अर्थव्यवस्था के विकास का मॉडल है 'गांधी दर्शन' / अमित त्यागी
सत्य एक विशाल वृक्ष है ज्यों ज्यों उसकी सेवा की जाती है, त्यों त्यों उसमे अनेक फल उगते हुये दिखाई देते है। उनका अंत नही होता। ज्यों ज्यों हम गहरे पैठते हैं त्यों त्यों उनमे से रत्न निकलते हैं। सेवा के अवसर हाथ आते हैं।
गांधी ने हमें स्वाधीन राष्ट्र के रूप में आत्मसम्मान का अमूल्य उपहार दिया है, जो हर युग में प्रासंगिक रहेगा। गांधी जननायक थे जिन्हे किसी सत्ता का सहारा नही था। वे छल कपट से दूर स्वप्रेरित एवं लक्ष्यकेन्द्रित राजनीतिज्ञ थे। नैतिक मूल्यों से लैस एक ऐसे योद्धा, जिन्होने एक सर्वाधिक शक्तिषाली साम्राज्य को अपनी विन्रमता, दृढ़ इच्छाशक्ति और आदर्शवादिता के आगे बेबस एवं शक्तिहीन बना दिया। गांधी दर्शन एक सौरमंडल की तरह है। जिसमे सत्य सूर्य की तरह आलोकित हैं। अहिंसा, नैतिकता, शिष्टता, आत्मबल, कर्त्तव्य, समानता आदि सत्य के इर्द गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। गांधी दर्शन स्वयं एक शक्तिशाली अस्त्र शायद न लगे, किन्तु सापेक्षिक तौर पर अन्य विचारधाराओं पर यह सबसे कारगर शस्त्र की तरह मार करता है। अन्य विचारधाराएं कभी सम्बद्ध प्रतीत होती हैं, कभी अप्रायोगिक। उनके बारे में एक निश्चित रूपरेखा कभी भी प्रस्तुत नही की जा सकती, किन्तु इस महान सौम्य प्रकाश-पुंज की अनुभूति तो अनंतकाल के लिए है।
अहिंसा का तात्पर्य बलिदान से है। बलिदान का सच्चा अर्थ यह है कि दूसरों को जीवन प्राप्त हो। हम स्वयं कष्ट उठायें एवं दूसरों को आराम मिले। दूसरे के लिए प्राणार्पण करना प्रेम की पराकाष्ठा है और उसका शास्त्रीय अनुवाद अहिंसा है। जीवन और मृत्यु का युद्व होता रहता है, किन्तु परिणाम मृत्यु नही, जीवन है। अहिंसा सर्वव्यापक धर्म है।
---हि. न. जी.
अहिंसा कभी कायरों का लक्षण नही हो सकती। इसके लिए अपार आत्मबल एवं धैर्य की आवश्यकता होती है, जो सिर्फ वीरों के पास ही मिल सकता है। वीरता से तात्पर्य शारीरिक शक्तियों से नही है, बल्कि स्वयं में अंर्तनिहीत आत्मशक्तियों से है, आत्मबल से है, जिजिविषा से है, मौन से है। जब मनुष्य अहिंसा को अपना मार्गदर्शक बनाने की स्थिति में आ जाता है, तब उसकी आध्यात्मिक प्रगति सुनिश्चित होने लगती है। समस्त विविधताएँ निमित्त मात्र रह जाती हैं एवं अवगुण धीरे धीरे विलुप्त होने लगते है। हम अदृश्य एकता का अनुभव करते हैं और सदगुण स्वतः स्फुटित होने लगते है। अहिंसा, एक व्यक्तिगत चिंतन है, जो सामाजिक रूप में कार्य करता है।। संगठित होने के बाद तो यह हिंसा से भी घातक हथियार बन जाया करती है। अहिंसा एक सीधी लकीर की तरह है और अन्य विचारधारायें अपूर्ण टेढी लकीर की भांति। जो लकीर सीधी नही, वह तो कई प्रकार की हो सकती हैं। यदि किसी बच्चे ने कलम पकड़ना सीख लिया है ,तो यह ज़रूरी नही कि वह सीधी लकीर खींच ही लेगा। इसके लिए सतत् प्रयास एवं अभ्यास की आवश्यकता तो होगी ही....!!
