अमृत निवास / रिफ़अत / शम्भु यादव
मेरी बच्ची बिलकीस ने लिखा था कि कुन्दन स्ट्रीट के 'जगदीश निवास' का क़ब्ज़ा उन्हें मिल गया है। मकान काफी बड़ा, मगर पुराना है। आप अपनी पहली $फुरसत में यहाँ आइए और अपने शुभ करकमलों से आबे-जम-जम (अमृत) के छींटे असारे में दीजिएगा।
कुन्दन स्ट्रीट, मैंने सोचा, कुन्दन स्ट्रीट में कन्धे-से-कन्धे मिलाये जगदीश निवास और अमृत निवास सिर उठाये खड़े हैं। अब जगदीश निवास मेरी बेटी के क्लेम में आ गया है...वह क्या जाने उसका बाप तो मुल्क के बाहर रहकर भी उसी गली और निवास में बसता रहा है। अमृत निवास! मेरी रूह का वह शोला, जो ज़िन्दगी के इतने बरस बीत चुकने पर भी सर्द नहीं हो पाया। मेरी बायीं आँख में स्याह मोतिया उतर आया है, मगर मुझे तो यों महसूस होता है, जैसे मैं आज भी जगदीश निवास की बाहरी खिडक़ी में खड़ा देख रहा हूँ। अमृत निवास की दीवार में लगे हुए स्याह व मूँगिया रोगनी बड़े-बड़े प्यालों में धनिया, पोदीना, तुलसी और लाला के फूल लहरा रहे हैं। सफेद साड़ी में लिपटा हुआ एक शरीर धीरे-धीरे हरकत करता हुआ उनकी ओर बढ़ता है।
यह अमृता है।
जिसका नाम मकान के सुर्ख माथे पर गहरे नीले रोगन से हिंदी और अँग्रे$जी में लिखा हुआ है-
-श्रीमती अमृता देवी।
और मकान के दाख़िल फाटक पर स$फेद सतून में खुदनी करके सुर्ख अक्षरों में लिखा गया है-
'अमृत निवास, 1925'।
और यही सन् मेरी ज़िन्दगी में महत्त्व रखता है। हम कुछ लडक़े मेरे कॉलेज के होस्टल में नहीं रहना चाहते थे। इसलिए हमने अपना अलग प्रबन्ध लाला जगदीशराम के छोटे लडक़े प्राण के सौजन्य से उन ही के जगदीश निवास में बाहरी तीन कमरों में कर रखा था। यह सितम्बर, 1925 की बात है। (इससे पूर्व जगदीश निवास के साथ एक मकान जरूर था मगर वह अमृत निवास न था) हाँ, तो सितम्बर में कॉलेज खुलने पर जब मैंने कुन्दन स्ट्रीट का रुख किया, तो उसे कुछ बदला-बदला-सा पाया। 'अमृत निवास' मैंने इधर-उधर झाँककर देखा। मेरी तीन माह की अनुपस्थिति में यह इतना बड़ा बन गया था...प्राण ने स्पष्टीकरण किया, “सेठ गणपत की बड़ी लडक़ी जो नारोवाल ब्याही गयी थी, गये बरस विधवा हो गयी थी। यह मकान उसके दहेज का था। अब इसमें वह एक आश्रम बनाना चाहती थी और छोटी बच्चियों की पाठशाला भी।” उसने बात जारी रखते हुए कहा-”सलीम यार! अमृता देवी भी गज़ब की औरत है। खरबूजे, तरबूत, कद्दू के बीज धुलवाती और उनसे मगज निकलवा कर बेचती है और तो और पुरानी धोतियों की रंगीन किनारियों के धागे निकलवाकर उनसे क्रोशिये के ऐसे-ऐसे थैले बनवाती है कि हद हो गयी। अब इस आश्रम में रोज-ब-रोज उजरत पर काम करने वाली औरतों की वृद्धि-ही-वृद्धि है। आश्रम अच्छा-खास चल निकलेगा।”
