अरुण कमल की कविता का समाज शास्त्र / रवि रंजन
कश्चिद् वाचं रचयितुमलं श्रोतुमेवादsपरस्तां
कल्याणी ते मतिरुभयथा विस्मयं नस्तनोति।
नह्योकस्मिन्नतिशयवतां सन्निपातो गुणानां
मेक: सूते कनकमुपलस्तत्परीक्षा क्षमोद्sन्य:।।
-राजशेखर: ’काव्यमीमांसा’
(‘कोई ऐसा होता है, जिसमें काव्य-सृजन की क्षमता होती है। कोई ऐसा भी होता है, जिसमें कविता सुनने की क्षमता होती है. तुम्हारी कल्याणमयी बुद्धि दोनों में समर्थ है, इसलिए हमें चकित कर देती है. एक में इतने सारे गुणों का सन्निपात नहीं हो सकता. एक पत्थर होता है जो सोने को जन्म देता है और दूसरा पत्थर उस सोने की परीक्षा करने में सक्षम होता है. गरज़ कि तुम ऐसे दुर्लभ पाषाण हो, जो कंचन होने के साथ ही कसौटी भी हो।’)
“कविता में कथित से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है अभिप्रेत.एकतारे का बजता हुआ तांत यदि कथित है तो उसका कंपन अभिप्रेत या व्यंजित.कवि भी स्वर को पकड़ता है और पाठक को भी चाहिए कि वः उस स्वर को पकड़े.प्रत्येक भाव-दशा का अपना संगीत,अपनी लय, यानी अपना स्वर होता है.इस स्वर का अंकन,पुनर्लेपन,पुनर्रेखन – यही तो कविता का सम्पूर्ण चक्र है,कवि से पाठक तक. ...कविता हमें तब दुरूह मालूम पड़ती है जब हम उसकी स्वर-लिपि को ठीक-ठीक नहीं पढ़ पाते.कविता की स्वर-लिपि ही उसका वास्तविक या आभ्यान्तरिक पाठ है.”
- अरुण कमल: ‘गोलमेज़’, पृ.213
आचार्य राजशेखर की कृति ‘काव्यमीमांसा’ में मौजूद ऊपर उद्धृत श्लोक के बारे में माना जाता है कि इसे कविकुलगुरु कालिदास ने किसी ऐसे कवि की प्रतिभा पर रीझकर लिखा था, जो सुकवि होने के साथ-साथ एक विद्वान काव्य-मर्मज्ञ भी था । कहना न होगा कि यह बात एक हद तक हिन्दी के जिन गिनेचुने कवि-आलोचकों पर लागू होती है उनमें अरुण कमल भी एक हैं.
काव्यास्वाद के साथ ही रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की दृष्टि से अरुण कमल की रचना-रसोई वैविध्यपूर्ण है. इसमें एक से बढ़कर एक ऐसी कविताएँ मौजूद हैं जिनमें गत पचास वर्षों में भारतीय समाज के बदलते यथार्थ को कविता की ज़मीन पर पुनर्रचित किया गया है.उनके अब तक प्रकाशित सात कविता-संग्रहों (‘अपनी केवल धार’, ‘सबूत’, ‘नये इलाके में’, ‘पुतली में संसार’, ‘योगफल’, ‘मैं वो शंख महाशंख’, ‘रंगसाज की रसोई’) में आई रचनाएँ भारतीय समाज के सामूहिक अवचेतन में समय-समय पर उठने-गिरनेवाली भाव-तरंगों से निर्मित आधुनिक मनुष्य की अनुभूति की संरचना का एक ऐसा सौंदर्यबोधात्मक ख़ाका पेश करती हैं जिनकी समाजशास्त्रीय प्रामाणिकता स्वयंसिद्ध है. कहना यह है कि रचना-क्रम में सौन्दर्यबोध पर बल देने के बावजूद ये कविताएँ इतिहास-चेतना से लैस होने के कारण समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी प्रमाणिक हैं.कवि के शब्दों में “एक आवाज़ जो लोरी है और प्रभातफेरी भी.” (‘रंगसाज की रसोई’,पृ.7)
वस्तुत: अरुण कमल के सौन्दर्यबोध का दायरा इतना बड़ा है कि उसमें अमूमन उदात्त माने जानेवाले सौन्दर्य-तत्त्व के अलावा सदियों से व्यवस्था का नरक भोगने को अभिशप्त मनुष्य के जीवन की ‘कुरूपता का सौन्दर्यशास्त्र’ (‘एस्थेटिक्स ऑफ़ अग्लिनेस’) भी यथोचित स्थान पा सका है. कुरूपता को बुराई या अन्य नकारात्मक शब्दों के ज़रिए निर्मित पारम्परिक निन्दापरक अवधारणाओं में घटाकर देखे बगैर कवि ने उसे सौन्दर्य की प्रचलित धारणाओं के निषेध के तौर पर अनेक कविताओं में चित्रित किया है:
देखो हत्यारों को मिलता राजपाट सम्मान...
...प्रजातन्त्र का महामहोत्सव छप्पनविध पकवान
जिसके मुँह में कौर माँस का उसको मगही पान. (सबूत)
गौरतलब है कि सुस्वादु भोजन के बाद उत्तम कोटि का पान खाने से लाल हुए ओठों के सौन्दर्य-वर्णन से हमारा साहित्य भरा पड़ा है.यह एक प्रकार का अभिजन-सौन्दर्यबोध है, जिसके तहत माना जाता रहा है कि जो सद्पात्र नहीं है उसके मुँह में पान की लाली शोभायमान नहीं होती.विद्यापति की नायिका के शब्दों में ‘बानर मुह कि सोभय पान’. इससे विलग कवि अरुण कमल के लिए रात-दिन हाड़तोड़ किसानी-मजूरी करते कामगारों का खून जिनके मुँह में लगा है, उनको ‘मगही पान’ चबाते देखना एक अश्लील दृश्य से रूबरू होना है.कविता की इन पंक्तियों से गुज़रते हुए याद आ सकते हैं इम्बर्तो इको, जिनका कहना है कि हमारे ज़माने में सुन्दरता और कुरूपता के बीच का अंतर अतीत की तुलना में कम स्पष्ट है.कहना यह है कि जो चीज़ समाज के वर्चस्वशाली तबके के लिए सुन्दर, भव्य और सौन्दर्यबोध के स्तर पर स्वीकार्य है, वही अपनी प्रतिबद्धता एवं सामाजिक सरोकार के तहत कवि को अश्लील लग रही है और बहुत खल रही है. एडोर्नो के सौंदर्यशास्त्रीय सिद्धांत में बतलाया गया है कि कैसे शास्त्रीय सौंदर्यशास्त्र सामाजिक बहिष्कार के साथ अपने संबंधों के कारण कुरूपता को दबाता है, जबकि आधुनिक कवि कुरूपता को पूंजीवादी समाजिक संरचना की तर्कसंगति के विरोध के रूप में ग्रहण करता है.
