अवशिष्ट भाग 1-10 / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
जब पहले-पहले किसान-सभा और किसान-संगठन का खयाल हमारे और हमारे कुछ साथियों के दिमाग में आया तो वह धुँधला सा ही था। उसकी रूपरेखा भी कुछ साफ नजर न आ रही थी। यह हमारा आकस्मिक प्रयास था , ऐसे अथाह समुद्र में जहाज चलाने का जिसमें न तो दिशाओं का ज्ञान था और न किनारे का पता। पास में दिग्दर्शक यंत्र (कुतुबनुमा) भी न था कि ठीक-ठीक जहाज को चलाते। इतने दिनों बाद याद भी नहीं आता कि किस प्रेरणा ने हमें उस ओर अग्रसर किया। बेशक , कुछ उद्देश्य ले कर तो हमने श्रीगणेश किया ही था। मगर वह था निरा गोल-मोल। फिर भी उस ओर हमारी प्रेरणा एकाएक कैसे हुई यह एक पहेली ही है और रहेगी। ऐसा मालूम होता है कि अकस्मात हम उस ओर बह गए! मगर जरा इस बात की सफाई कर लें तो अच्छा हो।
किसान-सभा के स्थापन का पहला विचार सन 1927 ई. के अंतिम दिनों में हुआ था। उस समय मैं कांग्रेस की स्थानीय नीति से , या यों कहिए कि बिहार के कुछ बड़े नेताओं के कारनामों से झल्लाया-सा था , जो उन्होंने सन 1926 ई. के कौंसिल चुनाव के सिलसिले में दिखलाए थे। इसीलिए तो स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवारों का समर्थन न कर लाला लाजपतराय और पं. मदनमोहन मालवीय की इंडिपेंडेंट पार्टी का ही समर्थक रहा। जो उम्मीदवार बिहार में थे उन्हें लाला जी तथा मालवीय जी के आशीर्वाद प्राप्त थे। साथ ही गाँधीवादी भी मैं खाँटी था। इसलिए कांग्रेस से एक प्रकार की विरक्ति के साथ ही गाँधीवाद में अनुरक्ति भी पूरी थी। यह भी नहीं कि मैं गाँधीवादी ढंग की किसान-सभा बनाने का खयाल न रखता था। उस समय तो यह सवाल कतई था ही नहीं। जब किसान-सभा की ही बात उससे पहले न थी तो फिर गाँधीवादी सभा की कौन कहे ? फिर भी किसान-सभा का सूत्रपात हुआ।
ठीक कुछ ऐसी ही बात सन 1932-33 में भी हुई। उस समय भी मैं , सन 1930 ई. की लड़ाई के बाद , कांग्रेस से विरागी था ; राजनीति से अलग था , किसान-सभा से संबंध रखता न था। इस बार के विराग का कारण भी कुछ अजीब था। मैंने सन 1922 ई. और 1930 में भी जेलों में जाने पर देखा था कि जो लोग गाँधी जी के नाम पर ही जेल में गए हैं , वही उनकी सभी बातें एक-एक कर के ठुकराते हैं और किसी की भी सुनते नहीं। इससे मुझे बेहद तकलीफ हुई , मैंने सोचा कि जहाँ कोई व्यवस्था और नियम-पालन नहीं , अनुशासन नहीं , ' डिसिप्लीन ' नहीं , वह संस्था बहुत ही खतरनाक है। इसीलिए विरागी बन गया और 1932 की लड़ाई से अलग ही रहा। मगर ठीक उसी समय , हजार अनिच्छा के होते हुए भी , जबर्दस्ती किसान-सभा में खिंच ही तो गया। जहाँ सन 1927 ई. किसान-सभा के जन्म का समय था , तहाँ सन 1933 ई. उसके पुनर्जन्म का। क्योंकि दरम्यान के दो-तीन वर्षों में वह मरी पड़ी थी।
इस प्रकार जब देखता हूँ तो राजनीति के विराग के ही समय मैं किसान-सभा में खिंच गया नजर आता हूँ। यह भी एक अजीब-सी बात है कि राजनीति का वैराग्य किसान-सभा से विरागी न बना सका। दोनों बार के वैराग्य के भीतर प्रायः एक ही बात थी भी , और वह यह कि जो लोग कांग्रेस और गाँधी जी को धोखा दे सकते हैं , भुलावे में डाल सकते हैं , वह जनता के साथ क्या न करेंगे ? फलतः उनसे मेरा साथ , मेरा सहयोग नहीं हो सकता है। फिर भी किसान-सभा में वही आए और रहे। लेकिन इसकी कोशिश मैंने उस समय की ही नहीं कि वे लोग उसमें आने न पाएँ। मुझे आज यह पहेली सी मालूम हो रही है कि मैंने ऐसा क्यों न किया। इसी से तो कहता हूँ कि किस प्रेरणा ने मुझे उसमें घसीटा यह स्पष्ट दीखता नहीं। यह कहा जा सकता है कि यह वैराग्य शायद अज्ञात सूचना थी भविष्य के लिए और इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि ऐसे लोगों से किसानों का हित नहीं हो सकता ─ फलतः उनसे एक न एक दिन किनाराकशी करनी ही होगी। यह बात कुछ जँचती-सी है।
उस समय एक और बात भी थी , जो ऊपर से ऐसी ही बेढंगी लगती है। आखिर किसान-सभा भी तो राजनीतिक वस्तु ही है आज तो यह स्पष्ट हो गया है। यह तो सभी मानते हैं , फिर राजनीति का निचोड़ है रोटी , और उसी सवाल को किसान-सभा के द्वारा हल करना है। फिर राजनीति से होनेवाला वैराग्य , जिसके भीतर कम से कम 1932-33 में किसान-सभा के प्रति अरुचि भी शामिल है। मुझे उस सभा में पुनरपि कूदने से क्यों न रोक सका जो कि कांग्रेस से रोके रहा , यह समझ में नहीं आता। किसान-सभा की राजनीति निराली ही होगी , वह अर्थनीति (रोटी) मूलक ही होगी ,शायद वह इस बात की सूचना रही हो। राजनीति हमारा साधन भले हो , मगर साध्य तो रोटी ही है , यही दृष्टि संभवतः भीतर-ही-भीतर , अप्रकट रूप से काम करती थी , जो पीछे साफ हुई। लेकिन इतने से उस समय की परिस्थिति की बाहरी पेचीदगी खत्म तो हो जाती नहीं। वह तो साफ ही नजर आती है। मेरी आंतरिक भावना किसानों के रंग में रँगी थी , इतना तो फिर भी स्पष्ट होई जाता है।
लेकिन गाँधीवाद के वर्ग सामंजस्य ( Class-collaboration) का किसान-सभा से क्या ताल्लुक , यह प्रश्न तो बना ही है। मैं तो उन दिनों पूरा-पूरा गाँधीवादी था। राजनीति को धर्म के रूप में ही देखता था। यद्यपि इधर कई साल के अनुभवों ने बार-बार बताया है कि राजनीति पर धर्म का रंग चढ़ाना असंभव है , बेकार है , खतरनाक है इसीलिए विराग भी हुआ। फिर भी धुन वही थी और धर्म में तो वर्ग सामंजस्य हई। वहाँ वर्ग-संघर्ष ( Class-struggle) की गुंजाइश कहाँ ? फलतः किसान-सभा भी उसी दृष्टिकोण को ले कर बनी। लेकिन उसमें भी एक विचित्रता थी जो भविष्य की सूचना देती थी। गोया उस ओर कोई इशारा था।
असल में सन 1927 ई. के आखिरी दिनों में पहले पहल किसान-सभा का आयोजन और श्रीगणेश होने पर और तत्संबंधी कितनी ही मीटिंगें करने पर भी जब सन 1928 ई. के 4 मार्च को नियमित रूप से किसान-सभा बनाईगई तो उसकी नियमावली में एक यह भी धारा जुटी कि “ जिन लोगों ने अपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कामों से अपने को किसान-हित का शत्रु सिद्ध कर दिया है वे इस सभा के सदस्य नहीं हो सकते। “ एक ओर तो मेल-मिलाप और सामंजस्य का खयाल और दूसरी ओर किसान-सभा की ऐसी गढ़बंदी कि किसानों में भी वही उसके मेंबर हों जो असली तौर पर किसान-हित के शत्रु साबित न हों। यह एक अजीब बात थी। आखिर ऐसे लोग किसान-सभा में आ के क्या करते ? जब जमींदारों से कोई युद्ध करना न था तब इतनी चौकसी का मतलब क्या ? जमींदारों के खुफिष्या और ' फिफ्थकौलम ' उसमें रह के भी क्या बिगाड़ डालते ? खूबी तो यह कि शुरू वाली सभा में जो यह बात तय पाई वह ठेठ बिहार प्रांतीय किसान-सभा तथा आल-इंडिया किसान-सभा की नियमावली में भी जा घुसी। मेरे दिमाग में वह बात जमी तो थी ही। फलतः सर्वत्र मैं उसकी जरूरत सुझाता गया। इस प्रकार हम अनजान में ही हजार न चाहने पर भी , या तो वर्ग संघर्ष की तैयारी शुरू से ही करते थे या उस ओर कम-से-कम अंतर्दृष्टि से देख तो रहे थे ही , ऐसा जान पड़ता है।
