अयाचक ब्राह्मणों के विशेषण / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती
यद्यपि यह वार्ता विविध प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध कर चुके हैं और अभी करेंगे भी कि प्रतिग्रहादि धर्मों से निवृत्त हो कर कृष्यादि द्वारा जीवन व्यतीत करना यही ब्राह्मणों का शास्त्रोचित उत्तम धर्म है तथापि 'रुचिनां वैचित्रयात' अपनी-अपनी रुचि विचित्र होती है, इस नियमानुसार सब लोग प्रतिग्रहादि से निवृत्त रहें यह बात कब होने की? जबकि शास्त्रों द्वारा अत्यन्त निषिद्ध और महान दंड योग्य चोरी, द्यूत, मद, हिंसा और व्यभिचारादि से ही लोग निवृत्त नहीं होते, प्रत्युत उन्हीं की संख्या अधिक है। क्योंकि 'दुरत्यया प्रकृति:' अर्थात प्रकृति मिट नहीं सकती। इसी से भगवान कृष्ण ने कहा है कि :
सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेज्र्ञानवानपि।
प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥ 3। 33॥
अर्थात 'जानकार (ज्ञानी) पुरुष भी उत्तम, मध्यम कार्यों के करने से नहीं रुक सकता, क्योंकि सभी प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अधीन है, इसलिए वे रुक नहीं सकते।' भगवान श्री गौडपादाचार्य ने भी मांडूक्य कारिका में कहा है कि:
तभवत्यमृतं मर्त्यं न मर्त्यममृतं तथा।
प्रकृतेरन्यथा भावो न कथंविचद्भविष्यति (तृती. 21)॥
अर्थात 'जो अमर है उसका नाश नहीं हो सकता और जो नाश होनेवाला है वह अमर नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति (स्वभाव) का अन्यथभाव नहीं हो सकता।' तो फिर चाहे कैसे हुए हों, परंतु अन्ततोगत्वा जो शास्त्रोक्त धर्म प्रतिग्रहादि हैं उनमें भी लोगों की प्रवृत्ति क्यों न हो? बल्कि स्वभावत: मनुष्य आलसी होने के कारण जिसमें बिना कष्ट द्रव्यादि मिल जावे उसी का करना पसंद करते हैं, लोक-परलोक का विचार कौन करने लग जाता है? यदि कोई करता भी हैं तो विचार कर लेता है कि इसके लिए कुछ प्रायश्चित्तादि कर लेंगे। इसीलिए यद्यपि सकाम कर्मों की निंदा गीता, स्मृतियों एवं पुराणों में बहुत की गई है और साथ ही, निष्काम कर्मों की यहाँ तक प्रशंसा की गई है कि -
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ गी. अ. 2। 40।
अर्थात 'थोड़ा भी निष्काम कर्म जन्म-मरण तक के महान भय को छुड़ा देता है।' तथापि यदि देखा जावे तो 99 प्रति सैकड़े सकाम कर्मों के ही करनेवाले हैं और निष्काम कर्म को करनेवाला तो बड़े क्लेश से एक भी नहीं मिल सकता। इसीलिए यह भी शंका करना मूर्खता मात्र है कि यदि प्रतिग्रह को अनुचित समझ सभी दानत्यागी ही हो जावे तो दान कौन लेगा? क्योंकि प्रकृति दुरत्यया है। इसलिए सभी दान लेनेवालों को शास्त्र नहीं हटा सकता।
इससे यह सिद्ध हो गया कि सृष्टि के प्रारंभ से ही दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के चले आते हैं - (1) प्रवृत्ति अर्थात प्रतिग्रह, यजनादि द्वारा जीवन व्यतीत करना, (2) निवृत्ति अर्थात प्रतिग्रहादि के त्यागपूर्वक शिल, उञ्छ, वाणिज्य, कृष्यादि द्वाराजीविका करना। तदनुसार ही ब्राह्मण भी दो प्रकार के तभी से होते आए हैं - (1) प्रवृत्त अर्थात्प्रतिग्रहादि में प्रवृत्तिपूर्वक जीवन बितानेवाले, जिन्हें याचक भी कह सकते हैं, (2) निवृत्त अर्थात प्रतिग्रहादि की निवृत्तिपूर्वक शिल, उञ्छ, कृष्यादि द्वारा यथासंभव जीवन व्यतीत करनेवाले, जिन्हें अयाचक भी कह सकते हैं और इसी दल के प्रकृत भूमिहार ब्राह्मण भी है। यद्यपि अयाचक दल में सभी याचक ही नहीं है, किंतु आजकल बहुत से अयाचक भी है, एवं अयाचक दल में बहुत से याचक हैं।1 क्योंकि जैसा कि आगे दिखलाया जावेगा कि 'बहुत से अयाचक ब्राह्मणों का याचक दल के मैथिल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़ आदि से विवाह सम्बन्ध हैं। यद्यपि साक्षात तो जो याचकदल में भी इस समय अयाचक हैं, उन्हीं के साथ हैं, तथापि उनका पुन: याचकों के साथ होने से परम्परया मिल जाता है। तो भी इस अयाचक ब्राह्मण दल में प्राधान्य अथवा आधिक्य अयाचकों का ही है और याचक (पुरोहित) दल में याचकों का ही और उसमें बहुत से अयाचक समय पा कर अभी हाल में धन के कारण हो गए हैं। हमने इस ग्रन्थ में'भूयसा हि व्यपदेशा भवंति' अर्थात जिस दल में जो अधिक होता है उसी के नाम से उसका व्यवहार होता है, जैसे जिस ग्राम में ब्राह्मण अधिक होते हैं वह ब्राह्मणों का ग्राम कहलाता है। इस महाभाष्योक्त न्यायानुसार पुरोहित दल से विशेष मिले हुए अर्थात भूमिहार, त्यागी, पश्चिम, जमींदारादि ब्राह्मणों से अतिरिक्त ब्राह्मणों का याचक
1. हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाने के 8-10 कोस में बहुत से भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और माहुरी आदि की पुरोहिती सैकड़ों वर्ष से करते चले आ रहे हैं और गजरौला, ताँसीपुर के त्यागी राजपूतों की।
पद से व्यवहार किया है और भूमिहारादि ब्राह्मणों का अयाचक पद से और यही उचित भी है, जैसा कि दिखला चुके हैं और वृद्ध लोग करते भी आए हैं। इसलिए दोनों दल के ब्राह्मणों के लिए क्रमश: याचक और अयाचक शब्द इस ग्रन्थ के ही लिए नहीं, किंतु बाहर भी प्रयोग करने के लिए हैं और किए जाने चाहिए।
इसी से इन्हीं दो प्रकार के ब्राह्मणों और इनके धर्मों के विचार से मनु जी ने भी दो प्रकार के कर्म बतलाए हैं जैसा कि:
सुखाभ्युदयिकं चैव नैश्रेयसिकमेव च।
प्रवृत्तां च निवृत्तां च द्विविधां कर्म वैदिकम्॥ 88॥
इहचामुत्रा च काम्यं प्रवृत्तां कर्म करीत्यते।
निष्कामं ज्ञानपूर्वं तु निवृत्तमुपदिश्यते॥ 89॥
अकामोपहतं नित्यं निवृत्तां च विधीयते।
कामतस्तु कृतं कर्म प्रवृत्तमुपदिश्यते॥ मनु. अ.। 12॥
अर्थात 'स्वर्गादि सांसारिक सुख, ब्रह्म लोकादि और परम्परया मुक्ति प्राप्त करानेवाले कर्म दो प्रकार के होते हैं ─ (1) प्रवृत्त, (2) निवृत्त। पूर्वोक्त स्वर्ग, पुत्र एवं धनादि सांसारिक वस्तु तथा ब्रह्मलोकादि की कामनापूर्वक जो कर्म प्रतिग्रह, याजन तथा यज्ञादि किए जाते हैं, वे प्रवृत्त कहलाते हैं और पूर्वोक्त सुख तथा तदर्थक कर्मों में दोष ज्ञान द्वारा जो निष्काम शिल, उञ्छ, कृष्यादि से जीवित कर के किए जाते हैं, वे निवृत्त कहलाते हैं। धानादि की कामना छोड़ कर केवल धर्म बुद्धि से धर्मार्थ (धर्मसाधानार्थ) जो कर्म किए जाते हैं वे निवृत्त कहलाते और जो धर्म का विचार न कर के केवल धनादि के लिए प्रतिग्रहादि किए जाते हैं प्रवृत्त कर्म कहलाते हैं।' अग्नि पुराण में इसी अभिप्राय का प्राय: यही श्लोक हैं जैसे :
प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्।
काम्यं कर्म प्रवृत्तां स्यान्निवृत्तां ज्ञानपूर्वकम्॥ 16। 24॥
देवलस्मृति में इसको स्पष्ट रूप से कह दिया है कि :
द्विविधो गृहस्थो यायावर:शालीनश्च। तयोर्यायावर: प्रवरो यजनाध्यापनप्रति-ग्रहरिक्थसंचयवर्जनात्। षट्कर्माधिष्ठित:प्रेष्य चतुष्पदगृहग्राम धनधान्ययुक्तोलोकानुत्तरीशालीन:।
अर्थ यह है कि 'ब्राह्मणादि गृहस्थ दो प्रकार के होते हैं - (1) शालीन, (2) यायावर। इन दोनों में से यायावर श्रेष्ठ होता है, क्योंकि वह याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह द्वारा धन संचय नहीं करता। (किंतु अन्य कृष्यादि उपायों द्वारा) और जो यजनादि अथवा ऋत, अमृतादि षट्कर्मों का करनेवाला और नौकर-चाकर, पशु, गृह, ग्राम (जमींदारी), धन और धान्य युक्त हो उसे शालीन कहते हैं।' इससे स्पष्ट ही हैं कि यजनादि करने से ब्राह्मण हीन हो जाता है और पशुपालन तथा जमींदारी आदि भी करना ब्राह्मण का शास्त्रीय धर्म है। साथ ही, यह भी स्पष्ट है कि यजनादि करने और न करनेवाले, किंतु कृष्यादि करनेवाले ये दो प्रकार के ब्राह्मण अनादिकाल से ही चले आते हैं। इसीलिए वैशेषिक दर्शन के भाष्य में महर्षि प्रशस्त पाद ने धर्म निरूपण प्रकरण में स्पष्ट ही कह दिया है कि :
विद्याव्रतस्नातकस्यकृतदारस्यशालीनयायावरवृत्तयुपार्जितैरथैर्मंनुष्यभूतदेवपितृब्रह्माख्यानां महायज्ञानां सायम्प्रातरनुष्ठनम्।
अर्थात 'जिस ब्राह्मण या क्षत्रियादि गृहस्थ ने ब्रह्मचर्य के नियमों की समाप्तिपूर्वक विवाह किया है, उसे पूर्वोक्त शालीन अथवा यायावर की वृत्ति से धानोपार्जन कर उसी से प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल मनुष्य, भूत, देव, पितृ और ब्रह्म (वेद) इन पाँचों के निमित्त पाँच महायज्ञ करने चाहिए।' इससे शालीन और यायावर ये दो प्रकार के ब्राह्मण सिद्ध होते हैं।
यद्यपि पूर्वोक्त देवलस्मृति में यायावर के लिए केवल प्रतिग्रहादि का निषेध ही स्पष्ट रूप से दिखलाया है और कृष्यादि का नाम नहीं लिया है, परंतु शालीन का पशुपालन और जमींदारी आदि करना स्पष्ट शब्दों में कहा है। तथापि प्रतिग्रहादि के त्यागने पर अवश्य ही मनुस्मृति के चतुर्थाध्यायोक्त उंछ, शिल और कृष्यादि करने पड़ेंगे। साथ ही, समय पा कर शालीन की वृत्तियाँ भी जमींदारी प्रभृति यायावरों के हाथ में जा सकती हैं, या चली गईं। क्योंकि समय-समय पर वृत्तियों या हर प्रकार के धर्मों का विनिमय (उलट-फेर) हुआ ही करता है, यह प्रकृति का दृढ़तम नियम है। इसीलिए संप्रति ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन सभी की वृत्तियाँ (जीविकाएँ) प्राय: एक-सी हो गई है और जिस सेवावृत्ति (नौकरी) का ब्राह्मण के लिए अत्यन्त निषेध है और था, आज वे प्राय: उसी के करनेवाले पाए जाते हैं। इसलिए यायावर ब्राह्मण प्रतिग्रह त्यागी और कृषक हो गए, एवं शालीन प्रतिग्रहादि करनेवाले तथा कृषक हो गए। जो बात आज भी अयाचक ब्राह्मणों और याचक (पुरोहित दल के) ब्राह्मणों में स्पष्ट रूप से पाई जाती है। क्योंकि कृषि दोनों ही करते हैं, परंतु एक (अयाचक या भूमिहार, त्यागी आदि) प्रतिग्रहादि से रहित हैं और दूसरे (याचक) प्रतिग्रहादि करनेवाले हैं। इससे स्पष्ट है कि प्राय: सभी अयाचक दल के ब्राह्मण देवलस्मृत्युक्त यायावर ब्राह्मण हैं और याचक (पुरोहित) ब्राह्मण शालीन ब्राह्मण हैं।
अथवा यों भी कह सकते हैं कि शालीन ब्राह्मण के लक्षण में जो यह लिखा है कि 'षट्कर्माधिष्ठित:' अर्थात षट् कर्मों का करनेवाला। उसके दो अर्थ हो सकते हैं, एक तो यह कि यजनादि षट् कर्मों का कर्ता और दूसरा यह कि उञ्छ, शिलादि षट्कर्मों का कर्ता। क्योंकि पूर्व ग्रन्थ में ही यह सिद्ध कर चुके हैं कि यजनादि भी शास्त्रों में षट् कर्म कहे जाते हैं और उञ्छ, शिलादि भी, और दोनों के करनेवाले ही षट्कर्मा कहे जाते हैं। इसलिए शालीन ब्राह्मणों में ही दो भेद सिद्ध हो गए, एक तो उञ्छ, शिल, कृष्यादि पूर्वक जमींदारी और पशुपालन के करनेवाले जो कि संप्रति प्राय: अयाचक (त्यागी, भूमिहार, पश्चिमदि) ब्राह्मण कहे जाते हैं, और दूसरे प्रतिग्रहादि पूर्वक पशुपालनादि करनेवाले, जो कि संप्रति याचक (पुरोहित) ब्राह्मण कहे जाते हैं। अत: यह तो निर्विवाद रूप से देवलस्मृति से ही सिद्ध हो गया है कि पुरोहित दलवाले ब्राह्मण शालीन कहलाते हैं और इस अयाचक दल के ब्राह्मण यायावर संज्ञक ब्राह्मण हैं। अथवा दो प्रकार के पूर्व निर्दिष्ट शालीन ब्राह्मणों में से ही हैं। साथ ही, याचक और अयाचक दो प्रकार के ब्राह्मण सिद्ध हो गए।
अथर्ववेदांतर्गत आश्रमोपनिषद, अथवा कात्यायनस्मृति के देखने से भी यही वार्त्ता सिद्ध होती है, केवल संज्ञाओं में भेद पाया जाता है। क्योंकि लिखा है कि :
गृहस्था अपि चतुर्विधा भवंति, वार्त्ताकवृत्ताय: शालीनवृत्तायो यायावरा घोरसान्यासिकाश्चेति। तत्रा वार्त्ताकवृत्ताय: कृषिगोरक्ष्य-वाणिज्यमगर्वितमुपयुञ्जानाश्शत-सम्वत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। शालीनवृत्तायो यजन्तो न याजयन्तोधीयाना नाध्यापयन्तो ददतो न प्रतिगृह्णत: शतसंवत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। यायावरा यजन्तो याजयन्तोधीयाना अध्यापयन्तो ददत: प्रतिगृह्णत: शतसंवत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। घोरसांन्यासिका उद्धृतपरिपूताभिरदि्भ कार्यं कुर्वन्त: प्रतिदिवसमास्तृतोञ्छवृत्तिमुपयुञ्जाना: शतसंत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मन प्रार्थयन्ते॥
इस वचन को स्वामी परमानन्द तीर्थ अथवा स्वामी महादेवानन्द तीर्थ ने 'यतिधर्म निर्णय' ग्रन्थ में अथर्ववेद के आश्रमोपनिषद का बताया है। परंतु पंडितवर श्रीराम मिश्र शास्त्री ने अपने 'तुरीयमीमांसा' नामक ग्रन्थ में कात्यायनस्मृति का बताया है। एक नाम वाली लघु तथा बृहत् वगैरह कितनी ही स्मृतियाँ और संहिताएँ हैं, जैसे लघुविष्णुस्मृति और विष्णुस्मृति प्रभृति और एक ग्रन्थ के वाक्य दूसरे ग्रन्थों में भी पाए जाते हैं, जैसा कि प्रथम 'ऋतामृताभ्यां' इस श्लोक को मनुस्मृति और अग्निपुराण दोनों में दिखला चुके हैं। इसलिए कोई विरोध नहीं हो सकता। अस्तु, पूर्वोक्त उस वचन का अर्थ यह है कि 'ब्राह्मणादि गृहस्थ भी चार प्रकार के होते हैं-(1) वार्त्ताकवृत्ति, (2) शालीनवृत्ति, (3) यायावर, और (4) घोर सांन्यासिक। उनमें से वार्त्ताक वृत्ति उनका नाम हैं जो अनिंदित अर्थात अस्वयंकृत कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करते हुए सैकड़ों वर्ष में समाप्त होनेवाले यज्ञों द्वारा अन्त:करण को शुद्ध कर के आत्मज्ञान की इच्छा करते हैं। जो यज्ञ करते हैं, परंतु करवाते नहीं, अध्यायन करते हैं, परंतु अध्यापन नहीं करते और दान देते हैं, परंतु लेते नहीं और पूर्वोक्त बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान की इच्छा करते हैं, वे शालीन वृत्ति कहलाते हैं। जो यजन, यजनादि षट्कर्म कर के पूर्वोक्त बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान की अभिलाषा करते हैं, उन्हें यायावर कहते हैं और घोर सांन्यासिक वे हैं जो कूप या नदी से जल निकाल उसे शुद्ध कर उसी से नित्यक्रियादि करते हुए प्रतिदिन उञ्छ वृत्ति से जीविका करते और उन यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान चाहते हैं।'
इससे सिद्ध हैं कि केवल यायावर संज्ञक ब्राह्मण प्रतिग्रहादि करते हैं और शालीनवृत्ति, वार्त्ताकवृत्ति एवं घोर सांन्यासिक ये तीनों प्रतिग्रहादि का नाम न ले कर केवल कृष्यादि द्वारा जीवन व्यतीत करते हैं। यद्यपि देवलस्मृति में प्रतिग्रह शालीन का धर्म और यायावर का धर्म उसका त्याग कहा है, परंतु यहाँ उसके विपरीत शालीन को ही प्रतिग्रह त्यागी और यायावर को प्रतिग्राही कहते हैं। तथापि संज्ञा में विवाद होने पर भी धर्म में विवाद नहीं हैं, जिससे अयाचक और याचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण निर्विवाद सिद्ध हो गए। जिनका धर्म यह है कि याचक प्रतिग्राही और अयाचक उसका त्याग कर के कृष्यादि द्वारा अपनी जीविका करते हैं, जिन्हीं अयाचकों में से यह भूमिहारादि ब्राह्मण हैं, जिन्हें यायावर या शालीन भी प्रथम ही सिद्ध कर आए हैं।
इसी विषय को साफ शब्दों में महाभारत के शांतिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के 199 अध्याय में राजा इक्ष्वाकु और एक अयाचक ब्राह्मण के संवाद द्वारा दिखलाते हुए प्रतिग्रह को बहुत ही हीन बतलाया हैं, जैसा कि :
ब्राह्मणो जापक: कश्चिद्धर्मवृत्तो महायशा:।
षडंगविन्महाप्राज्ञ: पैप्पलादि: स कोशिक:॥ 4॥
तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडंगेषु बभूव ह।
वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रय:॥ 5॥
सो न्त्यं ब्राह्मणं तपस्तेपे संहितां संयतो जपन।
तस्य वर्षसहस्त्रान्तु नियमेन तथा गतम्।
स देव्या दर्शित: साक्षात्प्रीतास्मीति तदा किल॥ 7॥
अथ वैवस्वत: कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो।
ब्राह्मणं तं महाभागमुपागम्येदब्रुवन॥ 28॥
तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागत:।
इक्ष्वाकुरगमत्तात्रा समेता यत्रा ते विभो॥ 34॥
सर्वानेव तु राजर्षि: संपूज्यार्थ प्रणम्य च।
कुशलप्रश्नमकरोत्सर्वेषां राजसत्ताम:॥ 35॥
राजोवाच! राजाहं ब्राह्मणश्च त्वं यदा षटकर्म संस्थित:।
ददानि वसु किंचिते प्रथितं तद्वदस्व मे॥ 38॥
ब्राह्मणउवाच। द्विविधाब्राह्मणाराजन्धार्मश्चद्विविधा: स्मृत।
प्रवृत्तश्च निवृतोश्च निवृतोहं प्रतिग्रहात्॥ 39॥
तेभ्य: प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्त नराधिप।
अहं न प्रतिगृह्णामि किभिष्टं किं ददामि ते॥ 40॥
बाल्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्त: प्रसारित:।
निवृत्तिलक्षणं धर्मपुमासे संहितां जपन॥ 78॥
निवृत्तां मां चिराद्राजन विप्रलोभयसे कथम्।
स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप॥
तप:स्वाध्यायशीलो हं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात्॥ 79॥
अर्थ यह है कि 'पिप्पलाद ऋषि का पुत्र कौशिक गोत्री एक ब्राह्मण था, जो बहुत ही धर्मात्मा, यशस्वी, महाबुद्धिमान और षडंगों का ज्ञाता, एवं चारों वेदों की संहिताओं को जपने (पढ़ने) वाला था। उसे षडंग विषयक अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान था और चारों वेदों में भी कुशल हो कर हिमालय की तराई में वह रहता था। वह पवित्रता पूर्वक संहिता का जप करता हुआ वेदाध्यायन कालिक कठिन तपस्या करता था। इस प्रकार से नियमपूर्वक उसके सहस्र वर्ष व्यतीत हो गए। इस पर प्रसन्न हो कर सरस्वती ने उसे दर्शन दिया और मैं प्रसन्न हूँ ऐसा कहा। इसके बाद यम,काल और मृत्यु ये तीनों उसके पास आ उससे अपने-अपने आने का प्रयोजन कहने लगे। इसी समय तीर्थयात्रार्थ पर्यटन करते हुए राजा इक्ष्वाकु उसी जगह आ गए जहाँ पर वे सब एकत्रित थे। राजर्षि इक्ष्वाकु ने सभी को नमस्कार कर पूजा कर के पुन: उनसे कुशलप्रश्न इत्यादि किया। फिर राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण से कहा कि मैं राजा हूँ और आपषट्कर्म करनेवाले ब्राह्मण हैं; इसलिए आपको कुछ धन देने की इच्छा है। जो आपकी इच्छा हो सो कहिए। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि हे राजन! प्रतिग्रहादि लेने में प्रवृत्ति और उनसे निवृत्ति ये दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के हैं, इसलिए ब्राह्मण भी तदनुसार ही दो प्रकार के होते हैं। एक प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त और दूसरे उनसे निवृत्त, उनमें से मुझे प्रतिग्रहादि से निवृत्त जानिए। इसलिए दान उन ब्राह्मणों को दीजिए जो प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त हैं, मैं प्रतिग्रह नहीं कर सकता। हाँ आपको क्या चाहिए जो दूँ। यदि मैंने संभवत: बाल्यावस्था में भूल कर हाथ पसार दिए हों (दान लिया हो) तो पसार दिए, परंतु अब वेदों की संहिताओं का पाठ करता हूँ। इसीलिए धर्मसेवन करता हूँ। हे राजन! मैं बहुत काल से निवृत्ति रूप धर्म का ज्ञाता हो कर प्रतिग्रहादि से निवृत्ति रूप धर्म का सेवन करता हूँ। अत: मुझे क्या लालच दिखाते हो? मैं अपने ही सामर्थ्य से उपार्जित अन्नादि द्वारा शरीर यात्रा करनेवाले हूँ, आपसे कुछ नहीं चाहता। मैं तो केवल तपस्या करने और वेदादि पढ़नेवाला हूँ और प्रतिग्रह से निवृत्त हूँ।'
