अम्बेडकर जयंती / ज़ेब अख्तर

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मुर्गे की बांग तो ठीक से सुनाई पड़ी पर भिन्सर हुआ कि नहीं, इसमें संदेह था। मटमैला और गमकता उजाला तो चारों ओर था पर सूरज भगवान का कहीं अता-पता नहीं था।

दुलारी पासवान खपरैल वाले ओसारे से निकल कर गोहाल घर में आ गए। गैया को हांकते हुए, गिने-चुने टिमटिमाते तारों पर नजर गई तो उनका शक और गहराने लगा। कुछ देर तक आकाश को यूं ही निहारते रहे फिर जैसे अपने आप से बड़बड़ाए, दुत, अब रात हो कि दिन... बिछौना छोड़ दिया तो छोड़ दिया। एक टोकरी काम पड़ा हुआ है करने के लिए... शुरू कर देते हैं चलकर अभिये से!

दांतों में नीम का दातुन दबाए, हाथ में लोटा लिए वह सरकारी इन्दारा (कुआं) की ओर चल पड़े। पर रास्ते में महसूस हुआ कि दिशा-फरागत की भी अभी कोई जल्दी नहीं है। तो फिर क्या किया जाए? गांधी मिडल स्कूल के पास पहुंचकर वह विचारने लगे। तभी उनका ध्यान स्कूल के प्रांगण में गया... मिट्टी के विशाल चबूतरे पर। अभी कल ही टोले के सभी बड़े-बूढ़ों ने मिलकर उसे बनाया था। आज मेहरारू लोगों को इसपर गोबर लीपना था। और आज ही तो होनी थी सभा, अंबेदकर जयंती के उपलक्ष्य में। इसी चबूतरे को तो मंच के रूप में इस्तेमाल किया जाना था।

पर चबूतरे का एक कोना टूटा हुआ था। लगा किसी ने जान-बूझकर यह काम किया है। वह थोड़ा और निकट गए... जानवर का भी काम हो सकता है। सियाल-सियार भी तो आते ही रहते हैं। पास ही तो जंगल-झाड़ है। जो हो, अब इसे मरम्मत तो करना ही पड़ेगा। कहां तो उनको कोई काम नहीं सूझ रहा था। यहां... एगो नये काम धरा हुआ है। अंधे को जैसे दो आंखें मिल गईं। वह धोती को घुटने तक ऊपर ले जाकर लग गए उसे सुधारने में।

ठीक ही हुआ जो भोर से पहले आंख खुल गई। स्कूल के बरामदे में वह वुफछ तलाशने लगे। शायद कुदाल और कढ़ाई। मिट्टी काटकर लाना होगा। नहीं मिला तो निकले किसी तलाश में। शायद महर टोली वालों में कोई जागता हुआ मिल ही जाएगा। तभी सुअरों को बहराता हुआ चनेसर दिखा। उसे कुदाल-ओड़ी लाने का आदेश देकर खुद मेढ़ की ओर निकल पड़े... जहां से मिट्टी काटकर ढोना था।

लेकिन नहीं, बात महंगी पड़ी। सामान तो उन तक पीछे पहुंचा। चबूतरा टूटने वाली बात हरिजन टोला में एक-एक घर तक पहले पहुंच गई कि मंच को किसी ने तोड़ दिया है। कि वे सभा नहीं होने देना चाहते। कि हम भी पता लगाकर रहेंगे किसने की है यह बदमाशी!

टोले के लोग झुण्ड के झुण्ड पहुंचने लगे, जहां दुलारी मिट्टी खोदने में लगे हुए थे। क्या जवान और क्या बूढ़े, मेहरारू और दूध पीते बच्चे तक... असहज होते-होते सकते में आ गए दुलारी, इतने सारे लोगों को एक साथ जमा होते देख, जबकि सभा आरंभ होने में अभी देरी है। उनके माथे पर पसीने की दो-चार बूंदें और छलक आईं। उन्हें अंगोछे से पोंछते हुए किसी अशुभ की आशंका से घिर गए। भगवान जाने अब का हुआ ससुरन को!

मामला जानने के बाद उन्होंने भीड़ को दुत्कारा, दुत, ई भी कोई बात हुआ गुस्सा आने का? और मान लो इ कोई लुच्चा बदमाश का ही काम है तो यही समय है पता लगाने का! जब जो काम जरूरी हो तभी करो। चलो-चलो दिन भर का काम पड़ा हुआ है। अभी मिट्टी कट गया है इसको ढोने का बंदोबस्त करो फिलहाल! ये कहते हुए वह बालेश्वर की ओर मुड़े- बालो, कुर्सी का प्रबंध हुआ कि नहीं? सबसे ज्यादा फिकर हमको इसी बात का है। सुनते हैं दसियों जगह मनाया जा रहा है अबकी अंबेदकर जयंती, मीना टेन्ट हाउस वाला का कुर्सी पहले से बुक है। बसंत टेन्ट वाला भी पहले ही मना कर चुका है...

हां, हम बासदेव को बोल दिए हैं... आगे चट्टी पर एक नया टेन्ट वाला दुकान खुल गया है... उ ले आवेगा साइकिल पर चर-चर गो करके। बालेश्वर ने खैनी ठोंकते हुए कहा- टेन्ट हाउस का अब कमी रह गया है इलाका में!

तब ठीक है... और टेबुल?

