अरे, यायावर रहेगा याद : अनुभव से अनुभूति तक की यात्रा / उषा किरण खान

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हमारा दल बाल्मिकि नगर के ऐन जंगल में ठहरा था जिसके मुखिया और नायक थे अज्ञेय जी. एक गाड़ी में पीछे से मैं और कानन बाला सिंह (शंकरदयाल जी की धर्मपत्नी) जा रहें थे। आधी रात को गाड़ी का डीजल किसी गाँव के निकट खत्म हो गया। गाड़ी बैठ गई. गाँव से कैसे डीजल प्राप्त हुआ कैसे हम पहुँचे यह रोचक संस्मरण कभी और सुनाने बैठूँगी यहाँ कहना यह है कि लगभग 3: 30 बजे भोर में जब हम पहुँचे तो अज्ञेय ही हाथ मलते लंबे-लंबे डग भरते डॉरमेट्री के अहाते में टहलते बेचैन नजर आए. हमें देखते ही स्थिर खड़े हो गए, मुस्कुराते रहें। उनकी वह आश्वस्तकारक मुस्कान हमारी थकान को दूर ले गया। सुबह चाय के बाद अज्ञेय जी सिर्फ हमें देखकर मुस्कुराते रहें अन्य लोग उनकी बेचैनी का वर्णन करते रहें।

मुझे मालूम है उस चिर यायावर के लिए यह सोचना कठिन नहीं था कि बिहार का वह काल-खंड दो महिलाओं की रात्रि-यात्रा के लिए असुरक्षित था तथापि हमारे साहसी चेहरों को देख वे प्रसन्न थे। यह जानकी जीवन यात्रा का वर्णन है। जब मैं स्कूल में पढ़ती रही होउंगी जब 'अरे यायावर रहेगा याद' पुस्तक आई थी। अज्ञेय की कहानियों तथा उपन्यास से अधिक रोचक तथा बोधगम्य थी वह पुस्तिका। अज्ञेय जी का घुमक्कड़ी से जन्म का नाता था। उनका जन्म ही कुशी नगर के तंबू में हुआ था। पिता कुशीनगर के उत्खनन में लगे थे। माता ने तंबू में बालक सच्चिदानंद को जन्म दिया। कुछ दिनों बाद जब उत्खनन का कार्य संपन्न हुआ तब तंबू उखड़ गए. पंडित हीरानंद वात्स्यायन नालंदा उत्खनन से जुड़ गए. अज्ञेय जी ने नालंदा सभ्यता की परते अपनी बाल-बुद्धि से देखीं - पहचानी। सदियों पुरानी गलियारों में स्थानीय जनों के बच्चों के साथ डेगा-पानी खेला। कोहनी पर चोटे खाईं। अपने रोमिल हाथ की कोहनी हमें दिखाकर कहा यह निशान बाकी है। अज्ञेय के विस्तृत आयाम लेखन के मेरी समझ से यूँ ही नहीं मिलें। यायावरी के जीवनानुभव उनके वृत्तांतों को चिरंतन बना गए.

यात्रा विवरण के अतिरिक्त उनकी कविताएँ जो यात्राओं के रस से निःसृत हुई मैं साथ लेकर चलती हूँ। कुशीनगर और नालंदा, बोधगया, राजगीर इत्यादि बारंबार लौटते रहे हैं। उनकी कविता साम्राज्ञी का 'नैवेद्यदान' के पीछे यह सब साफ दीखता है। जापान जाना या फूजी-गुरूजी से मिलना यूँ ही नहीं होता। प्रकृति और वन-उपवन के रानिया अज्ञेय जी की महारानी अज्ञेय ही हैं। यात्राओं ने उन्हें दुखद घाव दिए. उनके साँप जो भारत - विभाजन की त्रासद यात्रा से सुगबुगाते हुए फन फाड़कर दंश देते हैं वे किसी संस्मरण या पुस्तक में नहीं कविता में हैं।

अज्ञेय की प्रारंभिक कहानियाँ युद्ध से संबंधित हैं या यात्राएँ उन्हें हिन्दी का अनुभूत प्रवण लेखक बना गईं। आजादी का जजबा जो भारतीय जनमानस में था जिसे वे व्यक्त नहीं कर पाते थे सब कथारूप में व्यक्त किया। कहानियों से बात नहीं बनी, कविताएँ संतुष्ट न कर पाईं तो सीधे यायावरी का वृत्तांत लिखा। उन्होंने मात्र क्षेत्रफल नहीं लाँघा बल्कि अपने खोजी स्वभाव, भाव-प्रवण मन और संस्कृतिचेता व्यक्तित्व होने के नाते भूगोल, इतिहास, संस्कृति की झलक दी। अज्ञेय मात्र विवरण नहीं देते। 'अरे यायावर रहेगा याद' के एक अंश की झलक यूँ है। एक व्यक्ति ने उनसे कहा -