जो पहली सभा बनी वह प्रांत भर की नहीं ही थी। पटना जिले भर की भी न थी। उसका सूत्रपात बिहटा-आश्रम में ही हुआ था और यह बिहटा पटना जिले के पश्चिमी हिस्से के प्रायः किनारे पर ही है। वहाँ से तीन मील पच्छिम के बाद ही शाहाबाद जिला शुरू हो जाता है। उस समय प्रांतीय कौंसिल के लिए दो मेंबर चुने जाते थे ─ एक पूर्वी भाग से और दूसरा पश्चिमी से। इसी चुनाव के खयाल से पटना जिला दो हिस्सों में बँटा था और यह सभा पश्चिमी भाग की ही थी। इसीलिए उसे पश्चिम पटना किसान-सभा नाम दिया गया था। कोई क्रांतिकारी भावना तो काम कर रही थी ही नहीं। वैधानिक ढंग से जोर डालकर किसानों का कुछ भला करवाने और उनकी तकलीफें मिटवाने का खयाल ही इसके पीछे था। अन्यथा वर्ग सामंजस्य नहीं रह जाता। सोचा गया था कि जो ही वोट माँगने आएगा उसे ही विवश किया जाएगा कि किसानों के लिए कुछ करने का स्पष्ट वचन दे।
पश्चिम पटना में भरतपुरा , धरहरा आदि की पुरानी जमींदारियाँ हैं। उस समय उनका किसानों पर होनेवाला जुल्म बिहार प्रांत में अपना सानी शायद ही रखता हो। किसान पशु से भी बदतर बना दिएगए थे और छोटी-बड़ी कही जानेवाली जातियों के किसान एक ही लाठी से हाँके जाते थे। इस दृष्टि से वहाँ पूरा साम्यवाद था। यद्यपि उनके जुल्मों की पूरी जानकारी हमें उस समय न थी ; वह तो पीछे चलकर हुई। उस समय विशेष जानने की मनोवृत्ति थी भी नहीं। फिर भी वे इतने ज्यादा , ज्वलंत और साफ थे कि छन-छन के कुछ-न-कुछ हमारे पास भी पहुँच ही जाते थे। हमें यह भी मालूम हुआ था कि सन 1921 ई. के असहयोग युग में पटने के नामधारी नेता उन जमींदारियों में सफल मीटिंग एक भी न कर सके थे। जमींदारों के इशारे से उन पर गोबर आदि गंदी चीजें तक फेंकी गईं। सभा में लाठी के बल से किसान आने से रोक दिएगए। वे इतने पस्त थे कि जमींदार का नाम सुनते ही सपक जाते थे। हमने सोचा , एक-न-एक दिन यह जुल्म दोनों में भिड़ंत कराएगा और इस प्रकार के गृह-कलह से आजादी की लड़ाई कमजोर हो जाएगी। फलतः आंदोलन के दबाव से जुल्म कम करवाने और इस तरह गृह-कलह रोकने की बात हमें सूझी। धरहरा के ही एक जमींदार हाल में ही कौंसिल में चुने गए थे। उनका काफी दबदबा था। हमने सोचा कि संगठित रूप से काम करने पर वोट के खयाल से वे दबेंगे और काम हो जाएगा। बात कुछ थी भी ऐसी ही। वे जमींदार साहब इस सभा से बेहद चौंके और इसके खिलाफ उनने प्रचार-कोशिश भी की। शोषक तो खटमल की तरह काफी काइयाँ होते हैं। इसी से वे सजग थे। हमें भी यह बात बुरी लगी कि वे इतने सख्त दुश्मन क्यों बनें। मगर बात तो ठीक ही थी। हम उस समय असल में जमींदारी को ऐसा समझते न थे जैसा पीछे समझने लगे। फिर भी यह झल्लाहट बनी ही रही और वे सन 1930 ई. में हजारीबाग जेल में इसी की सफाई देने हमारे पास आए थे। बहुत डरे से मालूम होते थे। मगर उनका डर अंततोगत्वा सच्चा निकला , गो देर से। क्योंकि किसान-सभा ने ही उन्हें सन 1936-37 के चुनाव में बुरी तरह पहले असेंबली में पछाड़ा और पीछे डिस्ट्रिक्टबोर्ड में भी। मालदार लोग दूरंदेश होते हैं। फलतः इस खतरे को वे पहले से ही ताड़ रहे थे कि हो न हो एक दिन भिड़ंत होगी।
सभा जो जिले भर की भी नहीं बनी उसका कारण था हमारा फूँक-फूँक के पाँव देना ही। जितनी शक्ति हो उतनी ही जवाबदेही लो , ताकि उसे बखूबी सँभाल सको , इसी वसूल ने हमें हमेशा जल्दबाज़ी से रोका है। इसी खयाल से हम आल-इंडिया किसान-सभा बनाने में बहुत आगा-पीछा करते रहे। इसी वजह से ही हमने प्रांतीय किसान-सभा में पड़ने से भी ─ उसकी जवाबदेही लेने से भी ─ बहुत ज्यादा हिचक दिखाई थी। यही कारण था कि जिले भर की जवाबदेही लेने को हम उस समय तैयार न थे। मगर पता किसे था कि दो वर्ष बीतते-बीतते बिहार प्रांतीय किसान-सभा बन के ही रहेगी और न सिर्फ उसके स्थापनार्थ हमें आगे बढ़ना होगा , बल्कि उसकी पूरी जवाबदेही भी लेनी होगी ? आखिरकार सन 1929 ई. के नवंबर महीने में यही हुआ और सोनपुर मेले में प्रांतीय किसान-सभा बनी।
2
सन 1929 ई. के दिसंबर का महीना था। लाहौर कांग्रेस के पूर्व और हमारी बिहार प्रांतीय किसान-सभा बन जाने के बाद ही सरदार बल्लभभाई का दौरा बिहार में हुआ। दौरा प्रांत के सभी मुख्य-मुख्य स्थानों में हुआ। राय हुई कि नवजात किसान-सभा इससे लाभ क्यों न उठाए। श्री बल्लभभाई हाल में ही किसान आंदोलन और लड़ाई के नाम पर ही सरदार बने थे। बारदौली के किसानों की लड़ाई के संचालक की हैसियत से ही उन्हें सरदार की पदवी मिली थी। हमने सोचा कि हमारा किसान आंदोलन उनसे प्रोत्साहन प्राप्त करे। हुआ भी ऐसा ही। जहाँ-जहाँ उनके दौरे का प्रोग्राम था तहाँ-तहाँ ठीक उनके पहले हम किसान-सभा कर लेते और पीछे उसी सभा में वह बोलते जाते थे। कहीं-कहीं उनने हमारा और हमारी किसान-सभा का नाम भी लिया था और उसे सहायता देने को कहा था। मगर हम तो सभा की तैयारी और लोगों की उपस्थिति से लाभ उठा के किसान का पैगाम लोगों को सुना देना ही बहुत बड़ा फायदा मानते थे।
मुजफ्फरपुर जिले के सीतामढ़ी कसबे में भी एक बड़ी सभा हुई। हमने अपना काम कर लिया था। वह बोलने उठे तो दूसरी-दूसरी बातों के साथ जमींदारी प्रथा पर उनने बहुत कुछ कहा और उसकी कोई जरूरत नहीं है , यह साफ-साफ सुना दिया। उनका कहना था कि सुना है , ये जमींदार बहुत जुल्म करते हैं। ये लोग गरीब किसानों को खूब ही सताते हैं , ये भलेमानस अपने को जबर्दस्त माने बैठे हैं। लोग भी इन्हें ऐसा ही मानते हैं। इसीलिए डरते भी इनसे हैं। मगर ये तो निहायत ही कमजोर हैं। यदि एक बार कसके इनका माथा दबा दिया जाए तो भेजा (दिमाग की गुदी) बाहर निकल आए। फिर इनसे क्या डरना ? इनकी ज़रूरत भी क्या है ? ये तो कुछ करते नहीं ! हाँ , रास्ते में अड़ंगे जरूर लगाते हैं , पता नहीं , आज वही बदल गए , दुनिया ही बदल गई या जमींदार ही दूसरे हो गए। क्योंकि अब वह ये बातें बोलते नहीं , बल्कि जमींदारों के समर्थक बन गए हैं , ऐसा कहा जाता है। समय-समय पर परिवर्तन होते ही रहते हैं और नेता इस परिवर्तन के अपवाद नहीं हैं। शायद वे अब संजीदा और दूरंदेशी बन गए हैं , जब कि पहले सिर्फ आंदोलनकारी agitator थे। मगर , गुस्ताखी माफ हो। हमें तो संजीदा के बदले ' एजीटेटर ' ही चाहिए। अपनी-अपनी समझ और जरूरत ही तो ठहरी।
हाँ , तो उसी सभा से हम लोग रात में लौरी के जरिए मुजफ्फरपुर रवाना हुए। हमें आधी रात की गाड़ी पकड़ के छपरा जाना था। बा. रामदयालु सिंह , पं. यमुना कार्यी और मैं , ये तीनों ही उस लौरी में बैठे थे। मैं था प्रांतीय किसान-सभा का सभापति और कार्यी जी उसके संयुक्त मंत्री (डिविजनल सेक्रेटरी) थे। बाबू रामदयालु सिंह ने प्रांतीय किसान-सभा की स्थापना में बहुत बड़ा भाग लिया था। वे उसकी प्रगति में लगे थे। इस तरह हम तीनों ही सभा के कर्ता-धर्ता थे ─ सब कुछ थे। हमीं तीनों ने उसे बनाया था और अगर हम तीनों खत्म होते तो सभा का खात्मा ही हो जाता यह पक्की बात थी।