हेडमास्टर साहेब वाला टेबुलवा कब काम आवेगा? उसी पर सब माइक और गुलदस्ता रखा जाएगा। निकलवा लेंगे उसी को।

निकलवा का लेंगे अभी चल के निकलवा लो। अब का फिर से दिन घुरेगा इ सब काम के लिए? ये बोलते-बतियाते वह वापस स्कूल पहुंच गए। उसी चबूतरे के पास चनेसर सधे हाथों से उस पर परत-दर-परत मिट्ट्टी चढ़ा रहा था। गीली मिट्ट्टी को थपथपाते हुए उसने पूछा, सुनते हैं हमनी के विधायक कामता बाबू मंत्राी भी बन गए हैं।

हां रे... सच्चे सुना है तू... कामता सिंह मंत्राी हो गए हैं। ग्रामीण विकास मंत्राी। गांव तो गांव जिला भर के लिए इ गर्व की बात है। चनेसर के सिर पर ओड़ी अलगाते हुए उन्होंने दर्प से कहा- उनका उपकार है कि सभा में आने के लिए राजी हो गए। नहीं तो ऐसा-ऐसा कितना प्रोग्राम उनखर पाकिट में रखल रहता है।

चनेसर ने काम रोक दिया और उनकी ओर लालायित होकर देखने लगा, जैसे वह अभी से अनुग्रहित हो रहा है। पर चनेसर का यह हाल देखकर दुलारी पासवान बिगड़ उठे, अब इतना भी खुश होने का जरूरत नहीं है... समझा! इ प्रजातंत्र है, उ मंत्राी बने हैं तो हमरा वोट के बल पर ही। अब हमरे लिए इतना भी नहीं करेंगे... हुंह!

सो तो ठीक है बड़े भैया... मगर हैं तो बड़े लोग ही न... मालिक! का भुला गए तुम भी?

मालिक-वालिक कुछ नहीं... बस्स मंत्राी है ऊ जनता के सेवक, और हम जनता हैं। घुसा तेरे दिमाग में वुफछ!

विपरीत दिशाओं वाला यह समीकरण चनेसर के लिए अनसुलझा ही रहा। अनमना-सा वह फिर से अपने काम में जुट गया। अब दुलारी भैया कह रहे हैं तो ठीक कह रहे होंगे। इस निष्कर्ष तक पहुंचते-पहुंचते कुछ हल्का होता है चनेसर का मन।

बैसाख की पहली और तीखी किरणों ने ठीक उसी समय दुलारी पासवान के चेहरे पर प्रहार किया... तीर की भांति सीधे उनकी आंखों पर। कुछ बोलने के बजाय वह चनेसर को विचित्र आंखों से ताकने लगे। जैसे वहां चनेसर नहीं कोई और बड़ी समस्या खड़ी हो गई हो। कुछ देर के बाद उनके मुंह से बोल निकले। गाढ़े तरल की भांति, रुके-रुके-से, धीर-गंभीर।

चनेसर, जब अभी से तेरा इ हाल है तो तू मंत्री जी से हाथ कैसे मिलाएगा? कैसे बोलेगा माइक पर... कैसे संबोधित करेगा जनसभा को, ...और हमको तो इसमें भी शक है कि तुम मंत्राी जी के सामने मांगों को गिना भी पाओगे... जबकि तुम सचिव हो। हमारे अंबेदकर कल्याण समिति के सचिव! ये बोलते-बोलते जैसे उनके चेहरे पर दुनिया भर का अपफसोस, दुनिया भर की दयनीयता उभर आई।

चनेसर को उनकी स्थिति समझने में वुफछ क्षण लग गए, फ्हम कर लेंगे दुलारी भैया... संभाल लेंगे सब... पिछला सभा में हम बोले थे कि नहीं? भले माइक नहीं था। अपनी मांगों और समस्याओं को वैफसे भूल सकते हैं हम!य् वह माइक पर बोलने का अभिनय करने लगा, चबूतरे पर चढक़र- फ्माननीय मंत्राी जी... अधिकारीगण व साथियो...मैं आभार व्यक्त करता हूं आप सबके प्रति...

उच्चारण और भाषा की शुद्धता पर दुलारी पासवान किंचित अचंभित हुए। क्षोभ कुछ कम हुआ। निराशा तनिक दूर भागी। और उनकी आंखों में चबूतरे पर खड़े चनेसर की जगह कोई और बिम्ब उभरने लगा। उनकी नजरें कुछ और देखने लगीं।

...अभी कितना दिन गुजरा है?

जब इसी कामता सिंह, छोटे मालिक के घर में रोज बैठकी हुआ करती थी। रामनवमीकझण्डे का मौका हो या मुहर्रम, ताजिया का, कोई झगड़ा झंझट हो या कोई और आरोप-प्रत्यारोप किसी भी तरह का विवाद हुआ तो यही बैठकी विचार-विमर्श की सभा बन जाती। मन-मुटव्वल हो तो आपस में मिलने-मिलाने का बहाना बन जाता। न्याय गुहार की पंचायत बन जाती। दुलारी पासवान को याद आते हैं वे दिन। स्टिल पफोटोग्रापफी की तरह सामने आते हैं एक-एक चित्र... तब छोटे मालिक के पिताजी श्यामता प्रसाद सिंह जिन्दा थे।

फसल कटने के बाद अगहन से बैठकी का जो सिलसिला शुरू होता तो फिर सावन तक यानी बरसात आरंभ होने तक चलता। सांझ होता नहीं कि गांव के सभी बड़े-बूढ़े ठाकुर के खलिहान की ओर निकल पड़ते। धोबीखोरी, चमटोली, महरटोली, धनखेरी से लेकर बामन टोली तक के लोग जमा होते थे यहीं। एक ओर फसलों के ग_र, अनाजों की ढेरी... बिहन के धान पड़े होते। दूसरी ओर एक चारपाई पर ठाकुर साहब होते। हुक्का गुडग़ुड़ाते हुए। उनके साथ कुछ दूसरे ठाकुर लोग और साव... बनिया लोग होते।

चारपाई के सामने ही गोबर से लीपी हुई जमीन पर पलथी मारे बैठते वो। वो, यानी भुइंया, कहार, दुसाध... रजक रविदास... घर के लोग। बडक़न के सुर में सुर मिलाते। बात-बात में बत्तीसी झलकाते। हां, वही यानी नीची जाति के लोग। हरिजन, ओछ... अछूत।

बिना उद्वेलित हुए याद करते हैं दुलारी। चालीस के बाद कहां गुस्सा और कहां आक्रोश। फिर ठाकुर साहब के यहां से नाश्ता आता। भुना हुआ चावल, चना, चुड़ा... मूढ़ी। किसी-किसी दिन चाय भी मिल जाती। अब सभी लोगों के लिए वह भी रोज-रोज कौन सेव-दालमोठ का खर्च उठा सकता है। सो वह वहीं तक सीमित रहता। चारपाई तक।

