अलिखित असंतोष बनाम लिखा हुआ इतिहास / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 01 जनवरी 2013
कांग्रेस ने 28 दिसंबर को अपनी स्थापना की १२७वीं वर्षगांठ नहीं मनाई और उसके लिए पहले से की गई तैयारियों को खारिज कर दिया, क्योंकि दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की जघन्य घटना के कारण देश में गहरे क्षोभ और असंतोष की लहर चल रही है। सच तो यह है कि किसी तरह के उत्सव मनाने का कांग्रेस के पास कोई कारण ही नहीं है। विगत कुछ वर्षों में इस दल की विश्वसनीयता घटी है। देश में हर अशुभ घटना के लिए कांग्रेस को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है। देश में माहौल कुछ ऐसा बन गया है कि प्राकृतिक आपदा के लिए भी कांग्रेस को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है। परंतु इस हालत के लिए विपक्ष के सुगठित प्रचार-तंत्र से ज्यादा जवाबदार स्वयं कांग्रेस है। इस समय कांग्रेस अस्थमा के मरीज की तरह सांस लेने में कठिनाई महसूस कर रही है और मरीज को अपने 'हमदर्द' मुलायम और मायावती की गर्म सांसें अपनी गर्दन पर महसूस हो रही हैं। ममता का साया पूरी तरह हटा नहीं है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अनेक बार गिरती-सी लगती है, परंतु लडख़ड़ाते हुए चलने की उसने अपनी शैली ईजाद कर ली है।
कांग्रेस केवल १२७ वर्ष पुरानी है, परंतु यह भारतीय राजनीति में पुरातन आख्यान और किंवदंती की तरह स्थापित है और आख्यानों की तरह इसके भी लोकप्रिय संस्करण सामने आए हैं। राजनीति का अपना नशा है, परंतु अगर यह एक बार की तरह है, तो कांग्रेस एक अजीबोगरीब कॉकटेल है, जिसमें अनेक राजनीतिक सिद्धांतों की विविध शराबें मिलाई गई हैं और यह कुछ इस तरह है कि जो भी दल सत्तासीन होता है, वह कांग्रेसी हो जाता है।
भारतीय जनता पार्टी के सफलतम नेता अटल बिहारी वाजपेयी काफी हद तक कांग्रेस शैली के नेता थे और उनके अवचेतन में स्वयं को नेहरू की तरह प्रस्तुत करने की ललक थी। वे तो एक बार इंदिरा गांधी को दुर्गा का अवतार तक कह चुके हैं, ऐसी खबरें उन दिनों प्रकाशित हुई थीं। दरअसल अटलजी चतुर व्यक्ति रहे हैं और वह जानते थे कि भारत के जनमानस में स्थापित होने के लिए किस हद तक गांधीजी या नेहरू की शैली अपनानी चाहिए।
बहरहाल, आंदोलनों के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करने वाली कांग्रेस आज आंदोलनों का मुकाबला नहीं कर पा रही है। उन्होंने अन्ना को असरहीन जरूर साबित कर दिया, परंतु अन्ना का महत्व यह है कि अब नेता और धनाढ्य घराने सावधान हो गए हैं और यह स्थापित हो चुका है कि भविष्य में पारदर्शिता आवश्यक हो जाएगी। दरअसल दुराचार विरोधी युवा आंदोलन से सरकार हतप्रभ रह गई, क्योंकि आंदोलनकारियों के मन में कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है। वे सत्ता नहीं, स्त्री के सम्मान की मांग कर रहे हैं, जो इस कदर जायज है कि कांग्रेस उससे असहमत नहीं हो सकती। यह अत्यंत हर्ष की बात है कि अन्ना या केजरीवाल ने इसमें घुसने का कोई प्रयत्न नहीं किया। बाबा रामदेव कभी बचपने से उबर नहीं पाते और भीड़ वाले मंच की ओर खिंचे चले जाने से स्वयं को रोक नहीं पाते।
