अवमूल्यन / सुधा भार्गव
दो वृद्ध फुसफुसा रहे थे। लगता था अपना ब्लडप्रेशर नाप रहे हैं।
-कल वृद्धाश्रम का उदघाटन हुआ था। वहाँ मैं गया। लेकिन बाहर कुत्ते –बिल्ली ही नजर आ रहे थे। तुम्हें तो मालूम है मुझे किस कदर उन से डर लगता है, सो उल्टे पाँव लौट आया।
-दुबारा जाओगे तो कुत्ते–बिल्ली अंदर आराम करते नजर आएंगे और तुम चौखट से सिर टकराकर फिर चले आओगे।
-मगर क्यों?
-क्योंकि यह आश्रम वृद्ध पशुओं की देखभाल के लिए हैं।
-हमारे लिए तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं। यह नया चक्कर और शुरू हो गया।
-अरे अभी तो वृद्धाश्रम का दरवाजा ही जानवरों के लिए खुला है। वह दिन दूर नहीं जब अनाथालयों में मासूम और दूधमुंहे बच्चों की जगह पिल्ले,मेमने बंदर-बिल्ली के बच्चे ले लेंगे।
-फिर वे लोग कहाँ जाएंगे?
-कहीं भी जाएँ –कहीं भी खपें। आज जानवरों की औलाद मनुष्य से कहीं बढ़चढ़ कर है।
-लोग तो बच्चा गोद लेने के लिए अनाथालय जाते हैं फिर कहाँ जाएंगे?
-अनाथालय ही जाएँगे पर गोद लेंगे चौपायों के बच्चों को और जगह –जगह पोस्टर लगे होंगे –पशुओं से प्रेम करना सीखो –उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखो।
- तब तो जानवर इंसान की मौत पाएंगे और इंसान को मिलेगी कुत्ते –बिल्ली सी मौत। क्या हमारा मूल्य इतना गिर गया है?