अर्थों का दिवंगत होना/गिरिराजशरण अग्रवाल

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बाबू चंडीप्रसाद अपने ज़माने के बड़े ही अद्भुत आदमी थे और सब तो अपनी माई के लाल होते हैं, वह रज़ाई के लाल थे। 'रज़ाई' शब्द हमने जानबूझकर प्रयोग किया है, क्योंकि चंडीप्रसाद स्वयं भी प्रचलित शब्दों और मुहावरों के कट्टर विरोधी थे। फिर चंडीप्रसाद जैसे माई के लाल पर 'रज़ाई का लाल' मुहावरा ही फिट बैठता है, 'गुदड़ी का लाल' नहीं। इस बात को आप जानते ही हैं कि रज़ाई यदि अपने-आपमें मध्यम वर्ग की द्योतक है तो गुदड़ी निम्न वर्ग की। साथ ही यह बात भी आप भली-भाँति जानते हैं कि गुदड़ीवाला निम्नवर्ग राजनीतिक खिलाडि़यों की खेल-प्रतियोगिता में फुटबाल का काम करता है। एक पक्ष के खिलाडि़यों द्वारा किक मारी गई तो इधर, दूसरे खिलाडि़यों के द्वारा ठोकर मारी गई तो उधर। भारी गुत्थम-गुत्था के बाद अगर कोई पक्ष गोल दागने में सफल हो जाए तो सफल पक्ष सत्ताधारी, असफल रह जाने वाली टीम विपक्ष की मारा-मारी। रह गई फुटबाल तो अगली प्रतियोगिता तक उसका कोई काम, कोई महत्त्व नहीं। वह या तो क्रीड़ा-सामग्री के भंडार में चुपचाप पड़ी रहेगी अथवा समय-समय पर फूँक भरने के काम आएगी। फुटबाल और जनता फूँक भरने के लिए और खेल-प्रतियोगिता के दौरान किक मारने के लिए ही होती है।

क्षमा कीजिए, हमने जनता बनाम फुटबाल की यह व्याख्या अपनी बुद्धि से नहीं की है। चंडीप्रसाद जी की बुद्धि सक्रिय रही है इस कार्य में। चंडीप्रसाद बेचारे अपने अंतिम दिनों में एक नया शब्दकोश संकलित कर रहे थे कि समय से पहले ही भगवान् को प्यारे हो गए. आपको यह बात भी याद दिलाना अच्छा रहेगा कि ऐसे 'रज़ाई के लाल' , जिन्हें समाज दिखावे के लिए भी प्यार नहीं करता, समय से पहले ही भगवान् को प्यारे हो जाते हैं। यह बात अलग है कि प्यार तो उन्हें भगवान् भी नहीं करता, पर वे वन-वे वाला इश्क़ करते हुए भगवान् की झोली या उसकी खोली में पहुँच ही जाते हैं।

अब आपको यह जानकर दुख या आश्चर्य नहीं होगा कि चंडीप्रसाद जी ने शब्दकोश लिखते-लिखते अचानक आत्महत्या कर ली और धींगामुस्ती करके ज़बरन भगवान् को प्यारे हो गए.

