अवतार का इंतजार क्यों होता है / जयप्रकाश चौकसे
अवतार का इंतजार क्यों होता है
प्रकाशन तिथि : 03 अप्रैल 2009
विवादास्पद उपन्यास ‘द विंची कोड’ के लेखक डैन ब्राउन की एक और किताब पर आधारित फिल्म ‘एंजल्स एंड डेमंस’ 15 मई को पूरे विश्व में प्रदर्शित होने जा रही है। कैथोलिक मतावलंबी फिल्म नहीं देखें, ऐसी सलाह वेटिकन सिटी से पोप द्वारा जारी की जा सकती है। पिश्चिम में फिल्मों को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का वहां बहुत महत्व है।
सिनेमाघरों में तोडफोड और दर्शकों को जबरन रोकना नितांत भारतीय हुडदंगी शैली है। वहां सिर्फ नहीं देखने पकी सलाह ही दी जाती है। बहरहाल ईसाई धर्म पर विवादास्पद फिल्मों और किताबों से बाजार भरा पडा है, परंतु हमारा संबंध सिर्फ इस बात से है कि फिल्म में अनेक घटनाएं पवित्र स्थल वेटिकन में घटित होते दिखाई गई हैं, जबकि वहां शूटिंग नहीं की गई है। आज सिनेमा टेक्नोलोजी इतनी विकसित है कि विश्वस्नीयता से परिपूर्ण दशय, लोकेशन पर जाए बगैर ही बनाए जा सकते हैं। चर्च को ऐजराज भी इसी बात पर है कि इस विश्वस्नीय प्रस्तुतिकरण के कारण कुछ लोगों को भ्रम हो सकता है। उनके इस बयान से माध्यम की शक्ति और उसके असर की बात की जा रही है। अजीब बात यह है कि ‘द विंची कोड’ के प्रारंभ में निर्माता ने कथा को कोरी कल्पना कहा है, परन्तु इस तरह के डिस्क्लेमर का कोई असर नहीं होता, क्येांकि दर्शक सिनेमाघर में परदे पर प्रस्तत गल्प को सत्य की तरह ही ग्रहण करता है और अपने अविश्वास के माददे को गेटकीपर के हाथ में थमाकर ही भीतर प्रवेश करता है।
सिनेमा को यकीन दिलाने की कला कहा जाता है। सिनेमा की इस शक्ति का बहुत सा श्रेय दर्शक के सहर्ष स्वीकार करने की बलवती इच्छा को दिया जाना चाहिए। संसार में कई बार अजूबे घटने की बात प्रचारित होती है। दरअसल मनुष्य के मन में अजूबों के लिए गहरी इच्छा है और यही अजूबों को घटित भी करा देती है। जीवन के कडवे यथार्थ और विषम परिस्थितियों का मारा निहत्था आदमी आस्था के सहारे जीता है और अजूबों के लिए पलक-पांवडे बिछाए रहता है। बार-बार दोहराव से भरी जिंदगी में अजूबा उसे उत्तेजना और नई शक्ति देता है। कई बार वह थोडा सा चमत्कार देखता है और अपने मित्रों को बढा-चढाकर बताता है। यही फैली हुई बात मुंह दर मुह विकराल रूप लेती है और किवदंतियां बनने लगती हैं । हमारा स्वाभाविक रूझान ही तर्क और तथ्य से बचने का है। हमें खुद साधारण सी बातों के इर्द-गिर्द कुहासे और धुंध रचने का शौक है। हर आदमी के भीतर एक कल्पनाशील लेखक बैठा होता है और जो इस लेखक को अध्ययन तथा परिश्रम से मांझत हैं, वे लेकर बन जाते हैं। हम कभी बात को जस का तस नहीं रखते, वह हमेशा बहुत घटाकर या बहुत बढाकर बताई जाती है।
हमारी कल्पनाशक्ति हमें तटस्थ नहीं रहने देती। हमारे व्यक्तिगत रूझान, पसंद और नापसंद सब बातें विवरण में परिवर्तन करती हैं। हमें किसी नेता या अभिनेता की कोई अदा भा जाती है और हम उसकी काल्पनिक अच्छार्इयों का विवरण लोगों को सुनाने लगते हैं। अधिकांश किंवदंतियां ऐसे ही बनती हैं। हम किसी का प्रशंसक बनते ही अपने विवेक और तटस्थता को खो देते हैं। इसलिए जो सचमुच् में पहुंचे हुए और सिद्धि प्राप्त लोग होते हैं, वे व्यक्ति पूजा को निरूत्साहित करते हैं। ढोंगी बाबा पैर छुआते हैं और प्रशंसा से आत्मलीन हो जाते हैं। असली व्यक्ति चाहेगा कि प्रशंसक का विवेक जागे और वह स्वतंत्र विचार करके स्वयं पूजनीय बन जाए।