लौरी रवाना हो गई। रात के दस बजे होंगे। बाबू रामदयालु सिंह ड्राइवर की बगल में आगेवाली सीट पर थे और हम लोग भीतर थे। लौरी चलते-चलते एक तिहाई रास्ता पार कर के रुनीसैदपुर में लगी। ड्राइवर उसे छोड़ कहीं गया और थोड़ी देर बाद वापस आया। हम चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद ड्राइवर को ऊँघ सी आने लगी। नतीजा यह हुआ कि लौरी डगमग करती जाती थी। कभी इधर फिसल पड़ती तो कभी उधर। ड्राइवर उसे ठीक सँभाल न सकता था। वह सड़क भी ऐसी खतरनाक है कि कितनी ही घटनाएँ ( accidents) हो चुकी हैं , कितनी ही मोटरें उलट चुकी हैं। और कई मर चुके हैं। था भी रात का वक्त। खतरे की संभावना पद-पद-पर थी।
बाबू रामदयालु सिंह बात ताड़ गए। उनने ड्राइवर को ऊँघता देख पहले दो-चार बार उसे सँभाला था सही। मगर वह नींद में थोड़े ही था। उस पर नींद की सवारी न होकर नशा की सवारी थी। रुनीसैदपुर में उसने शराब पी ली थी। अब तो वे घबराए। मारे डर के वे पसीने-पसीने थे। हालाँकि दिसंबर की कड़ाके की सर्दी थी। सो भी उस इलाके में तो और भी तेज होती है। वे बार-बार ड्राइवर को सजग करते थे। मगर वह नशा ही क्या कि सर पर न चढ़ जाए और बेकार न बना दे ? आखिर उनसे रहा न गया और उनने लौरी जबर्दस्ती रुकवाई। तब कहीं हमें पता चला कि कुछ बेढंगा मामला है। अब तक हम भी बेखबर थे।
हम सभी उतर पड़े और उनने कहा कि रास्ते में शराब पीके हम सबों को यह मारना चाहता है। देखिए न , मैं पसीने-पसीने हो रहा हूँ हालाँकि इस कड़ाके के जाड़े में लौरी पर हवा भी लगती है। फलतः काँपना चाहिए। हम सबों की जान पद-पद पर खतरे में देख के मैं थर्रा रहा था। मगर जब देखा कि अब कोई उपाय नहीं है तो रोका है। यदि कोई घटना हो जाती और लौरी उलट जाती या नीचे जा गिरती तो सारी की सारी बिहार प्रांतीय किसान-सभा ही खत्म हो जाती। हम सभी इसी पर बैठे जो हैं। कल हमारे शत्रुओं के घर घी के चिराग जलते। इसलिए मैं तो इसका नाम-धाम नोट कर के जिला मजिस्ट्रेट को इस बात की रिपोर्ट करूँगा। ताकि आइंदा इस प्रकार की शैतानियत ये ड्राइवर न करें और नाहक लोगों की जानें जोखिम में न डालें।
उनने उसका नाम-वाम लिखा सही और वह डर भी गया। इससे हम सभी सकुशल मुजफ्फरपुर स्टेशन पर पहुँच गए। हमने ट्रेन भी पकड़ ली। न जाने मजिस्ट्रेट के यहाँ रिपोर्ट हुई या नहीं। मगर ' समूची किसान-सभा ही खत्म हो जाती ' यह बात मुझे भूलती नहीं! इसकी स्मृति कितनी मधुर है। (5-8-41)
3
कुछ लोगों की धारणा है कि उनने कभी भूल की ही नहीं और न उनके विचारों में विकास हुआ। उनके विचार तो पके-पकाए शुरू से ही थे। इसीलिए जिनके विचारों का क्रम विकास हुआ है उनकी वे लोग मौके-मौके पर , अपनी जरूरत के मुताबिक , हँसी भी उड़ाया करते हैं। इधर उन्हीं दोस्तों ने यह भी तरीका अख्तियार किया है कि जिस प्रगतिशील कार्य पर उनकी मुहर न हो वह नाकारा और रद्दी है। वह यह भी कहने की हिम्मत करते हैं कि बिहार प्रांतीय किसान-सभा को बनाया कांग्रेस ने ही। या यों कहिए कि उसके स्थापक कट्टर ( Orthodox) कांग्रेसी ही हैं। उनका मतलब उन कांग्रेसियों से है जो गाँधीवादी कहे जाते हैं। यह आवाज अभी-अभी निकलने लगी है। इसके पीछे क्या रहस्य है कौन जाने ?
मगर असल बात तो यही है कि मैं , पं. यमुना कार्यी और बाबू रामदयालु सिंह , यही तीन उसकी जड़ में थे ─ इन्हीं तीन ने उसका विचार किया , कैसे वह शुरू की जाए यह सोचा , सोनपुर के मेले में ही सुंदर मौका है ऐसा तय किया , लोगों के पास दौड़-धूप की , नोटिसें छपवाईं और बँटवाईं और मेले में इसका पूरा आयोजन किया। कोई बता नहीं सकता कि इसमें चौथा आदमी भी था। यह तो कठोर सत्य है , अडिग बात है। और इन तीनों में रामदयालु बाबू ही एक गाँधीवादी कहे जा सकते हैं। ऐसी हालत में बेबुनियाद बातों की गुंजाइश ही कहाँ है ?
यह ठीक है कि नाममात्र के लिए प्रमुख कांग्रेसी सभा के साथ थे , या यों कहिए कि उसके मेंबर थे। मगर यह मेंबरी तो कोई बाकायदा थी नहीं। किसान-सभा के लक्ष्य पर दस्तखत कर के और सदस्य शुल्क दे के कितने लोग मेंबर रहे क्या यह बात कोई बताएगा ? ऐसे मेंबर बनने के लिए उनमें एक भी तैयार न था। बल्कि बनने के बहुत पहले ही उनमें प्रमुख लोगों ने विरोध शुरू कर दिया। यहाँ तक कि इसमें शामिल होने के विरुद्ध सूचना बाँटी गईप्रांतीय कांग्रेस कमिटी की ओर से। इतना ही नहीं। सोनपुर के बाद ही जब उन लोगों की सम्मति चाही गई तो बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद ने , जो उस समय कांग्रेस के दिमाग माने जाते थे , इसका सख्त विरोध किया और साफ कह दिया कि यह खतरनाक चीज बनने जा रही है। अतः मैं इसके साथ नहीं हूँ। यह ठीक है कि और लोगों ने उस समय इन्कार नहीं किया। सच तो यह है कि ऐसा करने का मौका ही उन्हें नहीं मिला। वे समझी न सके कि किसान-सभा ऐसी चीज बन जाएगी। क्योंकि पीछे यह बात समझते ही कुड़बुड़ाहट और विरोधी प्रोपैगैंडा शुरू हो गया। यह भी ठीक है कि औरों का नाम देख एकाध ने उलाहना भी दिया कि हमारा नाम क्यों नहीं दिया गया। इसीलिए उनका नाम पीछे जोड़ा गया भी। मगर इससे वस्तुस्थिति में कोई फर्क नहीं आता। नाम दे देने से कोई भी सभा का स्थापक नहीं कहा जा सकता। सौ बात की एक बात तो यह है कि यदि सभा की स्थापना का श्रेय कोई चौथा भी लेना चाहता है तो उसका नाम क्यों बताया नहीं जाता ? क्योंकि तब तो स्पष्ट पूछा जा सकता है कि उसने इस संबंध में कब क्या किया ? यह तो उसे बताना ही होगा। इसलिए केवल गोल-गोल बातों से काम नहीं चलेगा। नाम और काम बताना होगा।
मगर हमें तो इसमें भी झगड़ा नहीं है कि किसने यह काम किया। इतना तो असलियत के लिहाज से ही हमने कहा है। फिर भी यदि किसी को वैसा दावा हो तो हम उसकी खुशी में गड़बड़ी क्यों डालें ? हमें क्या ? सभा चाहे किसी ने बनाई। मगर वह जिस सूरत में या जिस प्रकट विचार से पहले बनी अब वह बात नहीं रही। धीरे-धीरे अनुभव के आधार पर वह आगे बढ़ी है और अब उसमें सोलहों आने रूपांतर आ गया है। यह ठीक है कि वह किताबी ज्ञान के आधार पर न तो बनी ही थी और न वर्तमान रूप में आई ही है। इसीलिए इसका आधार बहुत ही ठोस है। संघर्ष के मध्य में वह जन्मी और संघर्ष ही में पलते-पलते सयानी हुई है। इसीलिए वह काफी मजबूत है भी। शोषित जनता की वर्ग संस्थाओं को इसी प्रकार बनना और बढ़ना चाहिए , यही क्रांतिकारी मार्ग है। लेनिन ने कहा भी है कि हमें जनता से और अपने अनुभवों से सीखकर ही जनता का पथ-प्रदर्शन करना चाहिए। जनता अपने ही अनुभव से सीखकर जब नेताओं की बातों पर विश्वास करती है और उन्हें मानने लगती है तभी वह हमारा साथ देती है , ऐसा स्तालिन ने चीन के संबंध के विवरण में कहा है ─
" The masses themselves should become convinced from their own experience of the correctness of the instructions, policy and slogans of the vanguard."
