अरण्य, सत्ता संघर्ष और जनजातीय जीवन यथार्थ का सच्चा आख्यान / स्मृति शुक्ला
इक्कीसवीं सदी के कथाकारों में तरुण भटनागर ऐसे कथाकार हैं, जिन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में समाज की आंतरिक गति, जीवन के अन्तर्विरोध, पात्रों के बाह्य कार्य व्यापार के साथ उसके मनोजगत् को और इतिहास के साथ वर्तमान के संबंधों और जीवनानुभवों को ऐसे शब्द- सूत्रों से बुना है, जिसकी संरचना में कहीं अरबी-फारसी की लज्जत है, तो कहीं हिन्दुस्तानी की समरसता, कहीं देववाणी की गरिमा तो कहीं देशज की मिठास तो कहीं कविता जैसी लयात्मकता है। ये सारे भाषिक सूत्र मिलकर जब कथ्य को अभिव्यक्त करते हैं तो ऐसी दृश्यावलियाँ निर्मित करते हैं, जो सीधे पाठक के हृदय में अपनी जगह बना लेती हैं। एक रचनाकार के रूप में भाषा उनकी ताकत है और प्रामाणिक कथ्य उनका सबसे विश्वस्त साथी।
तरुण भटनागर के कहानी संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाड़ियाँ’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’ और ‘जंगल में दर्पण’ के साथ ही ‘लौटती नहीं जो हँसी’, ‘बेदावा एक प्रेमकथा’ के बाद उनके उपन्यास ‘राजा जंगल और काला चाँद’ के तीन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। बकौल तरुण भटनागर यह उपन्यास सात सालों की दीर्घ अवधि में पूरा हुआ। इसका कारण यह है कि उपन्यास बस्तर के इतिहास की सूक्ष्म और सघन पड़ताल के बाद गहन शोधपरक दृष्टि से लिखा गया है ; लेकिन यह भी सच है कि दस्तावेजों के साथ बस्तर के आदिवासियों के जीवन-संघर्ष उनके दुख-दर्द, आशा-निराशा अभाव और निर्धनता को भी तरुण भटनागर ने निकट से देखा है। इसके साथ ही साथ उनकी हद दर्जे की मासूमियत, उनकी ईमानदारी, अपने राजा के प्रति उनके अगाध विश्वास को अनुभव भी किया है। संवेदना और सूक्ष्म दृष्टि के साथ घटनाओं के स्थानीय चेहरों के साथ ही नए-पुराने संदर्भों से उपन्यास का कथानक रचा गया है। तरुण भटनागर ने तीन सौ बारह पृष्ठों के इस उपन्यास को अपने अन्तर्जगत, समाज के प्रत्यक्ष बोध और मानवीय संवेदनाओं के संश्लेष से रचा है।
आदिवासियों के जंगल, जीवन, जमीन और जल की चिंताओं को लेकर विगत तीस-पैतीस वर्षों में बहुत लिखा गया है। नई आर्थिक नीति के बाद तो आदिवासियों का विस्थापन तीव्रगति से हुआ, शोषण के कई सभ्य तरीके खोज लिये गए, विकास के साथ ही साथ कैसे आदिवासी अपने जंगलों से बाहर कर दिए गए उनके प्राकृतिक जीवन पर, उनकी लोक संपदा पर कैसे स्वार्थ ने सेंध लगा दी यह हिन्दी की कविता कहानी, उपन्यास और अन्य विधाओं में पुरजोर तरीके से अभिव्यक्त हुआ। तरुण भटनागर ने आदिवासियों और उनके जंगल को जिस मानवीयता और इतिहास दृष्टि के साथ प्रस्तुत किया है, वह हिन्दी में लिखे गए आदिवासी केन्द्रित कथा साहित्य से कई अर्थों में अलग है। इस उपन्यास में तरुण भटनागर ने आदिवासी जीवन पर रोमांटिक ढंग से नहीं लिखा। उन्होंने हमारी उस मानसिकता को तोड़ने का प्रयास किया है , जो जंगल के भीतर की दुनिया को अलग समझती है और उनके सच्चे और भोलेपन को ठगती है।
स्वतंत्रता के बाद भी विकास के नाम पर आदिवासियों के साथ छल होते रहे। वे इतने सीधे और भोले थे कि सच्चाई को समझने में उन्हें वर्षों लग गए। तरुण भटनागर का उपन्यास ‘राजा जंगल और काला चाँद’ बस्तर के इतिहास के लम्बे कालखंड के विभिन्न आयामों को समेटे है और इकतालीस उपशीर्षकों में विभाजित है। उपन्यास के उपशीर्षक ऐसे तिलिस्मी और आकर्षक हैं कि पाठक बेचैन होता है, उतावला होता है जानने के लिए कि कौन है वह राजा , जो मरना नहीं चाहता? बियाबान का तिलिस्म क्या है? क्या दरख्तों के समन्दर में कोई सफ़ीना सरक रहा है या कोई राह हैं? ‘किले की बुर्ज’, ‘सीढ़ियाँ और खून’, ‘सागौन की फुनगियों पर चाँद, ‘जंग में दफ़न लफ्ज़ बदरंग’, ‘बर्तोल्त ब्रेख्त और एक दीवाना’, ‘चाँद है कि कालिख’ के रहस्य को जानने के लिए वह उपन्यास के कथा- अरण्य में भीतर धँसता जाता है, एकदम निर्वाक्, भौंचक, आँखें फाड़े मानो सब देख रहा हो, सब कुछ उसकी आँखों के सामने घटित हो रहा हो।
उपन्यास का कथानक प्रारंभ होता है 1299 ई. के आसपास से, जब एक सुल्तान ने अपनी निर्ममता और लूटपाट से उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी को खौफ़जदा कर दिया था वह एक आँधी की तरह आता और लूटपाट कर चला जाता। तरुण भटनागर ने उपन्यास में सुल्तान का नाम नहीं दिया ; लेकिन उपन्यास में उन्होंने वे संकेत दिए हैं जिनसे पाठक समझ सकता है कि किस्सा कहाँ का है। इतिहास में दर्ज है कि अलाउद्दीन ने गुजरात पर आक्रमण 1299 में किया था काफी लूटपाट की थी सोमनाथ का मंदिर और शाही खजाना लूट लिया था।