अरुण कमल अपने समय में प्रचलित जातिगत एवं जेंडरगत भेदभाव के साथ ही ज़िंदगी जीने के लिए न्यूनतम सुविधाओं की कमी झेल रहे जन-समुदाय के जीवन का चित्रण करते हुए सामन्तवादी अवशेष के साथ ही वृद्ध-पूँजीवाद के अबाध प्रसार के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडे के विरुद्ध कला के स्तर पर कड़ा प्रतिरोध दर्ज़ करते हैं. ‘रंगसाज की रसोई’ कविता संग्रह की ‘एक बुलडोजर की गाथा’ कविता में हमारे समय में क़ानून के अनुपालन के नाम पर संविधान और न्याय-व्यवस्था को धता बताते हुए ‘बुलडोज़र न्याय’ का ‘नंगा नाच’ चित्रित करने के बाद इसके खिलाफ़ प्रतिरोध करनेवाले निहत्थे नागरिकों के सामने बुलडोज़र चलाने या चलवाने वालों की पराजय का विवरण देते हुए कहा गया है :
अपने राज में मैंने कितने ही घर ढाहे
उजाड़े झोंपड़े बस्तियाँ मदरसे खानकाह-....
अक्सर सोचता कोई मेरे आगे खड़ा क्यों नहीं होता
दस लोग भी सामने डट जाते तो मेरा लोहा काँच बन जाता
एक वीरांगना खड़ी हो गयी थी निहत्थे एक बार
और मुझे रुकना पड़ा था असहाय
पीछे मुड़ना मैं जानता नहीं पर मुझे लौटना पड़ा
अब चारों तरफ़ घनी रिहाइश है इतने इतने घर परिवार
और मैं बच्चों के खेल का मैदान हूँ
उसी बस्ती के बीच अंटका अजूबा,
वो ज़माना बीत गया वो हुक्मरान मर गए अपने ही भार से दब कर
काश मैं मिट्टी की गाड़ी होता ! (‘रंगसाज की रसोई’,पृ.66)
साहित्य का समाजशास्त्र इस बात पर बल देता है कि श्रेष्ठ रचना में चित्रण के स्तर पर यथातथ्यता और मूल्यनिर्णय की दृष्टि से प्रतिबद्धता होती है. विवेच्य कविता की कई विशेषताओं में से यह भी एक विशेषता है. ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो यह वास्तविक चेतना के बजाय संभाव्य चेतना की कविता है, जिसमें क़ानून और व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर हाल के दिनों में जिन लोगों के ऊपर अन्याय का क़हर बरपा किया गया है, उन दमित-पीड़ित लोगों पर लिखते हुए रचना में उनकी विजय का सपना देखा-दिखाया गया है.
कदाचित अपने रचना-कर्म का अहम मक़सद बयान करते हुए अरुण कमल ने लिखा है कि “कविता निर्बलों का बल है.कविता उसका पक्ष है जिसका कोई नहीं,जो सबसे कमजोर,सबसे असहाय है,जिस पर बाकी सबका बोझ है.” (गोलमेज़, पृ.213)
आज यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है कि बुलडोजर चलाकर समाज के किस तबके के ‘झोंपड़े बस्तियाँ मदरसे खानकाह’ आदि उजाड़ दिए गए.इस सन्दर्भ में मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले के एक पूर्व पार्षद की बहुत चर्चा हुई जिनका घर किसी स्त्री द्वारा यौन हिंसा का झूठा आरोप लगाए जाने के बाद सरकारी फ़रमान के तहत बुलडोज़र से गिरा दिया गया था,पर बाद में न्यायलय ने उन्हें निर्दोष करार दिया.
इस कविता में फैज़ की सुप्रसिद्ध नज़्म ‘...जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ रुई की तरह उड़ जाएँगे...’ की तर्ज़ पर रचित ‘वो ज़माना बीत गया वो हुक्मरान मर गए अपने ही भार से दब कर’ पंक्ति से गुज़रते हुए पवित्र बाइबिल में आए एक वचन के साथ ही महर्षि अरविन्द की ‘बाघ और हिरन’ कविता की उन पंक्तियों की बेसाख्ता याद आती है जिसमें कहा गया है कि एक दिन आएगा जब ताकतवर लोगों का उनकी ही ताकत से विनाश हो जाएगा और मारे गए लोग हत्यारे से बच जाएँगे:
But a day may yet come when the tiger crouches and leaps no more in the dangerous heart of the forest,
As the mammoth shakes no more the plains of Asia;
Still then shall the beautiful wild deer drink from the coolness of great pools in the leaves' shadow.
The mighty perish in their might;
The slain survive the slayer.
कहने की ज़रूरत नहीं कि यह एक ऐसा मानवीय सपना है जिसे इस धरती पर साकार करने के लिए न्यायप्रिय लोगों को अभी लम्बी लड़ाई लड़नी है.
संसार प्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ी बोरिस बेकर की ज़िन्दगी में आए उतार-चढ़ाव से प्रेरणा पाकर रचित ‘खेल’ कविता का लहज़ा दार्शनिक है.इसमें एक ओर महान खिलाड़ी बोरिस बेकर के जीवन की त्रासदी का मार्मिक चित्रण है,तो दूसरी ओर उस हादसे के बहाने इंसान की ज़िन्दगी के हासिल की शिनाख्त भी है.
विदित है कि बोरिस बेकर मात्र 17 साल की उम्र में विंबलडन चैंपियनशिप में अंतरराष्ट्रीय टेनिस परिदृश्य पर छा गए थे और अपने करियर के दौरान टेनिस में उन्होंने 49 एकल और 15 युगल खिताब जीते थे. बाद में वे विभिन्न व्यावसायिक उपक्रमों में शामिल हुए. उन्होंने टीवी कमेंटेटर के रूप में भी काम किया और 2013 से 2016 तक उन्होंने नोवाक जोकोविच नामक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी को कोचिंग दी, जिन्होंने उस दौरान छह ग्रैंड स्लैम खिताब जीते.
किन्तु, बोरिस बेकर को अनेक क़ानूनी मामलों का सामना करना पड़ा, जिनमें कर-चोरी का मामला बेहद संगीन था.उन्होंने इंग्लैंड में दिवालियापन के लिए आवेदन किया, लेकिन उन पर संपत्ति और ऋण छिपाने का आरोप लगा जो सन 2022 में सिद्ध हो गया और उन्हें दो साल और छह महीने की जेल की सज़ा हुई. हालाँकि, बेकर को केवल आठ महीने की सज़ा के बाद रिहा कर दिया गया और वे अपने गृह देश जर्मनी लौट आए.
अपनी रिहाई के बाद बी.बी.सी. से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि “जो कोई भी कहता है कि जेल का जीवन कठिन नहीं है,मैं सोचता हूँ कि वह झूठ बोल रहा है...यह बहुत ही क्रूर था... जो आप फिल्मों में देखते हैं, जो आपने कहानियों में सुना है यह उससे बहुत अलग अनुभव है. कैदियों को जीवित रहने के लिए हर दिन लड़ना पड़ता है. एक प्रसिद्ध टेनिस खिलाड़ी होने का जेल में कोई मतलब नहीं है, जहाँ मैं हत्यारों, ड्रग डीलरों, बलात्कारियों, तस्करों, ख़तरनाक अपराधियों से घिरा हुआ था. उन्होंने यह भी कहा कि “कारावास ने मुझे विनम्र बनाया है.. इसने मुझे एक मजबूत और बेहतर इंसान बनाया है.
