अलविदा, येव्तुशेंको ! / अनिल जनविजय

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येव्गेनी येव्तुशेंको से मेरी पहली पहचान 1980 में तब हुई, जब मैं जेनयू में रूसी भाषा पढ़ने के लिए गया। डॉ० वरयाम सिंह हमें रूसी साहित्य पढ़ाया करते थे। उन्होंने ही बताया कि इस समय रूसी कवि येव्तुशेंको दुनिया के सबसे मशहूर कवि हैं। मैंने उसी दिन लायब्रेरी में जाकर येव्तुशेंको की किताबें निकलवाईं। लाइब्रेरी में रूसी भाषा में तो येव्तुशेंको की कई किताबें थीं, लेकिन अँग्रेज़ी में उनकी सिर्फ़ एक ही किताब मिली, जिसका शीर्षक था -- युद्ध लड़ना चाहते हैं क्या रूसी लोग? मैंने वो किताब ले ली और उसे घर ले गया। आने वाले दो-तीन दिन के अन्दर मैंने उस किताब में शामिल सभी कविताओं का आठ-दस बार पारायण कर लिया था। और उस किताब में से तीन कविताओं का अनुवाद भी किया था।

फिर दो साल बाद 1982 में अचानक नई दिल्ली के रूसी सांस्कृतिक केन्द्र से मुझे रूसी भाषा सीखने के लिए मास्को भेज दिया गया। वहाँ मास्को विश्वविद्यालय में रूसी सीखते हुए अभी डेढ़ ही वर्ष हुआ था कि अचानक मुझे मेरे एक रूसी कवि दोस्त अलिक्सान्दए सेंकेविच ने येव्गेनी येव्तुशेंको का घर का पता दे दिया और मैंने उन्हें एक ख़त लिख दिया। ख़त का कोई जवाब नहीं आया। मैं उसके बारे में भूल गया था। हास्टल में रहता था। क़रीब पाँच-छह महीने बाद मेरे साथ पढ़ने वाली एक लड़की अचानक मेरे पास आई। उसके हाथ में एक पोस्टकार्ड था। यह पोस्टकार्ड येव्तुेशेंको ने लिखा था। वह मुग्ध थी कि मेरी जान-पहचान येव्तुशेंको जैसे कवि से है, जो पोस्टकार्ड लिखकर मुझे मिलने के लिए बुला रहे हैं।

येव्तुशेंको ने मुझे सोवियत लेखक संघ के कॉफ़ी हाउस में बुलाया था। मैं पहली बार ऐसी जगह पर गया था और सोवियत लेखकों के रंंग-ढंग देखकर चकित हुआ था। लेखक संघ की विशाल बिल्डिंग में तब तीन-चार रेस्टोरण्ट और तीन-चार चायख़ाने थे। येव्तुशेंको मुझे लेकर एक चायख़ाने में बैठ गए और उन्होंने कॉफ़ी-बिस्कुटों का आर्डर दे दिया। फिर उन्होंने पूछा — आप यहाँ क्या कर रहे हैं? मेरा उत्तर सुनकर उन्होंने कहा — आपकी जगह भारत में है। किसी भी कवि के लिए उसके अपने देश, उसकी जनता, उसके अपने लोगों से महत्वपूर्ण और कुछ नहीं होता। आप का कवि यहाँ मर जाएगा। आप कविताएँ नहीं लिख पाएँगे। नाज़िम हिक़मत के साथ यही हुआ था। नाज़िम हिक़मत तुर्की से देशनिकाला पाकर सोवियत संघ में रहने के लिए आए थे और यहाँ आकर कुछ भी नहीं लिख पाए थे। मेरी सलाह है कि आप अपने देश भारत वापिस लौट जाइए।

मैं उनकी बातें सुनकर हक्क़ा-बक्का रह गया था। वे पूरी गम्भीरता से आगे कह रहे थे — भारत एक महान देश है। भारत की संस्कृति महान है। आपको वह जीवन यहाँ जीने को नहीं मिलेगा, जो आप भारत में जीते हैं। भारत में जीवन आज़ाद है। यहाँ बहुत घुटन है। भारत में बोलने की आज़ादी है, कुछ भी करने-धरने की आज़ादी है, कहीं भी आने-जाने की आज़ादी है। आप भारत लौट जाइए। मैंने उन्हें बताया कि मैं रूसी भाषा सीखने आया हूँ और रूसी सीखकर ही भारत लौटंगा। उसके बाद हम दोस्त बन गए थे।

