अवचेतन में सिनेमा और सिनेमा में चेतना / जयप्रकाश चौकसे
अवचेतन में सिनेमा और सिनेमा में चेतना
प्रकाशन तिथि : 11 अगस्त 2012
अनुराग कश्यप की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर-२' का एकमात्र हिंदू पुरुष पात्र कहता है कि वह हिंसा के लंबे दौर में अभी तक अनेक लोगों की हत्या करने के बाद भी जीवित है, क्योंकि वह सिनेमा नहीं देखता तथा बर्बरता की इस अमानवीय दास्तां के अन्य पात्र सिनेमा देखते हैं और उनके मन में एक पटकथा लगातार बनती रहती है, जिसके वे पात्र हैं। इस एक गहन, गंभीर संवाद के अतिरिक्त फिल्म में पहले भाग की तरह अनवरत हत्याओं के सिलसिले के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस संवाद में निहित अर्थ की अनेक परतें हैं, जिन पर अलग-अलग लोग कई तरह से विचार कर सकते हैं, परंतु उसके पहले यह गौरतलब है कि इसी संवाद को कहने वाले पात्र की हत्या के दृश्य में नायक पहली गोली से उसके मरने के बाद भी सैकड़ों गोलियां दागता है और गोलियों से शरीर में बने छेद में बंदूक की नली बार-बार डालता है और पूरा उपक्रम उसके एक संवाद के घिनौने बिंब की तरह है कि 'कहकर तेरी लूंगा'। यह जुगुप्सा जगाने वाला दृश्य है।
यह बंदूक की नली का मृत शरीर में घुसेड़ते रहना सेक्स क्रिया के रूपक का दोहराव है और चूंकि शस्त्र व शरीर बदले हुए हैं, अत: सेंसर इस सहवास के दृश्य को काट नहीं पाया। इस तरह की विकृति को कुछ लोग इंटेलेक्चुअल भी मानते हैं, परंतु इसे छद्म-बौद्धिकता भी नहीं कहा जा सकता, वरन यह एक भीतरी घुटन और कुंठाओं की अभिव्यक्ति मात्र है और अश्लीलता के आरोप से बचने के लिए सुविधाजनक मार्ग खोजा गया है। कमल हासन ने भी अपनी फिल्म 'हे राम' में एक नग्न नारी शरीर को बंदूक में बदलते हुए दिखाया था।
इसे विकृत या घिनौना मानना शायद मेरे पिछड़ेपन के कारण हो रहा है या मेरी सोच के बर्तन में आज भी कुछ नैतिक मूल्यों का तलछट कायम है, जिसे मैं आधुनिकता के किसी पोंछे से साफ नहीं कर पा रहा हूं। कोई भी प्रचारित पावडर काम नहीं कर रहा है। इसी विचार की एक परत यह है कि सहवास और हिंसा एक ही हैं। सामंतवादी तौर-तरीकों में सहवास हिंसा ही है और आज के जीवन के दबाव और तनाव ने इसी समीकरण को लोकप्रिय भी बनाया है, परंतु दरअसल वह समाहित होना है, वक्त के दरिया में निश्चेष्ट होते हुए तैरना है या डूबकर बचे रहना है। वह साधना की ऊंची पायदान है। बहरहाल, इस तरह शारीरिकता को आध्यात्मिकता के अंश की तरह मानना भी मेरा पिछड़ापन ही माना जाएगा।
इस फिल्म में मात्र दो हिंदू पात्र हैं। एक सत्ता का प्रतीक है, जिसे हजारों गोलियों से भूना गया है और दूसरी पात्र दुर्गा है, जो फिल्म के पहले खंड में मनोज बाजपेयी अभिनीत अपराधी की दूसरी पत्नी है। इस खंड के आखिरी हिस्से में दुर्गा का पुत्र ही अपने भाई नायक को गोली मारता है। दोनों भाइयों ने साथ मिलकर बर्बरता रची थी, परंतु जाने कैसे पुलिस अर्थात व्यवस्था सौतेले को हिरासत में होने के बावजूद हत्या की न केवल सुविधा देती है, वरन उसे स्वतंत्र भी कर देती है। गोयाकि व्यवस्था दुर्गा और उसके पुत्र (जिसका पिता एक मुस्लिम था) के साथ मिली हुई है।
अनुराग कश्यप ने इन दो फिल्मों में केवल इतना स्थापित किया है कि वासेपुर एक मुस्लिम बस्ती है और उसके अधिकांश नागरिक अपराधी हैं। वे अपनी काल्पनिक गैंगवार फिल्म को देश के किसी भी शहर में स्थापित कर सकते थे, परंतु उन्होंने वासेपुर को ठीक उसी तरह बदनाम करने की चेष्टा की है, जैसे कि आजमगढ़ जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में केवल अपराधी ही रहते हैं, जबकि वहां महान कैफी आजमी का भी जन्म हुआ है। इस तरह के प्रचार के कई चेहरे हैं और सांप्रदायिकता की आग फैलाने के षड्यंत्र भी हैं, परंतु देश की अखंडता को तोडऩा मुमकिन नहीं है। इस विचार की सिनेमाई अभिव्यक्ति भी नई नहीं है, परंतु अब ये रेखांकित की जा रही है और अजीब बात यह है कि मीडिया विशेषकर अंग्रेजी भाषा के समाचार-पत्र इसे 'सितारा कला' का दर्जा भी दे रहे हैं। समीक्षाओं में फिल्म को दिए जाने वाले 'सितारे' प्राय: बिकाऊ होते हैं।
दरअसल अपराध का कोई धर्म नहीं होता। संगठित अपराध भी धार्मिक माफिया से अलग नहीं होता है, जैसे शोषित और सामाजिक अन्याय भुगतने वालों को धर्म में नहीं बांटा जा सकता। आहत होना, आत्मा का लहूलुहान होना धर्म के दायरे के बाहर है। यह साधन-संपन्न और साधनहीन लोगों की एकतरफा जंग है। आश्चर्य की बात है कि 'ब्लैक फ्रायडे' जैसी फिल्म को रचने वाला अब सांप्रदायिकता के ऐसे संकेत क्यों दे रहा है? क्या समाज में आए किसी परिवर्तन का वह हिस्सा है या किसी लहर का स्वयंभू सृजक है?