अली टेलर / मनोहर चमोली 'मनु'

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“पापा। कहां है आपका अली टेलर ? पापा। वापिस चलो।” पीहू ने चिल्लाते हुए कहा।

अजय कुमार सक्सेना अपनी बेटी पीहू के साथ ऑटो बुक कर नफजलवाला जा रहे थे। पीहू की अगले महीने शादी थी। नक्काशीदार लहंगा अली टेलर से बढ़िया कोई नहीं सिल पाएगा। सक्सेना जी को रेखा ने बताया था। रेखा सक्सेना जी की स्टेनो थी। रेखा से एक कागज पर अली टेलर का पता लेकर वे घर से चले थे।

अब ऑटो वाला धीरे से बोला-”बस अब आने वाला है। ट्यूबवैल के बाद आम़ का पेड़ आएगा। बस! उसी आम के पेड़ के नीचे अली टेलर की दुकान है।”

दस मिनट के बाद ऑटो एक विशालकाय पेड़ के नीचे रुक गया। हरा-भरा पेड़ घनी छाया दे रहा था। छोटी सी दुकान को देखकर पीहू तो खीज उठी थी। वे बोल ही पड़ी-”ये मुंह और मसूर की दाल!”

सक्सेना जी का चेहरा भी फक पड़ गया था। ऑटोवाले ने ऑटो घुमाकर वापसी दिशा की ओर खड़ा कर दिया।

पीहू ने फुसफुसाते हुए कहा-”पापा। इतना मंहगा कपड़ा, इस गंवई दुकान में देने से पहले सोच लो। अगर ठीक न सिला तो मैं पहनने से रही।”

सक्सेना जी ने थूक घूंटते हुए कहा-”अब इतनी दूर तक आए हैं तो अंदर चलकर उसकी सूरत तो देख लें। नाप-छाप देते समय ही तुम्हें अंदाजा हो जाएगा कि टेलर टेलर है या टेलर मास्टर। ओ.के.।”

दोनों एक छोटे दरवाजे से अंदर घुसे। दुकान कपड़ों के कट पीसों से भरी थी। यहां-वहां कपड़ों की कतरनें फैली हुई थी। सोलह-सत्रह साल की एक लड़की तुलपन में व्यस्त थी। पीहू ने पूछा-”सुनो। अली टेलर की दुकान यही है न? कहां है वो?”

लड़की ने हां में सिर हिलाया। छोटे-छोटे स्टूलों में बैठने का इशारा करते हुए बोली-”आप बैठिए। अब्बू दो मिनट में आ रहे हैं।”

पीहू ने दुकान के चारों कोनों में नज़र दौड़ाई। हर कोने में मकड़ी के जाले साफ दिखाई दे रहे थे। बेतरतीब से पन्नियों और अखबारों में लिपटे कपड़ों का ढेर लगा हुआ था। दो सिलाई मशीन, छह स्टूल, दो मेज, एक रेडियों, छत पर लटकता बाबा आदम के जमाने का पंखा। यही सब पूंजी थी अली टेलर की दुकान में।

“तुम्हारे पापा। लहंगा भी सिलते हैं?” पीहू ने पूछा।

तुलपन कर रही लड़की अचानक खड़ी हो गई। दुकान से बाहर आकर उसने जोर से आवाज लगाई-”अब्बू। ओ अब्बू। जल्दी आइयो।” यह कहकर लड़की फिर तुलपन के काम में जुट गई।

अब तक सक्सेना माथे में आए पसीने को पोंछ चुके थे। पसीने की बूंदों में तनाव भी बाहर आ गया था। सक्सेना जी ने दुकान को निहारा। हेंगरों में तैयार कोट, पेण्ट, सलवार, कमीज, कई लहंगे, सूट और ब्लाऊज लटक रहे थे। सक्सेना जी ने पीहू को इशारा करना चाहा। वो कहना चाहते थे कि पीहू देख अली टेलर के हाथ के सिले हुए लहंगे कैसे चमचमा रहे हैं। लेकिन पीहू की नज़र भी तो उन्हीं लंहगों को निहार रही थीं। सक्सेना जी मुस्कराने लगे। उन्होंने तनाव की लंबी सांस को मुंह से बाहर फेंका। जैसे कहना चाहते हों कि हम ठीक जगह पर आए हैं।

“जी। बताईए। क्या सेवा है?” अली टेलर ने अंदर आते हुए कहा।

फिर अली ने जवाब सुने बिना तुलपन कर रही लड़की से कहा-”बेटा सलमा। इन्हें पानी-वानी पूछा कि नहीं?”

