अरुणाचल प्रदेश की बौद्ध संस्कृति / वीरेन्द्र परमार

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अरुणाचल प्रदेश अपने नैसर्गिक सौंदर्य, सदाबहार घाटियों, वनाच्छाकदित पर्वतों, बहुरंगी संस्कृोति, समृद्ध विरासत, बहुजातीय समाज, भाषायी वैविध्यं एवं नयनाभिराम वन्यछ-प्राणियों के कारण देश में विशिष्टअ स्थाीन रखता है। अनेक नदियों एवं झरनों से अभिसिंचित अरुणाचल की सुरम्यं भूमि में भगवान भाष्कार सर्वप्रथम अपनी रश्मिर विकीर्ण करते हैं, इसलिए इसे उगते हुए सूर्य की भूमि का अभिधान दिया गया है। अरुणाचली जनजातियों का एक बड़ा वर्ग बौद्ध धर्म में आस्थाभ रखता है। सन् 1971 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में 61, 400 लोग बौद्ध मतावलंबी हैं।यह वहॉं की कुल जनसंख्या का 13.13 प्रतिशत है। प्रदेश की मोंपा जनजाति सबसे अधिक जनसंख्याहवाली बौद्ध जनजाति है। यहाँ महायान और हीनयान दोनों शाखाओं के मतावलंबी लोग निवास करते हैं। अरुणाचल की निम्न लिखित जनजातियॉं बौद्ध धर्म में विश्वाबस करती हैं- मोंपा, खाम्ती, खंबा, मेंबा, सिंहफो, शेरदुक्पे न और जखरिड। इनमें से मोंपा, शेरदुक्पेलन और मेंबा जनजातियां बौद्ध धर्म की महायान शाखा में विश्वारस करती हैं जबकि खाम्ती् और सिंहफो हीनयान शाखा में आस्थाध रखती हैं। बौद्ध मत की महायान शाखा को उत्ततरी बौद्ध मत कहा जाता है। यह मत संभवत: सातवीं शताब्दीम में कश्मी र से तिब्बफत में प्रविष्ट‍ हुआ, पुन: वह भूटान होते हुए अरुणाचल में वापस आया और वहाँ की मोंपा, शेरदुक्पेतन और मेंबा जनजातियों में लोकप्रिय हुआ। हीनयान शाखा को दक्षिणी बौद्ध मत कहा जाता है। यह बर्मा से भारत में वापस आया और खाम्तीय, सिंहफो इत्यातदि जनजातियों में प्रचलित हुआ।

इन बौद्ध मतावलंबी जातियों की धर्मिक आस्थाश के साथ स्थांनीय धर्म, देवी-देवताओं और विश्वादसों का भी समावेश हो गया है। इन देवी-देवताओं को ये जनजातियों भिन्नत-भिन्‍न नामों से संबोधित करती हैं। भगवान बुद्ध के उपदेशों के प्रति वे लोग गहरी श्रद्धा रखते हैं लेकिन बौद्ध मत के विरुद्ध ये लोग मांसाहारी हैं। केवल लामा (पुजारी) लोग शाकाहारी होते हैं। ये लोग भगवान बुद्ध को भिन्न -भिन्नल नामों से पुकारते हैं। ये उन्हें दयालु, चमत्का री, सर्वहितकारी और पथप्रदर्शक मानते हैं। इनके सामाजिक-सांस्कृततिक जीवन में लामा लोग महत्त्वतपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लामा इस समाज के पथप्रदर्शक, आध्यानत्मिृक गुरु, अभिभावक और दिशानिर्देशक होते हैं। ये बच्चों का नामकरण संस्कादर कराते हैं, विवाहित जोड़े को आशीर्वाद देते हैं, रोगियों को नीरोग करते हैं तथा लोगों को सुमार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा देते हैं।

