अरे, इतना दुःख ! / सांवर दइया
लाल जी चल बसे ! यह सुनते ही वे सभी आकुल-व्याकुल हो गए। एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ। आज सुबह ही तो उनका भाई अवकाश कुछ दिन और बढ़ाने के लिए प्रार्थना-पत्र दे गया था। लेकिन संयोग की बात कि अभी यह ख़बर लानेवाला भी वही था। लाल जी पिछले कई वर्षों से बीमार चल रहे थे। शुरू में तो बस इतना ही था कि वक़्त-बेवक़्त सिर-दर्द होता था। उस वक़्त-बेवक़्त के दर्द की परवाह उन्होंने कभी नहीं की। लेकिन जब यह सिलसिला कई महीनों तक चलता रहा तो आ़ख़िर हारकर पी.बी.एम. अस्पताल में जाकर डॉक्टर को दिखाना ही पड़ा। डॉक्टर ने कहा कि ब्रेन-ट्यूमर है। उनको अस्पताल में भर्ती होने की सलाह दी। लेकिन यह बात उनके घरवालों को जँची नहीं। अस्पताल और कचहरी से राम बचाए। वे स्वयं भी यही मानते थे। डॉक्टर की बात का कोई असर नहीं हुआ। भर्ती होने की बात टाल दी। लेकिन दो-तीन महीने बीतते-न-बीतते तकलीफ़ बहुत बढ़ गयी। अब किसी भी समय दर्द होने लगता। कई दफ़ा दर्द इतना असह्य हो उठता कि वे ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगते या फिर कभी-कभी सिर थामकर सुन्न-से हुए खाट पर गिर पड़ते। इसी बीच ‘झाड़े-जन्तर’ करवाकर हार गए। टोने-टोटकों से रत्ती भर लाभ नहीं हुआ।
लाल जी को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। जाँच-पड़ताल के बाद इलाज शुरू हुआ। वे ढाई-तीन महीनों तक भर्ती रहे। रोग दूर होता देखकर डॉक्टर ख़ुश हुए, लेकिन अभी ट्यूमर समूल नहीं मिटी थी। डॉक्टर ने सलाह दी कि दिल्ली जाकर ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। ऑपरेशन करवाए बिना बचने की गुंजाइश नहीं है।
लाल जी के घरवाले उलझन में पड़ गए। अब करें तो क्या करें ? दिल्ली जाने की सामर्थ्य नहीं थी और इलाज न करवाने पर साँसों का ठिकाना नहीं। किसी भी समय साँसों का पखेरू देह के पिंजरे से उड़ सकता है-फुर्र ! और यह होनी, अनहोनी होने पर घर उजड़ता। बाल-बच्चे लावरिस होते। भगवान् की दया से घर भरा-पूरा। तीन लड़कियाँ, चार लड़के। एक लड़की विवाहित, दो कुँवारी, शादी योग्य। बड़े लड़के की शादी हो चुकी थी। घर से बेटी ससुराल गयी तो लड़के की बहू घर आ गयी। बाबाजी मरे और लड़की हुई, रहे तीन के तीन। लड़का काम के नाम पर सड़कों पर जूतों के तले घिसता फिरता। बाक़ी तीनों लड़के अभी तक पढ़ रहे थे।