फिर ठाकुर साहब चल बसे। दुलारी पासवान हृदय से कहते हैं भगवान से- उनको स्वर्ग में स्थान दे। जात-कुजात, उंच-नीच, धर्मी-अधर्मी तो तब भी थे। मगर क्या मजाल जो कभी किसी ने अपनी सीमा तोड़ी हो। कभी किसी की बेजा महत्वाकांक्षा ने सिर उठाया हो।

ठाकुर साहब ने भले ही चारपाई पर बगल में नहीं बैठाया, या उन्होंने कभी खुद भी नहीं सोचा मगर रहे तो हमेशा ही उनके परिवार की तरह। शादी ब्याह हो या मरनी-जीनी, तीज-त्यौहार हो या कोई भी और मौका, सभी नेग वह पूछ-पूछकर जरूरत से ज्यादा देते। सतीश नाई का टोले भर में मात्रा उसी का ही मकान ढलाउवा और ततला है। मगर पूछो उससे, वह जमीन किसकी है। बड़े ठाकुर ने ही दिया था नेग में। नस्ल-दर-नस्ल वो दाढ़ी हजामत जो बनाते आ रहे थे ठाकुर परिवार की। इसी तरह धोबी, कहार, दर्जी... कितने लोग पलते थे उनके आसरे पर, चिंता मुक्त होकर। जब भी जरूरत पड़ी ठाकुर साहब ने खुद बुलाकर पूछा।

रही न्याय-अन्याय की बात। तो कब नहीं रहा यह? कोई कह सकता है... सृष्टिके आरंभ से आज तक। रूप और बहाने बनते-बदलते रहे बस। कभी इसने धर्म का चोला पहना तो कभी कानून का मुखौटा लगा लिया। अन्याय से पृथ्वी कभी खाली नहीं रही। फिर भी न्याय की अन्याय पर जीत तो हमेशा होती रही है। और हमेशा होती रहेगी। हां, दीगर बात है कि उसके लिए भी साहस चाहिए। त्याग और बलिदान की शक्ति चाहिए। दधीची का ही किस्सा ले लो। दानवों के नाश के लिए उनको अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी या नहीं?

उसी तरह रंजन बहू को भी समझ लो इन्दारा में कूदकर... नहीं... नहीं इन्दर देवता ने ही मांगा था बलिदान उसका। गांव को कोप-प्रकोप से बचाये रखने के लिए। वह ऐसा-वैसा बलिदान नहीं था। यह बलिदान था एक नवब्याहता के सपनों का, उसकी खुशियों और अरमानों का और हम हरिजन टोला के लोग इसे अकारण नहीं जाने देंगे। थान पर एक खस्सी उसके यानी सोनरिया के नाम से भी कटेगा इस बैसाख से। हां, ठाकुर साहब की मंशा भी यही है। और क्या कहा था उन्होंने? हां, याद आया। जैसे आकाश में मेघ टकराते थे। उसी तरह आवाज ऊंची उठती गई थी ठाकुर साहब की, खबरदार जो इस घटना का जिक्र दोबारा किसी की जबान पर आया। हाथी बनकर पेट में पचा लेना है इसको! गांव की शांति सभा खतरे में पड़ सकती है। और गांव का हर फरद यह भी सुन ले कि रंजन गोड़ाइत भी हमारा बेटा जैसा है। हम उसका लगन फिर से कराएंगे। अपने खर्चे से। दावत-दारू और गाजा-बाजाकसाथ।

रंजन के बाबूजी गद्गद हो उठे थे। गांव का कण-कण मालामाल हो उठा था। और घटना भी कितनी सी, देखो! अरे, आज के लिए होगा यह जुलम और अन्याय। कल तक तो यह परंपरा और रीति-रिवाज का ही हिस्सा था। और रीति-रिवाज क्या ऐसे ही टूटते हैं? ऐसे ही धराशायी होती हैं परंपराएं! ऐसे ही छूटती है आदत! पान-बीड़ी की आदत को छोडऩे में सालों लग जाते हैं। और यह तो... फिर चाहिए पक्का इरादा और साहस। रंजन बहू ने पहले किया था साहस, किसी ने किया था इसका विरोध!

सभी जानते थे। सभी मानते थे। जिला भर का चलन था यह तो। छोटी जातियन के यहां विवाह होता तो पहला न्यौता ठाकुर साहब को दिया जाता। और घूंघट की पहली सेज उन्हीं की हथेली से सजाई जाती। लाल जोड़े में सजी दुल्हन की पालकी पहले उन्हीं के दरवाजे पर लगती। फिर वह आशीर्वाद देकर विदा कर दें दुल्हन को या नेग के लिए रोक लें, उनकी मर्जी।

पालकीकसाथ खुद दूल्हा भी होता था हाथ जोड़े। विनय की मुद्रा में। कि हे अन्नदाता, हे पालनहार, उद्धार कर दो हमारा भी। इ हमारा तन-मन-धन सब आप ही का है। इ हमारी बहू की आपकी है कि लक्ष्मी है, इस पर भी पहला हक आप ही का है!

ऐसा ही कुछ कहा होगा रंजन गोड़ाइत ने उस समय कि तभी घूंघट में छिपी सोनरिया की चंचल आंखें लहर उठी थीं। पोर-पोर जलन से भर उठा था। नया चेहरा, नयी जगह और तिस पर नये बोल... शौच के बहाने से एकान्त पाकर निकल पड़ी थी वह हवेली से। दूसरे दिन सोनरिया की लाश कुएं से बरामद हुई थी। उंगलियां हवेली की ओर उठने लगी थीं। खुसर-पुसर होने लगा था। थाना पुलिस के तक के बारे में सोच गए थे हरिजन टोला के हरिजन। मालूम पड़ते ही ठाकुर दौड़े-दौड़े आए। अचानक हवा का रुख बदला हुआ पाया। सदियों से जमी मैल की परत छूट कैसे गई। उन्होंने लोगों को मनाया, पुचकारा, मिन्नत- समाजत की, हाथ तक जोडक़र खड़े हो गए। किसी तरह अशुभ टला। गांव की मर्यादा दागदार होने से बची। किन्तु अंदर ही अंदर विभाजन की लकीरें खिंच गई थीं दिलो-दिमाग पर। छोटा-बड़ा, उंच-नीच, अर्थ-अनर्थ... जैसी कितनी रेखाएं खींच गया था सोनरिया की मांग से धुला हुआ सिन्दूर। राम-सलाम... पाए लागूं... जय सरकार की... सब चल रहा था। मगर एक हूक, एक आक्रोश के साथ। खलिहान की बैठक में भी उन लोगों ने जाना बंद कर दिया था। एक ही झटके में वीरान हो गया था लम्बा-चैड़ा खलिहान। उसकी शोभा, उसका सौंदर्य।