कांग्रेस का तो इतिहास है, परंतु भारत में असंतोष का कोई लिखित इतिहास नहीं है, क्योंकि आंसुओं को तोला नहीं जा सकता, गम नापने का कोई पैमाना नहीं है। बहरहाल, १८८५ में कांग्रेस के जन्म का कारण भी तत्कालीन समाज में व्याप्त असंतोष ही था। उस समय एक ऐसी संस्था की आवश्यकता थी, जो भारत के असंतोष को अंग्रेज हुक्मरानों तक पहुंचा सके और अनेक अंग्रेज भी चाहते थे कि इस तरह की कोई संस्था हो, जिससे संवाद किया जा सके क्योंकि अनेक धर्मों और भाषाओं वाले देश में उन्हें भी संवाद के लिए एक संस्था चाहिए थी। अर्थात स्वयं अंग्रेजों ने अपना भस्मासुर कांग्रेस के रूप में रचा, क्योंकि दो सौ साल तक शासन करते हुए अंग्रेज भी काफी हद तक भारतीय हो चुके थे और कुछ हिंदुस्तानी आज तक अंग्रेज हैं। यह भारत की मिक्सी का कमाल है कि भूमिकाओं का अदल-बदल वह रचती है।
बहरहाल, कांग्रेस की रचना में अंग्रेज अफसर एओ ह्यूम का भी योगदान था, जिनका विश्वास था कि १८७८ तक असंतोष का लिखित इतिहास था, जिसे शायद अंग्रेज जाते समय नष्ट कर गए। ह्यूम को यकीन था कि भारत के असंख्य साधुओं और मठाधीशों द्वारा प्राप्त सूचनाओं के आधार पर असंतोष का इतिहास लिखा गया था और इन्हीं स्थानों से अंग्रेज हुक्मरान गुप्त खबरों को प्राप्त करते थे। 'दक्षिणा' देकर आशीर्वाद यहां कभी भी प्राप्त किया जाता है। जाने कब, कैसे 'दक्षिणा' को रिश्वत कहा जाने लगा। इसलिए कांग्रेस के डीएनए में ही पौराणिकता है। कांग्रेस संरचना में पौराणिकता अनेक स्रोत से आई, जिसमें गांधीजी की आस्था भी शामिल है, परंतु मूलस्रोत तो जनमानस का अवचेतन है।
कांग्रेस में पौराणिकता के साथ स्वतंत्र विचार अभिव्यक्त करने तथास्वस्थ विवाद की परंपरा भी रही है। १९०७ में तिलक-गोखले विवाद, १९१९ में असहयोग आंदोलन को लेकर प्रस्ताव मात्र ११ मतों से पारित होना, १९३८ में सुभाषचंद्र बोस के अध्यक्ष होने का विरोध, १९५१ में पुरुषोत्तम टंडन द्वारा नेहरू का विरोध और १९६७ में सिंडीकेट द्वारा इंदिरा गांधी का विरोध।
क्या वर्तमान में कांग्रेस में वैचारिक विरोध दर्ज किया जा सकता है? क्या आज कांग्रेस पहले की तरह विचारों की नदी है? कांग्रेस के १२७ वर्षों के इतिहास में भीतर के विरोध से दल ऊर्जावान रहा है और उन वर्षों में बाहरी विरोध उसे हानि नहीं पहुंचा पाया, परंतु आज कांग्रेस घर के पिछवाड़े का पोखर बनकर रह गई है। इस हालत में पहुंचने का मुख्य कारण 'लॉयल्टी' के नाम पर दोयम दर्जे के लोगों को महत्व देना रहा है। स्वतंत्र विचार बनाम 'वफादारी' से नुकसान हुआ है। आज कांग्रेस में कई युवा नेता विचारवान व्यक्ति हैं और उनसे निजी मुलाकात में उनकी विद्वत्ता का हमें ज्ञान होता है, परंतु अपने समूह में वे अलग व्यक्ति लगते हैं।
कांग्रेस की कार्यशैली का असर सभी दलों पर पड़ा है और सभी का कांग्रेसीकरण हुआ है। इसीलिए इस समय देश में राजनीतिक शून्य बन गया है, जिसके कारण क्षेत्रीयता की ताकतें मजबूत हुई हैं, धर्मांधता मजबूत हुई है और अखिल भारत की भावना आज संकट में है। क्या हम फिर प्रादेशिकता के शिकार होंगे? आज कांग्रेस के १२७ वर्ष का लिखित इतिहास और भारत में असंतोष का अलिखित इतिहास द्वंद्व की मुद्रा में खड़े नजर आते हैं और कांग्रेस के मठाधीश भूल चुके हैं कि उसका जन्म ही इस अलिखित असंतोष के कारण हुआ था। दरअसल कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और अखिल भारतीयता ही उसे बचाए हुए है।
आज भारत का युवा सतह पर बहने वाली परिवर्तन की लहरों और समुद्र गर्भ में जमी परिवर्तनहीनता के द्वंद्व को साध रहा है और उसके मन में विश्वास जगाने के लिए कांग्रेस को अपनी पौराणिकता से मुक्त होकर असंतोष के अलिखित इतिहास और स्वयं के लिखित इतिहास के तनाव को साधना होगा, क्योंकि अखंड भारतीयता से ज्यादा महत्वपूर्ण आज कुछ भी नहीं है।