अरे ओ बुड़भक बंभना / मनोज श्रीवास्तव
('भगवत प्रसाद स्मृति कहानी सम्मान-२००२' के प्रथम स्थान से सम्मानित कहानी)
चूहों के बिल जैसी सारी बस्ती बस्सा रही है. किसी राहगीर के लिए तो यह बस्साहट असह्य होती है, लेकिन यहाँ रहने वाले मुसहर इसके इतने आदी हो चुके हैं कि उन्हें इसके बिना अपना घर ही पराया लगने लगेगा.
बस्ती में सब-कुछ किसी मुसहरिन की चीकट धोती जैसा लग रहा है. जैसे बच्चे-बच्चियां, औरत-मर्द नंग-धड़ंग, बदहवास से इधर-उधर लिसढ़ रहे हैं, वैसे ही मिट्टी और गारे से बनी हुई झुग्गियों पर करैले, लौकी औए नेनुए की लताएं बेसुध पसरी हुई हैं. उनका लहलहाकर झब्बरदार पसरना इन मुसहरों के लिए वरदान है. क्योंकि इनके होने से छप्परों के न होने का डर ख़त्म हो जाता है. ये इनके लिए प्राकृतिक छप्पर होती हैं. इनसे फरने वाली भाजियां दिहाड़ी में बड़े-बड़े सिन्हा-सिंह जाती के काइएँ काश्तकारों से मिलाने वाले अनाज की कमी को पूरा कर देती हैं. ज्वार-बाजरे की लिट्टियाँ कम सही, थाली-भर उस्नी भाजियां तो पेट भरने के लिए काफी हैं. इन लताओं से एक बड़ा लाभ यह है कि इनकी छाया इस लपलपाती गरमी में सूरज की दाहक तपिश को झुग्गियों में अनाज पछोरती-फटकारती मुसहरिनों तक पहुँचने से रोक देती है. और तो और, इन लताओं से झुग्गियों का सिर वनमालिन के जूड़ों की तरह सजा-संवारा लगता है. मुसहिरनों को नाहक रोज़-रोज़ गोबर की पुताई करने से भी छुटकारा मिल जाता है. बस, सांझ को रहटों (अरहर के पौधों के कंकाल) से झुग्गियों के चारों ओर थोड़ा-सा झाडू-बहारू लगाते ही पूरी बस्ती झकाझक निखर जाती है.
यहाँ कभी ईंट और सुर्खी से बना हुआ मिसिरजी का डबरैल मकान था जो इन झुग्गियों के बीच फिट नहीं बैठता था. अपने जजमानों की दया से उन्होंने इसके लिए ईंट, पहिए, धरन और दरवाज़े जुटाए थे. फिर, मुसहरों के यहाँ बारी-बारी से मुफ्त पूजा-पाठ कर, कथा बांच-बांचकर उनसे दक्षिणा-प्रसाद लेने के बजाय श्रमदान करवाया. जितने निष्ठाभाव से मिसिरजी ने इनके यहाँ पूजा-पाठ, संस्कार-अनुष्ठान कराए, उतने ही श्रद्धाभाव से इन्होंने उनके मकान के निर्माण में अपना श्रम भेंट चढ़ाया. मिसिरजी इतने कृतकृत्य हो गए कि उनके मन से उंच-नीच, छूत-अछूत, जात-पांत का मेल धुल गया. जब एक दिन उनका मकान खड़ा हो गया तब उन्होंने पूजा-अर्चन कर बस्तीभर में पेड़े और बतासे बांटे और गदगद मन से सपरिवार गृह-प्रवेश किया.
उस वक्त उन्होंने जो कुछ कहा उससे सारे मुसहर उनके प्रति आत्मीयता के भाव से भींग गए, "हमारा उठना-बैठना, हगना-मूतना, मरना-जीना सब आप जनों के साथ होना बदा है. हमें अपने ही कुनबे का सगा-संबंधी मानो. बस, हमारा परिवार आप ही का है, हमारे लुगाई-बच्चे आपके काम आवेंगे..."
उन्होंने उनके प्रति आभार व्यक्त करने के लिए क्या-क्या नहीं कहा. पर, उन्हें अपने शब्द बड़े हलके और अनौपचारिक-से लग रहे थे. इसलिए, वह इनके लिए कुछ कर-गुजरने को उतावले हो रहे थे. जब उन्होंने अपने सुलझे विचारों और कर्मठता के बलबूते पर कुछ दौड़-धूप, हाकिमों से संपर्क और मुसहरों के बीच बैठक वगैरह करना शुरू किया तो बस्ती के भाग्य जागने लगे. विकास के नाम पर पास-पड़ोस के गाँव-टोलों में ग्राम-प्रधान अपनी चांदी कर रहे थे. सरकारी अनुदानों का कुछ अपने लिए और कुछ अपने गाँवों के नाम से सदुपयोग कर रहे थे. पर, जो सरकारी अभियानों का शोर-शराबा दूर-दराज के गाँवों में फैल रहा था, उससे मुसहर टोली एकदम बेखबर थी. बेखबर होना भी लाज़मी था क्योंकि यह बस्ती गंगा के एक परित्यक्त वीरान घाट के निचाट में बसी थी जो न तो किसी पगडंडी से जुड़ी थी और न ही कोई सड़क इसके पास से गुजरती थी. अहीर-गड़ेरिये भी इस जगह को या तो चारागाह समझते या खानाबदोश का आरामगाह. लेकिन, मिसिरजी का यहाँ आगमन एक चमत्कार साबित हुआ. उनकी प्रेरणा से कीट-पतंगों की तरह डाँय-डाँय, ठांव-ठांव विचरते-बिलबिलाते बच्चे पाठशाला जाने लगे. उन्होंने नगर-निगम और ब्लाक के कार्यालयों से सीधा संपर्क साधा. उसनती धूप में आपाधापी करके हैंडपंप के लिए राजसहायता दिलाई. बस्ती को लोग गड़हियों से पानी काढ़ने के बजाय पम्प का साफ़ जल इस्तेमाल करने लगे. रोग-आजार और महामारी के दिन भी लदने लगे. उनकी कोशिशों से सरकारी अस्पताल के नर्स और कम्पाउन्डर भी मुसहरों की सेहत संबंधी निगरानी करने के लिए कभी-कभार चक्कर लगाने लगे. बच्चों को हैजा और चेचक के टीके लगे. गर्भवती औरतों के लिए सरकारी अस्पताल में मुफ्त प्रसव की सुविधा मुहैया हुई.
इतना ही नहीं, मिसिरजी और उनका परिवार मुसहरों के सामाजिक जीवन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता. शादी-ब्याह के आयोजनों का बंदोबस्त वह खुद करते. तीज-त्योहारों की विधियां बताते. इनके बीच उत्पन्न मन-मुटाव और झगड़े -फसाद में हस्तक्षेप करके निपटारा करते.
मिसिरजी ने दोबारा श्रमदान करवाया और जंगली आवारा जानवरों से बस्ती की हिफाज़त के लिए इसके चारों ओर आदमकद बाड़ा लगवाया. बस्ती का एक मुख्य द्वार भी खड़ा किया गया जिसके माथे पर अम्बेडकर गाँव लिखा गया जिससे दूर से ही बस्ती की पहचान होने लगी.
सो, मुसहर बस्ती को एक नाम मिला, एक मंजिल मिली. मुसहर जन अम्बेडकर गाँव के सुनहरे भविष्य की कामना करते. वे मिसिरजी को देवता और मसीहा से कम नहीं मानते. उनकी तारीफों के पुल बांधते नहीं अघाते. शाम को जब मुसहर दिहाड़ी निपटाकर वापस आते तो वे तांता लगाकर मिसिरजी से 'जै रामी' करना एक निहायत ज़रूरी ज़िम्मेदारी मानते. बच्चे उनसे प्रसाद के रूप में तुलसी की पत्तियां और बतासे पाकर खुशी से झूम उठते.