'गोंपा' ग्रामवासियों की आध्याोत्मिरक आस्थाो का सबसे प्रमुख स्थ ल है। प्रत्येलक गांव में गोंपा की स्थाहपना होती है। गोंपा बस्ती से थोड़ी दूर पर ऊँचे स्थाथन पर स्था्पित करने की परंपरा है। गोंपा में जाने के लिए मुख्यपद्वार होता है जिसके निकट ही काकालिंग बना होता है। सभी ग्रामवासी सम्मि लित रूप से गोम्पा की देखभाल और मरम्म त कराते हैं तथा पुजारी का खर्च वहन करते है। तवांग जिले का गोम्पाे बौद्ध मतावलंबियों (महायान शाखा) की आध्यावत्मि क आस्थाग का सर्वाधिक महत्त्विपूर्ण केन्द्रा है। इसे एशिया का सबसे बड़ा बौद्ध गोम्पाग माना जाता है। यह लगभग 350 वर्ष पुराना है। समुद्र तल से इस गोम्पाद की ऊंचाई दस हजार फीट है। यहाँ पर 500 लामाओं के ठहरने की व्यरवस्थाो है। यह भारत का अयनी तरह का सबसे बड़ा बौद्ध गोम्पाक है। इसके आस-पास मोंपा और शेरदुक्पेान जनजाति के लोग निवास करते हैं। यह गोम्पा इन बौद्ध धर्मावलंबियों की आस्थाक का सबसे बड़ा केन्द्रि है। यह तवांग घाटी में बर्फीली पर्वत चोटियों से घिरा हुआ और हरित वनों के मध्यआ में स्थिसत है। इसकी स्थाीपना मेरा लामा ने सत्रहवीं शताब्दी में कराई थी। इस किलेनुमा गोम्पाब में पुस्‍तकालय भी है जिसमें दुर्लभ पुस्त कें और प्राचीन अभिलेख सुरक्षित हैं। तिब्ब्ती के पांचवें दलाई लामा के काल में मेरा लामा रहते थे। ऐसा कहा जाता है कि इस गोम्पार के शिलान्या्स के समय मेरा लामा ने तामदिंग (घोड़ों के भगवान) के सम्मा‍न में एक भव्यह समारोह का आयोजन किया था। उस समय से यह क्षेत्र तवांग (ता=घोड़ा) के नाम से विख्या‍त हुआ। तवांग नाम की उत्पात्तिे के संबंध में अन्यत कथा भी प्रचलित है जिसके अनुसार मेरा लामा अपने घोड़े पर सवार होकर आए और इस जगह पर आकर उन्हों ने अपना घोड़ा रोक दिया और घोड़ा रोककर लोगों को आशीर्वाद दिया। (ता=घोड़ा, बोंग=आशीर्वाद) । एक दूसरे आख्यामन के अनुसार बौद्ध मठ के लिए मेरा लामा जगह का चुनाव नहीं कर पा रहे थे। एक दिन उनका घोड़ा इस स्थामन पर आकर रुक गया और इस प्रकार बौद्ध गोम्पा के लिए स्थासन के चयन की अनिश्चिसतता दूर हो गई. (ता=घोड़ा, वांग=चुनना) । अरुणाचल की बौद्ध मतावलंबी जनजातियों के लिए तवांग गोम्पाू धार्मिक-सांस्कृ़तिक गतिविधियों का केन्द्र् है।

मोंपा अरुणाचल की प्रमुख बौद्ध धर्मावलंबी जनजाति है। तवांग और पश्चि मी कामेंग जिलों में इनकी अधिकांश जनसंख्या निवास करती है। ये लोग बौद्ध धर्म की महायान शाखा में आस्था रखते हैं। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्याय 38, 862 है। तवांग का एशिया प्रसिद्ध गोंपा इनकी आध्या1त्मि क गतिविधियों का केंद्रीय स्थाल है। मोंपा भूमि घने वनों और गहरी घाटियों से श्रीसंपन्न1 है। कामेंग नदी इस क्षेत्र की प्रमुख नदी है। मोंपा लोग तिब्बरती-मंगोलियन मूल के हैं। ये लोग शांत, व्यतवहारकुशल, दयालु, आतिथ्यंकारी और उद्यमशील होते हैं। कुछ विद्धानों का अभिमत है कि 'मोंपा' नाम तिब्बवतवासियों का दिया हुआ है। उन्हों ने तिब्ब त के दक्षिणी क्षेत्र में रहने वाले लोगों को मोंपा नाम से संबोधित किया। तिब्ब।त भाषा में 'मोंपा' का अर्थ हैं निम्न भूमि का निवासी. मोन=निम्नै देश अथवा नीचे की भूमि, पा=संबंधित। पूर्वी भूटान के लोगों को तिब्बकतवासियों द्वारा 'द्रुक्पान' कहा गया। इसलिए भूटानी आप्रवासियों को 'द्रुक्पा्' अथवा 'दक्ताि' की संज्ञा दी गई. मोंपा संज्ञा उस स्थाइन की ओर इंगित करता है जहां ये लोग बसे थे। कुछ लोगों की मान्येता है कि तवांग के मोंपा सिक्किइम से देशांतरित होकर आए थे। अपने देशांतरगमन के संबंध में इनका लोकसाहित्ये मौन है, इसलिए इनके देशांतरगमन के संबंध में स्पंष्टनत: कुछ भी कहना कठिन है। ऐसा विश्वाइस है कि वे लोग तिब्बरत से भूटान होकर जाए थे।

