अलबेला / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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कोर्ट का निर्णय आ गया था ।

वह टुकुर टुकुर देखता रहा । वह भी पेंशनर है, उसे भी उस की रिटायरल राशि मिलनी चाहिए । दो वर्ष हो गए रिटायर हुए लेकिन पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा । बीस पच्चीस लाख इकट्ठा पैसा मिलेगा , यही सोच कर कामिनी की शादी भी रख दी थी । और भी कई काम जो पेडिंग पड़े थे, अब उन्हें आराम से निपटाया जा सकता था ।

थक हार कर पेंशनर्ज ने सभा बना ली थी, जिसे उन्होंने पंजीकृत भी करवा लिया था । अब वह संगठित हो कर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठा सकते थे । एक मंच बन गया था । अधिकांश पेंशनर सभा के सदस्य बन गए थे लेकिन वह किन्तु-परन्तु में ही लगा रहा ।

‘लब्बुआ,फिरि मेम्बर बनी जाणा था ?’ भीम सिंह ने कहा ।

‘राणा जी मैं सोचगा । मैं अप्पूं औंगा तुहां वल्ल’ लब्बू ने अनमने भाव से कहा ।

वह उखड़ गया था । उसे उम्र भर अपना नाम ही पसन्द नहीं आया । मां-बाप भी क्या चीज़ होते हैं । बिना सोचे समझे ऐसे नाम रख देते हैं जिन्हें न तो बाद में आसानी से बदला जा सकता है और न ही उस नाम के कटाक्ष से बचा जा सकता है । राणा कैसे बोल रहा था लब्बुआ, जैसे मैं उस का बंधुआ हूं । उससे बड़े ओहदे पर से रिटायर हुआ हूं । वह सहायक था और मैं अनुभाग अधिकारी ।ससुरा आगे पीछे भागा फिरता था । और अब सभा का कोषाध्यक्ष बन गया है, तो दिमाग चढ़ गया है ।

एल आर सोचने लगा - सारी उम्र नौकरी करो और रिटायरमेंट पर अपने पैसे के लिए भी कोर्ट में जाओ ।

यह कैसी विडम्बना है । सरकार कहती है कि उसने हर क्षेत्र में विकास के डग भरे हैं और जी डी पी निरन्तर बढ़ रही है । कोई इन से पूछे मैंने जी डी पी से क्या लेना । मुझे तो बेटी की शादी के लिए तुरन्त पांच लाख रुपया चाहिए ।

दोे साल पहले सेवानिवृत हुआ तो क्या मिला? केवल पन्द्रह हजार रुपया और वह भी अपनी ही कल्याण निधि का ।

पेंशनर परेशान थे । रिटायरमेंट पर उमीद होती है कि उम्र भर की कमाई का इकटठा पैसा एक साथ मिले गा तो जीवन के कई काम आसानी से हो जांएगे लेकिन कुछ ऐसी गबड़बड़ हुई कि संस्थान का पेेशन फण्ड ही जी़रो हो गया और पेंशन मिलना बन्द हो गई ।

अब एक ही रास्ता रह गया था कि कोर्ट कचहरियों के चक्कर लगााए जांए । कुछ वरिष्ठ लोगों ने विचाार विमर्श कर के पेंशनर्ज़ सभा बना ली और रजिस्टर करवा ली । भीम सिंह कार्यकारिणी का सदस्य था । उसका काम था सेवा निवृत कर्मचारियों को सभा का सदस्य बनाना । आम तौर पर अधिकतर लोग इस के मेम्बर बन गए लेकिन कुछ किन्तु-परन्तु में फंसे रहे । एल आर भारद्वाज भी उन्हीं लोगों में से था। शेर शिकार मार कर लाएगा तो गीदड़ों को भी तो कुछ न कुछ मिल ही जाता है । प्रयत्न कोई भी करे लेकिन फल तो सभी को मिलेगा, एल आर सोचता । सभा याचिका दायर करेगी तो जो भी निर्णय होगाा वह तो सभी पर लागू हो गा । वह मन ही मन अपनी चतुराई पर आत्मविभोर हो गया ।


पिछले सात महीने से पेंशन बन्द थी । शहर में हाहाकार मच गया था । दुकानदारों ने छोटे कर्मचारियों को उधार देना बन्द कर दिया था । जब भी पेंशनर सभा के प्रनिनिधि कुलपति से पेंशन के लिए गुहार लगाते तो एक ही उत्तर मिलता - सरकार पैसा ही नहीं दे रही तो हम कहां से लायें पैसे । जब ग्रांट आएगी तो पेंशन रिलीज़ कर देंगे । मैं भी कुछ दिनों में आप का साथी बन जाऊंगा ।