दोपहर होती तो उनकी पत्नी मिसराइन अम्बेडकर गाँव की एक ज़िम्मेदार संरक्षिका के रूप में इनकी छोटी-बड़ी सभी घटनाओं में छाई रहतीं. उधर मिसिरजी अपनी कथा-वार्ता, पूजा-पाठ करने गए होते, इधर मुसहरिन औरतें मिसराइन के पास इकट्ठी होकर बतकहीं करतीं. अपने नून-तेल का बज़ट तैयार करतीं. अपनी सास-जेठानी के संबंधों की बखिया उधेड़तीं. अपने मनसेधुओं (पतियों) द्वारा की जा रही ज्यादतियों और बर्बरताओं का जी-भर उलाहना देतीं. अपने जाती दुखड़े रो-धोकर अपनी तबीयत हलका करतीं. मन बहलातीं. इस तरह वे एन-केन-प्रकारेण मिसराइन का सान्निध्य पाने की चेष्टा करतीं. मिसराइन भी उन्हें काफी तसल्ली देतीं. मन-कर्म-वचन से यथासंभव सुकून देतीं. वास्तव में वह उनके कष्टों, पीड़ाओं, परेशानियों आदि का सही मूल्यांकन करतीं जिससे उन्हें जीवन में कठोर संघर्ष करने की प्रेरणा मिलती.
यह सब स्वाभाविक था क्योंकि मिसिर परिवार इन्हीं मेहनतकश मुसहरों पर पूरी तरह आश्रित था. कभी कोई श्रद्धालु अनाज दे आता तो कोई साग-सब्जी. बदले में, मिसिर जी उन्हें प्रसाद और आशीर्वाद बाँटते. उनकी घरेलू समस्याओं के निदान बताकर उनके क़र्ज़ से मुक्त होने का सुकून पाते. सब-कुछ इतना अनौपचारिक और तालमेल से चल रहा था कि यह कहना सार्थक लग रहा था कि अच्छी ताली दोनों हाथों से ही बजती है.
इस तरह, उनके प्रति मुसहरों का श्रद्धा-भाव अत्यंत स्वाभाविक-सा था. उनका घर भी तो किसी मंदिर से कम रमणीक नहीं था. यहाँ की सफाई, शुद्धता और पवित्रता निस्संदेह मनमोहक थी. होम-हवन करना उनका नित्य-कर्म था. इससे दसांग-धूपबत्ती की भीनी-भीनी महक वातावरण में घुली-मिली रहती. उनकी बाहरी दीवारों पर देवी-देवताओं के चित्र टंगे होते और श्लोक व चौपाइयां लिखी होतीं. मकान के चारों ओर फूलों की क्यारियाँ, केले और तुलसी के पौधे एक अलग ही पहचान बनाते.
अस्तु, मुसहरों के जो कपाट मिसिरजी ने खोले थे, उसमें रोशनी के साथ-साथ एकाध धुएं की लकीरें भी खिची हुई थीं. कहीं कोई अहंकार का हिंसक राक्षस भी पल-बढ़ रहा था. उसका पोषक था एक गबरू-जवान. नाम था--हल्कू.
जब हल्कू छोटा था तो मिसिरजी के साथ उसकी ढिठाई और शरारत का पारावार नहीं था. वह उनकी कमर से धोती खींचता और शिखा नोचकर भागता. उसका बाप भिक्खू उसे पकड़ने दौड़ता, "इ ससुरा, पंडितजी के रिगावत ह...जानत ना ह कि बाँभन देउता के सराप से इ जल के ख़ाक होई जाई..."
तब, वह अपने बाप की पकड़ से बहुत दूर जाकर जोर-जोर से गाता, "अरे! ओ बुड़भक बंभना...अरे! ओ बुड़भक बंभना..." पर, मिसिरजी बुरा नहीं मानते. बदले में वह हंसते-हंसते लोटपोट हो जाते.
इस दरमियान, एक अजीब वाकया पेश आया. एक दिन हल्कू लापता हो गया. उसके बारे में कानाफूसियों और अफवाहों का बवंडर उठा. बाद में, पता चला कि उसे लेने उसका मामा आया था.
दिन और महीने बीते. कुछ साल भी फिसल गए. लेकिन, उसकी स्मृतियाँ अभी भी धूमिल नहीं पड़ी थीं. कभी-कभार मिसिरजी उसकी नटखट हरक़तों की चर्चा छेड़ देते और लोगबाग उसकी कल्पना कर उसे अपने बीच मौजूद पाते. एक शाम अचानक, एक तूफ़ान और झंझावात के थामने के तुरंत बाद वह प्रगट हुआ, जैसे तूफ़ान उसे अपने पीछे छोड़ गया हो.
उसके चेहरे पर गाम्भीर्य विराजमान था. अफवाहों में सुना गया था कि उसके नाना एक दलित नेता थे जो जातीय खून-खराबे के शिकार हुए था. बाद में उसका मामा धनेसर अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में दलित नेता बैठा. यों तो धनेसर का दिल बदले की भावना से भभक रहा था, लेकिन इससे ज़्यादा उसमें एक तूफ़ान उमड़ रहा था, अपनी जाति को मज़बूत बनाने का तूफ़ान. इसी बीच, वह अपने बहनोई से मिलने आया और अपने भांजे हल्कू से मुलाक़ात के दौरान, इसे अपना सच्चा कामरेड बनाने का इरादा कर बैठा.
हल्कू अपने मामा से जो पट्टी पढ़कर आया था, उसका नतीज़ा यह निकला कि वह अम्बेडकर गाँव में घुसते ही नेता बन बैठा. उसके व्यक्तित्त्व में आमूलचूल बदलाव आया था. वह पहले जैसा कभी मजाक के मूड में नहीं रहता. हमेशा कुछ न कुछ सोचता रहता. कुछ बच्चे उसकी गंभीर मुद्रा को देखकर कहते, "भैया मास्टर भए क्या?"
बेशक! उनके अनुसार, ऐसी गंभीरता किसी मास्टर-सरीखे व्यक्ति में हो होनी चाहिए. लिहाजा, उसके साथी बार-बार उसे उसके अतीत की याद दिलाते जबकि वह मिसिरजी को चिढ़ाया करता था और उसे टीले पर खींच ले जाया करते थे जहां वह खड़ा होकर जोर-जोर से गाया करता था, "अरे, ओ बुड़भक बंभना...अरे, ओ बुड़भक बंभना..."
पर, हल्कू गंभीर ही रहता. सचमुच, उसका अतीत उससे बहुत दूर जा चुका था. ज़्यादातर वह चुप रहता. जब उसकी खामोशी टूटती तो वह फर्राटेदार भाषण दे रहा होता, अपने परिजनों और दोस्तों के बीच. ऐसा लगता जैसेकि वह किसी बड़े हादसे से तिलमिला रहा है, जिससे वह उबर पाने की स्थिति में नहीं है. उसके हर लफ्ज़ में वहशीपन छलकता, जातीय उन्माद सभी हदें लांघता-सा प्रतीत होता. अम्बेडकर गाँव के बच्चे-बूढ़े, औरत-मर्द सभी उसे गुत्थमगुत्थ उसी तरह घेर लेते जिस तरह एक मदारी भीड़ से घिरा होता है. वे उसकी बात सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते. उसके तर्क का कुतर्क करने की हिम्मत बुजुर्गों में भी नहीं होती.
उसके आने के चंद महीनों बाद ही, अम्बेडकर गाँव पर उसकी धाक जम गई. उसकी तूती बोलने लगी. हर जुबान पर बस, एक नाम होता--'हल्कू भैया'. वैसे तो उसकी उम्र कोई बीस साल के आसपास ही होगी, लेकिन सभी बच्चे-बुजुर्ग उसे सलाम करते. लोग अपने दुखड़े रोने उसके पास आते. हर पल उसकी बाट जोहते.