तरुण भटनागर इतिहास को अद्भुत किस्सागोई में पिरोकर प्रस्तुत करते हैं। उपन्यास ‘दण्डकारण्य’ यानी बस्तर के इतिहास और बस्तर के पहले राजा अन्नाम देव से शुरू होकर अंतिम राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव के दुखद अंत और उस घटना के बाद की स्थितियों पर जाकर समाप्त होता है। उपन्यास राजा की कथा के साथ बस्तर के मूल निवासियों के सामाजिक जीवन, उनकी संस्कृति, जंगलों के वैभव और उनके दोहन तथा आदिवासियों के शोषण को उद्घाटित करता है।
उपन्यास के तीसरे भाग का शीर्षक है ‘रेडियो’ यह समय सातवें दशक के आसपास का है। काल के इस खंड को तरुण भटनागर कुछ इस तरह जीवंत करते है-‘‘जब वेल्बॉटम और रेडियो फैशन में थे जब सभ्य कही जानी वाली दुनिया में आदमियों के चेहरों पर बड़ी-बड़ी कलमें और औरतों के चेहरे पर साधनाकट बाल और बड़े-बड़े जूड़े सजे रहते थे।’’ यहाँ विशु और उसके पिता शशांक पाठकों को आजादी के बाद के बस्तर और वहाँ के भोले-भाले आदिवासियों से भेंट कराते हैं। तब यहाँ लाइट नहीं थी घने जंगलों में अंधकार पसरा रहता। जंगल के लोग बाहर की दुनिया से परिचित नहीं थे और बाहर की दुनिया को भी उनसे कोई लेना देना नहीं था। विशु के पिता विशु को जंगल की दुनिया के किस्से सुनाया करते थे उनमें एक किस्सा रेडियो का भी था। किस्सा यह था कि उस साल सरकार ने उस घने और बेनामी जंगल से खूब सारा महुआ लकड़ी, तेंदू, चार, बाँस, इमली वगै़रा इकट्ठा करवाया था और तय किया था कि इसके बदले में सरकार जंगल के लोगों को एक रेडियो देगी। जंगल के लोहा और रेडियो देने वाले आदमी को देखकर किस तरह अचंभित थे। रेडियो के बंद हो जाने पर वे कैसे दुखी हुए उन्होंने कैसे पूरे रीति-रिवाज से उसका अंतिम संस्कार किया, यह सभी कुछ उपन्यास में पूरी चित्रात्मकता के साथ दर्ज है। तरुण भटनागर ने शशांक और विभास के आपसी संवादों के माध्यम से पाठक के सामने यह स्पष्ट किया है कि नई टेक्नोलॉजी के प्रति ऐसी प्रतिक्रिया जर्मनी में भी हुई थी। वस्तुतः उपन्यास के इस खंड में तरुण भटनागर रेडियों की कथा के बहाने आदिवासियों के भोलेपन और उनकी संवेदनशीलता को अभिव्यक्त करते हैं। विभास जंगल के सच्चे और अच्छे लोगों को पहचान नहीं पाया। विभास क्या जंगल के बाहर के ज्यादातर लोग आदिवासियों को पहचान नहीं पाते। वे उनका मज़ाक बनाते हैं या चतुर चालाक लोग अपना स्वार्थ साधते हैं। पर शशांक बताते हैं कि-‘‘जर्मनी के लोगों में और आदिवासियों में एक अंतर है कि जर्मनी के लोग फिल्म देखकर भाग खड़े हुए ; लेकिन यह जंगल है , जो सबको पनाह देता है और एक भावनात्मक रिष्ता कायम करता है और गले लगाता है।
‘बियाबान का तिलिस्म’, जो विशु ने पिता के किस्सों में घटित होते अनुभव किया था। जंगल को तरुण भटनागर ने ऐसी भाषा में रचा है मानो वह अपने सारे संवेगों के साथ मूर्त हो गया है। एक सघन जंगल के बीचों-बीच एक लाइट विहीन गाँव, जहाँ सिर्फ छह महीने ही एक अनियतकालीन बस चलती थी बस का आना उस गाँव में एक उत्सव की तरह था, उस गाँव में एक मात्र किराना दुकान थी, गाँव में जहाँ कम घना जंगल था वहाँ हाट भरता था, विशु के घर से कुछ दूर प्राथमिक शाला थी। विशु ने जंगल से गुजरती हवा को महसूस किया था और आवाजें सुनी थी, हवा, जिसकी दिशा तय नहीं थी पर कायदे तय थे। तरुण भटनागर ने जंगल की हवा, जंगल की वारिश, जंगल की आग और जंगल की गंध को कवितामयी भाषा में दृश्य, श्रव्य, स्पर्श और घ्राण बिम्बों में मानो जीवंत कर दिया है। जंगल की स्त्री , जो ब्लाउज पहनने में सकुचाती है। विशु की माँ ने उसे आसमान जैसे रंग का नीला ब्लाउज खरीद कर दिया था पर वह उसे कभी पहन नहीं पाई; क्योंकि वह ब्लाउज पहनने में शरमाती थी। बस्तर- यानी आदिम यानी पुरखा और जंगल यानी पितामह। इस आदिम बस्तर को पूरे इतिहास बोध और पूरी संवेदना के साथ उपन्यासकार ने रूपायित किया है।
उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है इस कथा को बड़ा सुन्दर शीर्षक दिया है कथाकार तरुण भटनागर ने - ‘‘कोई राह है कि दरख्तों के समंदर में सरकता कोई सफ़ीना’’ यहाँ उपन्यास का कथानक बस्तर यानी दण्डकारण्य के पहले राजा अन्नाम देव की तरफ मुड़ जाता है। अन्नाम देव , जो वारंगल से चलकर बस्तर पहुँचा था, जिसने डाकिनी और शंखिनी नदियों के संगम स्थल दंतेवाड़ा के एक पुराने मंदिर (जो संभवतः चोल राजाओं द्वारा बनवाया गया था) स्थापित मूर्ति को अपनी तलवार सौंपी थी। वह इस मंदिर का मुख्य पहरेदार बना था और तभी से मंदिर की देवी का नाम दंतेश्वरीरी देवी हो गया था। उपन्यास में काल का पहिया आगे घूमता है। अंग्रेज किस तरह जंगलों में घुसते हैं और जंगलों से कैसे बेशुमार कीमती लकड़ी कटवाते हैं। धीरे-धीरे जंगल के लोग राजा को अपना राजा स्वीकार कर लेते हैं।
जंगल में किस तरह आजादी आई, कैसे बस्तर का आजाद भारत में विलीनीकरण हुआ और कैसे बस्तर के राजा ने 15 दिसम्बर 1947 को नागपुर में मर्जर पर हस्ताक्षर किए थे। हस्ताक्षर करने के पहले राजा ने व्ही.पी. मेनन और रविशंकर शुक्ल से कहा था - ‘‘मुझे दंतेश्वरी देवी के मंदिर की चिंता है।’’ राजा ने यह इसलिए कहा था कि वह जानता था कि बस्तर में वह देवता के समान पूजा जाता है बस्तर की जनता के दिलों में उसके लिए बेशुमार मुहब्बत, एहतराम और बेपनाह ऐतबार है, अगाध श्रद्धा है। पाठकों को यहाँ आकर उपन्यास के नायक प्रवीरचंद्र भंजदेव के बाह्य व्यक्तित्व के साथ उसके मनोजगत् में चलने वाले आंतरिक कार्यव्यापारों का ऐसा विश्वसनीय मूर्त चित्र मिलता है कि राजा पाठक की आँखों के सामने एक जीवंत रूप में अवतरित हो जाता है। उपन्यासकार तरुण भटनागर की लेखनी का यह वैशिष्ट्य है कि वे उपन्यास के पात्रों को पूरे मनोयोग से रचते हैं चाहे वारंगल का राजा हो, राजा अन्नामदेव हो, आदिवासी स्त्री हो, शशांक हो, विशु हो, डॉक्टर हो, सुनार हो, सरकार के नुमाइंदे हों, अफसर हों, या राजा का रोल निभाते बहुरूपिये, सभी को चित्रित करते हुए तरुण भटनागर परकाया प्रवेश कर जाते हैं और यही परकाया प्रवेश उनके उपन्यासों और कहानियों को पाठकों के हृदय तक पहुँचाने में अहम् भूमिका निभाता है।
उपन्यास की खास बात यह है कि इस उपन्यास में सारे ऐतिहासिक तथ्य हैं, तत्कालीन राजनेता, आई.सी.एस.अधिकारी और सारी ऐतिहासिक तिथियाँ प्रामाणिकता के साथ दर्ज हैं। तरुण भटनागर ने अपने जीवन के सत्तरह वर्ष बस्तर में बिताए हैं; इसलिए वे यहाँ के जंगल, हवा और नदियों के साथ आदिवासियों के मन से भी खूब परिचित हैं। बस्तर के यथार्थ चित्रण में उनकी अनुभूतियाँ भी घुली-मिली हैं। बस्तर को उन्होंने जिया है, यहीं कारण है कि बस्तर इस उपन्यास में अपनी पूरी सच्चाई और प्रकृति के सघन वैभव के साथ धड़क रहा है।
तरुण भटनागर परिवेश चित्रण और पात्रों को जीवंत करने में सिद्धहस्त कथाकार हैं। पूरे उपन्यास में पाठक परिवेश और पात्रों से तादात्म्य स्थापित कर लेता है और उपन्यासकार उन्हें, जिस अभीष्ट तक उन्हें ले जाना चाहता है वहाँ तक वह सफलतापूर्वक पहुँच जाता है। ‘राजा जंगल और काला चाँद’ इकहरा उपन्यास नहीं है इस उपन्यास में उपन्यासकार की भावनात्मक संवेदना और बौद्धिकता और व्यापक जीवनानुभव सम्पन्न दृष्टि आदिवासी जीवन के सभी पक्षों की व्यापक और सघन पड़ताल करती है। उपन्यास जैसी लोकप्रिय और लोकतांत्रिक विधा में बस्तर के इतिहास और आदिवासियों के जीवन वृत्तांत को एक व्यापक फलक पर प्रस्तुत किया गया है। वस्तुतः ‘राजा जंगल और काला चाँद’ इतिहास, राजनीति और आदिवासियों के लोकजीवन और उनके राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की हत्या और उसके बाद के बस्तर के हालात को और उसकी एक-एक फ़िजा को मूर्त करता है।
बस्तर का राजा आजादी के बाद भी अपने को राजा समझता रहा। बस्तर के लोग भी सिर्फ राजा की आज्ञाओं का पालन करते थे, उनके लिए सरकार के कोई मायने नहीं थे। वह उनके लिए राजा केवल राजा नहीं था, उनका देवता भी था, उनका चिकित्सक था उनका सर्वस्व था। वह ऐसा राजा था , जो घंटों पूजा-पाठ करता था, जो यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि वह अब अपनी रियासत से अपने किसी दोस्त को कोई खदान उपहार में नहीं दे सकता। जब सरकार उसके इस काम को गलत ठहराती तो वह गुस्सा हो जाता इस समय उसका तनाव बढ़ जाता। वह सरकारी आदेशों को जला देता। अपनी राजाज्ञाएँ जारी करता, अपना दरबार लगाता, राजमहल के ऊपर खड़े होकर जनता को दर्शन देता था। राजा , जो देश की आजादी के बाद अधिक गुस्सैल हो गया था, कुंठा तनाव और हताशा उस पर हमेशा तारी रहती। उपन्यासकार ने लिखा है - ‘आजादी के बाद उसका गुस्सा और तारीफ पाने की भूख दोनों बढ़ गई थी। उसे लगता था कि सैकड़ों लोग एक लंबी कतार लगाकर आए और उसके