इस संपूर्ण कथन का सारांश यह है कि अयाचक और याचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण सर्वदा से होते चले आए हैं। उनमें से याचक तो प्रतिग्रहादि अवश्य करते थे, परंतु कृष्यादि करते थे और न भी करते थे। लेकिन अयाचक दलवाले तो प्रतिग्रहादि को गर्वित समझ कृषि, वाणिज्यादि द्वारा ही अपनी जीविका करते थे और करते हैं। साथ ही, जैसे अयाचक लोग शास्त्रभ्यास करते थे वैसे ही अयाचक दलवाले भी। जिन्हीं में से हमारे यह पश्चिम, भूमिहारादि ब्राह्मण हैं। उन दिनों इन अयाचक ब्राह्मणों में त्यागी, पूर्ण शक्ति थी कि कृष्यादि भी करवाते और वेदाध्यायनादि भी करते थे। इसलिए बोधयनस्मृति में पंचमाध्याय में लिखा हुआ है कि :
वेद: कृषिविनाशाय कृषिर्वेदविनाशिनी।
शक्तिमाननभयम् कुर्यादशक्तस्तु कृषिं त्यजेत्। 101 प्र. 1।
अर्थात 'निरंतर वेदाभ्यास कृषि का विरोधी है और निरंतर कृषि भी वेद की विरोधिनी है, इसलिए अपने-अपने समय पर यदि दोनों को साथ करने की सामर्थ्य हो तो साथ-साथ करे। परंतु दोनों के एक साथ निबाह सकने की शक्ति यदि न हो तो ऐसी दशा में वेद के लोभ से कृषि का परित्याग भले ही कर दे।' इसीलिए उस स्मृति के तृतीय प्रश्न के प्रथमाध्याय में भी 9 वृत्तियों को गिना कर द्वितीयाध्याय में उनका लक्षण करते हुए स्पष्ट रूप से कृषि का विधान किया है। यदि बिलकुल ही कृषि वेदाभ्यास की विरोधिनी होती तो इससे पूर्व वेदाभ्यासादि पंचमहायज्ञों के विषय में अर्थ मे पंचमहायज्ञा: अर्थात अब इन स्वाध्याय (वेदाभ्यास) प्रभृति महायज्ञों को कहेंगे, ऐसा कह कर कभी भी कृष्यादि का निरूपण न करते। परंतु वे तो स्पष्ट लिखते हैं कि:
ता अनुव्याख्यास्याम:॥ 6॥ षण्नरिवर्त्तनी, कौद्दाली, धु्रवा, संप्रक्षालनी, समूह, पालनी, शिलोञ्छा, कापोता, सिद्धेच्छेति नवैता:। 7। तृतीयप्रश्नेप्रथमाध्याय:॥ कौद्दालीति।6। जलाभ्याशे कुद्दालेन वा फालेन वा तीक्ष्णकाष्ठेन वा खनति वीजान्यावपति॥ 7॥ कन्दमूलफलशाकौषधीर्निष्पादयति। 8। कुद्दालेनकरोतीति कौद्दाली॥ 9॥ तृतीयेप्रश्नेद्वितीया.॥
अर्थ यह है कि 'अब यायावर तथा शालीन प्रभृति की वृत्तियों (जीविकाओं) का निरूपण करते हैं। वे षण्नरिवर्त्तनी, कौद्दाली, धारुवा, संप्रक्षालनी, समूहा, पालनी, शिलोञ्छा, कापोता और सिद्धेच्छा ये नौ हैं। उनमें से कौद्दाली वृत्ति यह है कि जल के समीप (बीज बोने योग्य गीली भूमि में) कुदाल, फाल या चोखे काष्ठ से खोदना (भूमि जोतना) और बीज बो कर कंद मूल, फल, शाक और अन्नादि को उत्पन्न करना। यह काम कुदाल प्रभृति से ही होता है, इसलिए इस जीविका का नाम कौद्दाली है' उसी जगह शालीन और यायावर का अर्थ कर के ये वृत्तियाँ गिनाई गई है। वे लिखते हैं कि शालाश्रयत्वाच्छालीनत्वम्। 3। प्यावरयायातीति यायावरत्वम्। 4। अर्थात 'जो बड़े-बड़े प्रासादों में निवास करे उसे शालीन कहते हैं, और कौद्दाली आदि श्रेष्ठ वृत्तियों द्वारा जो जीवन व्यतीत करता है उसे यायावर कहते हैं।
इसी प्रकार याचक ब्राह्मण की प्रतिग्रहादि के साथ कृष्यादि भी करते हुए, या केवल प्रतिग्रहादि करते हुए वेदाभ्यास से चुकते न थे। बहुत दिनों क्या युग-युगांतरों तक यही बात होती रही। परंतु कालक्रम से दोनों दलों में वेदादि के अभ्यास का ह्रास होने लगा। परंतु प्रतिग्रहादि तथा कृष्यादि बिना शरीर स्थित ही नहीं हो सकती थी, इसलिए उसका ह्रास या त्याग असंभव था। हाँ उसमें भी कुछ-न-कुछ उलट-फेर अवश्य होने लगा। जहाँ लोग दो-चार बैलों के हल को अनुचित तथा महापाप समझते थे वहाँ उसे ही उचित समझने लगे। आज तक अयाचक (त्यागी, भूमिहारादि) और याचक (पुरोहित) दोनों दलों में ही दो बैलों द्वारा हल का चलाया जाना उसी वेद-शास्त्रादि के अनभ्यास मूलक धर्म के अज्ञान में प्रमाण हो रहा है। साथ ही, ब्राह्मणों की आज तक सेवावृत्ति (नौकरी) ये स्वाभाविक प्रवृत्ति भी उसी शास्त्र के सम्यक ज्ञानाभाव को सूचित कर रही है, जिससे अब धर्मज्ञान होने पर भी वह पड़ा हुआ स्वाभाविक अभ्यास नहीं छूटता। यहाँ पर यह बात भी भूलना न चाहिए कि अयाचकों तथा याचकों का सम्बन्ध प्रथम से ले कर उस समय तक भी घनिष्ठ था और परस्पर विवाह सम्बन्ध तथा खान-पान प्राय: हुआ करते थे। कुछ भी रोक-टोक न हो कर यह वार्ता प्रत्येक की इच्छा पर निर्भर थी, न कि आजकल की तरह सब सम्बन्ध बहुत ढीला हो रहा था। हाँ कुछ-कुछ मतभेद के विचार इस विषय में अवश्य उठ रहे थे जो आज बहुत बढ़ गए हैं और उन्होंने परस्पर के सम्बन्ध को बहुत स्थलों में अधिक ढीला कर दिया और बहुतेरी जगहों में तो उसका अभाव ही कर दिया है और करना चाहते हैं। इसी समय लोग यथार्थ धर्मज्ञान न होने के कारण धनोपार्जन तथा जीविका के लिए अन्यन्य उपायों का भी अवलंबन करने लग गए।
यह बात मनु भगवान के बाद की और पौराणिक काल और बौद्ध काल से पूर्व तथा मुसलमानों को बाद के समय तक की है। इस विषय को अनेक ग्रीक, पालि तथा जैन ऐतिहासिक ग्रन्थों के (क्योंकि हम लोगों का लिखा इतिहास उस समय का मिलता ही नहीं), एवं प्राचीन शिला लेखादि के आधार पर बहुत से अंग्रेजी विद्वानों ने इस प्रकार लिखा है कि :
जे. डब्ल्यू. मेक क्रिंडिल एम. ए. (J.W. Mc Crindle M.A.) ने अपनी 'प्राचीन भारत' (Ancient India) नामक अंग्रेजी पुस्तक में मेगस्थनीज और एरियन (Megasthenes and Arrian) नामक यूनानी (ग्रीक) यात्रियों के सन ईस्वी से लगभग 300 वर्ष पूर्व के भारतीय जाति विवरण का अनुवाद 136 पृष्ठ में इस प्रकार किया है कि:
For among the more civilized Indian communities life is spent in great variety of separate occupations. Some till the soil; some are soldiers; some traders; the noblest and the richest take part in the direction of state affairs, administer justice, and sit in council with the kings. A fifth class devotes itself to the philosophy prevalent in the country, which almost assumes the form of a religion and the members always put an end to their lives by a voluntary death on a burning funeral pile.
इसका मर्मानुवाद यह है कि 'क्योंकि बहुत ही शिक्षित भारतवासी अपने जीवन को विविध प्रकार के भिन्न व्यापारों में बिताते हैं। कोई जमीन जोतते अर्थात कृषि करते हैं, कोई सिपाही और व्यापारी (वाणिज्यकर्त्ता) होते हैं और जो सबसे धनी और श्रेष्ठ हैं वे राज्य के सुधार में लगे रहते, न्याय करते और राजा के साथ राजसभा में बैठते हैं। एक पाँचवाँ दल हैं जो उन दर्शनों (धर्मशास्त्र और ज्योतिषादि) में संलग्न रहता हैं जो इस समय देश में प्रचलित हैं और धार्मिक कार्य का एक अंश माने जाते हैं। समाज के बहुत से लोग सर्वदा स्वच्छंदतापूर्वक जलती चिता पर आरूढ़ हो कर प्राणांत करते हैं।'
उसी पुस्तक के 83वें पृष्ठ में लिखा है कि :
The philosophers are first in rank, but form the smallest class in point of number. Their services are employed privately by persons who wish to offer sacrifices or perform other sacred rites, and also publically by the king at what is called the great Synod, where-in at the begining of the new year all the philosophers are gathered to gether before the kings at the gates, when any philosopher, who may have committed any useful suggestion to writing or abserved any means for improving the crops and cattle, of promoting the public interests, declares it publically.
इसका भाव यह है कि 'इस समय दार्शनिकों (मन्त्र, तन्त्र और ज्योतिषादि के ज्ञाताओं) का दर्जा सबसे ऊँचा हैं, परंतु वे संख्या में सबसे कम है। उनका काम विशेष रूप से उन लोगों के यहाँ पड़ता है, जो कुछ पूजा या धार्मिक कार्य करना चाहते हैं एवं सर्वसाधारण रूप से राजा के यहाँ भी उन धर्म सभाओं में उनका काम पड़ा करता है जिनमें वर्ष के प्रारंभ में सभी दार्शनिक राजा के सामने राजद्वार पर एकत्रित किए जाते हैं। उस समय कोई भी दार्शनिक, जो लेख के लिए कोई उपयोगी बात सोचे होता, सर्वसाधारण की कृषि या पशुओं की उन्नति का कोई साधन विचारे होता, अथवा किसी भी सर्वसाधारण के हित को विचारे होता है, उसे सर्वसाधारण के संमुख वर्णन करता है।' इससे स्पष्ट है कि सन ईस्वी से 300 वर्ष पूर्व केवल पुरोहिती आदि से जीविका करने वालों की संख्या बहुत ही कम थी और ब्राह्मणादि राज-काज, कृषि, वाणिज्यादि में बहुत ही प्रवृत्त थे। साथ ही, वेदादि का अभ्यास इतना कम हो रहा था कि पुरोहिती करने और मन्त्र, तन्त्रादि जाननेवालों को भी दार्शनिक कहा करते थे।
महाराज श्री काशिराज की जो वक्तृता सभापति के रूप में काशी में होनेवाली भूमिहार ब्राह्मण महासभा में यूनानी यात्री अरस्तू (Aristotle) या किसी अन्य और फाह्यान (Fahian) नामक चीनी यात्री इन दोनों के लेखों के आधार पर सन 1900 ई. में हुई थी, वह भी इस सिद्धांत को पुष्ट करती है। वह इस प्रकार हैं :
In the year 331 B. C. Aristotle visited India in company of Alexandar the Great, and he wrote that, now the ideas about castes and profession, which have been prevalent in Hindustan for a very long time, are gradually dying out, and the Brahmans, neglecting their education,...live by cultivating the land and acquiring the territorial possessions, which is the duty of Kshatriyas. If things go on in this way, then instead of being (विद्यापति) i.e. Master of learning, they will become (भूमिपति) i.e. Master of land.
अर्थात 'सन इस्वी से 331 वर्ष पूर्व सिकंदर बादशाह के साथ अरस्तू भी भारतवर्ष में आया था। उसने उस समय भारतवर्ष में घूम कर ऐसा लिखा है कि जो बंधन जाति और उसके कर्म विषयक भारतवर्ष में बहुत दिनों से प्रचलित थे, वे अब धीरे-धीरे ढीले होते जाते हैं और ब्राह्मण लोग विद्या विमुख हो पुरोहिती वृत्ति छोड़ कर कृषि और राज्यादि द्वारा अपना जीवन बिताते हैं जो क्षत्रियों के कर्म समझे जाते हैं। यदि यही दशा रही तो ये लोग विद्यापति होने के बदले भूमिपति हो जावेंगे।' इसी प्रकार :
In the year 399 A.D. a Chinese traveller named Fahian came to India, and he wrote in his book on travles, after giving vivid description of Magadha, that owing to the families of the Kshatriyas being almost extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up asceticism...are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and are called 'Sang he Kang', which has been translated by professor Hoffman as 'Land seizer'.
अर्थात 'सन 399 ईस्वी में फाह्यान नाम का जो चीनी यात्री भारतवर्ष में आया था, उसने अपने भ्रमण वृत्तांत में मगध देश का वृत्तांत वर्णन करते हुए लिखा है कि इस देश में क्षत्रिय वंशों के नष्टप्राय हो जाने से बहुत ही गड़बड़ी मच गई है। ब्राह्मण लोग दान ग्रहण रूप अपना निजी कर्म छोड़ कर क्षत्रियों की जगह राज्य करते और 'सांग हे कांग' कहे जाते हैं। जिसका अनुवाद प्रोफेसर 'हाफमन' (Hoffman) ने भूमि छीननेवाला (land seizer) किया है।'
इससे यह भी सिद्ध है कि कम-से-कम दो सहस्र वर्षों से तो अवश्य ही अयाचक ब्राह्मणों में बहुतेरों की संज्ञा भूमिपति या भूम्यधिकारी है। क्योंकि 'लैंड सीजर' (Land seizer) शब्द का अर्थ भूमि पर अधिकार जमा लेनेवाला अर्थात भूम्यधिकारी हैं, कारण, कि अधिकार जमाने या बलात छीन लेने को ही अंग्रेजी में सीज (seize) कहते हैं। इस जगह पर लैंड सीजर (Land seizer) इस पद को देख झटपट उसका 'भूमिहार' ऐसा अर्थ कर के किसी ने ऐसा अनुमान किया है कि अयाचक ब्राह्मणों की भूमिहार संज्ञा भी दो सहस्र वर्षों से कम की नहीं है। परंतु यह बात उचित नहीं हैं। क्योंकि जिस मगध देश में ब्राह्मणों के लिए लैंड सीजर (land seizer) शब्द आया है वहाँ आज तक भूमिहार शब्द का प्रयोग हुआ ही नहीं। किंतु यहाँ तो ब्राह्मण मात्र के लिए ब्राह्मण, अथवा बाभन या ब्राह्मण शब्द आया करता है। हाँ, अब कहीं-कहीं भूमिहार ब्राह्मण महासभा के प्रचार से उसका भी प्रयोग होने लगा है। परंतु जिस बंगदेश में मगध है, उसी में, या उसके आसपास के प्रांतों में अधिकारी अथवा भूम्यधिकारी ब्राह्मण शब्द अयाचक ब्राह्मण जमींदारों के लिए आया करता है। इसीलिए जयपुर राज्यांतर्गत फुलेरा स्थान से प्रकाशित 'जात्यन्वेषण' नामक ग्रन्थ के प्रथम भाग में अकारादि नामवाली जातियों में अधिकारी या भूम्यधिकारी ब्राह्मणों का भी निरूपण आया है। इस विषय का विशेष निरूपण आगे करेंगे।
अस्तु, इसी प्रकार टी. डब्ल्यू. रियसडेविड्स, एल.एल. डी., पी-एच. डी. (T. W. Rhys Davids L. L-D. Ph.D.) ने जो अंग्रेजी पुस्तक 'बौद्धकालिक भारत - राज्यवंश-इतिहास' (The Story of the nations. Buddhist India) नामक लिखी हैं, उसमें 'जातक' प्रभृति पालि तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर इस प्रकार लिखा है कि :"The carpenters, smiths and potters, for instance, had villages of their own. So had the Brahmins, whose services were in request at every domestic events. Khomadussa, for instance, was a Brahmin settlement." (pages 20-21)
"The Angraja in the Buddha's time, was simply a wealthy nobleman and we only know of him as the grantor of a pension to a particular Brahmin." (Page 24)
"A very old text (Sa. B. 13-7-15) apparently implies that a piece of ground was given as a sacrificial fee." (Page 47)
"Great importance was attached to these rights of postures and forestry. The priests claimed to be able, as one result of performing a particular sacrifice, to ensure that a widet ract of such land should be provided. (Sat B. 13-3-7). And it is often made a special point, in describing the grant of a village to a priest, that it contained such commoneand." (Dialogue of Buddha, Page 48).
"It will have been seen, however, that the mass of the people, the villagers, occupied a social grade quite different from and for above our village folk. They held it degradation, to which only dire misfortune would drive them, to work for hire. They were proud of their standing, there family, and their village. And they were governed by headmen of their own class, and village, very probably selected from themselves in accordance with there own customs and ideals." (Vinaya Jatakas. Page 51)
"Then came the Brahmins claiming descent from the sacrificing priests, and though the majority of them followed then other pursuits, they were equally with the nobles (Chattris), distinguished by high birth and clear complexion. People could and did change their vocations by adopting one or other of these and low trades. Thus at Jat 5. 290, a love lorn Kshatriya works successfully (without any dishonour or penalty) as a potter, basket-maker, reedworker, garland-maker, and cook. Also at Jat, 6, 372. a Sethi works as a tailor and as a potter, and still retains the respect of his high born relations." (Page 57).
"The three upper classes had originally been one; for the nobles and priests were merely those members of the third class; the Vessas, who had raised themselves into a higher social rank. And though more difficult probably than it had been, it was still possible for analogous changes to take place. Poor men could become nobles, and both could become Brahmins" (page 55).
"That there was altogether a much freer possibility of change among the social rank than is usually suppossed is shown by the following instances of occupation; (1) A Kshstriya, a King's son, apprentices himself successively, in pursuance of a love affair, to a potter, a basket maker, a floorist and a cook, without a word being added as to loss of caste, when his action becomes known. (Jat. 11.5.290). (2) Another prince resigns his share in the kingdom in favour of his sister, and turns trader. (Jat. 4. 84). (3). A third prince goes to live with a merchant and earns his living by his hands. (Jat. 4. 169). (4) A noble takes, for a salary, as an archer (Jat. 2. 8). (5) A Brahmin takes to trade to make money to give away, (Jat. 4. 15). (6) Two other Brahmins live by trade without any such excuse. (Jat. 5. 22. 47.). (7) A Brahmin takes the post of an assistant to an archer, who had himself been previously a weaver. (Jat. 5. 127). (8-9) Brahmins live as hunters and trappers. (Jat 2. 200, 6, 170). (10) A Brahmin is a wheel-wright. (Jat. 4. 207). Brahmins are also frequently mentioned as engaged in agriculture and as hiring themselves out as cow-herds and even goat-herds. These are all instances from the Jatakas" (Page 56).
