अमृता शेरगिल: अपने कैनवस के रंगों सी / अनुलता राज नायर
(30 जनवरी 1913 – 5 दिसम्बर 1941)
महान कलाकार माइकलेंजिलो ने कहा था-“ व्यक्ति अपने दिमाग से पेंट करता है हाथों से नहीं, शायद यही वजह है कि हर कलाकार की कलाकृति उसके हस्ताक्षर होते हैं| आज मैं आपको मिलवाती हूँ एक ऐसी महान कलाकार से जिन्होंने मात्र 28 वर्ष के छोटे से जीवन काल में एक इतिहास रंग डाला और रंगों से भावनाओं का ऐसा इन्द्रधनुष उकेरा कि लोगों ने दाँतों तले उँगलियाँ दबा लीं- मिलिए हिन्दुस्तान की “फ्रिडा काह्लो”, “अमृता शेरगिल” से|
कहते हैं कि एक महान कलाकार सदा समय से बहुत आगे या बहुत पीछे रहता है| अमृता शेरगिल अपनी वास्तविक ज़िन्दगी में और अपने आर्ट में भी अपने समकालीन कलाकारों से बहुत आगे थीं| उनकी सोच का दायरा असीमित था, वे परफेक्शनिस्ट नहीं थीं और यही उनकी खासियत थी|
अमृता के पिता थे अभिजात्य कुल के सिख, संस्कृत और पारसी भाषा के विद्वान, उमराव सिंह शेर-गिल मजीठिया और माँ मेरी एन्तोनिएट, इटली की यहूदी ऑपेरा सिंगर थीं|अमृता का जन्म भी बुडापेस्ट, हंगरी में ही हुआ| अमृता के भीतर का कलाकार मात्र पांच वर्ष की उम्र से ही पंख फैलाने लगा था, जब वे अपनी माँ के द्वारा सुनायी कहानियों को बेहद ख़ूबसूरती से रेखांकित करने लगी थीं|
अमृता के जीवन का अधिकतर समय यूरोप में ही गुज़रा जहाँ वे अपने मामा “इरविन बकते” के करीब रह कर काफी कुछ सीख पायीं, जिन्होंने हंगरी में भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार में बहुत योगदान दिया था और स्वयं एक बेहतरीन कलाकार थे, और वे ही प्ररोक्ष रूप से अमृता के वापस भारत आने की वजह बने| उन्होंने ही अमृता को सुझाव दिया कि वे अपने आस पास की महिलाओं को अपना मॉडल बनायें|
1921 में अमृता भारत आयीं और वे शिमला में रहने लगे जहाँ उन्होंने इटालियन मूर्तिकार से प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया, फिर उसी मूर्तीकार के वापस इटली चले जाने पर 1924 में वे वापस इटली आयीं और जहाँ उन्होंने चित्रकारी का प्रशिक्षण लिया| हालाँकि वे सिर्फ पाँच महीने के छोटे प्रवास के बाद ही अपनी माँ और बहन के साथ वापस हिन्दुस्तान लौट आईं| 1924 से 1929 तक अमृता शिमला में रहीं और समूचे हिन्दुस्तान में घूम कर अपनी कला को धार दी| हालाँकि ये देश भ्रमण उनकी माँ की नज़र से देखें तो सिर्फ सामाजिक संपर्क बढाने के मकसद से किया गया था| 1929 में अमृता को पेरिस में चित्रकला की बाकायदा ट्रेनिंग देने के लिहाज से उनका पूरा परिवार पेरिस आ गया, अमृता तब सिर्फ 16 वर्ष की थीं|
आने वाले 6 बरस इस प्रतिभाशाली, जोशपूर्ण और आकर्षक लड़की ने “कला के क्षेत्र के मक्का ” कहे जाने वाले शहर पेरिस में बिताये जहाँ उनके भीतर सोये चित्रकला के बीजों ने अंकुरण किया और कल्पनाएँ खूब फली-फूलीं और लहलहायीं| इन्हीं दिनों अमृता ने अपनी बहन के साथ पियानो और वायलिन भी सीखा|