इसीलिए बजाय शर्म के खुशी की बात है कि अनुभव के बल पर ही हम आगे बढ़े हैं और इसमें किसानों को भी साथ ले सके हैं।
मगर हमारे क्रांतिकारी नामधारी दोस्तों की एक बात तो हमारे लिए पहेली ही रहेगी। जब हम उसे याद करते हैं तो एक अजीब घपले में पड़ जाते हैं। हमारे दोस्तों का दावा है कि किसान-सभा को वही क्रांतिकारी मार्ग पर ला सके हैं ; उन्होंने ही उसे क्रांतिकारी प्रोग्राम दिया है आदि-आदि। जब हम पहली और ठेठ आज की उनकी ही कार्यवाहियों का खयाल करते हैं तो उनका यह दावा समझ में नहीं आता। उनमें एक भाई का दावा है ─ और बाकी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं ─ कि उनने ही जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पहले-पहल किसान-सभा में पेश किया था। शायद उन्हें यह बात याद नहीं है कि उनकी पार्टी के जन्म के बहुत पहले युक्त प्रांत में श्री पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक केंद्रीय किसान संघ बनाया था और दूसरी-दूसरी अनेक बातों के साथ ही जमींदारी मिटाने की बात उस संघ ने मान ली थी। जब सन 1934 ई. की गर्मियों में वे द्वितीय प्रांतीय किसान सम्मेलन का सभापतित्व करने गया में आए थे। तो वहाँ भी उनने वह प्रस्ताव पास कराना चाहा था। मगर हम सबने ─ जिनमें सोशलिस्ट नेता भी शामिल थे ─ उसका विरोध किया था। फलतः वह गिर गया। उनके प्रस्ताव की खूबी यह थी कि मुआविजा (मूल्य) देकर ही जमींदारी मिटाने की बात उसमें थी।
टंडन जी भी इस बात के साक्षी हैं कि मैंने दूसरे दिन सम्मेलन में जो भाषण दिया था उसमें स्पष्ट कह दिया था कि जहाँ तक बिहार प्रांतीय किसान-सभा का ताल्लुक है , उसने जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव अभी तक नहीं माना है ; क्योंकि इसमें अभी उसे हानि नजर आती है। मगर जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है , मैं उसके मिटाने का पूर्ण पक्षपाती हूँ। लेकिन मूल्य देकर नहीं किंतु यों ही छीन कर। यही हमारे सामने सबसे बड़ी दिक्कत है इसके संबंध में। टंडन जी को इस बात से आश्चर्य भी हुआ था कि छीनने के पक्ष में तो हैं। मगर मुआविजा दे के खत्म करने के पक्ष में नहीं।
एक बात और। सन 1934 ई. के आखिर में सिलौत (मनियारी-मुजफ्फरपुर) में जो किसान कॉन्फ्रेंस हुई थी उसमें कहा जाता है , जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव एक किसान लीडर ने , जो अपने को इस बात के लिए मसीहा घोषित करते हैं पेश किया था। मैं भी वहाँ मौजूद था। प्रस्ताव का वह अंश यों था कि किसान और सरकार के बीच में कोई शोषक वर्ग न रहे इस सिद्धांत को प्रांतीय किसान-सभा स्वीकार करे। यहाँ विचारना है कि टंडन जी वाले प्रस्ताव में इसमें विलक्षणता क्या है ? मुआविजा की बात पर यह चुप है। इसलिए ज्यादा-से-ज्यादा यही कहा जाता है कि गोल-मोल बात ही इसमें कही गई है , जबकि टंडन जी ने स्पष्ट कह दिया था। मगर असल बात तो यह है कि जमींदारी का नाम इसमें है नहीं। यह भी खूबी ही है। शोषक कहने से जमींदार भी आ जाते हैं , मगर स्पष्ट नहीं। यहाँ भी गोल बात ही है। फलतः गाँधी जी के ─ ट्रस्टी वाले सिद्धांत की भी इसमें गुंजाइश है। क्योंकि ट्रस्टी होने पर तो जमींदार शोषक रहेगा नहीं। फिर जमींदारी मिटाने का क्या सवाल ? यही कारण है कि खासमहाल में , जहाँ सरकार ही जमींदार है , जमींदारी मिटाने की बात इस प्रस्ताव के पास होने पर भी नहीं उठती। अतएव जो लोग जमींदारी को सर्वत्र ही खासमहाल बना देना चाहते हैं उनके लिए यह प्रस्ताव स्वागतम है। फिर भी इसी पर दोस्तों की इतनी उछल-कूद है।
उस सभा में जमींदारों के दोस्त काफी थे। वहीं पर एक चलते-पुर्जे जमींदार हैं जो एक मठ के महंत हैं। उनके इष्ट-मित्रों की संख्या काफी थी और जी-हुजूरों की भी। उनने उसका खूब ही विरोध किया। मगर सफलता की आशा न देख यह प्रश्न किया और करवाया कि स्वामी जी भी यहीं हैं। अतः उनसे भी इस प्रस्ताव के बारे में राय पूछी जाए कि वे इसके पक्ष में हैं या नहीं और यह प्रस्ताव प्रांतीय किसान-सभा के सिद्धांत के विपरीत है या नहीं। उन लोगों का खयाल था कि मैं तो इसका विरोध करूँगा ही और प्रांतीय सभा के मंतव्य का विरोधी भी इसे जरूरी ही बताऊँगा। मगर मैं नहीं चाहता था कि बीच में पड़ईँ। मैं चाहता था कि मेरे या किसी दूसरे के प्रभाव के बिना ही लोग खुद स्वतंत्र रूप से राय कायम करें। मुझे तो किसानों की और जनता की भी मनोवृत्ति का ठीक-ठीक पता लगाना था , जो मेरे कुछ भी कहने से नहीं लग सकता था। कारण , लोग पक्ष या विपक्ष में प्रभावित हो जाते।
परंतु विरोधियों ने इस पर जोर दिया हालाँकि प्रस्ताववाले शायद डरते थे कि मेरा बोलना ठीक नहीं। जब मैंने देखा कि बड़ा जोर दिया जा रहा है और न बोलने पर यदि कहीं प्रस्ताव गिर गया तो बुरा होगा , तो अंत में मैंने कह दिया कि मैं व्यक्तिगत रूप में इस प्रस्ताव का विरोधी तो नहीं हूँ। साथ ही , प्रांतीय किसान-सभा के सिद्धांत के प्रतिकूल भी यह है नहीं। क्योंकि यह तो सभा से सिफारिश ही करता है कि यह बात मान ले। बस , फिर क्या था , बिजली सी दौड़ गई और बहुत बड़े बहुमत से प्रस्ताव पास हुआ। मैंने यह भी साफ ही कह दिया कि यह प्रस्ताव तो लोकमत तैयार करता है और उसे जाहिर भी करता है , जहाँ तक जमींदारी या शोषण मिटाने का सवाल है। ऐसी हालत में हमारी सभा इसका स्वागत ही करेगी। क्योंकि हम लोकमत को जानना तो चाहते ही हैं। साथ ही , उसे तैयार करना भी पसंद करते हैं। हमें खुद लोगों पर किसी सिद्धांत को लादने के बजाय लोकमत के अनुसार ही सिद्धांत तय करना पसंद है। यही कारण है , कि अब तक हमारी प्रांतीय किसान-सभा इस बारे में मौन है। वह अभी तक अनुकूल लोकमत जो नहीं पा रही है।
इस प्रसंग से एक और भी बात याद आती है। हमारे कुछ दोस्त जमींदारी मिटाने के अग्रदूत अपने को मानते हैं ─ कम-से-कम यह दावा आज वे और उनके साथी करते हैं। मगर इस संबंध में कुछ बातें स्मरणीय हैं। जब सन 1929 ई. के नवंबर में सोनपुर के मेले में बिहार प्रांतीय किसान-सभा की स्थापना हो रही थी , और उन लोगों के मत से आज के गाँधीवादी ही उसे कर रहे थे तो उनने खुली सभा में उसका विरोध किया था। उनकी दलील थी कि किसान-सभा की जरूरत ही नहीं। कांग्रेस से ही वह सभी काम हो जाएँगे जिनके लिए यह सभा बनाई जाने को है। उनने यह भी कहा कि किसान-सभा बनने पर किसान उसी ओर बहक जाएँगे और इस प्रकार कांग्रेस कमजोर हो जाएगी। मैं ही उस समय सभापति था और मैंने ही उनका उचित उत्तर भी दिया था। इसीलिए ये बातें मुझे याद हैं! इन दलीलों को पढ़ के कोई भी कह बैठेगा कि कोई गाँधीवादी आज (सन 1941 ई. में) किसान-सभा का विरोध कर रहा था। वह यह समझी नहीं सकता कि भावी क्रांतिकारी (क्योंकि पता नहीं कि वे उस समय क्रांतिकारी थे या नहीं) यह दलीलें पेश कर रहा है जो आगे चलकर जमींदारी मिटाने का अग्रदूत बनने का दावा करेगा।
शायद कहा जाए कि उस समय उन्हें इतना ज्ञान न था और क्रांतिकारी पार्टी भी पीछे बनी! खैर ऐसा कहनेवाले यह तो मानी लेते हैं कि ये मसीहा लोग भी एक दिन कट्टर दकियानूस थे। क्योंकि उनकी नजरों में आज जो एकाएक दकियानूस दीखने लगे हैं वही जब किसान-सभा के विरोध के बजाय उसके समर्थक थे तब मसीहा लोग विरोधी थे! यह निराली बात है।
लेकिन लखनऊ का ' संघर्ष ' नामक साप्ताहिक हिंदी-पत्र तो क्रांतिकारी ही है। उसने जब सन 1938 में अपने अग्रलेख में यहाँ तक लिख मारा कि हमें किसान-सभा का भी उपयोग करना चाहिए , तो मुझे विवश हो के संपादक महोदय को पटना में ही उलाहना देना पड़ा और इसके लिए सख्त रंजिश जाहिर करनी पड़ी। यह अजीब बात है कि क्रांति के अग्रदूत बनने के दावेदार कांग्रेस के मुकाबिले में किसान-सभा जैसी वर्ग संस्थाओं को गौण मानें। उनने हजार सफाई दी। मगर मैं मान न सका।
