अमृत-प्रतीक्षा (भाग 2) / सरोजिनी साहू / दिनेश कुमार माली

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भगवान की दया से उसके पास किसी भी चीज की कमी नहीं है। मौसी ! सब कुछ है हमारे पास, मगर बच्चा नहीं है।”

“शादी हुए कितने साल हो गए हैं ?”

“सोलह साल”

“जानती हो, मौसी, मैं बच्चे के लिए और आशा नहीं रखता हूँ, पर पता नहीं, कैसे उसको मिर्गी (अपस्मार) का रोग लग गया। चूँकि वह निपट अकेली रहती है मिर्गी का दौरा पड़ने से कब क्या हो जाएगा ? यही सोचकर बीच-बीच में डॉक्टर के पास दिखलाने के लिए ले आता हूँ। परन्तु इसका यहाँ आने का मन बिल्कुल नहीं था।”

“हाँ, कितना झूठ बोलते हो ? तुम्हारा मन था ? दस चिट्ठी लिखने के बाद तो तुम आए हो, वह भी मानो मुझ पर अहसान कर दिया हो। हाँ..., मुझे क्या हो जाता ? जैसे ही यहाँ से घर जाऊँगी बढ़िया खाना बनाऊँगी, खाऊँगी, पीऊँगी और मजे करूँगी। किसके लिए बचाऊँगी ? कौनसा मेरा वारिस है ? और कौन है जो खाएगा ? ये तो कलकत्ता चले जाएँगे। मैं तो इनके दूसरे भाइयों से अलग रहती हूँ।”

धीरे से फुसफुसाते हुए वह बोलने लगी-

“जानती हो ! ये दूसरी शादी करना चाहते हैं। एक लड़की भी देख चुके हैं। सिर्फ समाज को दिखाने के लिए मुझे यहाँ ले आते हैं। हाँ, मेरे पास तो बहुत सारे जेवर हैं ? खेती-बाड़ी है, घर द्वार है। और मुझे क्या चाहिए ? मुझे और किसी सामान की जरूरत है क्या ?”

पारामिता कहने लगी, “हाँ, सब कुछ तो है, और क्या चाहिए ?”

कहते-कहते यह बात पारामिता के हृदय में अटक गई। क्या कोई इंसान अपनी जिंदगी में केवल ये सब चीजें चाहता है ? सिर्फ ये ही सब ? अगर पारामिता को ये सब चीजें मिल जातीं, तो क्या वह खुश रहती ? विशाल दिलवाली होने के बावजूद भी पारामिता को सब कुछ सूनासूना लग रहा था उसके जीवन और उस औरत की सभी संभावनाएँ धूमिल होती नजर आ रही थी तभी तो इस प्रकार की अभद्र भाषा का प्रयोग वह कर रही थी ?

कैलेण्डर के सभी पन्नों को
फाड़कर, मैं खड़ी हूँ
मुहूर्तों की सलाखों के पीछे
बंदी बन
समयहीन हो गई हूँ
मेरे सामने हो तुम
जागरण में
नींद में
सुख में
दुःख में
मगर भीषण ताप से
पसीना बह जा रहा है
इस शरीर से
दिल में जाग उठी
एक प्रचंड प्यास
मेरे सामने
वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़
मानो कुछ भी नहीं हैं।
सन क्लीनिक, कटक
भारत, पृथ्वी, ग्रह, तारा, आकाश
मानो कुछ भी नहीं हैं।
सिर्फ तुम हो
और मैं हूँ
मुहूर्तों की सलाखों के पीछे
बंदी बन
समयहीन हो गई हूँ
पर भीषण ताप से
पसीना बहा जा रहा है
इस शरीर से
दिल में जाग उठी है
एक प्रचंड प्यास।

हमें याद नहीं हैं, सन क्लीनिक, तुलसीपुर, कटक शहर। याद नहीं हैं, बादामबाड़ी बस-स्टैण्ड रिक्शा-स्टैण्ड। भूल गए हैं, दौल-मुण्ड़ाई में लस्सी की दुकान पर घंटों-घंटों कतारों में खड़ा रहना।

याद नहीं हैं, दोपहर के शो में आर्ट-फिल्मों को देखना। भूल गए हैं विनोद बिहारी में प्रकाशक लोगों के कृत-कृत्य होने का छद्म रूप।

हमें याद नहीं हैं, किसी जन्म में कोयला खदान में एक नीड़ बनाने के खेल में रमना।

एक लकडहारे की भाँति चावल लेकर लौट आता था पार्थ जंगलनुमा बाजार से और पारामिता किसी पहाड़ की तलहटी के नीचे बैठकर अपनी छोटी-सी सपन कुटिया को सुबह गोबर से लीप-पोतकर साँझ को घी का दीया जलाकर, शंख-ध्वनि कर ईश्वर को याद करती थी।

हमें याद नहीं वह हमारा जीवन, वह हमारा जन्म।

अब मैं मुहुर्तों की सलाखों के पीछे बंदी बन बैठी हूँ परन्तु समयहीन होकर। मेरे सामने केवल तुम हो। मेरे सामने चराचर जगत कुछ भी नहीं है, फिर भी भीषण ताप से मेरा शरीर पसीने से तर-बतर होता जा रहा है। दिल में एक प्रचंड प्यास जाग उठी है। कैलेण्डर के सारे पन्ने शैवाली फूल की पंखुडियों की तरह गिर गए हैं, समयहीनता की तेज धूप पाकर।

