अमृत और विष / अमृतलाल नागर / पृष्ठ 1
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एकऐन कानों के पास अलार्म इतनी जोर से घनघना उठी कि कानों ही के क्या, मेरे अन्तर तक के पर्दे दर पर्दे हिल उठे। आँखें खोलते ही माया का हँसता मुखड़ा देखा, बोली :
‘‘उठिये शिरीमान्, उमर के साठ बज गये।’’
इस मजाक और मजाक करने वाली की रसीली चितवन पर मैं रीझ गया। शरीर में जवानी की सी फुर्ती दौड़ गयी, उठकर बैठ गया कहा:
‘‘यह क्यों नहीं कहतीं साफ-साफ कि सठियाये बुड्ढे, हट, सेज से उतर।’’
माया झेंप गयी:
‘‘जाओ, बड़े वो हो।’’ फिर आप ही नयनों का रसवाण छोड़कर बोली : ‘‘साठा तो पाठा होता है।’’
मन अपनी और पत्नी की आयु भूलकर जवान हो गया। माया बोली:
‘‘अब जल्दी से तैयार हुइ जाओ। उमेशो कहत रहे कि भाभी, आज तुम्हाए-के-हियाँ बड़ी भीड़ आवैगी।’’
‘‘अँहँ, तुम क्या यह समझती हो, जिस भीड़ की बात उमेशो ने तुमसे कही है, वह लेखक अरविन्दशंकर को बधाई देने के लिए आयेगी ?’’
‘‘तो और किसके लिए आवैगी।’’
‘‘वो सरकारी दरबारी कांगरेसी भेड़ों की भीड़ होगी, जिन्हें नगर कांग्रेसाध्यक्ष महोदय मेरी खुशामद में हाँककर लायेंगे। उन्हें गलतफहमी है कि मैं पंडित जवाहरलालजी का दुलारा हूँ। इस जमीन वाली बात याद करो। अब समझीं ? और ये जो परसों मेरा षष्टिपूर्ति समारोह ये लोग धूमधाम से मनाने जा रहे हैं, उमेशो के द्वारा जिसके लिए मुझे इतना-इतना घेरा गया है-’’
‘‘अच्छा-अच्छा, अब आज के शुभ दिन अपने को इतना तपाओ न भाई। आज हमैं तुमरा हँसता चेहरा देखन को जी चाहत है।’’
जीवन-संगिनी जीवन-सर्वस्व पर अपना जादू मारकर चली गयी। मन मैदानी नदी-सा हल्के बहाव में उतर तो आया, पर दार्शनिक बन गया। इकसठवाँ जन्मदिवस भी उसके लिए मनोवैज्ञानिक आसन बिछाने लगा।...सौ वर्ष इस दुनिया में बिता दिये-अनुभवों का जुलूस दिल्ली में निकलने वाले गणतंत्र दिवस के रंगारंग दृश्यों की अविराम गति से चल पड़ा। एक विशाल कनवेस पर एक साथ अनगिनत चित्र उभर पड़े, वर्ष-ऋतुएँ गलियाँ-सड़क, पहाड़ कश्मीर का गुलमर्ग, सोवियत यूनियन के देश, जेल, चरखा, स्वयंसेविका-बाजी, कलकत्ता, कोल्हापुर, मद्रास, बम्बई, घर, माया-बच्चे, माँ-बाप-बाबा, नाते-गोतिये, दोस्त-अहबाब, साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ-विविध अनुभवों भरे सारे जीवन ने एकाएक धावा बोलकर मेरे ध्यान का साम्राज्य जीत लिया। मन भर उठा। आदमी जनम से लेकर मरन के दिन तक इतना सारा दुख-सुख भोगता है, हजारों चेहरे, रूप, रंग, वातावरण देखता है, सुनता है, सहता है- आखिर किसलिए ? व्यक्ति के जीवन की ढेर सारी उपलब्धियाँ, जिन्हें प्राप्त करने के लिए वह जान लड़ाता है, अन्त में निकम्मी होकर नष्ट हो जाती हैं। उनमें कितनी ही उपयोगी भी होती हैं।...