‘खेल’ कविता में इस महान खिलाड़ी की गिरफ़्तारी के बाद उसके जेल में बिताए दिनों की व्यथा-कथा बयान करते हुए अरुण कमल लिखते हैं:
तब उसने जाना कि कैसी है दुनिया और कैसे-कैसे लोग-पेशेवर हत्यारे, दरिन्दे,
भाड़े के खूनी, खूँखार नशेड़ी
और यह भी कि कोई अचानक तुम्हें मार सकता है बेवजह
और यह भी कि ऐसे भी लोग होंगे जो तुम्हें बचा लेंगे दौड़कर
कविता के अंत में ग़ालिब के ‘बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे’ की तरह मानव जीवन समेत तमाम दुनियावी गतिविधियों को एक खेल बताया गया है:
ज़िन्दगी के खेल में कोई हार जीत नहीं होती
तुम बस अपनी दौड़ दौड़ते हो जितना दौड़ सको-
अचानक मिट्टी धँसेगी और तुम गिरोगे भहराकर
इतना ही नहीं, परामर्श की मुद्रा में मानव-जीवन जीने की कला बयान करते हुए कवि कहता है:
दुनिया को सिर्फ़ ऐसे ही नहीं देखो जैसे पहली बार देख रहे हो
दुनिया को ऐसे भी देखो जैसे आखिरी बार देख रहे हो –
टपकती हुई शहद की बूँद जीभ पर लोक लो. (पृ.16)
कविता की अंतिम पंक्ति में बौद्ध जातक कथा की रचनात्मक अंतर्ध्वनि सुनाई पड़ती है जिसमें एक दृष्टांत के सहारे जीवन-सत्य का विलक्षण शैली में साक्षात्कार कराया गया है:
“जंगल में अचानक बाघ को देखते ही कोई आदमी घबराकर अँधे कुएँ में कूद पड़ा और दीवार से लगी एक मजबूत टहनी से लटक गया.बहरहाल,उसकी जान बच गयी.अब कुएँ के जगत पर बैठा बाघ उसे बाहर निकलते ही खा जाएगा और कुएँ की तल में उसे एक बड़ा ज़हरीला नाग दिखाई दे रहा है जो उसे डँसने के लिए तैयार बैठा है. उस आदमी की मुश्किल यह है कि वह इस स्थिति से निज़ात कैसे पाए.क्या खाए,क्या पिए, करे तो क्या करे ? किन्तु,उसी कुएँ की दीवार पर मधुमक्खी का छत्ता है,जिससे कभी-कभार शहद की बूँद टपकती है, जिसे चाटकर वह आदमी किसी तरह ज़िंदा है.”
इस रचना में ‘कल तक सब कुछ था आज कुछ भी नहीं /हर क़दम पर चल रही है मौत उल्टे पाँव’ जैसी पंक्ति से गुज़रते हुए याद आते हैं ग़ालिब, जिन्होंने जीवन की अनिश्चितता को रेखांकित करने के क्रम में ख़ुद को सम्बोधित करते हुए कहा है कि हमें अपने वुजूद के धोखे में नहीं आना चाहिए क्योंकि ये पूरी कायनात सिर्फ़ नज़र का धोखा है :
हस्ती के मत फ़रेब में आ जाइयो ‘असद’
आलम तमाम हल्क़ा-ए-दाम–ए-ख़याल है.
दुनिया-भर के पुराने-नए साहित्य में महान काव्यशास्त्रियों के साथ ही ख़ुद कवियों द्वारा चिंतनपरक गद्य के अलावा कविता में भी कविता को बार-बार परिभाषित करने की चेष्टा होती रही है. संस्कृत काव्यशास्त्र में भरतमुनि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक,अंग्रेज़ी में चौसर,शेक्सपीयर से लेकर ‘लिरिकल बैलेड्स’ की भूमिका और एलियट की बहुचर्चित पुस्तकों तक,हिन्दी में रामचन्द्र शुक्ल के ‘कविता क्या है’ शीर्षक विनिबंध लेकर दिनकर जी द्वारा ‘छायावाद का मेनिफेस्टो’ कही गयी ‘पल्लव’ की भूमिका, जयशंकर प्रसाद की ‘काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध’ पुस्तिका, निराला की ‘प्रबंध पद्म’ पुस्तिका, नामवर सिंह की ‘कविता के नए प्रतिमान’ और अरुण कमल की ‘कविता और समय’ जैसी पुस्तकों में कविता को परिभाषित करनेवाले अनेक महत्त्वपूर्ण सूत्र विद्यमान हैं. पर मार्क्स द्वारा ‘मानवता की मातृभाषा’ कही गयी इस विधा को लेकर संसार के तमाम बड़े कवियों ने अपनी रचना में ऐसा बहुत कुछ लिखा है जिसे आलोचना की भाषा में कहना शायद नामुमकिन है.उदाहरण के लिए धूमिल जब कविता को ‘भाषा में आदमी होने की तमीज़’ कहते हैं तो पाठक के मन-मस्तिष्क में एक कौंध पैदा होती हैं. इसी प्रकार अरुण कमल भी कविता को ‘हाँफते हुए आदमी की ताली’ बताते हुए बरसात के समय अपने छोटे बच्चे को गोद में लिए एक ऐसे बुजुर्ग का चित्र खींचते हैं जो रास्ते में साँप के भय से ताली बजाते हुए तेज़ क़दमों से चलता हुआ हाँफ रहा है.
‘रंगसाज की रसोई’ संग्रह की ‘सुराग’ कविता पर विचार करते हुए याद आते हैं निर्मल वर्मा जिन्होंने लेखक को आत्मा का जासूस कहा है. कोई कवि इस जासूसी के क्रम में वस्तुस्थिति का जो विवरण कविता में पेश करता है वह उस ज़माने में लिखी समाजविज्ञान की पुस्तकों में एक तो दर्ज़ नहीं हो पाता और अगर कहीं आंकड़े की शक्ल में दर्ज़ होता भी है तो वह आम आदमी की सुषुप्त संवेदना के जगाने में प्राय: समर्थ नहीं होता है. इस सन्दर्भ में मार्गरेट हार्कनेस को लिखे पत्र में बालज़ाक के उपन्यास की प्रशंसा करते हुए एंगल्स के एक बहुउद्धृत कथन को याद करना प्रासंगिक होगा जिसमें कहा गया है: "ला कॉमेडी ह्यूमेन" में हमें फ्रांसीसी समाज का, विशेषकर पेरिस के सामाजिक जीवन का सबसे शानदार यथार्थवादी इतिहास मिलता है... बालज़ाक ने फ्रांसीसी समाज का संपूर्ण इतिहास अपने लेखन में इस कदर समाहित किया है कि मैंने उससे आर्थिक मामले में भी उस अवधि के सभी कथित इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों और सांख्यिकीविदों से अधिक सीखा है.”
अरुण कमल की ‘सुराग’ कविता भी प्रकारांतर से इसी तथ्य की ओर इशारा करती है :
सब कुछ धुल जाए छुट जाएँ सारे दाग
इतिहास समाजशास्त्र ज्योतिष विज्ञान धर्मशास्त्र
जब दे दें दगा
कहीं से कोई ख़बर नहीं
पूछताछ की सारी खिड़कियाँ बंद...
...जब कहीं कोई उम्मीद नहीं
तब कविता के पन्ने खोलो शीर्ण,और रक्खो शलाका...
सब मिलेंगे वहाँ...