मोंपा समाज में बच्चोंि के जन्मू से जुड़े अनेक रीति-रिवाज प्रचलित हैं। एक रिवाज के अनुसार किसी बच्चे के जन्मं के तुरंत बाद बच्चा़ और उसकी माँ को गर्म जल से स्नाजन कराया जाता है। इसके बाद बच्चे को घर से बाहर निकाला जाता है ताकि वह आकाश और पृथ्वीअ को देख ले और ईश्व र का आशीर्वाद प्राप्ति कर ले। उसके बाद बच्चेल को एक नाम भी दिया जाता है। दूसरा रिवाज है कि जन्म के तीन रातों के उपरांत बच्चेक को बाहर निकाला जाता है। बच्चे का शुद्धिकरण संस्काचर संपन्ना कराने के लिए एक लामा को आमंत्रित किया जाता है। लामा बच्चे् का नामकरण संस्कानर करता है और उसके भविष्य के बारे में भविष्यैवाणी करता है। मोंपा समाज बौद्ध धर्म की महायान शाखा में आस्था रखता है। यह मठ इनकी आध्यावत्मि।क चेतना का विराम है। भारत में यह अपने प्रकार का सबसे बड़ा बौद्ध गोंपा है। समुद्र तल से इसकी ऊंचाई लगभग दस हजार फीट है। इसमें पांच सौ लामाओं के रहने की व्यसवस्था। है। यह गोंपा तवांग की हरित घाटी में स्थि त है जो तीन ओर से (पूरव को छोड़कर) पहाड़ियों और बर्फ आच्छागदित पर्वतमालाओं से घिरा हुआ है। घने जंगल के मध्यर में स्थिकत यह बौद्ध मठ अपने प्राकृतिक सौंदर्य और वास्तु कला की उत्तेमता के कारण भारत ही नहीं बल्किय एशिया में भी प्रसिद्ध है।

बौद्ध धर्म के विचार और दर्शन के अतिरिक्त। मोंपा लोगों के धर्म के साथ कुछ स्थागनीय देवी-देवता और रीति-रिवाज भी जुड़ गए हैं। सर्वप्रथम जब इनका बौद्ध धर्म से परिचय हुआ तब लामा लोगों ने प्राचीन धर्मिक देवी-देवताओं की पूजा की विधि भी निर्धारित कर दी लेकिन जनसामान्यो लोगों के मन में अभी भी भय बना हुआ था और फसलों के नष्टन होने, बीमार होने अथवा मृत्युो होने पर संकट की घड़ी में वे सोचने लगते थे कि यह सब प्राचीन देवी-देवताओं की पूजा नहीं करने के कारण उनके कोप का परिणाम तो नहीं है। लामा लोगों ने इस स्थिनति के निराकरण के लिए इन देवताओं को स्थाानीय रक्षक देवता के रूप में स्वी्कार कर लिया और बौद्ध धर्म की रीति के अनुसार इनकी पूजा करने की अनुमति प्रदान कर दी।