गांधी दर्शन पर आधारित उदारीकरण सार्वभौमिकरण
किसी भी देश के विकास का उदगम उसकी मूलभूत संरचना के माध्यम से आरम्भ होता है। विकास का चक्र ग्राह्य होना चाहिये, चर्चा तो सिर्फ माध्यम के बिंदुओं पर होनी चाहिये। भारत के पिछड़े से विकासषील एवं विकासशील से विकसित की तरफ बढ़ने की संभावना तो अर्थपूर्ण है, किन्तु प्रक्रियाओं में सुधार की गुंजाइश अवश्य हैं। सार्वभौमिकरण एक उचित माध्यम है आर्थिक विकास का। आज डेढ़ दशक में इसको काफी हद तक परख भी लिया गया है। जरूरत है तो सिर्फ उन बिंदुओं पर पुर्नविचार करने की, जिनके द्वारा अपेक्षाकृत हानि भी हुयी है। सार्वभौमिकरण का सबसे नकारात्मक पक्ष जो उभर के सामने आया है, वह नैतिक मूल्यों का पतन है, और नैतिक पतन की एक मूल वजह अंग्रेजी भाषा का अति एवं अनावश्यक इस्तेमाल भी है। अंग्रेजी भाषा का विरोधी तो मैं भी नही हूँ, क्योंकि भाषा का कार्य दो पक्षों के मध्य ‘कम्यूनिकेशन’ मात्र होता है और कुछ नही। किन्तु इससे स्वभाषा/हिन्दी की हानि अवश्य हुयी है। भारत की संस्कृति की बुनियाद एवं रूपरेखा भारतीय भाषाओं को केन्द्रबिन्दु मानकर ही संचालित है। नींव में दरार से सम्पूर्ण इमारत प्रभावित होती है और धीरे धीरे इमारत एक खंडहर की तरफ बढ़ने लगती है। हमें ये बात साफ तौर पर समझनी चाहिये, कि जिस संस्कृति की परवरिश में वर्षो की प्रक्रिया सम्मिलित रही हो, मूलभूत ढांचा भी उसी के इर्द गिर्द घूमता है। विकासशील से विकसित होने की प्रक्रिया यदि इसी ढांचे के इर्द गिर्द होगी तो नयी तस्वीर स्थायी एवं दीर्घकालिक होगी, अन्यथा बीच बीच में बाधाएं आकर विकास की गति को अवरुद्ध करती रहेंगीं। रूस, चीन, जापान जैसे देश विकास के मार्ग को स्वभाषा के इर्द गिर्द ही केन्द्रित किये हुये है जिसका परिणाम है कि उनकी सांस्कृतिक विरासत एवं कला पर प्रहार अपेक्षाकृत कम हो पाए हैं। अपने संसाधनों का इस्तेमाल भी स्वभाषा में अपेक्षाकृत बेहतर एवं सरलता से हो सकता है। कार्यक्षमता एवं दृष्टिकोण की उपादेयता और बेहतर परिलक्षित हो सकती है। अंग्रेजी भाषा के द्वारा विकास तो हुआ है यह मैं भी मानता हूँ, रोजगार के अवसर भी बढ़े हैं, सड़के, संचार माध्यम एवं अन्य क्षेत्रों में भी तरक्की हुयी है किन्तु ये सार्वभौमिकरण का सकारात्मक पक्ष मात्र है। जिन क्षेत्रों में रोजगारों का सृजन हुआ है उनमे से अधिकतर आउटसोर्सिंग से हैं। दूसरे शब्दों में निवेशक देशों ने भारत की श्रम शक्ति को दुहा है। यदि यह देश अपने हाथ वापस खींच लें, तो रोजगार के अवसर भी जाते रहेंगें। उदाहरण के लिए यदि किसी अमेरिकी कम्पनी ने अपना काल सेन्टर भारत में स्थापित किया है, तो वहाँ अंग्रेजी भाषा का इस्तेमाल ही होगा। हमारी हिंदी को प्रोत्साहित करने के लिए सारे अमेरिकी तो हिन्दी को नही सीखेंगें। और यदि भारतीय काल सेन्टर की स्थापना होती है, जैसे कृषि काल सेन्टर, तो यहाँ हिन्दी का ही इस्तेमाल होगा। ऐसें आधारभूत क्षेत्रों में निवेश को प्रोत्साहित करने से हिंदी स्वतः प्रोत्साहित हो जायेगी। इसके अतिरिक्त यदि क्षेत्रिय कलाओं पर आधारित क्षेत्रों को भी प्रोत्साहन दिया जाये तो रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत स्थायी होंगे; और सार्वभौमिकरण के द्वारा इनका विपणन किया जाये तो ऐसे में सार्वभौमिकरण का पूंजीगत फायदा भारत को भी होगा, सिर्फ बाहरी शक्तियों को नही। उदाहरण के लिए लस्सी एवं छाछ को साफ़्ट ड्रिंक पर तरजीह दिलवाना गांधी दर्शन का ही परिष्कृत रूप है। हिन्द स्वराज मे गांधी जी भी मशीन की इसी प्रक्रिया से चिंतित थे, वह मैनचेस्टर में बने कपड़ों के विरोधी नही थे, उनकी चिंता तो सिर्फ चरखों की आत्मनिर्भरता की कमी से थी। उनका बैर रेलगाड़ी के आगमन से नही था, बल्कि उसके द्वारा असामाजिक तत्वों की बढ़ती सक्रियता से था। गांधी जी की चिंता सदैव आत्मनिर्भरता में कमी से थी, विकास के पथ से नही...?