हर जन्म हर मृत्यु हर प्रणय पंजिका –
इस ज़िन्दगी इस मौत इस खून का गवाह चश्मदीद
आँसू की पहली बूँद खून का आखिरी क़तरा अंतिम खोखली साँस ! (पृ.11)
वाल्टर बेन्यामिन ने कवि-कर्म को अपने समय की सक्रिय बराबरी में लाने के लिए जिस ‘तात्कालिक भाषा’ के रचनात्मक इस्तेमाल की वकालत की है उसे उनके ही शब्दों में “किताबों की सार्वभौमिक शक्ल के बजाए सक्रिय समाजों में अपने प्रभावों के अनुकूल छद्म-रहित रूपाकारों में पालना –पोसना होता है –पर्चों में,छोटे-छोटे अख़बारी लेखों में और नारों की तख्तियों में.” बेन्यामिन के अनुसार ऐसा करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि “सच्ची साहित्यिक गतिविधियाँ केवल साहित्यिक ढाँचे से प्रेरणा ग्रहण नहीं कर सकतीं. वह तो उसकी जीवंतता-रहित अभिव्यक्ति मात्र हैं.साहित्य का महत्त्वपूर्ण प्रभाव सिर्फ़ लेखन और कर्म – कर्म और लेखन की नियमित अदला-बदली से ही संभव है.”
हिन्दी में बहुत पहले रामचन्द्र शुक्ल पर मोनोग्राफ़ तैयार करते हुए कवि-आलोचक मलयज ने अपनी मनोवांछित कविता की तस्वीर पेश करते हुए लिखा था : “भाषा के भीतर जो अनुभूति है,भाषा के बाहर वही कर्म है.कविता इन दोनों की संधि पर है.कविता सच्ची बनती है भाषा के भीतर की अनुभूति से और बड़ी बनती है भाषा के बाहर के कर्म से.बौने जीवन से बड़ी कविता नहीं पैदा होती.पर जीवन बौना कर्म की असिद्धि से नहीं,कर्म-क्षेत्र की विविधता का अनुसंधान न करने से बनता है.”
कहना यह है कि कवि के जीवनानुभवों का दायरा जितना बड़ा होगा,उसकी काव्यानुभूति में उतनी ही व्यापकता और गहराई होगी. अपने एक वक्तव्य में अरुण कमल कहते हैं कि “कविता सम्पूर्ण जीवन की कविता हो, ऐसा ही मैंने सोचा और चाहा. भाषा भी एक तरह की नहीं,सब तरह की हो – मेरे भिक्षा-पात्र में हर घर का अन्न हो.”
‘रंगसाज की रसोई’ संग्रह में उन विषयों पर अनेक कविताएँ हैं जिन्हें पारंपरिक रूप में अक्सर कविता का विषय नहीं माना जाता रहा है. ऐसी कविताएँ कवि के व्यापक जीवनानुभव के साथ ही उनके गहरे सामाजिक सरोकार का पता देती हैं. ‘आज रात वह कहाँ सोएगा’ कविता में कवि मूसलाधार बारिश वाली रात में सड़क या मैदान जैसी सार्वजनिक जगहों पर सोने वाले बेघर लोगों की संभावित दुर्दशा से चिंतित है:
अपना बिस्तर काँख में दबाए
सोच रहा होगा
आज वह कहाँ सोएगा
सब अपने घरों में बंद
बल्ब की धूप में
आवाज़ें आ रही हैं
खाने की झगड़ने की
कोई औरत की, खिलखिलाने की
खामोशी बत्तियाँ बुझने की
आज वह कहाँ सोएगा. (पृ.28)
विदित है कि दुनिया-भर में लोगों के बेघर होने की समस्या अत्यंत विकट है और सत्ताधारी वर्ग से साठगांठ के आधार पर पनपते क्रोनी कैपिटलिज्म के इस दौर में यह लगातार विकराल होती जा रही है.वस्तुत: बेघर होना आवास के मानव-अधिकार का सबसे बड़ा उल्लंघन है और बेघर लोग, विशेष रूप से बेघर महिलाएँ,सबसे अधिक पीड़ित और भेदभाव का शिकार हैं. वजह यह कि बेघर स्त्रियों और बच्चों को प्राय: यौन हिंसा झेलनी पड़ती है. छेड़छाड़ के अलावा अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिए स्त्रियों का रातों की नींद हराम करना आम बात है. ग़रीबी, असुरक्षा, कुपोषण आदि से त्रस्त सड़क पर रहने वाले अधिकतर बच्चे भी यौन हिंसा समेत तरह-तरह के दुर्व्यवहार का शिकार होने के साथ ही अक्सर स्कूल जाने में असमर्थ होते हैं. स्पष्ट ही बेघर लोग प्राय: सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं एवं अन्य जन-कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित रह जाते हैं.
सन 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 1.7 मिलियन से अधिक बेघर लोग हैं, जिनमें से लगभग दो-तिहाई शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं. कुछ स्वयंसेवी संगठनों का कहना है कि यह आंकडा वास्तविकता पर आधारित नहीं है. उनका अनुमान है कि शहरी भारत की कम से कम एक प्रतिशत आबादी बेघर है. इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शहरी बेघरों की आबादी कम से कम 30 लाख है. भारत में सड़क पर रहने वाले बच्चों की संख्या भी दुनिया में सबसे अधिक है, लेकिन उनकी संख्या पर कोई आधिकारिक डेटा या उनकी विशेष जरूरतों और समस्याओं का समाधान करने के लिए उपयुक्त कल्याणकारी योजनाएँ सिरे से ग़ायब हैं. इस साल अगर जनगणना होती है तो संभव है कि कुछ और ठोस तथ्य सामने आएँ.
‘इस दु:स्वप्न का कोई अंत नहीं’ (‘नो एण्ड टू दिस नाईटमेयर’) शीर्षक से ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अलीशा दत्त की दिल दहलाने वाली रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली में बैलून बेचकर रोजाना डेढ़ से दो सौ रूपये कमाने वाला परिवार एक ख़स्ताहाल ‘रात्रि आश्रय’ (नाईट शेल्टर) में रहने को मजबूर है,जहाँ गर्मी, सर्दी, वर्षा आदि से बचाव के साथ ही शौचालय का कोई सही इंतज़ाम नहीं है और उन्हें तरह-तरह की बीमारियों से ग्रस्त भिखाड़ियों, नशेड़ियों और छोटे अपराधियों से अपने बच्चों की सुरक्षा की चिंता सताती रहती है.
‘बेघर होना’ या ‘घरविहीनता’ एक विश्वव्यापी समस्या है और विकासशील कहे जाने वाले देशों के साथ ही विकसित देशों में भी खून जमा देनेवाली सर्दी और बर्फ़बारी में सड़क किनारे ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए अभिशप्त लोगों की कमी नहीं है. ऐसे में अरुण कमल की तरह वहाँ भी माया एंजेलो समेत अनेक रचनाकारों ने इस मुद्दे पर कविताएँ लिखी हैं. ‘घरविहीनों के मित्र’(‘फ्रेंड्स ऑफ़ होमलेस’) नामक स्वयंसेवी संगठन के संस्थापक जैकब फोल्गेर सेना में भर्ती होने के पहले ख़ुद लगभग अठारह साल की आयु तक बेघर रहे. ‘हालाँकि मैं चाहता हूँ’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं:
मुझे बस यही बैग मिला है
फटा हुआ और बहुत घिसा हुआ
मेरे अपने कहने के लिए मोज़ों की एक जोड़ी
मेरे सिर छुपाने के लिए भी जगह नहीं है.
अपना खाना खरीदने के लिए भीख मांगो
कोई कांटा या चाकू नहीं, यार यह कच्चा है !
काश मुझे पता होता कि मैं क्या कर सकता हूँ
लोग बढ़िया बिज़नेस सूट पहनकर गुज़र रहे हैं
मानो मैं यहाँ हूँ ही नहीं
‘मैं एक आदमी हूँ!’ मैं चिल्लाना चाहता हूँ
इस जीवन को उजागर करना कठिन है.