सांझ बेला जब ठाकुर खलिहान पहुंचते तो दो-तीन जन से अधिक लोग वहां नहीं मिलते। और वे भी वो ही, चारपाई पर बैठने वाले। सामने की खाली जगह, खाली धरती उन्हें जैसे मुंह चिढ़ाती रहती। काटने को दौड़ती। धीरे-धीरे सहिया साहू और बनियों ने भी आना छोड़ दिया। ठाकुर साहब को भी बैर हो गया खलिहान से जैसे। जरूरत पड़ती तो भी जाने से कतराते।

बिस्तर पर मरीज की तरह लाचार और अपाहिज हो गए थे ठाकुर श्यामता प्रसाद सिंह। कभी बीसियों गांव की जमींदारी करने वाली विरासत का यह हाल! यह दुर्गति! कि कोई खैर-खबर लेने वाला नहीं। परिवार के लोगों को क्या गिनना। लड़ते रहते अपने अकेलेपन से। मन होता, भंभाड़ रोएं या तान लें दोनाली अपने ही सीने पर।

और देखो, अनर्थ इतने पर ही जाकर नहीं रुका। एक और बिजली गिरी फिर। एक और पहाड़ टूटा सीने पर। सुनने में आया, गांव में एक अलग बैठकी होने लगी है हरिजन टोला में। टोटन पासवान के यहां। सब अपनी सुनाते हैं, अपनी कहते हैं। देर रात तक चलती है बैठकी। खूब हा-हा, ही-ही होता है। टोटन का बेटवा भी आया हुआ है कोलवरी से। वहां मिस्त्री है किसी मोटर गैराज में।

जाने क्या-क्या बताता फिर रहा है सबको। डॉक्टर अम्बेदकर... शिक्षा... संगठन। कुछ किताबें भी लाया है। बैठकी में सुनाता है पढक़र। गांधी जी को बनिया कहता है। और हरिजन शब्द को लॉलीपाप माने लेमनचूस... माने लडक़न बच्चन को फुसलाने का सामान। कहता है, अब तो जगना होगा। फिर कमर कसना होगा। और इ भी जान लो कि इ लड़ाई अंतिम है। जीते तो जीते नहीं तो नामो-निशान मिट जाएगा हमारा। राम राज लाया जा रहा है देश में। माने उ मनु भगवान का राज। जानते हो का होगा फिर...?

मगर इसका काट भी तैयार है। सेर का सवा सेर है कि नहीं। आरक्षण मिलेगा हमको। हर जगह। पढ़ाई में, नौकरी में... राजनीति में, हर जगह।

वापिस जाते-जाते न जाने क्या-क्या भर गया था छोटे-छोटे दिमागों में वह बित्ता भर का लडक़ा। वह खुद ही तो थे दुलारी। दुलारी पासवान... वल्द टोटन पासवान।

ठाकुर साहब बड़बड़ाते हैं। न जाने किससे कहते हैं, तुम कहते हो उंच-नीच। हमरे गोतिया का बेटा रामसिंह लटपटा गया था हरमू कहार की बेटी से। गर्भ ठहर गया था बदमिया को। हमने जात-कुजात भुलाकर दोनों का ब्याह रचाया कि नहीं। सुनते हैं कोलवरी में दोनों मजे से रहते हैं। यहां गांव में बस नहीं पाए। कभी इ ताना तो कभी उ ताना। एक दिन गोली चलने की नौबत आ गई। हमने उनको रात भर शरण दिया। शहर भिजवाया दूसरे दिन। तब जान बची दोनों की। तब लाज बची गांव के एका की। तो बनाया की नहीं हरमू को समधी। पूरा सम्मान दिया उसको। अब उ हमरे सामने खांसता नहीं... हमरे सामने बैठता नहीं... धोती भी घुटने के नीचे नहीं बांधता तो इसमें का हमारा कुसूर है?

तो भैया खाली राजा हो जाने से नहीं होता है। प्रजा को सन्तान से बढक़र मानना पड़ता है। हां, गलत मांग रहे तो उसे डांटना भी पड़ता है। कभी मिन्नत चिरौरी भी करनी पड़ती है। हां, मिन्नत-चिरौरी और ठाकुर साहब आ धमके थे टोटन के दरवाजे पर। नहीं, टोटन पासवान की दहलीज पर। चैंक पड़े थे उनको वहां एकाएक खड़ा देखकर लोग। जैसे अहिल्या का उद्धार करने चलकर आए थे राम स्वयं।

वह खुद आगे बढ़े। कंधा थपथपाया। हाथों को खोज-खोजकर हाथ में लिया। खड़े रहे सभी सांस रोके। मेहरारू लोग दांत में उंगलियां दबाये ओट में अलग खड़ी रहीं। न-सब्री कई आंखें छलछला आई थीं, इस राम और भरत जैसे मिलाप पर। वर्षों का प्रेमभाव कोई ऐसे थोड़े ही समाप्त हो जाता है। ऐसे थोड़े ही पीछा छोड़ता है। इंदारे के सिलपट पर निशान पड़ा जैसा है यह तो।

यही कहा था कई जुबानों ने। ठाकुर साहब वहीं धूल पर बैठने लगे थे। उन्हीं लोगों के साथ। मगर जैसे फिर कई जुबानें बोल पड़ी थीं एक साथ- इ अनर्थ मत कीजिए मालिक! आपका स्थान तो दूसरा है। अरे, झट से लाओ चारपाई... और चद्दर साफ वाला। का बोला, टोटन के घर में चद्दर नहीं है... तो फलनवा के घर से ले आवो। कहीं से भी लावो भाई। छोटे-मोटे युद्ध जैसी अफरा-तफरी मच गई थी। फिर दौड़ी आ गई थी भारी-भरकम चारपाई, चार आदमियों के कंधे पर सवार होकर। लो मुड़तरवा यानी तकिया भी चला आ रहा है, भूसी वाला नहीं... रूई वाला।

एक ओर खड़ा था टोटन। शर्म से डूब मरे कहीं जाकर या भाग्यवान समझे अपने आपको- समझ नहीं पा रहा था उसका दिमाग। बार-बार यही ख्याल आता कि इसी तरह दो-चार ठाकुर आ जाएं तो का गत होगा उसका!