अपनी कविताओं पर येव्तुशेंको बहुत कम बात करते थे। हमारी वह पहली मुलाक़ात इसलिए हुई थी कि मैं उनसे उनकी कविताओं का अनुवाद करने की इजाज़त चाहता था। उन्होंने इजाज़त दे दी थी। लेकिन इसके बाद 1984 से 2002 तक मैंने उनकी एक भी कविता का अनुवाद नहीं किया। येव्तुशेंको अक्सर मुझे अपने काव्य-पाठों में बुलाने लगे। उस समय पूरे रूस में उनकी धूम मची हुई थी। पन्द्रह-पन्द्रह बीस-बीस हज़ार लोग उनकी कविताएँ सुनने के लिए इकट्ठे होते थे। वे उन चार-पाँच सोवियत कवियों में से एक थे, जो बड़े-बड़े स्टेडियमों में कविता-पाठ किया करते थे और जिनको सुनने के लिए हज़ारों लोग टिकट ख़रीदा करते थे। अन्य ऐसे ही कवियों में अन्द्रेय वज़्नेसेंस्की, बेल्ला अख़्मादुलिना, राबर्ट रझदेस्तविंस्की, व्लदीमिर विसोत्सकी और बुलात अकुझावा का नाम आता है। येव्तुशेंको का कविता पढ़ने का ढंग भी निराला था। वे जैसे कविता नहीं पढ़ते थे, बल्कि मंच पर कविता को जीते थे। वे जैसे कोई नाटक-सा करते थे। उनकी आवाज़ कभी बहुत तेज़ हो जाती, वे चीख़ने लगते थे, जैसे नारे लगा रहे हों, तो कभी उनकी आवाज़ इतनी धीमी हो जाती कि जैसे कान में वे कुछ फुसफुसा रहे हों। कविता पढ़ते-पढ़ते ही अचानक वे स्टेज पर घुटनों के बल बैठ जाते या फिर लेट जाते और रोने से लगते थे। श्रोता चुपचाप उन्हें कविता पढ़ते हुए देखते रहते और उनकी कविता के एक-एक शब्द को पीते रहते।

वे 18 जुलाई को पैदा हुए थे और अपने जन्मदिन पर वे मास्को में कविता-पाठ ज़रूर करते थे। यह एक परम्परा बन गई थी, जो 1980 से पिछले साल तक लगातार चली आ रही थी। उनके कविता-पाठ के टिकट तीन-चार दिन में ही बिक जाते थे और उसके बाद उन टिकटों को चार-पाँच गुना दाम देकर ब्लैक में ख़रीदना भी मुश्किल होता था।

येव्तुशेंको से ईर्ष्या रखने वाले रूसी कवि उन्हें अक्सर बेहूदा, जोकर, असभ्य आदि कहा करते थे क्योंकि येव्तुशेंको किसी की कोई परवाह नहीं करते थे। पहले सोवियत संघ और बाद में रूस का राष्ट्रगान लिखने वाले रूसी महाकवि सिर्गेय मिख़ालकोफ़ को येव्तुशेंको ने ’राष्ट्रगायक’ की उपाधि दे रखी थी। येव्तुशेंको का कहना था कि वे उनसे कहीं बेहतर राष्ट्रगीत लिख सकते हैं। येव्तुशेंको बाँके-छैले की तरह रहना और कपड़े पहनना पसन्द करते थे। वे चटख रंगों के भड़कीले कपड़े पहना करते थे। उनकी पोशाक में कोई मेल नहीं होता था। कमीज़ लाल रंग की है तो पैण्ट चटकीले आसमानी रंग की और सिर पर पीली टोपी। उनके कोट मेज़पोशों और चादरों की तरह के डिजाइन वाले रंग-बिरंगे और चमकदार होते थे। कोई अनजान आदमी देख ले तो सचमुच में उन्हें जोकर समझने लगे।

कुछ लोग येव्तुशेंको को सोवियत सत्ता द्वारा पोषित कवि या केजीबी का कवि भी कहा करते थे। इओसिफ़ ब्रोदस्की उन्हें ’केजीबी का कर्नल’ कहा करते थे क्योंकि ब्रोद्स्की भी येव्तुशेंको की तरह सोवियत सत्ता का विरोध करते थे, लेकिन सोवियत सत्ता ब्रोद्स्की का दमन करती थी। उनके छपने पर प्रतिबन्ध लगा हुआ था। उन्हें काम करने की इच्छा न रखने वाला सोवियत नागरिक कहकर उनपर मुक़दमा चलाया गय था, जबकि येव्तुशेंको को न केवल सरकारी समर्थन मिला हुआ था, बल्कि उनकी सत्ता-विरोधी कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर छपा करती थीं। ब्रोदस्की का कहना था कि येव्तुशेंको का सत्ता-विरोध नकली है। स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुषोफ़ के सत्ता में आने के क़रीब डेढ़ साल बाद 1956 में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ’प्राव्दा’ में पहले पन्ने पर येव्तुशेंको की स्तालिन विरोधी एक कविता छपी थी — स्तालिन के वारिस। अपनी इसी कविता से येव्तुशेंको दुनिया भर में मशहूर हो गए थे। स्तालिन के दमनकारी शासन और जनसंहारक नीतियों का पहली बार किसी ने खुलकर विरोध किया था। और वह विरोध भी सोवियत संघ में सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र में छपा था। इसके बाद ही अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों में भी येव्तुशेंको की पूछ पढ़ गई थी। येव्तुशेंको अक्सर अमरीका और पश्चिमी देशों की यात्राएँ किया करते थे। अमरीका के राष्ट्रपति जॉन कनेडी अक्सर येव्तुशेंको को आमन्त्रित करने लगे। यह माना जाने लगा कि येव्तुशेंको अमरीका में रूस की सांस्कृतिक दूत की हैसियत से जाते हैं और रूस और अमरीका की सत्ता में ऊँची पहुँच रखते हैं।

