अरण्यतंत्र / गोविन्द मिश्र / समीक्षा
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समीक्षा:सुवास कुमार
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गो विन्द मिश्र ने नौकरशाही/अफसरशाही का विश्वसनीय ‘युवा’ चेहरा अपने पहले उपन्यास में प्रस्तुत किया था जो इसलिए भी संभव हुआ क्योंकि तब वे खुद युवा अफसर थे। सरकारी व्यवस्था, राजनेता, विपक्षी नेता,अफसरशाही, लालय़्ळीताशाही का कथाकार बहुत निकट से साक्षात्कार करता रहा है- कहीं निश्चेष्ट तो कहीं पर्याप्त रूप से सक्रिय । वैसे ‘लाल पीली ज़मीन’ और ‘पांच आंगनों वाला घर’ - जैसेउपन्यासों में उन्होंने अपने कथा क्षेत्र को पर्याप्त विस्तार भी दिया है। वे यथार्थ का सौंदर्य औरसौंदर्य का यथार्थ दोनों ही रचते रहे हैं, वैसे यथार्थ और सौन्दर्य को भिन्न नहीं देखते और सौंदर्यकी परंपरागत एकांगी मान्यताओं से असहमति प्रकट करते हैं। सच्चे कलाकार का दृष्टिफलकजीवन को संपूर्णता में समेटता है, न कि तथाकथित यथार्थ के अधूरेपन में। भौतिक तथ्य औरआत्मिक सुन्दर का साकल्य या समाहार ही जीवन-सत्य है जो रचना का सच भी है। तभी तो रचना जीवन का जीवन्त अक्स बनती है। आपने सहज परिचित परिवेश को हर कोण से समझने और सिरजते जाने के इस तर्क से ही उनकी उपन्यास-यात्रा गतिशील होती हुई अब के ‘अरण्यतंत्र’ के ‘अधेड़’ मुकाम तक पहुंची है। इसमें वे तीक्ष्ण और बेधक व्यंग्यात्मकता के सहारे समकालीन भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था का नया पंचतंत्र रचते हैं। वैसे अन्य बहुतेरे हिन्दी कथाकार हमारे आधुनिक जटिल परिवेश को अभिव्यक्त करने के लिए ‘जंगलतंत्रम्’, ‘तमाम जंगल’ या मिलती-जुलती संज्ञाओं वाली रचनाएं की हैं, किंतु उनके विषय और टत्र्ीटमेंट भिन्न रहे हैं। गोविन्द मिश्र का विषय ही नहीं, शिल्प, शैली और लहजा भी इन सब में विशिष्ट है। उनकी पर्यवेक्षणशील पैनी निगाहें भांपती रही हैं कि किस तरह से जवानी के दिनों में नौकरशाही के जिनकुछ चेहरों में मनुष्यता के लक्षण बाकी भी थे, उम्र के इस पड़ाव तक आते-आते लगभग वे सभी पूरी पाशविकता में तब्दील हो गये। अब यह जो रिटायरमेंट के करीब पहुंचा हुआ और रिटायरमेंट के बाद बचा-खुचा रह गया नौकरशाही का भयावह अधेड़ जंगली चेहरा है वह हस्बमामूल लोभ, मोह, ईष्र्या, घृणा, वासना, निन्दा याने हर तरह की हवस और खुद के लाए हादसों का मारा है।
नख-दन्त-विहीन हो जाने पर, असुरक्षा से और भी ग्रस्त-त्रस्त यह बेहद खतरनाक जीव किसी भी हद तक जाकर कुछ भी कर सकता है, क्योंकि इसकी काया में चाहे और जो भी कुछ बचा हो, लेकिन आदमीयत बची नहीं है। ‘अरण्य-तंत्र’ का क्षीण कथा-विन्यास प्रशासकीय जिन्दगी की जो झांकियां प्रस्तुत करता है उन्हें किस्सों-चुटकुलों ;एनिक्डोट्सद्ध - उपाख्यानों की मार्फतचार खंडों में फैलाया गया है - ‘शुरुआत’ ;यानी पीठिकाद्ध, ‘जंगल’ ;यानी परिचयद्ध, ‘उछलकूद’ ;यानी संघर्ष/एक्शनद्ध और ‘हन्यते’ यानी परिणाम। इस तरह से आखेट का एक रूपकात्मक इतिवृत्ततैयार होता है। उपन्यास का पहला ही वाक्य आगे के प्रसंगों की विडंबना को पांत दर पांत उघाड़ता हुआ बढ़ता है -