छोड़ो यह सब। यहां तो महफिल जम गई थी। मन कैसा - कैसा तो लगता था ठाकुर साहब की अनुपस्थिति में। अब जाकर भरा-भरा सा लगा जी। हां, इ हुआ ना बैठकी का मतलब। पसर गए हैं ठाकुर साहब खटिया पर। और फिर जैसे ललकारता है सेनापति अपनी सेना को। हवा में हाथों को लहराकर कि हां, अब शुरू करो बैठकी!

देखो तो भला कैसे शोभ रहे हैं! कोई कह सकता है कि इ मालिक नहीं हैं। इ राजा नहीं हैं। गाली भी देते हैं तो मिसरी का घोल लगता है कानों में। और प्रजा? प्रजा भी है अपने स्थान पर। चारपाई के सामने बैठी हुई। बहाल हो गया सब कुछ पहले का, पूर्ववत्। रोज ही आने लगे थे ठाकुर साहब। सुलझाया जाने लगा था फिर सारा झोल-झमेला, वाद-विवाद इसी बैैठकी में पहले की भांति।

हां, एक चीज खटकती थी सबको, एक ही चीज नहीं सोहाता था सबको। ठाकुर साहब के खलिहान में जो बैठकी होती थी, उसमें चावल, चना या कुछ भी भुंजौना मिल जाता था नाश्ते के तौर पर। भर लेते थे पेट वहीं। मगर टोटन की औकात से तो यह बाहर था। बीस-पच्चीस आदमी के लिए भुंजौना का प्रबंध करना मजााक था क्या? बहुत हुआ तो किसी-किसी दिन किसी की तरफ से चाय चल गया, बस। संतोष करो इसी पर। हां, इससे आगे का चभक्का नहीं लगेगा।

मगर ठाकुर साहब तो ठहरे ठाकुर साहब। बड़े आदमी, ऊपर से अगिनि देव समान। इसके ऊपर टोटन, एक पासवान के यहां उनका आना। सब ऐसे ही मरे जा रहे थे कीड़े-मकौड़ों की तरह। तो भला उनके लिए कम से कम जलपान का प्रबंध तो करना ही था। और सभी जानते थे ठाकुर साहब का जलपान कहां से आता है। फुच्चन हलवाई के यहां का सेव, दालमोठ और उसी के हाथ से बनी खालिस दूध की चाय। साथ में कोई एक मीठा। यानी डेढ़ सौ रुपये की चपत रोज, अब क्या करें?

पारी बांधा जाने लगा। सबके जिम्मे एक-एक दिन। कायदे से देखा जाए तो महीने में एक दिन पारी घूमता। पर कई लोगों ने पहली बार में ही हाथ पसार लिया। दबाव डाला तो जवाब मिला, इ जुलुम मत करो। कहो तो हम बैठकी में आना ही बंद कर दें। बैठकी न हुआ कि सिनेमा और सर्कस हो गया कि भैया यहां बैठना है तो टिकट का दाम देना ही होगा। इससे तो बढिय़ा ठाकुर साहब के खलिहान में ही बैठते थे। मगर अब क्या हो सकता था! प्रतिष्ठा भी कोई चीज है कि नहीं। और प्रतिष्ठा में कहते हैं कि प्राण तक गंवा देते हैं लोग। एक-एक पैसा जोडक़र किसी तरह आने लगा दालमोठ रोज। होती रही बैठकी भी। और तब तक हुई जब तक ठाकुर साहब जिंदा रहे। बैठने के लिए लोग फिर भी बैठते। मगर कहां वे झड़ीदार ठहाके, कहां वह हा-हा-ही-ही! वे गालियां, वह मसखरापन, वे ताने... बिदर गया सब कुछ उन्हीं के साथ। ग्रहण लग गया गांव की खुशियों को।

याद करते-करते नम हो उठती हैं दुलारी पासवान की आंखें। हाथ में लिए गीली मिट्ट्टी पर लुढक़ पड़ती हैं दो बूंदें। चनेसर की नजरों से किसी तरह बचाते हैं नजर। संयमित करते हैं खुद को। भाव में बहने लगे हैं वह। यह कोई अच्छी बात नहीं। सालों के अनुभव ने यही सिखाया है उनको। जागता है मन का चेतन। सचेत होते हैं फिर से। मनाते हैं अपने गोपन को फिर। कि दफन रहो जहां हो वहीं। काठी जैसे हृदय को लोहा बनाने का यत्न करते हैं दुलारी।

झिडक़ते भी हैं अपने आपको कि क्या कहकर अम्बेदकरवादी हैं वह? जब स्व का नियंत्राण ही नहीं हो पाता उनसे। भगवान न करे, इसी अवस्था में मौत हो गई तो क्या मुंह दिखाएंगे परलोक में अंबेदकर बाबा को। हां, परलोक यानी प्रलय। माने भगवान का द्वार। इस पड़ाव पर उतरने से पहले प्राय: भटक-भटक जाते हैं वह। कोलिवरी में मिले थे एक डॉक्टर, डॉक्टर वरुण। पटना जिला के रहने वाले। कहते थे परलोक, स्वर्ग नरक बहलावा है। ढकोसला है सब। धरम का जकडऩ है। असल चीज तो मन की शुद्धि है। चाहे जैसे प्राप्त कर लो यह शुद्धि। हां, शुद्धि माने निर्वाण। इसी से तो बाबा अंबेदकर बौद्ध हो गए थे। डॉ. वरुण भी बौद्ध हैं। कहते हैं बुद्ध के उपदेश धर्म नहीं, विचार हैं। विचारधारा हैं।

गजब लगता है दुलारी पासवान को कि बिना धरम-करम के भी जी सकता है कोई? घाट पर स्नान कर जब जप करते हैं तो मन कैसा तो तृप्त हो उठता है। जैसे संसार भर का सुख पा लिया हो। कोई मोह माया डिगाता नहीं है मन को।

तब बोले थे डॉ. वरुण, इसी तरह का सुख और इसी तरह की तृप्ति दिशा फरागत के बाद भी मिलती है। तो क्या इसी को धरम मान लिया जाए?