मगर उस समय मैंने प्राण की इन बातों का कोई नोटिस न लिया। भई, होगी कोई विधवा! बहुत कंजूस। जो बीजों से मगज निकलवाकर बेचती और पुरानी धोतियों की रंगीन किनारियों से धागे निकालती है। मुझे क्या, मैं प्राण से छुट्टियों में बिताये हुए समय की बातें करने लगा।
फिर शायद उसी सप्ताह की बात है। अभी सूरज उभरा ही था कि सफेद साड़ी पहने एक सन्तुलित शरीर धीरे-धीरे चलता रोगनी प्यालों तक आया...पीतल की चमकती गड़वी और बाल्टी दीवार पर रखी। पहले तो हाथ बाँधकर सूर्य देवता की ओर मुख करके कुछ प्रार्थना की फिर बाल्टी का पानी सारे रोगनी प्यालों में यों डाला जैसे कोई नन्हें-नन्हें पौधों को पानी देता हो। सूर्य बुलन्द होता गया और समय के साथ डूब गया। अगले दिन ऐन उसी समय फिर वह स$फेद साड़ी, बाल्टी और गड़वी लेकर प्रकट हुई। प्रार्थना की। पानी दिया और मेरे दिल में एक अजीब-सी उत्सुकता बढ़ती हुई छोडक़र $गायब हो गयी।
अमृता देवी विधवा है। उसने आश्रम खोलकर अपनी दिलचस्पी का सामान पैदा किया है। मुझे क्या! मुझे तो अपनी दिलचस्पी का सामान देखना है। आश्रम में, अगर ऐसे-ऐसे पवित्र मन्दिरों में शरीर हैं, जिनके सामने फौरन माथा टेक देने को जी चाहे, तो मेरे लिए यह आश्रम नियामत है। युग-युग जियो, अमृता देवी! तुमने आश्रम में कैसी-कैसी सुन्दर प्रतिमाएँ सजा रखी हैं...काश! मैं उसे छूकर देखता...मेरे मन में अनजानी भावना ने धीरे से सिर उठाकर कहा। मेरे कदम अमृत निवास के पास पहुँचते ही सुस्त पड़ जाते। मैं लोहे के स्याह जंगले से झाँककर सामने आँगन में नज़र डालता। आँगन और बरामदे में प्राय: नन्ही बच्चियाँ तख्तियाँ धोती और पहाड़े याद करती नज़र आतीं। कभी समय कुसमय गली में मजदूरी पर काम करने वाली औरतों से सामना हो जाता, मगर अब हर लडक़ी, हर औरत को देखते ही मुझे अमृत निवास के कोठे पर स्याह प्यालों की ओट से एक मर्मरी मूर्ति पुकारकर कहती-देखो, यह बात ठीक नहीं, तुम मुझे छोडक़र अब दूसरी को देखने लगे, मुझे तुमसे यह आशा न थी। और मैं यों घबरा जाता, मानो चोरी करते पकड़ा गया हूँ।
अमृत निवास मेरे लिए वह मन्दिर था, जिसमें वह मूर्ति स्थापित थी, जिसका मैं पुजारी था, जिस मैं बहुत समीप जाकर छूना चाहता था। मेरी चंचल भावना दिन-ब-दिन आवारा होती चली गयी और अब तो वह शरीर सामने आते ही अदृश्य शब्दों में मुझसे कहता-”तुम कायर हो, सलीम शेख! ज़रा करीब आओ। मुझे छू कर देखो। मुझे हाथ लगाओ। मैं तुम्हारी उत्सुकता की सारी गिरहें खोल दूँगी। तुम पर ज़िन्दगी के सारे रहस्य प्रकट कर दूँगी। जगदीश निवास और अमृत निवास का $फासला कितना है, सिर्फ एक कदम...इस खिडक़ी से उस खिडक़ी तक सिर्फ दो हाथ का, मगर तुम कायर हो, सलीम शेख!