आगे नतमस्तक हो जाएँ। तरुण भटनागर ने राजा का चित्र इन शब्दों में मूर्त किया है-‘‘राजा साँवला था। उसके उन्नत ललाट पर गहरे लाल रंग का टीका लगा रहता। उसके लम्बे घुँघराले बाल कंधे तक झूलते। घनी भौंहों के नीचे उसकी बड़ी काली आँखें थीं। उसकी आँखें चुप रहतीं। उसकी आँखें उसके चेहरे की खामोशी में घुली-मिली थी। मानों चेहरे की खामोशी की मुहाफ़िज हों। यह खामोशी उसकी घनी मूँछों के नीचे चुपचाप पड़े होठों पर सबसे ज्यादा घनीभूत होती थी। इतनी घनीभूत कि कभी-कभी जब वह मुस्कुराता तो मुस्कान बेहद बनावटी लगती। गुस्से और नफरत की एक बारहमासी खमदार लाइन उसके माथे पर हहराती रहती। वह कानों में कुंडल पहनता और पैरों में कड़े वह लंबा मजबूत काठी का था। जब खड़ा होता तो उसके हाथ घुटनों के नीचे तक आते थे।’’ इस शब्दचित्र से पाठक प्रवीर भंजदेव के न केवल बाह्य व्यक्तित्व का साक्षात्कार करता है वरन उनके स्वभाव की बारीकियों और आंतरिक मनोजगत की गहरी खाइयों में भी बखूबी उतर सकता है और राजा के मन में चल रही उथल-पुथल को पहचान सकता है।
तनावग्रस्त राजा को जंगल में सरकारी लोगों की आवाजाही परेशान करती थी। सरकार के लोग राजा की हर गतिविधि पर नजर रखते थे। राजा और सरकार में टकराव के कारणों और घटनाओं को उपन्यास में पूरी विश्वसनीयता के साथ उद्घाटित किया गया है। उपन्यास में वर्णित हर घटना इतिहास में घटित हुई है। तरुण भटनागर ने उस काल की प्रत्येक घटना की गहरी तसदीक की है। चाहे राजा की जनता पर पैसे लुटाने-जयकारे लगवाने की घटना हो, लोहंडीगुड़ा की घटना हो, घासलेट वाली दुकान और आदिवासी स्त्री की घटना हो या शिक्षक के कपड़ों की लूट की घटना हो।
‘राजा के अजीबोगरीब सपने हैं’ शीर्षक में यह उपन्यास दो शक्तियों के टकराव और उसके परिणाम का विमर्श रचता है। राजा का सत्ता से हर प्रतिरोध एक सघन हताशा में विसर्जित हो जाता है। राजा को लगता है कि अंग्रेज तक उसे ‘हिज हाइनेस’ कहते थे और टोप उतारकर सलामी देते थे पर आजादी के बाद तो सरकार उसे राजा मानती ही नहीं।
उपन्यासकार ने जिक्र किया है कि बस्तर के तत्कालीन कलेक्टर का जिन्होंने एक किताब ‘ए टेल टोल्ड बाय एन इडियट’ शीर्षक से लिखी थी। इस किताब में पूरा बस्तर है, आदिवासी हैं ; लेकिन वहाँ कि राजनीति, उठा-पटक और बस्तर का राजा नहीं है। यह वही योग्य आफ़िसर हैं, जिन्होंने कानून के सहारे बस्तर के राजा का प्रिविपर्स बंद करा दिया, सम्पत्ति अटैच करा दी। यह अफसर इतना योग्य था कि उसे पद्मभूषण पुरस्कार से नवाजा गया। उसके नाम पर भोपाल की शाहपुरा झील से लगी एक अकादमी है। उपन्यास में सारे संकेत देने के बाद, संदर्भ देने के बाद वे उस अफसर के नाम का खुलासा नहीं करते। छोड़ देते हैं कि पाठक अनुमान लगाए और पाठक भी समझ जाता है कि आर.सी.व्ही.पी. नरोन्हा का जिक्र उपन्यासकार ने किया है। तरुण भटनागर के इस उपन्यास में ऐसे अनेक संदर्भों के संकेत सूत्र हैं जिनके सहारे पाठक उन पात्रों को डिकोट करता है और ऐसा करते हुए उसे आनंद की अनुभूति होती है। तत्कालीन बस्तर में पदस्थ ऐसे अनेक ऑफिसर जिनकी कार्यशैली, व्यक्तित्व और उनके कामों का बड़ा बारीक ब्यौरा उपन्यास में प्रस्तुत किया गया है। एक आई.ए.एस.अधिकारी जिन्होंने आदिवासियों के हित में बहुत काम किया था, जिन्होंने आदिवासी महिलाओं के सम्मान के लिए कार्य किए थे। जिन लोगों ने इन महिलाओं का जबरन शोषण किया था उन्हें आदेश दिया था कि वे उन आदिवासी महिलाओं से विवाह करें। उन्होंने फर्जी राजा को जिलाबदर करने के आदेश दिए थे, जो आजीवन जंगल के लोगों के हक के लिए लड़ते रहे थे। दिस. 2015 में ग्वालियर में उनका निधन हुआ था। उपन्यासकार ने इस अधिकारी को भी उपन्यास में नामांकित नहीं किया। उनकी कार्यशैली से पाठक समझ जाता है कि ये 1956 बैच के आई.ए.एस.अधिकारी ब्रह्मदेव शर्मा है। एक रचनाकार के रूप में तरुण भटनागर की खासियत है कि वे पात्रों को शब्दों के माध्यम से जीवंत करने की सामर्थ्य रखते हैं। उनका उपन्यासकार रूप तटस्थता से सारी कथा कहता है, पात्र रचता है, स्थितियाँ स्पष्ट करता है। वह किसी पात्र के साथ स्वयं खड़ा नहीं होता और न ही किसी की पक्षधरता करता है। वह सारे निर्णय अपने पाठकों पर छोड़ता है।
