अम्बर बाँचे पाती ’/ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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अम्बर बाँचे पाती: अनुभूतियों का इन्द्रधनुष

साहित्य किसी एक व्यक्ति का नहीं, एक देश का नहीं वरन् पूरे मानव-समाज का होता है । साहित्य की संस्कृति , संश्लिष्ट रूप में मानव– संस्कृति होती है।किसी एक कालखण्ड में रचा हुआ होने पर भी साहित्य में नित्य नूतनता ही उसका प्राण है। उसकी दृष्टि सुदूर अतीत से लेकर व्यापक भविष्य तक फैली हुई होती है।कालिदास ने कहा है-‘कोई वस्तु पुरानी है, अत: आदरणीय है और कोई वस्तु नई है,अत: ग्राह्य नहीं है, इस प्रकार का विचार बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होता है । विद्वान् तो गुण देखकर किसी वस्तु को ग्रहण करते हैं।’(काव्यशास्त्र के मानदण्ड :डॉ रामनिवास गुप्त, पृष्ठ-12)

साहित्य की हर विधा के बारे में यह ध्रुव सत्य है।हाइकु के बारे में भी यह लागू होता है।महाविद्यालयों के वे हिन्दी-प्रवक्ता जो वैश्वीकरण की जुगाली तो करते हैं ,साथ ही हाइकु का विरोध भी फूहड़ और दरिद्र भाषा में करते हैं, भले ही उनके घर में विदेश –निर्मित सामान भरा पड़ा हो। हिन्दी के छात्रों को कूपमण्डूक बनाने में इनकी मुख्य भूमिका है। दूसरी ओर अमेरिका कैनेडा जैसे देश भी हैं, जहाँ हाइकु कक्षा 5 और 6 के पाठ्यक्रम में भी शामिल है। हिन्दी का एक वर्ग वह है,जो चार पंक्तियाँ हिन्दी कविता की नहीं लिख पाता , फिर भी हाइकु विरोध का परचम सँभाले हुए है ; दूसरा वर्ग ,जो अच्छी कविता तो लिखता है; लेकिन उसको डर सताता है कि यदि वह हाइकु लिखेगा तो कहीं उसका लेखन समर्थ रचनाकारों के सामने दोयम दर्ज़े का न बन जाए । कुछ यश -लिप्सा से अभिशप्त ऐसे लोग भी हाइकु में आ गए हैं ,जो कवि नहीं हैं, शब्दों के मिस्त्री हैं, ऊल-जलूल लिखकर इस विधा को नुकसान पहुँचा रहे हैं।वे हाइकु का गला घोंटकर उसको दोहा , सोरठा , गज़ल बनाने का विलोम प्राणायाम ( अनुलोम –विलोम नहीं) करके खुद को मीरी घोषित करने में जी-जान से जुटे हैं।कुछ दस-बीस हाइकु लिखकर तरह –तरह के फ़तवे जारी करने में लगे हैं और खुद को हाइकु का भाग्य-विधाता मानने का भ्रम पाले हुए हैं। इनके बीच वे सजग रचनाकार भी हैं,जो इस हुड़दंग -भरी भीड़ से कुछ हटकर रच रहे हैं।कृष्णा वर्मा उन्हीं में से एक है।भारत के अतिरिक्त कैनेडा के रिचमण्डहिल और उसके आसपास का प्राकृतिक सौन्दर्य इनके हाइकु में अनेक रूपों में दृश्यमान् है।

1-‘उजास हँसे ’ अध्याय में प्रकृति के मनोरम चित्र मन को मोह लेते हैं।अम्बर से झरती रस की धारा, भिनसार में टूटती स्वप्न की साँसें, आकाश की कलाई में बँधी सूर्य की राखी सूर्योदय के सौन्दर्य को उकेरने में सक्षम हैं।कल्पना का नूतन समावेश चित्रांकित कर देता है-

पूनो की रात / अम्बर से झरती/ रस की धार।

भिनसार में / टूटीं स्वप्न की साँसें / पलकें खुलीं।

ऊषा ने बाँधी / आकाश की कलाई / सूर्य की राखी।

साँझ और रात भी कम सुन्दर नहीं। साँझ होते ही स्वर्णिम धूप के पन्ने गुलाबी होने लगे हैं, कहीं सिन्दूरी साँझ होने पर आकाश का लोहित होना और धूप का लेटना ,घुली चाँदनी का आँगन के कसोरे में उतरने का रूपक ,सर्द चाँदनी का रात भर चुम्बन उलीचना अभिव्यक्ति सौन्दर्य में रंग भर देते हैं-