कोई नौकरी नहीं है
इसलिए मैं बैठकर बेहतर चीज़ों की उम्मीद करता हूँ
मैं अपना फटा हुआ थैला व्यवस्थित करता हूँ
दुखी न होने के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े.
सूरज डूब रहा है, रात हो गई है
मेरी लड़ाई अभी शुरू हुई है
मैं प्रार्थना करता हूँ कि इसके पूरा होने से पहले मैं रुकूंगा नहीं
हालाँकि मैं चाहता हूँ कि मेरा जीवन ख़त्म हो जाए.
(अनुवाद: रवि रंजन)
‘आज रात वह कहाँ सोएगा’ से भिन्न भावभूमि पर रचित ‘निष्कासन’ कविता मजाज़ की ‘शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ’ नज़्म के साथ ही केदारनाथ सिंह की ‘जाना’ कविता की याद दिलाती है:
निकलो बाहर,उसने ढकेलते हुए कहा और
किवाड़ भिड़ा लिए.
रात थी ठंड और शीत से भारी,सड़कें खाली,खिड़कियाँ बंद
कहाँ जाऊँगा अनजान शहर में इस रात
खड़ा रहा कुछ देर देखता रहा वह दरवाज़ा जो अभी तक
मेरी ओट था अँधेरे ठण्डे अनजान संसार में;
अचानक मेरे लिए कोई जगह नहीं संसार में
मैं गिर पड़ा हूँ पृथ्वी से छूटकर असीम
हिम अन्धकार में
मेरा जीना मेरा मरना सब दूसरों का खेल
मैं उखड़ा हुआ दांत मैं अनचाहा गर्भपात
इतना घना कुहासा इतना अन्धकार
रात का वो पहर जब सबसे ज़्यादा होती है रात ...
और मैंने मौत का पहला स्वाद चखा –
उस सूखे कुएँ के पास बस याद रह गयी है जल की
और एक नागिन का ज़हर ! (पृ.18)
कविता की अंतर्वस्तु संकेत देती है कि यहाँ मामला रात में सोने की जगह तलाशते किसी बेघर आदमी के भटकने से अलग किस्म का है. ‘निष्कासन’ के पहले जिस घर में कविता का ‘मैं’ रह रहा था, वह उसके लिए वस्तुत: घर के बजाए मकान था. कहना यह है जहाँ रात में कोई किसी को ‘निकलो बाहर’ कहते हुए धक्का देकर किवाड़ बंद कर लेता हो वह क़त्तई घर नहीं कहा जा सकता है.गौरतलब है कि जो निकालने वाला है- वह स्त्री-पुरुष में से कोई हो सकता है.इस कविता का ‘मैं’ भी स्थिति-विशेष में पुरुष या स्त्री में से कोई भी हो सकता है.यह अलग बात है कि ‘निष्कासन’ कविता में ‘मैं’ के लिए जिन क्रिया पदों का इस्तेमाल हुआ है और कविता के अंत में जिस तरह ‘सूखे कुएँ के पास...नागिन का ज़हर’ की याद का उल्लेख किया गया है,उससे ‘निष्कासन’ के ‘मैं’ के पुरुष होने को लेकर कोई संशय नहीं रह जाता. यहाँ जिस नागिन के ज़हर की याद का उल्लेख है वह निराला की ‘कंठ लगी उरगी’ से नितांत भिन्न एवं विपरीत है.
यह सच है कि पितृसत्तात्मक समाज में सदियों से स्त्रियों के साथ होने वाली यौन हिंसा और तरह तरह की मानसिक एवं शारीरिक प्रताड़ना दुर्भाग्यवश हमारे समय में ‘निर्भया क़ानून’ के बावजूद और अधिक वीभत्स एवं विकृत रूप में घटित हो रही है.पर इसके साथ ही सचाई का एक दूसरा पहलू भी मीडिया के माध्यम से कभी-कभार सामने आता है जिससे पता चलता है कि इस तथाकथित उत्तर-आधुनिक युग में सभ्य एवं संभ्रांत दिखाई देने वाले स्त्री-पुरुष के बीच संबंधों की गतिकी में आए अकल्पनीय परिवर्तन से परिवार नामक संस्था धीरे-धीरे अप्रासंगिक होती जा रही है. सच तो यह है कि ‘जाना’ अगर, बकौल केदारनाथ सिंह,‘सबसे खौफ़नाक क्रिया है’, तो घर से निकालने या निकाले जाने वाले के जेंडर से निरपेक्ष होकर कहा जा सकता है कि ‘निष्कासन’ कविता ‘जाना’ से कहीं ज़्यादा भयावह पारिवारिक माहौल की ओर संकेत करती है. इस रचना में ‘मेरा जीना मेरा मरना सब दूसरों का खेल / मैं उखड़ा हुआ दांत मैं अनचाहा गर्भपात’ पंक्ति में व्यक्त जीवन की निरर्थकता के मद्देनज़र अनायास ग़ालिब की याद आती है:
उग रहा है दर-ओ- दीवार पे सब्ज़ा ‘ग़ालिब’
हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है.
‘रंगसाज की रसोई’ की कविताओं से गुज़रते हुए हमें कुछ ऐसी कविताएँ मिलती हैं जिनमें बाह्य जगत के बजाय मनुष्य के अंतर्जगत की धीमी अनुगूँज सुनाई पडती है.इन कविताओं का स्वर अरुण कमल की पूर्ववर्ती कविताओं से भिन्न एवं विशिष्ट है.इनमें कवि ने मानव-मन के गह्वर में होने वाले उस आर्तनाद को वाणी दी है जिसकी प्रतिध्वनि हमें संस्कृत-प्राकृत समेत दुनिया की तमाम भाषाओं में काव्य-सृजन करनेवाले अनेक बड़े कवियों के यहाँ सुनाई पड़ती है.ये कविताएँ अपनी परम्परा से गहरे जुड़कर उसे आगे बढ़ाती हैं:
फूल लाया हूँ बेलपत्र और धतूरे की दुंदुभी आशुतोष
तेरा ही मास है मासों में श्रेष्ठ
खोल दो जटा पी लूँ नहा ले सूखी देह
माँ पार्वती शक्ति दें
देख सकूँ चतुर्दिक फैलता कंठ का नील
वन्दे जगत: पितरौ (पृ.111)
इस कविता में ‘रघुवंशम्’ के मंगलाचरण के रूप में अनुष्टुप छंद में रचित सुप्रसिद्ध श्लोक की स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है :
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ।।
सवाल है कि इक्कीसवीं सदी के हमारे हिन्दी कवि को कालिदास से जुड़ना क्यों ज़रूरी लगा और उसने इस श्लोक में क्या कुछ नया जोड़ा है. इसका उत्तर पाने के लिए हमें इस कविता की वैधानिक एवं भाषिक संरचना में गोताखोरी करने की ज़हमत उठानी होगी. कालिदास वाणी और अर्थ की सिद्धि के निमित्त वाणी और अर्थ की तरह सम्पृक्त पार्वती एवं शिव की वन्दना करते हैं. कहना न होगा कि कोई भी गंभीर कवि पर्याप्त प्रतिभा का धनी होने के बावजूद जीवनपर्यन्त वाणी और अर्थ की सिद्धि के लिए ही भारतीय काव्यशास्त्र में बहुविध विवेचित ‘व्युत्पत्ति’ और ‘अभ्यास’ की ओर प्रवृत्त रहता है.जो लोग ख़ुद को सिद्ध कवि मानकर मनमाना लेखन करते हैं उनकी कविता में भाषिक स्खलन देखने को मिलता है,जो प्रकारांतर से रचनाकार के नैतिक स्खलन का परिचायक होता है.