और मैं स्वीकार करता-वाकई, मैं कायर हूँ, मैं जो शेक्सपियर, मिटन और गाल्सवर्दी पढ़ता हूँ-और रात को मँडवे में मैं जाकर राम-लीला और सस्ते-सस्ते रोमानी थियेटर देखता हूँ। मैं दो सभ्यताओं के बीच में झूल रहा हूँ। वह सभ्यता प्रेम को अटल सत्य स्वीकार करती है, और सस्ते रोमान हमें बताते हैं कि हमारी लडक़ी शादी से पहले छिप-छिपाकर प्रेम करती है, तो महज इसलिए कि वह एक मर्द के प्रेम में ज़बर्दस्त तौर पर गिर$फ्तार हो जाए, एक मर्द को छूने, पाने और हासिल करने की सारी इच्छाएँ तेज-से-तेज भडक़ उठें, ताकि शादी के बाद जब वह मर्द को पति के रूप में हासिल कर ले तो अपना सारा प्रेम, सारी सेवा, सारी भावनाएँ उस पर न्यौछावर कर दे। यहाँ आकर मेरा इंगलिश साहित्य दब जाता और मँडवे के सिसकते हुए अरमान जाग पड़ते।
कॉलेज से चलते हुए प्राण ने ज़रा देर को ठहरा लिया था। माली से सूर्यमुखी, गुलाब और मोतिये के पौधे लिये। उन्हें बहुत-सी गीली मिट्टी में दबाकर, अखबार में लपेटकर आधे मेरी साइकिल पर रखे और आधे अपनी साइकिल पर, और बोला-सलीम यार, अमृता दीदी कितनी बार भाभीजी से आकर कह चुकी हैं पौधों के लिए। मुझे याद नहीं रहता था। आज सुबह चलते-चलते उन्होंने फिर कहा था। देखो, माली ने दो रुपयों में कितने ज्यादा दे दिये हैं। बेचारी अमृता देवी। काश! उनका कोई बच्चा होता। मगर आश्रम बड़ी मेहनत से चला रही हैं।
अमृता दीदी! हूँ! कंजूस विधवा! जिसके आश्रम में मेरी मूर्ति स्थापित है, जिसे मेरी आत्मा ने स्वीकार किया है। यह पौधे अमृत निवास में लगाये जाएँगे और शायद फिर वह मेरी सफेद मूर्ति इन्हें भी पानी दे...यह पौधे बढक़र फैल जाएँगे...और फूल खिलेंगे...वह मार्च की खुशगवार सुनहरी दोपहर थी।
अमृत निवास का मजबूत जँगला पार करके हम अहाते में पहुँच गये। साइकिलों को बरामदे की दीवार के पास खड़ा किया। प्राण ने बरामदे में पहुँचकर पुकारा-अमृता दीदी। एक नन्हीं बच्ची मिट्टी की दवात में कलम हिलाती हुई निकली। जाओ, अमृता दीदी को बाहर बुला लाओ, प्राण ने कहा।
बरामदे का भीतरी दरवा$जा ज़रा आवाज़ से खुला। मैंने देखा-स$फेद साड़ीवाली मूर्ति एक पूर्ण औरत के रूप में चली आ रही थी। उसने नमस्ते के लिए हाथ बाँधे और पौधों को देखने बरामदे से नीचे उतर आयी...मैं अभी तक हैरान खड़ा था। उसने उसी तरह प्रार्थनाज़ के अन्दाज़ में हाथ जोडक़र मुझे नमस्ते कही। उसके होंठों पर बड़ी प्यारी मुस्कराहट थी।
“यह अमृता दीदी है।”
अमृता दीदी! वह कंजूस विधवा...इतनी कम उम्र-इतनी पवित्र विधवा...मैंने जल्दी से अपनी मूर्ति के सामने हाथ बाँध दिये। वह देवियों जैसे वकार से मुस्करायी और बोली-”बड़ा कष्ट हुआ तुम्हें, प्राण वीर..और तुमसे अपने दोस्त को भी...”
“दोस्त भी अपना है, दीदी! कष्ट की क्या बात है? लो मैं लगाये भी देता हूँ।” वह झुककर खुदी हुई मिट्टी को देखते हुए बोला-”तुम भी अपने पौधे इधर ले आओ, सलीम यार...”