यहाँ रह कर अमृता ने धाराप्रवाह फ्रेंच बोलना सीखी और ऊँचे तबके के फ्रेंच और अन्य यूरोपियन लोगों में उठने बैठने लगीं| उन्हें रूढ़ीमुक्त फ्रेंच लोगों की सोहबत में आनंद आने लगा और वे भारत से आयी सकुचाई और गंभीर लड़की के खोल से बाहर आयीं| अमृता अब एक खूबसूरत, बहिर्मुखी और पुरुषों के बीच लोकप्रिय लड़की थी|
पेरिस में अमृता ने ग्रैंड शेमेर इंस्टिट्यूट में दाखिला लिया, मगर उनके बनाए स्केच और पेंटिंग प्रभाववाद के मुताबिक नहीं थे, वे न्यूड मॉडल्स पेंट करतीं मगर वे यथार्थ से दूर होतीं| उन्हीं दिनों वे लुइ सिमोन के संपर्क में आयीं, जिन्होंने उसकी अनोखी प्रतिभा की वजह से अवयस्क होने के बावजूद अपने स्टूडियो में दाखिला दिया|सिमोन से सीखना अमृता को बहुत भाया| उनके उन्मुक्त तौर तरीके अमृता से मेल खाते थे और सिमोन से ही अमृता ने रंगों का महत्त्व और उनका सही इस्तेमाल सीखा|यहाँ उन्होंने तीन साल काम किया| लुई सिमोन ने तब ही कहा था “कि एक दिन मुझे गर्व होगा कि अमृता शेरगिल मेरी शिष्या थीं ”|
1930 से 1932 के बीच अमृता ने लगभग 60 पेंटिंग्स बनाईं जिनमें ज़्यादातर सेल्फ पोट्रेट, पोट्रेट, स्थिर वस्तु चित्र(स्टिल लाइफ)और लैंडस्केप्स बनाए.उन्होंने अपने कैनवस पर पेरिस की रंगीनियाँ नहीं उकेरी बल्कि वहाँ के जीवन के घिनौने और श्याम पक्ष को उजागर किया| लाल और सफ़ेद रंग उनके ख़ास पसंदीदा थे.सफ़ेद रंग उन्हें रहस्यमयी लगता था|
1933 में उन्होंने एक प्रसिद्ध पेंटिंग बनायी – “द प्रोफेशनल मॉडल” जिसमें उन्होंने एक उम्रदराज़ मॉडल ली जिनके कंधे झुके, चेहरा झुर्रियों से भरा और शरीर अनाकर्षक था मगर आँखों में अब भी जीने की ललक और चमक बाकी थी. इसी थीम पर उन्होंने दो और पेंटिंग्स बनायी जो बहुत प्रसिद्द हुईं|
1930 में उन्होंने “पोट्रेट ऑफ़ ए यंग मैन” बनायी जिसके लिए उन्हें “एकोल” पुरूस्कार मिला(नेशनल स्कूल ऑफ़ फाइन आर्ट्स इन पेरिस द्वारा )|1932 में अमृता शेर-गिल ने ”यंग गर्ल्स” नाम से पहली महत्त्वपूर्ण पेंटिंग बनाई जिसके फलस्वरूप 1933 में उन्हें पेरिस में “एसोसिएट ऑफ़ दी ग्रैंड सलून ” के लिए चयनित किया गया| ये सम्मान पाने वाली वे सबसे कम उम्र की और पहली एशिआयी थीं|
उन दिनों कलाकारों में परंपरा के विरुद्ध जाना एक चलन बन गया था, जैसे कोई फैशन या स्टेटस सिम्बल| उसी लीक पर चलते अमृता ने कई नग्न पेंटिंग्स बनायीं और समलैंगिकता को भी दर्शाया| अमृता शेरगिल का व्यक्तिगत जीवन भी इसी तरह के विवादों और आक्षेपों से घिरा रहा|उनके जीवन में असफल प्रेम-प्रसंगों की भरमार रही| एक अंग्रेज़ पत्रकार, लेखक और व्यंगकार मेल्कॉम की मानें तो अमृता शेरगिल अपने कई प्रेम प्रसंगों के होते हुए भी मन से सदा कुंवारी रहीं, क्यूंकि उन्हें स्वयं से प्यार था, उन्हें नार्सीसिस्ट (आत्ममुग्ध) कहा जाता था और ये बात उनके सेल्फ़ पोट्रेट्स देख कर सच भी लगती है|