तदनंतर, कुछ ऐसी घटनाएं घटने लगीं कि अगर यह कहा जाए कि हल्कू मुसहरों का शैतान जगाने पर तुला हुआ था तो यह बेजा नहीं होगा. यह बात निर्विवाद थी कि मिसिरजी ने उन्हें निश्छल और नि:स्वार्थ भाव से वह रास्ता दिखाया जो उन्हें स्वस्थ समाज की मुख्य धारा से जोड़ सकता था. सदियों पुरानी रूढ़ियों, जातीय संकीर्णता, वैमनष्यता, छुआछूत आदि का ख्याल मन में लाए बिना, वह उनके बीच उन जैसा आदमी बनकर रह रहे थे. यह कहना उचित ना होगा कि वह अपनी विकट परिस्थितियों से मज़बूर होकर उनके साथ रह रहे थे. बल्कि, वह आद्योपांत बड़ी सुलझी विचारधारा के व्यक्ति थे. जब हल्कू बढ़ती लोकप्रियता से उनका महत्त्व घटने लगा तो भी उन्होंने इसकी लेशमात्र चिंता नहीं की. वह पूर्ववत गाँव के विकास में समर्पित रहे.
लिहाजा, अम्बेडकर गाँव की सुख-शान्ति की उम्र पूरी हो चुकी थी. या, यूं, कहिए कि मिसिर् परिवार के गर्दिश के बादल और घने हो गए थे. क्योंकि इन्सान का खुराफाती दिमाग जीवन में समरसता लाने वाले भाईचारे के साथ हाथ मिलाने को तैयार नहीं था. मिसिरजी के स्वर्ण काल का एकबैक पतन हो गया. उनके चैन को कालापानी दे दिया गया. उनके जिन गुणों, आदर्शों और सत्कृत्यों के लोग कायल थे, वे उन्हीं के कटु आलोचक बन गए. उनका मिसिरजी के साथ उठना-बैठना भी बंद हो गया. वे उनसे डाह करने लगे, बेवज़ह दुतकारने लगे. कोई कभी उनके दरवाज़े आने की जुर्रत नहीं करता. अगर भूले-भटके कोई बच्चा उनके घर के इर्द-गिर्द आकर खेलने लगता तो उसके माँ-बाप उसे बेरहमी से पीटते. पिछले ही दिन, परबतिया मिसिरजी के दरवाजे आकर खड़ी होकर प्रसाद ले रही थी कि उसके खूंसट बाप ने उसे देख लिया. वह उसकी गरदन पकड़, घसीटता-पीटता हुआ अपनी झोपडी में ले गया जहां उसने उसे बेरहमी से पटकते हुए कहा, "ऊ ससुरा, करमजरुवा बाँभन तोह पर पानी छिरक के, औ' मंतर मार के तोहें बौराई दी, जेकरा परकोप से तोहें जमराज लील जइहें."
अब दोपहर में मिसराइन दरवाज़ा बंद रखतीं. अन्यथा, जब मिसिरजी कथा बांचने या पूजा-पाठ कराने बाहर गए होते तो उनकी गैर-हाजिरी में मुंहफट मुसहरिन औरतें उनसे बिना बात पर झगड़ती, गाली-गलौज करतीं. जब कभी मिसिरजी के बच्चे मुसहर बच्चों के साथ गुल्ली-डंडा, कंचा-गोली खेलते नज़र आते तो बस्ती का कोई बुज़ुर्ग आदमी उन्हें डांट-डपटकर भगा देता. शाम को लौटने के बाद, मिसिरजी उन्हें समझाने-बुझाने की कोशिश करते. पर, कोई नहीं मानता. उलटे, वे मिल-जुलकर बलवा-फसाद करने पर उतारू हो जाते. तभी कहीं से हल्कू आ जाता, बीच-बचाव करने के नाम पर मुसहरों को भड़काने..."इ बाँभन को अम्बेडकर गाँव में रहने का क्या हक है? इ कुजात है,मुसहर ना है. एकरा बता दो कि इ जा के केहू कायथ-छतरी के तोले में रहे..."
तब लोगों में एक अजीब उन्माद पैदा होता. मिसिरजी को पाँव तले जमीन खिसकती-सी लगती. उन्हें जान बचाकर घर में भाग खड़ा होना पड़ता.
मिसिरजी को वहां अपनी उपस्थिति करांची में किसी हिन्दू मंदिर की तरह लगने लगी. अनकिए अपराधों के प्रायश्चित करना तथा पश्चाताप और आत्मग्लानि में जलते रहना उनकी नियति बन गई. दुर्भाग्य उनका पिंड छोड़ने का नाम नहीं लेता. काश! वह भी ब्राह्मण के बजाय मुसहर पैदा हुए होते. तब उन्हें और उनके परिवार को बस्ती में आयसी जलालत को नहीं ढोना पड़ता. कोई उन्हें कुजात छांटकर सामाजिक जीवन से बहिष्कृत करने की धमकी नहीं देता.
सुबह जब मिसिरजी नित्य कर्म से निवृत होकर जाने को हुए तो उनके सामने उनके बच्चे मुंह बाए खड़े हो गए. वह माथा पकड़कर नीचे ढुलक गए और मिसराइन की गोद में सिर रखकर फफक उठे, "हम दलितों से भी दलित हो गए हैं. अब तो भूखों मरने की नौबत आ गई है. पंडिताई के धंधे का भट्टा तो पहले ही बैठ चुका है. दूसरे गाँव में भी जजमानी नहीं कर सकते. ब्राह्मणों ने हमें धार्मिक कर्मकांड और जाति से पहले ही खदेड़ दिया है. इस पूरे जवार में हमें अछूत ब्राह्मण घोषित किया जा चुका है. अब हम किसके यहाँ जाकर कथा=पूजा कराएं और दान-दक्षिणा, सीधा-प्रसाद से तुम सबका पेट पालें?"
आखिर रो-गाकर मिसिरजी यह कहते हुए बाहर निकले कि वह जल्दी ही आने की कोशिश करेंगे. जब दरवाज़े से बाहर कदम रख रहे थे तो उन्होंने अपने बडकू को सुना--छोटकू को समझाते हुए, "रो मत, बबुआ! हमारे दिन जल्दी ही फिरेंगे. हमें खाना-कपड़ा सब मिलेगा, साथ में पाठशाला की पढाई भी. डीह बाबा हमारे दुक्ख जल्दी ही हरेंगे...."
मिसिरजी की आँखें छलछला उठीं. उन्होंने तय किया कि वह आज महाजन से कुछ रूपए उधार माँगने जरूर जाएंगे.
पर, उनके जाते ही आसमान में काले-काले बादल छाने लगे. मुसहर गाँव में बैठक-पंचायत जैसा माहौल बन गया. सारे मुसहर बरगद की छाया में जमा होने लगे. हल्कू भी आ गया. मिसिरजी के भयार्द्र बच्चे अपनी खिड़कियाँ झांकने लगे. मुसहरों का शोर बढ़ाता जा रहा था कि तभी हल्कू की आवाज़ सुनकर घुप्प चुप्पी छा गई.
"बांभन देउता कुछ नहीं होता. न उसके सरापने से कोई मरता है, न उसके आसीस से कोई जीता है.इ सब तो उ ससुरा का पता पालने का धंधा है. ऊ मंतर फूँक-फूँक सबको बुद्धू फंसाता है. पाठ-जाप कराके हमको झूठ-मूठ का डराता-धमकाता है. अब आपजने ही बताओ, हमारे में से कौनो ने आजा तक भूत-परेत देखा है क्या? जब लखई चचा की बच्ची के पेट में दरद भावा तो इ ससुरा मिसिरावा बतावा कि ओकरा पेट में जिन्न घुसा है. ओकरा मंतर से भूत ना उतारा. हस्पताल के दवाई से बबुनी के पेट का दरद गवा. सो, हम बतावत हईं कि ई बंभना के चक्कर में मत पड़ो. ई ससुरा पापी है, पापी. बाँभन तो एकदम्मे ना है. नहीं तो एकरा बिरादरी वाले काहे एकरा के अपने गाँव से खेदते?"