बांस की घिरनी की तरह घूम गया था दुलारी पासवान का माथा। डॉ. साहेब होंगे सही अपनी जगह पर। वहां कोलिवरी में कोई पूछने वाला नहीं है तो चल जाता है इ सब। गांव में इ सब चलने वाला नहीं है। और मान लो उनकी बात सही है। हो जाते हैं हम भी बौद्ध, तो कौन सुनेगा मेरी बात? कहीं ऐसा न हो कि आम जाए और साथ में लबेदा भी चला जाए। न राम मिले न माया। हां रहने दो इ सब शहर तक ही। वह ढेर पढ़ल-लिखल आदमी है। कोई दखल नहीं देता है किसी के मामले में। बल्कि हम तो कहते हैं- क्रिसचनवन सब अच्छा काम कर रहा है। धरम परिवर्तन भले ही करवाता हो। मगर स्कूल, अस्पताल और भर-भर भात-रोटी का जुगाड़ जरूर बैठा देता है।

देखो बस बिगहा में। खैरा गांव में जाना था एक मीटिंग में उनको। हजारीबाग के नजदीक। बस पड़ाव पर कोई लेने वाला नहीं आया तो अकेले चल पड़े थे वह। अब चल क्या पड़े, चल रहे हैं तो चल ही रहे हैं। पहले रास्ता खत्म हुआ, पिफर पगडण्डी भी जवाब दे गई। अब दोनों ओर जंगल, पहाड़, पोखर... चार घंटा में तीन-चार कोस जमीन चल लिए। न कोई प्राणी दिखे, न दूर-दूर तक किसी गांव का अता-पता। मन ही मन बोले, आज ंफसे बेटा दुलारी। हलर-हलर भी बड़ी करते हो। का जरूरत था जंगल में अकेले घुसने का? अब खोजो रास्ता। दोपहरिया ढल गया। सांझ होने को आया। जंगली जानवरों का भय अलग से सताने लगा।

थककर एक जगह सुस्ताने लगे वह। हिम्मत बटोरकर चढ़े एक पहाड़ी पर। पहुंचे किसी तरह ऊपर तो फुनगी पर से एक गांव नजर आया। माचिस की डिबिया जैसे छोटे-छोटे मकान। खुशी के मारे कांपने लगा पूरा शरीर। लगा छलांग लगा दें वहीं से। क्षण भर में सारी सुस्ती और थकावट दूर हो गई। सोचा, यह खैरा गांव है। मगर वह तो सडक़ से दो-ढाई किलोमीटर की दूरी पर था। और यहां तो दिन भर चलते रहे थे वह। जो हो मानुष जात तो मिला। न मिले भात रोटी, जान बचान के लिए जगह तो मिलेगी। बढ़ गई कदमों की गति कुछ और।

गांव के मुहाने पर ही भौंचक्के रह गए वे। देखते क्या हैं कि एक शानदार गिरजाघर। झक-झक सफेद दूधके फेन सा। फिर और आगे बढ़े तो संत जोसेफ स्कूल का बोर्ड पढऩे को मिला। वहीं पर एक अस्पताल भी। दंग रह गए वह। किसी फादर स्टेन के नाम से था वह अस्पताल। सुना था उन्होंने भी कि उड़ीसा में दो छोटे-छोटे मासूम बच्चों के साथ जला दिया था उनको... जिंदा। मन डूबने लगा था दुलारी का। हे भगवान... क्या यही लोग लाएंगे भारत में राम राज? अभी तो इ हाल है। अगर सच्चे में राम राज आ गया तो कितने स्टेन को जलाएंगे ये लोग।

जब चेते तो मालूम हुआ कि यह तो बसबिगदा गांव है। यहीं मिले फादर विलियम। खूब बतियाए उनसे। तनिक देर में मन से लेकर पेट तक में घुस गया वह आदमी। खूब आवभगत हुआ। पता चला, पूरा गांव ही ईसाई है। बहुत समय नहीं। पिछले पांच-सात बरस के अंदर हुआ है सब चकाचक। एक उनका गांव है। काहे नहीं जलन होगा मन में? बनने दो जीवन को जॉन, जानकी को जेनिथ... किरण को किरिस्टोना। कुछ तो किरण फैलेगा!

तो भैया, मिशनरी का बात अलग है। उस दिन मन ही मन फैसला कर लिया था उन्होंने कि फादर विलियम को न्यौता देंगे कभी मिदनी आने का। और यह भी विचार किया कि बनना है तो बनेंगे ईसाई ही। बौद्ध हो जाने से का होगा? आसमान से गिरे, खजूर में लटके। वही दलिद्दरी और वही भुखमरी। इ तो अभियो चालू है। बेटा अलग कोसता है कि कालिवरी में रहके कुछ भी नहीं किए। जवान बेटी ताड़ जैसी लंबी हुई जा रही है, सो अलग। और घरवाली! ...कुछ टूटने लगा है दुलारी के अंदर। दो समय का भोजन और साल में दो सूती साडिय़ों के अलावा कभी कुछ दिया हो, कभी कुछ किया हो उसके लिए, याद नहीं आता। खाता-खाली ही मिलता है।


फिर चेतते हैं दुलारी। सच्चे कह रहे थे उस दिन लंगटा बाबा कि मन से अधिक चंचल संसार में कुछ भी नहीं। इसको जीतो तो समझो सारा संसार जीते। दिमाग था किस काम पर और चला गया किस काम पर। उन्होंने घूमकर चनेसर की ओर देखा। चबूतरे को सुधार कर वह कब का जा चुका था। शायद फूल का प्रबंध करने।