‘सरकारी एस्टीम कार फर्राती हुई कंपाउंड में घुसी, भीतरी मोड़ पर भी वही स्पीड और सीधे पोर्टिको में घुसकर वहां खड़ी हुई, जहां लिखा था - ‘यहां वाहन खड़ा न करें’। वह निर्देश साधारण जन के लिए था, उस कार के लिए नहीं- डत्र्ायवर यह जानता था।’
यह कार उसके साहब की थी जो नया नया स्वतंत्र हुए प्रजातंत्री देश के वैसे सुल्तान थे, जिसे खुलेआम जन-आखेट के आयोजन के लिए मानो अधिकृत किया गया हो। इनके जो बाॅस मंत्री-मुख्यमंत्री हैं - एक से बढ़कर एक निशानेबाज। यह नयी व्यवस्था यानी आखेटतंत्र अफ़सरों की मदद से पुख्ता तौर पर विकसित कर लिया गया है। मंत्री-वगैरह बनने का मतलब शुरू में तीन-चार पीढि़यों के लिए धन इकट्ठा कर लेना होता था, पर अब तो पचासों पुश्तों के निमित्त देश-विदेश में जमा किया जा रहा है। ये शिकारी लोग कभी ;इनडोरद्ध सचिवालयों मे ं प्रेत छायाओं की तरह चिपके हुए चुपचाप खाते-खेलते रहते हैं तो कभी ;आउटडोरद्ध फील्ड यानी खेत में ;‘जहां कुछ भी उग सकता है...खींच पैसा सरकार से’द्ध वे खुलकर चरते-खाते-पागुर करते फिरते रहते हैं। प्रजातांत्रिक देश के ये मंत्री-अफसर जनता
- अपने शिकारद्ध के बारे में गर्व से कहते हैं - ‘वे हमारी प्रजा
है।’ कहने को इन्हें जनप्रतिनिधि कहा जाता है पर असल में हैं ‘ये आज के राजे-महाराजे, चाणक्य... जो चुनाव हारकर या बिना चुनाव लड़े ही मंत्री बन बैठते हैं, अपने सुरक्षाकर्मियों की कैद के भीतर से’ ये लोग सुरक्षित आखेट किया करते हैं। चुनाव में या अन्यथा भी हारे हुए चाणक्यों के लिए कई सुरक्षित शरणस्थलियों में से एक है राज्यपाल का पद। ‘महामहिम अस्सी साल से पिंर चल रहे थे, पुरानी पीढ़ी के थे, खाये-पिये थे। अस्सी से पिंर होने के बाद भी राज्यपाल थे, क्योंकि इस पद के लिए असली योग्यता यही थी।... अपने यहां तो वैसे भी सारे बड़े पदों पर सत्तर पार ही काबिज होते हैं... राष्टत्र्पति, प्रधानमंत्री, विपक्ष-नेता, स्पीकर...। ‘जनता के नाम पर खेलने-खाने वाले प्रजातंत्री नेता को वस्तुतः जनता के सुख-दुख अथवा उसके कल्याण में कोई दिलचस्पी नहीं होती, बल्कि इसको भी भुनाकर अपना राजनैतिक फायदा उठाता रहता है। फलस्वरूप ‘मुख्यमंत्री हमेशा हंसते रहते थे। प्रदेश में भुखमरी फैल जाए, पानी का संकट आ जाए, कोई दुर्घटना हो जाए... उनकी बत्तीसी बराबर खुली रहती थी।’ मंत्रियों और आलाअफसरों का रहन-सहन और चाल-चलन भी आला होता है। ये लोग सर्वज्ञाता होते हैं और कोई भी मंत्रालय-विभाग ‘संभाल’ सकते हैं। इतना ही नहीं, वे बिना विभाग के भी पाॅवरफुल बने रहने का गुर जानते हैं। कहने की जरूरत नहतैकि स्वतंत्र भारतवर्ष में भी सरकार द्वारा अंग्रेजों के बनाये हुए सामान्यतः व्यवस्था के ढांचे और विशेषतः लालफीताशाही के ढर्रे को जस का तस अपनाते हुए दिनोदिन