पीहू ने झट से जवाब दिया-”कोई बात नहीं अंकल। हम ज़रा जल्दी में हैं। लहंगा सिलवाना था।”

अली टेलर ने आंखों से चश्मा उतारा और हाथ में ले लिया। मानो जो कानों से सुना था, उसे आंखों से भी सुनना चाहता हो। फिर पीहू को गौर से देखते हुए बोला-”बिटिया लहंगा सिलवाने आई हो। जल्दी किस बात की? शादी के दिन हर किसी की नज़र तुम पर और तुम्हारे लहंगे पर होगी। फिर भी तुम जल्दीबाज़ी करोगी?”

पीहू सकपका गई। उसे तो अली टेलर पचपन-साठ की उम्र का थका-हारा आदमी लगा था।

अली टेलर की बुलंद आवाज में आत्मविश्वास था। मानो वो चेहरे पढ़ना जानता हो। दूसरे ही क्षण अली टेलर ने सक्सेना जी की ओर देखा। अदब से कहा-”जिसने भी आप लोगो को मेरे पास भेजा है। उसका विश्वास देखिए। वरना शहर में छत्तीस टेलर मास्टर हैं। गली-गली में स्पेशलिस्ट हैं। क्यो बिटिया?” अली ने पीहू की ओर देखा और फिर चश्मा पहन लिया।

पीहू को लगा कि कहीं ऑटो वाले ने रास्ते में हुई बात अली को तो नहीं बता दी। वह उठी और बाहर आकर ऑटो वाले को देखने लगी। ऑटो वाला ऑटो की सीट पर पसरा हुआ खर्रांटे भर रहा था।

तभी दुकान के अंदर से सलमा ने पीहू को पुकारा-”दीदी! अंदर आ जाओ। ऑटो वाला आपको छोड़कर नहीं जाएगा।”

तब तक सक्सेना जी पीहू का नाम लिखा चुके थे। अली कपड़ा टटोलकर उसे नाप रहा था। अली टेलर ने कहा-”पीहू बिटिया। आओ। नाप दे दो। मगर ध्यान रखना। जैसा कहोगी, वैसा ही बनेगा। लंबा-छोटा, ऊंचा-नीचा, सोच-समझ लो। एक सेंटीमीटर की गुंजाइश बाद में न होगी। वैसे भी ये कपड़ा जालंधरी है। ये न छोटा होगा न ही सिकुड़ेगा।”

सक्सेना जी ने पीहू की ओर देखा। नफजलवाला का टेलर कपड़े की इतनी बारीक पहचान रखता होगा। ये जानकर दोनों हैरान थे।

पीहू ने कहा-”कब तक दे सकोगे?”

अली टेलर ने डायरी पलटी। कुछ देर सोचा। फिर कहा-”इक्कीस अक्टूबर को ले जाना।”

“इक्कीस अक्टूबर! उसी दिन तो मेरी शादी है। थोड़ा जल्दी दे दो।” पीहू ने चौंकते हुए कहा।

अली टेलर ने कपड़े से हाथ ऐसे हटा लिए जैसे उसने अनजाने में सांप को छू लिया हो। अली ने सलीके से जवाब दिया-”फिर जल्दी। बेटा। मेरे यहां जल्दी का काम नहीं होता। एक महीना ही तो बचा है। तुमसे पहले बारह लहंगे और बनाने हैं। कुछ कोट भी हैं। मैं मशीन नहीं हूं। हां! इक्कीस अक्टूबर कहा है तो इक्कीस अक्टूबर। चिंता की कोई बात नहीं। तुम पता लिखा जाना। सलमा आ जाएगी देने।

“ठीक है।” पीहू ने कहा। अली ने नाप लिया। फिर कहा-”इत्मीनान से शादी की तैयारी करो। इक्कीस अक्टूबर से पहले देने की कोशिश करूंगा।”

पीहू के घर इक्कीस अक्टूबर की सुबह सलमा शादी का लहंगा लेकर पहुंच गई थी। पीहू ने सारा काम छोड़ दिया। सबसे पहले लंहगा पहना। जिसने भी देखा देखता रह गया। मण्डप पर और विदाई के बाद भी हर किसी ने पीहू से उसके लंहगे की चर्चा की। पीहू तो अली टेलर की कायल हो गई। वो क्या उसकी सहेलियां क्या। उसके मायके वाले क्या और उसके ससुराल वाले क्या।