इसी दौरान पारामिता को दो-तीन बार आभासी-दर्द हो गया था। दर्द से कमर, पीठ, हाथ-पैर सब टूटते नजर आ रहे थे। पारामिता मुँह बंदकर इस यंत्रणा को सहन कर रही थी, साथ ही साथ किसी के आने की प्रतीक्षा में उल्लसित भी हो रही थी। मानो लंबे अर्से के बाद स्थिर जलाशय में एक तरंग-उर्मिका उठी हो। सब कोई तैयार हो जाते थे। सारे प्रोग्राम निरस्त कर देते थे। बचे-खुचे काम जल्दी-जल्दी निपटा लेते थे। फिर केवल बैठे रह जाते थे पारामिता से होने वाले बच्चे के इंतजार में। उसको चारों तरफ से घेर कर बैठ जाते थे। कभी-कभी नर्स को पहले से ही बोलकर रखते थे, तो कभी डॉक्टर दो अँगुलियों से जाँच कर जाते थे यह कहकर, “अगर और दर्द बढेगा तो खबर करना।”

मगर तीन-चार घंटे के बाद दर्द समाप्त हो जाता।

दर्द क्या ? आभासी दर्द क्या ? कुछ भी पता नहीं था पारामिता को। इसका मतलब शायद आभासी दर्द में दर्द का कोई भी महत्व नहीं है। सभी लोग तो यही बात कहते थे। उसने सुन रखा था, कि इस दुनिया में प्रसव-पीड़ा से बढ़कर कोई दूसरी पीड़ा नहीं है। एक दिन डॉक्टर ने भी यही बात बताई थी। यही कारण है आजकल की लड़कियाँ प्रसव-शूल झेलना नहीं चाहती हैं, अतः सीजेरियन करवाना अधिक पसंद करती हैं।

लेकिन पारामिता सीजेरियन के लिए राजी नहीं थी। पारामिता ही नहीं, उसके घर का कोई भी सदस्य नहीं चाहता था कि पारामिता का सीजेरियन बच्चा पैदा हो। अभी कुछ दिन और शेष थे, कुछ दिन और प्रतीक्षा की जा सकती थी।

डॉक्टर के मुँह से एक बार सीजेरियन शब्द सुनकर पारामिता फिर कभी शांति से नहीं बैठ पाई। उसे इस बात का अहसास हो गया था, जरूर ही डॉक्टर उसके सीजेरियन से बच्चा पैदा करेंगे। हर दिन जब भी वह डिलेवरी-तालिका देखती थी, तो इस बात को जरूर चेक करती थी कि कितने सीजेरियन बच्चे पैदा हुए हैं तो कितने बच्चे सामान्य प्रसव से। वह मानसिक तौर पर इतना डर चुकी थी कि जब भी कोई डॉक्टर राउन्ड पर आता था, उससे अपने बच्चे की स्थिति तथा आकार के बारे में जरूर सवाल पूछ बैठती थी। आगे यह भी पूछने से नहीं चुकती थी-

“डॉक्टर, जब बेबी का आकार इतना छोटा है तो सीजेरियन की क्या आवश्यकता है ? प्रायः किस-किस अवस्था में सीजेरियन की जरूरत पड़ती है ? सीजेरियन करने के कितने दिन पूर्व आप इस बात का निर्णय लेते हैं ?”

पारामिता के इन सभी सवालों का जबाव देते थे डॉक्टर। परन्तु कोई-कोई डॉक्टर यह भी कह देते थे कि आप बहुत जल्दी ही नर्वस हो जाती हो। सीजेरियन तो छोटा-सा ऑपरेशन है। इसके अलावा, आपके तो अभी और दिन बाकी हैं । इसलिए प्रोफेसर साहब आपकी शारीरिक व मानसिक अवस्था देखकर ही निर्णय लेंगे। आप किसी भी प्रकार की चिंता-फिक्र मत कीजिए। पारामिता अब तक प्रत्येक रूम का चक्कर काट चुकी थी। कोई भी सीजेरियन केस सामने आने से, सीजेरियन होने के कारणों के बारे में अवश्य पूछती। कभी-कभी नर्सिंग होम के प्रबंधन को उसके लिए दायी मानती। पैसों के लिए डॉक्टर लोग कई केस जान-बुझकर सीजेरियन कर देते हैं। पारामिता दिल से कभी सीजेरियन नहीं चाहती थी, परन्तु सामान्य-प्रसव के लिए भी उसका धैर्य नहीं था।

यहाँ भर्ती होने से पहले उसने क्या-क्या सोच रखा था ? उसे इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि यहाँ आने के बाद इतना कष्ट भुगतना पड़ेगा । सारी रातें स्वप्नहीन हो जाएँगी ? वह तो सिर्फ उस दिन अपने साधारण चेक-अप के लिए यहाँ आई थी। चेक-अप करने के बाद डॉक्टर पार्थ से बोले थे-

