वहां तो पहरा है गोरों का। शाम कौर बोली और गोरों का कोई भरोसा नहीं।
ज़ैनब ने कहा वो औरतों को कुछ ना कहेंगे हम घूँघट काढ़े निकल जाएँगी जल्दी से चलो।
वो पांचों दूसरी गली से हो लें फ़ौजीयों ने कहा इस झंडे को सलाम करो ये यूनीयन जैक है। औरतों ने घबरा कर और बौखला कर सलाम किया। अब यहां से वहां तक। फ़ौजी ने गली की लंबाई बताते हुए कहा, घुटनों के बल चलती हुई यहां से फ़ील-फ़ौर निकल जाओ।
घुटनों के बल । ये तो हमसे ना होगा ज़ैनब ने चमक कर कहा। और झुक कर चलो.. सरकार का हुक्म है घुटनों के बल घिसट कर चलो।
हम तो यूं जाऐंगे। शाम कौर ने तन कर कहा, देखें कौन रोकता है। हमें ये कह कर वो चली।
ठहरो, ठहरो पारो ने डर कर कहा। ठहरो, ठहरो
गोरे ने कहा हम गोली मारेगा।
शाम कौर सीधी जा रही थी। ठाएं, शाम कौर गिर गई। ज़ैनब और बेगम ने एक दूसरी की तरफ़ देखा और फिर वो दोनों घुटनों के बल गिर गईं। गोरा ख़ुश हो गया उसने समझा कि सरकार का हुक्म बजा ला रही हैं। ज़ैनब और बेगम ने घुटनों के बल गिर कर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाए और चंद लम्हों के सुकूत के बाद वो दोनों सीधी खड़ी हो गईं और गली को पार करने लगीं। गोरा भौंचक्का रह गया। फिर ग़ुस्से से इस के गाल तमतमा उठे और उसने राइफ़ल सीधी की। ठाएं, ठाएं।
पारो रोने लगी। अब मुझे भी मरना होगा। ये क्या मुसीबत है। मेरे पति देव। मेरे बचोगे, मेरी माँ जी, मेरे पिता, मेरे वीरू, मुझे शुमा करना, आज मुझे भी मरना होगा, मैं मरना नहीं चाहती, फिर मुझे भी मरना होगा, में अपनी बहनों का साथ नहीं छोड़ूँगी। पारो रोते-रोते आगे बढ़ी।
गोरे ने नरमी से उसे समझाया रोने की ज़रूरत नहीं, सरकार का हुक्म मानो और इस गली में यूं घुटनों के बल गिर कर चलती जाओ, फिर तुम्हें कोई कुछ ना कहेगा। गोरे ने ख़ुद घुटने पर गिर कर उसे चलने का अंदाज़ समझाया।
पारो रोते-रोते गोरे के क़रीब आई। गोरा अब सीधा तन कर खड़ा था। पारो ने ज़ोर से इस के मुँह पर थूक दिया और फिर पलट कर गली को पार करने लगी। वो गली के बेचों बीच सीधी तन कर चली जा रही थी और गोरा उस की तरफ़ हैरत से देख रहा था। चंद लम्हों के बाद उसने अपनी बंदूक़ सीधी की और पारो जो अपनी सहेलीयों में सबसे ज़्यादा कमज़ोर और बुज़दिल थी। सबसे आगे जा कर मर गई।
पारो, ज़ैनब, बेगम और शाम कौर। घर की औरतें, पर्देदार ख़वातीन, इफ़्फ़त मआब बी बयाँ, अपने सीनों में अपने ख़ावंद का प्यार और अपने बच्चों की ममता का दूध लिए ज़ुलम की अँधेरी गली से गुज़र गईं। इस के जिस्म गोलीयों से छलनी हो गए, लेकिन उनके क़दम नहीं डगमगाए। इस वक़्त किसी की मुहब्बत ने पुकारा होगा। किसी के नन्हे बाज़ुओं का बुलावा आया होगा किसी की सुहानी मुस्कुराहट दिखाई दी होगी लेकिन उनकी रूहों ने कहा नहीं, आज तुम्हें झुकना नहीं है। आज सदियों के बाद वो लम्हा आया है जब सारा हिन्दोस्तान जाग उठा है और सीधा तन कर इस गली से गुज़र रहता है, सर उठाए आगे बढ़ रहा है, सर उठाए आगे बढ़ रहा है। ज़ैनब.. बेगम.. पारो.. शाम कौर..
किस ने कहा इस मुल्क से सीता मर गई? किस ने कहा अब इस देस में सती सावित्री पैदा नहीं होती?.. आज इस गली का हर ज़र्रा किसी के कुद्दूसी लहू से रोशन है। शाम कौर, ज़ैनब, पारो, बेगम, आज तुम ख़ुद इस गली से सर ऊंचा कर के नहीं गुज़री हो, आज तुम्हारा देस फ़ख़र से सर उठाए इस गली से गुज़र रहता है। आज आज़ादी का ऊंचा झंडा इस गली से गुज़र रहता है, आज तुम्हारे देस तुम्हारी तहज़ीब, तुम्हारे मज़हब की काबिल-ए-एहतिराम रिवायतें ज़िंदा हो गईं, आज इन्सानियत का सर ग़रूर से बुलंद है। तुम्हारी रूहों पर हज़ारों, लाखों सलाम..