सोचता हूँ कि अपनी जीवन कहानी लिख डालूँ। जनम भर उपन्यास और कहानियों में दूसरों के देखे-सुने और अपने गढ़े हुए किस्से लिखे, एक अपना भी लिखकर रख जाऊँ !....लेकिन अभी तो एक उपन्यास लिखने का नैतिक भार भी पिछले दो वर्षों से मेरे ऊपर लदा है न, पहले उसे तो सिर से उतार दूँ। इधर मैं कुछ लिख ही नहीं पा रहा; मन पुरानी नदी के पाट-सा सूखा पड़ा है। सोचता हूँ, अपनी कलम को स्फूर्ति देने के लिए आज से कुछ लिखना शुरू कर ही दूँ। आत्म-कथा के संक्षिप्त नोट्स लिखते-लिखते सम्भव है, मेरी सरस्वती फिर से जाग उठें और उपन्यास भी आरम्भ हो जाए। बहरहाल आज से कुछ न कुछ लिखूँगा अवश्य-आत्मकथा, डायरी, उपन्यास। 8 मई को जन्म लेने वाले रवीन्द्रनाथ ठाकुर कितने गजब के मेहनती थे, सदा कुछ न कुछ लिखते ही रहते थे। आज उनकी जन्मशती का पुण्य दिन है। उसके उपलक्ष्य में आज सारे देश में उत्सव किये जायेंगे। मेरा षष्टिपूर्ति समारोह इसीलिए दो दिन बाद मनाया जा रहा है। उनके श्रीमन्त पुरखों का इतिहास एक प्रदेश के इतिहास का गौरव है...लेकिन मेरे पुरखों का इतिहास भी रोचक है, सुन्दर है, लिखने लायक है....। दोमलिका विक्टोरिया का राज था। उन्नीसवीं सदी बूढ़ी हो चली थी; बूढ़ा भारत देश गुलामी की नयी और कठिन बेड़ियों से जकड़कर भी जवान हो रहा था, एक नयी राह पर दौड़ रहा था। ‘लोहे की सड़कों’ का जाल धीरे-धीरे फैलता ही जा रहा था, उन पर ‘धुआँ-गाड़ियाँ’ भी माल-मुसाफिर लेकर दौड़ने लगी थीं। मगर चौपहियों, ऊँटगाड़ियों, शिकरमों और गोड़ा-गाड़ियों के दिन तब भी दोपहर की धूप से निखर रहे थे। मेरठ वाले गंगाराम की गाड़ियाँ आगरे तक दौड़ती थीं। आगरे के सोजीराम बस्तीराम का काम भी जोरों पर था।
फकीर मुहम्मद राधेलाल का काम भी बहुत ऊँचा जा रहा था। उन्होंने कलक्टर की सलाह से घोड़ों की डाकगाड़ियाँ और शिकरमें चलाने का नया बन्दोबस्त भी अपने पुराने काम के अलावा आरम्भ किया था। आगरा से मथुरा और मथुरा से कोसी तक डाक लाने-ले जाने की व्यवस्था की। एक बँगला किराये पर लिया। टिकट बाँटने, हिसाब-किताब रखने और तार पाकर सीट बुक करने के काम पर एक मेम को नौकर रखा। उसे चार सौ रुपया महीना दिया। पटने से एक अंग्रेजी पढ़ा-लिखा किरानी बंगाली बाबू आया। नौकर-चाकर-साईस सबके लिए वर्दी-बिल्ले बने। लाला राधेलाल ने इस नये धन्धे को फकीर मुहम्मद राधेलाल एण्ड कंपनी नाम दिया। अंग्रेजी ठाट-बाट से दफ्तर सजाया। अंग्रेजों से चालीस रुपया टिकट की दर बाँधी। मेम साहब का दफ्तर, यात्रियों को आरामगाह और अपना दफ्तर वाला कमरा इस ठाठ से सजाया कि देखकर लगता था, मानो आगरे में लन्दन का एक टुकड़ा लाकर रख दिया हो।