साँझ ढली तो / स्वर्ण धूप के पन्ने / हुए गुलाबी।

सिंदूरी साँझ / गगन है लोहित / लेटी है धूप।

घुली चाँदनी /आँगन के कसोरे / महके प्यार ।

सर्द चाँदनी /उलीचे रात भर / भीगे चुम्बन ।

यही नहीं सितारों का नदिया की छाती पर आँख- मिचौनी खेलने का मानवीकरण अभिभूत कर लेता है। ऐसे चित्रण सिर्फ़ हाइकु छन्द की ही नहीं है , बल्कि अच्छी कविता की भी शक्ति हैं -

खेलें सितारे /नदिया की छाती पे /आँख-मिचौनी।

2-‘नभ का आँगन’- में कवयित्री का प्रकृति –प्रेम अद्भुत सौन्दर्य के साथ ही प्रकृति के स्वार्थपूर्ण दोहन से उपजी समस्याओं की ओर भी ध्यान दिलाता है।नदी –जल में नहाकर सूर्य को अर्घ्य देती हवाओं की पावनता का बोध किसी दूसरे ही भाव-जगत् की यात्रा कराता है। अल्पतम शब्दों में हाइकु में इतनी सारी बात कह जाना कृष्णा वर्मा के भावबोध की गहराई का अहसास कराता है-

नदी- जल में / नहा के हवाएँ दें /सूर्य को अर्घ्य।

पेड़ कटने पर बेघर हुए पक्षियों की पीड़ा, उनके गीतों की खुशी छिन जाना, वन कटने पर बादलों के सूखे होंठ , पत्तों के कानों में लोक –व्यथा को हवा द्वारा कहना आसन्न संकट की ओर संकेत ही नहीं , बल्कि चेतावनी है।

पेड़ जो कटे / बने कहाँ घोंसला /टूटा होंसला।

कैसा उत्थान ? / छीनते परिंदों के /नीड़ व गान।

शुष्क हुए हैं / बादलों के अधर /वन लापता।

पत्तों के कानों / हवा फुसफुसाए /लोक व्यथाएँ ।

3-‘रूप सलोना’-में फूलों का मनमोहक सौन्दर्य ही नहीं , प्रकृति का अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष भी है । यही संघर्ष मानव –मन के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा है। फूलों का रूप-सौन्दर्य और सुगन्ध जीवन –पथ का निर्माण करते हैं-

उमंगें ज़िन्दा / महकने की चाह /बनाए राह ।

अमलतास तो लगता है कि धूप का ही दूसरा रूप है। टेसू लगता है पूरे जंगल में अपनी प्रेम-अगन के कारण दहक रहा है ।काँटों में खिला गुलाब अपने संघर्ष को भी रूपायित करता है-

धूप का रूप / ओढ़े अमलतास /लगे अनूप।

प्रेम-अगन /दहके टेसू मन /महके वन ।

टेसू का छौना / नारंगी झबले में /लगे सलोना।

काँटों से घिरा / फिर भी निष्कंटक /खिले गुलाब ।

4- ‘मौसम भेजे पाती’ में भारत के वैविध्यपूर्ण मौसम को कवयित्री ने तन्मयता से चित्रित किया है।कहीं वह धूप से नाराज़ कोहरे का दुपट्टा ओढ़े भोर है ,कहीं पीले –नारंगी रंग के साथ व्यथा को कहते पत्ते हैं, कही फूलों की खुशबू है , जो हवा के काँधों पर सवार है ,बाँसों के झुरमुट में राग बजाती हवाओं का सहज चित्रण, कहीं डालियों के अंक लगकर बतियाती बातूनी पत्तियाँ हैं-