जब शाम को मिसिरजी लौटकर गाँव में घुस रहे थे तो उन्हें कुछ ऐसा एहसास हुआ कि जैसे पूरे वातावरण को सांप सूंघ गया है. वहां कुछ ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था कि पत्ते भी हिलाने से सहम रहे थे. बस, झींगरों की भयानक झन्नाहट सुनाई दे रही थी जो उस सन्नाटे के साथ सांठगाँठ कर, किसी भावी अनिष्ट को छिपाने का संकेत दे रही थी.
उनके घुटने काँप रहे थे. उन्होंने कुरते की जेब से पैसे निकालकर मिसराइन की ओर बढ़ा दिए. साथ में कंधे से लटकती पोटली को भी. तदनंतर, मिसराइन ने दिनभर की घटना की किताब का पन्ना-पन्ना खोलकर उनके सामने रख दिया.
मिसिरजी के दिमाग में अतीत का कांटेदार पहिया घूम-घूमकर हताशा के अवसाद से ढंकी स्मृतियों के ज़ख्म को और कुरेदने लगा. वह कराह उठे.
उनके दुर्भाग्य का मूल सोत्र उनकी बहन मधुरिया से शुरू होता है. आखिर, इसमें उनका दोष ही क्या है? मधुरिया को रमई तेली के साथ भागना था, सो भाग आगी. मैली तो वह हुई, नरक की भागीदार तो वह बनी, अपना परलोक तो उसने बिगाड़ा. उसके कुकर्म का खामियाजा वे क्यों भुगत रहे हैं? उन्होंने तो उसे रमई तेली के साथ भागने में कोई मदद नहीं की थी? वे तो ऐसे विवाह के पक्ष में कतई नहीं थे. उस पर हजारों पाबंदियां लगाईं थीं. लेकिन, वह दो अक्षर पढ़ क्या गई थी कि सामाजिक परिवर्तन की क्रान्ति लाने की दुहाई देने लगी थी. अरे, सामाजिक परिवर्तन अंतरजातीय विवाह करने से थोड़े ही आती है. इससे जाति-व्यवस्था तो समाप्त नहीं हो जाती. अपितु, जाति का शिकंजा और भी सख्त हो जाता है. इस पुरुष-प्रधान समाज में जब तक औरत अनब्याही रहती है, वह अपने बाप की जाति ढोती है और ब्याह के बाद अपने पति की. जाति की चोली तो उसे दो बार पहननी पड़ती है. उसका अपना तो न कोई गोत्र होता है, ना कोई जाति. धर्म-ग्रंथों में अविवाहित स्त्री को वर्णहीन और जातिहीन बताया गया है. अब मधुरिया कोई ब्राह्मण तो है नहीं. वह तो तेलिन है, तेलिन. रमई तेली की लुगाई. उसे तो रमई तेली के खानदान की रीति-रिवाज़ निभानी है.
बम्हरौली गाँव के ब्राह्मणों ने उस घटना पर अपना घोर आक्रोश प्रदर्शित किया. मिसिरजी के मकान में दिन-दहाड़े आग लगा दी. बर्तन-बिछौने, चौका-चक्की, खामाचा-खात, सब धूं-धूं कर राख हो गए. पर, परमेश्वर की मंशा उन्हें बचाने की थी. वे उग्र भीड़ को झांसा देकर बीवी-बच्चों समेत पिछवाड़े अहाता से भाग-खड़े हुए. वरना, अपनी ही जाति के लोगों द्वारा लगाई आग में वे सपरिवार भुनकर राख हो जाते. यह तो लखई मुसहर की कृपा थी कि उन्हें मुसहर बस्ती में सिर छिपाने की जगह मिल और एन-केन-प्रकारेण पेट भरने को दो जून की रोती नसीब होने लगी.
उनके दुर्भाग्य का पुनरारंभ हल्कू राम के अपने ननिहाल से लौटने के बाद होता है. वह छूती-सी फांस जो पहले चुभकर मीठी कसक जगाती थी, अब बरछे का रूप धारण कर उनके जिगर को आरपार भेदने लगी है. उन्हें क्या पता थाकी मसखरेबाजी करने वाला हल्कू कुछ ही सालों बाद उनका इतना खतरनाक प्रतिद्वंद्वी बन जाएगा? जब से वह मुसहरों का मत बना है, मिसिर परिवार का जीना मुहाल हो गया है. अबा कोई अनिष्ट होकर रहेगा. मिसिरजी के सोचने का अंत नहीं था. उनके चारों बच्चे खाना पर टूटे हुए थे. जैसे कई दिनों से अन्न का एक दाना भी न देखा हो. लेकिन, वे...वे खाट पर औंधे मुंह लेटे हुए सोचते जा रहे थे कि वे काफी पहले से ही हल्कू की आँख नहीं सुहाते थे. एक कर्मकांडी ब्राह्मण होने के बावजूद मुसहरों के बीच बढ़ती लोकप्रियता हल्कू के अहं को बारम्बार डंक मारती थी. कुछेक दिन पहले, उन्होंने इसे लखई मुसहर के साथ देखा था. yon तो लखई के साथ उनके संबंध अभी बुरे नहीं थे. भले ही दोनों साथ-साथ चीलम पीने से कतराते थे, लेकिन दुआ-सलाम तो होता ही रहता था.
पर, हल्कू और लखई के बीच जो बतकही चल रही थी, वह बड़ी नाखुशगवार थी. उन्होंने कान लगा कर हल्कू की बात सुनी.
"चचा! आपजने को पता नहीं है! ई जौन हमार टोला में विकास भवा है, ओकरा क्रेडिट मिसिरवा के ना जाए के चाही . ई मदद तो हम दलितन के खातिर सरकार देत है. आप जाने एकदम्मे साथिया गए हो. सरकार हम दलितन के,ऊ का कहत हैं, मुखुत में सुबिस्ता देत है. ई मिसिरावा ऊ सुबिस्ता में से बन्नार बाँट करके आपण पाकिट भारत है. ई सरकार हमार बच्चन के पढ़ाई-लिखाई, नौकरी-सोकारी में आरच्छन देत है. तो हम ई कहत हईं कि ई पंदितावा के हमार टोला में हम जाने के बीच रहे का का हक़ है? ई बूझ लो कि ई पंडित है, बिखाधर नाग सरीखा पंडित. ई जब दासी तो केहू के एक्कौ लहर ना आई एयर पूरा टोला को जमराज निगल जैहैं. टोला का भलाई एही में है कि एकरा पलिवार समेत एकरे घर में फूँक-ताप दिहला जाए..."
लखई सिर हिलाए जा रहा था, जसे कि पहले वह किसी भ्रम में था; लेकिन, अब सही वस्तुस्थिति से अवगत हो रहा है.
मिसिरजी के होश तभी से फाख्ता हो गए. वह सपरिवार आतंकी माहौल में जीने को अभिशप्त हो गए. हल्कू के भड़कावे में आकर सारे मुसहर उनके खिलाफ हो गए थे. जाति, धर्म, दलित, सुविधा, विकास, राजसहायता आदि जैसे बातों के मकड़जाल में उलझकर सभी मुसहर चतुर बनते जा रहे थे. अम्बेडकर गाँव बुरी तरह सियासी दांव-पेंचों में जकड़ता जा रहा था. हल्कू के मामा धनेसर का गाँव में आना-जाना भी बढ़ रहा था, जिस कारण माहौल में सियासी रंग घुलता जा रहा था. उसे अगले माह होने वाले विधान सभा चुनाव में बतौर प्रत्याशी टिकट मिल गया था. इस वज़ह से हल्कू भी बहुत हेकड़ी में रहता था. क्योंकि उसे पूरा विश्वास था कि उसके मामा के विधायक बनने के बाद उसकी भी चांदी हो जाएगी. वह क्षेत्रीय राजनीति से निकलकर प्रांतीय सियासत से जुड़ जाएगा. उसकी महत्वाकांक्षा आसमान छू रही थी. पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे. मुसहरों को भी इस बात का बहुत गुमान हो रहा था कि हल्कू की बदौलत उनके गाँव का नाम रौशन होगा. उनकी जाति को बेहतर सुख-सुविधाएं मुहैया होंगी. उन्हें सामाजिक महत्त्व मिलेगा.