अरुणाचल का लोहित जिला खाम्तीन जनजाति के लोगों का निवास क्षेत्र है। 1991 की जनगणना के अनुसार खाम्तीन जनजाति की कुल जनसंख्याज 8, 339 है। विद्वानों की मान्यपता है कि इनका मूल निवास बर्मा की इरावदी नदी घाटी में बोर-खाम्ती क्षेत्र था। वे भारत में 18वी सदी के मध्य काल से लेकर 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के बीच में देशांतरित होकर आए. ई.टी. डालटन और मेकैन्जी ने अनुमान लगाया है कि खाम्ती लोगों के प्रथम दल ने सदिया के दक्षिण में टंगापानी में सर्वप्रथम अपना आवास स्थाापित किया। कुछ अन्यक विद्धानों की अवधारणा है कि अरुणाचल के चांगलांग जिले में स्थि त विजयनगर में खाम्तीे लोगों का प्रथम दल आया था। खुदाई के उपरांत विजयनगर में बौद्ध स्तूथप का पता चला है। यह स्तूरप खाम्तीर लोगों से संबंधित है, ऐसी पुरातत्वसवेत्ताओं की मान्य ता है। ये लोग अपने को ताई खाम्तीो कहते हैं क्योंिकि उनका संबंध ताई प्रजाति से है। इन लोगों के जीवन और संस्कृअति पर चीन की ताई संस्कृतति का स्पगष्टध प्रभाव देखा जा सकता है। ये लोग ताई वर्ग की भाषा भी बोलते हैं। इनकी संस्कृउति और परंपरा पर बर्मा का प्रभाव भी है। कुछ विद्धानों का कहना है कि खाम्तीष लोग बर्मा के शान प्रदेश से देशांतरित होकर आए थे। जब वे प्रथम बार असम में प्रविष्टम हुए तो असम राजा की अनुमति से टेंगापानी नामक नदी के किनारे बस गए. लेकिन 1794 के दौरान राजा गौड़ी नाथ सिेंह के शासनकाल में अनिश्चिनतकालीन गृह-युद्ध आरंभ हो गया। उसी दौरान वे संभवत: टंगापानी से सिंहफो लोगों द्वारा निष्का-सित कर दिए गए. इसके बाद वे लोग लोहित जिले में बस गए. लोहित नदी के बाएं किनारे पर इस जनजाति की अधिकांश आबादी बसी है।

खाम्तीह शब्द का अर्थ है स्वर्ण से भरपूर भूमि। खाम का अर्थ होता है सोना और ति का अर्थ होता है स्था न। जो लोग ऐसे स्था न पर रहते थे उन्हेंब खाम्तीथ के नाम से जाना जाता था। इस शब्द का दूसरा अर्थ है किसी स्थासन से चिपक कर रहने वाला। (खाम=चिपकना, ति=एक स्थाान) इस प्रकार खाम्ती‍ लोगों का जो मूल निवास स्थाीन था वह सोने से भरपूर था अथवा धन-वैभव से संपन्न था। इस समुदाय के लोग बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा में विश्वाास करते हैं, लेकिन बौद्ध धर्म के सिद्धांतों के विपरीत ये लोग मांस-मछली खाते हैं। ये एक सर्वव्यापी, सार्वकालिक और सर्वशक्तितमान ईश्वेर में विश्वाछस करते हैं जिन्हें खाम्तीर भाषा में चान-खुन-सांग कहा जाता है।ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म से परिचित होने के पूर्व ये लोग बहुदेववादी थे। बहुदेववादी आस्था के कुछ अवशेष अभी भी उनके धार्मिक क्रिया-कलाप में विद्यमान हैं। बौद्ध धर्म अपनाने के उपरांत खाम्ती समाज धीरे-धीरे बौद्ध धर्म की शिक्षाओं ओर सूक्ष्मधताओं को अपने भीतर गहराई से उतारता गया। अब इस समुदाय के लोग गौतम बुद्ध के उपदेशों के अनुसार अपना आचरण करते हैं। इन लोगों का विश्वा।स है कि मानव सेवा ही ईश्वेर की सेवा है और मानव को दुख देना ईश्वकर को दुखी करना है। ये लोग अब ऊंच-नीच और अमीर-गरीब के भेदभाव को नहीं मानते हैं और न ही किसी विशिष्टो कुलोत्पवन्नऔ व्याक्ति को विशिष्टन सम्मान देते हैं। इनका मानना है कि मनुष्य की स्थिषति का निर्धारण जन्मई से नहीं बल्किह उसके आध्याित्मितक क्रिया-कलापों से होता है। निर्वाण की प्राप्तिथ ही मानव का चरम लक्ष्‍य है।

एक धार्मिक खाम्ती अपना दैनिक जीवन प्रार्थना से आरंभ करता है जिसे स्वी—खु कहा जाता है। प्रार्थना गांव के मंदिर में भगवान बुद्ध की मूर्ति के सामने की जाती है। खाम्ती- समाज भगवान बुद्ध की पूजा ईश्वंर के रूप में नहीं बल्किक मनुष्यह के पथप्रदर्शक तथा सत्य और ईमान का मार्ग दिखाने वाले एक नैतिक उपदेशक के रूप में करता है। इन लोगों की धारणा है कि गौतम बुद्ध का बौद्ध धर्म की परंपरा में चौथा स्थाहन है। वे विश्व के एक महान धार्मिक उपदेशक थे और अपनी मृत्यु के पांच हजार वर्षों के बाद पंचम बौद्ध उपदेशक अरी मितिया के रूप में प्रकट हुए.

