अर्जुन की मानवीय कमजोरियाँ / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
यों तो दूसरे अध्या य के 33-36 श्लोकों में, मानव स्वभाव की कमजोरियों को समझ के ही, अर्जुन को खूब ललकारा है कि मुँह में कालिख पुत जाएगा, यदि पीछे हटे, लोग धिक्कारेंगे; हटने से तो मरना कहीं बेहतर है; शान की मौत बेइज्जती की गद्दी से लाख दर्जे अच्छी है, आदि आदि 37वें में भी कह दिया है कि तुम्हारे तो दोनों ही हाथों में लड्डू है - हारो तो शान तथा स्वर्ग और जीतो तो राजपाट! इसलिए हर्गिज मुँह न मोड़ो। असल में विवेक और अध्याैत्मवाद की अपेक्षा यही बातें मनुष्य को स्वभावत: उत्तेजित करके कर्तव्य पथ में खामख्वाह जुटा देती है। गीता इसे बखूबी जानती है और इस पर जोर भी उसने इसीलिए दिया है। तथापि दूसरे अध्यामय के शुरू के दो और तीन श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह इतना सुंदर है और मार्क्स वाद के साथ गीता को मिलाने में उसका इतना महत्त्व है कि हम उसे लिखे बिना रह नहीं सकते। वे दोनों श्लोक ये हैं, 'कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्। अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्त्तिकरमर्जुन॥ क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप:॥'
इन दोनों का अर्थ ऐसा है, 'अर्जुन, इस विकट समय में, जब कि सारी तैयारी हो चुकने के बाद भिड़ंत होने ही वाली है, तुममें यह कमजोरी कहाँ से आ गई? कमजोरी भी ऐसी कि भले लोग जिससे लाख कोस दूर भागें, और जो निहायत मनहूस और अमंगल होने के साथ ही इज्जत को भी मिट्टी में मिला दे। खबरदार, नामर्दी मत दिखाओ। यह चीज तुममें जेबा नहीं देती। इसलिए बहादुर, दिल की इस बेहूदी कमजोरी को छोड़कर तैयार हो जाओ।' मगर इतने से ही काम नहीं चलेगा। इन बातों की खूबी और अहमियत समझने के लिए हमें अर्जुन की उन बातों पर सरसरी नजर दौड़ानी होगी जो उसने इससे पहले कही थीं और जिनके जवाब में यह कहा गया है।
पहले अध्याकय के 28-46 श्लोकों को देखने से पता चलता है कि अर्जुन को जैसे धर्म और अक्ल का अजीर्ण हो गया हो। उसका हृदय उस समय दया से दब गया था, यह बात उससे ठीक पहले के 27वें श्लोक के 'कृपया परयाविष्ट:' से स्पष्ट है। यही कारण है कि बुद्धि ठीक काम करती थी नहीं। फलत: अक्ल का अजीर्ण मिटाना जरूरी हो गया। जो लोग ऐन कर्तव्य पालन के समय दिल की कमजोरी और नादानी से दयार्द्र हो जाते और रहम करने लगते हैं वह ऐसी ही बेसिर-पैर की बातें करते हैं। 1905 में काले सागर के रूसी जहाजी बेड़े के सिपाहियों को मजबूरन अपने ही अफसरों के विरुद्ध बगावत करनी पड़ी थी। क्योंकि अफसरों ने जानबूझ के ऐसी शैतानियत की और सिपाहियों की स्वतंत्रता पर ऐसी रोक लगाई कि बरदाश्त से बाहर थी। बात यह थी कि रूस के किसानों और मजदूरों के क्रांतिकारी आंदोलनों के साथ जहाजी सिपाही (Sailors) सहानुभूति दिखाना चाहते थे। कारण, वह आंदोलन उनके अपने ही मजलूम भाइयों का था। मगर इसमें अफसरों ने अड़ंगे डाले। फलत: विद्रोह की आग भड़क उठी और सिपाहियों ने सभी अफसरों को चटपट कैद कर लिया! फिर तो लेने के देने पड़े! अफसरों की सारी गरमी ही गायब हो गई। उनने आरजू मिन्नत की, माफी माँगी, आगे के लिए बाधा न डालने के वादे किए। फिर क्या था? दया में आके सिपाहियों ने उन्हें रिहा कर दिया। बस, मौका मिलते ही बाहर से अपने पक्ष की फौज मँगा के अफसरों ने उन्हीं सिपाहियों का कत्लेआम शुरू कर दिया। ऐसे समय की दया नादानी की पराकाष्ठा होती है और उसका नतीजा इसी तरह भुगतना पड़ता है। लेनिन ने इस दयावाली नादानी का सुंदर वर्णन सन् 1905 वाली रूसी क्रांति के संबंध के 22/1/1917 वाले ज्यूरिच के भाषण में किया है। महाभारत के समय वही गलती अर्जुन भी ऐन मौके पर करने जा रहा था।