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आगे चकिए। कुछ महीने पूर्व एक सर्क्यूलर देखने को मिला था। उसमें और और बातों के साथ लिखा गया है कि “ आज तक किसान-सभाओं का संगठन स्वतंत्र होते हुए भी राजनीतिक क्षेत्र में वह कांग्रेस की मददगार मात्र और उसके नीचे रही है! यहाँ ' मददगार मात्र ' में ' मात्र ' शब्द बड़े काम का है। जो लोग किसान-सभाओं को सन 1941 ई. के शुरू होने तक राजनीतिक बातों में कांग्रेस की सिर्फ मददगार और उसके नीचे मानते रहे हैं वही जब दावा करते हैं कि किसान-सभा में जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पहले-पहल लानेवाले वही हैं तो हम हैरत में पड़ जाते हैं। जमींदारी मिटाने की बात तो जबर्दस्त राजनीति है। कांग्रेस ने आज तक खुल के इस बात का नाम नहीं लिया है। प्रत्युत उसका नीति-निर्धारण जिस पुरुष के हाथ में है वह तथा कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं कर्णधार ─ सब-के-सब ─ जमींदारी का समर्थन ही करते हैं। गाँधी जी ने तो यहाँ तक किया कि सन 1934 ई. में युक्त प्रांत के जमींदारों के प्रतिनिधि मंडल ; कमचनजंजपवदद्ध को खुले शब्दों में कह दिया था कि “Better relations between the landlords and tenants could be brought about by a change of heart on both sides. He was never in favour of abolition of the Taluqdari or zamindari system.” ('Mahratta', 12-8-1934)
“ किसानों और जमींदारों के पारस्परिक संबंध अच्छे हो जाएँगे दोनों के हृदय परिवर्तन से ही। मैं नहीं चाहता कि जमींदारी या ताल्लुकेदारी मिटा दी जाय। “ ऐसी दशा में एक ओर तो किसान-सभा को कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र मानना और दूसरी ओर सभा के जरिए ही जमींदारी मिटाने का दावा करना ये दोनों बातें पहेली सी हैं। इनका रहस्य समझना साधारण बुद्धि का काम नहीं है! कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि शुरू में ही किसान-सभा की स्थापना के विरोध से ले कर आज तक जो नीति हमारे ये क्रांतिकारी दोस्त अपने लिए निश्चित करते आ रहे हैं। उसमें मेल है-कोई विरोध नहीं है। और अगर जमींदारी मिटाने जैसी बात की चर्चा देख के विरोध मालूम भी पड़ता हो , तो वह सिर्फ ऊपरी या दिखावटी है। क्योंकि राजनीति तो पेचीदा चीज है और हमारे दोस्त लोग इस पेचीदगी में पूरे प्रवीण हैं! यह तो एक कला है और बिना कलाबाजी के सबको खुश करना या सर्वत्र वाहवाही लूटना गैर-मुमकिन है।
लेकिन जब मैं खुद आज तक की बातों का खयाल करता हूँ तो मेरे दिमाग में यह बात आती ही नहीं कि कैसे किसान-सभा कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र रही है। हमने तो कभी ऐसा सोचा तक नहीं। हमारे इन दोस्तों ने भी आज तक किसी भी मौके पर यह बात नहीं कही है। मुझे तो हाल के उनके इस सर्क्यूलर से ही पहले-पहल पता चला कि वे ऐसा मानते रहे हैं। यह जानकर तो मैं हैरत में पड़ गया। आखिर कभी भी तो वे इस बात का जिक्र हमारी मीटिंगों में करते। इतनी महत्त्वपूर्ण बात यों ही क्यों गुपचुप रखी गई यह कौन कहे ? कांग्रेस मिनिस्ट्री के जमाने में हमने बकाश्त संघर्ष सैकड़ों चलाए और दो हजार से कम किसानों या किसान सेवकों को इस तरह जेल जाना नहीं पड़ा! मिनिस्ट्री इसके चलते बेहद परेशान भी हुई। इसीलिए तो सन 1939 ई. के जून में बंबई में ऐसी लड़ाइयाँ रोकी गईं और न माननेवालों को कांग्रेस से निकालने की धमकी दी गई। फिर भी हमने न माना। जिसके फलस्वरूप हम कितनों को ही कांग्रेस से अलग होना पड़ा। इतने पर भी किसान-सभा को कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र बना देने की समझ और हिम्मत की तारीफ है।
चाहे पहले किसी को ऐसा खयाल करने की गुंजाइश रही भी हो ; क्योंकि शुरू में जान-बूझकर किसान-सभा इसी प्रकार चलाई गई थी कि किसी को शक न हो कि यह सोलहों आने स्वतंत्र चीज है , संस्था है ; इससे इसके प्रति बाल्यावस्था में ही भयंकर विरोध जो हो जाता इसीलिए एक प्रस्ताव के द्वारा यह कहा गया था कि राजनीतिक मामलों में सभा कांग्रेस का विरोध न करेगी। मगर फिर भी यह कभी न कहा गया कि उसकी मातहत है या उसकी मदद करेगी। मगर जब हमनेसन 1935 ई. के बीतते-न-बीतते हाजीपुरवाले सम्मेलन में जमींदारी मिटाने का निश्चय कर लिया तब भी इसे ऐसा समझना कि यह कांग्रेस की मातहत है , निराली सी बात है। जमींदारी मिटा देने की बात एक ऐसी चीज है जो बता देती है साफ-साफ कि किसान-सभा और कांग्रेस दो जुदी संस्थाएँ हैं जिनके लक्ष्य और रास्ते भी जुदे हैं , भले ही मौके-बे-मौके मतलब-वेश दोनों का मेल हो जाए। हम तो जमींदारी वगैरह के बारे में साफ जानते हैं कि ता. 12-2-22 ई. को बारदौली में कांग्रेस की कार्यकारिणी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित करते हुए इस संबंध में जो कहा था वही आज तक कांग्रेस की निश्चित नीति है। उस कमिटी के प्रस्ताव की छठीं और सातवीं धाराओं में यह बात साफ लिखी है। यह यों है ─
"The working committee advises Congress workers and organisaions to inform the ryots (peasants) that withholding of rent-payment to the zamindars (land-lords) is contrary to the Congress resolution and injurious to the best interest of the country.
The Working Committee assures the zamindars that the Congress movement is in no way intended to attack their legal rights, and that, even when the ryots have grievances, the committee desires that redress be sought by mutual consulation and arbitration."
इसका अर्थ यह है , “ वर्किंग कमिटी (कार्य-कारिणी कमिटी) कांग्रेस कार्य-कर्ताओं और संस्थाओं को यह सलाह देती है कि वे किसानों (रैयतों) से कह दें कि जमींदारों को लगान न देना कांग्रेस के प्रस्ताव के विरुद्ध तथा देश-हित का घातक है।
"कमिटी जमींदारों को विश्वास दिलाती है कि कांग्रेस आंदोलन की मंशा यह हर्गिज नहीं है कि उनके कानूनी अधिकारों पर वार किया जाए। कमिटी की यह भी इच्छा है कि यदि कहीं किसानों की शिकायतें जमींदारों के खिलाफ हों तो वे भी दोनों की राय , सलाह और पंचायत की सहायता से ही दूर की जाएँ।"
हम समझ नहीं सकते कि जमींदारी और जमींदारी के अन्यान्य कानूनी हकों की इससे ज्यादा और कौन सी ताईद कांग्रेस कर सकती है। (7-8-41)
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सन 1932 ई. के आखिरी और सन 1933 ई. के आरंभ के दिन थे। कांग्रेस का सत्याग्रह आंदोलन धुआँधार चल रहा था। सरकार ने इस बार जम के पूरी तैयारी के साथ छापा मारा था। इसलिए दमन का दावानल धाँय-धाँय जल रहा था। सरकार ने कांग्रेस को कुचल डालने का कोई दकीका उठा रखा न था। लार्ड विलिंगटन भारत के वायसराय के पद पर आसीन थे। उनने पक्का हिसाब लगा के काम शुरू किया था। ऊपर से , बाहरी तौर पर , तो मालूम होता था सरकार ज्येष्ठ के मध्याद्द के सूर्य की तरह तप रही है। इसीलिए प्रत्यक्ष देखने में आंदोलन लापता सा हो रहा था। मीटिंगों का कोई नाम भी नहीं लेता था। यहाँ तक कि मुंगेर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का चुनाव जब सन 1933 में होने लगा और सभी नेताओं के जेल में बंद रहने के कारण उस जिले में मेरे दौरे की जरूरत पड़ी तो लोगों को भय था कि मीटिंगें होई न सकेंगी। बड़हिया में पहली और लक्खीसराय में दूसरी मीटिंग की तैयारी थी। उस समय बड़हिया में अतिरिक्त पुलिस डेरा डाले पड़ी थी। जब मैं मीटिंग करने गया तो अफसरों के कान खड़े हो गए। वे सदल-बल मीटिंग में जा जमे। मेरे भाषण के अक्षर-अक्षर नोट किए जा रहे थे। जब मेरा बोलना खत्म हुआ और सबने देखा कि यह तो केवल चुनाव की ही बातें बोल गया जो निर्दोष हैं तब कहीं जा कर उनमें ठंडक आई। यही बात कम-बेश लखीसराय में भी पाई गई।
देश के और बिहार के भी सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्ता जेलों में बंद थे। बाहर का मैदान साफ था। सिर्फ मैं बाहर था। कही चुका हूँ कि सन 1930 ई. में जेल में मैंने जो कुछ कांग्रेसी नेताओं के बारे में देखा था ─ ठेठ उनके बारे में जो फर्स्ट और सेकंड डिविजन में रखे गए थे ─ उससे मेरा मन जल गया था और मैं कांग्रेसी राजनीति से विरागी बन गया था। क्योंकि कहने के लिए कुछ और व्यवहार में कुछ दूसरा ही पाया। यही सन 1922 ई. में भी देख चुका था। मैं सोचता कि 1922 की बात तो पहले-पहल की थी। अतः भूलें संभव थीं। मगर जब 8-10 साल के बाद बजाय उन्नति के उसमें बुरी अवनति देखी। तो विराग होना स्वाभाविक था। सोचता था , ऐसी संस्था में क्यों रहूँ जिसकी बातें केवल दिखावटी हों और सख्ती के साथ हर हालत में जिसके सदस्यों की नियम-पाबंदी का कोई इंतजाम न हो। ऐसी संस्था तो धोखे की चीज होगी और टिक न सकेगी। हम अपने ईमान को धोखा देते-देते जनता को भी जिसकी सेवा का दम हम भरते हैं , धोखा देने लग जाएँगे। इसीलिए सन 1932 ई. में पुराने दोस्तों और साथियों के हजार कहने-सुनने पर भी मैं संघर्ष में न पड़ा। फलतः बाहर ही पड़ा तमाशा देखता था।