इस पूर्वोक्त अंग्रेजी ग्रन्थ का भाषानुवाद इस प्रकार है - 'जैसे बढ़ई, सोनार और कुम्हारों के गाँव थे, वैसे ही उन ब्राह्मणों को भी गाँव मिले थे जिनकी आवश्यकता प्रत्येक गृहकार्य में होती थी। दृष्टान्तार्थ खोमडुस्सा नामक एक ग्राम ब्राह्मणों की जमींदारी थी (पृ. 20-21)। बुद्धदेव के समय में जो अंग देश का राजा था उसके विषय में हमें इतना ही विदित हैं कि वह केवल एक धनाढय और प्रतिष्ठित पुरुष था और किसी विशेष ब्राह्मण को पेन्शन देता था (पृष्ठ 24)। एक प्राचीन ग्रन्थ (शतपथ ब्राह्मण 13। 7। 15) से यह स्पष्ट विदित होता है कि दक्षिणा में कुछ भूमि ब्राह्मणों को दी जाती थी' (पृ. 47)।
चारागाह और जंगलों के अधिकार की ओर ब्राह्मणों का विशेष ध्यान था। पुरोहित सर्वदा इस बात का दावा करते थे कि किसी यज्ञादि कराने के बदले उन्हें ऐसी ही भूमि की प्राप्ति हो। (शतपथ ब्राह्मण 13। 3। 7) दानपत्र लिखने में इस विषय का विशेष ध्यान रहता था कि इसमें इस प्रकार के एकाध चारागाह या जंगल भी रहें। (बुद्धदेव के उपदेश, पृ. 48)। देखने से प्रतीत होता है कि उस समय के सामान्य ग्रामीण जनों की सामाजिक अवस्था आधुनिक ग्रामीणों की अवस्था से बिलकुल ही मिलती-जुलती न थी, प्रत्युत बहुत ही चढ़ी-बढ़ी थी। यदि वे दुर्दैव वशात् वेतन (तनख्वाह) पर काम करते तो उसमें अपनी हतभाग्यता और अप्रतिष्ठा समझते थे। उनको अपनी सामाजिक अवस्था, कुटुंब और ग्राम का बड़ा गर्व था। बहुधा उनका शासन वे ही स्वर्गीय तथा स्वग्रामीण नेता करते थे, जिनको वे लोग अपनी परम्पराप्राप्त रीतियों और सिद्धांतों के अनुसार अपने में से चुनते थे।' (विनय जातक पृ. 51)।
'ब्राह्मण लोग अपने को पुरोहितों के वंशज कहा करते थे। और यद्यपि उस समय अधिकांश में वे लोग अन्यन्य व्यवसाय किया करते थे, तथापित भद्र पुरुषों (क्षत्रियों) की भाँति वे भी अपने उच्चवंश और गौरव के लिए प्रसिद्ध थे। लोग इन बीच व्यवसायों में से किसी को कर लेते और फिर अपने व्यवसाय को बदल सकते और बदल लेते थे। जैसाकि 'जातक' ग्रन्थ के 5/290 से विदित होता है कि एक स्त्री परित्यक्त क्षत्रिय निरंतर (बिना किसी मानहानि व दंड का भी भागी हुए) कुम्हार, धारिकार, चांडाल, माली तथा रसोईदार का काम करता था। यहाँ तक कि 'जातक' ग्रन्थ के 6/372 से विदित हैं कि सेठी (श्रेष्ठी या श्रेष्ठ पुरुष अथवा सेठ दर्जी और कुम्हार का काम करते हुए भी अपने को निज के उच्च श्रेणीवाले संबंधियों की भाँति गौरवान्वित ही समझते थे' (पृ. 57)।
'पहले द्विजाति लोग एक ही थे, कारण कि तृतीय अर्थात वैश्य वर्ग में से वे ही क्षत्रिय और ब्राह्मण (पुरोहित) हो जाते थे जो अपनी सामाजिक अवस्था में उन्नति कर लेते थे। यद्यपि अब यह बात संभवत: प्रथम से कठिन हो गई थी, फिर भी ऐसे परिवर्तनों की संभावना रहा करती थी। निर्धन लोग क्षत्रिय और दोनों ही ब्राह्मण हो सकते थे' (पृ. 55)।
नोट - यहाँ इस विषय को समझ लेना चाहिए कि 'सब द्विज एक ही थे, इस कथन का तात्पर्य यह नहीं है कि वस्तुत: वे लोग एक ही थे, किंतु उनके व्यवसाय ऐसे मिले थे और सभी का वेदादि का अभ्यास ऐसा छूटा था कि सभी एक से ही प्रतीत होते थे। अत: वास्तव में ब्राह्मणों में से ही जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ लेते थे, वे और ऐसा प्रतीत होता था कि वे वैश्यों में ही हुए हैं। इसी प्रकार वास्तव में क्षत्रिय ही बलवान, प्रतिष्ठित और धनी हो जाता था वही क्षत्रिय प्रतीत होता था, न कि दूसरे उसके जातीय लोग। इसलिए निर्धन से क्षत्रिय और ब्राह्मण होना लिखा है, न कि वास्तव में अन्य जाति अन्य हो सकती थी। इस कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि उस समय ब्राह्मणता का चिह्न केवल पुरोहिती या भिक्षावृत्ति न थी, किंतु वे लोग पूर्ण धनवान और प्रतिष्ठित एवं बलवान भी हुआ करते थे।
निम्नलिखित व्यवसाय (व्यापार, काम) संबंधी उदाहरणों से प्रकट होता है कि उस समय सामाजिक दशा में परिवर्तन होने की अधिकांश संभावना थी।' उदाहरण ये है :
(1) 'कोई किसी के प्रेम में बँधा हुआ क्षत्रिय राजकुमार धारिकार, माली और रसोईदार का काम निरंतर करता है, किंतु उसका यह कर्म लोगों पर प्रकट हो जाने पर भी जातिच्युत होने का दोष उस पर लगाया नहीं जाता (जातक 2। 5। 290)।
(2) कोई राजकुमार राजपाट का अपना अंश अपनी भगिनी को दे कर स्वयं वाणिज्य में प्रवृत्त हो जाता है (जातक 4। 84)।
(3) कोई राजकुमार व्यापारियों के साथ रहता और अपने हाथों कमा कर जीवन बिताता है (जातक 4। 169)।
(4) कोई क्षत्रिय वेतन (तनख्वाह) पर तीर चलाता है। (जातक 2। 8)।
(5) एक ब्राह्मण दान देने के लिए व्यापार (वाणिज्य) द्वारा धनोपार्जन करता है (जातक 4। 15)।
(6) दो ब्राह्मण ऐसे मिलते हैं जो बिना किसी विचार या शंका के व्यापार (वाणिज्य) द्वारा जीविका करते हैं (जातक 5। 22। 47)।
(7) एक ब्राह्मण जो प्रथम कपड़ा बुनता था, किसी तीर चलानेवाले का सहायक बनता है (जातक 5। 127)।
(8, 9) ब्राह्मण लोगव्याधा और शिकारी (जाल फैलानेवाले) का काम करते हैं' (जातक 2। 200, 6। 170)।
नोट - इस दृष्टांत से स्पष्ट है कि शास्त्राभ्यास की कमी से धार्मिक भाव बहुत ही शिथिल हो रहा था जिससे ब्राह्मणादि अपने को ही नहीं पहचान सके थे।
(10) 'कोई ब्राह्मण पहिया बनाने का काम करता है (जा. 4। 207)। ब्राह्मण लोग बहुधा कृषि करनेवाले पाए जाते हैं और वेतन पर अहीर और गड़रिए का काम भी करते हैं। ये सब उदाहरण जातक नामक पालि भाषा के ग्रन्थों से उदधृत है।' (पृ. 6)।
इस पूर्व कथन से यह बात स्पष्ट झलक रही है कि बौद्धकाल में ब्राह्मणों में वैदिक एवं स्मार्त्त भाव कैसा मंद हो रहा था और शास्त्रीय ज्ञान से विमुख हो सभी लोग कैसे स्वेच्छाचारी हो रहे थे। साथ ही, ब्राह्मण लोग भी विशेष रूप से कृषि वाणिज्य में ही दत्तचित्त थे। यह दशा सनातनधर्म की केवल बौद्ध धर्म के प्रभाव से ही नहीं हुई थी, किंतु 'आगमापायिनोनत्या:' अर्थात सभी सांसारिक पदार्थ एक से रहनेवाले नहीं है, इस प्रकृति के अटल नियमानुसार बौद्धधर्म के आगमन से पूर्व ही थी। जैसा कि हम कह चुके है कि सनातनधर्म का सोन्मुख हो रहा था। इसी बात को पूर्वोक्त ही अंग्रेजी ग्रन्थ में इस प्रकार कहा है :
And a fortiori-unless it be maintained that Buddhism brought about a great change in this respect, the state of things must have been even more lax at the time when Buddhism arose.(Page 56)
इसका भाव यह है कि 'पृष्ठ 56 में लिखा है कि जब तक प्रबल प्रमाण से यह मिल न हो जावे कि पूर्वोक्त विषयों में बौद्धधर्म ने बहुत बड़ा उलट-फेर किया, यह बात अवश्य स्वीकार करनी होगी कि जिस समय बौद्धधर्म भारत में आया उस समय प्राचीन बातें बहुत ढीली पड़ रही थीं।' इसके बाद पूर्वोक्त ही ग्रन्थ के Brahmin Position अर्थात 'ब्राह्मणों की स्थिति' नामक प्रकरण में 249वें पृष्ठ में ब्राह्मणों या पुरोहितों के विषय में विशेष रूप से सन ईस्वी से 600 वर्ष पूर्व की बात यों लिखी है :
In any case there was no central organization of the priest-hood; there where no permanent temples to their, good, and such sacred shrines as the people could frequent were the sacred trees or other objects of veneration belonging to the worship of the local gods and quite apart from the cults or influence of the priests And the latter were divided against themselves. They vied with one another for sacrificial fees. The demand for their services was insufficient, to maintain them all Brahmins followed, therefore, all sorts of other occupations; and those of them not continually busied about the sacrifice were often inclined to views of life, and of religion, different from the views of those who were, We find Brahmins ranking tappas, self-torture, above sacrifice (page 249).
इसका अर्थ यह है कि 'किसी दशा में भी पुरोहितों की कोई प्रधान संस्था न थी। उनके देवताओं के निमित्त कोई स्थायी मन्दिर न थे। ऐसे पवित्र देव स्थान, जहाँ पर लोग प्राय: जाया करते थे, या तो पवित्र वृक्ष थे या स्थानीय देव पूजा संबंधी पवित्र पदार्थ जो कि पुरोहितों के अन्धविश्वास और प्रभावों से बिलकुल अलग थे। पुरोहित लोगों में परस्पर विरुद्ध दलबंदी थी और वे लोग दक्षिणा के लिए परस्पर एक-दूसरे से स्पर्धा रखते थे। पुरोहितों की चाह इतनी कम थी कि पुरोहिती से सबकी जीविका न हो सकती थी। इसलिए ब्राह्मण लोग सभी प्रकार के अन्य व्यवसाय (कृषि, वाणिज्यादि) करते थे। उनमें से जो निरंतर ही पुरोहिती न करते थे अर्थात अन्य उपायों द्वारा जीविका करते थे, उनके धार्मिक और आध्यात्मिक विचार प्राय: उन लोगों के विचारों से विपरीत थे, जो पुरोहिती में दिन-रात लगे हुए थे। उस समय ऐसे भी ब्राह्मण पाए जाते थे जो पूजा-पाठ की अपेक्षा तपस्या को श्रेष्ठ समझते थे।'
इसके बाद ही लिखते हैं कि :
Unable, therefore; to stay the progress of newer ideas, the priests strove to turn the incoming tide into the channels favourable to their orders.
अर्थात 'इन पूर्वोक्त नए विचारों की उन्नति रोकने में असमर्थ हो पुरोहित लोग इन नए विचारों को अपने समाज के अनुकूल परिवर्तित करने के यत्न करने लगे।' तात्पर्य यह है कि जिन किसी प्रकार के अन्य विचारवाले पुरोहितों के फन्दे में आ फँसे उसी का यत्न करने लगे। पुरोहिती की प्रशंसा करने तथा अन्य व्यवसायवाले ब्राह्मण दिवर्णों को हर तरह से नीच बनाने का यत्न करने लगे, जिससे वे लोग उन्हें मानने और पूजने लगें। यही कारण हैं कि संपूर्ण शास्त्र, पुराण निंदित पुरोहिती भी आज श्रेष्ठ मानी जा रही है और जो उसका न करनेवाला हो वह ब्राह्मण ही नहीं समझा जाता। क्योंकि यही समझने और समझाने लग गए थे और लग गए हैं कि दान लेना ही ब्राह्मणता का चिह्न है। यद्यपि इस विषय का सूत्रपात पूर्वोक्त लेखानुसार बौद्ध काल में ही हुआ था, परंतु आते-आते यवन काल में उसकी पुष्टि हो गई, जिसका निरूपण आगे करेंगे।
आनरेब्ल मौंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन साहब ने (Hon Mount Stuart Elphinstone) भी अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' (History of India) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में मनु भगवान के बाद से ले कर आज तक के परिवर्तनों का निरूपण इसी प्रकार ग्रीक तथा पालि आदि ग्रन्थों के आधार पर किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक से 54-55 पृष्ठों में मनु भगवान के बाद से आज तक जो उलट-फेर हमारे रस्म-रिवाजों में हो गए हैं, उनका वर्णन करते हुए ब्राह्मणों के विषय में लिखा है कि :
The Bramins themselves, although they have preserved their own lineage undisputed, have, in great measure, departed from the rules and practices or their predecessors. In some particulars they are more than formerly, being denied the use of animal food, and restrained from inter-marriages with the inferior class; but in most respects their practice is greatly relaxed, The whole of the four-fold division of their life, with all restraints imposed on students, hermits, and abstracted devotees, is now laid aside as regards the community; though individuals at their choice. May still adopt some one of the modes of life which formerly were to be gone through in turn by all.
Bramins now enter into services, and are to be found in all trades and professions. The number of them supported by charity, according to the original system, is quite insignificant in proportion to the whole. It is common to see them as husbandmen, and, still more, as soldiers; and even of those trades which were expressly forbidden to them under severe panalties, they only scruple to exercise the most degraded, and in some places not even those. In the south of India however, their peculiar secular occupations are those connected with writing and public business. From the minister of state down to the village accountant the greater number of situations of this sort are in their hands, as in all interpretation of the Hindu Law, a large share of the ministry of religion, and many employments (such as farmers of the revenue & c.) where a knowledge of writing and business is required. In the parts of Hindostan where the Moghal system was fully introduced, the use of the Persian language has thrown public business into the hands of Mussulmans and Cayets (a caste of sudras). Even in the Nizam's territorries in the Deckan the same cause has in some degree diminished the employments of the Bramins, but still they must be admitted to have every where a more avowed share in the government then in the time of Menu'scode, when one Brahmin counsellor, together with the judges, made the whole of their protion in the direct enjoy ment of power.
It might be expected that this worldly turn of their pursuits would deprive the Bramins of some part of their religious influence; and accordingly, it is stated by a very high authority (Prof. wilson, Asiatic Researches) that (in the provinces on the Ganges, at least) they are nul as a herearchy, and as literary body few and little countenarced. Even in the direction of consciences of families and of individuals they have there been supplanted by Gosayens and other monastic orders.
Yet even in Bengal they appear still to be the objects of veneration and of profuse liberality to the laity. The ministry of most temples, and the conduct of religious ceremonies, must still remain with them; and in some parts of India no diminution whatever can be perceived in their spiritual authority. Such is certainly the case in the Maratta country and would appear, to be so like-wise in the west of Hindostan. The temporal influence derived from their number, affluence, and rank subsists in all parts; but even where the Bramins have retained their religious authority they have lost much of their popularity.
इसका मर्मानुवाद यह है कि 'यद्यपि ब्राह्मण अपनी वंश परम्परा पर स्थित हैं, तथापि अपने पूर्वजों की अपेक्षा उनके आचार-व्यवहारों में बहुत भिन्नता पाई जाती है। मांस न खाने और नीचों के साथ विवाह न करने में अपने पूर्वजों से बढ़ गए हैं, परंतु बहुत सी बातों में प्रथम की अपेक्षा उनके आचार-व्यवहार ढीले हो गए हैं। साधारणत: समाज-भर में चारों आश्रमों और उनके नियमों का पालन नहीं होता। हाँ, कोई-कोई स्वेच्छानुसार किसी-किसी आश्रम का अनियमित रूप से पालन करता है, जिनका पालन पहले सभी क्रमश: करते थे। ब्राह्मण लोग अब नौकरी एवं अन्य वाणिज्य, व्यापार करनेवाले पाए जाते हैं। प्राचीन प्रथा के अनुसार दान द्वारा जीवन व्यतीत करनेवालों की संख्या अब बहुत कम हो गई है। साधारणत: कृषि और युद्ध विद्यावाले पाए जाते हैं, और वे लोग उन वस्तुओं का भी विक्रय करते हैं जिनका विक्रय प्रथम निषिद्ध और दंडनीय समझा जाता था। कहीं-कहीं वे लोग ऐसा करना घृणित समझते हैं और कहीं-कहीं नहीं। दक्षिण भारत में उन लोगों के काम लिखना और जनसाधारण के कार्य है। मन्त्री पद से ले कर ग्राम कार्यकर्ता तक के पद बहुधा उन्हीं के हाथों में रहते हैं और जिनमें लिखने और व्यवहार की निपुणता अपेक्षित हैं ऐसे कार्य भी। जैसे धर्मशास्त्रों के अनुवाद, धार्मिक प्रबंध का अधिकांश और अन्य बहुत से व्यापार, जैसे मालगुजारी का उगाहना आदि। भारतवर्ष के उन भागों में जहाँ मुगल राज्य पूर्ण तया स्थापित था, फारसी भाषा के प्रचार ने जन साधारण का कार्य मुसलमानों और कायस्थों (एक प्रकार के शूद्रों) के हाथों में डाल दिया है। इसी प्रकार निजाम सरकार के राज्य में भी इसी कारण ने ब्राह्मणों के इन व्यवसायों को घटा दिया है। तथापि मनु के समय की अपेक्षा उनको राज्य प्रबंध का अधिक भाग मिला है इस बात को मानना पड़ेगा। क्योंकि उस समय ब्राह्मण मन्त्री न्याय कर्ताओं के सहित राज्य के सब अधिकार अपने अधीन रखते थे। इससे मालूम पड़ता है कि ब्राह्मणों की सांसारिक व्यवहार संबंधिनी प्रवृत्ति ने उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों से उन्हें रहित कर दिया है और इसके अनुसार, जैसा कि एक अत्यन्त माननीय लेखक (प्रोफेसर विलसन) ने (एशिया संबंधी अंवेषण नामक ग्रन्थ में) लिखा है कि (कम-से-कम गंगा के निकटवर्ती प्रदेशों में) पुरोहितों के रूप में वे लोग नहीं हैं अर्थात पुरोहिती नहीं करते और विद्वान भी बहुत कम है। वंशों और व्यक्तियों को धार्मिक उपदेश उनकी जगह गोसाईं (साधु) लोग करते हैं। तथापि बंगाल में ये प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं और गृहस्थ इन्हें दान में बहुत उदार होते हैं।
नोट - 'इससे मालूम पड़ता है', तथा विलसन की सम्मति आदि सभी कथन इन त्यागी, भूमिहारादि ब्राह्मणों को ही विशेष रूप से उद्देश्य कर के हैं, क्योंकि ठीक-ठीक यही स्थिति इस समय इनकी है और इससे कुछ दिन प्रथम भी थी।
'बहुत से मंदिरों तथा धर्म संबंधी कार्यों के अधिकार इन्हीं के हाथ में अब तक हैं और भारत के बहुत से भागों में इनके धार्मिक अधिकार में कुछ भी कमी नहीं हैं। यही दशा महाराष्ट्र और भारत के पश्चिमी भाग में भी है। भारतवर्ष के सभी भागों में इनकी संख्या, धन और सामाजिक अवस्था के कारण इनकी सांसारिक प्रतिष्ठा है। परंतु जहाँ ब्राह्मणों का धार्मिक अधिकार जमा हैं वहाँ भी लोकप्रियता अधिकांश में चली गई है।'
नोट - ये सब बातें विशेष कर अयाचक ब्राह्मण में ही पाई जाती है।
इस पूर्व कथन से स्पष्ट है कि मनु भगवान के बाद से आज तक ब्राह्मणों की दशा में पृथ्वी-आकाश का-सा अन्तर हो गया है, सभी रीतियाँ दूसरी ही हो गई है और ब्राह्मणों में कृषि, वाणिज्यादि करनेवाला एक अयाचक दल प्रबल हो गया है, जो आज भी स्पष्ट ही देखने में आ रहा है। किसी दल के अन्तर्गत हमारे प्रकृत अयाचक दल के ब्राह्मण भी हैं।
इसके बाद विशेष रूप से मेगस्थनीज आदि ग्रीक (यूनानी) लेखकों के ही आधार पर सन ईस्वी से 300 पूर्व की दशा का ऐसा ही वर्णन पूर्वोक्त ही पुस्तक के 236-237वें आदि पृष्ठों में इस प्रकार है :
They suppose as has been mentioned, that those who were the kings' councillors and judges formed a separate class. It is evident, also, that they classed the Brahmins, who exercised civil and military functions, with the casts to whom those employents properly belonged.
They appear to have possessed separate villages as early as the time of Alexander; to have already assumed the military character on occasions; and to have defended themselves with that fury and desperation which sometime still characteries Hindus. Their interference in politics, likewise, is exhibited by their instigating Sambus to fly from Alexander and Musicanus to break the peace he had concluded with that conqueror. Strabo mentions a sect called Pramnae, who were remarkable for being disputious, and who derided the Brahmins for their attention to physics and astronomy. He considers them as a separate class, but they were probably Brahmins themselves, only attached to a particular school of Philosophy.
तात्पर्य यह है - 'वे (यूनानी लेखक) ऐसा समझते थे, जैसा कि लोगों ने कहा है कि जो राजाओं के मन्त्री और न्यायकर्ता थे, उनकी अलग जाति थी। लेकिन यह बात भी स्पष्ट है कि वे लोग (मन्त्री आदि) उन ब्राह्मणों को जो न्याय और युद्ध कार्य किया करते थे उन जातियों में सम्मिलित करते थे जिनके वे समुचित धर्म समझे जाते हैं। अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रियादि युद्ध वगैरह किया करते थे।
ब्राह्मणों के पास पृथक-पृथक ग्राम सिकंदर के समय से ही थे और समय पर वे लोग युद्ध करते और उस साहस और वीरता के साथ शत्रुओं से अपनी रक्षा करते थे जो आज भी कभी-कभी हिंदुओं की प्रशंसा करवाती हैं। राजनीति में भी उनके हाथ डालने का पता इसी से चलता है कि उन्होंने सम्बुस को सिकंदर और म्यूजिकेनस के यहाँ से इसीलिए भाग जाने को दबाया कि जिसमें सिकंदर के साथ उसकी संधि न हो सके। स्ट्रैबो (यूनानी यात्री) ने एक ऐसे दल का वर्णन किया है जो प्रामणी (प्रामाणिक या नैयायिक) कहलाता और अपने झगड़ालू (वाद-विवादासक्त) स्वभाव के लिए प्रसिद्ध था, और ज्योतिषी तथा वैद्याकादि शारीरिक विज्ञान में आसक्त ब्राह्मणों की हँसी उड़ाया करता था। वह (स्ट्रैबो) उनकी अलग जाति समझता था। परंतु वे लोग ब्राह्मण ही थे। हाँ, केवल भिन्न दर्शन (न्याय के) अभ्यासी थे।'
अंग्रेज लेखकों की अब तक दी गई इतनी सम्मतियों से यही बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गई कि मनु भगवान के पश्चात बौद्धकाल से ले कर यवन काल तक ब्राह्मणों के विचारादि पूर्व से बहुत अंशों में एकदम विपरीत हो गए थे और उनका धार्मिक, शास्त्रीय तथा सामाजिक बंधन ढीला हो गया था। इसीलिए एक प्रकार की स्वतन्त्रता (उच्छृंखलता) पिशाची ने उन्हें ग्रस लिया था। साथ ही, स्वार्थ और परस्पर ईष्या तथा राग-द्वेष की मात्रा भी बढ़ती गई और पुरोहित दल अपने प्रभाव को सभी दूसरे दल वालों पर जमाने के लिए दान लेने आदि के ही महत्व को स्वर को अलापने लगा और तदनुसार ही दान त्यागियों (अयाचकों) के दबाए जाने की चेष्टा की जाने लगी, इसको भी दिखला चुके हैं। इतना ही नहीं, बल्कि उस राग-द्वेष की मात्रा इतनी बढ़ गई कि याचक (पुरोहित) दलवाले ब्राह्मण अपने-अपने प्रकर्ष के लिए परस्पर ही एक-दूसरे को इतना दबाने लगे कि एक-दूसरे को नीच बनाते-बनाते यह भी कहने लगे कि हम ही असल ब्राह्मण हैं। दूसरों का तो कुछ पता ही नहीं हैं, वे लोग तो बनावटी हैं इत्यादि। यह बात आज तक भी याचक ब्राह्मणों में सभी जगह घूम कर आँखों देखी और कानों सुनी है।
यदि यह बात न होती तो आज सवा लक्खी (125000) बनाए हुए ब्राह्मणों की किंवदंती क्यों मैथिल, कान्यकुब्ज, दाक्षिणात्य और सर्यूपारीणादि सभी ब्राह्मणों में पाई जाती? क्या सभी जगह वस्तुत: ऐसी ही अंधेर थी, यह संभावना भी हो सकती हैं? सभी ब्राह्मणों के विषय में ऐसी किंवदंतियाँ देखने या सुनने की जिन्हें इच्छा हो वे अंग्रेजों के लिखे हुए सभी देश के ब्राह्मणों के इतिहासों को पढ़ ले। क्योंकि वे लोग इस देश के हैं नहीं, कि अपने आप भी बना लेंगे, किंतु लोगों से जैसा सुना वैसा ही लिख दिया और उसी आधार अपने इस सिद्धांत को पुष्ट करने लगे कि हिंदुओं में भी प्रथम जाति विभाग न था इत्यादि। क्या ही आश्चर्य हैं कि जरासंधवाली जो किंवदंती आजकल इन अयाचक (भूमिहारादि) ब्राह्मणों के विषय में रची गई है और जिसका विशेष रूप से खण्डन द्वितीय परिच्छेद में करेंगे, वही राजा सेवई सिंह के नाम पर मैथिलों में शालिवाहन या किसी अन्य के नाम पर सर्यूपारियों में आदि-आदि, सर्वत्र ही अविकल रूप से प्रचलित है! क्या यह याचक ब्राह्मणों के पूर्वोक्त प्रचंड राग-द्वेष और ईर्ष्या को पुष्ट नहीं कर रही है? इससे आज 10 या 20 वर्षों से इन अयाचक (भूमिहारादि) ब्राह्मणों के इतर ब्राह्मणों द्वारा बे तरह दबाए जाने का कारण पाठक अवश्य ही समझ गए होंगे।
क्या कारण हैं कि 20 या 25 वर्षों से पूर्व प्राय: जिन अंग्रेजों ने जातीय इतिहास या मनुष्य गणना की रिपोर्ट लिखी है, उन्होंने इन त्यागी, पश्चिम, भूमिहारादि ब्राह्मणों को साफ-साफ कान्यकुब्जों, मैथिलों, गौड़ों या अन्य प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की ही श्रेणी में रखा है, जैसा कि आगे विदित होगा, और इसके विषय में इधर प्रचलित किंवदंतियों का नाम भी न लिया हैं, चाहे अन्य ब्राह्मणों के विषय में कहीं-कहीं पर कुछ ऐसी किंवदंतियाँ आ भी गई है? परंतु जिस तिथि को भूमिहार या त्यागी ब्राह्मण सभा का जन्म हुआ उसी दिन से हवा ही पलट गई, किंवदंतियों की झड़ी लग गई और कहीं-कहीं इधर के विदेशी एवं स्वदेशी लेखकों की लेखनी भी विपरीत दिशा में चलने लगी और याचक (पुरोहित) ब्राह्मणों द्वारा बहुत-सी मिथ्या उपन्यास सदृश पुस्तकें इनके विपरीत धड़ाधड़ लिखी जाने और प्रकाशित होने लगीं। जैसी पुस्तकों के 20 वर्ष पूर्व नाम भी न थे। क्या यह वही बात नहीं हैं जैसा कि पूर्व में 'रियसडेविड्स' (Rhys-Davids) के लेखों से दिखला चुके हैं कि पुरोहित लोग इन नए विचारों को पसंद न कर उन सबों को अपने अनुकूल बनाने के लिए बहुत से यत्न और कल्पनाएँ करने लगे?