मगर इस ऐन मौके पर पीछे हटने के लिए कोई कारण तो चाहिए ही। दया की बात तो की जा नहीं सकती थी। जिनने सब कुछ किया और पांडव परिवार का सर्वस्व छीनने, उन्हें तंग-तबाह करने, उनकी स्त्रीी तक को बेइज्जत करने और उन्हें मार डालने तक के लिए जिनने कोई भी दकी का बाकी नहीं रखा, यहाँ तक कि जंगल में भटकने के समय उन्हें चिढ़ाने तथा जले पर नमक छिड़कने के लिए वही राजसी ठाटबाट के साथ दुर्योधन का सारा समाज पहुँच गया था, उन्हीं के साथ दया! ऐसा बोलने की हिम्मत अर्जुन को थी नहीं। इसलिए वह धर्म, पाप, कुलसंहार, वर्णसंकर, नरकवास का भय आदि बातें पेश करने लगा, धर्म एवं नीतिशास्त्र के पन्ने के पन्ने उलटने लगा। उनने यह भी कहा कि यह ठीक है कि विरोधियों को भी ऐसा ही सोचना चाहिए; आखिर अक्ल की ठेकेदारी हमीं को तो नहीं है; एक ही पक्ष के सोचने से दुनिया में काम भी नहीं चला करता। फिर भी उनकी आँखें तो बंद हैं! वे तो लोभ में पड़े हैं! उन्हें तो लोक-परलोक कुछ सूझता नहीं! लेकिन हमारी तो खुली हैं। हम तो सारा अनर्थ साफ देख रहे हैं। इसलिए हम तो संतोष को ही कल्याणकारी मानते हैं। यह भी ठीक है कि हम हटेंगे तो शत्रु लोग हमें बर्बाद करके ही छोड़ेंगे। मगर इससे क्या? हमारा परलोक तो न बर्बाद होगा, स्वर्ग बैकुंठ तो मिलेगा, भगवान तो खुश होंगे। इसलिए हमें हर्गिज-हर्गिज लड़ना नहीं चाहिए।
ऐसा मालूम होता है कि किसी जमींदार या कारखानेदार के अत्याचारों से ऊबकर हड़ताल या और तरह की सीधी लड़ाई लड़ने को जब किसान और मजदूर पूरी तरह आमादा हैं, ठीक उसी समय कोई धर्मध्वसजी, धर्म का ठेकेदार गुरु, पीर, पंडित, मौलवी या पादरी उन्हें धर्म और भगवान के नाम पर सिखा रहा है कि कभी संघर्ष और लड़ाई का नाम न लो! राम, राम महापाप होगा। यदि जमींदार-मालदार कष्ट देते हैं, तो बरदाश्त करो आखिर वे लोग बड़े हैं, मालिक हैं। छोटों के लिए बड़ों की बातें सहने में ही फायदा है! संतोष करो, तो भगवान खुश होगा, परलोक बनेगा। भुलावे में मत पड़ो। वे गलती करते हैं तो करें, मगर उनकी देखा-देखी तुम लोग क्यों नादानी कर रहे हो, आदि-आदि। और दूसरे अध्या य के शुरू के दो श्लोकों में जो कुछ कृष्ण के मुँह से गीता ने कहलवाया है वह तो ऐसा मालूम होता है कि कोई वर्गसंघर्षवादी मार्क्सकवादी ऐसे उपदेशकों को और उन किसान-मजदूरों को भी फटकार रहा है जो भूलभुलैया में पड़के आगा-पीछा कर रहे हैं। गीता ने धर्म और पुण्य-पाप आदि की सारी दलीलों का जो उत्तर इन दो श्लोकों में ही खत्म कर दिया है वह निरी भौतिक दृष्टि से ही है। इतना चुभता हुआ, संक्षिप्त और माकूल उत्तर शायद ही मिले। अर्जुन की धर्म-वर्म की बातों की जरा भी परवाह नहीं की गई है। उनका खयाल ही नहीं किया गया है। सीधे सांसारिक दृष्टि से ही उसे कस के चपत लगाई गई है और करारी डाँट दी गई है। इन दो श्लोकों में जो सिर्फ एक शब्द 'अस्वर्ग्य' आया है उससे शायद यह भ्रम हो कि स्वर्ग या परलोक की बात भी इसमें है। मगर संस्कृत में 'अस्वर्ग या अस्वर्ग्य' शब्द मनहूस, अमंगल आदि के ही मानी में आता है। ऐन लड़ाई के समय इन बातों से बढ़ के मनहूस या अमंगल होई क्या सकता है? इसीलिए हम गीता-धर्म को मार्क्सेवाद का साथी पाते हैं।