मिसिरजी ने करवट बदलकर सोने की असफल कोशिश की. उनके बच्चे तेज भूख के बाद खाना भकोसकर जमीन पर बेसुध सो रहे थे. ऐसी स्थिति में जब नींद हावी होती है, तो होश नहीं रहता. मिसराइन भी पति को खाना खिलाने की प्रतीक्षा में घुटनों के बीच औंधे मुंह बैठी थी.
मिसिरजी विचारतन्द्रा में खोए हुए थे. वे खुद निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि वह किस पाप का प्रायश्चित करें और किस गलती के लिए पश्चाताप करें. कल तक धार्मिक पाखंडों ने मुसहरों की आँख पर पट्टी बाँध रखी थी, आज सियासी बयार ने उनकी मति पर जादू फेर दिया है. इसमें हल्कू का भी उतना दोष नहीं है जितना इस नव-सृजित परिवेश का. वे सियासतदारों की स्वार्थान्ध परम्परा के अनुसार ही सोचते-करते हैं. जिस प्रकार प्राचीन राजतंत्र में ब्राह्मणों और क्षत्रियों की वर्चस्वता बनी हुई थी, उसी प्रकार आज सत्तासीन और नवधनाढ्य जातियों और सम्प्रदायों का प्रभुत्त्व स्थापित होता जा रहा है. चाहे वह अवर्ण हो या सवर्ण, मनुवादी हो या गैर-मनुवादी, वह सत्तारूढ़ होते ही अथवा सामाजिक बल-प्रतिष्ठा पाते ही, एक अन्य दलित वर्ग सृजित करने पर आमादा हो जाता है, भले ही वह वर्ग अगड़ों का हो. उसे दलन कृत्य में बड़ा आनंद मिलता है. आत्मिक और मानसिक संतोष मिलता है. वह समाजवाद और समानातावाद की बिलावज़ह शेखी बघारने वाली व्यवस्था को और कठोर एवं जटिल बनाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहता है. यहाँ तककि वह कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, ईसा मसीह, मोहम्मद साहब, नानक, कबीर, गांधी और अम्बेडकर को जाति व सम्प्रदाय-विशेष का प्रतिनिधि मानकर समाज में कलह, और विघटन और विप्लव पैदा करता है और अपनी झूठी अस्मिता को बचाने के लिए इंसानी लहू बहाने में गौरवान्वित महसूस करता है.
सुबह मिसिरजी की नींद देर से खुली. वह देर रात तक उधेड़बुन में जगते रहे थे. खाना भी देर से खाया था. अभी ११ बजे तक उन्हें कोसों दूर के एक गाँव में पहुँचना था--ग्राम प्रधान की माँ की बरसी पर पूजा-पाठ और अनुष्ठान कराने. ग्राम प्रधान बड़ा असामी था. गाँव के विकास के लिए उसे जो सरकारी अनुदान मिला था, उससे बड़े ठाठ की गृहस्थी जमाई थी. मिसिरजी की आँखें फटी की फटी रह गई थीं. उन्हें आशा थी कि वहां से उन्हें इतना पैसा-अनाज मिल ही जाएगा जिससे किफायत में एकाध महीने तक उनके बाल-बच्चों का गुजारा हो जाएगा.
सो, घर के लोग बड़े खुश थे. बड़कू उनके नहाने के लिए पानी ला चुका था और मिसराइन घर में झाडू-पोंछा लगाकर उनकी पूजा की तैयारी कर चुकीं थी. जब तक वह नाश्ता तैयार करने चूल्हे पर बैठी थीं तब तक मिसिरजी पूजा-पाठ से निवृत हो लिए. यकायक, तभी उन्हें ध्यान आया कि उन्होंने एक बड़ी भूल की थी कि उन्हें बम्हरौली गाँव से अपने जलते हुए घर को छोड़कर मुसहर में टोला में आने के बजाय सीधे काशी में शरण लेनी चाहिए थी. वहां, गंगा घाट पर पंडों को अच्छी आमदनी हो जाती है. गंगा में दुबकी लगाने वालों को केवल चन्दन-तिलक लगाकर और उनका भाग्य बांचकर ४० से ५० रूपए रोज मिल जाते हैं. ज्योतिष और हस्तरेखा में उन्होंने जो शास्त्री की डिग्री ले रखी थी, वह भी काशी में सार्थक हो जाती. यों तो, घाटों पर और मंदिरों के इर्द-गिर्द बनारसी सेठों का भंडारा तथा यज्ञ-अनुष्ठान पर ब्राह्मणों का भोज चलता ही रहता है. प्रसाद में जो कुछ भी मिल जाता, उससे उन्हें अपने परिवार के पेट की आग बुझाने में कोई ख़ास दिक्कत नहीं होती. फिलहाल, किसी घाट के परित्यक्त शिवालय या मंदिर की ओट में येन-केन-प्रकारेण रह लेटे. अपने लारकों को किसी संस्कृत महाविद्यालय से ज्योतिष में स्नातक कराकर अपने पैतृक धंधे में लगा देते. वैसे भी अब सरकारी नौकरी कहाँ मिलाने वाली है? ब्राह्मण और कायस्थ भी दुकानदारी करने को मजबूर हो गए हैं. इंग्लैण्ड, फ्रांस और अमरीका की तरह भारत भी अब ज़ल्दी ही बनियों का देश बन जाएगा. सभी मुनाफ़ा, दलाली और कमीशन खाने लगेंगे. अब नैतिकता, ईमानदारी और भलमनसाहत का पाठ पढ़ाने वाला कोई नहीं मिलेगा.
मिसिरजी यह सब पछता-पछताकर सोचते जा रहे थे. साथ में बगैर दूध की गुड़ वाली चाय भी सुड़के जा रहे थे. बाएँ हाथ में गिलास-भरी चाय थी और दाएं हाथ में नमकीन रोती की पोपली, जिस पर उन्होंने अचार मसल लिया था. वह अभी भी काशी जाने की योजना को अमली जामा पहना सकते हैं. देर आए, दुरुस्त आए. उन्होंने अपने दिल को ढाढस दिया. अभी भी बहुत नुकसान नहीं हुआ है. बाहर निकलते समय उन्होंने यह तय किया कि शाम को लौटकर वह मिसराइन के सामने इस योजना को उद्घाटित करेंगे. उन्होंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि आज सवेरे-सवेरे उनके मन में इतनी अच्छी योजना उनकी प्रेरणा से आई.
बाहर अजीबोगरीब हुल्लड़बाजी हो रही थी. अचानक, उन्हें ख्याल आया कि आज तो १४ अप्रैल है यानी अम्बेडकर जयन्ती. पिछले साल आज ही के दिन उन्होंने गांववालों को अम्बेडकर जयन्ती पर जलसा करने का मशविरा दिया था. सोचा था कि ये बिचारे दलित मेहनतकश ऐसे अवसर पर कुछ नाच-गाकर, खुशियाँ मनाकर, थोड़े समय के लिए अपने रंजो-गम भूल जाएंगे. जब वह बरगद के नीचे बैठकर उन्हें अम्बेडकर की उपलब्धियों तथा उनकी राष्ट्रीय और मानवीय सेवाओं पर चर्चा कर रहे थे तो ज़्यादातर बुज़ुर्ग, जो उनसे उम्र में काफे बड़े थे, उनके पैरों के पास आकर बैठ गए थे. तब जो कुछ भिक्खू राम ने कहा था, वह उनके ज़ेहन में कौंध गया--"कौन अम्बेडकर...का रहलन अम्बेडकर...हमारा खातिर का कैलं अम्बेडकर? हम लोगन के तो कछु पता नहीं...हमार अम्बेडकर तो रउवें हईं पंडिज्जी...आप न होते तो हमलोग जनावर सरीखा बिलबिलाते होते...कौनो गढ़ई में तो कौनो पनार में..."