भोर ने ओढ़ा / कोहरे का दुपट्टा /धूप नाराज़।

पल्लव- कथा / पीला -नारंगी रंग /मन की व्यथा ।

फूलों की गंध / हवा के काँधों पर /सवारी करे ।

छुएँ हवाएँ / बाँसों के झुरमुट /राग बजाएँ ।

नन्हीं पत्तियाँ / डालों के अंक लग /करें बतियाँ ।

गर्मी का चित्रण भी अनूठा है। ताल-तलैया सूख गए ,पवन प्यासा और व्याकुल हो उठा है । वर्षा का आगमन होता है, खुलकर हँसते बादल धरा को भिगो जाते हैं ,कहीं बादलों की ओट में तारों से कुट्टी करके छुपा चाँद है। हर कहीं भाषा की कोमलता तो है ही ,कल्पना का चित्र-सा उकेरा सौन्दर्य भी है-

पवन –प्यासा / सूखे ताल-तलैया /फिरे व्याकुल।

खुलके हँसें /बादल जो नभ में /घना भिगोएँ ।

बादल ओट /छुपा यूँ चाँद ज्यों हो /तारों से कुट्टी ।

शीतकाल इतना प्रभावी है कि ठण्डी शिलाओं को छूकर हवाएँ भी काँपने को बाध्य हैं । सूर्य को ऐसा चाँटा जड़ दिया गया कि वह आसपास नज़र ही नहीं आता । चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया है। अचानक चाँटा जड़ने पर ऐसा ही तो होता है । एकबारगी चुप्पी छा जाती है -

काँपें हवाएँ / छुएँ जो सीत- भीगी /नंगी शिलाएँ ।

छाया सन्नटा / शीत ने मारा जब /सूर्य को चाँटा।

सर्दी की अतिशयता में झीलें और नदियाँ जब जम जाती हैं; तब लगता है- जैसे श्वेत लिहाफ़ ओढ़ लिया हो -

नदिया क्लांत / ओढ़े श्वेत लिहाफ /सोई हो शांत।

ऊपर के ये चार अध्याय प्रकृति पर ही केन्द्रित हैं ।कवि एक सामाजिक प्राणी है।वह अपने समाज से असम्पृक्त नहीं रह सकता है । उसके भी सुख –दु:ख हर्ष-विषाद हैं, उसकी भी सामाजिक चिन्ताएँ हैं ।अन्य तीन अध्यायों में कुछ जगबीती तो कुछ आप बीती भी है।

5-‘रिश्तों की डोर’ में कवयित्री ने अपने व्यावहारिक संसार की भी पड़ताल की है। प्यार के लिए रिश्तों के बीच एक अन्तर्धारा होनी चाहिए । धारा का सूखना , रिश्तों का निष्प्राण होना है-

सूखी है नमीं / प्यार की हुई जब /रिश्तों में कमी ।

माँ का महत्त्व सर्वाधिक है । हवा का हल्का –सा स्पर्श भी माँ की याद दिला जाता है । माँ की एक ही मुस्कान सारी थकान को छूमन्तर कर देती है । अपने सारे दर्द लगता है माँ आटे में गूँध देती है-

माँ याद आए / बालों में अँगुली जो /हवा फिराए ।

माँ की मुस्कान / हर लेती पल में /सारी थकान ।

बेबसी पीती / दुखों को धोए, गूँधे /आटे में दर्द।

छोटे बच्चों का संसार घर को वास्तव में घर बनाता है । नाती-पोते घर में आकर खुशियों के बीज बोते हैं । कृष्णा जी के पौत्र ईशान का आत्मिक स्पर्श मैंने गुड़गाँव और रिचमण्ड हिल दोनों स्थानों पर देखा है। बचपन और बचपन की यादें इसी कारण अमराई की तरह से हमको महका जाती हैं-

नन्हे फरिश्ते / कुटुम्ब के खिलौने/घर का स्वर्ग।

आ नाती पोते / घर- आँगन में ये /खुशियाँ बोते ।

महका जाएँ /बचपन की यादें /ज्यों अमराई।

दूसरी ओर वे रिश्ते भी हैं ;जिनको हम उम्रभर ढोते हैं , उनकी अनचाही क़ीमत चुकाते हैं । फिर भी ये रिश्ते न जाने कब हमारे हाथ से निकल जाते हैं। हर आदमी को कुछ अनचाहे रिश्ते ढोने की सज़ा भगतनी ही पड़ती है -