राजा और सरकार की बढ़ती तकरार का इतना विशद और प्रामाणिक ब्यौरा उपन्यास में एक फिल्म की तरह चलता है उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को लगता है कि वह सभी कुछ अपनी आँखों के सामने घटित होते देख रहा है- ‘‘पुलिस ताबड़तोड़ गोलियाँ दाग रही थी। महल पर गोलियों की बौछार हो रही थी। महल के झरोखों के परखच्चे उड़ रहे थे। खिड़कियों-दरवाजों में लगे काँच चटक-चटक कर गिर रहे थे। लोहे के मुख्य दरवाजे से टकराती गोलियों की टनटनाती आवाज सुनाई पड़ती थी। ....... पूरा हॉल एक युद्ध का मैदान बन गया था। कुर्सियाँ, टेबल, सोफे, मूर्तियाँ सब बेतरतीब बिखरे पड़े थे। एक विशाल शैंडलियर गिर कर टुकड़े-टुकड़े हो गया था।’’ उपन्यास में दर्ज यह दृश्य स्वातंत्र्योत्तर भारत की बड़ी त्रासदी को बयान कर रहा है।
इतिहास में 25 मार्च 1966 का यह दिन एक काले अध्याय के रूप में दर्ज है। बस्तर के इकलौते समाचार पत्र ‘दंडकारण्य’ के हिन्दी और अंग्रेजी दोनों संस्करणों में राजमहल में हुए इस गोलीकांड को प्रमुखता से प्रकाशित किया गया था। इस नृशंस गोली कांड का वर्णन उपन्यास में जिस तरह किया गया है उसे पढ़कर रूह काँप जाती है। एक ऐसा कारुणिक और हृदय विदारक दृश्य उपस्थित होता है , जो पाठक की आत्मा को झकझोर कर रख देता है। बंदूकों और तीर तलवारों से लड़ी गई इस लड़ाई का जो परिणाम, वह मानवता के माथे पर कलंक का काला धब्बा था। तरुण भटनागर ने उपन्यास में दर्ज किया है-
‘‘महल के द्वार पर पड़ी दो लाशों के चेहरों के चीथड़े उड़ गए थे एक के कपाल की एक चिप्पी उड़कर दूर जा गिरी थी और उसका सफेद भेजा बाहर निकल कर फर्श पर पसर गया था। महल के अंदर खून में सनी तुंबियाँ, कपड़े, तलवारें सब जगह-जगह बिखरे पड़े थे। पुलिस के कत्थई रंग के जूते, तरह-तरह के जूते-चप्पलें महल के भीतर और बाहर चारों तरफ फैले थे। ...... खून में एक कौड़ियों की माला पड़ी थी, जिसे किसी लड़की ने बड़े प्यार से अपने आशिक के गले में डाला था, पास ही पेट से बाहर निकलकर फर्श पर फैल गई खून और खून के थक्कों में लिथड़ी आँतों का गुच्छा पड़ा था , जो थोड़ी दूर पड़ी लाश के फटे हुए पेट तक फैला था, पास ही टूटकर बिखर गई तूंबी थी, जिसमें चावल से बना पेय पेज कालीन पर सना हुआ था। एक गोलियों से चीथड़ा-चीथड़ा हुआ चेहरा था, जिसकी पथराई आँखें छत को देख रही थीं.... एक कटा हुआ हाथ था लोथड़े के मानिंद जिसकी उँगलियों में अब भी धनुष की प्रत्यंचा उलझी हुई थी.... एक लहूलुहान जिस्म था’’। इस भीषण गोलीकांड में बस्तर के अंतिम राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की मौत पुलिस की गोलियों से हुई थी। इस तरह बस्तर के लोगों के हृदय में बसने वाले राजा को मौत के घाट उतार दिया गया था, उसके शासन को समाप्त कर दिया गया था। राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव, जिनका बचपन अंग्रेजों ने छीन लिया था, उनके पिता को बस्तर से निष्कासित कर दिया था। अंग्रेजों की कस्टडी में उनका बचपन बीता। इस घटना में उनका अंत हुआ था। 1948 में उन्होंने बस्तर की रियासत का संघ में विलय किया; लेकिन वे स्वयं और बस्तर के आदिवासी यह स्वीकार नहीं कर पाए कि वे अब बस्तर के राजा नहीं है। सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद यानी हर तरह से उन्हें समझाने की कोशिश की। कभी प्यार से कभी चुनाव में टिकट देकर, तो कभी दंड स्वरूप उनकी सम्पत्ति जब्त करके, कभी उन्हें राजयक्ष्मा का रोगी और पागल घोषित करके। तमाम विपरीत परिस्थितियों से वे जूझते रहे और एक अभिशप्त- सा जीवन जीते रहे। 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले ली गई थी, जिससे उन्हें आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। 1956 में उन्हें दिमागी रूप से बीमार घोषित कर दिया था और इलाज के लिए स्विट्जरलैंड भेज दिया गया। यह उनके बचपन (1936) में एक मनोचिकित्सक के पर्चे के आधार पर किया गया था। पर जब स्विटजरलैंड के चिकित्सकों ने उन्हें शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ घोषित किया, तो सरकार बौखला गई; क्योंकि उसके तरकश का यह तीर खाली गया था। राजा और सत्ता के बीच अनेक घात-प्रतिघात चलते रहे। इस बीच राजा ने ‘लोहंडीगुड़ा’ शीर्षक से एक किताब भी लिखी थी और आदिवासियों के बीच बँटवाई थी। राजा अपनी जिद में था कि वह राजा है और बस्तर में उसकी ही राजाज्ञाएँ मानी जाएँ। सरकार उसके कामकाज में दखल न दे। राजा को अपनी इस जिद का खामियाजा अपनी जान देकर चुकाना पड़ा था। यह एक आत्महंता ज़िद थी, जो राजा के साथ ही खत्म हुई। पर खत्म नहीं हुआ आदिवासियों का यह विश्वास यह आस्था कि राजा कभी मर नहीं सकता। तरुण भटनागर ने उपन्यास में लिखा है कि पूरी दुनिया में बस्तर का राजा प्रवीर ही एकमात्र ऐसा राजा है, जो मर नहीं सकता। अखबार लिख रहे थे कि राजा खत्म हो चुका है पर जंगलों पर उसकी बात का कोई असर नहीं था।