उनकी आँखों से मोटे-मोटे आंसू ढुलकने लगे. उन्होंने विहंगम दृष्टि डाली. उसी बरगद के नीचे कम से कम ४०-५० मुसहर-बच्चे और बूढ़े सभी इकट्ठे थे, वे कागजा से लिपटी हुई कोई आदमकद वस्तु बड़ी अहतियात से खड़ी करना चाह रहे थे. उन्हें यकबयक ध्यान आया कि वह वास्तु अम्बेडकर की मूर्ति होगी जिसे वे वहां स्थापित कर रहे थे. यह सब हमारी परम्परागत व्यक्ति-पूजा की जीती-जागती मिसाल थी. लोग व्यक्ति-पूजा के उन्माद में महात्माओं के आदर्श और संघर्षमय जीवन को भी ताक पर रख देते हैं. वे मूर्ति स्थापित करेंगे, उसकी पूजा-अर्चना करेंगे, जगह-जगह मंदिर और स्मारक बनाएंगे. फिर, उसके अनुयायी बनाएंगे जिन्हें वे अपनी आत्मरक्षा करने के लिए उनकी अस्मिता का बोध कराएंगे. और जब उनसे ज़्यादा ताकतवर दूसरा व्यक्ति-पूजक गिरोह उनकी अस्मिता को मिटाना चाहेगा तो वे लड़-मरने पर आमादा हो जाएंगे.
वह क्षण-भर के लिए सब-कुछ भूल गए, मुसहरों से अपनी दुश्मनी भी. उनके कदम अनजाने ही भीड़ की दिशा में बढ़ रहे थे कि वह उन्हें यह बता दें कि मूर्ति का चेहरा उगते सूरज की दिशा में होना चाहिए...कि मूर्ति को किसी मज़बूत आधार पर स्थापित किया जाना चाहिए...कि मूर्ति को ऊंचे स्थान पर रखा जाना चाहिए...वगैरह, वगैरह. तभी, उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ. उनके कदम एकदम ठहर गए. उनका अंत:करण चींख उठा, "अरे, ओ बुड़भक बंभना! ऐसी भूल कभी मत करना; अन्यथा, वह भीड़ तुम्हें कच्चा चबा जाएगी."
जब वह वापस मुख्य मार्ग तक ले जाने वाली पगडंडी की ओर तेजी से बढ़ रहे थे तो उन्हें उसी भीड़ में से लखई, भिक्खू और हल्कू की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी. वे फब्तियां कस रहे थे. माँ-बहन की गालियाँ दे रहे थे. कुछ लड़कों ने उन पर पत्थर भी फेंके; पर, ऐसे लात-लताड़ के तो वह आदी बन चुके थे.
उस दिन वह शाम को ज़ल्दी वापस आ गए थे. कुर्ते की बगली से बटुआ निकालकर मिसराइन की ब्लाउज में खोंस दिया और कंधे पर से अनाज की गठरी दीवार के सहारे लगाकर वहीं धम्म से बैठ गए.बच्चों ने उनके चहरे पर कल जैसा तनाव नहीं देखा. वे उनका सुकून देखकर ताज्जुब में पद गए. पर, चुप्पी पहले जैसी पसरी हुई थी.
उन्होंने हाथ-पैर और मुंह धोए और मुस्कराते हुए उठे तथा ड्योढ़ी पर उकडूं बैठ गए. बच्चे जितने उनकी आज की कमाई से खुश नहीं थे, उतने वे उनके इस अप्रत्याशित व्यवहार से हतप्रभ थे. वे सोच रहे थे कि आज बाबूजी ने कौन-सा तीर मार लिया है.
मिसराइन उन्हें गौर से देखती रह गईं. पर, उनका मिजाज़ नहीं भांप पाईं. उनके कौतूहल को देखकर वह फिस्स से हंस पड़े. उसके बाद, उन्होंने सुबह मन में आई योजना का खुलासा किया, "अब, हम लोग इहाँ नहीं रहेंगे."
"क्या..." सबके मुंह खुले के खुले रह गए.
"हाँ, अब हम अपना मन बना लिए हैं कि हम लोग काशी जाकर रहेंगे. इहाँ क्या रक्खा है? पास-पड़ोस के सब गाँव में हम इतना बदनाम हो गए हैं कि हमें खुद से घिन्न आता है. बम्हरौली का कोई पंडित हमको देखते ही पिच्च से थूक देता है, मानोकि ह कोई दुसाध-चमार हों. जवार में हम जहां-जहां पाँव रखते हैं तो लोग गाभी (व्यंग्य) मारते हैं कि देखो, मुसहर जा रहा है. राह में कोई कुआं-ट्यूबवेल पर पानी पीने को माँगते हैं तो वहां जान-बूझकर हमारा जात पूछा जाता है. क्या हमारे जनेऊ, चोटी और ललाट से पता नहीं चलता है कि हम बाँभन हैं? सत्यानाश हो इन सबका. सो, हम ठान लिए हैं कि हम काशी जाकर अपनी पंडिताई करेंगे और तुम सबन का पेट पालेंगे..."
उन्होंने राहत की एक बहुत लम्बी सांस ली.
जब थोड़ी देर तक सभी अनिर्णय की स्थिति में गुमसुम एक-दूसरे का मुंह ताकते रहे तो वह फिर बोल उठे, "तू सबन को हमारा जोजना जंचा नहीं क्या? हम तो इतना उकता गए हैं कि हम अबहीं इन मुसहरन से पिंड छुड़ाना चाहते हैं."
उन्होंने खड़े होकर, बेचैनी में टहलते हुए हाथ-पाँव पटके और उन्हें प्रभावित करना चाहा.
"हमलोग भी एकदम्मै उकता गए हैं," सभी ने एक स्वर में कहा और उनकी योजना पर अपनी सर्वसम्मति दी.
"जीतता जल्दी हो सके, उत्ता जल्दी हम इहाँ से भाग-पराने को तैयार हैं..." मिसराइन जैसे गहरे पानी में डूबते हुए उबरना चाहती हों.
"बाऊजी! काल्हि चलिए ना! इहाँ एकदम्मे जी नहीं लगता है. आप कहेंगे तो सिलेट-पेन्सिल, खेल-खिलौने छोड़के हम उहाँ छिपली लेके भीख मांग लेंगे; लेकिन, अब इहाँ दम निकलता है." उनके ग्यारह-वर्षीय बड़कू ने अपनी ऊबन का विस्फोट किया. उसके बाद, परिवार का जलालत-भरा दर्द गर्म तेल की तरह उनके दिल में उतरता गया.
उस पल फिर सन्नाटा उनके बीच उतर आया. पर, इस सन्नाटे के पीछे किसी आशा का सूर्योदय होना था. सन्नाटा भयानक नहीं था. सुखद था. उन्होंने एक निर्णायक स्थिति में आने के लिए उन चंद पलों को इतनी बेचैनी से जीया जैसे कई-कई घंटे गुजारे हों. वे सैनिक की भाँति अपने कमांडर के हुक्म पर जान तक देने को उतावले हो रहे थे.
यकायक, मिसिरजी ने उन्हें ऊबन से बाहर निकाला, "काल्ह करै, सो आज कर..."
उनकी खुशी का पारावार नहीं रहा. उन्हें अहसास हुआ कि जैसे उन्हें कालापानी से आज़ाद कर दिया गया हो! तय यह हुआ कि वे कल सबेरे-सबेरे गाँव छोड़ देंगे.
"ज़ल्दी-ज़ल्दी सामान गठिया लो. बस, कपड़ा-लत्ता, चौका-बासन, माचिस-बत्ती, साबुन-तेल, गमछा-बनियान धरो. बाकी छोड़ दो इन हरामजादन के लिए."
उनके चहरे पर नफ़रत बाज़ की तरह उतर आई. "आक्थू" उन्होंने इतनी जोर से थूका कि माहौल में सनसनी फैल गई. "आज आखिरे दिन है. आज के बाद हम चैन की सांस लेंगे."