सलीम...मूर्ति के पाँव जैसे धरती में बहुत नीचे पाताल में उतर गये, “तुम मुसलमान हो?” मूर्ति ने पूछा।
मैं मुसलमान हूँ तो क्या हुआ...अदृश्य शब्द मेरी आँखों की चमक से निकले, मैं माला तो तुम्हारी ही जपता हूँ, अमृता। तुम मेरे लिए आबेहयात हो। सिर्फ शब्द का उलटफेर है, अमृता आबेहयात ही तो है। और सलीम तुम्हारे आश्रम में चुपके-चुपके चले आने वाला दमयन्ती का प्रेमी राजा नल भी तो हो सकता है। प्रेम करने वालों का जीवन प्रेम होता है। उसमें कोई हिन्दू, कोई मुसलमान नहीं होता, अमृता।
देवी फिर मुस्करायी, जैसे वह मेरी बात समझ गयी। उसने मेरे हाथों से पौधे लिए, उसके जिस्म में हलकी-हलकी कँपकँपी थी...
दूसरी सुबह उसने गड़वी का पानी मेरी ओर धार बाँधकर गिरा दिया। हवा के आवारा झोंके पानी के बहुत से कतरे मेरे चेहरे पर बिखेर गये। अब हममें कोई कायर न था। कोई हिन्दू, कोई मुसलमान न था। अब सूर्यमुखी में फूल खिल उठे थे।
बी.ए. की परीक्षा देकर प्राण के साथ अमृत निवास गया। अमृत मेरे लगाये हुए पौधों को पानी दे रही थी, दो बरस पहले लगाये हुए पौधे ऊँचे हो चुके थे।
“तुम पास हो जाओगे, सलीम...भगवान दया करेंगे।” उसकी आँखों में उदासी बिखर गयी।
“दीदी, सलीम तो अब सीधा अफ्रीका जा रहा है। बस, इसी सितम्बर में शादी है न!” प्राण करीब से बोला।
“परमात्मा जीवन सुखी रखे। तुमने विवाह की बात मेरे सामने क्यों कर दी, प्राण वीर?...भगवान इन पर दया करे...मेरी परछाई से दूर रखे...” अमृता की स्याह आँखों में आँसू उमड़े और गालों पर बिखर गये।
उसने सिर उठाकर मुझे देखा। उन आँखों में आँसू, प्रेम और दुख था और फिर वह एकदम से बरामदा पार कर कमरे में चली गयी और जीवन भर शोला मेरे सीने में लपकता रहा।
विवाह के कुछ दिन बाद मेरी चंचल भावना ने मेरे दिल के करीब आकर पूछा-तुम इतने उदास हो तो अपनी गुडिय़ा जैसी बीवी को अपनी मूर्ति का रूप क्यों नहीं देते?
मैंने अपनी दादी-अम्मा का मोटा-सफेद दुपट्टा उठाया। आँगन में बैठी जुबेदा के सिर पर से टाट का पीला दुपट्टा उतारकर उसे सफेद दुपट्टा ओढ़ाते हुए कहा-”ज़रा देखो। अरे, तुम तो सचमुच एक देवी का रूप...”
“यह क्या बेवकूफी है, सलीम! मैं जानती हूँ, तुम चौदह जमात पढक़र अँग्रेज़ बन गये हो, मगर यह मनहूस हरकत। मेरी बहू के सिर पर अल्लाह न करे स$फेद आँचल नज़र आये।” अम्मा ने बढक़र सफेद दुपट्टा उठाकर रस्सी पर फेंक दिया। मैं कमरे में आकर ख़याल-ही-ख़याल में अमृत निवास की मूर्ति के सामने झुक गया।
देवी मुस्करायी। तुम अकेले नहीं हो। मेरे आँगन के पौधे इतने ऊँचे हो गये हैं, प्राण अकसर मुझसे तुम्हारा ज़िक्र करता है। और मोतिये की $खुशबू तुम्हारे पैगाम पहुँचाती है...जब तक अमृत निवास में मैं और तुम्हारी एक भी निशानी है, तुम अकेले नहीं हो।
और फिर मैं जुबेदा को लेकर अफ्रीका चला गया। हम अपने मुल्क से दूर थे, अपने समाज से अलग, प्राण के पत्र प्राय: मिलते...अमृत निवास की मूर्ति का जिक्र होता। अफ्रीका की कमाई से मैंने अपने शहर गुज़राँवाला में बड़ा शानदार मकान बनवाया था। उसका नक्शा अमृत निवास की तरह था। उस पर वैसे ही स्याह और मूँगिया रोगनी प्याले लगवाये थे। और मैंने एक-एक प्याले के करीब जाकर कहा था, देखो गवाह रहना, यह सब कुछ मेरी उसी चंचल भावना की शरारत है जो इतने बच्चों का बाप बन जाने पर भी मेरे सीने में मचलती रहती है...