बिहार ही ऐसा प्रांत उस समय था जहाँ कांग्रेस के सिवाय कोई भी सार्वजनिक संस्था जमने पाती न थी। मुसलिम लीग , हिंदू सभा या लिबरल फिडरेशन तक का यहाँ पता न था। किसान-सभा तो यों बन सकी कि उसमें दूसरे लोग थे ही न। यह भी बात थी कि लोग समझते थे कि यह तो खुद ही खत्म हो जाएगी। क्योंकि किसी खास मतलब से ही बनी मानी जाती थी और वह मतलब शीघ्र ही पूरा हो जानेवाला माना जाता था। हर हालत में इसे कांग्रेस के विरुद्ध न जाने देने का इरादा लोगों ने कर लिया था। यही कारण है कि शुरू के 5-6 वर्षों में हमें भी फूँक-फूँक के पाँव देने पड़े थे। और यह सभा भी सन 1930 के शुरू में ही स्थगित कर दी गई थी तथा तब तक इसे पुनर्जीवित करने की चेष्टा भी न की गई थी।
इसलिए सरकार ने , जमींदारों ने , मालदारों ने और उनके दोस्त जी-हुजूरों ने सोचा कि यही सुनहला मौका है। इससे फायदा उठा के एक ऐसी संस्था बना दी जाए जो कांग्रेस का मुकाबिला कर सके। सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्ता एक तो जेल में थे। दूसरे जो बाहर थे भी उन्हें कांग्रेस की लड़ाई के प्रबंध से फुर्सत कहाँ थी कि और कुछ करते या इस नई संस्था का विरोध करते ? जैसा कि जन-आंदोलन की सनातन रीति है कि दमन होने पर भीतर चला जाता है और ऊपर से नजर नहीं आता , ठीक वही बात कांग्रेस की लड़ाई की थी। वह भी भीतर ही भीतर आग की तरह धक-धक जल रही थी इसीलिए उसे चलाने में ज्यादा दिक्कतें थीं। पुलिस परछाईं की तरह सर्वत्र घूमती जो थी पता पाने के लिए , ताकि छपक पड़े। वह इस तरह अनजान में ही अपनी मर्जी के खिलाफ जनता को गुप्त रीति से आंदोलन चलाने को न सिर्फ प्रोत्साहित कर रही थी , वरन उसे इस काम में शिक्षित और दृढ़ बना रही थी। आखिर जरूरत पड़ने पर ही तो आदमी सब कुछ कर डालता है। इस तरह देश का आंदोलन असली क्रांतिकारी मार्ग पकड़ के जा रहा था। गाँधी जी ने जो इसे सन 1934 ई. के शुरू में ही बंद कर दिया उसका भी यही कारण था। वे इस बात को ताड़ गए थे। वे समझते थे कि यदि न रोका गया तो उनके और मध्यम वर्ग के हाथों से यह निकल जाएगा। और सचमुच जन-आंदोलन बन जाएगा , और ऐसा होने में स्थिर स्वार्थों ( Vested interests) की सरासर हानि थी।
हाँ , तो यारों की दौड़-धूप शुरू हो गई। कभी पटना और कभी राँची में , जहीं पर गवर्नर साहब के चरण विराजते वहीं महाराजा दरभंगा वगैरह बड़े-बड़े जमींदार बार-बार तशरीफ ले जाते , बातें होतीं और सरकार का आशीर्वाद इस मामले में प्राप्त करने की कोशिश होती थी। आशीर्वाद तो सुलभ था ही। मगर सरकार भी देखना चाहती थी कि ये लोग उसके पात्र हैं या नहीं। उसे भी गर्ज तो थी ही कि कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी कोई भी संस्था खड़ी की जाए। इसलिए बड़ी दौड़-धूप के बाद और महीनों सलाह-मशविरा के फलस्वरूप जहाँ तक याद है , राँची में यह बात तय पाईगई कि यूनाइटेड पार्टी (संयुक्त दल) के नाम से ऐसी संस्था बनाई जाए। बेशक जमींदारों के भीतर भी इस बारे में दो दल थे जिनके बीच सिर्फ नेतृत्व का झगड़ा था कि कौन इसका नेता बने। मगर नेतृत्व तो सबसे बड़े जमींदार और पूँजीपति महाराजा दरभंगा को ही मिलना था। असल में उनके सहायक और निकट सलाहकार कौन हों यही तय नहीं हो सकता था। आखिरश राजा सूर्यपुरा (शाहाबाद) उनके निकट सलाहकार (मंत्री) बने। भीतरी मतभेद के रहते हुए भी आपस की दलबंदी जमींदारों के इस महान कार्य में ─ इस महाजाल में ─ बाधक कैसे हो सकती थी ? इस प्रकार यूनाइटेड पार्टी का जन्म हो गया।
इस संबंध की एक और बात है। जब हमारी प्रांतीय किसान-सभा पहले-पहल बनी तो पटने के वकील वा. गुरुसहाय लाल भी उसके एक संयुक्त मंत्री बनाएगए , हालाँकि काम-वाम तो उनने कुछ किया नहीं। असल में तब तक की हालत यह थी कि पुरानी कौंसिल में किसानों के नाम पर जोई दो-चार आँसू बहा देता , दो-एक गर्म बातें बोल देता या ज्यादे से ज्यादा किसान-हित की दृष्टि से काश्तकारी कानून में सुधार के लिए एकाध मामूली बिल पेश कर देता , वही किसानों का नेता माना जाता था। गोया किसान लावारिस माल थे , उनका पुर्सांहाल कोई न था। इसलिए ' दे खुदा की राह पर ' के मुताबिक जिसने उनकी ओर अपने स्वार्थ साधन के लिए भी जरा नजर उठाई कि वही उनका मुखिया ( spokes man) माना जाने लगा। प्रायः सब के सब ऐसे मुखिया जमींदारों से मिले-जुले ही रहते थे और दो-एक गर्म बातें बोल के और भी अपना उल्लू सीधा कर लिया करते थे। ऐसे ही लोगों ने सन 1929 ई. में भी एक बिल पेश किया था किसानों के नाम पर टेनेन्सी कानून की तरमीम के लिए , जिसके करते जमींदारों ने एक उलटा बिल ठोंक दिया था। फलतः दोनों को ताक पर रख के सरकार ने अपनी ओर से एक तीसरा बिल पेश किया था और उसी के विरोध को तात्कालिक कारण बना के प्रांतीय किसान को जन्म दिया गया था।
सरकार का हमेशा यही कहना था कि काश्तकारी कानून का संशोधन दोई तरह से हो सकता है ─ या तो किसान और जमींदार या इन दोनों के प्रतिनिधि मिल-जुल के कोई मसविदा (बिल) पेश करें और उसे पास कर लें , या यदि ऐसा न हो सके तो सरकार ही पेश करे और उसे दोनों मानें। ठीक दो बिल्लियों के झगड़े में बंदर की पंचायतवाली बात थी। सन 1929 ई. में भी ऐसा ही हुआ था और दोनों की राय न मिलने के कारण ही सरकार बीच में कूदी थी। मगर जब किसानों के नाम पर किसान-सभा ने उसका जोरदार विरोध किया तो उसने यह कह के उसे वापस ले लिया कि जब किसान-सभा भी इसकी मुखालिफ है तो सरकार को क्या गर्ज है कि इस पर जोर दे ? इस तरह किसान-सभा ने जनमते ही दो काम किए। एक तो उस बिल को चौपट करवा के किसानों का गला बचाया। दूसरे सरकार को विवश किया कि न चाहते हुए भी किसान-सभा को किसानों की संस्था मान ले।
इसी के मुताबिक सरकार और जमींदारों को भी फिक्र पड़ी कि यूनाइटेड पार्टी को मजबूत बनाने के लिए सबसे पहले उसकी ओर से काश्तकारी कानून का संशोधन कराके किसानों को कुछ नाममात्र के हक दे दिए जाएँ। साथ ही , जमींदारों का भी मतलब साध जाए। मगर अब तक जो तरीका था उसके अनुसार तो जो बिल किसान और जमींदार दोनों की रजामंदी से पेश न हो उसे सरकार मान नहीं सकती थी। इसीलिए जरूरत इस बात की हुई कि जिस यूनाइटेड पार्टी को बनाया जा रहा है उसमें किसानों के नाम पर बोलनेवाले भी रखे जाएँ। नहीं तो सब गुड़ गोबर हो जाएगा। यूनाइटेड पार्टी का तो अर्थ ही यही था कि जिसमें सभी दल और फिर्के के लोग शामिल हों। उसके जिन खास-खास मेंबरों की लिस्ट उस समय निकली थी उससे भी मालूम पड़ता था कि सभी धर्म , दल और स्वार्थ के लोग उसमें शरीक है। फलतः उसे ही बिहार प्रांत के नाम में बोलने का हक है।
अब उसके सूत्रधारों को इस बात की फिक्र पड़ी कि किसानों के प्रतिनिधि कौन-कौन से महाशय इसमें लाए जाएँ। उनके सौभाग्य से श्री शिव शंकर झावकील मिल ही तो गए। वे उसी प्रकार के किसान नेता हैं जिनका जिक्र पहले हो चुका है। यह ठीक है कि बाबू गुरुसहाय लाल भी उस पार्टी के साथ थे। मगर चालाकी यह सोची गई कि अगर खुली तौर पर उनका नाम शुरू में ऐलान किया जाएगा तो बड़ा हो-हल्ला मचेगा और मजा किरकिरा हो जाएगा। वे भी शायद डरते थे। इसलिए तय यह पाया कि वह पहले एक बिहार प्रांतीय किसान-सभा खड़ी कर दें। पीछे बिल में जो बातें काश्तकारी के संशोधन के लिए दी जानेवाली हों उन्हें यह कह के अपनी सभा से स्वीकार कराएँ कि इन्हीं शर्तों पर जमींदारों के साथ किसानों का समझौता हुआ है। इसके बाद तो कानून बना के यह दमामा बजाया ही जाएगा कि उनने और झा जी ने किसानों को बड़े-बड़े हक दिलाए। इस तरह यूनाइटेट पार्टी की धाक भी किसानों में जम जाएगी। क्योंकि पार्टी की ही तरफ से कानून का संशोधन कराया जाएगा। साथ ही गुरुसहाय बाबू भी इसका सेहरा पहने-पहनाए उस पार्टी में खुल्लमखुल्ला आ जाएँगे!
