अल्गोरिथम सत्यम, शिवम सुंदरम / जयप्रकाश चौकसे

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अल्गोरिथम सत्यम, शिवम सुंदरम
प्रकाशन तिथि : 30 अगस्त 2013


पश्चिम में विभिन्न जगहों और आयु समूह के लोगों की पसंद-नापसंद के आंकड़ों पर आधारित अल्गोरिथम नामक प्रक्रिया के द्वारा यह जानने का प्रयास हुआ है कि फिल्म सफल होगी या नहीं। विगत दो वर्षों में संसार में अधिकतम आंकड़े एकत्रित किए गए हैं। मौसम की भविष्यवाणी भी अब काफी हद तक प्रामाणिक सिद्ध होती है। विज्ञान सामूहिक अवचेतन का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह जानने के अथक प्रयास कर रहा है। एक व्यक्ति के अवचेतन में पैठना और उसके आधार पर सामूहिक अवचेतन का अध्ययन सफल नहीं होता, क्योंकि एक ही मनुष्य का व्यवहार अपने घर में और सड़क पर तथा संसद में अलग-अलग होता है। जो हाथ सुबह अपने बेटे के सिर होता है, वही हाथ भीड़ का हिस्सा होकर पत्थर उठा लेता है और संसद में व्हिप के आधार पर रजामंदी देता है। यही व्यक्ति सिनेमाघर में विभिन्न प्रतिक्रिया देता है। मनुष्य का पल-पल में बदलना ही उसे विशिष्ट बनाता है। हांका लगने पर जानवर एक ही दिशा में भागते हैं, परंतु मनुष्य अलग होता है। व्यवस्था का प्रयास यही होता है कि मनुष्य भी हांका लगाने पर एक दिशा में जाए। यह हांका- प्रवृत्ति राजनीति में लॉयल्टी कहलाती है, माफिया में 'परिवार' की भावना जगाती है और डॉन खुदा बन जाता है। यह हांका-प्रवृत्ति ही है कि एक अपराधी को बचाने अनेक लोग आवाज उठाते हैं।

'अल्गोरिथम' में फेसबुक, ट्विटर और वैकल्पिक संसार के प्रायोजित विचार को आंकड़ों का आधार बनाया गया है, परंतु भारत जैसे देश में कितने कम लोग इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। इस क्षेत्र में भी व्यक्तिगत लोकप्रियता की खातिर लोग 'बयानबाजी' करते हैं, जो उनके सच्चे सोच का प्रतिनिधित्व नहीं करता। हॉलीवुड में तो दशकों से भव्य फिल्म को बिना प्रचार के किसी छोटे कस्बे में प्रदर्शित करते हैं और दर्शक प्रतिक्रिया का आकलन किया जाता है, परंतु यह तरीका भी कारगर सिद्ध नहीं होता। मुंबई फिल्म उद्योग में प्रदर्शन के पूर्व प्रदर्शन आयोजित किए जाते हैं, परंतु प्रतिक्रिया का यह अध्ययन भी काम नहीं आता।

अमेरिका के गत दो चुनावों में आकलन सही सिद्ध हुआ, परंतु वही विधा भारत में सफल नहीं हो पाती, क्योंकि हमारा मतदाता जाहिर तौर पर कोई भी विचार प्रगट करे, चुनाव के ढाई बाय ढाई के अस्थायी केबिन में वह किसे अपना मत देता है, यह बताना कठिन हो जाता है। उस केबिन में कभी जाति जोर डालती है, कभी धर्म कुछ मार्गदर्शन करता है और कंबख्त काबू के बाहर गई उंगली कोई और अनचाहा बटन दबा देती है।

आज टेक्नोलॉजी के फैलते दायरे मनुष्य के अवचेतन को भी इस रूप में प्रभावित करते हैं कि व्यक्ति जान ही नहीं पाता कि वह किसके इशारे पर काम कर रहा है। यह ठीक उस लोकप्रिय मजाक की तरह है, जिसमें पति कहता है कि वह पत्नी की आज्ञा से घर पर राज करता है। आज कम्प्यूटर द्वारा एकत्रित विराट ज्ञान भी मनुष्य की बुद्धि का आकलन करने में मदद नहीं कर पाता। मनुष्य की बुद्धि कंप्यूटर को रचती है, परंतु अब कम्प्यूटर को यह अहंकार हो गया है कि वह मनुष्य रच सकता है और अनेक रोबो काफी हद तक मनुष्य की तरह काम करते हैं, यहां तक कि उन्हें प्रेम अभिव्यक्त करने के लिए भी प्रोग्राम्ड किया गया है। इसके बावजूद यह भी सच है कि कुशलतम लोगों द्वारा बनाए गए कल-पुर्जे भी मनुष्य के हृदय की तरह नहीं हो पाते।

इन सब बातों के बीच एक भयावह सच यह है कि अब मनुष्य के हृदय में संवेदना की कमी हो गई है और वृहतर षड्यंत्र भी यही है कि हम सृजनशील हृदय नहीं बना पा रहे हैं तो संवेदनहीन मनुष्यों की संख्या ही बढ़ा दें। कुछ नेता भी इसी तरह सोचते हैं कि वे शिखर नेता नहीं बन सकते तो अपना मनचाहा राष्ट्र ही बना लें अर्थात अपने बौनेपन के अनुरूप देश हो और कुछ हठधर्मी बौने तो अपने ईश्वर की कल्पना भी अपने बौनेपन के आधार पर करते हैं।