“देखिए, इनके लिए बार-बार बस में आना-जाना सुरक्षित नहीं है। बेहतर यही रहेगा कि कटक में कहीं रूक जाइए।”

“कटक में रहने के लिए ऐसी तो कोई सुविधाजनक जगह हमारे लिए नहीं है। हमारा कोई नजदीकी रिश्तेदार भी यहाँ नहीं रहते हैं, जिनके घर पर एक-दो महीनों के लिए रूका जा सके। अभी से कटक में रहना पडेगा, डॉक्टर ?” पार्थ ने कहा।

“रहना, न रहना तो आपकी मर्जी पर निर्भर करता है। मेरा तो फर्ज था यह बताना कि यह कोई मामूली डिलेवरी-केस नहीं है। बहुत ही जटिल केस है, अन्यथा मैं आपको यहाँ रूकने के लिए क्यों कहता ? हमारे लिए भी यह एक नया प्रयोगात्मक केस है।” पर्ची पर कुछ लिखते हुए डॉक्टर ने कहा था।

तीन साल के बांझपन (बंध्यात्व) के बाद पारामिता का यह पहला गर्भ था, जिससे मातृत्व-सुख की आशा की जा सकती थी। तरह-तरह के चिकित्सीय-परीक्षण, कई एक्स-किरणों और विभिन्न प्रकार की दवाइयाँ खाने के उपरांत भी हारमोन टेस्ट करवाने के लिए अखिल भारतीय आयुर्वेद विज्ञान संस्थान (एम्स) जाना पड़ा था। वहाँ पर गोनाडोट्राफिन ट्रीटमेंट के बाद ही उसे यह मातृत्व सुख प्राप्त हुआ था। अपनी तरफ से तो सारी आशाएँ छोड़ चुकी थी वह। पूरी तरह से हताश हो गई थी। दस-पन्द्रह हजार का खर्चा भी हो गया था। परन्तु उसको कोई फायदा नहीं हुआ था जैसे अकालग्रस्त भूमि में कोई भी बीज अंकुरित नहीं हो पाता है। इसलिए गोनाडोट्रोफिन ट्रीटमेंट में मिली सफलता से न केवल पारामिता व पार्थ, बल्कि उनके सभी परिजन, मित्र, यहाँ तक कि चिकित्सा करने वाले डॉक्टरों की भी खुशी की कोई सीमा नहीं रही। लम्बे अर्से के अथक परिश्रम व अर्थ-व्यय व लम्बे समय के बाद मिली सफलता सभी के लिए मूल्यवान थी। शायद यही वजह थी सभी अत्यंत सावधानीपूर्वक काम कर रहे थे। डॉक्टर ने डेढ-मास पूर्व ही उसको नर्सिंग-होम में भर्ती करने की सलाह दे दी थी। पारामिता के पापा न केवल नर्सिंग-होम का डेढ़ महीने का खर्चा उठाने के लिए तैयार थे बल्कि खुद के लंबे-चौड़े कारोबार को बंदकर बेटी के साथ रहने के लिए सहमत हो गए थे। पार्थ भी डेढ़ महीने की छुट्टी लेकर वहाँ आने के लिए व्यग्र हो उठा था।

जब पारामिता का कटक में रहना सुनिश्चित हो गया था, तब पारामिता व पार्थ साथ ले जाने वाले सामान को लेकर कल्पना सागर में डूब गए थे। बाल्टी, मग, साबुन, तेल, टिफिन कैरियर, फ्लास्क, दरी, तकिया और क्या क्या....। कटक में डेढ़-महीने रहने के दौरान वे क्या-क्या करेंगे ? कितनी आर्ट-फिल्में देखेंगे ? कितने दोस्तों से मुलाकात करेंगे ? रिक्शे में बैठकर किन-किन दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करेंगे ?

परन्तु पच्चीस तारीख की सुबह जब पारामिता कटक शहर पहुँची, कार से उतरकर सीधे नर्सिंग-होम में गई, तो फिर बाहर नहीं निकल पाई। कटक शहर कहने से उसे मिला था केवल दस फुट गुणा बारह फुट आकार का एक कमरा, ऑपरेशन थियेटर में जलती हुई लाल-लाईट, एक लंबा बरामदा और खिडकी में झाँकने से दिखता था दो मंजिले मकान के बरामदे में टहलता हुआ एक अलसेशियन कुत्ता और चौपाए पशु की भाँति चलती हुई-एक बूढ़ी। बस, इतना ही। खाली बैठी-बैठी पारामिता बीस-पच्चीस चिट्ठियाँ लिख चुकी थी उन सभी जान-पहचान वालों को, जो कॉलेज चौक से लगाकर चाँदनी चौक तक रहते थे। न तो किसी ने कुछ उत्तर दिया था और न ही उसे कोई देखने आया था। ऐसा लग रहा था मानो सारे जान-पहचान वाले लोग कटक शहर छोड़कर कहीं और चले गए हैं या फिर कल तक जो लोग चिट्ठी देते थे, आज वे सब भूल गए हैं कि पारामिता नामक जान-पहचान वाला जीव कोई उनके जीवन में आया भी था । इस तरह से पारामिता नर्सिंग-होम के एक कैबिन में कैद होकर रह गई थी। जब वह खिड़की से देखती तो दिखता था, एक टी.वी टॉवर और विस्तृत मैदान के साथ-साथ कटक शहर के कुछ भग्नावशेष।