रिश्ते अनाम /उमर की तमाम /भरपाई में ।

फिसल गए / बरसों सँवारे जो /रिश्ते बेचूक ।

ढो-ढो के मरे / रिश्तों की मनुहार /अजब सज़ा।

6-‘जीवन-तरंग’ हमारे जीवन का सच्चा आईना है। आँखों की नमी जीवन का वह उर्वर पक्ष है , जिसमें मानवीय रिश्ते पनपते हैं । यह नमी जीवन का सौन्दर्य है। जब यह नमी आँसू बनकर उतरती है ,तो सारा हाल कह देती है । बीती बातों को याद करने से जब मन आहत होकर धधकता है ,तो यही आँसू उस दु:ख को बुझाने का काम करते हैं-


आँखों की नमी बंजर ना होने दे / रिश्तों की ज़मीं ।

आँसू कमाल / बेज़ुबाँ होकर भी /कह दें हाल।

याद की तीली / फिर सुलगा गई /बीती बतियाँ।

आहत पल / जब-जब धधकें /बुझाएँ आँसू ।

यहीं एक यह भी कटु सत्य उद्घाटित होता है कि अपने कुछ दें या न दें ,धोखा अवश्य देते हैं-

कुछ दें ना दें /धोखा अवश्य देंगे /तेरे अपने ।

आदमी के जीवन के साथ व्यथा भी सदा जुड़ी रहती है । कृष्णा वर्मा ने सिसकियों के इस अटूट सम्बन्ध को जन्म से ब्याही सिसकियाँ कहा है । इनकी यह उद्भावना नवीनता के साथ एक और भी कड़वी सच्चाई को भी समेटे है कि जीते जी चाहे कितने भी दु:ख दिए हों ,मरने पर हम उनको फूल ज़रूर अर्पित करते हैं -

जन्म से ब्याहीं / कंठ से सिसकियाँ /छोड़े ना साथ।

जीते जी शूल / मरने पर फूल /अजब रस्में।

फिर भी जब तक आदमी का हौसला जिन्दा है ,तब तक वह हार नहीं मानता है।यही जीवन है-

हौंसला ज़िंदा / समंदर को लाँघे /नन्हा परिंदा ।

भारत उत्सवों और पर्वों का देश है ।यही विशेषता विश्व में हर जगह हर भारतीय को जोड़े हुए है ।

7-‘उत्सवा’ में कवयित्री ने इसी उत्सवधर्मिता को चित्रित किया है । फ़ागुन की मस्ती , प्रिय की प्रतीक्षा ,दीपावली का ज्योतिर्मय उल्लास अनुकरणीय है –

रोम-रोम में / गंध चंदनी घुली /फाल्गुन आए।

बाट पिया की / कोरों पे रख फाग /तकते नैन ।

तन्वी- सी बाती /दीप -नेह से भीगी /जले प्यार में।

दीप- शिखाएँ / फैलाएँ शुभ्रता औ /चाँद लजाए।

करवाचौथ का पति-पत्नी को अनगिन बन्धनों में बाँधने वाला विश्वास ,रक्षाबन्धन का प्यार समेटे भाई की लम्बी उम्र की प्रार्थना सबको कहीं न कहीं बाँधे हुए हैं

चाँद धरा का / जिए चंद्रमा, संग /जनमों तक।

कोमल धागा /दुआओं से सींचा है /कलाई बाँधा।

भाई जो आएँ / क्षितिजों तक लम्बी /होएँ भुजाएँ ।

कृष्णा वर्मा की अम्बर को बाँचती यह पाती उनकी बहुरंगी अनुभूतियों का इन्द्रधनुष है । अब तक जो संग्रह मेरे सामने आए हैं, उनमें डॉ सुधा गुप्ता जी के सभी संग्रह उत्तम काव्य के आस्वाद की अनुभूति कराते हैं । इनके बाद डॉ भावना कुँअर ( तारों की चूनर-2007, धूप के खरगोश -2012) , डॉ हरदीप कौर सन्धु ( ख्वाबों की खुशबू-2013) और रचना श्रीवास्तव ( भोर की मुस्कान-2014) के संग्रहों ने हाइकु-जगत् को बहुत प्रभावित किया है । नि:संकोच कहना चाहूँगा कि कृष्णा वर्मा का ‘अम्बर बाँचे पाती’ को इसी परम्परा में रखा जाएगा । सहृदय पाठक यह महसूस कर सकेंगे कि हाइकु में भी अन्य विधाओं की तरह प्रभावित करने की शक्ति है।

-0- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जन्माष्टमी ,17 अगस्त, 2014

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