अमेरिकन फिल्म का भारत से रिश्ता / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :25 दिसम्बर 2015
चौबीस जनवरी 1940 को फॉक्स स्टूडियो की जॉन फोर्ड द्वारा निर्देशित 'ग्रेप्स ऑफ रेथ' का प्रथम प्रदर्शन हुआ और सिनेमा हॉल में कुछ महत्वपूर्ण सीटें सेस नेशनल बैंक के मालिकों के लिए आरक्षित थीं, क्योंकि उन्हीं के धन से यह फिल्म बनाई गई थी। कुदरत की विडम्बना देखिए कि फिल्म में भूमिहीन किसान और मजदूर लोगों की व्यथा के लिए भी यही बैंक जिम्मेदार था, जिसने शोषण करने वालों के अमानवीय औद्योगिकीकरण में धन लगाया था। बैंक ने गुंडों की सेवाएं लेकर हिंसा द्वारा अपने कर्ज वसूले थे। इन्हीं लोगों के पैसे से अमीर जमीन मालिकों ने ट्रैक्टर खरीदे थे, मजबूर किसानों की जमीनें जबरन खरीदी थीं और उन्हें उनकी जमीन पर रोजी-रोटी के लिए भटकने वाला शरणार्थी बना दिया था।
अमेरिका में 1929 से 1933 तक आर्थिक मंदी का दौर था, जिसके परिणाम स्वरूप 'न्यू डील' लागू की गई ताकि मंदी के प्रभाव से निपटा जा सके परंतु अमीरों को खूब साधन संपन्न करने और गरीब को और गरीब करने के तंत्र को उस समय भी देश के विकास का नाम दिया गया था। एक आश्चर्यजनक बात यह कि एक शोषित पात्र अपने नपुंसक क्रोध में कहता है, 'ब्लडी रेड्स' गोयाकि बेवजह अपनी दयनीय दशा के लिए समाजवाद को दोष देता है। यही कहानी बार-बार अनेक देशों में दोहराई गई है और हमेशा दोषारोपण कम्यूनिज़्म पर किया गया। आज भारत में अपने पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों, वैज्ञानिक एवं फिल्मकारों पर भी यही आरोप लगाया गया है। कई बार देश और व्यवस्था समाज के अवचेतन में बड़ी चतुराई से इस तरह की अर्थहीन बातें ठंूस दी जाती हैं। यह 'ह्यूमन इंजीनियरिंग' संभवत: सदियों की सबसे विचित्र खोज है। क्रिस्टोफर नोलन की 'इन्सेप्शन' भी दूसरों के अवचेतन और सपनों की चोरी की विचित्र फिल्म थी।
क्या यह अजीब बात नहीं है कि पूंजीवादी देशों में प्राय: साधनहीन नायक रचे गए हैं, क्योंकि सिनेमा का आर्थिक आधार ही साधनहीन अवाम है और पूंजीवाद को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लाभ कैसे कमाया जा रहा है। सिनेमा पूंजीवाद की दुविधा है। यह फिल्म जॉन स्टीनबैक के उपन्यास से प्रेरित है, जिन्हें 1962 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। स्टीनबैक का जन्म कैलिफोर्निया के मध्यम आय वर्ग वाले परिवार में हुआ था। उनकी कृतियों की पृष्ठभूमि प्राय: कैलिफोर्निया ही रहा है। इस उपन्यास में सूखा पड़ने के कारण फसलें चौपट हो गईं और लिए गए कर्ज का भुगतान नहीं कर पाने के कारण उनकी जमीनें जब्त हो गई। क्या इस तरह की घटनाएं हमारे देश में नहीं हो रही हैं या होती रही हैं, क्योंकि बिमल राय तो 'दो बीघा जमीन' 1951 में ही बना चुके थे और मुंशी प्रेमचंद इसके कई वर्ष पूर्व 'दो बैलों की कथा' लिख चुके थे। मेहबूब की 'मदर इंडिया' प्रेमचंद द्वारा लिखी और गांधीजी द्वारा निर्देशित लगती है। हर कालखंड में संवेदनशील लेखक, कवि और फिल्मकार शोषण और अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ लिखते रहे हैं परंतु व्यवस्था की आंखें अपनी नाक के आगे कुछ नहीं देखतीं, कलदार सिक्कों की खनक मात्र ही सुन पाती है और उनकी विचार प्रक्रिया का केंद्र हमेशा लोभ और लाभ ही रहा है। बेचारा अवाम कितनी बार कितनी सरकारों से आशा लगाए बैठता है परंतु पिट-पिटकर उसकी सहनशक्ति बढ़ गई है।
निर्देशक जॉन फोर्ड आयरिश थे और वे अपने देश में जमीन से उखाड़े गए लोगों की वेदना से परिचित थे, इसलिए स्टीनबैक के इस उपन्यास से उन्हें भावनात्मक तादात्म्य तुरंत हो गया। उपन्यास में यह धारणा स्पष्ट है कि परिवार की नैतिकता सारे अंधड़ पार कर सकती है। लेखक और निर्देशक का दृढ़ विश्वास था कि परिवार नामक संस्था ही समाज और देश में सुधार ला सकती है और जिन देशों में यह संस्था आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तनाव व दबाव मंे टूटी है, वहां विनाश ही दुआ है। परिवार ही सारे परिवर्तन का केंद्र है। हमारे देश में यह संस्था लगभग ऊर्जाहीन और निढाल हो गई है। राजनीति और बाजार की ताकतों ने उन्हें अपनी सीमित आय में फिजूलखर्च और अय्याश बना दिया है। इस फिल्म में नायक के माता-पिता विपरीत हालात में भी विवेक और नैतिकता नहीं खोते। यहां तक कि उनका पुत्र युवा टॉम कोब एक अपराध की सजा काटकर आया है और उसकी वापसी ही फिल्म ा आरंभ है और शेष घटनाएं एवं कार्यकलाप उसके चरित्र को भट्टी से गुजारकर कंचन बना देते हैं। यह बात आपको विजय आनंद की 'गाइड' की याद दिलाती है। एक अदृश्य डोर से सारे सृजनशील लोग बंधे हैं।
अजीब बात यह है कि जॉन फोर्ड व्यक्तिगत जीवन में प्रतिक्रियावादी रहे हैं परंतु कथा की मानवीय करुणा ने उनका नज़रिया ही बदल दिया है। फिल्म के अंत में नायक की मां कहती है कि धरतीपुत्र सदियों से अन्याय सह रहे हैं परंतु धरती के प्रति उनका प्रेम ही उन्हें जुझारू बनाता है। इन पंक्तियों के लिखे जाते समय टीवी पर कुछ सूखा पीड़ित किसान व्यवस्था द्वारा दिए गए चेक लिए खड़े हैं, जो बैंक से वापस आ गए हैं।