जब तक चंडीप्रसाद जीते रहे, ट्यूशन पढ़ाकर गुज़ारा करते रहे। लेकिन हमें अंत तक यह आश्चर्य रहा कि चंडीप्रसाद जी को ट्यूशन मिल कैसे जाते थे? यह आश्चर्य उस वक़्त भी है, जब चंडीप्रसाद धाँधली से भगवान् को प्यारे हो चुके हैं। यह भी अजीब बात है कि आदमी लोक से परलोक चला जाता है लेकिन आश्चर्य छोड़ जाता है। बाबू चंडीप्रसाद भी विरासत में दो चीज़ें छोड़ गए. एक तो आश्चर्यचकित कर देनेवाला अपना अधूरा शब्दकोश और दूसरा हाफ़ कोट यानी बंडी. चंडीप्रसाद जब तक जीवित रहे, बंडी जुड़वाँ बच्चों की तरह उनके साथ चिपकी रही। सच कहें तो चंडी और बंडी एक-दूसरे के पूरक थे, बंडी के बग़ैर चंडीप्रसाद-चंडीप्रसाद नहीं लगते थे। ऐसा लगता था जैसे वह चंडीप्रसाद होकर भी चंडीप्रसाद होने का ढोंग कर रहे हों। यही कारण था कि लोग चंडीप्रसाद की जगह उन्हें बंडीप्रसाद कहने लगे थे। लेकिन सामने नहीं, पीछे-पीछे। क्योंकि हमारे यहाँ सच्ची बात सिर्फ़ पीठ-पीछे कही जाती है, सामने सच्ची बात कहने वाले या तो पागल होते हैं या मूर्ख अथवा दोनों का मिश्रण।

चंडीप्रसाद जी पागल थे या मूर्ख या दोनों का मिश्रण, यह तो हम नहीं कह सकते, पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि और बहुतों की तरह चूँकि वह भी मुँह-दर-मुँह होकर सच नहीं बोल सकते थे, इसलिए लिखकर सच बोलते थे। इस सच बोलने में चंडीप्रसाद की बंडी हमेशा उनकी सहायक बनी रही। बंडी की बगली ज़ेबों से काग़ज़ों का जो पुलिंदा प्राप्त हुआ, वह दो बातें सिद्ध करता है, एक तो यह कि घाघ टाइप के लोग सच को बगल में दबाकर रखते हैं और उनके मरने पर सच का जो पुलिंदा सामने आता है, वह भयंकर विस्फोट करने के लिए काफी होता है।

उदाहरण के लिए चंडीप्रसाद जी ने अपने अपूर्ण शब्दकोश की भूमिका बाँधते हुए लिखा था कि अब समय आ गया है कि हिन्दी का पूरा शब्दकोश संशोधित करके दोबारा लिखा जाए. संशोधित करने की बात को सिद्ध करते हुए चंडीप्रसाद ने लिखा कि जब भारत का संविधान एक बार नहीं दर्जनों बार संशोधित किया जा सकता है तो शब्दकोश में आवश्यक संशोधन क्यों नहीं हो सकते? चंडीप्रसाद जी ने अपनी भूमिका में लिखा है कि मातृभूमि के अतिरिक्त कभी कोई और भूमि मेरे पास नहीं रही, इसलिए सदा भूमिकाओं पर ही संतोष करना पड़ा। चंडीप्रसाद जी ने लिखा है कि मैंने जीवन-भर कभी कोई किताब पूरी तरह नहीं पढ़ी, व़्ाि ताबों की भूमिकाएँ पढक़र ही अपनी भूमिहीनता की संतुष्टि करता रहा। पर जीवन के अंतिम चरण में मैंने इस रहस्य को समझा कि भूमि अपनी हो तो जैसी भी हो, जोतनेवाले को फसल मिल ही जाती है, किंतु यह जो भूमि का पॉकिट एडीशन भूमिका है, इससे तो भ्रम और भटकाव के अतिरिक्त कोई और फसल मिलती ही नहीं। हमारा विचार है कि चंडीप्रसाद को भूमिकाएँ पढ़ते-पढ़ते ही एक नया शब्दकोश लिखने का विचार आया था। लेकिन उन्हें इस ख़तरे का भी पूरी तरह अनुमान था कि उनके द्वारा लिखे जा रहे शब्दकोश को देश के धनकोश वाले महापुरुष स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि प्रचलित अर्थों वाले शब्दों से उनके स्वार्थ जुड़े हैं।