अमृतसर आज़ादी के बाद पंद्रह अगस्त 1947 को हिन्दोस्तान आज़ाद हुआ। पाकिस्तान आज़ाद हुआ। पंद्रह अगस्त 1947-ए-को हिन्दोस्तान भर में जशन-ए-आज़ादी मनाया जा रहा था और कराची में आज़ाद पाकिस्तान के फ़र्हत नाक नारे बुलंद हो रहे थे। पंद्रह अगस्त 1947-ए-को लाहौर जल रहा था और अमृतसर में हिंदू मुस्लिम सुख अवाम फ़िर्कावाराना फ़साद की होलनाक लपेट में आ चुके थे क्योंकि किसी ने पंजाब के अवाम से नहीं पूछा था कि तुम अलग रहना चाहते हो या मिल-जुल के जैसा तुम सदियों से रहते चले आए हो। सदीयों पहले मुतलक़ अलानानी का दौर दौरा था और किसी ने अवाम से कभी ना पूछा था फिर अंग्रेज़ों ने अपने सामराज की बुनियाद डाली और उन्होंने पंजाब से सिपाही और घोड़े अपनी फ़ौज में भर्ती किए और इस के इव्ज़ पंजाब को नहरें, पैंशनें अता फ़रमाएं लेकिन उन्होंने भी पंजाबी अवाम से ये सब कुछ पूछ के थोड़ी किया था।
इस के बाद सयासी शऊर आया और सयासी शऊर के साथ जमहूरीयत आई और जमहूरीयत के साथ जमहूरी सियास्तदान आए और सयासी जमातें आएं लेकिन फ़ैसला करते वक़्त उन्होंने पंजाबी अवाम से कुछ ना पूछा एक नक़्शा सामने रखकर पंजाब की सरज़मीन के नोक-ए-क़लम से दो टुकड़े कर दीए। फ़ैसला करने वाले सियास्तदान गुजराती थे, कश्मीरी थे, इस लिए पंजाब के नक़्शे को सामने रखकर इस पर क़लम से एक लकीर, एक हद फ़ाज़िल क़ायम कर देना उनके लिए ज़्यादा मुश्किल ना था। नक़्शा एक निहायत ही मामूली सी चीज़ है। आठ आने रुपय में पंजाब का नक़्शा मिलता है। इस पर लकीर खींच देना भी आसान है। एक काग़ज़ का टुकड़ा, एक रोशनाई की लकीर, वो कैसे पंजाब के दुख को समझ सकते थे। इस लकीर की माहीयत को जो इस नक़्शे को नहीं पंजाब की दिल को चीरती हुई चली जा रही थी।
पंजाब के तीन मज़हब थे, लेकिन इस का दिल एक था। लिबास एक था, उस की ज़बान एक थी, उस के गीत एक थे। इस की खेत एक थे, उस के खेतों की रूमानी फ़िज़ा और इस के किसानों के पंचायती वलवले एक थे। पंजाब में वो सब बातें मौजूद थीं जो एक तहज़ीब, एक देस, एक क़ौमीयत के वजूद का अहाता करती हैं, फिर किस लिए उस के गले पर छुरी चलाई गई?।
नहीं मालूम ना था
हमें बड़ा अफ़सोस है
हम इस ज़ुलम की मुज़म्मत करते हैं ।
ज़ुलम और नफ़रत और मज़हबी जुनून का भड़काने वाले, पंजाब की वहदत को मिटा देने वाले आज मगरमच्छ के आँसू बहा रहे हैं और आज पंजाब के बेटे दिल्ली की गलीयों में और कराची के बाज़ारों में भीक मांग रहे हैं और उनकी औरतों की इस्मत लुट चुकी हो और उनके खेत वीरान पड़े हैं। कहा जाता है कि हिन्दोस्तान और पाकिस्तान की हुकूमतों ने आज तक पंजाबी पनाह गज़ीनों के लिए बीस करोड़ रुपय सर्फ़ किए हैं यानी फी कस बेस रुपय बड़ा एहसान किया है। हमारी सात पुश्तों पर। अरे हम तो महीने में बीस रुपय की लस्सी पी जाते हैं और आज तुम उन लोगों को ख़ैरात देने चले हो जो कल तक हिन्दोस्तान के किसानों में सबसे ज़्यादा ख़ुश-हाल थे। जमहूरीयत के पर सितारो ज़रा पंजाब के किसानों से, इस के तालिब-ए-इल्मों से, इस के खेत मज़दूरों से, इस के दुकानदारों से, इस की माओं, बेटों और बहुओं ही से पूछ तो लिया होता कि इस नक़्शे पर जो काली लकीर लग रही है इस के मुताल्लिक़ तुम्हारा क्या ख़्याल है? मगर वहां फ़िक्र किस को होती किसी का अपना देस होता, किसी का अपना वतन होता, किसी की अपनी ज़बान होती, किसी के अपने गीत होते तो वो समझ सकता कि ये ग़लती किया है और इस का ख़मयाज़ा किसे भुगतना पड़ेगा