ना तो उसे किसी प्रकार का कोई सेलाइन चढ़ा था ना कोई पट्टी बँधी थी, ना ही उसे समय-समय पर दवाई खानी थी और ना ही किसी प्रकार का इंजेक्शन लेने का कोई झमेला था। पारामिता को ऐसा लग रहा था मानो वह किसी रोगी की भूमिका में यहाँ अभिनय करने आई हो। अस्पताल की सफेद चादरें, सफेद तकिएँ, मैकिनटोस रैगजीन पारामिता को हर समय याद दिला देते थे कि वह बीमार है और इस बात को वह हर बार भूलने की चेष्टा करती थी, इसलिए जानबूझकर अस्पताल की सफेद चादर पर अपनी छापा वाली चादर बिछा देती थी। मगर नर्सिंग होम के अंदर के परिवेश को किस चीज से ढ़कती ? आपरेशन के बाद सेलाइन लगी हुई बेहोश औरतों को, क्या वह बाहर फेंक सकती थी ? क्या वह आपरेशन थियेटर से बह रही ईथरीय गंध को हटा सकती थी ? क्या वह परिचारकों के चेहरे पर झलकती दुश्चिंताओं को मिटा सकती थी ? या क्या वह ब्लड-बैंक से निर्दिष्ट ग्रुप का ब्लड नहीं मिलने से हताश हुए लोगों की चिंता दूर कर सकती थी ? पारामिता उसी वातावरण में एक मूकदर्शक की भाँति थी। परन्तु ना किसी ईथर की गंध ना ही किसी प्रकार की कोई सलाइन, न किसी ब्लड बैंक से ब्लड की व्यवस्था करना, ना नर्स लोगों का आना-जाना और ना ही ड्रेसिंग गाउन पहनने की ललक.... इन सब चीजों से वह अलग थी।

एक महीने की छुट्टी लेकर जिस दिन पार्थ पहुँचा था, पारामिता बहुत खुश हुई थी उसको देखकर। उसे लग रहा था जैसे पार्थ उसका पति, चिर-परिचित पुरूष न होकर उसका प्रेमी हो। मन हो रहा था पार्थ के गले लगकर खूब रोएँ। “कहाँ चले गए थे इतने दिन ? मैं यहाँ अकेली थी। तुम्हें मेरी याद भी नहीं आ रही थी। जानते हो यह वह कटक शहर नहीं है ना ही वह कॉलेज चौक स्टेशन का व्हीलर। कितना मायावी शहर है यह ! देखो, अपनों से कितनी दूरी बनाकर चल रहा है यह शहर !”

पार्थ को देखने से ऐसा लग रहा था जैसे वह कुछ बोलने के लिए आतुर हो।

“देखो, कितनी बाधाओं को पारकर आया हूँ मैं ? तुम्हारे बिना कैसे रह पाता मैं शांति से वहाँ ?”

पार्थ के इतना जल्दी आ जाने से पापा खुश नहीं थे। पहले से हुई बातों के अनुसार जब पार्थ आता तो पापा घर जाते। पर अब पापा घर जाने के लिए राजी नहीं हुए थे, इसलिए पहले से तय की हुई तारीख से एक सप्ताह पूर्व पार्थ को आया देख पापा कहने लगे थे-

“इतनी जल्दी क्यों आ गए हो, बेटा ? तुम तो अगले सप्ताह आने वाले थे ना ? हमें कितने दिन यहाँ रूकना पड़ेगा ? क्या होगा, क्या नहीं होगा ? अभी से तो कहा नहीं जा सकता है। अभी से आकर यहाँ बैठ जाओगे तो जरूरत के समय तुम्हें छुट्टी मिलने में परेशानी होगी। जब आ ही गए हो, तो ठीक है। पारामिता को देखकर वापिस चले जाओ, वहाँ जाकर अपनी छुट्टी कैंसिल करवा देना, और फिर जरूरत के समय छुट्टी लेकर आ जाना।”

लेकिन पार्थ कहाँ चुप रहने वाला था ! वह बिल्कुल नहीं चाहता था कि वापिस घर चला जाए। वह बोलने लगा -

“आप क्या सोचते है जब मेरी इच्छा होगी, तब मुझे छुट्टी मिल जाएगी ? एक महीने की छुट्टी मंजूर करवाना कोई मामूली बात नहीं है। बल्कि बेहतर होगा कि आप चले जाएँ। आपको अपने व्यापार में बिना मतलब का काफी नुकसान भी पहुँच रहा होगा। अगर माँ जी भी चली जाएँ, तो कोई दिक्कत की बात नहीं है। जरूरत पडने पर मैं आप लोगों को खबर कर दूँगा। आप जानते ही हैं यहाँ पर हम दोनों को किसी भी प्रकार की कोई असुविधा नहीं होगी। वैसे भी दिन के समय बुआ के घर से खाना आ ही जाता है, और रात के लिए मैं किसी अच्छे होटल में व्यवस्था कर लूँगा। डिलेवरी होने में अभी काफी दिन बाकी हैं और अगर अकस्मात् जरूरत पड़ गई तो मैं आपको ट्रंक-काल कर दूँगा।”