अरुण कमल द्वारा इस कविता में प्रयुक्त भगवान शिव के हजार नामों में से एक ‘आशुतोष’ शब्द भी सोद्देश्य है,क्योंकि इसका अर्थ है जिसे आसानी से संतुष्ट किया जा सके. आशुतोष को प्रसन्न करने के लिए वैष्णव मंदिरों में चढ़ाए जाने वाले ‘छप्पन भोग’ या शाक्त पूजा-पद्धति में दी जाने वाली पशु-बलि के बजाए जलाभिषेक के साथ बेलपत्र और धतूरा पर्याप्त है. गोस्वामी तुलसीदास भी ‘रामचरितमानस के ‘अयोध्याकाण्ड’ में यथास्थान ‘शिव’ के लिए ‘आशुतोष’ शब्द का प्रयोग करते हुए याचना करते हैं कि आप शीघ्र प्रसन्न होनेवाले और मुँहमाँगा दे डालने वाले हैं.इसलिए मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुःख को दूर कीजिए:
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी । आरति हरहु दीन जनु जानी ।।
विवेच्य कविता में ‘खोल दो जटा पी लूँ नहा ले सूखी देह’ अरुण कमल की मौलिक उद्भावना है. शिव की बंधी जटा वाला रूप ही कवियों के लिए काम्य रहा है,क्योंकि जटा तब खुलती है जब वे तांडव करते हैं और उससे विनाश होता है. महाकवि विद्यापति की पार्वती जब शिव से नृत्य करने का अनुरोध करती हैं तो शिव उनके अनुरोध को प्यार से टालने के लिए कहते हैं कि जटा खुलने से जब गंगा छलकने लगेंगी तो उस सहस्त्रमुखी धार को समेटना असंभव होगा :
जटासँ छिलकत गंगा भूमि भरि पाटत हे॥
होएत सहस मुखी धार समेटलो नहीं जाएत हे॥
इस पद के अंत में विद्यापति कहते हैं कि पार्वती की बात का मान रखते हुए शिव ने अंतत: नृत्य तो किया पर दुनिया को संभावित ख़तरे से बचा भी लिया.
अरुण कमल की कविता में ‘देख सकूँ चतुर्दिक फैलते कंठ का नील’ भी उनकी मौलिक उद्भावना है. रामायण, महाभारत आदि से लेकर ‘शिवमहिम्न स्त्रोत’, ‘भागवत महापुराण’ और ‘रामचरितमानस’ आदि में शिव को बारम्बार नीलकंठ कहा गया है. श्रीमद्भागवत के चौथे अध्याय में- ‘तत्पहेमनिकायाभं शितिकण्ठं त्रिलोचनम्’ कहकर भगवान शिव के नीलकंठ वाले सौम्य रूप का वर्णन किया गया है. अरुण कमल की कल्पना एक हद तक ‘शिवमहिम्न स्त्रोत’ में आए एक छंद से कुछ-कुछ मेल खाती प्रतीत होती है जिसमें शिव की यह कहते हुए प्रशंसा की गयी है कि जब समुद्र से भयावह कालकूट विष प्रकट हुआ और असमय ही सृष्टि के विनाश के ख़तरे से सब भयभीत हो गए तब शिव ने संसार के रक्षार्थ विषपान किया जिसके प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया जिससे उनकी शोभा में वृद्धि हुई, क्योंकि कल्याण का कार्य सुन्दर ही होता है:
‘...स कल्माष: कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोsपि श्लाघ्यो भवन-भय-भंग-व्यसनिन:॥’
विवेच्य कविता में ‘चतुर्दिक फैलते कंठ का नील’ देखने की कवि की इच्छा वस्तुत: उसके सौन्दर्यबोध की व्यापकता का परिचायक है जिसके मूल में वह क्रांतिकारी अवधारणा बद्धमूल है कि दुनिया की बेहतरी के लिए उठाया जाने वाला हर ज़ोखिम सुन्दर होता है.
‘रंगसाज की रसोई’ में ‘एक भक्त के निवेदन’ जैसी कुछ और कविताएँ हैं जो प्रार्थना के शिल्प में रचित होने के बावजूद आधुनिक मनुष्य की निरीहता के साथ ही उसके दृढ़ संकल्प को व्यक्त करती हैं. भक्ति संवेदना की ज़मीन पर रचित इन गद्य-कविताओं को मध्यकालीन भक्तिकाव्य के साथ ही निराला की ‘अर्चना’,’आराधना’ आदि संग्रहों में आए गीतों की भावभूमि से आसानी से अलगाया जा सकता है.पर इन सारी रचनाओं में अंत:सलिला की तरह वह मौन और विनम्रता मौजूद है जो किसी भी रूप में अंधधार्मिकता, अंधश्रद्धा एवं धार्मिक उन्माद को मनुष्य के पास फटकने नहीं देता.याद आते हैं रूमी, जिनका कहना है कि “मौन ही ईश्वर की प्रथम भाषा है,बाकी सब स्तरहीन अनुवाद है.” (Silence is the language of god, all else is poor translation.) इसी मौन-मुद्रा में रचित एक गद्य-कविता में यमुना के तट पर सूरदास की कुटी ढूँढ़ते हुए कवि को जब एक सौध और बहुत पहले सूख चुका एक बहुत पुराना कुआँ मिलता है तो उसका कहना है:
“कविता का कुआँ कभी नहीं सूखता.कविता का कुआँ हमेशा जल से भरा रहता है,झमकता जल और श्याम घन.जितना बड़ा कवि उतना भरा गहरा कुआँ; उतनी ही अधिक नदियों का जल अन्दर ही अन्दर आ आ कर जुटता, दुनियाँ भर की नदियाँ झरने.” (पृ.98)
प्रकारांतर से यहाँ श्रेष्ठ सृजन की प्रक्रिया को संश्लिष्ट शैली में बयान करते हुए संकेत किया जा रहा है कि बड़े रचनाकार की भावभूमि और विचारभूमि संसार-भर के काव्य-स्रोतों और वैचारिकता से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करती है. यह अरुण कमल की विनम्रता है जब वे कहते हैं कि उस विराट रचना-स्रोत से यथोचित ग्रहण करने के लिए जिस रचनात्मक सामर्थ्य की ज़रूरत होती है, वह उनमें पर्याप्त मात्रा में नहीं है :
“पर डोरी तो चाहिए और डोल.और प्रभु डोरी ही हमेशा कम पड़ जाती है,और मेरी बाहें भी तो छोटी है.” (पृ.98)
इसी प्रकार कवि कुलगुरू को याद करते हुए ‘क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः। तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्।।’ (कहाँ तो सूर्यवंश/रघुकुल और कहाँ अल्पज्ञान वाली मेरी बुद्धि.फिर भी मैं मोहवश उसका उसी प्रकार वर्णन करना चाहता हूँ जैसे कोई छोटी डोंगी से दुस्तर समुद्र को पार करना चाहता हो.) की तर्ज़ पर अरुण कमल लिखते हैं:
“इतने प्रान्तरों पर्वतों नदी समुद्रों की गंध आती है रह रह और उन उँगलियों के उष्ण दाब हैं शेष . मैं कितना अक्षम, निर्बल अल्पमति हूँ प्रभु. (पृ.109)
मध्यकाल में तुलसीदास ने विनम्रतावश कहा था कि “मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ.” आज कोई आधुनिक कवि यदि अपनी विनम्रता व्यक्त करने के लिए कबीर, जायसी, सूर या तुलसी के लहज़े का इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा तो वह दिखावे की विनम्रता मानी जाएगी. इसलिए अरुण कमल ने ‘मैं बालक बहियन को छोटो’ वाले चुटीले अंदाज़ में अपनी बात रखी है.