ये दुख वही समझ सकता है जो हीर को राँझे से जुदा होते हुए देखे। जो सोहनी को महीनवाल के फ़िराक़ में तड़पता देखे जिसने पंजाब के खेतों में अपने हाथों से गेहूँ की सबज़ बालियां उगाई हूँ और इस के कपास के फूलों के नन्हे चाँदों को चमकता हुआ देखा हो, ये सियासत दां क्या समझ सकते इस दुख को जमहूरीयत के सियासत दां थे ना। ख़ैर ये रोना मरना रहता है इन्सान को इन्सान होने में बहुत देर है और फिर एक हीचमदां अफ़्साना निगार को इन बातों से किया उसे ज़िंदगी से। सियासत से। इलम-ओ-फ़न से। साईंस से तारीख़ो फ़लसफ़े से किया लगाओ। उसे क्या ग़रज़ कि पंजाब मरता है या जीता हो। औरतों की अस्मतें बर्बाद होती हैं या महफ़ूज़ रहती हैं। बच्चों के गले पर छुरी फेरी जाती है या उन पर मेहरबान होंटों के बोसे सब्त होते हैं। उसे इन बातों से अलग हो कर कहानी सुनाना चाहिए। अपनी छोटी मोटी कहानी जो लोगों के दिलों को ख़ुश कर सके ये बड़े बोल उसे जे़ब नहीं देते।
ठीक तो कहते हैं आप, इस लिए अब अमृतसर की आज़ादी की कहानी सुनिए। इस शहर की कहानी जहां जलियांवाला बाग़ है। जहां शुमाली हिंद की सबसे बड़ी तिजारती मंडी है। जहां सिखों का सबसे बड़ा मुक़द्दस गुरुद्वारा है। जहां की क़ौमी तहरीकों में मुस्लमानों, हिंदूओं और सिखों ने एक दूसरे से बढ़ चढ़ के हिस्सा लिया। कहा जाता है कि लाहौर अगर फ़िरक़े वारी का क़िला है तो अमृतसर क़ौमीयत का मर्कज़ है। इसी क़ौमीयत के सबसे बड़े मर्कज़ की दास्तान सुनिए। 15अगस्त 1947-ए-को अमृतसर आज़ाद हुआ। पड़ोस में लाहौर जल रहा था मगर अमृतसर आज़ाद था और इस के मकानों, दुकानों बाज़ारों पर तिरंगे झंडे लहरा रहे थे, अमृतसर के क़ौम परस्त मुस्लमान इस जशन-ए-आज़ादी में सबसे आगे थे, क्योंकि वो आज़ादी की तहरीक में सबसे आगे रहे थे। ये अमृतसर अकाली तहरीक ही का अमृतसर ना था ये अहरारी तहरीक का भी अमृतसर था। ये डाक्टर सत्य पाल का अमृतसर ना था ये कुचलो और हुसाम उद्दीन का अमृतसर था, और आज अमृतसर आज़ाद था और इस की क़ौम प्रवर फ़िज़ा में आज़ाद हिन्दोस्तान के नारे गूंज रहे थे और अमृतसर के मुस्लमान और हिंदू और सुख यकजा ख़ुश थे। जलियांवाला बाग़ के शहीद ज़िंदा हो गए। शाम को जब स्टेशन पर चिराग़ां हुआ तो आज़ाद हिन्दोस्तान और आज़ाद पाकिस्तान से दो स्पैशल गाड़ियां आएं। पाकिस्तान से आने वाली गाड़ी में हिंदू और सुख थे। हिन्दोस्तान से आने वाली गाड़ी में मुस्लमान थे। तीन चार हज़ार अफ़राद उस गाड़ी में और इतने ही दूसरी गाड़ी में कल छः सात हज़ार अफ़राद। बमुशकिल दो हज़ार ज़िंदा होंगे बाक़ी लोग मरे पड़े थे और उनकी लाशें सर-बुरीदा थीं और उनके सर नेज़ों पर लगा के गाड़ीयों की खिड़कियों में सजाये गए थे, पाकिस्तान स्पैशल पर उर्दू के मोटे मोटे हुरूफ़ में लिखा था क़तल करना पाकिस्तान से सीखो हिन्दोस्तान स्पैशल में लिखा था हिन्दी में बदला लेना हिन्दोस्तान से सीखो।
इस पर हिंदूओं और सिखों को बड़ा तैश आया। ज़ालिमों ने हमारे भाईयों के साथ कितना बुरा सुलूक किया है। हाय ये हमारे हिंदू और सुख पनाह गज़ीं और वाक़ई उनकी हालत भी काबिल-ए-रहम थी। उन्हें फ़ौरन गाड़ी से निकाल कर पनाह गज़ीनों के कैंप में पहुंचाया गया और सिखों और हिंदूओं ने मुस्लमानों की गाड़ी पर धावा बोल दिया यानी अगर नहत्ते नीम मुर्दा मुहाजिरीन पर हमला को धावा कह सकते हैं तो वाक़ई ये धावा था। आधे से ज़्यादा आदमी मार डाले गए। तब कहीं जा कर मिल्ट्री ने हालात पर क़ाबू पाया।
गाड़ी में एक बढ़िया औरत बैठी थी और इस की गोद में इस का नन्हा पोता था। रास्ते में इस का बेटा मारा गया उस की बहू को जाट उठा कर ले गए थे उस के ख़ावंद को लोगों ने भालों से टुकड़े टुकड़े कर दिया था। अब वो चुप-चाप बैठी थी। इस के लबों पर आहें ना थीं उस की आँखों में आँसू ना थे। इस के दिल में दुआ ना थी। इस के ईमान में क़ुव्वत ना थी। वो पत्थर का बुत बनी चुप-चाप बैठी थी जैसे वो कुछ सन ना सकती थी कुछ देख ना सकती थी कुछ महसूस ना कर सकती थी।
बच्चे ने कहा दादी अम्मां पानी।
दादी चुप रही। बच्चा चीख़ा दादी अम्मां पानी।
दादी ने कहा बेटा पाकिस्तान आएगा तो पानी मिलेगा?
बच्चे ने कहा दादी अम्मां क्या हिन्दोस्तान में पानी नहीं है?