अस्तु, इस प्रकार जब शास्त्राभ्यास लुप्तप्राय हो कर स्वच्छंदता और कृषि, वाणिज्य एवं राज्य तथा भूमि प्रियता ब्राह्मणों में बे तरह बढ़ गई और प्रतिग्रहादि की प्रशंसा और उसी के ब्राह्मणता के चिह्न होने की तान कहीं-कहीं सुनाने लगी, तो जैसा कि भूमिका में ही कह चुके हैं कि जो अयाचक ब्राह्मण बड़े-बड़े जमींदार और राजे-महाराजे थे, बहुत दिनों बाद उनकी क्रमश: यह धारण होने लगी कि प्रतिग्रह विशेष रूप से ब्राह्मणता का चिह्न हैं। अत: प्रतिग्राही ही माननीय ब्राह्मण है। हम लोग भी यद्यपि ब्राह्मण ही हैं, तथापि ब्राह्मणानुचित कर्म राज्य एवं कृष्यादि करने से हमारी स्थिति वैसी नहीं रह गई। अत: हम में पूज्यता भी नहीं रह गई। इस भ्रम में उनका बड़ा भारी सहकारी शास्त्रों का अज्ञान था जिससे वे स्वयं पवित्र एवं पूज्य ब्राह्मण शब्द के शुद्ध अर्थ को समझ नहीं सकते थे, किंतु जो कोई उन्हें जैसा समझा देता था वैसा ही समझ लेते थे। विशेष कर गुरु तथा पुरोहितों के वचनों पर उनका पूर्ण विश्वास था और लोग अपने अर्थ की सिद्धि के लिए ऐसा करते थे। यहाँ तक कि उनके दिन-रात के इस आंदोलन से प्रकृति में भी यही भाव भर रहा था, क्योंकि वे लोग ही उपदेष्टा थे।
यद्यपि पुरोहित लोग भी शास्त्राभ्यासी न होने के कारण और स्वार्थवश ही ऐसा करते थे। तथापि उनमें अपनी पवित्र (पूज्य) ब्राह्मणता के अभिमान के बने रहने में एक तो उनकी वही धारण कारण थी और दूसरे पुरोहिती के कारण कुछ-न-कुछ शास्त्रों का संपर्क उनके साथ रह गया था अत: उनका वह अभिमान बना रह गया। परंतु जो उनके दल से बाहर अयाचक ब्राह्मण थे, उनको अपनी पूज्य ब्राह्मणता का अभिमान निरवलंबन होने से क्रमश: जाता रहा। इसी प्रकार होते-होते यवन (मुसलमान) राज्य काल आ गया, और शास्त्रों का कौन कहे संस्कृत विद्या का भी अभाव-सा हो गया। प्रत्युत उसकी विरोधिनी फारसी भाषा का साम्राज्य होने लगा। जिससे राजकार्य में विशेष सम्बन्ध रखनेवाले ब्राह्मण विशेष रूप से फारसी के प्रेमी हो गए, जो बात आज तक भी विशेषत: इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों और पश्चिम भारत के भी प्राय: सभी ब्राह्मणों में पाई जाती है। क्योंकि वे लोग भी बड़े-बड़े जमींदार होने से यवनों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते थे। इसीलिए उनमें और इनमें भी यवनों के बहुत से धर्म आ गए। जैसा कि फारसी का पढ़ना, तम्बाकू पीना और प्रणाम, नमस्कार की जगह सलाम करना इत्यादि। क्योंकि 'राजा नमनरुवत्तांते यथा राजा तथा प्रजा', संसर्गजादोषगुणा भवन्ति', अर्थात प्रजा राजा की अनुसारिणी होती है और जिसका विशेष संग किया जावे, उसके गुण और दोष अपने में आ जाया करते हैं', इस नियम को सभी लोग मानते हैं। इसलिए आज जिन मिथिलादि देशों में पूर्ववत संस्कृत के ही विद्वान होने चाहिए, वहाँ आज जिस ओर देखिए अंग्रेजी का ही साम्राज्य है। इस बात को भूमिका में ही विस्पष्ट रूप से दिखला चुके हैं और यह भी वहीं लिख चुके हैं कि प्राय: इस देश के पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों में फारसी का विशेष रूप से प्रचार न हो कर क्यों कहीं-कहीं संस्कृत का प्रचार रह गया। क्योंकि जैसा कि आजकल जो ही अंग्रेजी पढ़े उसी की अंग्रेजी राज्य में प्रतिष्ठा होती है, इसलिए सभी अंग्रेजी पढ़ते हैं, वैसी बात प्रथम न थी। किंतु जो लोग बड़े-बड़े जमींदार और राजे-महाराजे थे, उन्हीं की प्रतिष्ठा फारसी पढ़ कर भी होती थी। इसीलिए लाचार हो कर और अपनी पुरोहिती को स्थित रखने के लिए भी पुरोहित ब्राह्मण संस्कृत में ही थोड़ा-बहुत लगे रहते थे।
इस प्रकार जब प्रथम ही अयाचक भूमिपति ब्राह्मण राजाओं, महाराजाओं के प्रसंग वंश पूछने पर कि 'हम लोग कैसे ब्राह्मण कहे जा सकते हैं? गुरु या पुरोहित यह कह दिया करते थे कि धर्मावतार! आप तो ब्राह्मण क्या राजा बाबू हैं और हम लोग भिक्षु हैं। तो इसे सुन वे लोग फूल कर कुप्पा हो जाया करते थे। जब यवन राज्यकाल में पूर्वोक्त दशा हो गई तो प्रसंगवश बहुधा उन्हीं गुरुओं तथा पुरोहितों के बार-बार कहने, अपनी स्थिति के भी वैसी ही होने और फारसी के प्रचार से भी जिन ब्राह्मणों में प्रथम अयाचक शब्द का प्रयोग होता था और पीछे भूमिपति या भूम्यधिकारी ब्राह्मण शब्द का। अब उन्हीं के लिए जमींदार ब्राह्मण शब्द का प्रयोग होने लगा। जो आज तक प्रयागादि प्रांतों में इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों और अन्य मैथिल तथा कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों में भी कहीं-कहीं पाया जाता है, जैसा कि भूमिका में दिखला चुके हैं। इसके थोड़े ही दिन बाद जब शास्त्रानभिज्ञता पिशाची जमींदार ब्राह्मणों पर और सवार हो गई और उनकी यह धारणा होने लगी कि प्रतिग्रह लेने और पुरोहिती करनेवालों को ही ब्राह्मण कहते हैं, जैसा कि जमींदार ब्राह्मणों से अन्य ब्राह्मणों में सभी जगह वे देखते थे, तो निश्चय कर लिया कि ब्राह्मण जाति तो भिक्षु हुआ करती है। परंतु हम लोग तो धनाढय और जमींदार हैं। क्या हम लोग दूसरों के घर दान लेने जाते हैं कि अपने को ब्राह्मण कहें? इसलिए हम लोग जमींदार हैं! बस इसी समय से केवल जमींदार शब्द का प्रयोग अयाचक ब्राह्मणों में होने लगा। जो आज तक इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों में बहुत जगह केवल स्वतन्त्र रूप से और बहुत जगह भूमिहार, बाभन, पश्चिम, ब्राह्मण, बाम्हन, तगा या त्यागी शब्दों के साथ प्रचलित हैं। इसलिए लोग कभी उसका और अन्य शब्दों का भी कभी-कभी प्रयोग किया करते हैं।
इसी जगह यह बात भी स्मरण रखने योग्य है कि यद्यपि अयाचक ब्राह्मणों की संज्ञा प्रभृति में बहुत-सा उलट-फेर हो गया, तथापि साक्षात या परम्परा से अयाचक और याचक ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध और खान-पान आदि बहुत जगह मिले हुए थे। हाँ, कहीं-कहीं ढीले पड़ रहे थे। परंतु एकदम छूट न गए थे और न आज तक छूट गए ही हैं। इसीलिए पश्चिम के अंबाला, प्रयागादि प्रांतों और पूर्व के मिथिला प्रांत में अब तक बहुत जगह खान-पान तथा विवाह-सम्बन्ध परस्पर प्रचलित हैं, जैसा कि आगे मालूम होगा। इन सब व्यवहारों के बने रहने में कारण यह था कि यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के एक पृथक दल के बनने का सूत्रपात अभी हो रहा था - सभी ब्राह्मणों में से, चाहे वे गौड़ देशीय, पंजाबी, कान्यकुब्ज देशीय, अथवा मिथिला देशीय हो, जो अयाचक थे और जिनके पास बड़ी-बड़ी भूसंपत्ति या प्रतिष्ठा थी, उनका एक पृथक दल भविष्य में बन जावेगा ऐसे चिह्न प्रतीत हो रहे थे - तथापि ऐसे सभी अयाचक ब्राह्मणों को ब्राह्मण शब्द से घृणा नहीं हो रही थी और न आज तक हुई ही हैं। किंतु जहाँ प्रचंड अविद्या या राज्य एवं भूमि मद था वहीं पर कहीं-कहीं इसके लक्षण दिखलाई देते थे। जैसा कि काशी के आसपास के 5, 7 या 10 जिलों में अब तक प्राय: पाया जाता है। परंतु इससे पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ बराबर अयाचक, जमींदार, त्यागी, महियाल, भूमिहार या पश्चिम शब्द के साथ अथवा केवल ही ब्राह्मण या बाभन शब्द का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि मिथिला (तिरहुत) में पश्चिम ब्राह्मण, प्रयागादि में जमींदार ब्राह्मण, मगध में केवल ब्राह्मण या बाभन, मेरठ प्रभृती में त्यागी और झेलम आदि जिलों में महियाल शब्द अब तक पाया जाता है, जो इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के लिए आता है।
इन प्रांतों में ब्राह्मण शब्द से घृणा न होने, या उसके प्रयोग बने रहने में बड़े भारी सहकारी वही पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों के साथ साक्षात या परम्परा या विवाह-सम्बन्ध और खान-पान समझे जाने चाहिए और अन्य किसी भी याचक ब्राह्मण या दूसरी जातियों के विषय में आजकल ऐसी शंका न हो कर कहीं-कहीं इस अयाचक नामधारी ब्राह्मण जाति के विषय में जो यह उत्तम, मध्यमादि की शंका उत्पन्न होने लग गई है, उसमें भी यही कारण है कि बहुत जगह इस समाज के लोगों ने अपने को ब्राह्मण कहने से घृणा कर उस शब्द का प्रयोग उठा दिया है। परंतु फिर भी साक्षात् या परम्परा या अन्य ब्राह्मणों के साथ विवाह आदि पाए जाते हैं और साथ ही लोगों की यह भी मिथ्या धारणा हो गई है कि दान लेनेवाले को ही ब्राह्मण कहते हैं और कृष्यादि ब्राह्मणों के धर्म नहीं हैं। यदि हैं भी तो दान के साथ ही इत्यादि। ये ही दोनों प्रकार की बातें आजकल की समस्त कुशंकाओं और कुकल्पनाओं की जड़े हैं। ऐसी बात किसी भी समाज में नहीं पाई जाती कि उसमें जिस जाति का शब्द कहीं न हो उसके साथ भी खान-पान और विवाह-सम्बन्ध हो और यदि ऐसी बात कहीं हैं, तो उसके विषय में शंका भी अवश्य है या होगी।
कहीं-कहीं केवल जमींदार, भूमिहार, त्यागी (तगा), महियाल या बाभन अथवा ब्राह्मणादि शब्दों के प्रयोग करने का एक यह भी कारण समझ लेना चाहिए कि 'नामैकदेशेन नामग्रहणम्' अर्थात 'संपूर्ण यौगिक नाम की जगह उसी अर्थ में उसके एक अंश का प्रयोग भी होता है', ऐसा व्याकरण महाभाष्य में बहुत जगह लिखा है। जिसका दृष्टांत यह है कि 'भीमसेन' की जगह 'भीम', भीष्मपितामह की जगह 'भीष्म', सत्यभामा की जगह 'सत्या' अथवा 'भामा', रामचरित्र की जगह 'चरित्र' इत्यादि। परंतु इससे कोई यह नहीं का सकता कि भीम का नाम वास्तव में भीमसेन नहीं हैं, या चरित्र का रामचरित्र। इसी बात को महर्षि कात्यायन ने व्याकरण वाक्तविक में कहा है कि 'विनापि प्रत्यय पूर्वोत्तारयो: पदयोर्लोपो वक्तव्य:'। अर्थात यौगिक नामों के पूर्व अवस्था उत्तर भागों का यों ही लोप हो कर केवल एक भाग का भी प्रयोग हुआ करता है। इन्हीं सब रीतियों के अनुसार भी लोगों ने कहीं केवल त्यागी (तगा) या भूमिहार और कहीं केवल बाभन या ब्राह्मण शब्द का प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया, परंतु उनके व्यवहार पूर्ववत ही रह गए।
जब कुछ दिन बाद लोग भ्रमवश ऐसा समझने लगे कि वास्तव में नाम उतने ही बड़े हैं, तो भूमिहार या त्यागी ब्राह्मण महासभा, या अन्य उपदेशकों ने उन्हें सिर्फ चिंता-भर दिया। परंतु उनकी इस अज्ञान निद्रा के खुलने और नूतन दृष्टि के फिर हो जाने से स्वार्थांध और अकारण विद्वेषी रूप चोरों के लूटने में बाधा उपस्थित होने की संभावना होने लगी, कि ऐसा न हो कि कभी गुरुआई और पुरोहिती से भी हाथ धोना पड़ जावे। क्योंकि उनकी दशा तो ठीक ऐसी ही है, जैसा कि तुलसीदास जी ने कहा है कि :
सूख हाड़ ले भाग शठ, श्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेई जिमि जानि जड़ तिमि सुरपतिहिं न लाज॥
और यदि ऐसा कदाचित हो गया तो हमारी अथवा हमारे वंशजों की बड़ी भारी आमदनी मारी जावेगी। इसलिए 'अग्रशोची सदा सुखी' इस नियम के अनुसार वे लोग, जैसा कि बौद्ध काल में 'रियसडेविड्स' के वचन दिखला चुके हैं, आजकल भी इनके विषय में धड़ाधड़ कल्पित पुस्तकें रचने और प्रकाशित करने लगे और अपनी या अपने अयोग्य पुरोहित भाइयों की सेवा ही इन लोगों का मुख्य कर्तव्य बतलाने लगे। परंतु दुर्बुद्धिवश यह नहीं विचार सके, विचार सकते या विचारते, कि जो समाज अनुचित रीति से बहुत दबाया जाता है वह अन्त में उतना ही शीघ्र नल के जल की तरह ऊँचा उठ खड़ा होता है जितना ही दबाया गया है और उस दबाव को कुछ नहीं समझता। और यह भी नहीं विचारते कि इन लोगों ने जब प्रथम से ही इस प्रतिग्रहादि को तुच्छ और गर्वित समझ उसे त्याग कर स्वात्मावलंबन किया है तो उस तुच्छ कार्य में क्योंकर प्रवृत्त हो सकते हैं? परंतु यदि ऐसी ही दुर्बुद्धि और ऐसा ही दुराग्रह रहा और बारम्बार इतने पर भी यही रटना बना रहा कि बिना पुरोहिती करवाने के ब्राह्मण कहलाता ही नहीं, तो वह दिन दूर न होगा जब कि इन दान त्यागी, पश्चिम, जमींदार, भूमिहार, महियाल ब्राह्मणों को भी हार कर यज्ञादि करवा लेना ही पड़ेगा। क्योंकि अयाचकता और याचकता किसी विप्र समाज या जाति का धर्म न हो कर व्यक्ति का धर्म है। जो आज अयाचक है कल वह चाहे तो याचक हो सकता है और याचक अयाचक। यद्यपि इस समय याचक और अयाचक दल हो गए हैं। पर, शास्त्र दृष्टि से ऐसा दल हो नहीं सकता। नहीं तो फिर अयाचक ब्राह्मण दल और क्षत्रियादि में भेद ही क्या रह जावेगा? इसके सिवाय श्री तुलसीदास जी की उक्ति है कि :
यद्यपि जगत दुसह दुख नाना।
सब से कठिन जाति अपमाना॥
इसलिए यद्यपि ये लोग भरसक प्रतिग्रह तो न लेंगे, किंतु उस द्रव्य को विद्यालय और धर्मशाला इत्यादि में लगवा देंगे, तथापि इनमें बहुतेरे विद्वान लोग यज्ञ करवा कर दक्षिणा ले लेंगे, क्योंकि वह तो एक प्रकार की मजदूरी (वेतन) हैं। जैसाकि प्रथम दिखला चुके हैं और अन्यत्र भी तन्त्ररत्न नामक मीमांसा ग्रन्थ में श्रीपार्थसारथि मिश्र जी ने मीमांसा दर्शन के दशमध्याय के तृतीय पाद में लिखा है कि :
दक्षिणाशब्दो यं यद्भृतित्वेन दीयते तस्यैव वक्ता।
अर्थात 'दक्षिणा शब्द यज्ञ कराने के बदले जो भूति (वेतन या मजदूरी) दी जाती है केवल उसी का वाचक है।' और शास्त्रोक्त मजदूरी लेने में समयानुसार कोई भी हानि नहीं है, क्योंकि आजकल सभी लोगों ने पैसे पर काम कर देना परम धर्म मान रखा है। प्रत्युत ऐसा करने से ही जाति रक्षा हो सकेगी, संस्कृत का प्रचार होगा, और बहुत सी त्रुटियों और कठिनाइयों से बच जाना होगा, जिनका अनुभव प्रतिदिन विचारशील गृहस्थ किया करते हैं। इसलिए अब मेरी यही प्रार्थना है कि चाहे याचक (पुरोहित) अथवा अयाचक दलवाले ब्राह्मण दोनों में से कोई भी हो उसे अब सँभाल और विचार कर काम करना चाहिए, जिसमें भविष्य में पश्चाताप करना न पड़े।
अस्तु, यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है कि जिस समय का विचार हम अभी कर रहे हैं, वह ऐसा था कि जब केवल ब्राह्मण, क्षत्रियादि संज्ञाओं के सिवाय ब्राह्मणों की जो अवांतर (बीच की) संज्ञाएँ हैं, जैसे कान्यकुब्ज, गौड़, अवस्थी, वाजपेयी, राय, सिंह आदि एवं क्षत्रियादि की राठौर, चौहान प्रभृति, उनका या तो अभी तक प्राय: प्रचार ही नहीं हुआ था, या यदि किसी-किसी का हुआ, या हो रहा था, तो भी लोगों का उस तरफ विशेष ध्यान न था। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों या लोगों में केवल 'भट्ट' या 'मिश्र' पदवी पाई जाती है, जैसे भट्टपाद, मंडनमिश्र, वाचस्पति मिश्र, तथापि ये विशेषण उन लोगों की प्रगल्भता या प्रतिष्ठा के सूचक हैं। जैसे कि गोमतल्लिकादि शब्दों में 'मतल्लिका' विशेषण प्रभृति और जैसे कि पितृचरण, पितृपादादि में पाद या चरण शब्द। इसीलिए वाक्तविककार कुमारिल स्वामी वगैरह को कभी-कभी ग्रन्थकार लोग, वाक्तविककार मिश्र, ऐसा लिखा करते हैं, जैसे 'यथाहुर्वार्त्तिककार मिश्रा:' अथवा 'वाक्तविककारपादा:'। इसी प्रकार मण्डनमिश्रादि का भी 'मिश्र' विशेषण हैं। इसलिए दो-एक को छोड़ अन्यत्र ये मिलते ही नहीं। अत: ऐसे अर्थ में भी मिश्रादि शब्द उस समय विशेष प्रचलित न थे।
क्योंकि अभी तक प्रत्येक वर्णों में न तो इतने छोटे-छोटे और परस्पर विलक्षण दल ही बन गए थे, जैसे कि आजकल पाए जाते हैं और न संज्ञाओं तथा पदवियों की इतनी गिनती या प्रतिष्ठा ही थी, जैसी कि आजकल या इससे कुछ पूर्व थी। उस समय तो सभी ब्राह्मणों का व्यवहार परस्पर मिला हुआ था एवं क्षत्रियादि का भी। इसीलिए यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की जमींदारादि संज्ञाएँ प्रचलित भी हुईं तथापि उनका इतना प्रबल प्रचार उस समय न हुआ, जितना आज है क्योंकि अभी तक चाहे जो कुछ परिवर्तन हुआ था, परंतु ये लोग हर प्रकार से सभी ब्राह्मणों में मिले भी थे। लेकिन उसके बाद ही एक ऐसा समय आया जिसको लगभग 6, 7 या 8 सौ वर्षों से अधिक न हुए होंगे, जबकि विशेष कर ब्राह्मणों में अथवा अन्य सभी जातियों में भी बहुत अवांतर (छोटे-छोटे) दल तैयार हो गए, या होने लग गए, जिनका परस्पर खान-पान आदि व्यवहार भी ढीला होने लगा और जिनमें बहुत सी उपाधियाँ (पदवियाँ) नई-नई चल पड़ीं, जिनका प्रथम नाम भी न सुना गया। उन छोटे-छोटे दलों के अलग-अलग नाम भी पड़ने लगे या पड़ गए। अथवा जो पूर्व के भी नाम थे, या पदवियाँ थीं उन सभी का प्रबल प्रचार हो उठा, क्योंकि समय सब की प्रतिष्ठा कभी-न-कभी करा ही देता हैं। आचार-विचारों में बहुत से भेद पड़ गए। आज जो कहीं था, वही कल कहीं अन्यत्र जा बसा। जिससे बहुत दिनों बाद उसके इतिहास का भी पता लगाना कठिन हो गया। धार्मिक उपद्रव बहुत उठने लगे, जिससे व्यवहारों में अधिक कट्टरता दिखलाने की आवश्यकता पड़ी और धर्म रक्षार्थ ब्राह्मणादि समाजों के छोटे-छोटे दल बनाने ही पड़े। क्योंकि बड़े की सर्वात्मना रक्षा का होना असंभव हो जाता है। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' वाली कहानी की आलाप प्रकृति में गूँज रही थी। साथ ही, प्राचीन आध्यात्मिक विचार और धर्म की वास्तव कट्टरता ढीली हो रही थी, क्योंकि शास्त्राभ्यास बिलकुल छूट रहा था। इसलिए ब्राह्मणादि सभी वर्णों को जमींदारी, प्रतिष्ठा, आधिपत्य और मार-काट की विशेष सूझी और उन सब बातों ने उनके रूप, स्थिति और अभिमान में एक विशेष परिवर्तन कर दिया।
इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि जब यवनों (मुसलमान) का राज्य कुछ दिन बीत गया और उनकी जड़ यहाँ अच्छी तरह जम गई, या जमने लगी, तो उन्होंने दूर तक अपने राज्य के विस्तार तथा प्रबंध के लिए बड़े-बड़े वीरों और प्रबंध कुशलों एवं रईसों का सम्मान तथा अपनी सेना में और राज्यांतर्गत विविध पदों का स्थापित करना और साथ ही, उत्साहित एवं अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सिंह, खाँ, राय, चौधरी, दीवान और बाबू इत्यादि पदवियों का प्रदान करना प्रारंभ कर दिया। जिससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी और उन्हें देख उनके लिए दूसरे योग्य लोग भी लालायित हो यत्न करने और प्राप्त करने लगे।
बस अब क्या था, जितने वीर लोग थे, चाहे ब्राह्मण हों या क्षत्रियादि, उनकी सिंह और खाँ इत्यादि पदवियाँ होने लगीं, जो आजकल प्राय: सभी ब्राह्मणों में पाई जाती है, और जिनको आगे चल कर दिखलावेंगे। और वे लोग उसी में अपने को कृत-कृत्य मानने लगे। बल्कि जिसको वे उस समय न मिलीं वह अपने को महा अभागी समझता था। इसी प्रकार जो लोग रईस या प्रबंधकर्त्ता वगैरह थे उन्हें राय, चौधरी और शाह इत्यादि पदवियाँ मिलीं और इसी नूतन पदवी रूप भादों के महाजल प्रवाह में प्राचीन शर्मा, वर्मा तथा ऋषि प्रभृति पदवी रूप कितने ही ग्रामादि बहुत जगह से साफ ही हो गए, जिनका आज तक पता ही न लगा। इधर जब नवीन पदवियों की प्रतिष्ठा राजदरबारों में होने लगी तो, 'राजानमनरुवत्तांते यथा राजा तथा प्रजा' इस पूर्वोक्त नियमानुसार विशेष कर ब्राह्मणादि रूप प्रजाओं में भी नई पदवियों की धुन समा गई। क्योंकि उस समय की प्रकृति में यही भाव गूँज रहा था, जिससे लोगों को विवश होना पड़ा। बस जैसे उधर कामों के करने से ही राय, सिंहादि उपाधियाँ मिलती थीं और प्राचीन काल में भी -
उपनीय तु य: शिष्यं वेदमधयापयेद् द्विज:।
सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥ 140॥
एकादेशं तु वेदस्य वेदांगान्यपि वा पुन:।
योध्यापयति वृत्तयर्थमुपाध्याय: स उच्यते॥ 141॥
निषेकादीनि कर्माणि य: करोति यथाविधि।
संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥ 142॥ मनु. अ. 2॥
अर्थात 'जो ब्राह्मण शिष्य का उपनयन संस्कार कर के उसे यज्ञविद्या और उपनिषदों के सहित वेदों को पढ़ाता है उसे आचार्य कहते हैं। जो अपनी जीविका के लिए शिष्य को वेदों का केवल मन्त्र या ब्राह्मण भाग ही, अथवा व्याकरणादि अंगों को ही पढ़ाता है, उसे उपाध्याय कहते हैं। जो ब्राह्मणरूप पिता पुत्र का गर्भाधानादि संस्कार करता और उत्पन्न होने पर उसे अन्न वस्त्रदि द्वारा पालता है, उसको ही गुरु कहते हैं, न कि कान फूँकनेवाले वाचक को भी', इत्यादि व्यवहार था। जिससे काम करने से ही आचार्य, गुरु प्रभृति संज्ञाएँ हुआ करती थीं। वैसे ही जो अच्छा विवेकी हुआ उसे पांडेय कहने लगे, चारों वेदों के ज्ञाता को चतुर्वेदी, तीन के ज्ञाता को त्रिवेदी और दो के जानने से और पढ़ाने एवं पढ़ने से द्विवेदी एवं थोड़ा-थोड़ा सभी में से जानने और पढ़ानेवाले को मिश्र, वाजपेय यज्ञ करनेवाले को वाजपेयी, अग्निष्टोमादि करनेवाले को आवसथ्यी, जो बिगड़ कर अवस्थी हो गया। क्योंकि अग्निष्टोम के पाँचवें (अंतिम) दिन का नाम आवसथ्य दिन हैं। इसी प्रकार जो अन्य छोटे-मोटे यज्ञ करता था उसे दीक्षित कहते थे। क्योंकि यज्ञारम्भ से प्रथम दीक्षा रूप संस्कार हुआ करता है। जैसा कि 'ब्रह्मा यजमानंदीक्षयति' इत्यादि अर्थात 'ब्रह्मा नामक ऋत्विक यजमान की दीक्षा करता है', इत्यादि श्रुतियों में आता है और उस संस्कार के बाद ही 'दीक्षणीया' नामक यज्ञ करता है। इसलिए क्षत्रिय भी कहीं-कहीं दीक्षित कहलाते हैं। क्योंकि उनको राजसूय यज्ञ का अधिकार है, इससे उसके करवाने में उनकी भी दीक्षा होने से वे भी दीक्षित कहलाने लगे, इत्यादि। कुछ दिन में यही नवीन उपाधियाँ बिगड़ते-बिगड़ते पांडे, चौबे, दूबे इत्यादि कहलाने लगीं, जैसे ब्राह्मण शब्द भ्रष्ट हो कर बाभन या ब्राह्मन और वाराणसी शब्द बनारस हो गया।
इसीलिए इस बात के कहनेवाले नितान्त भूले हुए हैं कि शब्द में विकार होने से उसके अर्थ में (जाति में) भी विकार हो जाता है। जैसा कि मिस्टर बीम्स वगैरह ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थों में कहीं-कहीं भूमिहार ब्राह्मणों के प्रसंग में लिखने का साहस किया है। क्योंकि ऐसा मानने से सभी तिवारी, चौबे, राजपूत, बनिया और कायस्थादि की जातियों में फर्क मानना पड़ जावेगा। कारण ये कि सभी शब्द बिगड़ रहे हैं और ब्राह्मण शब्द की जगह प्राय: सभी लोग, कुछ पठित व्यक्तियों को छोड़ कर, सर्वत्र ही बाभन या बाम्हन शब्द का प्रयोग करते हैं। इसलिए यहीं मानना होगा कि धीरे-धीरे काल पा कर शब्द विशेष रूप से अपने आप ही बदलते जाते हैं।
अस्तु, ये पूर्वोक्त पांडे, तिवारी आदि पदवियाँ नवीन ही हैं। अतएव स्मृतियों और पुराणों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि के लिए शर्मा और वर्मा आदि शब्द ही आए हैं और पूर्वोक्त आचार्यादि शब्द। पुराणों के पश्चात् के ग्रन्थों में भी ये पांडे आदि शब्द नहीं मिलते। यहाँ तक कि बंगदेशीय ब्राह्मणों के इतिहास में भी जब उस समय के बनाए हुए 'कुलदीपिकादि' ग्रन्थों में 999 शकाब्द में अर्थात लगभग आज से 838 वर्ष पूर्व कान्यकुब्ज देश से पाँच ब्राह्मणों के बंगाल (गौड़देश) में आने का हाल लिखा है, तो केवल भट्ट नारायण प्रभृति उनका नाम ही लिखा है। पांडेय, तिवारी इत्यादि उपाधियों का नाम नहीं है। हाँ, इतना पता अवश्य हैं कि बंगदेश में आने पर उनके घोष, गांगुली इत्यादि पुत्र हुए और प्रत्येक को जो ग्राम महाराज आदि शूर की ओर से मिले उनके भी वही नाम थे, जिसके पीछे उन ग्रामों में रहनेवाली उनकी संतान घोष, गांगुली, बागछी इत्यादि उपाधियों से भूषित हुई। अत: बंगदेशीय ब्राह्मणों की पदवियाँ भी गांगुली, बागछी वगैरह नूतन और उसी समय की है जिसका हम वर्णन कर रहे हैं उन्हीं बंगीय ब्राह्मणों के इतिहास से यह विदित होता है कि उस समय सभी ब्राह्मण वगैरह अस्त्र, शस्त्रादि धारी हो रहे थे। क्योंकि आदि शूर महाराज के यज्ञ के लिए कान्यकुब्ज देश से जब महाराज वीरसिंह ने अपने समय 5 गोत्रों के 5 ब्राह्मण भेजे, तो उस यज्ञ करानेवालों के वेष का वर्णन 'देवी वरघटक कृत कारिका' में ऐसा है कि :
वेदशास्त्रोष्ववगतान, सर्वास्त्रो च विशारदान।
गोयानारोहितांविप्रान खचर्मादिभिर्युतान॥
अर्थात 'वे लोग सब वेदशास्त्रों में और सभी अस्त्र, शस्त्र में भी निपुण, तलवार और ढाल आदि से सजे हुए और बैलों की गाड़ी पर सवार थे' इत्यादि। भला जहाँ यज्ञ करवानेवालों की दशा है, वहाँ उनसे अन्यों का क्या कहना हैं?
