अवध संस्कृति के फिल्मकार अली / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :08 अगस्त 2015
मुजफ्फर अली की फिल्म 'जांनिसार' का प्रचार तो हुआ है परंतु सिनेमाघरों की कमी के कारण प्रदर्शन कम शहरों में ही हो पाया। उनकी 'उमराव जान' जिन दर्शकों की स्मृति में हमेशा जीवित रहेगी और खय्याम साहब तथा आशा भोसले का माधुर्य मन की वादियों में गूंजता रहता है, वे जरूर बीस वर्ष बाद सिनेमा की ओर लौटे मुजफ्फर अली की 'जांनिसार' देखने जाते। इसे नहीं देख पाने की कसक है। मुजफ्फर अली ने जलाल आगा के साथ 'गमन' बनाई थी, रेखा और फारुख शेख के साथ 'उमराव जान' बनाई। इसके बाद उन्होंने कश्मीर की सरकार के सहयोग से विनोद खन्ना और डिंपल अभिनीत 'जूनी' शुरू की थी और संभवत: दस रीलें बन भी गई थीं परंतु अज्ञात कारणों की वजह से वह पूरी नहीं हो पाई। उसी असफल प्रयास से जन्मे वैराग्य के कारण अली बीस वर्ष सिनेमा से दूर रहे।
यह एक आधारहीन अंधविश्वास है कि कुछ कहानियों पर फिल्में नहीं बन पातीं तो उन कहानियों को अभागा माना जाता है। मनुष्य और कहानियां अभागी नहीं होती, अभागा वह समाज है, जो उन्हें देखने से वंचित रहा। दशकों पूर्व शम्मी कपूर अपनी पत्नी गीता बाली की असमय मौत के कारण इतने उद्विग्न हो गए कि उन्होंने गीता बाली अभिनीत व निर्मित राजेंद्र सिंह बेदी के महान उपन्यास से प्रेरित फिल्म की बनी-बनाई 14 रीलों को नष्ट कर दिया। उनके मन में शायद यह बात समा गई कि यह कहानी अभागी है। हकीकत यह है कि बचपन में गीता बाली के माता-पिता स्माल पॉक्स वैक्सीन नहीं लगा पाएं, संभवत: उनके पिंड में उसकी सहूलियत नहीं थी, अत: वह स्माल पॉक्स की शिकार हुईं। वर्षों बाद बनी 'एक चादर मैली-सी' भी असफल रही तो उस महान कृति पर अभागी होने का ठप्पा जड़ दिया गया जबकि वह ऐसी कृति है जिसमें आर्थिक स्थितियां सामाजिक मूल्यों को बदल देती है।
बहरहाल, 'मदर इंडिया' के लिए प्रसिद्ध मेहबूब खान कश्मीर की कवयित्री 'हब्बा खातून' की पटकथा पूरी कर चुके थे और नेहरू की मृत्यु का समाचार सुनकर हृदयाघात से मेहबूब खान की मृत्यु हुई। वे मेज पर उस जगह गिरे जहां हब्बा खातून की पटकथा रखी थी। अली की 'जूनी' भी हब्बा खातून का ही बायोपिक थी। अत: इस कहानी पर अभागे होना का गैरमुनासिब ठप्पा लगा दिया गया है। आज अगर अली या कबीर खान दीपिका पादुकोण को लेकर हब्बा खातून बनाए तो आज के दौर की सितारा हैसियत इस महान कथा पर से अभागी का ठप्पा हटा सकती हैं। सितारों से वशीभूत हमारा समाज हब्बा को भाग्यवान मान लेगा और क्यों न माने उनकी ही सदियों की मान्यता है कि भाग्य निर्धारण में आकाश के सितारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। हम कितने अजीब लोग हैं कि धरती पर चलते-फिरते मनुष्य के भाग्य को आकाश में सितारों के अधीन मान लेते हैं, जबकि गरीबी 'औद्योगिक उत्पाद' है। स्मृति में कौंधती है महान शैलेंद्र की पंक्तियां 'छोटी-सी गुड़िया की लंबी कहानी, तारों की बात सुने रात सुहानी'। संभव है कि दिनभर एकत्रित अवसाद सितारों की पैबंद लगी चुनरियां में अपने जख्म छुपाता है और आनंद से वशीभूत हम अपने अवसाद से अनभिज्ञ, अवसाद से अनजान बने इतने आधे-अधूरे हैं कि देख ही नहीं पाते।
बहरहाल, अली उत्तरप्रदेश के सामंतवादी परिवार की संतान हैं और उस दौर की अवध संस्कृति पर आधुनिकता और विकास का लगातार हमला देखना उन्हें हताश कर जाता है और उस संस्कृति की याद में पहले उन्होंने पेंटिंग्स की और फिर उन्हें चलायमान दशा में देखने के लिए सिनेमा माध्यम से जुड़े। उनकी पहली फिल्म 'गमन' की पृष्ठभूमि महानगर है परंतु अवसर की तलाश में उत्तरप्रदेश और बिहार से आए लोगों की अपनी जमीन की याद की थी वह फिल्म और उमराव जान भी उसी अवध संस्कृति से सरोबोर रचना है। संभव है कि "जांनिसार' भी उसी ओर उठाया कदम हो।दरअसल, सामंतवाद में अनेक दोष हैं परंतु सामंतवादियों ने कला और संगीत को संरक्षण दिया था, यूं तो जब रोम जल रहा था तब नीरो बांसुरी बजा रहा था। अब संहार करने वालों के कलाप्रेम को समझना कठिन है। आज के धनाढ्य कला में नहीं उसके फूहड़ प्रदर्शन में रुचि रखते हैं। अब वे क्रिकेट टीम खरीदते हैं, फुटबॉल टीम खरीदते हैं और मीडिया तथा फिल्म कंपनियां खरीदत हैं, जो उनका शगल नहीं है। मीडिया की बांह वे अपने हितों के लिए मरोड़ते हैं। सभी का केंद्र धन व सत्ता है। बहरहाल, मुजफ्फर के पुत्र शाद कुछ हद तक कामयाब फिल्मकार हैं पर उनके पास पिता की सांस्कृतिक सम्पति नहीं है गोयाकि लखनऊ का कबाब महानगर के तेल में भूना गया है। क्या सुपुत्र अपने पॉवर का इस्तेमाल करके पिता की 'जूनी' के लिए दीपिका पादुकोण से बात करेंगे। 'तमाम उम्र का हिसाब मांगती है जिंदगी, क्या कहें कि खुद से शर्मसा है हम'