उनने किया भी ऐसा ही। जिस सभा के एक मंत्री वह भी थे उसके रहते ही एक दूसरी सभा खड़ी कर देने की हिम्मत उनने कर डाली! पीछे तो गुलाब बाग (पटना) की मीटिंग में यह भी बात खुली कि इस नकली सभा के बनाने में न सिर्फ जमींदारों का इशारा था , प्रत्युत उनके पैसे भी लगे थे। उस समय इस किसान-द्रोह में उनके साथ एकाध और भी सोशलिस्ट नामधारी जमींदारों के साथ षड्यंत्र कर रहे थे। खूबी तो यह कि यह सारा काम इस खूबी से चुपके-चुपके किया जा रहा था कि बाहरी दुनिया इसे समझ न सके। यहाँ तक कि पटने से 15-20 मील पर ही बिहटा में मैं मौजूद था। मगर सारी चीज मुझसे भरपूर छिपाई गई , मुझे खबर देना या मुझसे राय लेना तो दूर रहा। उन्हें असली किसान-सभा का भूत बुरी तरह परेशान जो कर रहा था। वे समझते थे खूब ही , कि यदि इस स्वामी को खबर लग गई तो विरागी होते हुए भी कहीं ऐसा न हो कि उस पुरानी सभा को ही जाग्रत कर दे जिसने जनमते ही सरकार और जमींदारों से भिड़ के एक पछाड़ उन्हें फौरन ही दी थी। तब तो सारी उम्मीदों पर पानी ही फिर जाएगा। इसे ही कहते हैं गरीबों की सेवा और किसान-हितैषिता! खुदा किसानों की हिफाजत ऐसे दोस्तों से करे।
लेकिन आखिर भंडा फूट के ही रहा और ये बेचारे ' टुक-टुक दीदम , दम न कसीदम ' के अनुसार हाय मार के रह गए। इनकी किसान-सभा में विपत्ति का मारा न जाने मैं क्यों पहुँच गया जिससे इन पर पाला पड़ गया। वहाँ जब मैंने जमींदारों और जमींदार सभा के लीडरों को देखा तो चौंक पड़ा कि यह कैसी किसान-सभा। मगर जब किसानों के नामधारी नेता उन जमींदार लीडरों को इसीलिए सभा में धन्यवाद देना चाहते थे कि उनने पैसे से सहायता की थी , तो बिल्ली थैले से बाहर आ गई। आखिर पाप छिप न सका और मैंने मन ही मन कहा कि यह तो भयंकर किसान-सभा है। खुशी है कि वहीं उसका श्राद्ध हो गया और पुरानी सभा जाग खड़ी हुई। इस तरह जो मैं अब तक सभा से उदासीन सा था वही अब फिर सारी शक्ति से उसमें पड़ गया। वे किसान नेता उसके बाद कुछी दिनों में अपने असली रूप में आ गए औैर जमींदारों से साफ-साफ जा मिले। फिर भी किसी की एक न चली और दोई साल के भीतर ऐसा तूफान मचा कि उसमें न सिर्फ यूनाइटेड पार्टी उड़ गई , बल्कि जमींदारों के मनोरथों पर पानी फिर गया। जो बिल उनने पेश किया उसमें किसान-हित की अनेक बातों को दे के और जहरीली बातें उससे निकाल के उसे कानून का जामा पहनाने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा। उसी समय से जमींदारों ने अपनी जिरात जमीन के बढ़ाने का पुराना दावा सदा के लिए छोड़ दिया।
इस प्रकार अब तक जो अपने को किसानों के नेता कहते थे ऐसे नए-पुराने सभी लोगों का पर्दाफाश हो गया और वे मुँह दिखाने के लायक भी नहीं रह गए। लोग इस झमेले में भयभीत थे कि कही मैं दबा तो अनर्थ होगा। क्योंकि अब तक के किसान नेताओं तथा जमींदारों की एक गुटबंदी किसान-सभा के खिलाफ थी। मगर मुझे तो पूरा विश्वास था कि विजय होगी और वह हो के ही रही। साथ ही , चौकन्ना होने की जरूरत भी पड़ी। यह किसान नेताओं का पहला भंडाफोड़ था। अभी न जाने ऐसे कितने ही भंडाफोड़ भविष्य के गर्भ में छिपे थे। (8-8-41)
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सन 1933 ई. में किसान-सभा के पुनर्जीवन के बाद का समय था और मैं दिन-रात बेचैन था कि कैसे यूनाइटेड पार्टी , उसके छिपे रुस्तम दोस्तों और जमींदारों के नाकों चने चबवाऊँ और उनके द्वारा पेश किए गए काश्तकारी कानून के संशोधन को जहन्नुम पहुँचाऊँ। इसीलिए रात-दिन प्रांत व्यापी दौरे में लगा था। इसी सिलसिले में दरभंगा जिले के मधुबनी इलाके में भी पहुँचा। खास मधुबनी में हाई इंगलिश स्कूल के मैदान में एक सभा का आयोजन था। किसानों की और शहरवालों की भी अपार भीड़ थी। मैंने खूब ही जम के व्याख्यान दिया जिसमें किसानों के गले पर फिरनेवाली महाराजा दरभंगा तथा अन्य जमींदारों की तीखी तलवार का हाल कह सुनाया। देखा कि किसानों का चेहरा खिल उठा , मानो उन्हीं के दिल की बात कोई कह रहा हो।
लेकिन किसानों के नेता बन जाने पर भी अभी मुझे उनकी विपदाओं की असलियत का पता था कहाँ ? मैं तो यों ही सुनी-सुनाई बातों पर ही जमीन और आसमान एक कर रहा था। बात दरअसल यह है कि किसानों और मजदूरों का नेता इतना जल्द कोई बन नहीं सकता। जिसे उनके लिए सचमुच लड़ना और संघर्ष करना है उसे तो सबसे पहले उनमें घूम-घूम के उन्हीं की जबानी उनके दुःख-दर्दों की कहानी सुनना चाहिए। यह बड़ी चीज है जरा चाव से उनकी दास्तान सुनिए और देखिए कि आप उनके दिलों में घुस जाते हैं या नहीं , उनके साथ आपका गहरा नाता फौरन जुट जाता है या नहीं यही इसका रहस्य है।
हाँ , तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब किसानों के मध्य से ही एक चंदन टीकावाले ने उठ के सभा के बाद ही अपनी राम कहानी सुनाई-अपनी यानी किसानों की। तब तक मोटा-मोटी समझा जाता था कि ज्यादातर मजलूम किसान तथाकथित पिछड़ी जातियों के ही होते हैं। कम-से-कम यह खयाल तो था ही कि मैथिल ब्राह्मणों का एकच्छत्र नेता माने जानेवाला महाराजा दरभंगा उन ब्राह्मण किसानों के साथ रिआयत तो करता ही होगा-दूसरे किसानों को हाँकने के लिए बनी लाठी से उन्हें भी हाँकता न होगा। नहीं तो सभी मैथिल उसे नेता क्यों मानते ? क्या अपने शोषक और शत्रु को कोई अपना मुखिया मानता है ?