अस्तु, इससे निर्विवाद सिद्ध है कि ब्राह्मणों की ये द्विवेदी प्रभृति पदवियाँ भी उसी समय की हैं जिस समय की राय, सिंह इत्यादि। इसीलिए इनका वर्णन यदि कहीं आता है तो केवल कान्यकुब्ज और सर्यूपारी प्रभृति की वंशावलियों में ही। उस समय इतना ही नहीं होता था कि जो जैसा काम करता था उसे वैसी ही पदवी मिलती थी और उसके पुत्र, पौत्रादि में बराबर चली जाती थी। किंतु वे पदवियाँ बदल जाया करती थीं। इसीलिए जो ब्राह्मण पांडेय या तिवारी होते थे, समय पा कर राजदरबार में प्रतिष्ठा होने से उनको राय, सिंह और चौधरी आदि की पदवी मिल जाती थी। अथवा उनके लड़कों को ही ये पदवियाँ भाग्यवश प्राप्त हो जाती थीं। क्योंकि इन्हें आजकल की रायबहादुर और के.सी.आई.ई. इत्यादि उपाधियों की तरह राजा की दी हुई समझ सभी परम प्रतिष्ठाजनक समझते और तदनुसार ही उनकी प्राप्ति के लिए महान यत्न करते थे, जैसा कि आजकल हो रहा है। और जब भाग्यवश ये मिल जातीं तो पूर्व के पांडेय प्रभृति आस्पदों (पदवियों) का प्रयोग छूट जाता था। केवल इतना ही नहीं कि राज-पदवियों के ही पाने से इनका परित्याग हो, किंतु कर्म करने से ही पांडेय का पुत्र त्रिवेदी और उसकी संतान अवस्थी आदि कहलाती थी। क्योंकि उस समय उन कर्मों के कर्ताओं के कम होने से जो ही उन्हें करता था उसी का नाम प्रख्यात हो जाता था और वही उसकी पदवी हो जाती थी जैसा कि कान्यकुब्ज वंशावली के एक ही काश्यपगोत्र के देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि मदारपुर के अधिपति भुइंहार (भूमिहार) ब्राह्मणों के बालक गर्भू नामक ब्राह्मण के पुत्र कुतमऊ के तिवारी और उनके लड़के विनौर के अग्निहोत्री और आगे चल कर उनके ही पुत्र, पौत्रादि बिनहारपुर के दूबे, कृपालपुर के मिश्र, भागीर के दीक्षित, विधौली के शुक्ल और मिगलानी के अवस्थी इत्यादि कहलाए। यह दशा केवल कान्यकुब्ल ब्राह्मणान्तर्गत काश्यप गोत्रीय भूमिहार ब्राह्मणों की संतानों की है कि जिनके पूर्वज गर्भू की कोई ऐसी उपाधि (पदवी) नहीं उसके ही वंशज कितने ही तिवारी आदि हो गए।
इस बात को जिसे देखना हो वह 'हरिप्रसाद भागीरथ' अथवा खेमराज के यहाँ छपी हुई कान्यकुब्जों की सभी वंशावलियों में देख सकता है। यह मदारपुराधिपति कान्यकुब्ज भूमिहार ब्राह्मणों के वंशज गर्भू की बात अभी बहुत दिनों की नहीं है, किंतु बाबर बादशाह के समय सन 1527 ई. में हुई थी। ऐसा उन्हीं वंशावलियों में लिखा है। परंतु उस समय भी जहाँ-तहाँ उपाधियों का विशेष रूप से प्रचार न हुआ था। इसलिए ब्राह्मणों की ये कोई शास्त्रीय पदवियाँ नहीं हैं, जिनके न रहने से ब्राह्मण ही नहीं कहा जा सकता। किंतु जैसे राय, सिंह, चौधरी और खाँ आदि उपाधियाँ ब्राह्मणों आदि की है, वैसे ही ये भी। हाँ, भेद इतना हो सकता है कि प्रथमत: वे मुसलमानों द्वारा दी गई है और ये त्रिवेदी प्रभृति पदवियाँ ब्राह्मणादि हिंदू समाजों की दी गई है। परंतु अशास्त्रीयता दोनों में समान हैं। इस विषय में विशेष बात आगे कहेंगे।
अस्तु, जैसा इन उपाधियों का हाल है, वैसा ही ब्राह्मणादि वर्णों में छोटे-छोटे दम बनने और उनकी नाना संज्ञाएँ पड़ने का भी वृत्तांत जान लेना चाहिए। संभवत: बहुत से लोगों की यह धारणा है, अथवा होगी कि कान्यकुब्ज, गौड़ इत्यादि ब्राह्मणों के अवांतर दल और उनके नाम प्राचीन है। परंतु मेरी समझ से यह बात सरासर मिथ्या है। क्योंकि जैसा अभी पदवियों के विषय में दिखला चुके हैं कि वे आधुनिक हैं, इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में उनका पता भी नहीं है वही दशा ब्राह्मणों और अन्य वर्णों के इन छोटे-छोटे दलों और उनके नामों की है। वे भी उन ग्रन्थों में कहीं नहीं पाए जाते :
सारस्वता: कान्यकुब्जा उत्कला गौड मैथिला:।
पंच गौडा: समाख्याता विंध्यस्योत्तारवासिन:॥
इत्यादि रूप जो श्लोक स्कंदपुराण के सह्याद्रि खण्ड और भविष्य पुराण के नाम पर अब मिलने लगे हैं, वे आधुनिक और कल्पित है। क्योंकि राठौर, चौहान वगैरह नाम कहीं न आ कर ब्राह्मणों के ही नाम क्यों आए।
इसलिए वे भी उपाधियों की तरह आधुनिक है। उनमें से एकाध यदि कुछ दिन प्रथम से थे भी तो उनका प्रचार न था। या यों कहिए कि लोगों का उनकी तरफ ध्यान नहीं था। परंतु कालचक्र ने ही उनकी उत्पत्ति का प्रचार यों करवाया कि जब यवन राज्य काल में, जैसा कि पूर्व दिखला चुके हैं, शास्त्राभ्यास से रहित और प्रकृति में भरे हुए मार-काट और राजस, तामस भावों से प्रेरित हो जहाँ-तहाँ ब्राह्मणादि वर्ण, अस्त्र, शास्त्रादि से सुसज्जित हो आक्रमण करने और दुर्बलों के अधिकारों को दबाने लगे। उन लोगों के शारीरिक अभिमान और युद्धप्रियता बहुत बढ़ कर पराकाष्ठा को प्राप्त हो गई। इसलिए वे उसी अभिलाषा से बलात अपना एक देश छोड़ दूसरे प्रदेशों (प्रांतों) में जाने के लिए बाध्य होने लगे। जहाँ ही दुर्बल देखा वहाँ ही चढ़ दौड़े। आज यहाँ हैं तो कल कितनी दूर निकल गए इसका पता ही नहीं।
इसके अतिरिक्त यवनों के अत्याचार हिंदू धर्म पर कभी-कभी हुआ करते थे। उनकी नव प्रादुर्भूत शक्ति और नवीन संचारित धर्म हिंदू धर्म पर बड़े-बड़े आघात करने लगे। यह बात उस समय के इतिहासवेत्ताओं से छिपी नहीं है। जब बलपूर्वक अन्य धर्मावलम्बियों को मुसलमान बनाना भी वे अपना परम धर्म मानते थे तो फिर बेचारे अनाथ हिंदू क्यों सताए जावें? ऐसी दशा में धर्मभीरु ब्राह्मणों को विशेष कर और प्राय: कहीं-कहीं क्षत्रियों को भी धर्म रक्षा के लिए छोटे-छोटे दल बनाने पड़े। क्योंकि जैसी देखभाल या प्रबंध छोटे राज्यों या भूभागों को हो सकता है वैसा बड़े का नहीं। इसीलिए बड़े-बड़े राज्यों को भी सूबों, जिलों और तहसीलों वगैरह में बाँट देते हैं। बड़े विस्तृत ब्राह्मण साम्राज्य में यह पता चलना कठिन था कि कौन प्रदेश अपने धर्म पर स्थित है और उसके खान-पान आदि किए जा सकते हैं। अत: धर्मदृष्टि से छोटे-छोटे विभाग बनाने पड़े और अपने विभाग से बाहर खान-पान या विवाह सम्बन्ध छोड़ना पड़ा। इसी से यद्यपि पूर्वकाल में सभी ब्राह्मणों के खान-पान आदि साथ होते थे, परंतु आज न तो गौड़ों के कान्यकुब्जों के साथ और न दोनों के दक्षिणात्यों के साथ, खानपान या विवाह-सम्बन्ध आदि होते हैं।
जब एक देश से दूसरे देश (प्रांत) में ब्राह्मणादि, पूर्वोक्त कारणों से, चले जाते थे तो उनका पता लगना उस समय कठिन या असंभव था, क्योंकि उस समय आजकल की तरह रेल, तार न थे। इसलिए प्रत्येक दलवाले ब्राह्मणादि जिस देश से आया करते थे उसी देश के नाम से अपना व्यवहार करते थे। जैसे जो सर्यूपार से अन्य प्रांतों में चले गए थे वे अपने सर्यूपारवाले सर्यूपारीण, सर्यूपारी या सरवरिया इत्यादि कहने लगे। इसी प्रकार जो कान्यकुब्ज देश से गए थे वे अपने को कनौजिया या कान्यकुब्ज कहने लगे। ऐसे ही मैथिल, गौड़ और सारस्वतादि नामों को भी जान लेना चाहिए, क्योंकि किसी आदमी या वस्तु के नाम व ठिकाने की हुलिया तभी होता है, जब वहाँ से भाग कर अन्यत्र चला जाता है और उसका पता चलना कठिन हो जाता है। और चूँकि पूर्व समय में ब्राह्मणों को एक स्थान छोड़ कर दूसरे स्थान में जाने की प्राय: आवश्यकता न होती थी। केवल ऋषि, मुनि या तपस्वी लोग ही राक्षस वगैरह के भय अथवा अन्य कारणों से इधर-उधर जाया करते थे, क्योंकि उस समय हिंदू धर्म का प्रबल प्रतापादित्य द्वादश कलायुक्त था। इसलिए एक देश से दूसरे देश में बिना तीर्थ यात्रादि के जाने में बहुत बड़ा विचार उपस्थित हो पड़ता था, क्योंकि ऐसी आशाएँ थीं और हैं कि :
अंग वंग कलिंगेषु सौराष्ट्र मगधोषु च॥
तीर्थ यात्रां विना गत्वा पुन:संसकारमर्हति॥
अर्थात 'अंग, वंग, कलिंग, सौराष्ट्र और मगधदि देशों में बिना तीर्थयात्रा के जाने से उसका पुन: यज्ञोपवीतादि संस्कार करना चाहिए' इत्यादि। परंतु जिस समय का वर्णन करते हैं, उस समय न तो इतना धार्मिक भय ही था और न लोगों को इन उपदेशों का यथावत ज्ञान ही था। प्रत्युत पूर्वोक्त धर्म रक्षा के लिए, तथा अन्य प्रयोजनों से भी एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने के लिए बाध्य होना पड़ता ही था। इसलिए यद्यपि जो लोग कान्यकुब्ज प्रभृति देशों से भाग गए थे, उसके ही नाम कान्यकुब्जादि पड़ने उचित थे, तथापि कान्यकुब्ज देशों में रहनेवालों और उन भगेड़ों के सम्बन्ध कभी-कभी हो जाया करते थे, इसलिए एक ही होने से एक देशवाले कहीं भी हों उसी नाम से पुकारे जाते थे। इससे खान-पान और विवाह-सम्बन्ध में आसानी भी होती थी।
परंतु एक देश में रहनेवाले ब्राह्मण से अन्य भी हो सकते हैं, जैसे कान्यकुब्ज हलवाई और कान्यकुब्ज कहार भी बोले जाते हैं। इसी प्रकार मैथिल कायस्थ और मैथिल ब्राह्मण इत्यादि। अथवा देशों के बड़े होने से अमुक देश का ब्राह्मण हूँ ऐसा कहने से भी पता ठीक न चल सकता था। इसलिए फिर भी परस्पर व्यवहारों में भी बहुत क्लेश होने लगा, तो गोत्र और डीह के साथ अमुक जगह का दूबे और अमुक जगह का तिवारी मैं हूँ ऐसा कहने का संकेत किया गया। क्योंकि एक गोत्र में विवाह नहीं होता, इसलिए गोत्रदि बताने की आवश्यकता थी। इसी प्रकार अन्य बातों को भी जान लेना चाहिए। अब ऐसा करने से कोई भी ब्राह्मण कहीं भी हो, जहाँ पिंडी का तिवारी या त्रिफला का पांडे मैं हूँ ऐसा उसने बताया, वहाँ ही सब कठिनाइयाँ दूर हो गईं क्योंकि अन्य सर्यूपारी आदि भी उन्हीं ग्रामों में या उनके पास के ही रहनेवाले होते थे।
इससे यह भी सिद्ध हो गया कि ब्राह्मणों में अपने-अपने डीह (प्राचीन स्थान) के व्यवहार की प्रभा भी बहुत दिनों से नहीं हैं। इसलिए यह कोई आवश्यक नहीं हैं कि जिस ब्राह्मण में अपने डीह का व्यवहार किसी कारण से न हो वह इसी कारण से ब्राह्मण न कहा जावे कि उसका डीह ही नहीं हैं। हाँ, इतने के लिए वह खान-पान आदि दूसरे दलवाले से न कर के अपने ही दल में कर सकता है। प्रथम तो यह बात कहीं पाई नहीं जाती। परंतु संभव होने पर उसके विषय में भूल न हो इसलिए ऐसा कह दिया है। और ऐसा होता भी हैं कि लोग अपने पूर्व डीह को भूल जाते हैं और दूसरे डीह का नाम लिया करते हैं। जैसे कि निमेज के ओझा और मचैयाँ पांडे अपने डीह निमेज और मचियाँव बतलाते हुए अपने को सर्यूपारी कहते हैं, परंतु ये डीह सर्यूपार में न हो कर शाहाबाद जिले में पाए जाते हैं।
अस्तु, अब इसी स्थान पर, भूमिहार, त्यागी, महियाल, पश्चिम आदि संज्ञा व विशेषण संबंधी विषय का विचार कर लेना चाहिए। अभी कह चुके हैं कि यवन-काल में ही 5 या 7 सौ वर्ष पूर्व ब्राह्मणों में बहुत से अवांतर दल कैसे बन गए यद्यपि दूर-देश में गए हुए ही कान्यकुब्जादि कहे जाने चाहिए, तथापि सभी एक देशवाले कैसे उसी नाम से कहे जाने लगे। बस, इन्हीं दो बातों के सम्बन्ध में यह भी एक बात हैं कि जब ब्राह्मणों में पूर्वोक्त कारणों से छोटे-छोटे दल बनने लगे और कहीं-कहीं अन्य जातियों में भी, तो चूँकि केवल धर्मरक्षा की दृष्टि से यह काम हुआ, इसलिए दलों के बनाने में इस बात का पूर्ण तया ध्यान रखा गया कि जिससे धर्म का पालन ठीक-ठीक हो सके। इसके लिए जो-जो दल बने उनमें ऐसे-ऐसे ब्राह्मण प्रत्येक दल में मिलाए गए जिनके आचार-विचार या चाल-चलन और खान-पान प्राय: एक प्रकार के थे। इसीलिए भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भिन्न-भिन्न दल बन गए। जैसे गौड़ देश, कान्यकुब्ज, मिथिला अथवा सरस्वती के पास के प्रदेशों आदि के और एक प्रांत के ब्राह्मणों में भी आचार-व्यवहार प्राय: सबके समान न होने से बहुत से अवांतर भेद बन गए। जैसे मैथिलों में श्रोत्रिय, योग्य इत्यादि एवं गौड़ों में आदि गौड़, गूजर गौड़ चमर, गौड़ इत्यादि। इसी प्रकार बंगदेशीयों में राढ़ी आदि तथा गुजरात के नागरों में सिपाही नागर वगैरह एवं कान्यकुब्जादि में दूबे, तिवारी, अग्निहोत्री प्रभृति। इसी तरह सर्वत्र सभी ब्राह्मणों में जान लेना चाहिए। और जैसे एक देश से दूसरे देश में जाने से उस देश के नाम से नाम पड़ा, वैसे ही एक दल को दूसरे में बिलगाने के लिए भी अपने-अपने देशों से अपने-अपने नाम कहे जाने लगे। इसलिए भी एक देशवाले जहाँ कहीं रहे, एक ही नाम से कहे जाने लगे। इसी तरह अपनी क्रियाओं से भी एक दल के दूसरे दल से भिन्न-भिन्न नाम होते थे। जैसे त्रिवेदी, द्विवेदी इत्यादि प्रथम ही कह चुके हैं।
यहाँ पर ध्यान देने की बात हैं कि जैसे मैथिलों में केवल वेद पढ़नेवाले श्रोत्रीय, और वेदों तथा अन्य कार्यों में योग्यता रखनेवाले 'योग्य' इत्यादि अपने-अपने कर्मों से भिन्न-भिन्न दल बने और नाम पड़े एवं गौड़ों में गूजर प्रभृति की पुरोहिती करने से गूजर गौड़ आदि नाम पड़े। नगरों में लड़ने-भिड़ने वाले सिपाही नगर कहलाने लगे और उनका दूसरे नगरों से पृथक दल हो गया और जिस प्रकार से द्विवेदी, त्रिवेदी प्रभृति कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों के पृथक-पृथक दल अपने-अपने कर्मों और आचारों से बने। ठीक उसी प्रकार सबसे प्रथम कान्यकुब्ज ही ब्राह्मणों में जो दल जमींदारी से घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला, अतएव वीर और राजदरबार में प्रतिष्ठित था और इसीलिए उसके आचार-विचार में भी कुछ विलक्षणता थी, वह भी उसी समय भूमिहार या भुइंहार नाम से प्रसिद्ध था।
जैसे एक प्रांत के सभी ब्राह्मणों का जब उसी प्रांत के नामानुसार कान्यकुब्ज या मैथिल नाम पड़ गया, तो फिर उनके छोटे-छोटे दलों के भिन्न-भिन्न नाम उस देश के नामानुसार न हो सकने के कारण कर्मानुसार ही द्विवेदी, त्रिवेदी, श्रोत्रिय और योग्य प्रभृति हुए। उसी प्रकार उन्हीं कान्यकुब्जों में एक दल अब देश के नामानुसार कहे जा सकने के कारण भूमि के ऊपर अपने बल से या अन्य प्रकार से अधिकार कर लेने और विशेष रूप से कृष्यादि करने के कारण औरों से विलक्षण होने से भूमिहार या भुइंहार कहलाने लगा और जितने बलवान या श्रीमान और प्रतिष्ठित राजसी कान्यकुब्ज ब्राह्मण एक आचारवाले थे, वे इसी नाम से कहे जाने लगे।
यद्यपि इनकी संज्ञा प्रथम जमींदार या जमींदार ब्राह्मण थी। लेकिन एक तो, जैसा पूर्व कह चुके हैं कि उसका इतना प्रचार न था, दूसरे यह कि जब पृथक-पृथक दल बन गए तो उनके नाम भी ऐसे होने चाहिए जो एक दूसरे के न हो सकें। परंतु जमींदार शब्द तो जो ही जाति भूमिवाली हो उसे ही कह सकता है। इसलिए विचारा गया कि जमींदार नाम ठीक नहीं हैं। क्योंकि पीछे से इस नामवाले इन अयाचक कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पहचानने में गड़बड़ होने लगेगी। इसलिए ऐसा न हो कि व्यवहार में गड़बड़ मच जावे। इसी कारण से इन लोगों ने अपने को भूमिहार या भुइंहार कहना प्रारंभ कर दिया।
यद्यपि जो जमींदार शब्द का है, अर्थात जमीन का मालिक या उसका रखनेवाला, वही भूमिहार शब्द का भी, जैसा कि अभी विदित हो जावेगा, तथापि जैसा कि भूमिका में ही कह चुके हैं कि जिस अर्थ में जिस शब्द का संकेत कर लिया, उस शब्द से वही समझा जाता है। जैसे, यद्यपि नमस्कार और प्रणाम शब्दों का अर्थ एक ही है, तथापि ब्राह्मणों ने यह संकेत कर लिया है कि हम लोगों में परस्पर नमस्कार शब्द का ही प्रयोग होना चाहिए। इसलिए नमस्कार शब्द बोलने से ही विदित हो जाता है कि इसका उच्चारण करनेवाला ब्राह्मण हैं। परंतु उसी के अर्थ में यदि प्रणाम शब्द बोलें तो प्राय: अन्य जाति ही का बोध होता है। मिथिला में तो यहाँ तक देखा जाता है कि शूद्र लोग भी ब्राह्मणों को 'प्रणाम' ही कहा करते हैं और कोई भी बुरा नहीं मानता। परंतु यदि कोई अन्य जाति उसी के अर्थवाले 'नमस्कार' शब्द का प्रयोग करे, तो फिर लड़ाई देखिए। ऐसा ही आर्य समाज के नमस्ते और सनातन धर्म के प्रणाम शब्द का हाल जान लीजिए। यदि किसी सनातनधार्मी के सन्मुख 'नमस्ते' शब्द बोला जावे तो वह बहुत ही रंज होता है, न कि प्रमाणादि शब्दों से। इसका कारण जैसे एकमात्र संकेत ही है। उसी प्रकार, यद्यपि जमींदार और भूमिहार शब्द समानार्थक ही है, तथापि जमींदार शब्द से ब्राह्मण से अन्य भी जातियाँ समझी जाती है, या जा सकती हैं, परंतु भूमिहार शब्द से साधारणत: प्राय: केवल अयाचक ब्राह्मण विशेष ही। क्योंकि उसी समाज के लिए उसका संकेत किया गया है।
इससे सिद्ध हो गया कि यद्यपि नियत तिथि विदित नहीं हैं, तथापि जैसे यवन राज्य काल में ही आज से लगभग 6, 7 या 8 सौ वर्ष पूर्व गौड़, कान्यकुब्ज सर्यूपारी, मैथिल तथा सरस्वतादि एवं दूबे, तिवारी आदि नाम प्राय: ब्राह्मणों में प्रचलित हुए, वैसे ही भूमिहार या भुइंहार नाम भी सबसे प्रथम कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक अयाचक दल विशेष में प्रचलित हुआ। इसीलिए जैसे ये सब नाम केवल कान्यकुब्जादि की वंशावलियों में ही पाए जाते हैं, न कि अन्यत्र भी। वैसे ही भूमिहार शब्द भी सबसे प्रथम उन्हीं कान्यकुब्ज वंशावलियों में काश्यप गोत्र के व्याख्यान में मिलता है, न कि अन्यत्र। जैसा कि 'गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास' के यहाँ छपी हुई और पं. दुर्गादत्त त्रिपाठी एवं पं. मुकुंदराम द्वारा संवत 1964 में छपवाई हुई कान्यकुब्ज वंशावली के 105वें पृष्ठ में लिखा कि :