दादी ने कहा बेटा अब हमारे देस में पानी नहीं है।
बच्चे ने कहा क्यों नहीं है? मुझे प्यास लगी है। मैं तो पानी पियूँगा, पानी, पानी, पानी दादी अम्मां पानी पियूँगा में पानी पियूँगा।
पानी पियोगे?एक अकाली रज़ाकार वहां से गुज़र रहा था उसने ख़शमगीं निगाहों से बच्चे की तरफ़ देख के कहा। पानी पियोगे ना?
हाँ बच्चे ने सर हिलाया।
नहीं नहीं दादी ने ख़ौफ़ज़दा हो कर कहा ये कुछ नहीं कहता आपको, ये कुछ नहीं मांगता आपसे। ख़ुदा के लिए सरदार साहिब उसे छोड़ दीजिए। मेरे पास अब कुछ नहीं है।
अकाली रज़ाकार हिंसा। उसने पाएदान से रिसते हुए ख़ून को अपनी ओक में जमा किया और उसे बच्चे के क़रीब ले जा के कहने लगा: लो प्यास लगी है। तो ये पी लो बड़ा अच्छा ख़ून है मुस्लमान का ख़ून है।
दादी पीछे हट गई बच्चा रोने लगा दादी ने बच्चे को अपने पीले दुपट्टे से ढक लिया और अकाली रज़ाकार हँसता हुआ आगे चला गया।
दादी सोचने लगी कब ये गाड़ी चलेगी मेरे अल्लाह पाकिस्तान कब आएगा?
एक हिंदू पानी का गिलास लेकर आया लो पानी पिला दो उसे।
लड़के ने अपनी बाँहें आगे बढ़ाईं उस के होंट काँप रह थे उस की आँखें बाहर निकली पड़ी थीं। इस के जिस्म कारवां रवां पानी मांग रहा था।
हिंदू ने गिलास ज़रा पीछे सरका लिया। बोला इस पानी की क़ीमत है मुस्लमान बच्चे को पानी मुफ़्त नहीं मिलता। इस गिलास की क़ीमत पच्चास रुपय है।
पच्चास रुपय दादी ने आजिज़ी से कहा बेटा मेरे पास तो चांदी का एक छल्ला भी नहीं है मैं पच्चास रुपय कहाँ से दूँगी।
पानी, पानी, पानी तो पानी मुझे दो, पानी का गिलास मुझे दे दो, दादी अम्मां देखो ये हमें पानी पीने नहीं देता।
मुझे दो, मुझे दो एक दूसरे मुसाफ़िर ने कहा लो मेरे पास पच्चास रुपय हैं ।
हिंदू हंसने लगा ये पच्चास रुपय तो बच्चे के लिए थे, तुम्हारे लिए इस गिलास की क़ीमत सौ रुपय है सो रुपय दो और ये पानी का गिलास पी लू।
अच्छा, ये सौ रुपया ही ले लो ये लो। दूसरे मुस्लमान मुसाफ़िर ने सौ रुपया अदा कर के गिलास ले लिया। और उसे गट्टा गुट पीने लगा।
बच्चा उसे देखकर और भी चिल्लाने लगा पानी, पानी, पानी दादी अम्मां पानी।
एक घूँट उसे भी दे दो, ख़ुदा और रसूल के लिए। मुस्लमान काफ़िर ने गिलास ख़ाली कर के अपनी आँखें बंद कर लें, गिलास उस के हाथ से छूट कर फ़र्श पर जा गिरा और पानी की चंद बूँदें फ़र्श पर बिखर गईं। बच्चा गोद से उतर कर फ़र्श पर चला गया। पहले उसने ख़ाली गिलास को चाटने की कोशिश की, फिर फ़र्श पर गिरी चंद बूँदों को, फिर ज़ोर ज़ोर से चलाने लगा। दादी अम्मां पानी, पानी। पानी मौजूद था और पानी नहीं था। हिंदू पनाह गज़ीं पानी पी रहे थे और मुस्लमान पनाह गज़ीं प्यासे थे। पानी मौजूद था और मटकों की क़तारें स्टेशन के प्लेटफार्म पर सजी हुई थीं और पानी के नल खुले थे और भंगी आब-ए-दस्त के लिए पानी हिंदू मुसाफ़िरों को दे रहे थे। लेकिन पानी नहीं था तो मुस्लमान मुहाजिरीन के लिए क्योंकि पंजाब के नक़्शे पर एक काली मौत की लकीर खींच गई थी और कल का भाई आज दुश्मन हो गया था और कल जिसको हमने बहन कहा था आज वो हमारे लिए तवाइफ़ से भी बदतर थी और कल जो माँ थी आज बेटे ने इस को डायन समझ कर उस के गले पर छुरी फेर दी थी।
पानी हिन्दोस्तान में था और पानी पाकिस्तान में भी था। लेकिन पानी कहीं नहीं था क्योंकि आँखों का पानी मर गया था और ये दोनों मुल्क नफ़रत के सहरा बन गए थे और उनकी तप्ती हुई रेत पर चलते हुए कारवां बाद-ए-सुमूम की बर्बादियों के शिकार हो गए थे। पानी था मगर सराब था। जिस देस में लस्सी और दूध पानी की तरह बटहते थे, वहां आज पानी नहीं था और इस के बेटे प्यास से बिलक बिलक कर मर रहे थे लेकिन दल के दरिया सूख गए थे इस लिए पानी था और नहीं भी था।