सभी विकसित देश आर्थिक दृष्टिकोण को सर्वोपरि रखकर ही सार्वभौमिकरण की प्रक्रिया द्वारा उदारीकरण के पथ पर आगे बढ़े हैं। प्रत्येक मल्टीनेशनल के लिए उसके व्यापारिक हित सर्वोपरि हैं। व्यापारिक दृष्टिकोण से यह गलत भी नही है। हमें तो सिर्फ ऐसा माहौल पैदा करना है, जिसमें केन्द्र बिन्दु भारत का ‘सांस्कृतिक ढांचा’ हो एवं सम्पूर्ण प्रक्रिया इसके इर्द गिर्द ही रहे। बर्हुराष्ट्रीय कंपनी के यहॉ कर्मचारी एक तरह से बांडेड लेबर की तरह होते हैं। उनकी मेधा का इस्तेमाल कंपनी अपनी ज़रूरतों के मुताबिक करती है। बर्हुराष्ट्रीय कंपनी के नीति निर्माण में हमारी कोई दखलअंदाजी नही होनी चाहिए, किन्तु सरकार की तरफ से एक चीज तो निर्देशित की ही जा सकती है कि कार्य आरम्भ के समय तिरंगे के समक्ष उपस्थित होकर राष्ट्रगान की धुन बजाना अनिवार्य है। यह प्रक्रिया धीरे धीरे स्वतः ही राष्ट्रवाद की भावना को प्रबल करने लगेगी...? उदारीकरण का अर्थ सिर्फ दो देशों के मध्य बढते व्यापार से नही माना जाना चाहिए, बल्कि एक ही देश के दो प्रदेशों के मध्य भी यह एक बेहतर विकल्प है। नदियों को नेटवर्किंग के द्वारा जोड़े जाने का प्रस्ताव भी इसी सोच का एक प्रारूप है। बाढग्रस्त एवं सूखाग्रस्त क्षेत्रों की नदियों को नेटवर्किंग के द्वारा जोड़कर दोनो आपदाओं को कुछ हद तक अपेक्षाकृत नियंत्रित तो किया ही जा सकता है, और ऐसी किसी भी योजना के लिए विदेशी निवेश सदैव स्वागतयोग्य है। इस प्रकार जल परिवहन के क्षेत्र में भी एक क्रांति आयेगी, जो अन्य उपलब्ध विकल्पों से भी एक सस्ता आयाम उपलब्ध करायेगा। यूरोप एवं अमेरिका के कई देशों में यह एक प्रचलित व्यवस्था है। इसी प्रकार दिल्ली के सफलतम प्रयोगों में से एक एवं अन्य प्रमुख शहरों में प्रस्तावित मेट्रो रेल भी स्वागतयोग्य कदम हैं। ये सभी प्रयोग भारत के मूलभूत ढांचे को ही मज़बूत कर रहे है। इसी प्रकार क्षेत्रिय कलाओं में भारत की आत्मा झलकती है, भारत के हस्तशिल्प की कारीगरी तो दुनिया में मशहूर है। कुछ हुनर प्रकृति द्वारा विशेष एवं चुनिंदा लोगों को ही दिये जाते हैं, किन्तु अधिकांश स्थानो पर इस हुनर का सम्पूर्ण उपयोग नही हो पा रहा है। कारीगर अपने हुनर से दूर हट रहे हैं एवं मजदूरी करने पर विवश हैं। यदि पूंजीगत निवेश को दृष्टिगत रखते हुये इन क्षेत्रों की मिल्किंग/पुर्नरुद्धार करके इनकी ग्लोबलाइज्ड मार्केंटिंग/वैश्विक विपणन की जाये, तो इन क्षेत्रों में भी छोटे छोटे निवेशक अवश्य ही अपनी रूचि दिखायेंगें। इससे लोगो में स्वरोजगार के द्वारा आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी एवं क्षेत्रिय असंतुलन भी घटेगा। राष्ट्रवाद बढेगा एवं हिन्दी को ख़ुद-ब-ख़ुद अंग्रेजी पर वरीयता मिलने लगेगी। यह भी व्यापार का सार्वभौमिकरण ही कहा जायेगा। यूरो की तर्ज पर दक्षिण एशिया में भी एक साझी मुद्रा पर विचार करना बेहतर आर्थिक विकल्प रहेगा, किन्तु इसके पहले क्षेत्रिय कलाओं को प्रोत्साहित करना प्राथमिकता होनी चाहिए।..किसी रेखा को बिना स्पर्श किये छोटा करने का एक नज़रिया यह भी है, कि उसके समक्ष एक बड़ी रेखा खींच दी जाये, पहले वाली स्वतः ही छोटी लगने लगती है।.... यही अहिंसक गांधी दर्शन है।
