अलकनंदा / नन्द किशोर नौटियाल / समीक्षा
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समीक्षा:सोनी किशोर सिंह
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हाल ही में अलकनंदा उपन्यास पढ़ कर खत्म किया। वैसे तो बहुत दिनों से पढ़ना चाहती थी लेकिन उत्तराखंड की त्रासदी के बाद इसे पढ़ने की इच्छा तीव्र हो गई थी। नदी अलकनंदा जो भागीरथी के साथ मिलकर पावनी गंगा बनती है। एक बार अपने घर से निकलकर वह अपने मूल तक कभी नहीं जा सकती, क्योंकि गंगा कभी उल्टी नहीं बहती। तो फिर अचानक से वो क्यों उबल पड़ती है, इसी की कथा है अलकनंदा। जिसकी कलकल धारा से संजीवनी मिलती है वह उग्र होकर हजारों लोगों को अपने आगोश में समा लेती है आखिर क्यों....
लेकिन अलकनंदा सिर्फ एक नदी नहीं है बल्कि इस नदी के समानांतर चलती एक मानवी रूप है। अलकनंदा है कथा की नायिका। कभी अल्हड़, कभी चंचल, कभी संजीदा, कभी शांत, कभी उद्विग्न, ऐसी लड़की जो पहाड़ी झरने की तरह है।
एक तरफ कथानायिका अलकनंदा और मोहन का प्रेम रहस्यवादी है जिसे लोग समझ नहीं पाते दूसरी तरफ नरेन्द्र और अलकनंदा का बालसुलभ हास-परिहास और उत्तराखंड को लेकर गंभीर चिंतन शुरू से लेकर अंत तक रोचकता बनाये रखता है। प्रेम को शारीरिक से ज्यादा मानसिक स्तर पर महसूसने वाली, कभी पूजा-पाठ करनेवाली अलकनंदा अपने जीवनानुभवों के कड़वे घूट पीकर ईश्वर में आस्था खो देती है। उसे आस्तिकता ढ़ोंग दिखाई देता है। वह जब एक साधु सत्यव्रत से विवाद करती है तो सोचती है –
“आध्यात्मिक शक्ति.... संकल्प शक्ति.... परम शक्ति.... शब्द ! शब्द ! शब्द! सारा का सारा शब्दजाल ! बस यही तो है इन जोगियों के पास जिसे फेंककर ये संसारियों को फँसाते रहते हैं.... उल्लू बनाते रहते हैं....चरण छुआते रहते हैं.... और स्वयं माल-पुए उड़ाते रहते हैं ! दो जून पसीने की रोटी कमानी पड़े तो सारा आध्यात्म काफूर हो जायेगा !”
अलकनंदा नदी के बहाने मानवी अलकनंदा की उन सभी गतिविधियों को सूक्ष्मता से लेखक ने रेखांकित किया है जो प्रेम, आध्यात्म, आस्तिकता, धर्म, अनास्था आदि से गुजरते हुए मानव कल्याण की तरफ बढ़ती है। एक ऐसी रचना जो प्रकृति को मानव से और मानव को आस्था से जोड़कर नदी की धारा की तरह बहती है। अलकनंदा भी ऐसी ही नायिका है जो कभी अपने स्वनाम नदी की तरह शांत, कलकल, छलछल, निश्छल, निर्मल दिखती है तो कभी प्रबल वेगवती विध्वंसक होकर भयभीत कर देती है।
कुल मिलाकर एक ऐसी रचना जो आम कहानियों से हटकर है। जिसे बार बार पढ़कर अनेक अर्थ निकाले जा सकते हैं और हर अर्थ विशेषार्थ है।