बड़ी अजीब स्थिति थी । मेशी की बेटी की शादी थी । वह धप- धप कर के प्रथम तल पर पहुंच गया था और लगा दहाड़ें मारने कुलपति के दफ़्तर के सामने । मुझे यह इनाम दिया है यूनिवर्सिटी ने । सारी उम्र गन्दगी उठाता रहा तुम लोगों की और अब मुझे कह रहे हैं पैसा नहीं तो पेंशन कहां से दें । अपने लिए तो पैसा निकल आता है । हाय बो । मैं तो जीते जी मर गया लेकिन मैं जीने तुम्हें भी नहीं दूंगा ओए लोको कुछ तो करो मेरी बेटी की शादी है । स्यापा ही है गरीब की जिन्दगी । और वह बिलख- बिलख कर रोने लगा |

उसे रिटायर हुए कई महीने हो गए थे । उस जैसे और भी कई लोग थे ।

यूनिवर्सिटी में जो भी कोई सरकारी अफसर आता तो पेंशनर सभा के प्रतिनिधि उस से मिलते और अपनी समस्याओं को रखते । प्रदेश के वित सचिव सदाशिव कुप्पाराम आए तो अध्यक्ष सहित कार्यकारिणी के और सदस्य भी उनके पास पहुँच गए । सारी बात बताई ।चेहरे पर बिना कोई भाव लाए कुप्पाराम ने कहा - देखो यूनिवर्सिटी परिवहन निगम जैसी है और इसे भी चाहिए कि किसी भी तरह पैसा कमाए और अपने कर्मचारियों और पेंशनर्ज को खिलाए, पाले-पोसे । हमें कोई एतराज नहीं होगा । सरकार तो पहले ही करोड़ों के कर्ज तले डूबी हुई है ।

‘फिर तो सरकार जब कमाए तभी अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन दे । लेकिन आप लोगों को तो बराबर वेतन मिल रहा है जब कि सरकार करोड़ों के ऋण के बोझ तले दबी है । अध्यक्ष सदानन्द सरकारी अफसरों के तर्कों -कुतर्कों से पहले ही दुखी था ।

कुप्पाराम को गुस्सा आ गया । बोला - तुम दो टके के आदमी ,अपनेआप को बहुत बड़ा लीडर समझते हो । बात करनी हैं तो शिमला आना मेरे दफ़्तर में । तुम्हारी सब अकड़ निकल जाएगी ।

तंग आ कर सभा ने कोर्ट में याचिका डाल दी । सभा के वकील ने जज महोदय के सामने पेंशनर्ज की समस्याएं रखी और बताया कि रिटायरमेंट के बाद कई लोगों ने तो एक भी बार पेंशन नहीं ली और चल बसे । फैमिली पेंशनर्ज भूखे मर रहे हैं । कितना अजीब है कि उम्र भर नौकरी करने के बाद भी पेंशनर्ज को खाली हाथ घर जाना पड़े । सात आदमियों ने तो अब तक आत्म ह्त्या भी कर ली है। जज महोदय ने अपना निर्णय दिया कि यूनिवर्सिटी जब तक सारी पेंशनन रिलीज नहीं करती ,कुलपति और कुलसचिव का भी वेतन रिलीज न किया जाए । और दोनों की सरकारी गाड़ियां भी अटैच की जाती हैं । इसके अतिरिक्त वित सचिव के सन्दर्भ में कोर्ट ने आदेश दिया कि तीन दिन के अन्दर वित सचिव व्यक्तिगत रूप में कोर्ट में हाजिर होकर ग्रांट न रिलीज करने का कारण बताए ।

यूनिवर्सिटी के वकील ने उछल उछल कर तर्क दिए थे कि सरकार पैसा ही नहीं देती तो हम पेंशन कहां से दें । ग्रांट इन ऐड मिलते ही हम पेंशनर्ज की पेंशन रिलीज कर देंगे । लेकिन इन तर्कों का जज साहिब पर कोई असर नहीं हुआ और पेंशनर्ज को आस बंध गई ।

एल आर भारद्वाज भी बड़ा प्रसन्न था कि अब तो उसे भी सब कुछ बिना मेंबर बने ही मिल जाएगा । दरअसल पिछली बार जब 37 आदमियों का रिटायरल बेनिफिट के लिए कोर्ट में केस डाला गया तो फैसला आने पर कुलपति ने अपने पैसे निकलवाने के लिए 37 की बजाय 93 लोगों को कोर्ट के निर्णय का लाभ दे दिया । अपने लिए बेईमानी तो ईमानदारी ही लगती है । वह भी रिटायर हो कर कुलपति लग गया था ।

इस बार जो निर्णय आया, वह वैसा ही था जैसा पिछली बार था कि इतने और इन इन याचिकाकर्ताओं को तुरन्त रिटायरल बेनिफिट रिलीज कर दिए जायें । और कुलपति ने वैसा ही किया । साथ ही आदेश में लिख दिया कि क्योंकि यूनिवर्सिटी के पास थोड़ा पैसा है, इस लिए कोर्ट के आदेशानुसार सूची में लिखित व्यक्तियों को ही रिलीफ दिया जाएगा ।

सभा के पेंशनर प्रसन्न थे लेकिन एल आर भारद्वाज उर्फ लब्बू का मुंह लटक गया था । वह बार बार सूची को पढ़ रहा था लेकिन वह तो मेम्बर बना ही नहीं था ।