अथ काश्यपमाख्यास्ये गौत्रां तु मुनितम्मतम्।
पूर्ववंशावलिं दृष्ट्वा ज्ञातं षष्टिशतत्रायम्॥ 1॥
मदारादिपुराख्यस्य भुइंहारा द्विजास्तु ये।
तेभ्यश्च यवनेण्दै्रश्च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥
तेभ्यश्चब्राह्मणा: सर्वे परास्ता अभवंस्तत:॥ इत्यादि॥
जिसका अर्थ यह है कि जैसा कि 'हरिप्रसाद भागीरथ' के यहाँ छपे हुए 'बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण' के 117वें पृष्ठ में लिखा है कि 'विक्रमीय संवत 1584 (सन 1527) मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों और यवनों से महायुद्ध हुआ और सब ब्राह्मण परास्त हुए। यह बात 360 वंशावलियों को देख कर लिखी गई है, इत्यादि यह मदारपुर गंगा के समीप कानपुर जिले में अथवा उस जिले के समीप ही है।
इसके बाद आगे चल कर, जैसा कि दिखला चुके हैं, इन्हीं भूमिहार ब्राह्मणों के वंशज गर्भू के वंश में कुतमऊ के तिवारी इत्यादि 7 या 8 स्थानवाले तिवारी, विनौर इत्यादि 5 या 6 स्थानों के अग्निहोत्री, गल्हैया इत्यादि 10 स्थानों के दूबे, कृपानपुर, नगरा आदि 3 स्थानों के मिश्र, क्यूना, मदारपुरादि 14 स्थानों के दीक्षित, विधौली और रिवाड़ी के शुक्ल, मिगलानी प्रभृति 5 स्थानों के अवस्थी इत्यादि हुए जो सभी कान्यकुब्जों में पाए जाते हैं। क्योंकि प्रथम ही यह बात कह चुके हैं कि यद्यपि इन भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों के साथ भी गौड़ादि की तरह अन्य ब्राह्मणों के खान-पान आदि तथा विवाह सम्बन्ध ढीले पड़ रहे थे तथापि एक देशीय होने से इनके साथ सम्बन्ध एकदम टूट न गया था। इसलिए पूर्वोक्त तिवारी प्रभृति उसी दल में मिलते गए और आज भी भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध याचक दलवालों का इसी कारण से बना है। परंतु गौड़ प्रभृति तो दूर देशीय थे। अत: उनके साथ का सम्बन्ध एकदम टूट गया।
एक बात यह भी विचारने योग्य है कि जैसे कान्यकुब्ज देश में ब्राह्मणों के कर्मानुसार दूबे, तिवारी प्रभृति संज्ञाएँ हुईं और जब वहाँ से वे लोग अन्य देशों में फैले तो वहाँ अमुक स्थान में दूबे और तिवारी कहलाने लगे। इसी प्रकार जब पूर्वोक्त युद्ध में मदारपुर के अधिपति बहुतेरे ब्राह्मण मारे गए और पं. अनंतराम जी की एक गर्भणी स्त्री के सिवाय बहुतेरे जान ले कर वहाँ से एकदम भाग गए। क्योंकि युद्ध में सभी मारे गए, कोई भी न बचा, यह तो कहीं हुआ नहीं, इसलिए असंभव हैं। हाँ, बचे-बचाए जान ले कर केवल गर्भू की माता को छोड़ कर, क्योंकि वह पिता के घर थी, सभी भाग गए और वहाँ एक भी न रहा। इसलिए लोगों ने समझा कि सभी मारे ही गए। परंतु चूँकि वहाँ कोई न रहा। इसलिए उस तरफ भूमिहार नामवाले ब्राह्मण पाए नहीं जाते, और भाग कर काशी के आस-पास निरुपद्रव जान कर आ बसे, जैसे दूसरे दूबे, तिवारी प्रभृति आए थे। इसलिए काशी के आस-पास ही इस ही नाम के ब्राह्मण पाए जाते हैं, और गर्भू की संतानों में ही दूबे, तिवारी हुए प्रथम यह संज्ञा न थी, किंतु यवन राजाओं के काल की ये पदवियाँ थीं। इसलिए और पूर्व हेतुओं से भी इस प्रांत में ये लोग प्राय: दूबे, तिवारी न कहे जा कर अब तक राय, सिंह इत्यादि पदवियों से ही पुकारे जाते हैं।
इसके बाद बहुत से अन्य स्थानों के भी कान्यकुब्ज या सर्यूपारी इस देश में आते गए और जमींदार हो हो कर इन्हीं में मिलते गए। जैसा कि सर्यूपार पिपरा के मिश्र, गौतम गोत्रीय कृष्ण या कित्थू मिश्र के वंशज द्विजराज महाराज श्री काशिराज और काशी प्रांत के अन्य गौतम भूमिहार ब्राह्मण। यह बात विजयागन्द त्रिपाठी कृत पंक्ति पावन परिचय नामक सर्यूपारीण वंशावली और पं. शिवराज मिश्र कृत गौतम चंद्रिकादि ग्रन्थों से स्पष्ट है। जैसा आगे भी दिखलाया जावेगा। इसी प्रकार देवकली के वत्सगोत्रीय, पांडेय आस्पदवाले दोनवार ब्राह्मण भी इनमें आ मिले जिनका निरूपण प्रसंगवश आगे करेंगे। इसी तरह क्यूना के दीक्षित काश्यप गोत्रीय भी इनमें आ मिले जिनका नाम संभवत: क्यूनावार से बिगड़ते-बिगड़ते किनवार हो गया। किनवार शब्द के विषय में आगे विशेष बात कहेंगे। अस्तु, इन सबों का निरूपण आगे होगा और जो जो ब्राह्मण मिलते जाते थे, वे अपनी मिश्र, दीक्षित प्रभृति उपाधियों को छोड़ राय, सिंह वगैरह पदवियों को ही प्रतिष्ठित जान कर ग्रहण करते थे। और जैसे अन्य दलवाले ब्राह्मण अपने को अमुक स्थान के दूबे, तिवारी इत्यादि बतलाते थे, वैसे ही इन्होंने भी अपने-अपने स्थान सूचित करने के लिए किनवार या दोनवार आदि कहना प्रारंभ कर दिया। जिसका अर्थ क्यूना अथवा ओकनी स्थानवाले इत्यादि हैं। इसी प्रकार अन्य संज्ञाओं में भी समझना चाहिए। इसका भी विशेष निरूपण आगे होगा।
इसलिए यह निर्विवाद सिद्ध है कि इन प्रकृत अयाचक ब्राह्मणों की यह वर्तमान भूमिहार संज्ञा या विशेषण यवन काल से ही हैं तथा कान्यकुब्ज, दूबे, तिवारी प्रभृति संज्ञा समकालिक ही है और कान्यकुब्ज, देश में ही इस नाम का भी जन्म हुआ है। इसलिए यदि कोई इस नाम के विषय में विवाद करें कि कब से हुआ इत्यादि तो या तो प्रथम उसे कान्यकुब्जादि नामों के काल का पता लगा कर इस विषय में पूछना चाहिए। क्योंकि उन सबों के भी समय निश्चित नहीं हैं, फिर केवल इसी के लिए झगड़ा क्यों? या हमारे पूर्व कथन से सभी को निश्चित कर के संतोष करना चाहिए।
इस भूमिहार संज्ञा विषयक पूर्वोक्त कथन की पुष्टि में भी यह जान लेना चाहिए कि पूर्व ग्रन्थ में धर्मारण्य में स्थापित और बाड़व शब्द बोधित ब्राह्मणों का वर्णन कर चुके हैं और उनके विषय में यह भी कह चुके हैं कि वे भी लोग याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह से रहित हो कर श्रीराम जी का दिया धर्मारण्य का राज्य करते थे। जैसा कि धर्मारण्य महात्म्य के 35 वें अध्याय में लिखा है कि :
नारदउवाच स्वस्थाने ब्राह्मणस्तत्रा कानि कर्माणि चक्रिरे।
ब्रह्मो : इष्टरापूत्तारता: शान्ता: प्रतिग्रहपरांगमुखा:॥ 3॥
राज्यं चक्रुर्यनस्यास्य पुरोधा द्विजसत्ताम।
उवाच रागपुरतस्तीर्थमहात्म्यमुत्तामम् ॥ 4॥
अर्थात 'नारद ने ब्रह्मा से पूछा कि धर्मारण्य में रहनेवाले वे सब ब्राह्मण कौन काम करते थे? ब्रह्मा ने उत्तर दिया कि वे लोग यज्ञदानादि करने और वापी, कूप तड़ाग वगैरह बनाने में दत्तचित्त थे और प्रतिग्रह से बिलकुल हटे हुए उस वन का राज्य करते थे। इसके अनंतर राम जी के पुरोहित वशिष्ठ जी ने उस तीर्थ के और महात्म्य सुनाए।'
इतना और भी जान लेना चाहिए कि जैसा कि पूर्व कह चुके हैं कि हस्तिनापुर से धर्मारण्य का सम्बन्ध महाभारत के आदिपर्व के द्वितीयाध्याय से सिद्ध होती है। क्योंकि वहाँ 'समंतपंचक' क्षेत्र के महात्म्य में यही लिखा है कि :
त्रेताद्वापरयो: सन्धौ राम: शस्त्राभृतां वर:।
असकृत्पार्थिवं क्षेत्रां जधानामर्षचोदित:॥ 3॥
स सर्वं क्षत्रामुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्यु ति:।
समन्पंचके पंच चकार रौधिरान ह्रदान॥ 4॥
तेषां समीपे यो देशो दानां रुधिराम्भसाम्।
समन्तपंचकमिति पुण्यं तत्पररिकीत्तिततम्॥ 11॥
अन्तरे चैव सम्प्राप्तै कलिद्वापरयोरभूत।
समन्तपंचके युद्धं कुरुपांडवसेनयो:॥ 13॥ इत्यादि।
अर्थात 'त्रेता और द्वापर की संधि में परशुराम जी ने बहुत क्रोध कर कई बार क्षत्रियों का नाश कर के उनके रक्तों को पाँच कुंडों में भर कर पितृ तर्पण किया। तभी से उसके आस-पास का देश समंतपंचक कहलाया। जिसमें कलि और द्वापर की संधि में कौरव और पांडवों का परस्पर युद्ध हुआ।' और यही बात जैसा कि पूर्व कह चुके हैं, स्कंदपुराण में धर्मारण्यांतर्गत हाटकेश्वर क्षेत्र के महात्म्य में वर्णित है। इसलिए यद्यपि धर्मारण्य का कुरुक्षेत्र तक कुछ सम्बन्ध प्रतीत होता है। तथापि स्कंदपुराण के धर्मारण्य महात्म्य नामक भाग के पढ़ने से स्पष्ट होता है कि बरेली प्रभृति प्रांत सहित कान्यकुब्ज देश वर्तमान कानपुर प्रांत को ले कर ही प्रधान धर्मारण्य कहलाता है। इसलिए इसी प्रांत के गाँवों और वहाँ के रहनेवाले (अधिपति) ब्राह्मणों के गोत्रदि की व्यवस्था धर्मारण्य खण्ड में सविस्तार निरूपित है और यह भी वहीं ग्रंथांत में लिखा है कि* कन्नौज का राजा आम बौद्ध (जैन) मतानुयाई हो गया और अपनी कन्या का विवाह एक जैन (बौद्ध) मतानुयाई कुमारपाल नामक राजा से किया जो ब्रह्मरावत्ता (बिठूर के पास के प्रांत) का निवासी था और जब उसने धर्मारण्य को उसे दायज में दिया तो उसके दामाद (जमाता) ने वहाँ के पूर्वोक्त वाडवों (ब्राह्मणों) से कर माँगा एवं अपने देश से चले जाने और उनकी भूमि को (जिसे श्रीराम जी ने दिया था) छीन लेने की आज्ञा दी और कहा कि आप लोग जाइए, हम ऐसे नहीं मान सकते। परंतु यदि अपने राम और हनुमान को यहाँ लावेंगे, तभी हम आपके धर्म और बातों का विश्वास करेंगे। उस पार बहुत से वाडव (ब्राह्मण) रामेश्वर जी की ओर श्रीराम जी की प्राप्ति के लिए गए और अन्त में हनुमानजी की सहायता से उन्हें उनकी पूर्व भूमि प्राप्त हुई।
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- यथा, 'इदानीं च कलौ प्राप्ते आमो नाम्ना बभूवह। कान्यकुब्जाधिप: श्रीमान्धार्मज्ञो नीतितप्तर:॥ 11॥ प्रजानां कलिना तत्रा पापे बुद्धिरजायत। वैष्णवं धर्ममुत्सृज्य बौद्ध धर्ममुपागत:॥ 35॥ तस्य राज्ञो महादेवी मामनाम्न्यतिविश्रुता। गर्भं दधार सा राज्ञी सर्व लक्षण संयुता॥ 37॥ संपूर्णे दश मे मासि जाता तस्या: सुरूपिणी। रत्नगगेति नाम्ना सा मणिमाणिक्यभूषिता॥ 39॥ ब्रह्मावत्तराधिपतये कुम्भीपालाय धीमते। रत्नगंगा महादेवीं ददौतामिति विक्रमी। मोहेरकं ददौ तस्मै विवाहे दैवमोहित:॥ 44॥ धर्मारण्ये समागत्य राजधनी कृता तदा। देवांश्च स्थापयामास जैनधर्मप्रणीतकान॥ 45॥ लुप्तशासनका विप्रा लुप्तस्वाम्या अहर्निशम्। समाकुलितचित्तस्ते नृपमाम समाययु:॥ 48॥ कान्यकुब्जपुरं प्राप्य कतिभिर्वासरैर्नृप। गंगोपकण्ठे न्यवस×छ्रान्तास्ते मोढवाडबा:॥ 49 अ. 36॥ इत्युक्त्वा हनुमद्दत्ता वामकक्षोद्भवा पुटी। प्रक्षिप्ता चास्य निलये व्यावृत्ता द्विजसत्तामा:॥ 17॥ अग्निज्वालाकुलं सर्वं संजातं तत्रा चैवहि। जाद्दवीतीरमासाद्य त्रौविद्येभ्यो ददौ नृप:॥ 18, अ. 37॥ इत्यादि॥
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इस आख्यान से स्पष्ट है कि पूर्वोक्त धर्मारण्य के ब्राह्मण गंगा के उत्तर तट में कान्यकुब्ज देश (कानपुर आदि प्रांतों में) रहते और इन भूमिहार कहलानेवाले ब्राह्मणों की तरह यजनादि कर्मों से रहित हो कर राज्य या भूमिपतित्व करते थे। और जिस मदारपुर के भूमिहार ब्राह्मणों का वर्णन आया है वह भी कानपुर जिले में गंगा से उत्तर ही हैं, और धर्मारण्य का नाम मेहेर भी है, क्योंकि लिखा है कि :
धर्मारण्यं कृतयुगे त्रेतायां सत्यमन्दिरम्।
द्वापरे वेद भवनं कलौ मेहेरकं स्मृतम्॥ 27, अ 40॥
अर्थात 'सत्ययुग में जिसका नाम धर्माण्य था, उसी का त्रेता में सत्य मन्दिर, द्वापर में वेदभवन और कलि में मेहेर नाम पड़ा।' इसीलिए वहाँ उसकी राजधानी का नाम भी मेहेरपुर लिखा है। तात्पर्य यह है कि धर्मारण्य में जो प्रसिद्ध स्थान होता था, उसी का नाम मेहेरपुर होता था। और वाडव ब्राह्मण वहाँ के राजा थे। अत: जिस राजधनी में वे रहते थे, वह मेहेरपुर कहलाते-कहलाते मदारपुर कहलाने लगी और चूँकि वे लोग राजा या जबरदस्त थे, इसी से यवनों ने उनसे युद्ध किया क्योंकि साधारण लोगों से राजा लोग युद्ध नहीं करते। इसलिए जैसा कि कह चुके हैं कि समय पा कर कुछ ग्रामों में रहनेवाले उन्हीं ब्राह्मणों का नाम भूमिहार ब्राह्मण पड़ गया इसके मानने में कोई संदेह नहीं किया जा सकता।
क्योंकि भूमिहार शब्द 'भूमि' शब्द को पूर्व में रख कर हृर हरणे धातु से 'कर्मण्यण्' (पा. 3। 2। 1) इस पाणिनिसूत्रनुसार 'अण्' प्रत्यय लगाने पर 'भारहार' आदि शब्दों की तरह बना है। यह ह्रं धातु हरण रूप अर्थ का बोधक है। जिस हरण का अर्थ पंडित प्रवर भट्टोजिदीक्षित ने स्वकृत सिद्धांत कौमुदी के उत्तारार्द्ध के भ्वादि गण में इसी हृं धातु के प्रकरण में लिखा है कि 'हरणं प्रापणं, स्वीकार:, स्तेयं, नाशनं च।' जिसका तात्पर्य यह है कि जिस हरण रूप अर्थ का वाचक 'हृ' धातु है, उस हरण के चार अर्थ है - (1) प्राप्त करना अर्थात पहुँचाना, (2) स्वीकार करना, (3) चुराना, और (4) नाश करना। इन चारों अर्थों के उदाहरण 'तत्वबोधिनी' प्रभृति ग्रन्थों में ऐसे लिखे है कि जैसे -
(1) 'भारं हरति' अर्थात बोझे को हरण करता यानी पहुँचाता है,
(2) 'भागं हरति' अर्थात अपने हिस्से को हरण करता या स्वीकार करता है,
(3)'सुवर्ण हरति, अर्थात सोना हरता या चुराता है, और
(4) 'हरि हरति पापानि' अर्थात विष्णु पापों को हरते या उनका नाश करते हैं। परंतु जब कि रुपए, पैसे इत्यादि की तरह पृथ्वी की चोरी या नाश हो नहीं सकता, इसलिए प्रकृत में हृं धातु के दो ही अर्थ हो सकते हैं, प्रापण अर्थात पहुँचाना या बल से अधिकार कर लेना और स्वीकार।
इसलिए भूमिहार का यह अर्थ हुआ कि 'भूमिं हरति प्रापयपि बलादधिकरोति केनचिदुपाएन स्वीकरोति वेति भूमिहार:' अर्थात जो ब्राह्मण पृथ्वी के ऊपर अस्त्र, शस्त्रादि के बल से अधिकार कर ले, अथवा उपयांतर से प्राप्त पृथ्वी का स्वीकार कर ले - जैसा कि योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम. ए. की भी सम्मति इस विषय में ग्रन्थ के अन्त में दिखलावेंगे कि जिन ब्राह्मणों ने जागीर वगैरह में भूमि प्राप्त की, वे भूमिहार कहलाए - उसे भूमिहार कहते हैं। और ये दोनों बातें धर्मारण्य के पूर्वोक्त ब्राह्मणों में घटती भी है। क्योंकि श्रीराम जी के यज्ञ में दक्षिणा स्वरूप भी पृथ्वी उन्हें यज्ञ करवाने के बदले मिली थी, और पीछे उस जैनी राजा के तंग करने पर उन्हें उसके गृह इत्यादि को जलाना और रुद्र-रूप धारण करना पड़ा, जिससे उसकी सब सेनाएँ नष्ट हो गईं। यह बात उसी धर्मारण्य महात्म्य ग्रन्थ से विदित होती है। और पश्चात भी उन्होंने यवन राज्य काल में पृथ्वी पर बहुत सा अधिकार कर लिया था। इसलिए उसी समय (यवन काल में) ये मदारपुर के अधिपति ब्राह्मण भूमिहार कहलाए और इसीलिए उन लोगों को यवनों ने बली जान घोर युद्ध किया।
इसी जगह इतना और भी जान लेना चाहिए कि जिस प्रकार अयाचक वीर ब्राह्मण दल के लिए यह भूमिहार या भुइंहार शब्द आया है क्योंकि संस्कृत भूमिहार शब्द के भूमि शब्द का अपभ्रंश 'भुइं' शब्द हो गया है। परंतु हार शब्द दोनों में ज्यों का ज्यों पड़ा है। उसी प्रकार उसी दल के लिए 'महियाल' और 'तगा' अथवा दान त्यागी शब्द आते हैं। जिनमें से 'महियाल' शब्द पंचाब प्रांत निवासी सारस्वत ब्राह्मणों के एक प्रतिष्ठित दल के लिए आता हैं। जिस दल में काशी के भूतपूर्व विद्वन्मंडली मंडन श्रीयुत काका राम शास्त्री जी हो गए हैं। जिनके सुकर्मपुष्प के कीर्तिगंध में आज भी विद्वन्मानस चंचरीक लुब्ध हो रहा हैं और तगा या दानत्यागी, अथवा त्यागी शब्द प्राय: मेरठ की कमिश्नरी और उसके समीपवर्ती अन्य प्रांत निवासी गौड़ ब्राह्मणों के उसी अयाचक, कर्मवीर दल के लिए आता है। इनमें से 'महियाल' शब्द का ठीक वही अर्थ है जो भूमिहार शब्द का। क्योंकि उसका शुद्ध संस्कृत शब्द 'महीवार' है, जो मही (भूमि का पर्याय) पूर्वक वृत्त अथवा वृङ धातु से उसी पूर्वोक्त 'कर्मण्यण' इस सूत्र से अण् प्रत्यय करने से बना हैं। जिनमें से वृत्त धातु का वरण अर्थात प्रार्थना या स्वीकार अर्थ हैं, और वृङ् धातु का भी संभक्ति अर्थात स्वीकार, सम्मान अथवा याद करना अर्थ हैं। अथवा वृ या वृत्त धातु से भी अण प्रत्यय करने से यह शब्द बन सकता है। इन दोनों के भी अर्थ पूर्वोक्त ही हैं और धारण करना (रखना) बन सकता है। इसलिए संपूर्ण शब्द का यह अर्थ हुआ कि 'महीं भूमिं वृणोति स्वीकरोति प्राथयते वा, वृणाति वृणीते स्वीकरोति सम्मानयति धारयति वेति महीवार:' अर्थात जो भूमि का जागीर वगैरह की तरह, जैसा कि इस प्रकरण के अन्त में योगेंद्रनाथ भट्टाचार्य एम.ए. की सम्मति दिखलावेंगे, स्वीकार या उसके लिए प्रार्थना करे, अथवा उसका सम्मान या पालन करे, उस अयाचक ब्राह्मण दल का नाम महीवार है। यही महीवार शब्द बिगड़ते-बिगड़ते महीबाल हो कर आजकल महियाल हो गया है। र, ल, तथा ड वर्णों का उलट-फेर संस्कृत में भी हुआ करता है। जैसे विलार और विडाल। जैसे जमींदार भूमिहार, ब्राह्मणों में कहीं-कहीं लोगों को ब्राह्मण शब्द कहने से घृणा होती है, जैसे कि प्रथम ही दिखला चुके हैं, वैसे ही महियाल और त्यागी लोग भी अपने को ब्राह्मण कहने घृणा करते हैं। केवल महियाल में या त्यागी मात्र ही कहते और मनुष्य गणनादि के विवरणों में लिखवाते हैं। क्योंकि उनमें तो संस्कृत का अत्यन्त अभाव-सा हो रहा है। इसलिए वे लोग ब्राह्मण शब्द के पवित्र अर्थ को न जान उसे विपरीत ही समझे हुए है। इसलिए उससे घृणा करते हैं। पंजाब में जमीन खरीदने वगैरह के लिए यह कानून हैं कि जराअत पेशा (कृषक) जातियाँ ही उसे कर सकती है, न कि दूसरे लोग भी और ब्राह्मणों की गिनती जराअत पेशा कौम में न होने एवं तगे और महियालों की गिनती उनमें होने से वहाँ के बहुत से गौड़ और सारस्वत अपने को महियाल और तगा ही कहना और उन्हीं से विवाह करना पसंद करते हैं।
