अरुणाचलम मुरुगनन्थम: सत्यम शिवम सुंदरम / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :16 जनवरी 2018
आमिर खान अभिनीत 'थ्री इडियट्स' के एक दृश्य में अभिव्यक्त किया गया है कि मनुष्य के समय और परिश्रम को बचाती है मशीन। प्राय: शोधकर्ता दुरुह मामलों पर ध्यान देते हैं परन्तु साधारण चीजें अनदेखी रह जाती हैं। अरुणाचलम मुरुगनन्थम अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए और उनसे किसी को कोई आशा नहीं थी हाशिये में फेंके गए इस व्यक्ति ने दिन प्रतिदिन जीवन की एक समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया और वर्षों के परिश्रम से सेनेटरी पैड बनाने की मशीन इजाद की। माहवारी समस्या पर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया। मैले कुचैले कपड़ों के इस्तेमाल से रोगाणु फैलने का भय रहता है परन्तु दकियानूसी समाज इस सामाजिक कचरे को अपने कालीन के नीचे छुपाये रखना ही बेहतर समझता है। अज्ञान के पंख नहीं होते परन्तु वह उड़ता है। मुरुगन के पागलपन से खिन्न उसकी पत्नी उसे छोड़कर चली गई और उसके सफल होने पर ही लौटी। इसी तरह अपनी पुत्री के जन्म के पहले ही वह सस्ते सुलभ सेनेटरी नैपकिन बनाने में सफल रहा।
औद्योगिक घराने जो चीज सौ रुपये में बेचते थे, उसे मुरुगन ने दो रुपये में उपलब्ध कराया। मुरुगन का कहना है कि आज भी अधिकतम महिलाएं मैले कुचैले गंदे कपड़ों का इस्तमाल करके भारी जोखम उठा रही हैं। सेहत के लिए जोखिम आज भी बरकरार है। कभी-कभी लगता है कि हम दुर्घनटनावश ही जीवित हैं। मारना तो योजनाबद्ध ढंग से हो रहा है। एक अनाम शायर ने गुजरात में प्रायोजित दंगे के बाद लिखा कि 'यूं भी मेरे जीने का कोई मकसद नहीं था, मारा गया है मुझे गहरी साजिश के तहत किया गया था'।
अरुणाचलम मुरुगनन्थम से ट्विंकल खन्ना ने संपर्क किया। अक्षय कुमार, आर. बालकी और मुरुगनन्थम ने मिलकर पटकथा बनाई और चंद ही महीनों में फिल्मांकन भी कर लिया गया। 'पैडमैन' शीघ्र ही प्रदर्शित हो रही है। भंसाली की 'पद्मावत' और 'पैडमैन' बॉक्स ऑफिस कुरुक्षेत्र में आमने सामने होंगे। ज्ञातव्य है कि कुछ वर्ष पूर्व तीन दर्जन सितारों से सजी जे.पी. दत्ता की 'एल.ओ.सी.' और सिताराविहीन 'मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.' एक साथ प्रदर्शित हुई थी। मुन्नाभाई की फतह हुई थी। आम दर्शक दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। उन्होंने सिनेमा आस्वाद की कोई पढ़ाई नहीं की परन्तु वे अपना मनोरंजन चुनने में गलती नहीं करते। यही अवाम सरकार चुनने में गफलत कर सकता है परन्तु फिल्म का चुनाव उचित ही करता है। हम सदियों से कथाएं सुनते रहे हैं और बतौर श्रोता हमारा अनुभव गहरा है।
विगत कुछ दशकों में वैज्ञानिक एवम शोधकर्ता को आदेश दिया जाता है कि उन्हें किस दिशा और क्षेत्र में काम करना है। उन्हें बेहतर सुविधाएं दी गई हैं परन्तु विषय चुनने की स्वतंत्रता नहीं है। बाजार उनका शासक है। अनुपयोगी वस्तुओं को बेचने में मुनाफा ज्यादा है। रोटी, कपड़ा और मकान बेचने में मुनाफा कम है। वस्तु या सुविधा की खोज के समय ही उसकी एक्सपायरी डेट भी तय कर दी जाती है जिसका अर्थ यह है कि तय तारीख के बाद वस्तु और उसके दुरुस्त करने के साधन बाजार से हटा दिए जायेंगे। हमारे बाजार में तो एक्सपायरी डेट के बाद भी माल बेचा जा रहा है। नया माल आएगा और उसे खरीदने के लिए अवाम मजबूर होगा। इस तरह विराट अटाला रचा जा रहा है और इसी अटाले के ढेर पर मनुष्य बैठा है।
गौरतलब है कि नमक जैसी आवश्यक वस्तु भी बाजार में महंगे दाम में बिक रही है। उसे चमकीला बनाने की प्रक्रिया में उसकी ताकत कम हो जाती है। रॉक सॉल्ट कहीं उपलब्ध नहीं है। चमक और दमक ही बेची जा रही है और बेचारे खरीददार को अहसास नहीं हो रहा है कि इस बाजार में वह स्वयं ही एक सिक्के की तरह खर्च हो रहा है। अजब खेल है कि सफाई, सफेदी और स्वच्छता के नाम पर नमक की पौष्टिकता समाप्त की जाती है और बाद में विटामिन डाले जाते हैं। इस तरह बाजार हमें कान घुमाकर पकड़ने में प्रशिक्षित कर रहा है। सीधे सरल काम को कठिन बनाया जाता है, फिर उसे सरल बनाने के लिए पैसे लिए जाते हैं। दवा से अधिक दर्द का उत्पादन किया जा रहा है और इस पर तुर्रा यह है कि वे हमारे हमदर्द हैं। व्यवस्था दाहिने हाथ से मारती है और बायां हाथ मलहम लगाता है। चार्ली चैपलिन की 'द किड' में बच्चा शीशा तोड़ता है और बाप शीशा जोड़ने का व्यवसाय करता है। कितने पहले चैपलिन ने आने वाले दौर को पहचान लिया था। बहरहाल रोशनी से नहाते हुए बाजार के कारण याद आती है ये पंक्तियां- 'इठलाती हवा, नीलम सा गगन, कलियों पर बेहोशी की नमी, ऐसे में भी क्यों बेचैन है दिल, जीवन में न जाने क्या है कमी, जो दिन के उजाले में न मिला, दिल ढूंढे ऐसे सपने को, इस रात की जगमग में खोयी, मैं ढूंढ रही हूं अपने को..'।