सफेद कपड़े पर लिखा, अंबेदकर जयंती समारोह दूर से ही दिखाई पड़ रहा था। मंडाल पंडाल सा सज रहा था। सामने टेबुल, कतारबद्ध कुर्सियां... और बड़ा सा फोटो बाबा अंबेदकर का। भाषण यहां से देंगे सब। यहां माइक और वहां पर चोंगा। उत्साह से पिफर गरमाये वह। आज वैसे ही हाट का दिन है। जो बगल ही में लगता है। नहीं भी तो चार-पांच सौ आदमी जरूर जमा होंगे। जरा मंत्री जी को भी लगना चाहिए, हां आए हैं किसी सभा में। कि गांधी जयंती के अलावा भी कोई जयंती मनाया जाता है। मनाया जा सकता है। उसी धूमधाम से।

मंत्राी जी से कितना काम भी लेना है। सबसे पहले इसी स्कूल की मरम्मत करवानी है। तीन-चार गांव से बच्चे यहां पढऩे आते हैं। और कुल कोठरी हैं तीन। एक कोठरी में दो-दो कक्षाएं लगती हैं। बरसात में चू-चू कर वह भी नदी जैसा बहने लगता है। इसलिए बच्चे यहां बजाए ग्रीष्मावकाश के वर्षावकाश मनाते हैं। बैंच की जगह ईंट पर बैठते हैं। ऊपर घाट को ढलाई कर दो भागों में बांटना है। एक तरपफ जनाना, दूसरी तरफ मर्दाना। अब सबके घर में स्नानघर तो हैं नहीं। हैं भी तो पानी नहीं। बडज़ातियन की मेहरारू भी घाट पर ही स्नान करने आती हैं। कितनी बेपदर्गी होती है। लौंडन को देखो तो किसी न किसी बहाने उधर ही टकटकी लगाये रहते हैं। कोई फिल्मी गाना गा रहा है तो कोई सीटी बजा रहा है। फिर हाट जाने वाला पुलिया भी दरक गया है। इसी बरसात भर का मेहमान है वह भी। वह भी टूटा तो फिर डेढ़ कोस घूमकर जाना होगा बाजार हाट करने। हां, इ यह सब ज्ञापन में देना है। लिखा गया है कागज में। मंत्री जी को ज्ञापन सौंपने का काम चनेसर का है। और कौन-कौन सा काम किसके जिम्मे है, कुर्ते की जेब से लिस्ट निकालकर आश्वस्त हो जाना चाहते हैं वह।

स्वागत भाषण - बासदेव

संचालन - बालेश्वर उर्फ बालो

ज्ञापन - चनेसर

सभा अध्यक्ष - श्री कामता प्रसाद सिंह

धन्यवाद ज्ञापन - सरजू तुरी

मुख्य वक्ता - मास्टर सदानंद पाण्डेय

अन्य वक्ता - रामबदन, हरमू, सतीश नाई,

बासदेव, बालेश्वर

सभी नामों पर एक बार फिर नजर दौड़ाते हैं वह। सभी टोले का प्रतिनिधित्व हो रहा है कि नहीं। कहीं ऐसा न हो कि कोई छूट जाए। समिति के गठनके समय यही हुआ था। कैसे तो रांची के एक अखबार में गठन का समाचार छप गया। पर बैठक में भाग लेने वाले हरमू और बालेश्वर का नाम छपा ही नहीं। बमककर दोनों संगठन छोडऩे की धमकी देने लगे। सो इस बार ध्यान रखा गया है इसका भी। बाकायदा निमंत्रण देकर बुलाया गया है पत्रकार बाबू को। आते होंगे। आते का होंगे बल्कि आ गए हैं। पूरा मजमा चला आ रहा है यह तो। कुछ गाडिय़ां भी हैं धूल के पीछे।

धूल का गुबार छंटता है तो मंच पर दिखाई पड़ते हैं दुलारी। पहली कतार में मंत्री जी, उनके अगुआ पिछुवा और दूसरे अधिकारीगण बैठ चुके हैं। उसके पीछे समिति के पदाधिकारी। फिर गूंजती है उनकी आवाज, शोर-शराबा और कोलाहल के बीच, साथियो, जैसा कि आप लोग जानते हैं आज चैदह अप्रैल है बाबा अंबेदकर का जन्म दिवस। आज उन्हीं को याद करने हम लोग यहां इक_ा हुए हैं। मैं यह भी कहना चाहता हूं कि आज अंबेदकर जयंती मनाने भर से ही हमारा काम चलने वाला नहीं है। लोग भले ही दलितों पर जुल्म और अत्याचार की बात करते हैं, मगर हमको अपना गिरेबान में झांककर देखना होगा कि हम खुद कितना सचेत हैं, कितना जागरूक हैं। सांझ होते ही हम पहुंच जाते हैं ताड़ीखाना में नशा करने। हमको... हमको...

आवाज माइक में अटक सी गई। दुलारी पासवान की नजर मुख्य वक्ता सदानन्द पाण्डेय पर पड़ी जो धोती संभाले सरपट मंच की ओर भागे चले आ रहे थे।

हे भगवान! कहां बैठेंगे पण्डित जी। कुरसी तो एक्को खालिये नहीं है। पहले ही कम आया है कुरसी। एक बार आपाधापी मच चुका है ऊपर बैठने को लेकर। बड़ी मुश्किल से वह कुछ लोगों को नीचे दरी पर बैठने के लिए राजी कर सके हैं।

अब इ पाण्डेय जी, आना ही था तो समय पर आते। उनका ध्यान माइक की ओर गया। पगलाया सा, बाबा साहब पढऩे के लिए विलायत गए। शिक्षा... संगठन और संघर्ष का मार्ग...

पण्डित जी मंच की सीढिय़ां चढ़ चुके हैं।

...सबसे पहले हमें शिक्षा चाहिए...!