फिर मेरे बच्चे जवान होकर अपनी माँ के साथ गुज़राँवाला ही में अपने मकान में रहने लगे। अफ्रीका में मैं अकेला रह गया। और चार बरस पहले मैं अफ्रीका से लौटा तो मेरे जवान बच्चों ने 'सलीम मंज़िल' का हुलिया बदल दिया था।
और अब कुछ दिन हुए हज से वापस आया हूँ। मेरे दामाद और बेटी ने मुझे निमन्त्रण दिया है कि मैं उनके मकान में अपने हाथों से आबे जमजम (अमृत) के छींटे दूँ और मैं स्यालकोट आया हूँ।
कुन्दन स्ट्रीट काफी बदल चुकी है। यहाँ हर किस्म के लोग बसते हैं। जगदीश निवास के शुरू में उजड़ा-उजड़ा अमृत निवास भी है। रात के खाने पर मुहल्ले के अकसर बु$जुर्गों से मेरा परिचय हो चुका है। मैं मुहल्ला देखने के लिए जगदीश निवास से (जो अब मेरे दामाद ने बैत-उल-मजीद में बदल लिया है) बाहर निकलता हूँ, और अपनी लाठी के सहारे चलता आता हूँ। मजबूत-मजबूत जँगला टूट चुका है उसके सतून जर्जर-से खड़े हैं, आँगन में, जहाँ मेरे लगाये हुए पौधे तनावर पेड़ बन गये थे, वहाँ कुछ भैंसे बँधी हुई हैं। गोबर को मुर्गियाँ कुरेद रही थी। मकान का सारा रोगन उखड़ा चुका था। कहीं-कहीं गहरे नीले रोगन में मिटा-मिटा-सा हिन्दसा नज़र आ रहा था, मेरी चंचल भावना की तरह।
“आइए! आइए! हाजी साहब!” निवास के नए मालिक हाजी गुलाम कादर ने मुझसे हाथ मिलाया, “तशरीफ रखिए।” मगर हम दोनों खड़े ही रहे। मैं अतीत की तलाश में यहाँ आया था। मगर यहाँ अब मेरे प्रेम की कोई निशानी न थी। मैं हाजी गुलाम कादर से अपनी पुरानी बातें करने लगा। और फिर हम दोनों चलते-चलते बाहर आ गये।
मैंने दूसरे सतून की ओर देखा, उसके फ्रेम पर कीचड़-गोबर पोत दिया गया था, छड़ी की नोक से मैंने कीचड़ उतारते हुए कहा-”यहाँ कभी 'अमृत निवास' लिखा होता था।”
“हैं...हैं...अजी हाजी साहब!” गुलाम कादर ने मेरी छड़ी रोक ली। “क्या कर रह हैं जी आप..उसने दाढ़ी में उँगलियाँ चलाते हुए कहा।” इजी बड़ी मुश्किल से भरा है इसे...इस कमबख्त हिन्दुआनी ने तो इंच-इंच भर खुदाई करके अपना नाम लिखवा रखा था...मेरी चंचल भावना ने हाजी गुलाम कादर की ओर देखा और चुपके से न जाने किधर को निकल गयी है।
और मुझे यों महसूस हो रहा है कि 'अमृत निवास' के चरणों में आकर मैं भरी दुनिया में अकेला रह गया हूँ...