डॉक्टर ने लाल जी को अस्पताल से छुट्टी दे दी। उसकी राय के अनुसार दिल्ली जाना आवश्यक था, लेकिन घर की हालत देखते हुए ऐसा सम्भव नहीं था। आख़िर घर में ही खाट पकड़ ली। अब उनके साथ काम करने वालों के पास ये समाचार आने लगे-कि लाल जी को होश कुछ कम ही रहता है। होश में आने पर कुछ-न-कुछ बड़बड़ाते रहते हैं। उनका खाना-पीना दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है। उनको खाया-पिया हज़म नहीं होता। अब देह सुन्न-सी रहने लगी है। घरवाले चम्मच से दूध दलिया देते हैं। फिर दिन-ब-दिन हालत बिगड़ने के समाचार मिलते रहे। यार-दोस्त उठते-बैठते उनकी चर्चा कर लिया करते। सभी लोग इस कोशिश में रहते कि उनका दफ़्तर सम्बन्धी कोई काम अटका न रहे। वे दौड़-धूप करके उनका काम पहले करवा देते। लेकिन अब दौड़-धूप की आवश्यकता ही नहीं रह गयी थी। सारा खेल ख़त्म हो गया। अभी-अभी उनका भाई कह गया था- लाल जी चल बसे।
सभी लोग स्टाफ़ रूम में पहुँचे। इंचार्ज को इस बात की ख़बर हो गई थी। ‘‘अब क्या किया जाए ? हेडमास्टर साहब तो अभी तक आए नहीं।’’ ‘‘यह हेडमास्टर का बच्चा कभी समय पर आता ही नहीं है।’’ ‘‘क्यों आए, पीछे खूँटा है।’’ रसूल उकसाने के लिए कहने लगा, ‘‘हमारी-तुम्हारी तरह मामूली आदमी थोड़े ही है।’’ ‘‘क़ानून सभी के लिए समान होता है।’’ इंचार्ज की तरफ़ देखकर सूरजमल ने कहा। बात आगे गालियों की गली में पहुँचे, इससे पहले ही चपरासी नत्थू ने आकर ख़बर दी-‘‘हेडमास्टर साहब आ गए।’’ ‘‘अहोभाग्य हमारा।’’ मोहन बोला।
‘‘आओ, हम भी दर्शन कर लें।’’ यह कहकर नरेन्द्र स्टाफ़ रूम से बाहर आ गया अन्य व्यक्ति भी साथ थे। हेडमास्टर को भी लालजी के गंगावासी होने का समाचार मिल गया था। सभी के एकत्रित होने पर कहा, ‘‘बच्चों को मैदान में इकट्ठा करके शोक सभा के बाद उन्हें छोड़ दीजिए। फिर हम लोग शव-यात्रा में चलेंगे।’’ शोक सभा के बाद बच्चों को छुट्टी कर सारे अध्यापक बाग़ में जाकर खड़े हो गए। ‘‘नारायण जी !’’ हेडमास्टर ने आवाज़ दी। नारायण उनकी तरफ़ जाने को रवाना हुआ, तभी वह स्वयं बाग़ की तरफ़ आ गया। पूछा, ‘‘दाह-संस्कार कितने बजे होगा ?’’
‘‘बारह-एक तो बज ही जाएँगे।’’ ‘‘उनके भाई को पूछा था क्या ?’’ ‘‘अंदाज़ से ही कह रहा हूँ। इन कार्यों में सगे-सम्बन्धी इकट्ठा होते हैं, तब इतनी देर तो हो ही जाती है। फिर सामान वग़ैरह भी तो लाना होता है।’’ ‘‘किसी को भेजकर मालूम करवाएँ क्या ?’’ ‘‘जैसा उचित समझें..।’’ ‘‘आप होकर आइए...।’’ ‘‘हाँ देख आता हूँ...।’’ ‘‘और कौन जानता है ?’’ ‘‘नत्थू को भेज दीजिए।’’ हेडमास्टर कमरे में गया। फिर घण्टी बजाई। नत्थू भीतर गया। बाहर आया। साइकिल लेकर रवाना होता दिखाई दिया। नारायण बाग़ की तरफ़ आया तो गणेश ने पूछा-‘‘क्या कह रहा था वह घोंचूमल।’’ ‘‘शव यात्रा में चलने की बात कह रहा था।’’ ‘‘इस तुर्क का वहाँ क्या काम ?’’ भगवान ने अपनी जनेऊ सम्हालते हुए कहा। ‘‘मेरे तो स्वयं के कुछ कम जचती है।’’ गिरधारी की आवाज़।
हिन्दी अनुवाद : मूल लेखक और कन्हैयालाल भाटी