‘रंगसाज की रसोई’ में अरुण कमल के कवि-व्यक्तित्व में दिखाई दे रही स्थितप्रज्ञता और विलक्षण औदात्य का अंत:साक्ष्य प्रस्तुत करने में समर्थ अनेक कविताओं से गुज़रते हुए हेगेल के एक कथन की याद आती है जिसमें कहा गया है कि वस्तुस्थिति की सही समझ घटनाओं के घटित होने के बाद ही प्राप्त की जा सकती है, जैसे दिन के अंत में अंधेरा होने पर ज्ञान की देवी का वाहन उल्लू उड़ान भरता है.(“The owl of Minerva spreads its wings only with the falling of the dusk")
इस संग्रह की कुछ कविताओं में श्रम के सौन्दर्य की महिमा का गुणगान करते हुए आधुनिक युग में बौद्धिक श्रम एवं शारीरिक श्रम के बीच भेद करनेवाले उस मध्यवर्गीय नज़रिए का प्रत्याख्यान मिलता है, जो क़लम को कुदाल से श्रेष्ठ मानकर चलता है:
ईंट जोड़नेवाले मिस्त्री
बोलते जाते हैं जोर जोर लगातार
ईंट उछालते लोकते जमाते
वैशाख के रौद्र में;
एक किशोरी कसीदाकारी कर रही है
दोनों होंठ दबाए खामोश
बस एक सूई एक धागे की ध्वनि में
पल्ले की ओट
मेरा काम दोनों ही जैसा है एक साथ
मैं दोनों ही हूँ एक वक़्त
मिस्त्री और किशोरी. (पृ.78)
ऊपर उद्धृत कविता से गुज़रते हुए याद आते हैं केदारनाथ अग्रवाल जिनकी श्रमिकों पर लिखी कविताओं में शारीरिक श्रम एवं बौद्धिक श्रम के बीच विभाजक रेखा को नकारते हुए कहा गया है :
छोटे हाथ सबेरा होते लाल कमल से खिल उठते हैं
करनी करने को उत्सुक हो धूप हवा में हिल उठते हैं
छोटे हाथ गुनी ज्ञानी हैं मौलिक ग्रंथों को रचते हैं
मानव की सुन्दरतम कृतियाँ मानव को अर्पित करते हैं.
केदार जी की ऐसी कविताओं के आधार पर कुछ बड़े आलोचकों ने उनमें श्रम का सौंदर्यशास्त्र खोज निकाला है.हालाँकि वह अपने बीज रूप में कबीर, रैदास आदि कारीगर वर्ग से आनेवाले संत-भक्त कवियों के यहाँ भी विद्यमान है. अरुण कमल की ‘काम’ शीर्षक ऊपर उद्धृत कविता में कवि को एक ऐसे शब्द-श्रमिक के रूप में चित्रित किया गया है जो कठोर श्रम भी सौन्दर्य-नियमों के तहत करता है.
निराला, मुक्तिबोध एवं त्रिलोचन की प्रगीतात्मक शिल्प में रचित छोटी कविताओं का स्मरण कराती अरुण कमल की ‘पुकार’ कविता किसी लोभ या सम्मोहन के वशीभूत अपने लोगों के साहचर्य से भटककर दूर चले जाने की संभावित स्थिति में मनुष्य के अंतर्मन में होने वाले आर्तनाद को अनसुना न कर देने का निवेदन इन शब्दों में व्यंजित करती है:
आवाज़ मेरी डूबती सी दूर से आती लगे जब
तब समझना घिर गया हूँ
भटक अपने यूथ से वन में बहुत भीतर
या ले गयी है लहर कोई लोभ देती दूर
अपने क्रोड़ में
दिनरात घुटती छटपटाती देह
पीस अंतिम साँस तुमको टेरती जब
चुप न रहना बंद कर लेना न द्वार
बोलना तुम भी निकल बाहर सुनूँ या न सुनूँ ! (पृ.79)
साहित्य में अंतर्वस्तु एवं रूप के परस्पर सम्बन्ध पर चली बहस में हस्तक्षेप करते हुए कभी जार्ज लुकाच ने लिखा था कि साहित्य का रूप वस्तुत: उसकी थिराई हुई अंतर्वस्तु होता है. इससे विलग ख़ास तौर से कविता के क्षेत्र में हमें कुछ ऐसे विलक्षण उदाहरण मिलते हैं जिनमें, बकौल हर्बर्ट मारकुस, रचना की अंतर्वस्तु ही रूप में तत्त्वान्तरित हो जाती है.इस स्थिति में एक से बढ़कर एक ढली-ढलाई कविता का सृजन संभव होता है. इस दृष्टि से अरुण कमल की ‘पुकार’ के साथ ही ‘उर्वर प्रदेश और ‘दोस्त’ सरीखी अनेक कविताएँ बेसाख्ता याद आती हैं. उनकी ‘दोस्त’ कविता का मर्म समझने में नरोत्तमदास रचित ‘सुदामा चरित’ का उनका विवेचन-विश्लेषण बहुत दूर तक हमारी मदद करता है.
इटालो केल्विनो की एक रचना में जब मुख्य पात्र शहर आता है तो उसे यह देखकर ताज्जुब होता है कि यहाँ कोई पैदल नहीं चलता. वस्तुत: पैदल चलना मनुष्य की स्वाभाविक क्षमता का परिचायक है जिसका इस्तेमाल न करने पर धीरे-धीरे आदमी पैदल चलने लायक नहीं रह जाता. रोजा लक्ज़मबर्ग के लिए रचित ‘गरुड़’ शीर्षक कविता में अरुण कमल ठहरे हुए जड़ लोगों को जब ‘कूड़े के ढेर से बढ़ते पड़े पड़े’ कहकर दुत्कारते हैं, तो गतिशील एवं परिवर्तनकामी जनता के प्रति उनका रुख साफ़ दिखाई पड़ता है.वजह यह कि ठहरा हुआ जीवन जीने को अभिशप्त जन-समुदाय अपने पाँवों में पड़ी बेड़ियों का अनुभव नहीं कर पाता. यह ठीक उसी तरह है जैसे कि चुपचाप अन्याय झेलने का अभ्यस्त आदमी प्रतिकार में आवाज़ नहीं उठा पाता :
रोजा को अच्छे लगते थे वे लोग
जो पैदल चल सकें बहुत दूर
नापसंद थे ठहरे हुए लोग
कूड़े के ढेर से बढ़ते पड़े पड़े
इसके बाद कैफ़ी आज़मी की ‘सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो’ की तर्ज़ पर लोगों का आह्वान करते हुए कवि समाज में घर कर चुकी गुलामी की अनेकानेक संरचनाओं से मुक्ति के लिए लोगों को, बगैर यह जाने कि ‘कहाँ किधर कौन सा रास्ता है’, किसी यूथपति की तरह चलते रहने की सलाह देता है. वजह यह कि “हर रास्ता कहीं न कहीं जाता है बनता जाता है नया रास्ता/ ऐसा कोई अन्धकार नहीं जिसमें प्रकाश नहीं.”