वे बचपन से अपने रिश्ते के एक भाई, विक्टर के बेहद करीब थीं और उनसे शादी करना चाहती थीं मगर उनकी माँ उन्हें किसी रईस और रसूखदार घर में ब्याहना चाहती थीं इसलिए उनकी सगाई अकबरपुर ताल्लुका के रईस युसूफ अली खान से कर दी| मगर इस सगाई ने उन्हें अनचाहा गर्भ और कई रोग दिए| अमृता ने विक्टर से सलाह ली जो एक डॉक्टर भी था, और गर्भपात के बाद युसूफ से रिश्ता तोड़ लिया| इसके बाद के दिन अमृता ने बेहद अनियमित जीवन जिया और अपने मन और तन दोनों को काफी हद तक बर्बाद कर लिया, उन्होंने खुद लिखा कि “मैं एक एप्पल(सेव फल) की तरह हूँ, जो बाहर से सुर्ख लाल दिखता है मगर भीतर से सड़ा हुआ है”|
1934 में अमृता को भारत लौटने की तलब लगने लगी, उन्हें आश्चर्जनक रूप से ये महसूस होने लगा कि एक कलाकार के रूप में उनका भाग्योदय भारत में ही लिखा है, शायद वे जानती थीं कि उनके पास अब ज़्यादा ज़िन्दगी बाकी नहीं है| भारत लौटने के पश्चात अमृता पूरी तरह कला के लिए समर्पित हो गयीं| उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास और कला के विभिन्न आयामों को बारीकी से समझा, सीखा और यहाँ की फिज़ाओं में बिखरे रंगों का उन्होंने अपनी कला में बखूबी इस्तेमाल किया| भारत आने के बाद अमृता ने यहाँ के आम लोगों को अपने कैनवस पर उतारना शुरू किया| दुबले पतले शरीर, उदास आँखों वाली मजदूर पहाड़ी औरतें उन्हें आकर्षित करतीं| 1937 में उन्होंने “थ्री गर्ल्स” पेंटिंग बनाई जिसके लिए उन्हें कई बड़े पुरूस्कार मिले और पहचान भी| शिमला की फाइन आर्ट सोसाइटी में हुई प्रदर्शनी में अमृता की कुछ पेंटिंग्स को सराहा गया और ज़्यादातर को आलोचना का शिकार होना बड़ा जिसका अमृता ने कड़े शब्दों में लिखित रूप से विरोध किया और आर्ट सोसाइटी का बहिष्कार भी किया|
1935 में उन्होंने “मदर इंडिया ” बनायी जो उनकी पसंदीदा थी| आल इंडिया फाइन आर्ट्स सोसाइटी के द्वारा उन्हें उनके “सेल्फ पोट्रेट” के लिए पुरुस्कृत किया गया इस पर उन्होंने कहा कि आर्ट सोसाइटी ने मेरी बकवास चित्रकारी को पुरूस्कार दिया|कला के लिए उनकी अपनी परिभाषाएं थीं, अपने मापदंड थे| वे शायद समय से बहुत आगे चल रही थीं| उनके बनाये चित्रों और कंसेप्ट को अखबारों और कला आलोचकों ने “बदसूरत” तक कह डाला| 20 नवम्बर 1936 को अमृता शेरगिल ने बम्बई में एक कला प्रदर्शनी में हिस्सा लिया जहाँ बड़े बड़े अखबारों और कला समीक्षकों ने अमृता के काम की खूब सराहना की| टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने उन्हें भारत के सबसे बेहतरीन युवा कलाकार का दर्ज़ा दिया| अमृता आम लोगों के पोट्रेट्स बनाना पसंद करती थीं, गाँव के लोग, आदिवासी, गरीब , बूढ़े लोग उनके मॉडल होते| वे कहती, इनमें मुझे सच्चाई और निष्ठा दिखती हैं| पैसे देकर अपना पोर्ट्रेट बनवाने वालों से उन्हें नफरत थी| बोम्बे आर्ट सोसाइटी ने उन्हें “थ्री गर्ल्स” के लिए स्वर्ण पदक से नवाज़ा| अब अमृता पर सबकी नज़र थी और लोग उनमें आने वाले दिनों की सबसे उम्दा कलाकार की छवि देखते थे| अमृता शेरगिल अब सफ़ल कलाकार थीं|