बस फिर क्या था, पीहू के लहंगे के बहाने अली टेलर के कई ग्राहक और बढ़ गए थे।

जैसा पीहू के साथ हुआ था। हर उस ग्राहक के साथ होता था, जो अली टेलर के पास पहली बार कुछ सिलवाने आता था। अली की दुकान और अली को देखकर पहली नज़र में हर कोई गच्चा खा जाता। इस बाबत बाद में यदि कोई अली से कहता तो वह खिलखिलाकर हंसता।

सबसे एक ही बात कहता-”अरे भई! अली टेलर का हुनर उसके हाथों में है। उसकी दुकान में नहीं और न ही उसके चेहरे पर है। ये हाथ ही तो हैं जिनसे मैं मशीन चलाता हूं। जिनसे मैं नाप लेता हूं।”

समय बदलते देर कहां लगती है। आज जो फर्श पर है। कौन जानता है कि कल वो अर्श पर होगा। अली टेलर के साथ भी ऐसा ही हुआ। कमर तोड़ मेहनत करने का नतीजा था कि अब शहर के बीचों-बीच एक दुकान पर साइन बोर्ड लगा था। लिखा था-अली टेलर, नफजल वाले। दुकान चल निकली थी। नहीं। दौड़ रही थी। कपड़े सिलाने वालों की भीड़ जमा रहती थी। दो महीने के बाद की तारीख मिलती।

शहर में अच्छा टेलर कौन है? यह सवाल जो भी पूछता। हर कोई एक ही नाम बताता-अली टेलर। काम बढ़ता गया। सलमा भी अब मशीन पर हाथ चलाना सीखने लगी थी। दो-तीन लड़के दुकान में सीखने आने लगे थे। अली टेलर सीखने वालों को एक ही बात कहता-”हाथ का काम सीखने से पहले सलीका सीखना होगा। मशीन को छूने से पहले काज-बटन लगाना सीखना होगा। फौरी काम सीखने होंगे। तभी अपने मालिक खुद बनोगे नही ंतो नौकरी ही करोगे।”

अली टेलर जितना धैर्य और लगन लड़कों में भला कहां होता। कोई एक महीने काम करता तो कोई दो महीने तो कोई तीन महीने। फिर बिना बताये आना बंद कर देता।

सलमा अक्सर कहती-”अब्बू आपका एक खिलाड़ी और आउट हो गया।”

अली टेलर लंबी सांस लेकर जवाब देते-”सलमा। लंबी पारी खेलने के लिए दम-खम भी तो चाहिए।”

एक दिन की बात है। अली टेलर मशीन पर झुका हुआ था। सलमा तुलपन में व्यस्त थी।

“अली साहब। अत् सलाम उ वालेकुम। मैं मुहम्मद असलम। मुझे काम चाहिए। सब कुछ जानता हूं। बस बैठने का ठिकाना नहीं हैं। आप कुछ मदद कर देते तो मेहरबानी होगी।”

अली ने सलमा की ओर देखा। सलमा ने पलकें गिराते हुए जैसे कहा हो-”रख लो। वैसे भी कौन सा यह यहां टिक जाएगा।”

मुहम्मद असलम काम तो जानता था। लेकिन उसके हाथ में सफाई नहीं थी। उसे हड़बड़ी थी। अली ने पसीज कर असलम से कहा था-”असलम। तुम जो भी कपड़े सिलोगे। उसका मेहनताना तुम्हारा ही होगा। एक शर्त होगी कि कपड़ा सिलोगे। काटोगे नहीं।”

असलम ने कुछ देर सोचा। खुद से कहा-” ये अली टेलर। खुद को समझता क्या है। खैर....मुझे क्या। कपड़ा काटने में तो बहुत समय लगता है। ये तो और अच्छा है। मैं दो की जगह तीन कपड़े सिल लूंगा। बुड्ढा सठिया गया है शायद।”

एक दिन सलमा चिल्लाई-”असलम भाई। ये क्या कर रहे हो? अब्बू ने मना किया था न? आप कपड़ा नहीं काटोगे। केवल सिलोगे।”

असलम गुस्सा पी गया। सोचने लगा-”इस छोकरी की ज़बान बहुत चलती है। अली टेलर की बेटी न होती तो एक खींच के देता।”

फिर संभलते हुए बोला-”सलमा। ये काम घर से लाया हूं। घर पर ही सिलूंगा। अली साहब होते तो उनसे ही कटवाता।”