“तुम क्या सोच रहे हो मुझे अपनी बेटी से प्यार नहीं है ? तुम्हारे कह देने से मैं घर चला जाऊँगा। एक सेकेंड भी मैं वहाँ शांति से नहीं रह पाऊँगा।”

कहते-कहते, पता नहीं क्यों पापा की आवाज बदल गई थीं। पारामिता के पास कौन रहेगा या कौन नहीं रहेगा, इस बात को लेकर खूब बहसा-बहसी, तर्क-वितर्क हुआ था पापा और पार्थ के बीच में। अंत में कोई भी नहीं गया, न पापा, न पार्थ, न माँ।

इतनी बहस करते समय इन लोगों ने क्या यह बात नहीं सोची थी की इतनी छोटी-सी जगह में चार लोग कैसे रह पाएँगे ? खाने-पीने में क्या पहले जैसी संतुष्टि मिल पाएगी ? न रात को नींद और न दिन को चैन। इन लोगों के पास पर्याप्त समय होते हुए भी करने के लिए हाथ में कुछ काम नहीं होगा। कब वह समय आएगा जब वे सेलाइन लगे हुए हाथ को पकडने के लिए बेताब होंगे ? कब वे बोतल का ढक्कन खोलकर धीरे-धीरे मुँह में दवाई डालेंगे ? कब वे पारामिता के हाथ-पैर धीरे-धीरे दबाएँगे ?

यद्यपि पारामिता पहले से ही जानती थी कि पार्थ को गहरी नींद आती है, परन्तु पार्थ इतना आलसी और निद्रालु होगा, इस बात का उसे पता नहीं था। दस मिनट बाहर घूमकर आने से या कुर्सी पर एकाध घंटा बैठ जाने से वह इस हद तक थक जाता था कि जमीन पर दरी बिछाकर कभी भी सो जाता था। समय-असमय का कुछ भी ख्याल नहीं रखता था। निद्रालु पार्थ को देखने से कभी भी ऐसा नहीं लगता था कि वह एक बीमार आदमी का परिचारक बन कर आया है। कभी-कभी तो पारामिता के मन में अनावश्यक रूप से विरक्ति के भाव जाग जाते थे। पारामिता कहती थी -

“हर समय आलसियों की तरह सोए रहते हो ?”

“क्या काम है ? बोलो। मुझे क्या फालतू बैठने में मजा आता है ? मेरा क्या मन नहीं होता कटक शहर में रहने वाले अपने दोस्तों को जाकर मिलूँ ? पर तुम जानती हो, एक बार बाहर जाने से दस रूपए का खर्च आता है, पैदल जाना संभव नहीं है। तुम्हें अगर मेरा चेहरा देखना अच्छा नहीं लगता है, तो मैं नीचे चला जाता हूँ। जरूरत पड़ने से मुझे बुला लेना।”

पारामिता को केवल पार्थ पर नहीं बल्कि अपनी माँ पर भी गुस्सा आ रहा था। पता नहीं क्यों, पत्थर-हृदय की औरत लग रही थी वह। आभासी दर्द हो या असली दर्द, दर्द तो दर्द ही होता है ! पारामिता के बदन में जोरों से दर्द हो रहा था मानो प्राण निकल जाएँगे। परन्तु माँ बिल्कुल हाथ भी नहीं लगाती थी। हरबार क्या पारामिता अपने मुँह से बोलती-

“आ, माँ, मेरे हाथ-पैर थोडे से दबा दे, दर्द हो रहा है।”

पारामिता को कष्ट होता देख सहानुभूतिवश पार्थ थोड़ा-बहुत सहला देता था। उसको सहलाते हुए देखकर भी माँ तो ऐसे निर्विकार बैठी रहती थी, जैसे यह काम उसका ही है। लोग देखने से क्या कहेंगे ? माँ नहीं रहती तो एक अलग बात होती।

असल में पारामिता नहीं चाहती थी, उसके लिए तीन आदमी व्यर्थ में अपना समय गँवाए और व्यर्थ में अपने पैसों की बरबादी करें। प्रतिदिन साठ से सत्तर रूपए का खर्च आता था, उसके अलावा स्वीपर, नर्स आदि को चाय-पानी का अलग से खर्च देना पड़ता था।

पारामिता सोच रही थी काश वह छुपकर घर भाग जाती और ये लोग ऐसे ही मूक-दर्शक बनकर बैठे रहते !

जयंती ने पारामिता को आवाज दी। पीछे मुडकर उसको देखने लगी। बड़ी ही चिन्तित दिख रही थी वह। पूछने लगी-

“आपके पास पचास रूपए हैं क्या ?”

“देख रही हूँ, कोई जरूरी काम है ?” पारामिता बोली।

“माँ, गुस्से से बस-स्टैण्ड चली गई है। यह कहकर कि वह ब्रह्मपुर जाएगी।” जयंती ने पारमिता से पचास रूपए लेकर अपने पति को दिए।

“तुम साइकिल लेकर जल्दी उनके पीछे जाओ। वह बहुत गुस्से में गई है, कहीं ऐसा न हो किसी दूसरी बस में बैठकर अन्यत्र चली जाए।”

जयंती के पति तेजी से निकल गए थे।

पारामिता ने आगे पूछा “सुबह तो सब ठीक-ठाक था, पर अचानक अभी ऐसा क्या हो गया ?”