'मैं तो देखने और सीखने आया हूँ। यों भी मैं जहाँ जाता हूँ वहाँ के जीवन और साहित्य को समझने का यत्न करता हूँ। और उसे समझने के लिए लेखक को कभी-कभी कल्पना से भी काम करना पड़ता है। वह केवल यथा-तथ्य चित्रण करके ही संतोष नहीं कर लेता वरन इतिहास और अनुमान के आधार पर भी सामग्री संकलन करता हुआ चलता है। वास्तव में वे जितनी यात्राएँ स्थूल पैरों से करते हुए चलते हैं उससे ज़्यादा कल्पना के चरणों से करते हैं। और सदा'चरैवेति'के सिद्धांत को अपनी जीवन यात्रा का मूल मंत्र मानकर चलते रहते हैं। उन्होंने अपने पैरों तले घास नहीं जमने दी है। उनकी दृष्टि में एक जगह बैठकर तपस्या करते-करते अपने शरीर पर'बल्मीक उगाकर' मुक्ति पाने से कहीं अच्छा है गतिमान रहना।

यायावर समझा है कि देवता भी जहाँ मंदिर में रूके कि शिला हो गए और प्राण संचार के लिए पहली शर्त है गति, गति, गति।

भाव-भाषा, शैली के नवोन्मेष के उन्नायक अज्ञेय जी ने 'अरे यायावर रहेगा याद' को विवरणात्मक शैली में लिखा है। इस शैली की प्रमुख विशेषता है प्राकृतिक दृश्यों, पर्वत मालाओं इत्यादि का विशद वर्णन। लेखक इस में अपनी देखी हुई वस्तु और दृश्य की विशेषता का वर्णन किए जाता हैं। अज्ञेय ने यात्रा संबंधी निबंधों में ऐसी ही शैली का प्रयोग किया है। लेखक की इस पुस्तक में यात्रा तथा संस्मरण का पँचमेल है। इस में अनजाने व्यक्तियों, स्थलों और दृश्यों के भावभीने संस्मरण और विवरण बड़े मनोहारी बन पड़े हैं। इससे एक ओर नए वातावरण का वर्णन है तो दूसरी ओर प्राचीन इतिहास का उदघाटन किया गया है। 'अरे यायावर रहेगा याद' में कही दर्शन कहीं इतिहास, कहीं संस्कृति का विवरण है। अज्ञेय ने मानव जीवन तथा स्थावर-जंगम की संपूर्णता को रूपायित किया है। अज्ञेय जिस आधुनिक स्थान पर जाते हैं उसका प्राचीन तत्सम शब्द खोज निकालते हैं। नाम उस स्थान का क्यों, कब और कैसे पड़ा, कब-कब और क्यों परिवर्तन हुआ यह भी बताते हैं। अज्ञेय का यात्रा विवरण साहित्य-संस्कृति, जीवन-शैली, विचार इत्यादि भावबोध का एक पूरा पैकेज है।

भारत के विविध रूपी मौसम - विज्ञान की समझ अज्ञेय को अपनी विज्ञान की पुस्तको से नहीं वरन यात्राओं के अनुभव से मिली है। एक संस्मरण में अज्ञेय असम के जंगली इलाके में भ्रमण पर निकले थे। अज्ञेय जीप पर थे। असम का मौसम! अचानक बादल उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं। इतनी भीषण वर्षा होती हैं कि चारो ओर पानी ही पानी भर जाता है। जीप सड़क किनारे रूकी है। लेखक अपनी अंतः प्रेरणा से जीप स्टार्ट करता है तभी एक अजीब दृश्य दिखाई पड़ता है। सामने से एक बैल-गाड़ी आती दीखती है अनुमान के सहारे पानी के भीतर अनदेखे खड्ड में बैलगाड़ी गिरकर डूब गई. अज्ञेय ने जीप रोक दी। कई घंटे बाद जल निकल गया, सड़क लगी दीखने तो वे अपने डाक बंगले पर वापस आए. मृत्यु का सीधा साक्षत्कार लेखक को एक दृष्टि देता है। ऐसे अनुभव अज्ञेय को कई बार हुए हैं। इसी में से उन्हें जीवन के नए अर्थ मिले हैं।

दूसरी बार बाल्मीकिनगर के सात दिवसीय शिविर में अज्ञेय सुबह होने के पहले जंगल की ओर निकल जाते कैमरा टाँग कर नारायणी नदी के तट पर जिधर शालिग्रामनुमा प्रस्तर खंडों का अंबार लगा होता। नारायणी का प्राचीन नाम शालिग्रामी भी है और चलताऊ नाम गंडक। अज्ञेय जी गड्डे किनारे सूर्योदय की प्रतीक्षा में बैठे होते। प्रस्तर खंडों पर सूर्योदय के अनेक चित्र खींचे। वे सारे चित्र संकलित हैं। अज्ञेय की चेतना प्रकृति की विराट संचेतना के साक्षात्कार से इस कदर जुड़ी थी कि वे पाँचों तत्वों से सतत सान्निध्य की कामना करते रहते।