उनके प्रशंसकों में पंडित नेहरू भी एक थे, वे अपना पोर्ट्रेट अमृता से बनवाना चाहते थे मगर अमृता को लगा कि उनका चेहरा इतना सुन्दर है कि कैनवस पर नहीं उतारा जा सकता|
1937 में उन्होंने हैदराबाद में प्रदर्शिनी लगाईं. वहां वे नवाब सालारजंग को अपनी कृतियाँ बेचना चाहती थीं| नवाब साहब ने उन्हें अपना कलेक्शन दिखा कर पूछा –कैसा लगा ? तब अमृता ने जवाब दिया “करोड़ों रुपये का कबाड़”| ज़ाहिर है नवाब ने अमृता की कोई पेंटिंग नहीं ली| अमृता कला के प्रति समर्पित थीं उनके भीतर कोई दिखावा नहीं था न ही वे दूसरों की शर्तों पर झुकने वाली औरत थीं|
कला समीक्षकों का कहना था कि शेरगिल की कला को पहली बार देखने पर हम भौचक्के रह जाते हैं क्यूंकि हम अभ्यस्त नहीं हैं उस तरह की पेंटिंग देखने के| आप अमृता की कला को या तो बेहद पसंद कर सकते हैं या उनसे घृणा कर सकते हैं मगर आप उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते|
1938 में विक्टर से शादी का ख्याल लेकर अमृता फिर हंगरी गयीं|वहां विक्टर विश्व युद्ध में व्यस्त रहा और अमृता ने अपने जीवन के कुछ बेहतरीन चित्र बनाए जिनमें “हंगेरियन मार्केट सीन”, ”टू गर्ल्स” और “न्यूड” प्रमुख हैं| अमृता और विक्टर भारत आ गए| उन दिनों अमृता को अपनी कृतियों के लिए कई अस्वीकृतियाँ झेलनी पड़ी जिससे वे मानसिक अवसाद से घिर गयीं| 1940 के शुरुआती दौर में उन्होंने खुद को उबारा और फिर से चित्रकारी शुरू की और कुछ बेहतरीन चित्र ”एन्शिएनट स्टोरी टेल्लर” और “स्विंग”(झूला)बनाए| परन्तु उनकी तूलिका के रंग मन के भीतर की स्याह दीवारों को रंग न सके| उन्होंने अपनी बहन को बड़े दुःख भरे पत्र लिखे| उन्होंने लिखा मैं स्वयं को अनचाहा, चिडचिडा और असंतुष्ट महसूस करती हूँ पर फिर भी रो सकने में असमर्थ हूँ| कलाकार बड़े भावुक और नर्मदिल होते हैं, उन्हें क्या व्यथित कर देता है वे स्वयं नहीं समझ पाते|
सितम्बर 1940 में अमृता और विक्टर लाहौर आ गए आर्थिक तंगी के होते हुए भी ज़िन्दगी ने थोडा रफ़्तार पकड़ी, मगर 3 दिसम्बर को सुबह से अमृता की तबियत खराब हुई और विक्टर और दो अन्य डॉक्टर के प्रयास के बाद भी अमृता नहीं बचीं|
उनके जीवन के कैनवस पर बनायी जाने वाली तस्वीर अधूरी रह गयी| रावी नदी के तट पर अमृता का रंगीन जीवन धूसर रंग में बदल गया| वे एक आख़री चित्र “दाहसंस्कार” बनाने की आस लिए ही चली गयीं मगर कैनवस पर उनके दिए रंग आज भी उतने ही चमकदार और जिंदा है जितना वे खुद थीं और उनकी कला आज राष्ट्रीय धरोहर के रूप में नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, दिल्ली में सहेज कर रखी गयी है|
(2006 में अमृता की एक पेंटिंग “विलेज सीन”, नीलामी में 6.9 करोड़ रूपए में बिकी जो भारत में किसी चित्रकारी के लिए दी गयी सबसे बड़ी रकम थी|)