अधिकाधिक अमानवीय ही बनाया गया। नीतियों और कार्यÚमों को हमारी सही सामाजिक जरूरतों से जोड़ने की जहमत कभी नहीं उठाई गयी। फलस्वरूप अंग्रेजी कुशासन के खात्मे और लोकतंत्र की स्थापना के बावजूद राजनैतिक नेताओं और प्रशासन का निजी और असली चरित्र जनविरोधी ही रहता आया है। ‘अधिकारी वर्ग... की बु=ि सिर्फ दो दिशाओं में काम करती है - जो मंत्री कहे उसकी तरफ सोचने लगना, या जो आप कर रहे हैं उसकी वाहवाही करते घूमना। ‘पेशेवर राजनेताओं ने स्वार्थ तथा भ्रष्टाचार को अपने चरम मूल्य बना लिये। मुंह से वे लगातार समाजवाद समाजवाद का नारा लगाते हुए भी अधःपतित पूंजीवादी व्यवस्था की छुरी से जनता का गला रेतने में लगे रहे। जब जीवन में धन को ही चरम मूल्य बना लिया जाता है ;‘मनी...रियल पाॅवर!... पाॅवर क्या है... मनी हो, उसके इस्तेमाल में स्वतंत्रता हो, वही तो पाॅवर है!’द्ध तो फिर मनुष्यता नाम की किसी चीज के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। ‘उसकी सारी समझ शरीर तक ही सीमित’ रह जाती है, वह न तो समझ पाता है, न समझने की कोशिश ही करता है कि ‘मनुष्य में दिमाग है, कल्पना है, भाव है.... जीवन में संयोग-वियोग है, प्रेम है, दुःख है... कोई स्त्री बौ=िकता के लिए किसी को चाह सकती है, स्त्री शरीर के अलावा भी कुछ है- यह तो उसकी कल्पना के परे है। अपनी सारी स्वार्थान्ध जिन्दगी न केवल छल, छû, कपट, षड्यंत्र, धोखाधड़ी, उठापटक, निन्दा, चारित्रिक हत्या, भ्रष्टाचार- जैसे कुकमोङ में बिताते हैं, बल्कि उनके पेशे में कहीं भूले-भटके कोई ईमानदार आ गया तो उसका जीना हराम कर देते हैं। यहां तक कि खुलेआम सामाजिक स्तर पर भी ईमानदार को ‘खब्ती’ बताते हुए मंत्री और अफसर लोग कोई शर्म नहीं महसूस करते। एक चीफ इंजीनियर ;गैंडाद्ध की शिकायत लेकर ‘ठेकेदार लोग मंत्री के पास पहुंच गये, हाथ जोड़ कर बोले- ‘गैंडा ईमानदार है, हमारे काम अटके पड़े रहते हैं, इसके पहले ग्रीस लगाते ही सर्र से निकल जाते थे।’ मंत्री महोदय को बात जंच गयी- ईमानदार अफसर का फील्ड में क्या काम... न वह ठेकेदार के काम का, न मंत्री का। तो गैंडे को विजिलेंस में डाल दिया और वहीं सड़ाया जा रहा है।...
- भ्रष्टद्ध अफसरों का महत्व राजनेता जानते थे। ऐसे बंदे काम के
होते हैं। मुंह फुलाये बैठे रहनेवाले, ंिंची नाक वाले ईमानदार अफसर किस काम के?’ वैसे भी बेईमानी से भरी किसी संस्था में अगर कोई अकेला ईमानदार आ भी जाए तो वह कर भी क्या सकता है? जैसे हालात बन गये हैं उनमें वह अपनी नौकरी और ईमानदारी में किसी एक को ही बचा सकता है। इसलिए आमतौर पर यह धारणा बन जाती है कि यहां जाॅब सैटिस्फैक्शन नहीं है,
उपन्यास न केवल अफसरशाही-लालफीताशाही का नजदीकी कच्चाचिट्ठा प्रस्तुत करता है, उसकी कालिखें दिखा- दिखा कर चिढ़ाता और खिल्ली उड़ाता है, बल्कि उसकी विश्वसनीय समीक्षा ;Úिटीकद्ध भी प्रस्तुत करता है। चाहे तो हमारी व्यवस्था इसके आइने में अपना विकृत चेहरा देख ले।