सलमा फिर किसी कमीज़ को देखकर चिल्लाई-”असलम भाई। ये तुमने क्या किया। नीली कमीज पर नीले बटन ही टांक दिये। अब्बू ज़रूर नाराज़ होंगे। ग्राहक हमेशा पनियल रंग के बटन चाहते हैं।”

असलम को यह अपना अपमान लगा। वह एक झटके से उठा और अपना सामान बटोरकर दुकान से बाहर चला गया। जाते-जाते सलमा को घूरता हुआ गया। जैसे कहना चाहता हो-देख लूंगा।

जब अली टेलर आया तो सलमा ने उसे सारा किस्सा सुना दिया। अली बोला-”तूने ठीक किया। असलम अब नहीं आएगा। तू पहले उस कमीज से नीले बटन हटा।”

असलम फिर कभी अली टेलर की दुकान पर नहीं आया। फिर एक दिन किसी ने अली टेलर को बताया कि असलम ने कुछ ही दूरी पर अपनी दुकान खोल ली है।

वक्त ने फिर करवट ली। दुकान से घर लौटते हुए किसी ने पीछे से अली को टक्कर मार दी। अली के दोनों हाथ मोटर साईकिल के नीचे आ गए। दोनों हाथों में आई चोट गहरी थी। पलास्तर चढ़ गए।

क्या से क्या हो जाता है। अली को पहली बार महसूस हुआ। ईद नज़दीक थी। ग्राहक दुकान के चक्कर लगाने लगे थे। आया हुआ काम जाने लगा था। सलमा का दिल बैठ जाता जब कोई कपड़ा वापिस मांगता। उसे तब और दुख होता जब कपड़े सिलवाने आए ग्राहक को वह बताती कि अब्बू फिलहाल कपड़े नहीं सिल पाएंगे। फिर एक दिन उसने कांपते हाथों से दुकान के बाहर टंगा बोर्ड अली टेलर नफजलवाले उतार कर दुकान के अंदर रख दिया।

‘अली के दोनों हाथ बेकार हो गए हैं।’ यह ख़बर आग की तरह शहर में फैल गई। अली नफजलवाला में बिस्तर पर था और शहर की दुकान पर बैठी सलमा अकेली उन ग्राहकों का इंतजार करती, जिनके कपड़े उसे लौटाने होते थे। दुकान में ठूंसा हुआ काम ऐसे लौटा जैसे सर्दी के दिनों की धूप तेजी से ढलती है।

कल तक जिस अली टेलर की दुकान पर क्या छोटा और क्या बड़ा। सेठ, व्यापारी, अफसर, मालिक ग्राहक बनकर खड़े रहते। आज वही ग्राहक अली टेलर से दूर जा चुके थे।

थक-हार कर एक दिन सलमा असलम टेलर के पास गई। असलम ने सलमा से कहा-”तुम काम पर आ सकती हो। एक शर्त है। जो काम तुम करोगी। उससे मिला मेहनताना आधा मेरा और आधा तुम्हारा। मंज़ूर हो तो कल से आ जाना।”

सलमा ने लौटकर अली टेलर को बताया। अली टेलर अंदर ही अंदर हिल गया था। फिर भी कड़क आवाज़ में बोला -”बेटी सलमा। तेरे इस बाप ने कभी हरामखोरी नहीं की। किसी से एक पैसा भी ज़्यादा नहीं लिया। हम एक दिन भूखा रह लेंगे, मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे। किराये की दुकान नहीं छोड़ेंगे। तू छोटा-मोटा काम पकड़। मैं तुझे बताता रहूंगा, तू उसी तरह कपड़ा काट और मशीन चला।” सलमा अली टेलर से लिपट गई।

समय गुजरता रहा। छह महीने बड़ी मुश्किलों में कटे। दुकान का किराया बढ़ता ही जा रहा था। डॉक्टर ने पलास्तर खोलते हुए कहा था-”अभी इन हाथों से भारी काम न करना। सिलाई तो बिल्कुल भी नहीं।”

फिर एक दिन दुकान के मालिक ने अली टेलर से कहा-” दुकान खाली कर देना। मुझे उस दुकान का अच्छा किराया देने वाले ग्राहक मिल रहे हैं।”