फिर आज़ादी की रात आई दीवाली पर भी ऐसा चिराग़ां नहीं होता क्योंकि दीवाली पर तो सिर्फ दीए जुलते हैं। यहां घरों के घर जल रहे थे। दीवाली पर आतशबाज़ी होती है, पटाख़े फूटते हैं। यहां बिंब फ़िट रहे थे और मशीन गिनें चल रही थीं। अंग्रेज़ों के राज में एक पिस्तौल भी भूले से कहीं नहीं मिलता था और आज़ादी की रात ना जाने कहाँ से इतने सारे बिंब, हैंड ग्रेनेड मशीन गन असटीन गुण ब्रेन गुण टपक पड़े। ये असलाह जात बर्तानवी और अमरीकी कंपनीयों के बनाए हुए थे और आज आज़ादी की रात हिन्दोस्तान और पाकिस्तानीयों के दिल छेद रहे थे। लड़े जाओ बहादुरो, मरे जाओ बहादुरो, हम असलाह जात तैयार करेंगे तुम लोग लड़ोगे शाबाश बहादुरो, देखना कहीं हमारे गोला बारूद के कारख़ानों का मुनाफ़ा कम ना हो जाये। घमसान कारन रहे तो मज़ा है। चीन वाले लड़ते हैं तो हिन्दोस्तान और पाकिस्तान वाले क्यों ना लड़ें। वो भी एशियाई हैं, तुम भी एशियाई हो। एशिया की इज़्ज़त बरक़रार रखू। लड़े जाओ बहादुरो, तुमने लड़ना बंद किया तो एशिया का रुख दूसरी तरफ़ पलट जाएगा और फिर हमारे कारख़ानों के मुनाफ़ा और हिस्से और हमारी सामराजी ख़ुशहाली ख़तरे में पड़ जाएगी। लड़े जाओ बहादुरो पहले तुम हमारे मुल्कों से कपड़ा और शीशे का सामान और अतरयात मंगाते थे, अब हम तुम्हें असलाह जात भेजेंगे और बिंब और हवाई जहाज़ और कारतूस क्योंकि अब तुम आज़ाद हो गए हो। मुसल्लह हिंदू और सुख रज़ाकार मुस्लमानों के घरों को आग लगा रहे थे और जिए हिंद के नारे गूंज रहे थे। मुस्लमान अपने घरों की कमीं गाहों में छिप कर हमला आवरों पर मशीनगनों से हमला कर रहे थे और हिंड ग्रेनेड फेंकते थे।
आज़ादी की रात और इस के तीन चार रोज़ बाद तक इस तरह मुक़ाबला रहा। फिर सिखों और हिंदूओं की मदद के लिए आस-पास की रियास्तों से रज़ाकार पहुंच गए और मुस्लमानों ने अपने घर ख़ाली करने शुरू किए, घर, मुहल्ले, बाज़ार जल रहे थे। हिंदूओं के घर और मुस्लमानों के घर और सिखों के घर, लेकिन आख़िर में मुस्लमानों के घर सबसे ज़्यादा जले और आख़िर हज़ारों की तादाद में मुस्लमान इकट्ठे हो कर शहर से भागने लगे। इस मौक़ा पर जो कुछ हुआ उसे तारीख़ में अमृतसर का क़त्ल-ए-आम कहा जाएगा। लेकिन मिल्ट्री ने हालात पर जल्द क़ाबू पा लिया। क़त्ल-ए-आम बंद हुआ और हिंदू और मुस्लमान दो मुख़्तलिफ़ कैम्पों में बंद हो कर पनाह गज़ीन कहलाने लगे। हिंदू शरणार्थी कहलाते थे और मुस्लमान पनाह गज़ीन मुहाजिरीन गो मुसीबत दोनों पर एक ही थी, लेकिन उनके नाम अलग अलग कर दिए थे ताकि मुसीबत में भी ये लोग इकट्ठे ना मिलीं। दोनों कैम्पों पर ना छत थी ना रोशनी का इंतिज़ाम था ना सोने के लिए बिस्तर थे ना पाइख़ाने, लेकिन एक कैंप हिंदू और सुख शरणार्थियों का कैंप कहलाता था दूसरा मुस्लमान मुहाजिरीन का।
हिंदू शरणार्थियों के कैंप में आज़ादी की रात को शदीद बुख़ार में लरज़ती हुई एक माँ अपने बीमार बेटे के सामने दम तोड़ रही थी, ये लोग मग़रिबी पंजाब से आए पंद्रह आदमीयों का ख़ानदान था। पाकिस्तान से हिन्दोस्तान आते सिर्फ दो अफ़राद रह गए थे और अब उनमें भी एक बीमार था। दूसरा दम तोड़ रहा था। जब ये पंद्रह अफ़राद का क़ाफ़िला घर से चला था तो उनके पास बिस्तर थे। सामान ख़ुर्द-ओ-नोश था, कपड़ों से भरे हुए ट्रंक थे, रूपियों की पोटलीयां थीं और औरतों के जिस्मों पर ज़ेवर थे। लड़के के पास एक बाईसकल थी और ये सब पंद्रह आदमी थे। गुजरांवाला तक पहुंचते पहुंचते दस आदमी रह गए। पहले रुपया गया, फिर ज़ेवर, फिर औरतों के जिस्म। लाहौर आते आते छः आदमी रह गए, कपड़ों के ट्रंक गए और बिस्तर भी और लड़के को अपनी बाईसकल के छिन जाने का बड़ा अफ़सोस था। और जब मग़लपोरा से आगे बढ़े तो सिर्फ दो रह गए, माँ और एक बेटा और एक लिहाफ़ जो दम तोड़ती हुई औरत लरज़े के बुख़ार में इस वक़्त ओढ़े हुए थी। इस वक़्त आधी रात के वक़्त, आज़ादी की पहली रात को वो औरत मर रही थी और इस का बेटा चुप-चाप, उस के सिरहाने बैठा हुआ बुख़ार से काँप रहा था और इस की कट कटी बंधी हुई थी और आँसू एक मुद्दत हुई ख़त्म हो चुके थे। और जब उस की माँ मर गई तो उसने आहिस्ता से लिहाफ़ को इस के जिस्म से अलग किया और उसे ओढ़ कर कैंप के दूसरे कोने में चला गया। थोड़ी देर के बाद एक रज़ाकार उस के पास आया और इस से कहने लगा। वो..इधर..तुम्हारी माँ थी, जो मर गई है? नहीं नहीं मुझे कुछ मालूम नहीं। वो कौन थी।
लड़के ने ख़ौफ़ज़दा हो कर कहा। और ज़ोर से लिहाफ़ को अपने गर्द लपेटते हुए बोला। वो मेरी माँ नहीं थी। ये लिहाफ़ मेरा है। ये लिहाफ़ मेरा है। मैं ये लिहाफ़ नहीं दूँगा। ये लिहाफ़ मेरा है। वो ज़ोर ज़ोर से चीख़ने लगा। वो मेरी माँ नहीं थी। ये लिहाफ़ मेरा है। मैं उसे किसी को ना दूँगा। ये लिहाफ़ में साथ लाया हूँ, नहीं दूँगा, नहीं !