उदारीकरण जहाँ कहीं भी आत्मनिर्भरता को प्रेरित करता प्रतीत हो, वहाँ वह स्वागतयोग्य है। सकारात्मक सोंच सदैव विकास के पथ को उत्प्रेरित करती है। अच्छाई किसी भी रूप में मौजूद हो, कीचड़ में खिले कमल की तरह ग्रहण कर लेनी चाहिए। ‘हिन्द स्वराज’ में एक प्रकरण में गोखले जी का जिक्र है। गोखले जी के अनुसार "भारत को अभी स्वराज की आवश्यकता नही है, अभी हमें अंग्रेजों से राज़नीति की समझ सीखनी चाहिए"। इस पर गांधी जी कहते हैं कि "केवल प्रौढ़ एवं तर्ज़ुबेदार लोग ही स्वराज भुगत सकते हैं, न कि बेलगाम लोग.......हमें गोखले जी की सोच का भी आदर करना चाहिए। वह यह बातें अंग्रेज़ों को प्रभावित करने के लिए नही, बल्कि हिन्द के लिए अपनी भक्ति के फलस्वरूप कहते हैं।"
भारत के राष्ट्रवाद की भावना को इतना खतरा वाह्य शक्तियों से नही है, जितना कि आंतरिक असंतोष से है। वाह्य शक्तियों को सुरक्षा बलों द्वारा नियंत्रित कर लिया जाता है। सीमा पर सुरक्षा बलों का आत्मबलिदान एवं जागरूकता हमेशा हमारा मस्तक ऊँचा रखती है। किन्तु जब वाह्य शक्तियों के द्वारा बेरोजगार युवको के आंतरिक असंतोष को भुनाया जाता है, तब देश की अखंडता एवं व्यवस्था को एक साथ बरकरार रखना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। बौद्विकता एवं असंतोष का मेल सदैव वीभत्स कार्यो को अंजाम देता है। ‘हिन्द स्वराज’ में गांधी जी कहते हैं कि:
...हिस्टरी अस्वाभाविक बातों को दर्ज करती है। हिस्टरी का अर्थ है, ऐसा हो गया। हिस्टरी में दुनिया के कोलाहल की कहानी ही मिलती है, जिस देष में शंातिपूर्ण व्यवस्था रही हो, उसकी हिस्टरी नही होती.......’
वास्तव में स्वयं से ईमानदारी आवष्यक है, सिर्फ ईमानदारी का आवरण नही। उच्च एवं अति उच्च शिक्षित होना व्यक्ति का चारित्रिक विष्लेषण नही करता। व्यक्ति की सफलता एवं व्यक्तित्व का मापदंड उसके नैतिक मूल्य हैं, शिक्षा, पद या धन का होना नही..? यह तो सिर्फ स्वार्थहित के लिए मापदंड बना दिये गये हैं। उच्च शिक्षित, उच्च पद पर प्रतिष्ठित एवं धनवान भी संवेदनशून्य हो सकता है एवं तीनो से रहित व्यक्ति भी संवेदनशील हो सकता है। वास्तविक सफलता एवं भ्रष्टाचार में कमी के लिए अन्य तत्वों से ज्यादा संवेदनशीलता महत्वपूर्ण है.....
(महात्मा गॉधी द्वारा रचित “हिंद स्वराज” पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की अघ्यक्षता में प्रकाशित आलेख का अंश)