उनकी आँखों में एक अजीब-सी रोशनी तैर रही थी.
सामान-असबाब को बांधते-गठियाते हुए भोर हो गई. नींद की ज़गह उस योजना ने ले ली थी जिसे वे कार्यान्वित करने जा रहे थे. शुभ की कामना लिए मिसिरजी सारी रात टहलते रहे और गुनगुनाते रहे, "हरिओम तत्सत, हरिओम तत्सत..."
अभी सूरज की किरणें नहीं फूटी थीं. मिसराइन ने कहा, "पानी पी के चलेंगे."
सारा गाँव भोर की अधकचरी नींद में था. कहीं-कहीं से किसी चौपाए के रंभाने की की आवाज़ सुनाई दे रही थी. कुछ बूढ़े लोग खांसते हुए प्रात:कालीन क्रिया से निवृत्त हो रहे थे. भोर का पक्षी "ठाकुरजी, ठाकुरजी" जाप कर रहा था. मिसिरजी ने अपने मन में कहा, "बड़ा शुभ मुहूर्त है."
आठ वर्षीय मुन्नी हैंडपंप पर पानी काढ़ने गई. हैण्डपंप के पास खड़ा हल्कू दातुन कर रहा था. उसकी माई कलौतिया जूठे बर्तन लगाकर मांजने जा रही थी. दोनों ने हैंडपंप को व्यस्त रखने का बहाना दिखाया.
मुसहरों ने कई बार मिसिरजी के परिवार को हैंडपंप से पानी ले जाने के लिए मना किया था. मुसहरों ने कई बार मिसिरजी के परिवार को हैंडपंप से पानी ले जाने के लिए मना किया था. अभी कुछ दिन पहले हल्कू ने मिसिरजी के बड़कू को धकियाते हुए कहा था , "जा, जा, इ हैण्डपंप हमारा है, पीछे गढ़ई का पानी काढ़कर भरी बाल्टी लेकर जाने को हुई तो हल्कू ने अपनी माँ को कनखी से इशारा किया और उसने मुहं में भरा खखार पच्च से उसकी बाल्टी में उगल दिया.
उस घिनौने कृत्य से, मिसिर की छोकरी का स्वाभिमान उसके धैर्य की मांद से निकलकर दहाड़ उठा, "बाऊजी-बाऊजी...बड़कू भैया-बड़कू भैया..."
उसकी कर्णस्फोटक आवाज़ से वह चैन का सवेरा बेचैन हो उठा. सारा अम्बेडकर गाँव जाग उठा.
'क्या हुआ, क्या हुआ', चिल्लाते हुए लोगबाग झुग्गियों से बेतहाशा बाहर निकलकर इधर-उधर भागने लगे. उन्हें ऐसा लगा जैसेकि कोई भेड़िया किसी बच्चे को दबोचकर भाग रहाहो.
मिसिरजी अपनी मुन्नी के पास आ चुके थे. उन्होंने उसे और उसकी बाल्टी में तैरते खखार को देखा. उन्हें सारी स्थिति तत्काल समझ में आ गई. वह बिफर पड़े. अपना संयम बांधे नहीं रख सके. अहं को दमित नहीं कर सके. द्विज होने का उनका संस्कार अपनी बाँध तोड़ चुका था. उनके लिए अब अपमान का बोझ दुर्वह्य था. अदम्य प्रतिशोध में उनकी मुट्ठियाँ भींच गई जो पल भर में हल्कू के चहरे पर दनादन चलने लगीं.
अब तक ४०-५० मुसहर इकट्ठे हो चुके थे. जो जवान थे, उनका खून इस बात से उबल रहा था कि एक दूसरी जाति का व्यक्ति उनकी बिरादरी के आदमी की पिटाई कर रहा था. माहौल का पारा क्षण-प्रति क्षण गर्म होकर चढ़ता जा रहा था. उन्होंने लाठी और पत्थर उठा लिए. फिर, वे हल्कू को छुडाकर मिसिर की बेरहमी से धुनाई करने लगे. जब तक लखई, भिक्खू और दूसरे बुजुर्ग वहां हस्तक्षेप करते, वह मार से निढाल होकर जमीन पर गिर चुके थे.
इस दौरान, मिसिर परिवार बाज के निशाने पफ एक निस्सहाय पक्षी की तरह चींख रहा था. मिसिराइन लगातार गिड़गिड़ाए जा रही थी, च"छोड़ दो, हमारे आदमी को छोड़ दो. ब्रह्महत्या करक अपना काल मत बुलाओ. हमें माफी दे दो, हम तुम सबन के पैर पड़ते हैं. हम लोग बहुत भोग चुके हैं सजा. हम लोग अबहीं ई तुम लोगन का गाँव छेड़ के जा रहे हैं..."
पर, उनकी गिड़गिड़ाहाट से उनके कान पर जून तक नहीं रेंगने वाला था. सभी समवेत चिल्ला रहे थे, "इ कुजात परिवार को मार डालो, काट डालो, जलाकर राख कर डालो..." हल्कू जो मार खाकर एक कोने में बैठा अपनी चोट सहला रहा था, एकबैक तैश में खड़ा हो गया.
"हाँ, हमलोग मिसिर पलिवार कको ज़िंदा जलाएंगे...इ हमारे कुनबे और बांस का रिवाज है कि हम अपना दुश्मन को ज़िंदा जला देते हैं..." वह अपना फैसला पुरजोर आवाज में सुना रहा था.
उसके बाद पागल भीड़ जैसे अपने राजा के आह्वान पर उसका हुक्म बजाने के लिए अनियंत्रित हो गई. कुछ लड़कों ने जमीन पर अशक्त पड़े मिसिरजी के हाथ-पैर को पकड़ कर उन्हें घसीटते हुए उनके घर में फेंक दिया और उनके बीवी-बच्चों को भीतर धकेलकर बाहर से बंद कर दिया.
जब मिसिरजी होश में आए तो मिसराइन ने उन्हें मुसहरों का फैसला सुनाया, "अब, हमलोग ज़िंदा नहीं बचेंगे. हल्कू हम सबन को ज़िंदा जलाने का हुकुम पास कर चुका है..." उनकी जुबान तलवे से चिपक गई
बड़कू ने खिड़की से झाँक कर बाहर देखा. मुसहरों ने उनके घर को चरों ओर से घेर लिया था. बच्चे-बूढ़े सभी उनके घर को घास-फूंस, लकड़ी-लट्ठों से ढँक रेह थे. इसी दरमियान, हल्कू की बुलंद आवाज़ कान फाड़ने लगी, "इ बाँभन पलिवार को आज १२ बजे रात को काली मैया को बलि चढ़ाएंगे. तब तक तुम सब नाचो-गाओ."
बड़कू खिड़की से हटते ही फूट पड़ा, ""इ साले अब तक मूस भुनकर खाते थे, लेकिन अब आदमी भुनके खाएंगे."
उसकी टिप्पणी से घर में मुर्दाघर जैसा सन्नाटा छा गया. कहीं से भाग निकालने का रास्ता नहीं था. मिसिरजी के सामने अपने बीवी-बच्चों को घूरने के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं था. न कोई शिकायत थी, न कोई आक्रोश. जले हुए शव की तरह ठंडी राख बन चुके थे वह. नज़र के सामने शून्यता-ही-शून्यता थी. विचारों और भावों ने आमरण हड़ताल कर राखी थी. अन्यथा, अगर मुंह से शब्द नहीं निकलते तो कम से कम आँखों के जरिए भय, हताशा और मूक पीड़ा का सम्प्रेषण तो जरूर होता.
ज़िंदा जला दिए जाने का भय जिसके मन में भांय-भांय कर रहा हो, उसे भूख-प्यास, रोग-आजार, उमस-थकान की कब चिंता होती है? ऐसे डर का सांप जिसे सूंघ ले उसकी नजर भावशून्य होकर किसी एक दिशा में टंग जाती है,जुबान बिल्गोह की तरह तलवे से चिपक जाती है, सोचने की क्षमता ईंधन-रहित चूल्हे की तरह बुझ जाती है और हाथ-पैर बारूदी विस्फोट के कारण शरीर से अलग हुए अंगों की तरह अशक्त हो जाते हैं.