यही दशा गुजरात देशीय सिपाही नागर संज्ञक ब्राह्मणों की भी हैं। वे लोग भी बड़ौदा प्रभृति राज्यों में बड़े-बड़े जमींदार रहे हैं और संस्कृत तो प्राय: जानते ही नहीं। तथापि वाणिज्य, व्यापार में बहुत ही कुशल होने से लक्ष्मीपात्र है और प्राय: बहुत से मजूमदार कहे जाते हैं, जिसका जमींदार ही अर्थ होता है। उनमें भी प्राय: राय अथवा भाई पदवीवाले होते हैं, अमुकराय, अमुकभाई इत्यादि। वे लोग भी अपने को 'कौन हैं' ऐसा प्रश्न करने पर केवल 'नागर' कहा करते हैं, बल्कि ब्राह्मण कहने से बुरा भी मानते हैं। हाँ, अब द्वारिका के गोवर्धन पीठ के श्री शंकराचार्य जी के समझाने से कुछ-कुछ समझने लगे हैं। यही दशा महियालों की है। अन्य सारस्वतों के हजार कहने पर भी अपने को केवल महियाल ही लिखवाते हैं। हाँ, वे भी अब कुछ-कुछ समझने लगे हैं उनमें बड़े-बड़े जमींदार और राजे हो गए हैं और हैं, जिनका विशेष विवरण पं. दुर्गादत्त जोशी रचित 'सारस्वत ब्राह्मण इतिहास, में मिलता है। जो अंग्रेजी और हिंदी मिश्रित उर्दू में छपा हैं और एक रुपए में स्थान-हाथी बड़कला जिला देहरादून में मिलता है।
उन्होंने तो उस पुस्तक में जमींदार, भूमिहारादि ब्राह्मणों के सभी दोनवार, किनवार प्रभृति भेदों को लिख कर और बड़े-बड़े राजों, महाराजों तथा बाबुआनों को भी जैसे कि महाराज द्विजराज श्रीकाशिराज, महाराज हथुआ एवं बाबुआन जगतगंज, चितईपुर इत्यादि, लिख कर सभी को सारस्वत ब्राह्मण सिद्ध किया है। जिसे इच्छा हो मँगा कर देख ले। उसी पुस्तक के तृतीय सर्ग (अध्याय, बाबू) के 19वें से 29वें पृष्ठ तक गोत्र और उपाधियों आदि को बतला कर युक्ति और प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि महाराज पोरस, जो सन ईस्वी 300 वर्ष पूर्व हुआ, सुधाजोझा जो सन 500 ई. में हुआ, राजा छाच जो सन 700 ई. में और जयपाल, आनन्दपाल और सुखपाल जो सन 1001 ई. में हुए ये सभी महियाल आदि सारस्वत ब्राह्मण थे। उनके कुरसीनामे को भी वहाँ लिखा है और मिलान किया है। यहाँ तक कि उन्होंने 'राजर्षि' शब्द भी उन सारस्वत ब्राह्मणों के लिए रखा है, जिनका वर्णन उस पुस्तक-भर में है।
डॉ. विल्सन के 'भारतीय जातियाँ' नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में महियालों के विषय में द्वितीय भाग 134वें पृष्ठ में इतना ही लिखा है कि :
Saraswat Brahmans, "Another class of the character referred to is that of the Moyals, or Tvoval. They are extensively scattered over the Punjab."
अर्थात 'सारस्वत ब्राह्मणों की एक और जाति हैं जो महियाल या मोवाल कहलाती और संपूर्ण पंजाब में फैली हुई है।' उसी जगह तगा ब्राह्मणों के विषय में लिखा है कि: "Taga Brahmans of the Punjab are generally cultivators. They belong to the Gauda division of the Brahman-hood. They care little about religious rites's of any kind Yet, as if compensating for their indifference in this matter, they profess to obstain from flesh and fish....They are found principally on the bank of the Saraswati, near Thanesar. Some of the less pure agricultral Brahmans of these villages are called Taga or Gauda Tagas."
इसका अर्थ यह है कि 'पंजाब के तगे ब्राह्मण प्राय: कृषक है, वे गौड़ ब्राह्मण दल के हैं और सभी प्रकार के धार्मिक कार्यों पर कम ध्यान देते है। तथापि गोया इसी अपराध के प्रायश्चित्त के लिए, वे लोग मांस, मछली नहीं खाते...। वे विशेष कर थानेसर के पास सरस्वती नदी के किनारे पाए जाते हैं। इन ग्रामों में बहुत से जो पक्के कृषक ब्राह्मण नहीं हैं वे तगा या गौड़ तगा कहलाते हैं।'
अस्तु, इसी प्रकार तगा या त्यागी ब्राह्मणों का विशेष विवरण यों हैं कि महाराज आदि शूर ने 999 शब्दका में कान्यकुब्ज देश से पाँच गोत्र के पाँच ब्राह्मणों को वहाँ बुला कर यज्ञ करवाया और युक्ति से उन्हें वहाँ स्थापित किया। जिनके उस बंगदेशांतर्गत गौड़ देश में (ढाका, राजशाही, मुर्शदाबाद प्रभृति प्रांतों का नाम गौड़ देश हैं) कई भिन्न-भिन्न कारणों के वश दो दल हो गए, जो गंगा के इस और उस पार में बारेंद्र और राढ़ देश में बसे। इसलिए बारेंद्रीय और राढ़ीय कहलाए। उन्हीं में से मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लुक भट्ट बारेंद्र श्रेणी के ब्राह्मण थे। अतएव अपनी टीका के प्रारंभ में ही वे लिखते हैं कि :
गौडे नन्दवासिनाम्नि सुजनैर्वन्द्ये वरेन्दयां कुले।
श्रीमद्भट्टदिवाकरस्य तनय: कुल्लूकभट्टो भवत्॥
जिसका अर्थ यह है कि गौड़ देश के वारेंद्र श्रेणी के ब्राह्मणों के नन्दवासा नामक कुल में श्रीमद्भट्ट के पुत्र कुल्लूकभट्ट हुए।
जब कन्नौज से इस देश में ब्राह्मण आए तो, उनके विषय में भिन्न-भिन्न मत है कि वे लोग फिर गौड़ देश से कन्नौज में लौटे। परंतु उनके देशवालों में मगध और बंगादि देशों में जाने के कारण उनका सत्कार न किया। इसलिए फिर लौट गए और गौड़ देश में ही स्थित हुए। किसी का मत उनके वहाँ ठहरने के विषय में भिन्न ही है और किसी का और ही। यह बात 'गौड़ हितकारी' मासिक पत्र के देखने से स्पष्ट विदित होती है, जो मैनपुरी से निकलता है। उसमें 'गौड़ देश में ब्राह्मण' शीर्षक लेख में जो अप्रैल सन 1915 ई. से प्रतिमास प्रकाशित होने लगा है, बहुत से प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर इन बातों को दिखलाया है। उसी पत्र के सितंबर सन 1915 ई. के अंक के दूसरे पृष्ठ में लिखा है कि 'बल्लालसेन के पिता विजयसेन के पश्चात बल्लालसेन ने राढ़ी एवं वारेंद्र श्रेणी विभाग, एवं वारेंद्र कुल में कौलीन मर्यादा स्थापित की एवं राढ़ीय श्रेणी में दानत्यागी कुलीन ब्राह्मणों का आदर-सत्कार किया।' कहते हैं कि 'बल्लालसेन ने एक स्वर्ण निर्मित गोमूर्ति दान की। परंतु कतिपय राढ़ी ब्राह्मणों ने इस स्वर्ण निर्मित धेनु के टुकड़े-टुकड़े कर के स्वस्वभाव ग्रहण किया। इससे बल्लालसेन को दु:ख हुआ और दानग्राही ब्राह्मणों को उन्होंने समाज से बहिष्कृत कर दिया।' इससे उस समय गौड़ देशीय राढ़ीय ब्राह्मणों का एक दल दान त्यागी था और दूसरा दानग्राही ऐसा प्रतीत होता है। इसके अनंतर, ऐसा मालूम होता है कि जब यवनों का आधिपत्य बंगदेश में विशेष हुआ जिसके आज तक अनेक प्रमाण है और जो बात इतिहासज्ञों से छिपी नहीं है, तब, अथवा अन्य उन्हीं कारणों से, जिनका वर्णन अन्य ब्राह्मणों के विषय में पूर्व कर चुके हैं, वे गौड़ देशीय ब्राह्मण गौड़ देश से पश्चिम को चले हैं। परंतु कान्यकुब्ज प्रभृति ब्राह्मणों ने बंगादि देशों में जाने और रहने से अपने पास रहने नहीं दिया है। इसलिए और कुरुक्षेत्र के पास के देशों को किसी और कारण से भी अनुकूल जान कर वे गौड़ देश के दोनों दलवाले दानत्यागी और ग्राही ब्राह्मण वहीं रह गए हैं। इसमें प्रबल प्रमाण यह है कि जहाँ अन्य गौड़ पाए जाते हैं वहीं तगे लोग भी। 'कान्यकुब्जा द्विजा: सर्वे' यह प्रसिद्ध होने और उन्हीं के एक दल के पीछे से गौड़ नामवाला प्रसिद्ध और पंच द्राविणों तक विस्तृत होने से प्रथम जिन पाँच दलों का नाम कान्यकुब्ज था, वे ही अब गौड़ कहलाए। जैसे सूर्य वंश का नाम पीछे से रघुवंश भी हुआ। इसी से शक्ति संगम तन्त्र में 'पंचगौड़ा:' इत्यादि लिखा है, जिसे लोग सह्याद्रि खण्ड और भविष्यपुराण का बताते हैं।
अस्तु, बल्लालसेन के समय में दान त्याग से उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। इसलिए वे लोग दान त्यागी कहलाने लगे और दूसरे लोग ज्यों के त्यों कहलाते थे। परंतु जब गौड़ देश से कुरुक्षेत्र के आसपास आ बसे, तो अन्य ब्राह्मण तो पूर्वोक्त नियमानुसार गौड़ देश के नाम से गौड़ कहलाने लगे और दान त्यागी लोग गौड़ दान त्यागी, जो बिगड़ते-बिगड़ते काल पा कर गौड़ त्यागी हो कर फिर त्यागी, तागी, तगा इत्यादि हो गया। इसलिए अब वे लोग गौड़ तगा या तगा कहलाते हैं। यदि उनमें भी कहीं ब्राह्मण शब्द से घृणा है, तो उसका कारण दिखला ही चुके हैं। वे लोग बड़े-बड़े जमींदार है, और उनके व्यवहार राजसी हो रहे हैं। गौड़ों में जो आदि गौड़ कहलाते हैं उनका भी यही अर्थ है कि जिनको आदि शूर ने गौड़ देश में बुलाया था अथवा जो प्रथम गौड़ देश में गए, या वहाँ से प्रथम आ कर इन देशों में बसे। इन दान त्यागी गौड़ों के विवाह सम्बन्धादि प्राय: अन्त गौड़ों के साथ सहारनपुर, अंबाला आदि जिलों में होते हैं। परंतु महियाल लोग तो अन्य सरस्वतों के यहाँ अपने पुत्रों का ही प्राय: विवाह करते, अपने को उनसे श्रेष्ठ समझते और प्राय: लड़कियाँ उन्हें नहीं देते हैं। इस तरह से उत्तर भारत के - (1) भूमिहार, (2) दान त्यागी या तगे, (3) महियाल, (4) जमींदार (5) पश्चिम आदि नामधारी अयाचक ब्राह्मण ही इस समय एक-से हैं और इनके आचार, विचार, नाम और प्रतिष्ठा इत्यादि भी समान ही है।
इसी प्रकार यदि बंगदेशीय ब्राह्मणों को देखिए तो वहाँ भी दो दल हैं, अयाचक लोग देवशर्मा कहे जाते हैं, तथा याचक दलवाले भट्टाचार्य एवं दक्षिण में अयाचक लोग प्राय: राव कहलाते हैं तथा याचक दलवाले भट्ट। महाराष्ट्र के चितपावन लोग, जिनमें लोकमान्य तिलक हुए हैं, अयाचक ही है। गुजरात देश के नागरों का हाल कह ही चुके हैं। उस गुजरात में मुझे बहुत से ऐसे ब्राह्मण मिले, जिनकी वंश-परम्परा की पदवी अयाची है, जिसका अर्थ अयाचक है। कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में भी इन जमींदार और भूमिहार ब्राह्मणों को छोड़ कर और भी प्राय: बहुत से ऐसे ब्राह्मण सर्यूपार और कान्यकुब्ज देश में अधिकतर पाए जाते हैं, जो प्रतिग्रह से घृणा करते हुए केवल कृषि, वाणिज्यादि द्वारा ही जीविका करते और कुलीन समझे जाते हैं। मैथिलों में भी प्राय: श्रोत्रिय तथा अन्य भी बहुत से अयाचक ही हैं एवं उत्कल ब्राह्मणों में भी बहुत से अयाचक ही हैं, जो जाजपुर स्थान के नाम से जाजपुर कहे जाते हैं और पडया भी। इसी तरह इस समय की कान्यकुब्जों में बहुत से दान त्यागी ब्राह्मण जगद्वंशी और धनंजई कहलाते हैं।
यद्यपि इन सबों के साथ भूमिहार, जमींदार, तगे और महियाल आदि अयाचक विप्रों के खान-पान आदि नहीं हैं, तथापि इस कथन का तात्पर्य यह है कि जो अनादि काल से याचक और अयाचक दो प्रकार के ब्राह्मण कहलाते थे, उनका इस समय भी किसी भी देश या प्रांत में अभाव नहीं है। अत: इनमें से जिनके वंश उज्ज्वल या आचार-व्यवहार अच्छे हो, उनके साथ खान-पान, विवाह आदि करने में कोई हर्ज नहीं है।
अस्तु, यह बात सिद्ध हो गई कि ब्राह्मणों की सभी नूतन संज्ञाएँ यवन काल में प्रचलित हो गईं। तदनुसार भूमिहार, तगा (दानत्यागी) और महियाल संज्ञाएँ भी उसी काल में पड़ीं। और यह भी सिद्ध हो गया कि प्रथम भूमिहार और तगा (दानत्यागी) संज्ञा कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों के ही एक-एक दल की हुई और भूमिहारादि शब्दों के अर्थ भी विदित हो गए। इसलिए जो लोग ऐसी कुकल्पना करते हैं कि 'जब मदारपुर के ब्राह्मण लोग भूमि को हार गए, तो उनका नाम भूमिहार पड़ा' वह अज्ञानपूर्ण हैं क्योंकि व्याकरणादि भी इस अर्थ की पूर्वोक्त रीति से स्थान नहीं दे सकते। और यदि हारने पर ही नाम पड़ा तो जब मदारपुर के अधिपति थे उस समय लड़ाई से पूर्व काल में वे लोग क्योंकर भूमिहार कहे गए? और पीछे भी भूमिहार क्यों कहा गया? क्योंकि
आपकी सुबुद्धि में तो यह असंभव बात समाई हैं कि सभी मर गए। और गर्भू तो लड़ाई में था ही नहीं, क्योंकि उसकी माता अपने पिता के घर या अन्यत्र थीं और वह गर्भ में था। क्या आपको कहीं ऐसा भी मिला है कि लड़ाई में सभी मार डाले गए? क्या आजकल के समय में भी कोई भी कादर न था। इसलिए ये सब कुकल्पना मात्र है। वास्तव अर्थ तो पूर्व में ही दिखला चुके हैं। यदि 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से आपके इस कल्पित अर्थ को स्वीकार कर भी ले, तो भी भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में कोई हर्ज नहीं है। क्योंकि पूर्वोक्त रीति से जो युद्ध में इधर-उधर भाग गए, वही ब्राह्मण भूमिहार कहलाए। यदि 'भूम्या भूमेर्वा हारा भूमिहार:' अर्थात जो भूमि के हार रूप हो वे ब्राह्मण भूमिहार कहलाते हैं। जैसे भूमिसुर या भूसुर का अर्थ भूमि संबंधी (अर्थात इस लोक का) सुर यानी देवता हैं, अत: ब्राह्मण भूसुर कहलाते हैं। जैसे पति स्त्री का भूषण रूप होने के कारण उसका हार कहलाता है, वैसे ही पृथ्वी रूप स्त्री के पति होने से यह अयाचक ब्राह्मण भी भूमिहार कहलाने लगे, ऐसी कल्पना आप करते, तो आपकी बुद्धिमानी की प्रशंसा की जाती।
अस्तु, ये भूमिहार ब्राह्मण कन्नौज से पूर्वोक्त मदारपुरवाले युद्ध में हट कर काशी के आसपास के प्रांतों में भी फैल गए, क्योंकि वे निकट हैं, न कि अधिक पूर्व के देश। और अन्य अयाचक ब्राह्मणों के इनमें मिल जाने से जैसा कि कह चुके हैं, इनकी संख्या बढ़ने लगी। उसी समय जो अयाचक ब्राह्मण बड़े-बड़े जमींदार, या शक्ति-संपन्न और शस्त्रधारी थे, परंतु अभी तक इस भूमिहार संज्ञा वा विशेषण से भूषित न थे, और जो बढ़ते-बढ़ते तिरहुत प्रांत के मुजफ्फरपुर, दरभंगा प्रभृति जिलों में चले गए, उन्हें मिथिला देश के निवासी ब्राह्मण प्रभृति अपने को पृथक रखने के लिए पश्चिम देश से आए हुए ब्राह्मण जान पश्चिमीय ब्राह्मण कहने लगे। जो शब्द आज तक मिथिला प्रांत में बिगड़ कर 'पश्चिम ब्राह्मण' इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों के लिए कहा जाता है। और इसके साथ ही उस देश के भी जो बहुत से अयाचक ब्राह्मण थे और जिनका व्यवहार याचक मैथिलों को पसंद न था और न उनका अयाचक ब्राह्मणों को, वे भी इन पश्चिम ब्राह्मणों से विवाह आदि कर के इनमें मिलने लगे। यह पश्चिम ब्राह्मणों का मैथिलों के साथ विवाह और परस्पर खाने-पीने की प्रथा आज तक प्रचलित है और बहुत से मैथिल ब्राह्मण मूर्द्धन्य पश्चिम ब्राह्मणों में इसी कारण मिलते चले जा रहे हैं, जिनका निरूपण आगे करेंगे। इसलिए पश्चिम ब्राह्मण का अब अर्थ हो गया कि जो ब्राह्मण पश्चिम के कान्यकुब्जादि देशों से तिरहुत में आए अथवा जो तिरहुतवाले भी विवाहादि द्वारा उनमें मिलते गए। साथ ही, इन पश्चिम ब्राह्मणों ने भूमिहार ब्राह्मणों को ही अपने सम्बन्ध योग्य समझा, इसलिए काशी के समीपवर्ती प्रांतों में रहनेवाले इन भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाहादि करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार से उनके इन भूमिहार ब्राह्मणों में मिल जाने से भूमिहार ब्राह्मणों का सम्बन्ध मिथिला प्रदेश में भी यद्यपि हो गया। तथापि इनके लिए वहाँ वही पश्चिम ब्राह्मण शब्द अब तक प्रचलित है। कहीं-कहीं केवल पश्चिम शब्द भी आता है।
इस 'पश्चिम ब्राह्मण' शब्द के विशेष प्रचार होने का कारण यह है कि जब मिथिला देश में कायस्थों और ब्राह्मणों को पंजी (मैथिल वंशावली) लिखी जाने लगी, जिसके अनुसार ही आज की मैथिल सभा केवल मैथिल ब्राह्मणों की ही नहीं है, किंतु मैथिल कायस्थों की भी है और वहाँ ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ दोनों ही अपने को मैथिल ही कहते हैं और पाग (पगड़ी) भी दोनों की प्राय: एक-सी होती है। तो जैसे मैथिल कायस्थों से अन्य कायस्थों को पृथक करने के लिए कायस्थ के साथ पश्चिम शब्द लगने से पश्चिम कायस्थ कहलाने लगे, वैसी ही इन अयाचक ब्राह्मणों को मैथिल ब्राह्मणों से पृथक करने के लिए ब्राह्मण शब्द के साथ पश्चिम शब्द लगा कर ये ब्राह्मण पश्चिम कहलाने लगे। अब भूमिहार ब्राह्मण महासभा के उद्योग से कहीं-कहीं भूमिहार शब्द सुनने में आता हैं। हाँ मगध और तिरहुत प्रांत में भी बाभन शब्द का प्रचार है। उनमें से मगध में विशेष रूप से और तिरहुत में भी कहीं-कहीं केवल यह शब्द बोला जाता है। परंतु स्मरण रखना चाहिए कि आजकल प्राय: प्रत्येक प्रांत में ब्राह्मण मात्र के ही लिए बाभन शब्द का प्रयोग होता है। इसका प्रचार तो यहाँ तक हो गया है कि जो लोग संस्कृत पढ़े-लिखे धुरन्धर विद्वान समझे जाते हैं, वे भी किसी-किसी विशेष समय को छोड़ अपने या सभी ब्राह्मणों के लिए बाभन शब्द का ही प्रयोग साधारण बोलचाल में किया करते हैं। जैसा कि 'करिया बाभन गोर चमार, इनके संग न उतरे पार' इत्यादि किंवदंतियाँ भी सूचित करती है। इसी प्रकार से मिथिला के मैथिल लोग तो अपनी भाषा के व्यवहार में सभी ब्राह्मणों को बाभन कहा करते हैं। जैसा कि 'सोतियो बाभन थीक और कंटा हो बाभन थीक, बाभनो सब तरहक होइछथ' इत्यादि जिसका तात्पर्य यह है कि 'श्रोत्रिय भी ब्राह्मण ही हैं और महापात्रा (प्रेत ब्राह्मण) भी। ब्राह्मण भी सभी तरह के होते हैं।' थोड़ा पश्चिम जाने पर भी बाभन या बम्भन शब्द का प्रयोग मिलता है, जैसा कि 'क्यों जी आप तो बाभन की तरह खटराग करते हैं' इत्यादि। इसी प्रकार अन्य देश में भी 'करिया बाभन गोर शुद्दर ताहि देखि डरे रुद्दर।'