उपन्यास के कथानक का उत्तरार्द्ध प्रवीर भंजदेव के बाद के बस्तर की कथा कहता है। भोले-भाले आदिवासियों के इस विश्वास को कि राजा जिंदा है अनेक स्वार्थी लोगों ने अपने हित में भुनाया था। यथार्थ में ऐसे लोग उन दिनों बस्तर में मौजूद थे , जो उपन्यास के पृष्ठों में पात्र के रूप में अंकित हैं। राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की मृत्यु के बाद लगभग सोलह लोग स्वयं को राजा घोषित कर चुके है और कैसे राजनेता, व्यापारी और वनोपज के माफिया भोले-भाले आदिवासियों को मिलीभगत से ठगते रहे हैं। बस्तर के जगदलपुर में ओल्ड नरेन्द्र टॉकीज के पास सुनार की दुकान थी। इस दुकान में आने वाली जंगल की स्त्रियों का जो चित्र उपन्यासकार ने खींचा है, वह हिन्दी कथा साहित्य में अद्वितीय है। इस सुनार के यहाँ कोदरा नाम का एक आदिवासी नवयुवक काम करता था। वह जंगल की लड़कियों और औरतों को गहने दिखाता था और उनसे जंगल की बोली में मीठी-मीठी बातें किया करता था और युवतियाँ उसकी बातों का यकीन कर गहने खरीद लेती थी। राजा की मृत्यु के बाद इसी दुकान पर गजोधर पंडा ने काकातीय वंश का नकली राजदंड बनवाया था। यह बस्तर के राजा की आज्ञा का प्रतीक था, पवित्र था, पूज्य था। इस राजदंड की प्रतिकृति एक लाख रुपये देकर बनवाई गई थी। राजदंड का उपयोग बस्तर की जनता को ठगने के लिए किया जाता था। भोले-भाले आदिवासियों से इस राजदंड के मार्फत कोई भी काम कराया जा सकता है। ‘सागौन की फुनगियों पर चाँद’ शीर्षक से उपन्यास में दर्ज है कि विशु की दुनिया में राजा की कहानियाँ पहुँच चुकी थीं। अब राजा के किस्से और विशु की दुनिया के बीच वक्त का कोई फासला न रह गया था। उपन्यास के इसी खंड में एक पात्र अवतरित होता है, जिसका नाम है डॉक्टर राजू। डॉक्टर राजू का चरित्र उपन्यासकार ने इस कौशल से रचा है कि उसके व्यक्तित्व का एक-एक पक्ष उजागर हो गया है। जिस दिन जंगल में राजाज्ञा आई थी, राजदंड आया था और हजारों की भीड़ में गजोधर के इशारे पर चौकीदार ने राजाज्ञा पढ़ी थी। यह कहा था कि सड़क बनाने का काम तुम सभी को करना है तब सभी भावुक हो गए थे ; लेकिन डॉक्टर राजू के मन में गुस्सा बढ़ गया उसने मंच पर खड़े होकर कहा कि तुम सभी को धोखा दिया जा रहा है। वे तुम सभी से रोड का काम मुफ्त में कराना चाह रहे हैं। इन्होंने नकली राजाज्ञा का सहारा लिया है। उसने कहा कि हर काम की उचित कीमत होती है, श्रम की भी। श्रम से ही तुम्हारा पेट पलता है। कुछ लोग तुम्हारे श्रम की कीमत नहीं देना चाहते; वे जो लुटेरे हैं, चोर हैं, आततायी है। जो गरीब के हिस्से को मारना चाहते हैं। यह काम सरकार करवा रही है, राजा नहीं। राजा तो खत्म हो चुका है। इस बात पर डॉक्टर को भीड़ के गुस्से का सामना करना पड़ा था और पत्थर खाने पड़े थे। डॉक्टर जो चे गुवारा की किताब ‘रैमिनिसैंसेस ऑफ द क्यूबन रिवॉल्यूश्नरी वॉर’ पढ़ता है , जो संपादक के नाम पत्र लिखकर समाचार पत्रों के माध्यम से लोगों को जागरूक करना चाहता है।
सड़क बनाने में जंगल के लोगों का क्या हाल हुआ, जंगल के लोगों ने कैसे भूखे पेट वह रोड बनाई, बाहरी दुनिया को इस हकीकत का कभी पता नहीं चल पाया। उपन्यास ने ‘एक राह, एक कातिल’ शीर्षक से आदिवासियों के निर्मम शोषण की कहानी बयान की है।
उपन्यासकार ने शोषण और अन्याय की उन परतों को खोला है जिन पर काल की धूल ने एक मजबूत सतह बना दी थी, सच्चाई को गुहावास दे दिया गया था। उपन्यास में ऐसी अनेक परतें हैं, जो खुलती हैं तो सच को सामने लाती है। जैसे- जिस भोले-भाले आदिवासी कोदरा के भोलेपन का फायदा उठाकर सुनार ने उससे राजा का नकली राजदण्ड तैयार कराया था उसी सुनार ने उसे ज़हर देकर मरवा दिया था; क्योंकि वक्त के साथ वह समझदार हो गया था और यह मानने लगा था कि राजा अब मर चुका है।
बस्तर के सघन जंगलों में वे आदिवासी निवास करते हैं, जिनकी आवश्यकताएँ एकदम सीमित हैं। जो प्रकृति की तरह ही निश्छल और स्वार्थ से दूर हैं। वे इतने भोले और सच्चे हैं कि ठंड से बचने के लिए सीमेंट के गोदाम से केवल दो बोरे चुराते हैं और सीमेंट वहीं छोड़ जाते हैं। उपन्यासकार के अनुसार यह जंगल के साढ़े चार लाख वर्ष के इतिहास में चोरी की पहली घटना थी। इन आदिवासियों को अपने राजा पर उसकी दैवीय शक्तियों पर अटूट विश्वास है अतः वे राजा की मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पाते।
राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव के खत्म होने के बाद बस्तर में सोलह लोगों ने राजा का वेश धरने और स्वयं को राजा निरूपित करने का प्रयास किया। बस्तर की भोली-भाली जनता के इस विश्वास को छलकर कि राजा कभी मर नहीं सकता लोगों ने अपनी तिजोरियाँ भरीं। वनोपज माफिया तरह-तरह के संगठन बनाकर प्रकट हुए और लूटपाट करते रहे। जंगल के लोगों को डॉक्टर राजू समझाता रहा कि राजा मर चुका है, वह हर अन्याय का प्रतिकार और बड़ी ताकत से अपने हौसले की दर पर टकराता रहा। उपन्यासकार इस डॉक्टर को बर्तोल्त ब्रेख्त का दीवाना कहते हैं। डॉक्टर गाँव में केवल दो लोगों से बात करता है एक विशु के पिता शशांक से जंगल के बारे में और दूसरा बस कण्डक्टर से अखबारों के बारे में। शशांक पढ़ाई-लिखाई को महत्त्व देते हैं इसलिए वे डॉक्टर से प्रभावित हैं। डॉक्टर ने एम.बी.एस. की डिग्री गोल्ड मैडल लेकर पास की है। डॉक्टर से उनकी दोस्ती की वजह यही है। डॉक्टर को लेकर वे सोचते हैं कि वह इन जंगलों में क्यों आया, वह तो इतना लायक है कि शहर में बहुत धन कमा सकता है और आराम से रह सकता है। शशांक ने उससे यह बात पूछी भी थी, डॉक्टर का जबाव था - ‘‘सुख और धन ये दो शब्द बहुत बेहूदा शब्द हैं। इन शब्दों से अन्याय की बू आती है।’’ डॉक्टर ढेरों किताबें पढ़ता है। बस्तर के जंगलों में पगडंडी-पगडंडी साइकिल पर घूमता है, जंगल के लोगों का दर्द बाँटने को बेताब घूमता रहता है, दवाइयों के फर्स्ट एड बॉक्स, साँप के जहर का इंजेक्शन, मलेरिया और उल्टी दस्त की गोलियाँ लिये जंगल के हर दर्द से लड़ने को तत्पर डॉक्टर रात को बेचैन होता है कि काश जंगल के लोग पहचान पाने अपने शत्रुओं को, समझ पाते नकली राजा के स्वांग को। इस बेचैनी में वह ब्रेख्त की कविताएँ पढ़ता है, चे ग्वारा की किताब ‘रैमिनिसैंसेस ऑफ द क्यूबन रिवॉल्यूशनरी वॉर’ पढ़ता है।
‘कितना तन्हा है बियावान का हँसिया चाँद’ एक अत्यंत मानीखेज शीर्षक है। शशांक और डॉक्टर केवल दो पात्रों की बातचीत से ही उपन्यास के इस अंश को बुना गया है। दरअसल डॉक्टर को ठीक मुक्तिबोध के टेढ़े चाँद की तरह हँसिया चाँद शोषक लगता है। गरजती और असंख्य मोटी धाराओं में गिरती बारिश उसे हिरोशिमा पर हुई बारिश लगती है, हँसिया चाँद उसे हाईपोक्सिया के मरीज के खून की हँसिया कोशिकाएँ लगती है। खूबसूरत हँसिया उसे बेशर्म और आतातायी लगता है। डॉक्टर जंगल के लोगों को समझाना चाहता है, जंगल के बाहर के लोगों के स्वार्थी और शोषक बर्ताव के बारे में पर जंगल के लोग इतने मासूम है कि वे यह सब समझने में असमर्थ हैं और यही डॉक्टर के अंतहीन गुस्से की वजह है। पहले औपनिवेशिक शासकों ने आदिवासियों को वनों से विस्थापित किया और वन संपदा का दोहन किया, वही काम देश की आजादी के बाद भी हुआ। नक्सलवादी आंदोलन की जड़ में यही हँसिया चाँद है।
डॉक्टर के भीतर गुस्सा है, बहुत गुस्सा, आक्रोश है व्यवस्था के खिलाफ गहरा आक्रोश, एक तल्खी है, एक गहरी तड़प है। डॉक्टर के लिये व्यवस्था मर चुकी है, दुनिया उसके लिए एक दगाबाजी है। उपन्यासकार ने डॉक्टर के लिए लिखा है - ‘‘उसके भीतर गुस्से का समंदर था। उस समंदर में कुंठाओं की बहुत-सी नदियाँ मिलती थी। वह बहुत गहरा समंदर था। उसकी छाती में डहराता। उसकी नसों में ज्वार बनकर फैलता, उठता, बिखरता।’’ उधर दूर कहीं कुल्लस। डॉक्टर की माँ दूर कहीं गाँव में अकेली अपने बेटे के खतों का इन्तजार करती है। डॉक्टर को गए हुए अठारह साल हो गए। वक्त गुजरता जा रहा है माँ बूढ़ी हो चली है। एक दिन उसने रहमान से एक दिन उसने रहमान से कह दिया कि उसका कोई बेटा नहीं है और रहमान से भावुक होकर कहा कि वह उसका बेटा है; लेकिन माँ उस रात बेचैन थी। वह सो नहीं पाई थी। माँ के हृदय की कशमकश और ग्लानि का बड़ा ही हृदयग्राही और मर्मभेदी चित्रण तरुण भटनागर ने किया है। डॉक्टर जब बच्चा था तब उसने मैक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘माँ’ पढ़ने के लिए ही पढ़ने-लिखने की शुरूआत की थी। माँ ने जमीन बेचकर उसे पढ़ाया लिखाया था। वस्तुतः इस उपन्यास की कथा इकहरी नहीं है। कथा के भीतर कथा है, जिसके गहरे निहितार्थ हैं। पाठक को इन निहित सूत्रों को मजबूती से पकड़ना होता है।
