अम्बर बाँचे पाती / ज्योत्स्ना शर्मा

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साहित्य और समाज का परस्पर सापेक्ष होना प्रायः देश कालादि की सीमाओं से परे एक शाश्वत सत्य ही है। साहित्य त्वरित रस निष्पत्ति से अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति कराता है। यह गुण उसे अखबार आदि की अपेक्षा विशिष्टता प्रदान करता है और यही विशिष्टता उसके पाठकों को सामान्य पाठक से भिन्न सहृदय की उपाधि से विभूषित करती है।

प्रवासी महिला हाइकुकारों की शृंखला में कृष्णा वर्मा जी का एकल हाइकु संग्रह 'अम्बर बाँचे पाती' ऐसा ही सर्जन है, जो अपने पाठकों को अन्य की अपेक्षा अधिक उदात्त, निर्मल, विशद, सौंदर्य बोध से ओत-प्रोत सहृदय बना देने की सामर्थ्य रखता है। वस्तुतः रस रूप परमानंद की प्राप्ति हेतु सत्साहित्य का सर्जन होता रहा है। महाकाव्य, खंडकाव्य से लेकर लघु कलेवर दोहे तक विविध विधाओं में सुन्दर, कोमल भावाभिव्यंजनाएँ प्रस्तुत की गई हैं। परंतु 5-7-5 के क्रम में कुल 17 वर्णों में ऎसी चमत्कृति उत्पन्न करना सहज नहीं है। अम्बर बाँचे पाती में कवयित्री ने हाइकु के नन्हे कलेवर में प्रकृति के सुन्दर बिम्ब, ऋतुएँ, सामाजिक सरोकार, रिश्तों के उतार चढ़ाव, मानव मन और भारतीय उत्सवधर्मिता को बहुत सुन्दर और प्रभावी रूप में प्रस्तुत किया है। उजास हँसे, नभ का आँगन, रूप सलोना, मौसम भेजे पाती, रिश्तों की डोर, जीवन तरंग और उत्सवा इन सात खण्डों में विभक्त विषय वस्तु वस्तुतः भारतीय जीवन दर्शन की सुन्दर झलक प्रस्तुत करती है।

प्रकृति के चित्रण में रमी कवयित्री की प्रकृति ने सर्वथा नए और अनुपम बिम्ब उकेरे। सूर्य की राखी और धूप के सुनहरे पन्ने का मोहक बिम्ब देखिए-

उषा ने बाँधी / आकाश की कलाई / सूर्य की राखी।

साँझ ढली तो / स्वर्ण धूप के पन्ने / हुए गुलाबी.

क्यों न उमड़ पड़े ममता इन नन्हों की आँख मिचौनी देख-

खेलें सितारे / नदिया की छाती पर / आँख मिचौनी।

चतुर्दिक विचरण करती कवयित्री की दृष्टि प्रकृति और पर्यावरण के प्रदूषण से उत्पन्न परिस्थितियों पर चिंतित है-

कैसा उत्थान / छीनते परिंदों के / नीड़ व गान।

मोहक फूलों की दिनचर्या और जिजीविषा दोनों पर पर्याप्त विचार करती कवयित्री की कलम ने टेसू, गुलाब, अमलतास, ढाक, गुलमोहर सबके, क्या कहिए बहुत ही मनमोहक दृश्य प्रस्तुत किए-

गालों पर हया / अधरों पर लाली / टेसू की डाली।

गुलमोहर / हथेली पर हिना / रचाता कौन?

काँटों से घिरा / फिर भी निष्कंटक / खिले गुलाब।

भारतीय ऋतु वर्णन में कवयित्री ने वैविध्यपूर्ण मौसम के चित्र-विचित्र आचरण को अपने शब्दों में इस प्रकार साकार किया कि वे बोल उठे। किन्तु शीत वर्णन ऐसा कि सन्नाटा छा गया! देखिए-

छाया सन्नाटा / शीत ने मारा जब / सूर्य को चाँटा।

मानवीय प्रकृति में रिश्तों की उलझन को सुलझाती कवयित्री ने माँ को बहुत मान दिया। इस प्रकार-

माँ की मुस्कान / हर लेती पल में / सारी थकान।

जतन से सहेजते भी हाथ से फिसलते रिश्तों की व्यथा देखिए-

फिसल गए / बरसों सँवारे जो / रिश्ते बेचूक।

मन के विश्वास और आँखों की नमी से रिश्तों की बंजर ज़मीं को सींचती कवयित्री ने जीवन में जिजीविषा को कभी कम नहीं होने दिया। उतार-चढ़ाव पार करती ज़िंदगी सीख ले परिंदों से-

हौंसला ज़िंदा / समंदर को लाँघे / नन्हा परिंदा।

मानव जीवन है तो मानवीय कमजोरियाँ भी होंगी। सुख-दुःख, राग-द्वेष तमाम विषमताओं के बीच अपने अकुंठ रूप में जीती भारतीय संस्कृति के प्राणों की संजीवनी है उसकी उत्सव धर्मिता। अपने देश से दूर यही उत्सव समय-समय पर कैसे अपनी मिट्टी से बन्धन अटूट रखते हैं, इसका सुन्दर निदर्शन पुस्तक का 'उत्सवा' खण्ड है। होली, दिवाली, रक्षाबन्धन विविध पर्वों को मनाती कवयित्री की करकचतुर्थी पर भावनाएँ देखिए-

चाँद धरा का / जिए चन्द्रमा संग / जन्मों तक।

रक्षाबंधन पर भैया के लिए कहती है-

कोमल धागा / दुआओं से सींचा है / कलाई बाँधा।

कहना न होगा अपनी सुन्दर, उदात्त भावनाओं से परिपूर्ण रचनाधर्मिता से कवयित्री पाठक के हृदय को भी नभ-सा निर्मल, विशद बनाने में समर्थ हैं। आशा करती हूँ पुस्तक सहृदय पाठकों तक अपना भावप्रवण सन्देश पहुँचाने में सफल होगी। -0-

अम्बर बाँचे पाती (हाइकु-संग्रह) : कृष्णा वर्मा, पृष्ठ: 110; मूल्य: 220 रुपये (सजिल्द) ; संस्करण: 2014; प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1 / 20, महरौली नई दिल्ली-110030