तात्पर्य यह है कि सभी प्रांत में बाभन शब्द को ही बाभन का बोधक पाते हैं, और यह उचित भी है। क्योंकि संस्कृत ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश बाभन शब्द है, जैसे वाराणसी का बनारस, चतुर्वेदी का चौबे, त्रिवेदी का तिवारी, और मार्ग का मग इत्यादि। और आजकल प्राय: अपभ्रंश शब्दों का ही व्यवहार होता है। यह बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द से क्योंकर बिगड़ते-बिगड़ते बना, इसका विस्तृत विचार पटना प्रांतान्तर्गत अमहरा ग्राम निवासी श्री काशीचरण सिंह जी ने 'बाभन' नामक ग्रन्थ में किया है। जिसके देखने से इस विषय तथा अन्य उपयोगी विषयों में ज्ञान प्राप्त हो सकता है। वह अवश्य दृष्टव्य है।
सारांश यह है कि मैथिली भाषा में श्रोत्रिय शब्द की जगह सोतिय अथवा सोत शब्द का प्रयोग करते हैं, जैसा कि अभी दिखला चुके हैं। श्रोत्रिय शब्द के दोनों प्रकार उड़ा दिए गए हैं और श्रावण तथा चैत्रादि शब्दों की जगह भी सावन और चैत शब्द ही बोले जाते हैं। एवं महीष शब्द के मकार की जगह 'भैं' शब्द बोल कर हृकार, मकार अक्षरों की जगह 'स' भानस शब्द का प्रयोग होता है, जिसका अर्थ रसोईघर हैं। इसीलिए रसोई बनानेवाले को वहाँ के लोग 'भनसिया' कहा करते हैं। इन दृष्टांतों से स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार ब्राह्मण शब्द बिगड़ते-बिगड़ते बाभन हो गया। विशेष कर मैथिल भाषा में इसके विशेष दृष्टांत मिलते हैं। इसीलिए उस भाषा में ब्राह्मण शब्द की जगह बाभन ही होना चाहिए जैसी कि उस भाषा की रीति विदित हो गई होगी। इसी से तिरहुतप्रांत में अन्य ब्राह्मणों के लिए और इस अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के लिए भी बाभन शब्द का प्रयोग होता है। क्योंकि 'जैसा देश वैसा भेष' इस नियमानुसार उस देश में उसी देश की भाषा के शब्द का प्रयोग करना या होना उचित ही है।
मगध देश मिथिला का समीपवर्ती है। इसी से पूर्वकाल में भी मगध और उसका सम्बन्ध बहुत रहा है, जैसा कि बौद्ध काल आदि के इतिहासों से विदित होता है। साथ ही, जैसा कि काशी प्रांत के आचार-विचार से मगध का आचार-विचार एकदम विपरीत ही है, वैसा मिथिला देश से नहीं, किंतु दोनों देशों के आचार-विचार प्राय: मिलते हैं। ये भी दोनों देशों के प्राचीन सम्बन्ध को सिद्ध करते हैं। और जिस बिहार अथवा बंगाल का भाग मगध है उसी का तिरहुत भी है। परंतु काशी उससे पृथक है, क्योंकि प्राय: जिन-जिन प्रांतों के आचार इत्यादि एक प्रकार के होते हैं वे ही एक में सम्मिलित किए जाते हैं। इसलिए यह आज तक देखने में आता है कि मिथिला प्रांत के अयाचक अथवा याचक ब्राह्मणों के जितने विवाह सम्बन्ध प्रभृति मगध देश में हैं, उतने तिरहुत से बाहर अन्यत्र काशी प्रभृति प्रांतों में नहीं हैं। क्योंकि जिन लोगों की भाषा इत्यादि के समझने में विशेष क्लेश नहीं होता, उनके ही सम्बन्ध परस्पर होने में आसानी होती है। मिथिला की भाषा भी मगध से मिलती-जुलती है। इन्हीं सब कारणों से मगध देश में भी उसी मिथिला देशवाले, अथवा उस भाषावाले बाभन शब्द का व्यवहार सभी याचक और अयाचक ब्राह्मणों के लिए आता हैं। न कि काशी प्रांत के भूमिहार और प्रयाग के जमींदार शब्द का प्रयोग अयाचकों के लिए आज तक आया है। क्योंकि जिसका सम्बन्ध प्रबल होता है वही अपनी ओर उसे सब तरह से घसीटता हैं। इसीलिए छपरा जिले के पूर्वी भाग में भी बाभन शब्द ही ब्राह्मणों के लिए आता है। क्योंकि वह मिथिला से बहुत निकट और काशी प्रांत से बहुत दूर हो गया है। अत एव वहाँ के बहुत से आचार-विचार भी तिरहुत से मिलते हैं।
सबसे बड़ा प्रमाण छपरा, तिरहुत और मगध के प्राचीन सम्बन्ध का यह है कि बहुत से मैथिल और पश्चिम आदि जो ब्राह्मण वहाँ पाए जाते हैं, वे बहुतेरे या तो छपरा से गए हैं, अथवा मगध देश से। जैसे कि एकसरिया, जैथरिया, दिघवे अथवा दिघवैत, सहौलिया, दंसवार और कोदरिया प्रभृति छपरा से तिरहुत आदि में गए हैं, और आरे, सिहुलिया वा सिहोगिया या सोहगौरिया, नैनजोरा इत्यादि मगध से तिरहुत या छपरा में गए हैं। इसीलिए इन सभी का भाषा इत्यादि में मेल है। इसलिए मिथिला भाषा का ही बाभन शब्द मगध या छपरा में भी बोला जाता है, इसमें संदेह नहीं हो सकता। इसीलिए जो लोग पांडित्य के गर्व में यह कुकल्पना करते हैं - जैसा कि मि. ई. ए. गेट साहब ने सन 1901 ई. की भारतवर्षीय मनुष्यगणना के विवरण की छठवीं जिल्द के 279 पृष्ठ के पैरा 610 के फुटनोट (टिप्पणी) में म. म. हरिप्रसाद शास्त्री की सम्मति लिखी हैं, जो उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में दिखलाई थी कि जो ब्राह्मण बौद्ध काल में या तो बौद्ध हो गए थे या उसका प्रभाव उसके ऊपर पड़ गया था, उनके ही लिए बाभन शब्द प्रयुक्त होता है। क्योंकि यह शब्द भी बौद्ध धर्म की पालि भाषा का है इत्यादि। उनकी कल्पना की प्रशंसा जहाँ तक कि जावे सब थोड़ी ही है। क्योंकि इस कुकल्पना से तो प्राय: सभी ब्राह्मण जैसा कि दिखला चुके हैं पूर्वकाल के बौद्ध सिद्ध हो जावेंगे। फिर उनके मत में ब्राह्मण शब्द किसके लिए होगा? क्या पंजाब प्रांत तथा प्रयाग के पश्चिम बौद्धधर्म का प्रभाव न था? अथवा दक्षिणात्य प्रांतों में बौद्ध धर्म का प्रबल प्रतापादित्य उदित न हुआ था? यह तो आजकल के पुरातत्वविभाग और प्राचीन इतिहासों से स्पष्ट ही हैं। फिर उन प्रांतों में आपके मत से किसी भी ब्राह्मण के लिए बाभन शब्द का प्रयोग आज क्यों नहीं मिलता? इस कल्पना से तो आप यह भी कह सकते हैं कि आजकल प्राय: जितने अपभ्रंश (पालिभाषा के) शब्द हिंदी या देशी भाषाओं में जिन जड़, चेतन सभी वस्तुओं के लिए बोले जाते हैं, वे सब वस्तुएँ भी बौद्ध हो गई थीं। जिस तरह मिथिला भाषा का बाभन शब्द बौद्ध ब्राह्मणों के लिए हैं, उसी प्रकार के 'भानस' आदि शब्द भी बौद्ध रसोईघर के लिए होने चाहिए। क्योंकि जब मनुष्य बौद्ध होते होंगे, तो उनके रसोईघर भी उसी धर्म के अनुयायी हो जाते होंगे। अथवा इन शब्दों तथा अन्य अपभ्रंश बनारस, सावन, भादों, चौबे, दूबे प्रभृति के लिए और उपाय निकालिए। इसलिए इन सब कुकल्पनाओं का अवकाश यहाँ नहीं हैं।
इसी से मि. जान बीम्स ने जो लिखने का साहस दिखलाया है कि "Bhumihars are also called Babhans, by which the people say is, meant a Sham Brahman." अर्थात भूमिहार लोग बाभन भी कहलाते हैं, जिसका अर्थ लोग यह बतलाते हैं कि 'दोगला ब्राह्मण।' उसका भी खण्डन हो गया क्योंकि इस प्रकार से तो सभी ब्राह्मण दोगले सिद्ध हो जावेंगे, क्योंकि सभी बाभन कहलाते हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं। इसका विशेष विचार आगे होगा। हाँ हम इतना अवश्य स्वीकार करेंगे कि बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश होने से चौबे, दूबे भूमिहारादि शब्दों की अपेक्षा प्राचीन है। इसीलिए पालि लेखों में भी कहीं-कहीं पाया जाता है, और इसीलिए उसका प्रचार भी पुराना है न कि इन शब्दों का समकालीन है। चाहे यह बाभन शब्द कैसा हो और कभी का भी हो, परंतु पूर्वोक्त युक्तियों से सही मानना पड़ेगा कि उसका विशेष रूप से प्रचार मिथिला देश से ही और उसी भाषा के अनुरोध से हुआ है इस तरह से जिन अयाचक ब्राह्मणों की स्थिति मगध प्रांत में थी उन्होंने सदृश और योग्य जमींदार और भूमिहार ब्राह्मणों अथवा पश्चिम ब्राह्मणों के साथ सम्बन्ध करना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार मगध प्रांत में भी अयाचक ब्राह्मणों की स्थिति नामांतर से हो गई, जैसी कि मिथिला में। इसी प्रकार से प्रयाग और बाँदा प्रभृति प्रांतों में पूर्वोक्त रीति से यही लोग अभी तक जमींदार ब्राह्मण कहलाते हैं। इसलिए निर्विवाद सिद्ध हो गया कि ये अयाचक ब्राह्मण इन देशों में कहीं भूमिहार ब्राह्मण, कहीं पश्चिम ब्राह्मण, कहीं केवल बाभन या ब्राह्मण और कहीं जमींदार ब्राह्मण इत्यादि नामों से पुकारे जाते रहे हैं और बिजनौर, अंबाला आदि जिलों में तगा या दानत्यागी और झेलम, गुरदासपुर आदि जिलों में महियाल कहलाते हैं। परंतु वस्तुत: ये सभी एक ही है। अर्थात एक आचारवाले अयाचक ब्राह्मण।
इसीलिए मिस्टर क्रुक ने भी अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'संयुक्त प्रान्तीय जाति विवरण।' (The Tribes and Castes of U.P. and Oudh) के द्वितीय भाग के 64वें पृष्ठ में लिखा है कि : Bhuinhar (Sanskrit Bhumi 'land' kara (har) 'maker'). An important tribe and landowners and agriculturists in eastern districts. They are also known as Babhan, Zamindar Brahman, Grihastha Brahman, or Pachchima or 'western' Brahmans.'
जिसका अर्थ यह है कि 'भुइंहार शब्द संस्कृत के भूमिहार शब्द का अपभ्रंश हैं, जिसके भूमि शब्द का पृथ्वी और हार का अधिकार करनेवाला अर्थ है। यह एक प्रसिद्ध जमींदार और खेती करनेवाली जाति है, जो संयुक्त प्रांत के पूर्वीय जिलों में पाई जाती है। भूमिहार लोग बाभन, जमींदार ब्राह्मण, गृहस्थ ब्राह्मण और पश्चिम ब्राह्मण भी कहे जाते हैं।'
यह सिद्ध कर चुके हैं कि ये अयाचक नामधारी ब्राह्मण प्रथम थोड़े से मदारपुर के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, परंतु धीरे-धीरे इनमें सभी धनी और शक्तिशाली अयाचक जमींदार मिलते गए, जिससे इनकी संख्या आज बीस-पच्चीस लाख के लगभग हो गई है। प्रसिद्ध दृष्टांत ये हैं :
महाराज द्विजराज श्रीकाशीराज और सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण सर्यूपारी है। इसी तरह गाजीपुर के अन्तर्गत करंडा परगने के पुरैना ग्रामवासी भूमिहार ब्राह्मण भी सर्यूपारी, गौतम गोत्री, कित्थू मिश्र के वंशज है। जिनके पूर्वज पूरण मिश्र और पुरंदर मिश्र गोरखपुर जिले के भटनी ग्राम के पास पिपरा स्थान से लगभग 1740 ई. में आए और अपने ही नाम से पूरैना ग्राम बसाया, जो पूरणायन से बिगड़ कर पुरैना हो गया। वहाँ के राजपूतों के जबरदस्त होने से महाराज बलवन्त सिंह की तरफ से इन्हें 2400 बीघे की जमींदारी मिली और उन्होंने ही इन्हें 'राय' की पदवी भी दी। अब तक वहाँ के राजपूत जब पाँच कोस करंडा परगने के ब्राह्मणों को खिलाते हैं, तो इन लोगों को भी निमन्त्रण देते हैं। यद्यपि ये लोग अयाचक होने से अब उनके द्वार पर जा कर फिर लौट आते हैं, न कि भोजन करते हैं। भूमिहार ब्राह्मण महासभा के सेक्रेटरी श्री रघुनन्दन प्रसाद सिंह जी कोदरिया मैथिल हैं, जिनका एक भाई आज तक मैथिल ही है। सुरसर के महाराज भी मैथिल ब्राह्मण ही हैं, जिनकी 'झा' की पदवी आज भी हैं। नरहन इत्यादि के राजा बाबू जो दोनवार कहलाते हैं, कान्यकुब्ज हैं। वे वत्स गोत्रीय देवकली के पांडेय हैं, जिनके ही वंशवाले जनकपुर के पास हिसार ग्राम और छपरा के बभनगावाँ में आज तक पांडेय की ही पदवी से भूषित है। एकसरिया और सहदौलिया जो क्रमश: छपरा के चैतपुर, बगौरा आदि ग्रामों और दरभंगा के पतौर प्रभृति में पाए जाते हैं और जिनकी पदवी आज तक दीक्षित और मिश्र हैं, पराशर गोत्री कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। इसी प्रकार नैनजोरा लोग, जो आज तक पहलेना घाट तथा नैनीजोर में तिवारी ही कहलाते हैं, नैनीजोर के तिवारी सर्यूपारी हैं। इसी प्रकार छपरा के बहुत से धनगड़हा, अटौली प्रभृति ग्रामों में डुमरा के सर्यूपारी ओझा पाए जाते हैं और आज तक अपने को डुमरैत तथा ओझा ही कहते हैं। दरभंगा के पूसा रोड स्टेशन के पास 'खैंरी' ग्राम के लोग अभी तक पांडेय कहलाते हैं और अपने को पराशर गोत्री और हस्तगामे कहते हैं, जो हस्तगाम के सर्यूपारी पांडेय हैं।
इसी प्रकार सिमरी, आरा के पांडेय लोग मनेर के पांडे मनेरिया कहाते हैं, ये सर्यूपारी हैं। टेकारी महाराज प्रभृति जिनमें से कहीं-कहीं लोग कारण वश तिवारी और दूबे भी बोले जाते हैं, दुमटिकार या दुमटेकार के पांडेय अथवा तिवारी हैं। जिनके समाजवाले प्रयाग प्रांत में इसी नामवाले अब तक पाए जाते हैं, जैसा कि आगे विदित होगा। ये लोग भी दुमटेकार ही कहलाते हैं। कहीं-कहीं लोग भूल से शब्दों का उलट-फेर कर के दुमकटार या डोमकटार बोलते हैं। परंतु दुमटिकार कहना ही उचित है क्योंकि प्रयाग आदि में यही नाम है और वहाँ टिकारा नाम का एक स्थान भी है। इसलिए डोमकटार नाम को सुन कर बिना विचारे अज्ञानमूलक जो कुकल्पनाएँ की जाती है वे रद्दी है। सकरवार लोग कन्याकुब्ज ब्राह्मण फतहपुर जिले के फतुहाबाद स्थान के सांकृत गोत्री मिश्र हैं, जिनके वंशवाले बंगाल के मुर्शिदाबाद प्रभृति जिलों के काँदी इत्यादि स्थानों में मिश्र ही कहलाते हैं, जैसे मणींद्रनारायण मिश्र इत्यादि और आरा के दुधारचक में भी। इसी प्रकार किनवार लोग क्यूना के दीक्षित काश्यप गोत्रीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। मुजफ्फरपुर के मथुरापुर प्रभृति ग्रामों के पं. राजनारायण शुक्ल वगैरह मामखोर के शुक्ल गर्ग गोत्रीय सर्यूपारी ब्राह्मण हैं। आजमगढ़ के सिकरौरा बहादुर पुर आदि ग्रामों एवं गाजीपुर के धुवार्जुन आदि ग्रामों के केवल भारद्वाज और भरद्वाज गोत्रीय चौधरी लोग मचैया पांडेय सर्यूपारी हैं एवं टीकापुर, बीबीपुर प्रभृति ग्रामों के श्री मथुरा प्रसाद सिंह वगैरह भृगुवंशी लोग भार्गव (वत्स) गोत्री कनौजिया पांडे हैं, जिनके ही वंशवाले बस्ती के कोटिया आदि ग्रामों में अब तक पांडे कहलाते हैं। गाजीपुर के दवा नामक ग्राम में काश्यप गोत्रीय जिझौतिया ब्राह्मण हैं। जो बुंदेलखण्ड के बाँदा, हमीरपुर इत्यादि जिलों में बहुत पाए जाते हैं और सभी अयाचक और जमींदार होते हैं। जिनमें से बहुतेरे राय, सिंह इत्यादि कहलाते हैं। जैसा कि चित्रकूट में श्री दर्यावसिंह एक जागीरदार हैं, जो जिझौतिया ब्राह्मण हैं और बहुत प्रतिष्ठित हैं। ये लोग कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के ही भेद हैं और हमीरपुर इत्यादि प्रांतों में न रहने से जिझौतिया कहलाए। क्योंकि उस देश का प्राचीन नाम जिझौती था। जैसा कि मिस्टर क्रुक ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थ के प्रथम भाग के 35वें पृष्ठ में जिझौतियों के विषय हुए लिखा है कि :
"A branch of the Kanaujia Brahmans. Who take their name from the country of Jajakshuku, which is mentioned in the Madanpur inscription. Of this General Cunningham writes:-'The first point deserving of notice in these two short but precious records is the name of the country, Jajakshukti, which is clearly the Jajahauti of Aburihan.' "
जिसका मर्मानुवाद यह है कि 'जिझौतिया (कहीं-कहीं जुजहुतिया भी कहलाते हैं) ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक शाखा है। जिनका यह नाम जजाक्शुक्ति देश के नाम से पड़ा हैं, जिसका वर्णन मदनपुर (ग्वालियर के पास एक ग्राम है) के प्राचीन लेख में आया है। इसके विषय में जनरल कनिंगहम साहब ने लिखा है कि 'मदनपुर के इन दोनों संक्षिप्त परंतु महत्वपूर्ण लेखों में पहली बात जो ध्यान देने योग्य है, वह जजाक्शुक्ति देश का नाम है, जो अबूरिहान के लिखे हुए 'जिझौती' देश का स्पष्ट रूप से दूसरा नाम है।'
बलिया जिले के वैरिया ग्राम के प्रसिद्ध कर्मठ 'पांडे' को कौन नहीं जानता? वे भी भूमिहार ब्राह्मण ही है। श्रीराम गोपाल सिंह चौधरी के पिता पांडे जी कर के प्रसिद्ध थे। इसीलिए उनके चार पुत्रों में चौधरी सोना पांडे वैसे ही कहे जाते थे। बनारस के अन्तर्गत कोल परगना वासी कोलहा भूमिहार ब्राह्मण भी सर्यूपारी ब्राह्मण, कश्यप गोत्री भरसी के मिश्र, हरिनाथ मिश्र के वंशज हैं। उन महात्मा हरिनाथ मिश्र के दो पुत्रों में से देवांग मिश्र के वंश में ये लोग और देवशरण मिश्र के वंश में इन लोगों के पुरोहित हैं। क्योंकि वे लोग भी भरसी के कश्यप गोत्री मिश्र ही हैं।
कहाँ तक गिनाया जावे? समय-समय पर सभी पाठक, चौबे, दूबे, तिवारी, मिश्र, ओझा, झा इत्यादि ब्राह्मण इस अयाचक नामधारी ब्राह्मण समाज में मिलते गए। जो आज तक उन्हीं नामों और आस्पदों (पदवियों) से दरभंगा, मुजफ्फरपुर, छपरा, शाहाबाद, पटना, गया, गोरखपुर और बस्ती एवं प्रयाग प्रभृति प्रांतों में पाए जाते हैं। जैसा कि आनापुर प्रभृति ग्रामों में चौधरी लोग पहितीपुर के पांडेय सर्यूपारी हैं और भरतपुरा वगैरह के अथर्व लोग दक्षिणी ब्राह्मण हैं।
इसीलिए मिथिला के प्राचीन धुरंधर विद्वान मीमांसक महामहोपाध्याय श्री चित्राधर मिश्र जी का यही कथन है कि भूमिहार ब्राह्मण दल में एक ब्राह्मण नहीं हैं, किंतु सभी देशों के धनवान अयाचक ब्राह्मण इस दल में समय-समय पर मिलते गए हैं।