डॉक्टर यदि उपन्यास में नहीं होता तो जंगल की कहानी अधूरी ही रह जाती। उपन्यास में राजा जितना जरूरी पात्र है, राजा के खत्म होने के बाद उतना ही जरूरी पात्र डॉक्टर है और उतने ही जरूरी शशांक और विशु हैं। दरअसल तरुण भटनागर ने बस्तर के जंगलों में फैले उस आंदोलन की सच्चाई बयान की है जिसे नक्सलवादी आंदोलन कहा जाता है आज भले ही इस आंदोलन का स्वरूप बदल गया हो उसके मायने बदल गए हो ; लेकिन तत्कालीन समय में जंगल की स्थिति की देखते हुए डॉक्टर की सोच गलत नहीं लगती। डॉक्टर जो यह मानता है - ‘‘नमक पर सबका अधिकार है। पहले नमक अंग्रेजों के पास था और अब वह जंगल से बाहर की दुनिया के पास है। कितना कठिन है बस्तर को उसके हिस्से का नमक समझाना हाड़तोड़ मेहनत से बटोरी जंगल की कितनी कीमती चीजों के बदले में सिर्फ मुट्ठी भर आता है...... बस्तर के हिस्से का नमक और जंगल की भलाई सोचने वाले डॉक्टर को एक दिन आतंकवादी करार दिया जाता है। उसके घर में मिलने वाली किताबों के आधार पर बगावत फतवा जारी किया जाता है। डॉक्टर को आतंकवादी और अपराधी मानकर मार दिया जाता है। डॉक्टर के मित्र शशांक को तब समझ में आता है कि क्यों डॉक्टर ने कभी उनके साथ कोई तस्वीर नहीं खिचवाई, क्यों वह सारे खतों को जलाने की बात कहता था, क्यों वह अपने खतों में खुद का कोई पता नहीं लिखता था। ‘राजा जंगल और काला चाँद’ उपन्यास का कथानक एकदम सच्चा है। उपन्यास के सभी पात्र सच्चे हैं। विशु और शशांक भी काल्पनिक पात्र नहीं हैं। शशांक का फोटोग्राफी का शौक, अम्बा रिकार्ड प्लेयर से रिकार्ड खरीदना, विशु को जंगल की कहानियाँ सुनाना सभी कुछ वास्तविक है, यथार्थ हैं। रामशरण जोशी ने अपनी किताब ‘यादों का लाल गलियारा दंतोबाड़ा में इन सभी बातों का किया है। जगदलपुर में ‘अम्बे गैलरी’ नाम की दुकान सच में थी, जहाँ से शशांक बेगम अख्तर के रिकार्ड खरीदते थे।
उपन्यास का समापन भी शशांक के प्रतिरोधी स्वर पर आकर समाप्त होता है। नकली राजा जिसे बस्तर के पूर्व कलेक्टर ने जंगल से बाहर जाने के आदेश दे दिए थे। अब उस कलेक्टर का ट्रांसफर हुए वक्त बीत गया है। नकली राजा का जंगलों से बेदखली का हुक्म खत्म कर दिया गया है वह फिर लौट रहा है और जंगल की जनता उसके स्वागत में तोरण द्वार बना रही है, मादल बजा रही है। इस दृश्य को देखकर शशांक के चेहरे पर नफरत और दर्द की रखाएँ उभर आती हैं और प्रतिरोध के रूप में वे एक पत्थर तोरण द्वार की तरफ फेंकते हैं। दरअसल ‘राजा, जंगल और काला चाँद’ में वर्णित इतिहास देश के इतिहास से अलग नहीं है। उपन्यासकार की इतिहास दृष्टि और अनुभूतियों में निबद्ध आदिवासी जीवन और जंगल अपनी पूरी सक्रियता के साथ मौजूद है। उपन्यास की आंतरिक गति और उसका संरचनात्मक सौन्दर्य दोनों मिलकर उन अमानवीय और प्रतिरोधी शक्तियों की पहचान करते हैं , जो इंसानियत के लिए खतरा है।
निष्कर्षतः ‘राजा जंगल और काला चाँद’ उपन्यास जीवन की व्याख्या करता है तथा अतीत का पुनर्सृजन करता है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर उपन्यास लिखना चुनौतीपूर्ण है। तरुण भटनागर ने उपन्यास जैसी विधा में इतिहास को इस तरह साधा है मानो वह इतिहास न हो बल्कि वर्तमान का कोई चलता-फिरता दृश्य-जगत हो , जो रफ्ता-रफ्ता आँखों के सामने से गुजर रहा हो। चित्रात्मक भाषा के साथ एक विकसित और परिपक्व इतिहास दृष्टि को लेकर लिखा गया यह उपन्यास बस्तर के लोक जीवन के विविध पक्षों को भी साकार करता है। उपन्यासकार ने किसी भी पात्र के प्रति न तो अतिरिक्त लगाव दर्षाया है और न ही पूर्वाग्रह पाले हैं और न ही इतिहास में हस्तक्षेप किया है। यह एक ऐसा उपन्यास है, जिसके मूल्यांकन के लिए प्रचलित परंपरागत उपमान नाकाफ़ी हैं। क्योंकि उपन्यास अपने कथ्य और शिल्प के प्रचलित दायरों से भिन्न एक अलग प्रविधि में रचा गया है। उपन्यासकार ने इसमें कथारूप और अभिप्रायरूप यानी ‘टेलटाइप’ और ‘मोटिफटाइप’ दोनों का अद्भुत मिश्रण किया है। यह सच है कि प्रत्येक समय अपने पूर्ववर्ती समय के गर्भ से अवतरित होता है। समय की ऐसी लम्बी श्रृंखला उपन्यास में है। बस्तर के इतिहास का जीवंत दस्तावेज यह उपन्यास अपनी समृद्ध इतिहास दृष्टि, कथ्य की प्रामाणिकता, अनुभूतियों की सघनता, अनेक सुंदर और अर्थपूर्ण शीर्षकों में विनयस्त सुगठित कथा-संगठन और शिल्प की अद्भुत कारीगरी और भाषा के सुन्दर स्थापत्य के कारण इक्कीसवीं सदी का श्रेष्ठ उपन्यास है।
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