एक लिहाफ़, एक माँ, एक मुर्दा इन्सानियत के मालूम था कि एक दिन इस नई तस्लीस की कहानी भी मुझे आपको सुनानी पड़ेगी। जब मुस्लमान भागे तो उनके घर लुटने शुरू हो गए। शायद ही कोई शरीफ़ आदमी रहा हो जिसने इस लूट में हिस्सा ना लिया हो। आज़ादी के तीसरे दिन की बात है में अपनी गाय को गली के बाहर नल पर पानी पिलाने ले जा रहा था। बाल्टी मेरे हाथ में थी। दूसरे हाथ में गाय के गले से बंधी हुई रस्सी थी। गली के मोड़ पर पहुंच कर मैंने म्यूंसिपल्टी के लप दाने खम्बे से गाय को बांध दिया और नल की जानिब बाल्टी लिए मुड़ गया कि बाल्टी में पानी भर लाऊँ, थोड़ी देर के बाद जब बाल्टी भर के लाया तो क्या देखता हूँ कि गाय ग़ायब है! इधर उधर बहतेरा देखा लेकिन गाय कहीं नज़र ना आई। यकायक मेरी निगाह साथ वाले मकान के आँगन में गई, देखता हूँ, तो गाय आँगन में बंधी खड़ी है। मैं घर में घिसा।
क्या है भई, कौन हो तुम? एक सरदार साहिब ने निहायत ख़ुशवंत से कहा।
मैंने कहा। मैं अभी अपनी गाय को इस से बांध कर्नल पर पानी लाने गया था। ये गाय तो मेरी है सरदार जी
सरदार जी मुस्कुराए। हिला! हलाबा कोई गुल नहीं। मैंने समझा किसी मुस्लमान की गाय हो। ये आपकी गाय है तो फिर ले जाईए। इतना कह कर उन्होंने गाय की रस्सी खोल कर मेरे हाथ में थमा दी।
माफ़ करना मेरे चलते चलते उन्होंने फिर कहा। आपां समझिया किसी मुस्लमान दी गाय है।
मैंने ये वाक़िया अपने दोस्त सरदार सुंदर सिंह से बयान किया तो वो बहुत हिंसा। भला इस में हँसने की क्या बात हो। मैंने इस से पूछा तो वो और भी ज़ोर ज़ोर से हँसने लगा। सुंदर सिंह में आपको बताऊं, इश्तिराकी है, इसलिए फ़िर्कावाराना इनाद से बहुत दूर रहता है। वो मेरे उन चंद अहबाब में से है जिन्हों ने इस लूट मार में बिलकुल कोई हिस्सा नहीं लिया। मैंने कहा। तुम उसे अच्छा समझते हो।?वो बोला नहीं ये बात नहीं है। मैं हंस रहा था क्योंकि आज सुबह एक ऐसा ही वाक़िया मुझे पेश आया। मैं हाल बाज़ार में से गुज़र रहा था कि मैंने सोचा सामने कटरे में से सरदार सवेरा सिंह जी को देखता चलूं। पुराने ग़दर पार्टी के लीडर हैं ना वो। उन्होंने अपने गांव में तीन चार-सौ मुस्लमानों को पनाह दे रखी हो, सोचा पूछता चलूं, उनका किया हुआ। उन्हें वहां से निकाल कर मुहाजिरीन के कैंप में ले जाने की क्या सबील की जाये। ये सोच कर मैंने अपनी गाड़ी मुहम्मद रज़्ज़ाक़ जूते वाले की दूकान (जवाब लुट चुकी है) के आगे घड़ी की और कटरे में घुस गया। चंद मिनट के बाद ही लौट कर आ गया। क्योंकि बाबा-जी घर पर मिले नहीं। आ के देखता हूँ तो गाड़ी ग़ायब है। अभी तो यहीं छोड़ी थी। पूछने पर भी किसी ने नहीं बताया। इतने में मेरी नज़र हाल बाज़ार के आख़िरी कोने पर पड़ी। वहां मेरी गाड़ी खड़ी थी लेकिन एक जीप के पीछे बंधी हुई। मैं भागा भागा वहां गया। जीप में सरदार सिंह मशहूर क़ौमी कारकुन बैठे हुए थे। मैंने पूछा कहाँ जा रहे हो?