शेख फकीर मुहम्मद अधिकतर अपने गाँव ही में रहते थे। सूफी तबीयत के थे, साधु-संन्यासी और शाह-फकीर दोनों ही प्रकार के सन्त पुरुष उनके यहाँ आते थे। दिन-रात आध्यात्मिक चर्चे चला करते थे। दान-पुण्य करने में उनका हाथ खुला था, हिसाब-किताब देखने-सम्हालने चर्चे चला करते थे। दान-पुण्य करने में उनका हाथ खुला था, हिसाब-किताब समझाते और सलाह-सूत लेते थे। अंग्रेजी ठाठ का दफ्तर सजाने पर लालाजी ने एक जश्न मनाने का आयोजन किया। उसके लिए वे ‘बड़े भैया’ को आप जाकर गाँव से लाये। शेखजी ने नया दफ्तर देखा-भाला, सन्तोष प्रकट किया। लालाजी ने फोटोग्राफर को बुलवाकर उनकी और अपनी तस्वीर उतरवायी, एक फोटो पूरे स्टाफ के साथ भी खिंची। उन दिनों इसका चलन नया-नया ही चला था। अंग्रेज कलक्टर तथा हाकिम-हुक्कामों में और सेठ-साहूकारों में लाला राधेलाल की बड़ी आवभगत थी, इसलिए इस अवसर पर उन्होंने अंग्रेजों को एक शानदार दावत देने का आयोजन भी किया था। बहुत जोर देने पर भी वे अपने बड़े भैया को उस अवसर पर उपस्थित रहने के लिए राजी न कर सके। शेखजी बोले-
‘‘यह सिर अब दिन-रात खुदा की बादत में ही झुकने का आदी हो गया है। मुझे इस जंजाल में मत फँसा।
’’ नये दफ्तर वाले बँगले ही में लालाजी ने शेखजी के रहने का प्रबन्ध भी किया था; पर वे वहाँ न रहे, कहने लगे-
‘‘यहां मेरा जी नई लगेगा। मैं गद्दी पे ही उतरूँगा। वाँ अपने हिन्दुस्तानी भाइयों का साथ है; सन्तों-फकीरों को भी यहाँ आते हुए अच्छा न लगेगा और हर घड़ी इंग्लिशों की सूरतें देखने से भी बचूँगा। सवारी मँगा दे। सूरज ढल रया है। मेरी नमाज का बखत हो रया हैगा।’’
उस अहाते में, जहाँ चौपहिये किराँचियों का कारबार चलता था, एक इमारत भी बनी थी ! उसके नीचे के खन में द्वारे के अगल-बगल दो बड़े-बड़े दालान थे, एक में आने वाले गाड़ीवान, ऊँटवान रैनबसेरा किया करते थे और दूसरे में एक धेला फी रात की दर से भाड़ा देने वाले यात्री। अन्दर एक टके से दो आने रोज तक के किराये वाली बारह कोठरियाँ थीं और इमारत के ऊपर वाले भाग में शेखजी ठहरा करते थे। इस बार भी वहीं आकर दम लिया।
पिछले सोलह बरसों से गाड़ियों के पहियों से घिसते-पिसते अहाते के अन्दर वाले बड़े मैदान की मिट्टी भुरभुरी हो गयी हैं; ऊँटों, बैलों और घोड़ों के खुर मिट्टी में धँस-धँस जाते हैं; अभी आयी-गयी गाड़ियों की लकीरों से रेखा-गणित के अजब-गजब नक्शे बने हुए हैं बायीं ओर कोने में तीन-चार ऊँट खूँटों से लम्बी डोरों में बँधे खड़े हैं। उसी ओर दूसरे छोर पर तबेलों में कुछ घोड़े और बैल भी नजर आ रहे हैं। दाहिनी ओर इमारत है। साँझ के बढ़ते धुँधलके में दस तरह के मानुस चेहरे वहाँ दिखाई दे रहे हैं। यहाँ के लगे-बँधे नाऊ-कहारों के चिरपरिचित चेहरे भी दिखलाई पड़ रहे हैं। अहाते के फाटक में फिटन के प्रवेश करते ही शेखजी का चेहरा खिल उठा, आँखों में जोत आ गयी। डाक स्टेशन यानी अपनी नयी कम्पनी के साथ ही साथ आये हुए बड़े मुनीम गुपालदास से कहा-