“होगा क्या ?”

जयंती बोली, “माँ हमारे लिए हर रोज बाहर से उबली हुई स्वादहीन सब्जी लाती थी, उस सब्जी को खाने का मन नहीं कर रहा था इसलिए मैंने अपने पति से बाहर किसी होटल से आलूचाप व दूसरी सब्जी लाने के लिए कहा । आज माँ ने उनको खाने का यह सामान लाते हुए देख लिया तो माँ को गुस्सा आ गया। कहने लगी तुम लोग मुझसे छिपा-छिपाकर अच्छी-अच्छी चीजें खा रहे हो, मौज-मस्ती कर रहे हो, और मुझे पूछते तक नहीं। मैं यहाँ खाना बनाकर धूप में इधर से उधर हो रही हूँ और तुम लोगों को बाहर होटल का खाना स्वादिष्ट लग रहा है, तो फिर मेरी यहाँ क्या जरूरत है ?”

यह कहकर जयंती रोने लगी। रोते-रोते कह रही थी। “माँ की इच्छा, अगर वह जाना चाहती हैं तो जाएँ।”

टोकरी से सेव निकालकर पारामिता उनको काटने के लिए चाकू खोज रही थी, तभी देखा जयंती की माँ हडबड़ाकर रूम के अंदर घुस रही थी।

“अरे ! मौसी तो आ गई।”

“आप गए नहीं ?” जयंती ने पूछा।

“कैसे जाती ? बस एक घंटे बाद जाएगी।”

सृजन-प्रक्रिया पूर्णतया यांत्रिकी और
रसायनिकी के सूत्रों की तरह अकवितामय
पूछो, प्रसव-पीडा से छटपटाती उस प्रसूता को,
पूछो, दूरबीन से झाँक रहे खगोलशास्त्र के उन वैज्ञानिकों को,
पूछो, एपीस्टीमोलॉजी, ब्रीच, कन्ट्रेक्शन, सर्विक्स
प्लेसेन्टा को लेकर व्यस्त डॉक्टरों से उस कविता का पता।
इतना होने के बावजूद
गर्भमुक्त प्रसूता की आँखों के किसी कोने में आँसू
और होठों पर थिरकती संतृप्ति भरी हँसी।
कविता पैदा होती है रात के आकाश में
कविता उपजती है पहले सृजन
नवजात शिशु के हँसने और रोने में।
कविता क्या होती है ?
पूछो, रसायन प्रयोगशाला में काम कर रहे
अनभिज्ञ नवागत छात्रों को
पूछो, गर्भस्थ शिशु का पेट में पहले प्रहार
से भयभीत और उल्लासित माँ को
पूछो, प्लेनेटोरियम में टिकट बेचते
लड़कों से,
उस कविता का पता।
प्रज्ञा-चेतना से बाहर निकल कर
देखो, सृजन-प्रक्रिया पूर्णतया यांत्रिक
मगर सृष्टि कवितामय।

पारामिता अब तक एक यंत्र बन चुकी थी। जो कुछ भी बोला जाता, वह उसके लिए राजी हो जाती। चाहे सिजेरियन करे या नारमल, जो भी करे, वह मुक्ति चाहती थी। घर के अन्य तीन सदस्य भी अपना धीरज खो चुके थे। पापा जो कभी भी सीजेरियन के पक्ष में नहीं थे, अब कह रहे थे-

“सीजेरियन करना चाहते हैं तो कर लेने दो। इसकी बड़ी बहिन के भी तो दो-दो बच्चे सीजेरियन ही पैदा हुए हैं। इसको देर से बच्चा हो रहा है इसलिए सीजेरियन होने की ज्यादा आशंका है।”

पारामिता डॉक्टरों को पूछ-पूछकर परेशान कर देती थी, वही पुराना घिसापिटा जवाब उसे अच्छा नहीं लग रहा था। गर्भस्थ शिशु के हृदय की धड़कन 140 प्रति मिनट, रक्तचाप-सामान्य, कितना सुनती ? डॉक्टरों को भी इस बात का अहसास हो गया था कि यह मरीज बहुत ही संवेदनशील प्रकृति की है। कोई डॉक्टर गर्भ ठहरने से लेकर बच्चे की डिलेवरी तक बच्चों के विकास-क्रम व जीवन-प्रणाली के बारे में समझाते थे तो कोई डॉक्टर माँ की मानसिक अवस्था का गर्भस्थ शिशु पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस बारे में बताते थे। उनकी ये सब बातें सुनकर पारामिता क्या संतुष्ट हो जाती ? नहीं। उस दिन डॉक्टर के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, जब पारामिता उससे बोली,

“मैं सीजेरियन करना चाहती हूँ। आप जिस दिन चाहें, आपरेशन कर सकते हैं। उसके लिए मैं तैयार हूँ।”