लेकिन बीसियों मुलाक़ातें करने के बाद कुल मिलाकर येव्तुशेंको मुझे लोकतान्त्रिक विचारधारा रखने वाले व्यक्ति ही अधिक लगते थे। वे आज़ादी पसन्द करते थे। वे मुँहफट थे। वे तीखी शराबें नहीं पिया करते थे। हल्की शराब के एक-दो पैग ही पिया करते थे। जबकि ज़्यादातर रूसी लोग, रूसी औरतें भी तेज़ वोद्का पीना पसन्द करते हैं और इस हद तक पी जाते हैं कि मदहोश हो जाते हैं। येव्तुशेंको बेहद सरल स्वभाव के थे। उनसे डर नहीं लगता था। युवा कवियों के साथ भी वे बेहद सहज ढंग से व्यवहार किया करते थे और उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद ही अपनी बात कहा करते थे। वे उनकी रचनाएँ पत्रिकाओं में छपवाते थे। किताबें छपवाने के लिए प्रकाशक ढूँढ़कर देते थे। उनके बारे में सम्मेलनों और सेमिनारों में चर्चा करते थे। हमेशा हर आदमी की सहायता करने के लिए तैयार रहते थे। वे बच्चों की तरह किसी की भी हर बात पर विश्वास कर लिया करते थे। बात-बात पर मज़ाक करते थे और आवारागर्दी करना उन्हें बहुत पसन्द था। कुछ युवा कवियों को पकड़ लेते और फिर सारी-सारी रात मास्को की सड़कों पर घूमते रहते। उनके साथ हर युवा व्यक्ति को ऐसा लगता था, मानो वह अपने किसी हमउम्र के साथ ही घूम रहा हो।

योजनाएँ बनाने में उन्हें महारथ हासिल थी। जैसे ही कोई कार्यक्रम का आयोजन करने की बात होती, वे तुरन्त अपने मूल्यवान सुझावों के साथ हाज़िर हो जाते। वे न सिर्फ़ योजनाएँ बनाते थे, बल्कि उन योजनाओं को कार्यान्वित करने में भी पूरा-पूरा सहयोग देते थे। एक बार रूसी कविता के इतिहास की चर्चा चली। येव्तुशेंको ने वहीं बैठे-बैठे रूसी कवियों की एक बड़ी एन्थोलौजी तैयार करने की योजना बना ली और पाँच साल बाद ही पाँच हज़ार पृष्ठों की वह एन्थोलौजी छपकर आ गई। येव्तुशेंको ने उसमें ऐसे-ऐसे दुर्लभ कवियों को शामिल किया था, जिनके बारे में कोई जानता ही नहीं था, जिनके एक भी कविता कहीं नहीं छपी थी। दस खण्डों की उस एन्थोलौजी का एक पूरा खण्ड उन सैकड़ों रूसी कवियों को समर्पित था, जो रूस छोड़कर विदेशों में रहने के लिए चले गए थे और वहीं के बाशिन्दे हो गए थे।

2004 में जब हिन्दी के कवि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी मास्को की एक संस्था ’भारत मित्र समाज’ द्वारा दिया जाने वाला पूश्किन सम्मान पाकर बीस दिन की रूस की यात्रा पर आए तो उन्होंने येव्गेनी येव्तुशेंको से मिलने की इच्छा व्यक्त की। मुझे याद है, वह 14 जुलाई, रविवार का दिन था। मैंने सुबह 9 बजे येव्तुशेंको को फ़ोन किया और बताया कि भारत से आया हिन्दी का एक कवि उनसे मिलना चाहता है। येव्तुशेंको ने दो घण्टे बाद ही हमें अपने घर बुला लिया लेकिन यह चेतावनी भी दे दी कि वे सिर्फ़ एक ही घण्टा दे पाएँगे।