अली टेलर ने दुकान के मालिक से कहा-”भरोसा रखिए। मैं पाई-पाई चुका दूंगा। आप किराया बढ़ा दें। उसकी चिंता नहीं है। दुकान खाली करने के लिए मत कहिए।” दुकान का मालिक चला गया।

बुरा वक्त जैसे विदाई पर था। अली टेलर हाथों की अंगुलियों को कभी फैलाता तो कभी मुठ्टी भींचता। जैसे परख रहा हो कि उसके हाथ कब मशीन को छूएंगे। वह उठा और असलम टेलर के पास जा पहुंचा।

असलम ने हंसते हुए कहा-”एक शर्त है। तुम जो काम करोगे, उस पर असलम टेलर का तमगा लगाओगे। मेहनताना मैं अपनी मर्जी से दूंगा। चाहो तो कल से आ जाना।”

अली टेलर लौट आया। सलमा को बताया तो सलमा आग-बबूला हो गई। कहने लगी-”अब्बू आप असलम के पास गए ही क्यों? क्या आप नहीं जानते कि उससे अच्छा तो कसाई होता है। मैं ट्यूशन करती हूं। बच्चों के कपड़े सिलाई को आने लगे हैं। क्यों परेशान होते हो। अच्छा खा-पी नहीं रहे हैं तो क्या हुआ? आपको किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़े। फिर? क्यों गए आप असलम के पास?”

“अली टेलर हैं क्या?” तभी किसी ने आवाज दी।

शाम होने को आई थी। नफजल वाला में इस वक्त कौन आ सकता है? दोनों यही सोच रहे थे।

आम के पेड़ के नीचे एक चमचमाती गाड़ी खड़ी थी। दो आदमी अली टेलर को ढूंढ रहे थे। सलमा सड़क पर जा पहुंची। पीछे-पीछे अली टेलर था।

“जी कहिए। अब्बू से क्या काम है?” सलमा की आवाज में हिचक और डर मिला-जुला हुआ था।

“मैं हूं। अली टेलर।” उन दो अजनबियों को देखकर अली ने पीछे से कहा।

“मैं हूं अमन भारती और ये हैं नमन भारती। हम ‘बालिका बचाओ’ अभियान चलाते हैं। ईद से पहले हमें पांच हजार फ्रॉक चाहिए। अभी तीन महीने हैं। कपड़ा हमारा होगा। ये रहा नाप-छाप। तीन से पांच साल की बच्चियों का है। फ्रॉक का डिजाइन ऐसा हो कि लोग देखते रह जाएं। फ्रॉक देखकर हर कोई कहे कि ये अली टेलर ने ही सिली हैं। ये लीजिए। एक लाख रुपए एडवांस।”

सलमा और अली एक-दूसरे को देखने लगे। वहीं अमन भारती और नमन भारती भी सकपका गए। अब नमन भारती ने कहा-”आप परेशान न हों। आपको हम 200 रुपए एक फ्रॉक के लिए पेमेन्ट करेंगे।”

अमन भारती ने जोड़ा-”इस हिसाब से दस लाख रुपए होते हैं। यदि आप कहें तो हम पेमेन्ट पहले कर देते हैं।”

अली टेलर चिल्ला ही पड़ा-”नहीं। नहीं। 200 रुपए ही ज्यादा हैं। मुझे मंजूर है। कपड़ा कहां है?”

अमन भारती ने जवाब दिया-”कपड़ा कल पहुंच जाएगा। आपकी शहर वाली दुकान पर ताला लगा था।”

सलमा ने बात काटते हुए कहा-”वो ज़रा अब्बू बीमार थे। कल आपको दुकान खुली मिलेगी। कल से हम वहीं मिलेंगे।”

“तो ठीक है। बात पक्की।” अमन ने अली टेलर के आगे हाथ बढ़ाया। अली टेलर का हाथ कांप रहा था। उसने जैसे-तैसे हाथ मिलाया। ग्राहक जा चुके थे। सलमा भी शहर की ओर जाने लगी।

अली टेलर ने पूछा-”सलमा। शाम हो गई है। इस वक्त कहां जाने की सोच रही है?”

सलमा ने मुस्कराते हुए जवाब दिया-”अली टेलर का बोर्ड दुकान के अंदर रखा है। उसे दुकान पर लगाने। मकान मालिक को पिछला किराया भी तो देना है।”

अली टेलर मुस्कराया। उसने अपनी दोनों हथेलियों से अपना चेहरा ढक लिया। अली टेलर अब तक आंखों के सामने छाए हुए अंधेरे को भगा जो चुका था।000