प्रसंगवश अल्बेयर कामू की ‘अतिथि’ कहानी की याद न आए,यह नामुमकिन है.कहानी में एक फ्रांसीसी-अल्जीरियन शिक्षक को अरब गुलाम के रखवाले के रूप में चित्रित किया गया है जो मन ही मन चाहता है कि वह गुलाम उसके संरक्षण से भागकर मुक्त हो जाएँ. रात बीतने के बाद वह उसे खाना आदि मुहैया करवाता है और दो-तीन रास्ता दिखाते हुए कहता है कि यह उसकी इच्छा पर है कि वह या तो गुलाम बना रहे या अपनी सुरक्षा के हित में वहाँ से भाग निकले. कामू की कहानी में वह गुलाम स्वतंत्रता के ख़तरे उठाने के बजाय दासता का चुनाव है.
अरुण कमल की ‘गरुड़’ कविता में आह्वान की मुद्रा में दासता को चुपचाप स्वीकार कर लेने वाली मानसिक जड़ता का प्रतिपक्ष रचा गया है:
चलो चलें हम भी
चलोगे तब जानोगे पांवों की बेड़ियाँ
बोलो बोलो, वो जो कोई नहीं बोलता
तब जानोगे कितना मुश्किल है बोलना-
...चलो चलते चलो
यह मत पूछो कहाँ किधर कौन सा है रास्ता..
गरुड़ आज कितना भी नीचे क्यों न उड़े
गरुड़ ही उड़ सकता है सबसे ऊँचा. (पृ.64)
काव्य-सृजन की प्रक्रिया के बारे में कहा जाता है कि रचनाकार के रूप में कवि की ज़िम्मेदारी परंपरा में प्रशिक्षित होना, भाषा में डूब जाना, अभिव्यक्ति की संभावनाओं के प्रति जीवंत होना, शिल्प के प्रति सजग होना, जन-जीवन से जुड़ाव और निरंतर रचनारत रहना है. एक बनती हुई कविता अक्सर अपने बारे में एक असंगत भविष्यवाणी से कुछ अधिक होती है, जो कवि की संवेदना के साथ दुनिया में अपना अस्तित्व ग्रहण करती है. इस संग्रह की ‘रंगसाज की रसोई’ एक ऐसी ही कविता है,जिसमें कला की रचना-प्रक्रिया को ख़ूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है.
श्रेष्ठ कविता का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य प्रच्छन्न होता है और उसकी अर्थबहुलता प्राय: बहुसंदर्भ-मुखर होती है. याद आते हैं फ्रेडरिक जेम्सन, जिनके अनुसार बहुसन्दर्भ-मुखर पाठों की अर्थबहुलता किसी आलोचक की आकस्मिक सूझ के बजाए पाठ और परिप्रेक्ष्य के बीच मौजूद गहरी नातेदारी की क्रमबद्ध पहचान का नतीज़ा होती है. इस दृष्टि से विवेच्य संग्रह की ‘जिसने सहस्त्र चन्द्रमा देखे’, ‘वह बाज़ार ठठेरों का था’, ‘लुप्त जीवन की खोज में’ के साथ ही कई गद्य-कविताएँ बार-बार पढ़े जाने की मांग करती हैं.
प्राय: हर श्रेष्ठ कविता अपने आप में पूरी तरह से सम्पूर्ण होती है.इसे व्याख्या या विद्वत्तापूर्ण आलोचना द्वारा शत-प्रतिशत समझाया नहीं जा सकता है, चाहे आलोचक कितना भी साहित्यशास्त्रीय ज्ञान के उत्तुंग शिखर पर बैठे होने का दावा क्यों न करे.बावजूद इसके, आलोचकीय अर्थमीमांसा या व्याख्या-विश्लेषण के दौरान कई बार काव्यार्थ की ऐसी परतें भी खुलती हैं जिनसे कभी-कभार कवि भी अनजान हुआ करते हैं.इतना ही नहीं,कविता की नई व्याख्या देशकाल में परिवर्तन के साथ ख़ुद भी प्रकट हो सकती है,जिसे कविता का उत्तर-जीवन कहा जाता है. नामवर सिंह ने इस तथ्य की ओर इंगित करते हुए लिखा है: “कविता में मूल पाठ जैसी कोई चीज़ नहीं होती, यहाँ से वहाँ तक व्याख्या ही व्याख्या है.कोई सर्जनात्मक कृति इसीलिए कृति है कि वह स्थिर वस्तु नहीं है, जड़ पदार्थ नहीं है. पढ़ने की प्रक्रिया में ही काव्यकृतियाँ अर्थ ग्रहण करती हैं और सार्थक होती हैं. इस प्रक्रिया में कभी-कभी मूल पाठ इतना बदल जाता है कि मूल पाठ का पता लगाना भी कठिन होता है....सृजन से ग्रहण तक सम्प्रेषण की समग्र प्रक्रिया में काव्यकृति निरंतर उपजती है और उपजाई जाती है. यह ‘उपज’ ही उसका जीवन है.किसी कृति को जड़ पाठ से मुक्त करना ही उसकी प्रासंगिकता है.(वाद विवाद संवाद,पृ.71)
कविताएँ स्वभावत: संवेदनशील मनुष्य को ज़िन्दगी जीने में मदद करती हैं.सच तो यह है कि जब दुखी आदमी को दुनिया में कोई काम नहीं आता तब विद्यापति, कबीर, रैदास, जायसी, सूर, तुलसी सरीखे किसी सिद्ध कवि की प्रार्थना के शिल्प में रचित कोई काव्यपंक्ति उसे ढाढ़स बँधाती है.आधुनिकता के तमाम दावे के बावजूद विद्यापति का ‘कखन हरब दुःख मोर हे भोलानाथ’ गीत गाने और सुनने वाले लोगों की आज भी कमी नहीं है. इक्कीसवीं सदी में भक्तिकाव्य की अपार लोकप्रियता के साथ ही कृत्रिम मेधा वाले हमारे युग में अरुण कमल सरीखे यथार्थवादी कवि द्वारा ईश्वर से संवाद करते हुए काव्य-सृजन की ओर प्रवृत्त होना इसका एक बड़ा प्रमाण है. इससे भिन्न परिवर्तनकामी भावबोध के तहत रचित कोई यथार्थवादी कविता भी विपरीत स्थितियों में हमें संघर्ष जारी रखने की प्रेरणा देती है और यह अलग से बतलाना ज़रूरी नहीं है कि अरुण कमल के यहाँ ऐसी असंख्य कविताएँ मौजूद हैं.
हमारे इस बड़बोले समय में अरुण कमल की कविता हजारों फेसबुकीय मित्रों के बीच मित्रहीन जीवन जीने को अभिशप्त हँसते हुए अकेलेपन की यातना झेलते खुशहाल कहे जानेवाले मध्यवर्ग की बेचैनी के साथ ही वर्ण, जाति, वर्ग और जेंडर के तहत भेदभाव के अलावा न्यूनतम सुविधाओं से वंचित भयानक आर्थिक तंगी से जूझते निम्नवर्ग को गुलामी की संरचना से मुक्ति के लिए उकसाने वाला एक संजीदा दस्तावेज़ है.
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(अरुण कमल: ‘रंगसाज की रसोई’, कविता संग्रह, 2024, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, मूल्य ₹395, कुल पृष्ठ 115)
रवि रंजन, प्रोफ़ेसर एवं पूर्व-अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500046.