नीचे दरी पर बैठने से पण्डित जी छुवा तो नहीं जाएंगे। फिर उनकी नजर नीचे जाते हुए बालेश्वर पर पड़ी जिसे संचालन करना था सभा का। बैठ गया है नीचे जा कर दरी पर। अपने उसी सनातनी अंदाज में। घुटनों को सीने तक लाकर। मतलब अब सभा का संचालन भी उन्हीं को करना होगा।

हां तो साथियो, अब समय आ गया है उन शक्तियों को पहचानने का जो हमारे विरोधी हैं। जो साजिश रच रहे हैं। ऊपर से वह हमारे हितैषी हैं पर भीतर से दुश्मन। पहले हमें पढऩे लिखने से रोका गया, अब हमारे बच्चे पढ़ लिख रहे हैं तो इन लोगों ने एक नया चाल चल दिया है। जगह-जगह इंगलिश मीडियम स्कूल खुल गया है। तो बताइये इ हमारा गांधी स्कूल और हमारे बच्चे कर सकते हैं मुकाबला शहर के स्कूलों का? वही किस्सा हुआ न कि तुम डाल-डाल तो हम पात-पात...

पात-पात के दूसरे पात पर पहुंचते-पहुंचते दुलारी एक बार पिफर अटक गए। गांव के भूतपूर्व मुखिया अलखदेव मंच पर आते दिखे। हाथ में थैली भी है। शायद हाट बाजार करके आ रहे हैं। घघराहट और के बीच लाउडस्पीकर चीखता है फिर, हां तो मित्रो, संघर्ष का एक मोर्चा यहां भी खुल गया है।

अब लो चनेसर चला जा रहा है। मन ही मन उबल पड़े दुलारी। लगा, अब नियंत्रित नहीं कर पाएंगे स्वयं को। अभी थोड़ी देर पहले कैसा तो टांए-टांए कर रहा था। कहां तो ज्ञापन देने वाला था मंत्री जी को। और झट से उठ गया भूतपूर्व मुखिया को सामने देखकर। अरे तुम क्या कम हो उमर में निरंजन सिंह से, जो बैठ नहीं सकते उनके सामने।

जाते-जाते चनेसर ने उनको कातर दृष्टि से देखा, जैसे कहना चाहता हो, इ निरंजन बाबू नहीं... हमारे मालिक हैं, हम बेगार खटते हैं इनखर!

माइक उनको सांप के फन सा लगा। डंसने के लिए तैयार। किसी तरह उन्होंने आक्रमण किया उसपर अपनी पूरी शक्ति को इक_ा कर, आरक्षण बाबा अंबेदकर की छोड़ी हुई विरासत है जो पूरे भारत के दलितों के लिए वरदान है। मगर पहले हमको इसका काबिल बनना होगा। कोलवरी में हम अपने भाइयों को देख चुके हैं। मियां-बीवी दोनों मिलकर कमा रहे हैं। दस बारह हजार वेतन उठा रहे हैं। मगर न रहने का ढंग न खाने-पीने का शऊर। बच्चन को किताब-कलम से कोई वास्ता नहीं। इसको... इसको... इसको...

ग्रामोपफोन की सुई फिर फेंस गई जैसे। मंत्राी जी का ड्राइवर और अंगरक्षक चले आ रहे थे मंच की ओर। लघु दानवों जैसा डील-डौल सभी का। मूंछों से अटा हुआ चेहरा। डगमगाते कदमों से वो सीढ़ी पर गिरते-गिरते बचे। दुलारी पासवान के पास से गुजरे तो बासी ताड़ी का भभका नथुनों में भर गया।

बची हुई कुरसियां भी खाली होने लगीं। इस बार सबसे पहले सरजु तुरी, जिसे धन्यवाद ज्ञापन करना था, उठा और मंच से एक निर्वासित की तरह सिर झुकाए चलता बना। अभी इस मसोस से उबरे भी नहीं थे कि बासदेव दिख गया। माइक, सभा और भाषण को भूलकर वह उसी को देखने लगे लगातार। अपलक।

लोग अहमक की मुद्रा में खड़े दुलारी पासवान को देखते हैं। माइक पर हाथ रखकर वह जैसे फट पडऩा चाहते हैं। मगर आवाज है कि गले में ही भरभराकर दम तोड़ जाती है, बासदेव, तुम हमारे अध्यक्ष हो, अंबेदकर कल्याण समिति के अध्यक्ष, तुमको अभी स्वागत भाषण देना था। कुछ ख्याल है इस पद की गरिमा का। कहां तो बार-बार नक्सली हो जाने की धमकी देते हो। यही कलेजा, यही साहस लेकर बनोगे नक्सली!

मगर कहां सुन पाता है बासदेव। वह गया तो बस गया।

इसी बीच पता नहीं कब जय भारत और जय भीम कह चुके थे वह। और अब नाव के पाल की भांति खड़े थे मंच पर। जिसे खड़े ही रहना था पूरी यात्रा तक। सभा के अंत तक। तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठा था वातावरण। जैसे पक्षियों के कई झुण्ड एक साथ फड़पफड़ाए हों। मगर वह हैं न हिल पाते हैं अपने स्थान से न बोल पाते हैं। बर्फ की तरह अंदर ही अंदर जमते गए वह।

बासदेव... सरजू तुरी, रामबदन, बालेश्वर, सतीश, हरमू... हरख लाल, उदन, कतार में बैठ चुके हैं। सभी मंच के बिलकुल सामने। दरी पर ही। दरी भी कहां नसीब हुआ है सबको। धूल में ही उकडूं बैठे हैं कुछ लोग। मैले कुचैले कपड़ों को जैसे धोने के बजाए वहीं फेंक गया हो कोई। ऐसी ही काया। क्षण भर के लिए दुलारी पासवान की नजर अब माइक संभाल चुके कामता सिंह से लड़ गई। वही आंखें, वही रोब... वही चमक... बड़े ठाकुर वाली। और देखो पीछे से लगते भी हैं उन्हीं की तरह। चांदी पर का हल्का सफेद बाल... कान के लौ... गरदन पर की गांठें... सब उन्हीं जैसे हैं। और वह कुछ कहते हैं माइक में। फिर जैसे चीख पड़ता है लाउडस्पीकर कि, हां अब शुरू करो बैठकी।