भारत-यूरोप-अमरीका के बड़े-बड़े जंगलों में घूमे फिरे अज्ञेय। बर्मा के मोर्चे पर हथियार सँभाले अज्ञेय जब बिहार के चंपारण या हजारीबाग के जंगलों में जाते उसकी हरियाली को प्राण देती पथरीली उच्छल नदियों को देखते तो उनमें नवोन्मेष जाग जाता। ऐसे समय में ही वे बाल-सुलभ जिज्ञासा और खिलंदड़ेपन के आवेश में आकर कविता पाठ करने लगते। वे सारी स्थितियाँ उन स्थितियों की स्मृति हमें आज भी रोमांचित करती हैं।

अपने आखिरी शिविरों में नए-पुराने लेखक-कवि-चिंतक साथियों को लेकर चलते हुए उनसे मुखर तथा मौन संवाद करते हुए अज्ञेय ने अपने अप्रतिम भारतीय संस्कृति के मूर्त रूप का दिग्दर्शन कराया। नारदेवी के मंदिर के बाहर खड़े अज्ञेय घंटों घटावेप जंगल को निहारते रहते। मेरे अपनी इतिहास हजिर करती है उनकी आँखों में ऋषि बाल्मिकि के आश्रम का दृश्य लहरा रहा होगा, एक अपहरण दस्यु से बल्मिकि बन जाने का दृश्य उभरता होगा और पुनर्जन्म-सा पाकर काव्यमूर्ति जनकनंदिनी की साक्षात प्रेरणा से आदि महाकाव्य रचने का साक्षात कारण दीख रहा होगा। भव्य, आतंकारी डरावने घने वन, मनोहारी वनवासी, पशु-पक्षी, कीट-सरीसृप, उनके बीच निवास करते मानव सभी अपने-अपने स्थान पर फिर बैठे दीख रहे होंगे। मुझे मान होता कवि की आँखों में पूरा का पूरा विराट कालखंड अपनी आकृति सहित अतर आया है। ऐसा यायावर जितना कुछ अनुभूतियों में सहेज सका उतना लिखने के लिए एकाधिक जन्म और लेना होगा।

प्रकृति अपने स्थान पर जैसी है जो भी है सुंदर है भव्य है यह जाना उस यायावर ने। उसकी गति को क्षीण करना उनुचित है। कामना है कि वह अपने आपको पूरी त्वरा से विकसित करे विराट की ओर बढ़े। साम्राज्ञी कहती है महाबुद्ध से कि मैं प्रकृति के सारे फूल जहाँ हैं जैसे है तुम्हें समर्पित करती हूँ। वे खिनने, झड़जाने और बीज हवाओं के साथ दिग-दिगंत तक फैला देने के बाद भी महाबुद्ध को समर्पित हैं। प्रकृति की निखरता में खिलने वाले वे सारे फूल बीज हर बीज समर्पित हैं। साम्राज्ञी यहाँ पर शाश्वत भाव लिए खड़ी है महामाया के रूप में। आकार लेती है जगदंबा के रूप में। यहाँ अज्ञेय का भारतीय मनीषी बन जाने वाला मन यायावरी का एक और पाता-सा दीखता है।

मैं यह कह डालने का लोभ संवरण नहीं कर पाती कि अज्ञेय आधुनिक ऋषि थे जिसने अपनी यात्राओं से प्रकृति का बीज मंत्र पाया। यह सब कुछ तो अपने अनुभवों को समृद्ध करते हिन्दी के संसार को भाव-भाषा साहित्य, ज्ञान तथा जीवन जीने की कला सिखाने आए थे अज्ञेय। उनका काम पूरा नहीं हुआ सो फिर आयेंगे अपनी यायावरी के नाते; धुन के पक्के जो हैं।

नोट: - अब मुझे मान होता है कि 'जानकी जीवन यात्रा' के साथ चलने की प्रेरणा देने वाले नागार्जुन ने मुझसे क्यों कहा था - 'उस यायावर की कृतियाँ तुमने पढ़ीं है अब कुछ समय साथ रहकर चलकर अनुभव करो।'

मात्र साथ चलने, रहने और अनुभूतियों के स्फुलिंग से अपने आपको समृद्ध करने का लाभ अद्वितीय है। जो यात्री नागार्जुन और यायावर अज्ञेय को स्मरण करती ही लेखनी उठाती हूँ। उठ जाती है कि स्मृति कौंधते ही लेखनी बसबस।