मैं तिवारी जी के साथ था। तिवारी जी धोती-कुर्ते में थे। येव्तुशेंको तिवारी जी की वेषभूषा देखकर चकित हुए। उन्होंने बड़े आदर से तिवारी जी को बैठाया और उनसे दुनिया जहान की बातें करने लगे। मैं अनुवादक की भूमिका निभा रहा था। तिवारी जी ने उन्हें हिन्दी में प्रकाशित उनकी कविताओं के अनुवादों की पुस्तक उपहार में दी। इस किताब का अनुवाद मैंने किया था। किताब उन्हीं दिनों छपकर आई थी और तिवारी जी मेरे लिए उसकी दो प्रतियाँ लेकर आए थे। येव्तुशेंको ने मुझसे कहा — तो बीस साल बाद तुमने मेरी कविताओं का अनुवाद कर ही दिया। मैं ख़ुश हूँ, बहुत ख़ुश हूँ कि तुम्हारी यह योजना पूरी हो गई। हमारी वह मुलाक़ात एक घण्टे की जगह दो घण्टे खिंच गई थी। तिवारी जी मुग्ध थे। लौटकर उन्होंने अपनी उस मुलाक़ात का पूरा हाल लिख डाला था, जो बाद में हिन्दी की कई पत्रिकाओं में छपा और तिवारी जी की संस्मरणों की एक पुस्तक में भी शामिल है।

चार-पाँच साल पहले येव्तुशेंको विकलांग हो चुके थे। उनकी एक टाँग में कुछ खरोंच-सी लग गई थी। येव्तुशेंको ने उस खरोंच की कोई परवाह नहीं की और अपने कामों में लगे रहे। बाद में वह खरोंच एक बड़े घाव में बदल गई। जब तक येव्तुशेंको ने अपना घाव डॉक्टर को दिखाया, उनके पाँव में गैंगरीन हो गया था। डॉक्टर ने पाँव काटने की सलाह दी, नहीं तो मौत हो सकती थी। घुटने से कुछ नीचे तक उनका पाँव काट दिया गया। लेकिन उसके बावजूद येव्तुशेंको की घुमक्कड़ी में कोई कमी नहीं आई।

उस दिन येव्तुशेंको ने जो टीशर्ट पहनी हुई थी, उस पर चे ग्वेवारा की तस्वीर बनी हुई थी। मैंने उनसे पूछा — आप चे ग्वेवारा को जानते थे। उन्होंने जवाब दिया — मैं एक हफ़्ते तक चे के साथ रहा हूँ। एक हफ़्ते तक हम बात करते रहे। कमाण्डेण्ट चे बच्चों की तरह हँसते थे। मैंने उनके बारे में एक लम्बी कविता लिखी है, जिसका नाम है — सान्त्यागो में कबूतर। उस कविता में चे का चित्रण मैंने इन शब्दों में किया है —आदमी अचानक नहीं मरता / धीरे-धीरे होती है उसकी मौत / वह मरता है उन अजनबी बीमारियों से / जिनका नाम है निर्ममता, उदासीनता और उपेक्षा। चे मनुष्य द्वारा मनुष्य की उपेक्षा को लेकर व्यथित रहते थे। उन्हें अचरज होता था कि कैसे मनुष्य ही मनुष्य का दुश्मन हो सकता है? कैसे मनुष्य ही मनुष्य का निर्ममतापूर्वक शोषण और दोहन कर सकता है। येव्तुशेंको ने बताया कि फ़िदेल कास्त्रो भी उनके दोस्त थे। उन्होंने ही फ़िदेल को साइबेरिया की यात्रा करने का सुझाव दिया था और फ़िदेल जब साइबेरिया की यात्रा पर गए तो कुछ देर के लिए येव्तुशेंको के गाँव ज़ीमा में भी रुके थे।

पिछले साल जुलाई में जब अपने जन्मदिन पर कविता पढ़ने के लिए वे रूस आए तो एक दिन कुछ देर के लिए मैं भी उनसे मिलने गया था। वे बहुत थके-थके से दिखे। मैंने मज़ाक में कहा — ऐसा लगता है, हंसा उड़ने वाला है...। येव्तुशेंका मेरी बात सुनकर गम्भीर हो गए। बोले — मैं ईश्वर में विश्वास रखता हूँ। हिन्दुओं की पुनर्जन्म की थ्योरी में भी मेरा विश्वास है। अगर मैं मरूँगा तो बस कुछ देर के लिए। मैं उस फ़िनिक्स पक्षी की तरह हूँ, जो अपनी ही राख से उठकर फिर से खड़ा हो जाता है...। कुछ दिनों बाद मैं फिर इस धरती पर लौट आऊँगा। </poem>