बौद्ध विहार को चांग अथवा बापू चांग कहा जाता है। इसमें भगवान बुद्ध की अनेक मूर्तियां स्थारपित रहती हैं। प्रत्ये क गांव में चांग का निर्माण किया जाता है। चांग में पूजा के लिए पुजारी होते हैं जिन्हेंह भिक्खुा अथवा बापू कहा जाता है। पुजारियों को खाम्तीू समाज में चीफ से भी ऊंचा स्था न प्राप्त है। उसे अत्यं त सम्मागन की दृष्टिप से देखा जाता है। गांव का कोई कार्य पुजारी की सलाह के बिना संपन्नर नहीं होता है। उसकी आवश्यमकताओं की पूर्ति गांववासी करते हैं। पुजारी प्रत्येंक घर से सुबह चढ़ाए गए चढ़ावे को एकत्रित करता है। घर की महिलाएं चढ़ावा और तैयार भोजन देने के लिए अपने घर के दरवाजे पर खड़ी होकर पुजारी का इंतजार करती रहती हैं। वह गांववासियों को त्यो हारों और अन्यो धार्मिक गतिविधियों में दिशा निर्देशन करने के अतिरिक्ता बच्चों को शिक्षा भी देता है।

भगवान बुद्ध का जन्म दिन और पुण्यत तिथि खाम्तीद लोग उल्लारसपूर्वक मनाते हैं। इन अवसरों पर बुद्ध के विचारों और उपदेशों की चर्चा की जाती है। इसके अतिरिक्तो संकेन पर्व भी खाम्तीु लोग परंपरागत उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हैं। यह नए वर्ष का पर्व है। खाम्ती् वर्ष के प्रथम दिन इस त्योरहार का आयोजन किया जाता है।संकेन का अर्थ है जलक्रीड़ा। इस दिन स्त्री -पुरुष और बच्चेा एक-दूसरे पर जल छींटते है और नव वर्ष की बधाई देते हैं। त्योदहार के कुछ दिन पहले से ही इसकी तैयारी आरंभ हो जाती है।गांव के नवयुवक एक अस्था ई चांग का निर्माण करते हैं तथा उसे फूल-पत्तियों से सजाते है। गोंपा से भगवान बुद्ध की मूर्ति को निकालकर अस्थामई चांग में स्थासपित किया जाता है। समारोहपूर्वक प्रतिमा को स्नाीन कराया जाता है। इस स्थतल को स्था्नीय भाषा में क्यांसग-फ्रा कहते हैं। मूर्ति पर जल का छिड़काव त्योाहार का प्रमुख आकर्षण होता है। पुजारीगण कुछ मंत्रों का उच्चामरण करते हैं तथा नवयुवक, पुरुष और महिलाएं नाचते-गाते मूर्ति पर जल चढ़ाते हैं। लड़के-लड़कियां एक-दूसरे पर जल और कीचड़ डालते हैं। सायंकाल में संपूर्ण ग्राम के निवासी उस स्थािन पर एकत्रित होते हैं और चांग में मोमबत्तीं जलाते हैं तथा सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं। दूसरे दिन प्रतिमा को अंतिम स्नागन कराकर पुन: उसे गोंपा में स्थाापित कर दिया जाता है। उस समय भी पुजारीगण कुछ मंत्रों का उच्चारण करते हैं।