डॉक्टर हँस दिए थे। कुछ समझ नहीं पा रहे थे।

“आपका मन अचानक कैसे परिवर्तित हो गया ? लग रहा है आप बहुत बोर हो गई हो। जब आप इतने दिनों तक प्रतीक्षा कर चुकी हो, तो और कुछ दिन सही।”

“नहीं, और बिल्कुल नहीं।”

“देखिये मैडम, मेरे हाथ में कुछ भी नहीं है। प्रोफेसर साहब जब निर्णय लेंगे, तभी किया जाएगा।”

“यह आपका कैसा नियम है ?” पापा ने पूछा था।

“सीजेरियन करने के कितने दिन पहले आप निर्णय लेते हैं।”

“देखिए, यह निर्णय लेना बड़े डॉक्टरों के हाथ में है। शायद दो-तीन दिन पहले यह तय किया जाता है,फिर आपरेशन करने की पूर्व संध्या को हम एक तालिका बना देते हैं।”

“आगे अक्षय-तृतीया है । उस दिन करने से अच्छा होगा।” पापा ने कहा था।

“प्रोफेसर साहब को बोलकर देखिए।”

यह कहकर डॉक्टर हँसते हुए चले गए थे। कुछ दिन बाद नर्सिंग होम के कार्यालय से पार्थ को कोई बुलाने आया था तथा पारामिता के लिये ब्लड की व्यवस्था करने की बात कहकर चला गया था। पार्थ का वह सारा दिन ब्लड की व्यवस्था के दौड-धूप में पार हो गया। कटक मेडिकल कॉलेज से निराश होकर दूसरे दिन सुबह पार्थ लौट आया था। पारामिता के ब्लड ग्रुप का ब्लड उपलब्ध नहीं था। पार्थ का ब्लड ग्रुप ‘ओ नेगेटिव’ तथा पापा का ‘एबी पजिटिव’ था। पार्थ अपने दो-चार दोस्तों से भी मिला था ताकि पारामिता के ब्लडग्रुप के ब्लड की व्यवस्था की जा सके।

पापा ने कहा था “तुम थोडी और कोशिश करो, नहीं तो मैं घर जाकर किसी लड़के को लेकर आता हूँ।”

लेकिन शाम को पारामिता के ग्रुप का ब्लड मिल गया था, न्यूरोसर्जरी के किसी एक डॉक्टर ने दिया था। पार्थ खुद अपना ‘ओ नेगेटिव’ खून देकर बदले में ‘ए पाजिटिव’ खून लाया था।

“खून जुगाड़ करने के लिए कह रहे है, मतलब जरूर ही सीजेरियन करेंगे।” पापा ने कहा।

“ऐसा कोई जरूरी नहीं है, ऑफिस वाले कह रहे थे पहले से ही खून मँगाकर रख लेते हैं ताकि जरूरत पडने पर काम आ सके।”

पार्थ रोज शाम को तालिका देखकर आता था, मगर पारामिता का नाम नजर नहीं आता था। न ही सीजेरियन की तालिका में, न ही सामान्य-प्रसव की तालिका में। पारामिता मुक्ति चाहती थी। कब मिलेगी उसे मुक्ति। जितने भी सगे-संबंधी, यार-दोस्त थे, प्रतीक्षा करती हुई पारामिता को देखकर जा चुके थे।

पारामिता के उदरस्थ-शिशु मुक्ति के लिए क्या ऐसे ही छटपटाता होगा ? उसकी तरह ऐसे ही व्याकुल होता होगा ? पारामिता सोच रही थी, शायद वह रास्ता ही भूल गया है। शायद वह निर्विकार, निर्विकल्प तपस्वी बनकर बैठ गया है । माँ बच्चे की प्रतीक्षा करते-करते थक गई थी। आखिरकर हारकर वह अपने घर चली गई थीं। बच्चे की प्रतीक्षा में पापा ने ढेरों जासूसी उपन्यास पढ़ लिए थे और उसी प्रतीक्षा में पार्थ के चेहरे पर दाढ़ी बाबाओं की तरह बढ़ गई थी, शर्ट मैला हो गया था, अँगुलियों के नाखून बढ़ गए थे, नाखूनों में मैल जमा हो गया था। मगर उसे देखो कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, एकदम निर्विकार व निर्विकल्प। डॉक्टर बारम्बार नापते थे गर्भस्थ शिशु के हृदय की धडकन 140 प्रति मिनट तथा रक्तचाप-सामान्य।

पापा रोटी लेने होटल गए हुए थे। पारामिता बैठकर जयंती के साथ बात कर रही थी। पार्थ अंधेरे में सिगरेट फूँक रहा था। तभी नर्स आकर बोली थी, “कल आपका ऑपरेशन है।”

“मुझे कह रही हो ?” चौंक गई थी पारामिता।

“हाँ, आज रात को सिर्फ पावरोटी और दूध लेना। दरवाजा खोलकर रखना, डूस दिया जाएगा।”

पार्थ तालिका देखने गया था, लेकिन आया हाथ में दवाई की एक पर्ची लेकर। पारामिता से पूछने लगा-

“तुम्हारे पास कितने रूपये हैं ? मुझे पाँच सौ रूपये चाहिए। जल्दी जाना पडेगा नहीं तो दवाई की दूकान बन्द पड़ जाएगी।”