‘‘हमारा तो ठिकाना येई हैगा भैया। याँ अपनापन तो लगे है। वाँपे वो सब लालम्हों वाले फिरंगी आवें जाँए हैं। और एक वो राँड़ की गोरे चामवाली सुफेद हथनी पाली है राधे ने। वो बार-बार सलाम करे है तो मैं शरम के मारे पानी-पानी हो जाऊँ हूँ। इस कौम के अगाड़ी झुक के सलाम करना ही सीखा था, और वो भी नादिर-शादिर ही। सदा बचताई रया इस कौम से। मैंने तो कह दीना राधे से कि तेराई जिगरा है भैया, तू निभा सके है। मैं तो अपनी गद्दी पे ही ठहरूँगा।’’
फिटन चबूतरे के पास आकर खड़ी हो गयी थी। नौकर-चौकीदार सब बड़े मालिक को देखते ही गाड़ी का दरवाजा खोलकर सलामें झुकाने की उतावली में बड़े मालिक और मुनीमजी की बात पूरी हो जाने तक खड़े रहे। शेखजी ने बात पूरी की और इन लोगों की तरफ,
‘कहो भाई, सब खैरसल्लाह तो है’ कहते हुए अपनी छड़ी और डग सम्हाले।
नये कारबार से, विशेष करके उस चार-सौ रुपये माहवार की सफेद हथनी से मन ही मन मुनीमजी को बड़ी-बड़ी शिकायतें थीं। दोनों मालिक तो उनका अदब करते थे; मगर वो कल की आयी मेम सदा हुकुम ही चलाती थी। मुनीम गुपालदास की शान में बट्टा लगता था। नयी कम्पनी के सारे बहीखाते विलायती थे। अस्सी रुपये महीना और क्वार्टर मुफ्त देकर पटना से एक बंगाली बाबू को बुलवाया गया था, उससे हर साल पाँच रुपये महीने की तरक्की का करार भी हुआ था। मुनीमजी को यह सब देख-देखकर खौलन होती थी, सोचते कि यहाँ तो सोलह बरस नौकरी करते हो गये और अभी तक पचपन रुपल्ली पर ही पड़े हैं। जान होमकर अपना काम समझकर दिन-रात इनका काम सम्हालते हैं। कभी एक कौड़ी का भी फरक नहीं डाला। उसका इनाम ये मिला कि अंग्रेजी के आगे अब उनकी कोई कदर ही नहीं रही। उनके मन ही मन में रह-रहकर बड़ा उबाल आता था। शेखजी फारिग होकर नमाजे-मगरिब अदा करने के बाद फुरसत से बैठे, तो मुनीमजी उनकी सेवा में पहुँच गये। घुमा-फिराकर बात छेड़ी, कहने लगे:
‘‘छोटे भैयाजी ने विलायती कारबार चलाया तो है...देखिए ! बँगले का भाड़ा, बैरा, अर्दली, धोबी, नाई, बंगाली बाबू और वो मेमसाब, सब मिला के सात सौ बयालिस रूपौं का खर्चा तो खाली दफ्तर का बँध गया है। घोड़े, गाड़ी, सहीस, नौकर, बग्घियों की टूट-फूट, मरम्मत के लिए मिस्त्री दाना-घास-रातिब वगैरे से कोई मतलब ही नहीं। छोटे भैयाजी ने मेरे अगाड़ी कम्पनी की आय-बै का नकमा जो रक्खा था, सो तो मेरी समझ में आया था, पर अब का हाल कुछ भी समझ के नई आवे हैं।’’
शेख फकीर मुहम्मद ने एक हाथ से तस्वीह के दाने और दूसरे हाथ से अपनी दाढ़ी पर कंघी करते हुए गुपालदास पर पैनी नजर डाली और पूछा:
‘‘तुम्हारी समझ में क्या खराबी हैगी ? क्या वजह है कि राधे का तखमीना और नए कारबार का खयाल तो तुम्हें उम्दा जँचा था और अब उसमें शिकायतें पैदा हो गयीं ?’’