चंडीप्रसाद ने अपनी भूमिका में यह भी लिखा है कि प्रचलित शब्दों की नई व्याख्या इसलिए भी ज़रूरी हो गई है कि शब्द अब सच को छिपाने अथवा सुननेवालों को भ्रमित करने अथवा धोखा देने के लिए प्रयुक्त होने लगे हैं। उनके अनुसार यह त्रासदी गुदड़ीवाले यानी जनसाधारण अधिक झेल रहे हैं। वे अपनी अज्ञानता और अज्ञानता से भी अधिक सरलता के कारण शब्दों के आज भी ठीक वही अर्थ लेते हैं, जो पुराने शब्दकोशों में लिखे हैं। इसलिए पछताते हैं और उस समय पछतावे से कुछ होता नहीं, जब चिडि़याँ खेत चुगकर चली जाती हैं। चंडीप्रसाद ने चिडि़यों का खुलासा नहीं किया। चिडि़यों से शायद उनका अभिप्राय बिना पंख के उड़नेवाले उन जंतुओं से है, जो उड़ते तो हैं, किंतु उड़ते हुए दिखाई नहीं देते।

लंबी भूमिका के अतिरिक्त चंडीप्रसाद जी की जेब से जो एक छोटा-सा पुर्जा बरामद हुआ, उसमें पुराने शब्दों की नई लेकिन विस्तृत व्याख्या की गई है। उदाहरण के रूप में कुछ शब्दों के सच्चे-सही अर्थ आप भी देखिए-

प्रेम: व्यक्तिगत स्वार्थ का एक अटपटा शब्द, जिसमें दोनों ही अपना-अपना सुख लाभ एक-दूसरे के जीवन में खोजने और प्राप्त करने के लिए सदैव एक-दूसरे को भ्रमित करते रहते हैं। ब्रैकिट में चंडीप्रसाद ने लिखा है, मानव-जाति के पास इससे ज़्यादा दिखावटी और बनावटी शब्द और कोई नहीं है।

धर्म: विधि-विधान की एक ऐसी व्यवस्था, जिसे अपने सामयिक हितों के लिए मन-मरज़ी के अनुसार तोड़ा-मरोड़ा जा सकता हो। यह धर्मात्माओं, समाज-सुधारकों, राजनेताओं के हाथ की लाठी भी है, जिसके द्वारा वे हम सबको हाँकने का सफल प्रयास करते हैं। यह मानव-प्रेम के नाम से दानव-प्रेम की ओर ले जाता है, लेकिन इसके प्रेमी-प्रेमिकाएँ समझते यही हैं कि वे धर्म-प्रेम का प्रचार कर रहे हैं। इसे सरल भाषा में हाथी के दाँत भी कहा जा सकता है, जो खाने के और होते हैं, दिखाने के और।

राजनीति: नीति शब्द इसमें केवल सुंदरता बढ़ाने के लिए जोड़ दिया गया है। जैसे अँगूठी में लाल-नीला नग जोड़ दिया जाता है। वैसे यह राज+काज ही है, नीति से इसका कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि नीति क्षण-क्षण बदलती रहती है, जबकि राज स्थायी रूप से सदा चलता रहता है। इसलिए नीतिविहीन राज का अर्थ होता है-निराज। कुल मिलाकर राजनीति को संशोधित कर निराजनीति कर दिया जाना चाहिए. यह अति आवश्यक है।

देशप्रेम: निर्वस्त्र होकर देश को नंगा करना। वैसे भी प्रेम की वासना अपने अंतिम चरण में एक-दूसरे को निर्वस्त्र करने पर उतारू हो जाती है, इसी अनिवार्यता पर चलते हुए अधिकतर देशप्रेमी देश के कपड़े उतारकर अंत में स्वयं भी निर्वस्त्र होकर नृत्य करते दिखाई देते हैं।

लोकतंत्र: आधुनिक दुनिया का सबसे लोकपि्रय खिलौना, जो कई देशों को ख़ून की भेंट देकर प्राप्त हुआ। यह बच्चों को दिए जाने वाले झुनझुने से अलग प्रकार का एक झुनझुना है। टीन से बने झुनझुने से बच्चे तथा शब्दों से बने इस झुनझुने से सभी प्रौढ़ पुरुष-नारियाँ एवं वृद्ध लोग खेलते हैं और मदारी के इशारे पर जमूरों की तरह नाचते हैं। इसमें समस्याएँ उत्पन्न की जाती हैं, हल नहीं की जातीं। सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र वह होता है, जिसमें लोगों को गाली देने और गोली खाने की आज़ादी है। फिर भी लोग झुनझुना बजाते रहें और खेलकर दिल बहलाते रहें।