तिब्ब ती-मंगोलियन मूल के सुंदर रंगरूप एवं चिताकर्षक शारीरिक गठनवाली शेरदुक्पेथन जनजाति अरुणाचल प्रदेश की एक महत्त्विपूर्ण जनजाति है। इनका कद मध्यशम होता है। अरुणाचल का पश्चि्मी कामेंग जिला इनका निवास स्था न है। प। कामेंग जिले का रूपा, जिगांव और शेरगांव नामक तीन गांवों में ही मुख्या रूप से इनकी अधिकांश आबादी निवास करती है। इस क्षेत्र की प्रमुख नदी कामेंग है जिसके नाम के आधार पर जिले का नामकरण किया गया है। बौद्ध धर्म की महायान शाखा में निष्ठा रखने वाली यह जनजाति शांतिप्रिय, शिष्टग, भद्र एवं दूसरों का आदर करने वाली है। इस समुदाय के लोग विश्वारसी और ईमानदार होते हैं। इनकी जनसंख्याभ लगभग तीन हजार है। ऐसी मान्यहता है कि इनके पूर्वज तिब्बीत से आए थे। कहा जाता है कि तिब्ब‍ती राजा के तृतीय पुत्र इनके शासक थे। राजा की पत्नीू असम की एक राजकुमारी थी। तिब्बाती सम्राट के प्रथम और द्वितीय पुत्र क्रमश: ल्हाससा और भूटान के शासक थे। इनका भूटान के साथ घनिष्ठ संबंध था। शेरदुक्पे्न समाज बौद्ध मतावलंबी है। ये लोग बौद्ध धर्म की महायान शाखा में विश्वांस रखते हैं। बौद्ध धर्म के साथ इसमें स्थायनीय लोक विश्वानस एवं परंपरा भी जुड़ गई है। भगवान बुद्ध को स्थावनीय भाषा में कोंचोजम कहा जाता है। भगवान बुद्ध अत्यंपत दयालु, चमत्का री और तेजस्वीा ईश्वार के रूप में प्रतिष्ठिथत हैं। इन लोगों की मान्यतता है कि देवी-देवताओं की निष्ठाेपूर्वक आराधना करने से वे हम पर प्रसन्नो रहते हैं तथा धन-धान्यत से परिपूर्ण करते हैं। गोम्बुज छा दकपा ऐसे देवता हैं जो दुष्टाित्मातओं से मानव की रक्षा करते हैं। गेपु नाम्से् मनुष्यज की कामना पूर्ण करने वाले देवता हैं। इसी प्रकार ग्रामदेवता, वनदेवता और स्व र्गदेव की भी पूजा-अर्चना की जाती है। इनका विश्वांस है कि सूर्य की संख्या सात है और ये सभी एक साथ रहते हैं।

इस समुदाय में पुजारियों को विशिष्ट स्थाीन प्राप्त है। पुजारी वर्ग के लोगों को सम्मायन की दृष्टिु से देखा जाता है। ये लोगों का दिशा-निर्देशन करते हैं, बुरी आत्मालओं से उनकी रक्षा करते हैं, रोगी लोगों को आरोग्यल करने के लिए ईश्वशर एवं देवी-देवताओं से प्रार्थना करते हैं। बिना पुजारी के शेरदुक्पे न लोगों का कोई संस्काकर संपन्नर नहीं हो सकता है। उन्हें लामा कहा जाता है। बौद्ध मठ को गोंम्पा कहा जाता है जो शेरदुक्पेनन लोगों की धार्मिक आस्थां का केन्द्रक बिन्दुै होता है। रूपा और शेरगांव दोनों गांवों में गोंपा है जिसमें तिब्बहती शैली में भगवान की अनेक मूर्तियां स्था पित हैं। रूपा ग्राम का गोम्पां शेरदुक्पेबन क्षेत्र का सबसे बड़ा और सबसे पुराना गोंपा है। प्रत्ये।क गोंपा में लामा होते है जो गोंपा की देखरेख और भगवान बुद्ध की पूजा करते हैं। गोंपा में जाने के लए एक मुख्योद्वार होता है जिसे काकालिंग कहते हैं। यह वर्गाकार होता है जिसमें पत्थनर से बनी दो समानांतर दीवार होती है और छत लकड़ी अथवा बांस की बनी होती है। इसमें भगवान बुद्ध और अन्यं बौद्ध दिव्यर आत्मााओं के चित्र होते हैं। रूपा और शेरगांव के मठों में भी काकालिंग बना हुआ है। शेरदुक्पेिन समुदाय के पर्व-त्योतहार कृषि पर आधारित हैं। ये लोग कई त्योकहार मनाते हैं जिनमें लोसर और छेकर सबसे महत्त्वपपूर्ण है। इन त्योोहारों में ये धन्यम-धान्यर और आरोग्य के लिए ईश्वूर से प्रार्थना करते हैं। लोसर नववर्ष का त्यो हार है। यह जनवरी के अंतिम सप्ता्ह से लेकर फरवरी के द्वितीय सप्तापह तक मनाया जाता है। त्योैहार के प्रथम दिन सभी ग्रामवासी ब्रह्ममुहूर्त में ही जग जाते हैं। ऐसी मान्य ता है कि इस दिन जो देर तक सोया रहेगा उसका आने वाला वर्ष सुखमय व्य तीत नहीं होगा। स्ना नादि के उपरांत लोग नए कपड़े धारण करते हैं और महिलाओं द्वारा बनाया गया बिस्कु ट खाते हैं। बिस्कुिट को खासपेर कहा जाता है। नास्तेा के बाद ये लोग मदिरापान करते हैं। इसके बाद लामा प्रत्येसक घर में जाकर पारंपरिक विधि से त्योाहार का संस्काार संपन्नक कराता है। पर्व के अंतिम दिन सभी ग्रामवासी गोंपा में जाकर ईश्वयर से अपनी सुख-समृद्धि और धन-वैभव की कामना करते हैं। त्योीहार के अंतिम चरण में सभी गांववासी किसी नदी या झरने के तट पर जाकर नाचते-गाते और खुशी मनाते हैं तथा एक-दूसरे पर जल का छिड़काव करते हैं। छोटा व्य क्तिा बड़े-बूढ़ों से आशीर्वचन लेता है और उनसे इनाम भी प्राप्तब करता है। छेकर भी इस समुदाय का एक महत्त्वतपूर्ण पर्व है। यह मई माह में एक सप्तानह तक मनाया जाता हैं। यह धन-धान्यक और सुखाकांक्षा से मनाया जाने वाला रंगारंग त्यो्हार है। इसमें भी भगवान बुद्ध एवं अन्य बौद्ध महापुरुषों की पूजा की जाती है। पर्व से संबंधित विधि-संस्का्र बौद्ध लामाओं के हाथों संपन्नी होता है। त्यो हार के प्रथम और दूसरे दिन संपूर्ण गांववासियों के कल्या‍ण और सुख के लिए लामा लोग बौद्ध मठों में प्रार्थना करते हैं। दुष्ट आत्मााओं को भी चढ़ावा चढ़ाया जाता है। लोगों का विश्वाठस है कि दुष्टे आत्मारएं अप्रसन्नि होने पर रोग का कारण बनती हैं। इसलिए इन्हेंा प्रसन्न करने के लिए चढ़ावा चढ़ाया जाता है।