इस निरुपाय अवस्था में सुबह कब दोपहर में तबदील हो गई, उन्हें इसका अनुभव नहीं हुआ. कसाईखाने में जिबह-कर्म को टुकुर-टुकुर ताकते और अपनी बारी की प्रतीक्षा करते बकरों की तरह वे भली-भाँति जानते थे कि अगर उन्होंने शोर मचाया , रोना-पीटना शुरू किया तो ये वहशी उन्हें समय-पूर्व ही आग में स्वाहा कर देंगे. चिल्लाने से लाभ भी क्या होगा? मुसहरों का कोलाहल उनकी पुकार को गाँव से बाहर निकालने से पहले ही निगल जाएगा. इसलिए, सभी ने एकदम चुप्पी साध रखी थी. मौत की फुफकार उनमें से एक-एक को किस हद तक दहशा रही थी, उसका बयाँ वे किससे करें? किस जुबान में करें? किस मनोभाव में करें? और क्यों करें?
कुछ ही समय बाद एक आदम घरौंदा अग्नि की सहर्ष खुराक बनने वाला था. शाम पहले ही अपना अंगूठा दिखाकर गायब हो चुकी थी. अब तो रात मौत का लबादा पहन, उस माहौल में पसरती जा रही थी. यह कौन सा उन्माद था जिसके तले दया का निवास नहीं था? ऐसा लग रहा था कि मध्ययुग के किसी आदिम कबीले में रात्रि का कोई जश्न मनाया जा रहा हो. सारे मुसहर उस जश्न में जोश-खरोश से शिरकत कर रहे थे. कोई देसी ठर्रा चढ़ा रहा था तो कोई भुने हुए चूहे का भक्षण कर रहा था. अधनंगे औरत-मर्द कोई कबीलाई नाच, नाच रहे थे. ढोल-नगाड़ों की अजीब-सी थाप पर उनके कदम थिरक रहे थे. नाचने के साथ, वे हुंकार-हुंकार गाते भी जा रहे थे:--
'अरे, ओ बुड़भक बंभना, अरे, ओ बुड़भक बंभना...'
यह जश्न काफी देर तक चलता रहा.
करीब बारह बजे हल्कू काली मैया की प्रतिमा के पास जलते हुए अग्निकुंड से एक मशाल जला लाया. उसे देख सभी ने उसे घेर लिया. तभी. लखई कुछ नई मशालें मिट्टी तेल में डुबो लाया. उसने बारी-बारी से मशालें जलाकर उठे हुए हाथों में थमाईं
वहां प्राय: दो दर्जन लोगों के हाथ में मशालें आ गईं.
तदनंतर, वह शोर अजीबोगरीब हुंकार में तब्दील हो गया जैसेकि एक जबरदस्त तूफ़ान उठा हो. शायद, वे किसी लोकप्रिय रिवाज़ का भलीभांति निर्वाह करने को उतावले हो रहे थे.
सभी हल्कू का अनुगमन करते हुए मिसिर के घर के आगे जमा हो गए. हल्कू गरज पड़ा, "सभी जाने घे लो, मिसिर पलिवार को."
तदनंतर, उसने काली मैया की जयकार करते हुए मशाल मिसिर के घर के चारों ओर बिछे घास-फूंस पर फेंक दी. सभी ने वैसा ही किया. देखते-देखते मिसिर का घर आग की लपटों से आवृत्त हो गया. अब उसका दुर्भाग्य टाला नहीं जा सकता था क्योंकि ईश्वर भी वहां इंसानी विप्लव को रोकने में असमर्थ हो गया था.बेशक, कोई करिश्मा वहां घटित होने वाला नहीं था.
दूसरे दिन सवेरे, अम्बेडकर गाँव के अग्निकांड की खबर पड़ोसी गाँवों से होकर ब्लाक, तहसील और शहर तक दावानल की तरह फाइल गई. अभी सूरज न्यून कोण पर नहीं पहुंचा था किया कि आसपास के गाँवों से भीड़ उमड़ पड़ी. ब्लाक प्रमुख, स्थानीय विकास अधिकारी और पुलिस का दल, सभी वहां स्थिति का जायजा लेने के लिए आ गए. स्थानीय नेताओं ने मिसिरजी जैसे समाजसेवी के सपरिवार जलकर मरने पर शोक प्रकट करने के लिए, वहां अपनी मौजूदगी की दर्ज कराई. ऐसा स्वाभाविक बई था क्योंकि विधानसभा चुनाव आसन्न था और उन्हें अपने दल के उम्मीदवारों को विजय दिलानी थी.
डरे-सहमे मुसहर हल्कू के इर्द-गिर्द मंडरा रहे थे. हल्कू ने लखई से कहा, "चचा, डरो मत. हमारे रहते केहू का बाल-बांका नहीं होगा."
उसने अपने मामा धनेसर को कनखी से इशारा इया. धनेसर ने आते ही हल्कू के कान से अपना मुंह सटा दिया, "अरे, भांजे, तू तो हमसे भी आगे निकल गया. यह काम करके तो तू रातों-रात नेता बन गया."
हल्कू फिस्स से मुस्काराते हुए अधिकारियों की ओर बढ़ गया. अब, उसकी आँखें झर-झर बरस रही थीं. और अंगोछा आंसुओं में सना था. इसी बीच पत्रकार आ गए जिन्होंने हल्कू के सौजन्य से जो रिपोर्ट मशक्कत से तैयार की, वह इस प्रकार थी--
"रात के १२ बजे, अम्बेडकर गाँव एक मुखिया श्री धनीराम मिसिर के घर में अचानक आग लग गई. वे भाग नहीं सके क्योंकि आग ने तत्काल उन्हें और उनके बीवी-बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले लिया. ग्रामीणों ने आग पर अविलम्ब काबू पाने की कोशिश की लेकिन वे नाकाम रहे. मिसिर परिवार, जो ब्राह्मण होकर भी तन-मन से शूद्रों की सेवा में समर्पित था, जलाकर उसी गाँव की मिट्टी का अभिन्न हिस्सा बन गया. श्री धनीराम मिसिर के एक निकटतम कार्यकर्ता श्री हल्कू पासवान ने उनके बाद मुखिया की ज़िम्मेदारी सम्हालते हुए यह शपथ ली कि वह महान आत्मा मिसिरजी के आदर्शों और सिद्धांतों पर चलकर दलितों का उत्थान करेंगे. गाँव के एक अन्य वयोवृद्ध समाजसेवी श्री लखई पासवान ने फफक-फफककर रोते हुए मिसिरजी की कठोर दिनचर्या पर प्रकाश डाला. सभी गांववासी मिसिरजी की अकाल मृत्यु पर अत्यंत शोक-संतप्त थे.
गाँव के विकास के लिए स्वयं को वचनबद्ध करते हुए श्री हल्कू पासवान ने कहा कि मिसिरजी मसीहा थे. वह अम्बेडकर के अवतार थे. उन्होंने आगे कहा , "अगर प्रशासन आर्थिक सहायता दे तो धनीराम मिसिर की स्मृति में अम्बेडकर गाँव में उनका स्मारक बनवाएंगे. इस पर ब्लाक प्रमुख ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे प्रशासन से इस प्रयोजनार्थ आर्थिक मदद दिलवाने की भरसक कोशिश करेंगे."
दूसरे दिन सुबह, उक्त खबर अखबारों की सुर्ख़ियों में थी. अम्बेडकर गाँव के निवासियों में जो बातचीत का बाजार गर्म था, उसका लब्बोलुबाब यह था कि उनके गाँव के विकास की पुख्ता नींव मानव बलि चढ़ाए बगैर नहीं डाली जा सकती थी.
(समाप्त)