मुनीमजी सावधान हो गये, कहने लगे-
‘‘छोटे भैयाजी ने मुझसे कही थी कि गुपालदास, ये धंधा फसल के आमों जैसा है। आठ-दस बरस जब तक यहाँ पे रेलगाड़ी नई आवैगी, तभी तलक ये अपना पूरा कारोबार है, अब लग एक ही हाथ से दुह रये थे, अब दोनों हाथों से दुहेंगे; दस बर्स में डबल म्हैनत से बीस वर्षों की कमाई करेंगे। मैंने भी बात समझ के कही कि ठीक है। पर अब ये बात हैगी भैयाजी, कि बोई आपकी केहनावत कि मेम निगोड़ी से मुझे भी डर लगी हैगा।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘औअल तो बड़ी घमण्डन और चरबाँक है। सारा दिन जब मुसाफिरों से फुरसत पावे है, तो सीधे जाके छोटे भैयाजी के पास ही बैठ जावे है। बिलायती लिखत-पढ़त है-हर तरह सब कुछ उसी के काबू में है।’’
‘‘तुम समझते हो कि राधे की नजर में उसकी वजह से कोई ऐब आ रया हैगा ? मैं साफ-साफ सुनना चाहूँ हूँ।’’ शेखजी कहते-कहते तकिये से उठकर सीधे बैठ गये।
‘‘कृश्ना कृश्ना !’’ मुनीमजी ने दोनों हाथों से कान पकड़कर कहा-
‘‘छोटे भैयाजी का मन तो स्यामा गौ के दूध जैसा हैगा, सो भी आँखों के अगाड़ी का कढ़ा हुआ। वे मेरे मालक हैं, झूठ बोल के मुझे नरक में नई जाना है।’’
शेखजी शान्त सन्तुष्ट मुद्रा में कहने लगे-
‘‘गुपालदास, उम्र में तुम मेरे राधे से बड़े जरूर हो और अपने फन के उस्ताद भी हो। मगर बुरा न मानना, मेरे राधे का दिमाग बहुत ऊँची सतह पर दौड़े हैगा। तुम उस मेम पर चार सौ रुपये महीने का खर्च देखो हो। मगर आज मैं भी करीब-करीब सारा दिन राधे के दफ्तर ही में बैठा रहा, और जैसा कि तुम कहो हो, वह मेम भी ज्यादेतर वईं पै बैठी रही। राधे उसे अपने पास बिठला के जो काम करावे हैगा, वो इसलिए कि नजरों ही नजरों में उसके काम का तरीका भाँपे हैगा। विलायती व्यौपाराना तरीकों को समझे हैगा। चार सौ में ये तजर्वा हासिल करना कुछ भौंत म्हैंगा नई हैं। तुम मेरी आज की बात याद रखना मुनीमजी, बरस छै महीने ही में राधे उसे हवा कर देगा याँ से।’’
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