अरुणाचल के लोहित, चांगलांग और तिरप जिलों में सिंहफो जनजाति का निवास है। सिंहफो लोग मंगोलियन मूल के हैं और इनकी औसत ऊंचाई पांच फीट छ: इंच होती है। इनकी नाक चपटी होती है और चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ का अभाव होता है। ये लोग बहुत परिश्रमी और उद्यमशील होते हैं। 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या 2, 798 है। इन लोगों के मूल निवास के संबंध में निश्चिीत रूप से कुछ कहना कठिन है लेकिन सामान्यम धारणा है कि ऊपरी बर्मा इनका मूल निवास स्था न था। ऐसा विश्वा स है कि सिंहफो लोगों का संबंध ऊपरी बर्मा (अब म्यां मार) के कचिन से है। म्यां मार से देशांतरित होकर जब ये लोग ब्रह्मपुत्र घाटी में बस गए, उसके बाद से उन्हेंस सिंहफो कहा जाने लगा। इनकी भाषा में सिंहफो का अर्थ मनुष्ये है। सिंहफो परंपरा के अनुसार इनका मूल निवास स्था न हुमांग घाटी था जो पतकई क्षेत्र के उत्त र-पूर्व में एक विस्तृपत भूभाग था। हुमांग स्व यं एक सिंहफो शब्दा है जिसका अर्थ होता है – मानव सिर का अवरोधक अथवा बाड़ (ह=मानव का सिर, कांग=आड या अवरोधक) यह नाम बर्मावासियों द्वारा सिंहफो लोगों के भीषण नरसंहार का संकेत करता है। कहा जाता है कि वह नरसंहार इतना भीषण था कि मानव के कटे सिर से ऐसा ऊंचा अवरोधक या आड़ बन गया जिसने बर्मावासियों को आगे बढ़ने से रोक दिया।