अपने गांव जा रहा हूँ।
और ये मेरी मोटर भी किया तुम्हारे गांव जाएगी?
कौन सी मोटर?
वो जो पीछे बंधी हुई है?
ये तुम्हारी मोटर है? माफ़ करना प्यारे, मैंने पहचानी नहीं। वो मुहम्मद रज़्ज़ाक़ की दूकान के सामने खड़ी थी ना। मैंने सोचा किसी मुस्लमान की होगी। मैंने जीप के पीछे बांध लिया। हाहा हा। मैं तो उसे अपने घर ले जा रहा था। अच्छा हुआ कि तुम वक़्त पर आ गए।
और अब कहाँ जाओगे? मैंने अपनी मोटर खोल कर इस में बैठते हुए कहा।
अब? अब कहीं और जाऊँगा। कहीं ना कहीं से कोई माल मिल ही जाएगा। सरदार सिंह क़ौमी कारकुन हैं। जेल जा चुके हैं। जुर्माने अदा कर चुके हैं। सयासी आज़ादी के हुसूल के लिए क़ुर्बानियां दे चुके हैं। ये वाक़िया सुना कर सुंदर सिंह ने कहा। बरोबा इस हद तक फैल गई है कि हमारे अच्छे अच्छे क़ौमी कारकुन भी इस से महफ़ूज़ नहीं रहे। हमारी सयासी जमातों में काम करने वाले तबक़े का एक जुज़ु ख़ुद इस लूट मार क़तल-ओ-ग़ारतगरी में शरीक हो। इस को रोको अगर उसी वक़्त रोका ना गया तो दोनों जमातें फ़सताई हो जाएँगी। यही कोई दो-चार साल ही हैं। सुंदर सिंह का चेहरा मुतफ़क्किर दिखाई दे रहा था। मैं वहां से उठ कर चला आया। रास्ते में ख़ालिसा कॉलेज रोड पर एक मुस्लमान अमीर की कोठी लूटी जा रही थी। अस्बाब के लदे हुए छकड़े मुख़्तलिफ़ गिरोह ले जा रहे थे। मेरे देखते देखते चंद मिनटों में सब मुआमला ख़त्म हो गया। सड़क पर चलने वाले हिंदू और सुख राहगीर भी कोठी की तरफ़ भागे लेकिन पुलिस के सिपाहीयों को वहां से निकलते देखकर ठिठक गए। पुलिस के सिपाहीयों के हाथों में चंद जुराबें थीं और रेशमी टाईयां। एक कोट हैंगर पर मफ़लर पड़ा हुआ था। उन्होंने मुस्कुरा कर लोगों से कहा। अब कहाँ जाते हो। वहां तो सब कुछ पहले ही ख़त्म हो चुका।
एक महाशय जो शक्ल-ओ-सूरत से आर्या समाजी मालूम होते थे और मेरे सामने ही कोठी की तरफ़ भागे थे, अब मुड़ कर मेरी तरफ़ देखकर कहने लगे। देखिए साहिब। दुनिया कैसी पागल हो गई है।
मेरे क़रीब से एक दूध बेचने वाला भया गुज़रा, बेचारे के हिस्से में चंद किताबें आई थीं वो उन्हें लिए जा रहा था। मैंने पूछा। इन किताबों का क्या करोगे। पढ़ सकते हो?
ना बाबू जी।
फिर?
उसने किताबों की तरफ़ ग़ुस्से से देखा। बोला। हम क्या करें बाबू। जिधर जाते हैं लोग पहले ही अच्छा अच्छा सामान उठा ले जाते हैं। हमारी तो क़िस्मत ख़राब है बाबू
उसने फिर किताबों को ग़ुस्से से देखा, उस का इरादा था। उन्हें यहीं सड़क पर फेंक दे। फिर उस का इरादा बदल गया। वो मुस्कुरा कर कहने लगा। कोई बात नहीं। ये मोटी मोटी किताबें चूल्हे में ख़ूब जलेंगी। रात के भोजन के लिए लक्कड़ीयों की ज़रूरत नहीं !बड़ी अच्छी किताबें थीं। सब चूल्हे में गईं। अरस्तू, सुक़रात, अफ़लातून, रूसो, शीकसपीइर, सब चूल्हे में गए।
सहि पहर के क़रीब बाज़ार सुनसान पड़ने लगे, कर्फ़यू होने वाला था। मैं जल्दी जल्दी कूचा राम दास से निकला और मुक़द्दस गुरू द्वारे को तालीम देता हुआ अपने घर की जानिब बढ़ गया। रास्ते में अँधेरी गली पड़ती है। जहां जलीयाँ वाले बाग़ के रोज़ लोगों को घुटनों के बल चलने पर मजबूर कर दिया गया था। मैंने सोचा में इस गली से क्यों ना निकल जाऊं। ये रास्ता ठीक रहेगा। मैं इसी गली की तरफ़ घूम गया। ये गली तंग है और यहां दिन को भी अंधेरा सा रहता है। यहां मुस्लमानों के आठ दस घर थे वो सब जलाए गए थे या लूटे गए थे, दरवाज़े खुले थे, खिड़कियाँ टूटी हुईं, कहीं कहीं छतें जली हुई, गली में सन्नाटा था, गली के फ़र्श पर औरतों की लाशें पड़ी थीं। मैं पलटने लगा, इतने में किसी के कराहने की आवाज़ आई, गली के बीच में लाशों के दरमयान एक बढ़िया रेंगने की कोशिश कर रही थी। मैंने उसे सहारा दिया।
पानी। बेटा मैं ओक में पानी लाया। मुक़द्दस गुरू द्वारे के सामने पानी का नल था। मैंने अपनी ओक उस के होंटों से लगा दी।
तुम पर ख़द अक्की रहमत हो बेटा! तुम कौन हो?ख़ैर तुम जो कोई भी हो तुम पर ख़ुदा की रहमत हो बेटा। ये एक मरने वाली के अलफ़ाज़ हैं। उन्हें याद रखना।
मैंने उसे उठाने की कोशिश करते हुए कहा। तुम्हें कहा चोट आई है माँ?