पता नहीं क्यों, यह खबर सुनने के बाद, वह इतनी काँप रही थी कि रूपया भी ढंग से गिन नहीं पाई। नोटों का एक बंडल पार्थ को पकडा दिया । पारामिता, जयंती के साथ और कुछ बात नहीं कर पाई थी। दो स्लाईस से ज्यादा डबल रोटी भी नहीं खा पाई थी। ढंग से सो भी नहीं पाई थी। बिस्तर से बाथरूम, बाथरूम से बिस्तर, ऐसे पूरी रात जागते-जागते बिता दी। सुबह उसके गुप्तांग की शेविंग की गई तथा पहनने के लिए सफेद गाऊन दिया गया। फिर लाल लाइट जलते हुए डरावने कमरे के अंदर ले जाया गया। पार्थ और पापा बाहर खडे थे। पारामिता को ऐसा लग रहा था मानो चारों तरफ कुहासा छा गया हो और कुहासे के अंदर बहुत सारे लोग उसे घेरकर खड़े हैं। कुहासे के भीतर से किसी की आवाज सुनाई दी-

“तुम्हारे बेटा हुआ है, बेटी।”

धीरे-धीरे कुँहासे से पारामिता बाहर निकली तथा हाथ बढ़ाकर कुछ ढूँढने लगी। जब आँखे खोली तो देखा जयंती और उसके बेड के बीच में एक झूला आ गया है। कोई कह रहा था “तुम्हारे बेटा हुआ है।”

कितने ताज्जुब की बात है, देखो ! कल तक एक अलग दुनिया में जी रही थी पारामिता, आज उसकी दुनिया दूसरी हो गई है। इस दुनिया की रीति-नीति, मूल्य-बोध, सार्थकता उस दुनिया से बिल्कुल भिन्न है। कल तक अपने जिन स्तनों को अपना गोपनीय अंग मानकर छुपाकर रखती थी, आज उन्हीं स्तनों को सभी के सामने खोलकर स्तनपान करा रही थी वह। कौन लूटकर ले गया पारामिता की सारी शर्म-लाज को ? इस मातृत्व जगत की यह अद्भुत अनुभूति है। सब अश्लीलता इस जगत में शीलता में बदल जाती है। यहाँ सब स्वार्थपरता प्रेम के अनुरूप हो जाती हैं।

इन चंद आठ दिनों के अंतर्गत पारामिता को दुनिया में एक अलग उपलब्धि प्राप्त हो गई। उसे लग रहा था कि वह प्राप्ति कितनी तुच्छ है ! इस सामान्य-सी प्राप्ति के लिए इतना बडा संघर्ष ! अंततः चार सालों से आशा-आशंकाओं के बीच हर मासिक-धर्म के चौबीस घंटों के अंदर-अंदर कटक जाना पड़ता था, एन्डोमेटोरियम बायोप्सी की नेगेटिव रिपोर्ट वाले हारमोन-परीक्षा से जूझ रही थी पारामिता, सिर्फ इतनी तुच्छ प्राप्ति के लिए ! माँ बनने के बाद उसे लग रहा था मानो माँ बनना कोई बड़ी चीज नहीं है।

इसी प्राप्ति की आशा में मनुष्य अपना जीवन जीता है जैसे हेमा बेहेरा, जैसे वह बूढ़ा-बूढ़ी, जैसे जयंती। जिस स्नेह, प्रेम, ममता की प्राप्ति के लिए तड़प रहे थे वे लोग, कितना मूल्यहीन था वह !

इसी परिदृश्य में घुटनों के ऊपर मुँह रखकर उदास बैठी जयंती कविता बन गई थी।

“आह, रे !” पारामिता को जयंती के लिए दुःख लग रहा था। वह लड़की आज सुबह से कितनी उदास लग रही थी ! पार्थ, मम्मी-पापा घर लौटने की तैयारी में थे। पारामिता का सारा सामान बाँध दिया गया था। माँ ने सुराही जयंती को दे दी। बडे दुखी मन से जयंती ने सुराही को अपनी अलमारी में रखा। उसे लग रहा था जैसे उसके चारों तरफ से पृथ्वी विलीन होती जा रही हो।साथ ही साथ धूमिल होती जा रही थी प्रभात की चहल-पहल।

गाड़ी प्रतीक्षा में नीचे खडी थी। सब समान नीचे भेज दिया गया था। पारामिता अंतिम बार अपनी आधी जगह व बाथरूम को देखकर आ गई थी कि कहीं कोई सामान छूटा तो नहीं है। मम्मी के हाथ से बेटे को लेकर गोद में जकड़ लिया था जयंती ने। उसको चुंबन देते हुए रोने लगी।

“जा रहे हो ?”

इस समय पारामिता को ऐसा लग रहा था कि अगर कोई देवदूत प्रकट होकर उसे कोई मनचाहा वरदान दे, तो वह सिर्फ एक ही वर माँगेगी और वह वर होगा जयंती के माँ बनने का। एकबार माँ बनकर वह भी उन कवितामय क्षणों का अनुभव करे, जो वास्तव में कितने अर्थहीन हैं !