मानव-अधिकार: अधिकारहीन लोगों द्वारा खड़ा किया गया ऐसा बखेड़ा, जिसका वास्तव में कोई अर्थ नहीं है। पिछले लंबे समय से इस शब्द को नया अर्थ देने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन यह अर्थ को ग्रहण नहीं कर पा रहा है। इसलिए मानव-अधिकार का मतलब है-चीख़-पुकार, शोर-शराबा, हाहाकार।

मंत्रिमंडल: राजा-महाराजाओं का संग्रह। सामंतशाही में राजा एक होता था, लोकशाही में अनेक राजा होते हैं। पहले एक अकेला राजा खाता था, अब कई मिल-बैठकर खाते हैं। खाने की क्रिया एक-जैसी है। बस खानेवालों की संख्या बढ़ गई है।

विपक्ष: सिर्प़्ा ग़लत को ही ग़लत नहीं, सही को भी ग़लत सिद्ध करके अपनी उपस्थिति दर्ज करानेवाला महा अनुभवियों का वह गिरोह, जिसका अपना कोई चूल्हा नहीं होता। वह हमेशा दूसरों के चूल्हों पर अपनी रोटियाँ सेंकता है। अगर देश में कहीं कोई और बढि़या चूल्हा उपलब्ध न हो तो वह सीता मैया की रसोई में भी घुसने से नहीं चूकता।

स्पष्टवादिता: चापलूसी की एक अद्भुत प्रणाली। कहा जाता है कि एक सज्जन किसी बहुत बड़े धन्नासेठ के पास कोई आवश्यक काम लेकर पहुँचे। वह जानते थे कि सेठ जी बहुत कट्टर सिद्धांतवादी आदमी हैं, मक्खनबाज़ी से चिढ़ते हैं और दुत्कारकर निकाल देते हैं। यह सज्जन ठहरे एक काइयाँ आदमी, आए और अभिवादन के उपरांत तुरंत बोले-'सेठ जी, ये गुण तो लाख टके का है आपमें कि आप ख़ुशामदियों को पास नहीं फटकने देते। आप दूर से ही उन्हें फटकार देते हैं।' सेठ जी ने अपनी प्रशंसा सुनी तो गद्गद् हो उठे और आगंतुक का कार्य चुटकी बजाते कर दिया। स्पष्टवादिता की यह प्रणाली लाभदायक भी है और सम्मानजनक भी।

नमूने के इन शब्दों और उनके नवीनतम अर्थों को देखते हुए अब हम आपको यह बताना चाहेंगे कि बाबू चंडीप्रसाद ने अपने शब्दकोश की चर्चा करते हुए यह भी लिखा था कि मानवजाति के उपयोग में आनेवाले सारे ही शब्द पिछली एक शताब्दी से झूठ की लंबी खूँटी पर उलटे लटके हुए थे, जैसे आपने देखा होगा कि पुराने घरों में चिमगादड़ें उलटी लटकी रहती हैं। मैंने और कुछ नहीं किया, बस शब्दों के अर्थों को उनकी खूँटियों पर सीधा लटका दिया है। चंडीप्रसाद ने यह भी लिखा है कि झूठ को एकदम सच की तरह बोलने की प्रयोगात्मक कला, जो वर्तमान आदमी की अद्भुत विशेषता बन गई है, गहरे शोध और अनुसंधान का विषय है। अगर यह अनुसंधान न किया गया तो शब्दों के असली अर्थ इसी तरह दिवंगत हो जाएँगे, जिस तरह मृत आदमी की आत्मा दिवंगत हो जाती है। -0-