बढ़िया कहा। मुझे मत उठाओ। मैं यहीं मरूँगी। अपनी बहू बेटीयों के दरमयान। क्या कहा तुमने, चोट। अरे बेटा ये चोट बहुत गहिरी है। ये घाव दल के अंदर ही बहुत गुहर अघाओ है। तुम लोग इस से कैसे पनप सकोगे? तुम्हें ख़ुदा कैसे माफ़ करेगा?
हमें माफ़ कर दो माँ
मगर बढ़िया ने कुछ नहीं सुना। वो आप ही आप कहती जा रही थी। पहले उन्होंने हमारे मर्दों को मारा। फिरे हमारे घर लौटे। फिर हमें घसीट कर गली में ले आए, और इस गली में इस फ़र्श पर। इस मुक़द्दस गुरू द्वारे के सामने जिसमें हर-रोज़ तालीम दी जाती थी उन्होंने हमारी इस्मतदरी की और फिर हमें गोली से मार दिया। मैं तो उनकी दादियों के हमउमर थी, उन्होंने मुझे भी माफ़ नहीं किया।
यकायक उसने मुझे आसतीन से पकड़ लिया। तो जानता है ये अमृतसर का शहर है। ये मेरा शहर है। इस मुक़द्दस गुरू द्वारे को मैं रोज़ सलाम करती थी। जैसे अपनी मस्जिद को रोज़ सलाम करती हूँ, मेरी गली में हिंदू मुस्लमान सुख भी बस्ते हैं और कई पुश्तों से हम लोग यहां बस्ते चले आए हैं और हम हमेशा हमेशा मुहब्बत से और प्यार से और सुलह से रहे और कभी कुछ नहीं हुआ।
मेरे हम मज़हबों को माफ़ करो अम्मां
तू जानता है मैं कौन हूँ? मैं ज़ैनब की माँ हूँ, तो जानता है ज़ैनब कौन थी? ज़ीनत वो लड़की थी जिसने जलयानवा ले रोज़ इस गली में गोरे के आगे सर नहीं झुकाया। जो अपने मलिक और अपनी क़ौम के लिए सर ऊंचा किए इस गली में से गुज़र गई। यही वो गली है। यही वो जगह है जहां ज़ैनब शहीद हुई थी। मैं इसी ज़ैनब की माँ हूँ। मैं ऐसी आसानी से तुम्हारा पीछा छोड़ने वाली नहीं हूँ। मुझे सहारा दो। मुझे खड़ा कर दो, में अपनी लुटी हुई आबरू और अपनी बहू बेटीयों की बर्बाद अस्मतें लेकर सियासतदानों के पास जाऊँगी। मुझे सहारा दो। मैं उनसे कहूँगी में ज़ैनब की माँ हूँ। मैं अमृतसर की माँ हूँ, मैं पंजाब की माँ हूँ, तुमने मेरी गोद उजाड़ी है। तुमने बुढ़ापे में मेरा मुँह काला किया है। मेरी जवान जहां बहुओं और बेटीयों की पाक-ओ-साफ़ रूहों को जहन्नुम की आगे मैं झोंका है। मैं उनसे पूछूँगी कि क्या ज़ैनब इसी आज़ादी के लिए क़ुर्बान हुई थी? में ..ज़ैनब की माँ हूँ !
यकायक वो मेरी गोद में झुक गई। इस के मुँह से ख़ून उबल पड़ा। दूसरे ही लम्हे में उसने जान दे दी।
ज़ैनब की माँ मेरी गोद में मरी पड़ी थी और इस का लहू मेरी क़मीज़ पर है और मैं ज़िंदगी से मौत के दरवाज़े पर झांक रहा हूँ और तख़य्युल में सिद्दीक़ और ओम प्रकाश उभरे चले आते हैं और ज़ैनब का ग़रूर का सर फ़िज़ा में उभरता चला आता है और शहीद मुझसे कहते हैं कि हम फिर आएँगे, सिद्दीक़, ओम प्रकाश हम फिर आएँगे। शाम कौर, ज़ैनब, पारो बेगम हम फिर आएँगे अपनी उस्मतों का तक़द्दुस लिए हुए अपनी बेदाग़ रूहों का अज़म लिए हुए क्योंकि हम इन्सान हैं। हम इस सारी कायनात में तख़लीक़ के अलमबरदार हैं और कोई तख़लीक़ को मार नहीं सकता। कोई उस की इस्मतदरी नहीं कर सकता। कोई उसे लौट नहीं सकता क्योंकि हम तख़लीक़ हैं और तुम तख़रीब हो। तुम वहशी हो, तुम दरिंदे हो, तुम मर जाओगे लेकिन हम नहीं मरेंगे क्योंकि इन्सान कभी नहीं मरता, वो दरिन्दा नहीं है वो नेकी की रूह है, ख़ुदाई का हासिल है। कायनात का ग़रूर है।