सिंहफो समाज बौद्ध धर्मावलंबी है। इनकी धार्मिक आस्थाा के अंतर्गत अनेक नत होते हैं जो मानव का कल्याधण करते हैं। सिंहफो लोग नत के अंतर्गत सभी दैवी शक्तिनयों की गणना करते हैं। कुछ नत अधिक शक्तितशाली होते हैं तो कुछ कम शक्तिगशाली समझे जाते हैं। विभिन्न अवसरों पर इन नतों की पूजा की जाती है और गाय, सूअर, मुर्गी, बकरा आदि की बलि दी जाती है। सिंफा नत, फन नत, सुसुम नत, बोम नत, इन्ला नत, कुनत, इंकानत इत्याीदि कुछ महत्त्वोपूर्ण नत हैं जिनके सम्मु ख सिंहफो समाज श्रद्धापूर्वक अपना सिर झुकाता है। इनमें से कुछ नतों को पशुबलि द्वारा प्रसन्नं किया जाता है और कुछ नत ऐसे भी हैं जो शाकाहारी व्यंछजनों द्वारा खुश होते हैं। लड़ाई में व्याक्ति जब घायल होता है तो पालन नत की पूजा की जाती है और यदि घायल व्यरक्तिं के शरीर से रक्त्प्रवाह हो रहा हो तो शमा नत की पूजा की जाती है। नलाशी नत आकाश का देवता है जो वर्षा और धूप देता है। जब सिंहफो समाज किसी विशेष अभियान पर जाता है तो जाने के पूर्व वह भैसों की बलि देकर अपने इष्टफ देव को प्रसन्नष करने का प्रयास करता है। यह समुदाय अनेक प्रकार के धार्मिक त्योेहार मनाता है जिनमें संकेन त्यो हार सबसे प्रमुख है। यह एक बौद्ध त्योोहार है जो चैत्र-बैशाख (मार्च-अप्रैल) महीने में मनाया जाता है। यह बौद्ध कैलेंडर के अनुसार नववर्ष का पर्व है। इस अवसर पर भगवान बुद्ध की प्रतिमा को समारोहपूर्वक स्नातन कराया जाता है। यह तीन दिनों तक मनाया जाने वाला पर्व है। पर्व क प्रथम दिन भगवान बुद्ध की मूर्ति को गोंपा से बाहर लाकर सुसज्जिनत पंडाल में स्थापपित किया जाता है और पारंपरिक रीति से लामाओं द्वारा मूर्ति को स्ना्न कराया जाता है। लोग नाच-गाकर खुशियां मनाते हैं तथा एक-दूसरे पर जल छीटकर नववर्ष की शुभकामनाएं देते है।

अरुणाचल की मेंबा और खंबा दोनों जनजातियों की आबादी बहुत कम है। 1991 की जनगणना के अनुसार मेंबा की जनसंख्या 1, 169 तथा खंबा की जनसंख्याक 1, 333 है। आर्थिक और सामाजिक दृष्टिम से ये जनजातियां बहुत पिछड़ी हुई हैं। भौगोलिक कारणों से ये लोग बाहरी दुनिया से कटे हुए हैं। आवागमन के साधनों का आभाव इनके विकास में बहुत बड़ी बाधा है। खंबा लोग यंग-संग-चु घाटी में और मेंबा लोग जेलिंग के निकट बसे हुए हैं। अरुणाचल के वेस्टो सियांग और अपर सियांग जिले इनके निवास क्षेत्र हैं। दोनों जनजातियां बौद्ध धर्म में विश्वागस रखती हैं। दुबा मेंबा जनजाति का प्रमुख त्योतहार है। यह त्यो हार एक सप्ता ह तक मनाया जाता है। टुटिंग का गोंपा इनके धर्मिक क्रियाकलाप का सबसे प्रमुख केंद्र है। पर्व के दिन रंग-बिरंगे कपड़ों में सुसज्जिकत होकर सभी लोग गोंपा में एकत्रित होते हैं। दुबा का शाब्दिाक अर्थ होता है बुरी शक्ति यों का विनाश। मेंबा परंपरा के अनुसार यह त्यो्हर लोगों की भलाई और समाज में सुख-शांति की स्था्पना के लिए मनाया जाता है। इस त्योसहार को मनाने से बुरी शक्तिमयों का नाश होता है और अच्छीर शक्ति यों की प्रबलता के कारण समुदाय के लोग सुखी और स्व स्थ रहते हैं। सभी लोग दुर्भाग्यन, रोग और प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा के लिए इष्टर देवता की प्रार्थना करते हैं। लोगों का विश्वािस है कि दुबा त्योकहार नहीं मनाने से वे सुखमय जीवन व्यसतीत नहीं कर सकते हैं। इस पर्व के अवसर पर अजगर, घोड़े, सिंह, बंदर इत्याीदि जानवरों के मुखौटे पहनकर लोग नृत्य करते हैं।