मगर उस किसान ने कहा कि मैं मैथिल ब्राह्मण हूँ और महाराजा का सताया हूँ मेरे गाँव या देहात में या यों कहिए कि इस मधुबनी के इलाके में बरसात के दिनों में हमारे नाकों दम हो जाती है , हम अशरण हो जाते हैं। यही हालत महाराजा की सारी जमींदारी की है। हमारे यहाँ पानी बहुत बरसता है , नदी-नाले भी बहुत हैं। फलतः सैलाब (बाढ़) का पदार्पण रह-रह के होता रहता है जिससे हमारी फसलें तो चौपट होती ही हैं , हमारे झोंपड़े और मकान भी डूब जाते हैं , पानी के करते गिर जाते हैं। पानी रोकने के लिए जगह-जगह बाँध बने हैं। यदि वे फौरन जगह-जगह काट दिए जाएँ तो चटपट पानी निकल जाए और हम , हमारे घर , हमारे पशु , हमारी खेती सभी बच जाएँ। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते। महाराजा की सख्त मनाही है।
मैंने पूछा , क्यों ? उसने उत्तर दिया कि यदि पानी बह जाए तो मछलियाँ कैसे पैदा होंगी ? वह जमा हो तो पैदा हों। जितना ही ज्यादा दूर तक पानी रहेगा , सो भी देर तक जमा रहेगा , उतनी ही अधिक मछलियाँ होंगी और उतनी ही ज्यादा आमदनी महाराजा को जल-कर से होगी। सिंघाड़े वगैरह से भी आय होगी ही। यह जल-कर उनका कानूनी हक है यदि हम लोग न मानें और जान बचाने के लिए पाटी काट दें तो हम पर आफत आ जाए। हम सैकड़ों तरह के मुकदमों में फँसा के तबाह कर दिए जाए। उनके अमलों और नौकरों की गालियों की तो कुछ कहिए मत। उनकी लाल आँखें तो मानो हमें खाई जाएँगी।
उसने और भी कहा कि जब यहाँ सर्वे सेट्लमेंट हुआ तो हम किसानों को कुछ ज्ञान था नहीं। हम उसका ठीक-ठीक मतलब समझ सकते न थे। बस , हमारी नादानी से फायदा उठा के अपने पैसे और प्रभाव के बल पर महाराजा ने सर्वे के कागजों में यह दर्ज करवा दिया कि जमीनों पर तो किसानों का रैयती हक है। मगर उनमें लगे पेड़ों में जमींदार का हक आधा या नौ आने और हमारा बाकी। नतीजा यह होता है कि अपने ही बाप-दादों के लगाए पेड़ों से न तो एक दतवन और न एक पत्ता तोड़ने का हमें कानूनी हक है। यदि कानून की चले तो हर दतवन और हर पत्ते के तोड़ने की जब-जब जरूरत हो तब-तब हमें उनसे मंजूरी लेनी होगी , जो आसान नहीं। इसमें उनके नौकरों को घूस देने और उनकी पूजा-प्रतिष्ठा करने की बड़ी गुंजाइश है। इसीलिए जब तक वे खुश हैं तब तक तो ठीक। मगर ज्योंही किसी भी वजह से वे जरा भी नाखुश हुए कि हम पर मुकदमों की झड़ लग गई और हम उजड़े। नहीं तो काफी रुपए-पैसे दे के सुलह करने को विवश हुए। मगर इस तरह भी हमारी जमीनें बिक जाती हैं। क्योंकि हमारे पास पैसे कहाँ ? पीछे चल के तो हमें इस बात के हजारों प्रत्यक्ष उदाहरण मिले जिनमें किसान-सभा के कार्यकर्ता इसी कारण परेशान किएगए कि उनने क्यों महाराजा की जमींदारी में सभा करने की हिम्मत की।
उसने यह भी कहा , और पीछे तो दरभंगा , पूर्णिया , भागलपुर के किसानों ने खून के आँसुओं से यही बात बताई , कि चाहे हमारे घर में पड़े मुर्दे सड़ जाएँ , मगर उन्हें जलाने के लिए लकड़ी तोड़ने या काटने की इजाजत उन पेड़ों से नहीं है जो सर्वे के समय थे। यही नहीं। सर्वे के वक्त के पेड़ चाहे कभी के खत्म क्यों न हों और उनकी जगह नए ही क्यों न लगे हों। फिर भी हम उन्हें काट नहीं सकते बिना महाराजा के हुक्म के। क्योंकि इसका सबूत क्या है कि पुराने पेड़ खत्म हो गए और नए लगे हैं। इसका हिसाब तो सरकार या जमींदार के घर लिखा जाता नहीं और किसानों की बातें कौन माने ? वे तो झूठे ठहरे ही। ईमानदारी और सच्चाई तो रुपयों के पास कैद है न ? इसीलिए आज कानून के सुधार होने पर भी , जब कि किसानों को अपने लगाए पेड़ों में पूरा हक प्राप्त है , यह दुर्दशा बनी ही रहती है। क्योंकि पुराने पेड़ों में तो बात ज्यों-की-त्यों है।
इस प्रकार एक दर्दनाक नजारा एकाएक हमारी आँखों के सामने खड़ा हो गया और हम ठक्क से रह गए। सोचा कि धर्म-कर्म और जाति-पाँति की ठेकेदारी लेनेवाले ये जमींदार और राजे-महाराजे , क्योंकि महाराजा दरभंगा भारत धर्म महामंडल के सभापति थे , इन अपने अन्नदाता मनुष्यों को मछलियों से भी गए-बीते मानते हैं। उफ , कितना अनर्थ है और यह कानून है या धोखे की टट्टी या गरीबों के पीसने की मशीन जाति-सभा और धर्म मंडलों का रहस्य खुल गया और हमने पहले-पहल उनका नग्न रूप देखा। हमने माना कि जमींदारों और मालदारों का धर्म और भगवान और कोई नहीं है , सिवाय रुपए और शान के। हमें यह भी पता चल गया कि उनकी बाहरी जाति और धर्म केवल दिखावटी चीजें हैं ताकि लोग आसानी से ठगे जाएँ। मगर असली जाति और धर्म कुछ और ही चीजें हैं। हमें यह भी विश्वास हो गया कि किसान-किसान सब एक हैं , जमींदार सबों को एक ही लाठी से हाँकता है , यों कहने के लिए ये ऊँच-नीच जाति के भले ही हों। इसी में उनके उद्धार की आशा की झलक भी हमें साफ मालूम पड़ी।
(6)
उन्हीं दिनों मधुबनी के निकट ही उससे पच्छिम मच्छी नामक मौजे में एक बार मीटिंग की तैयारी हुई। खूबी तो यह कि दूसरे जिलों के भी कुछ प्रमुख कार्यकर्ता और किसान-सभा के पदाधिकारी निमंत्रित किएगए थे। हमें सार्वजनिक मीटिंग के अलावे किसान-सभा की स्वतंत्र मीटिंग भी करनी और कई महत्त्वपूर्ण बातों पर विचार करना था। उस मौजे में बा. चतुरानन दास रहते थे। अभी दो ही तीन साल हुए कि वे मरे हैं। दरभंगा जिले और मधुबनी इलाके के वे एक बड़े नेता तथा कांग्रेस-कर्मी माने जाते थे। स्वराज्य की लड़ाई के योद्धाओं में उनकी गिनती थी ─ उस स्वराज्य के योद्धाओं में जिसे गाँधी जी ने दरिद्रनारायण का स्वराज्य कहा था और जिसकी दुहाई कांग्रेस के सभी बड़े लीडर देते थे , अब भी देते हैं। हमें भी इस बात की खुशी थी कि ऐसे बड़े किसान-सेवक के यहाँ सभा करनी है। हमें यकीन था कि हमें वहाँ पूरी सफलता मिलेगी।
हम लोग मधुबनी से लद-फँद के वहाँ जा धमके। हमारे कुछ साथी तो चतुरानन बाबू के यहाँ ठहरे भी थे। मगर हम तो मधुबनी में ही खा-पी के ठेठ सभा स्थान में पहुँचे थे। हमारे साथ कुछ और भी किसान-सेवक थे। मगर वहाँ जाते ही हमें मालूम हुआ कि मामला बेढब है लक्षणों से झलक रहा था कि हमारी मीटिंग में महाराजा दरभंगा की ओर से बाधा डाली जाएगी। धीरे-धीरे यहाँ तक पता लग गया कि उनके आदमियों ने तय कर लिया है कि चाहे जैसे हो मीटिंग होने न दी जाए। हम घबराए सही। मगर आखिर मीटिंग तो करनी ही थी। यदि वहाँ से बिना मीटिंग के ही हट जाते तो उन्हें हिम्मत जो हो जाती। फिर तो बिहार प्रांत के सभी जमींदारों के हौसले बढ़ जाते और हमारा काम ही खत्म हो जाता। इसीलिए हम अपने साथियों के साथ सभा स्थान में डँटे रहे। इस बात की इंतजार भी हम कर रहे थे कि किसान आ जाएँ तो मीटिंग हो। बा. चतुरानन दास भी न आए थे। उनकी भी प्रतीक्षा थी।
मगर हमें पता लगा कि जमींदार ने पूरी बंदिश की है कि कोई भी मीटिंग में न आए। चारों ओर धमकी के सिवाय तरह-तरह की झूठी अफवाहें फैलाई गई हैं कि सभा में गोली चलेगी , मार-पीट होगी , गिरफ्तारी होगी। यह भी कहा गया है कि जानेवालों का नाम दर्ज कर लिया जाएगा और पीछे उनकी खबर ली जाएगी। इसके सिवाय सभा स्थान के चारों ओर कुछ दूर से ही पिकेटिंग हो रही है कि कोई आए तो लौटा दिया जाए। रास्ते में और जगह-जगह पर उनके दलाल बैठे हुए हैं जो लोगों को रोक रहे हैं। सारांश , मीटिंग रोकने का एक भी उपाय छोड़ा नहीं गया है।
हम इन सब बातों के लिए तो तैयार थे ही ; आखिर जमींदारों के न सिर्फ स्वार्थ का सवाल था , बल्कि उनकी शान भी मिट्टी में मिल रही थी। आइंदा उनकी हस्ती भी खतरे में थी ऐसा सोचा जा रहा था। मगर सबसे बड़ी बात यह थी कि हिंदुस्थान में सबसे बड़े जमींदार महाराजा दरभंगा की ही जमींदारी में हम जा डटे थे। महाराजा लाठी मारे काले नाग की तरह फू-फू कर रहे थे। उनकी नाक जो कट रही थी। वे डर रहे थे कि मजलूम इलाका सभा में ऐसा टूट पड़ेगा , जैसा कि पहले की मीटिंगों में उनने देखा था। नतीजा यह होगा कि दुखिया किसानों की आँखें खुल जाएँगी। इसलिए अगर जान पर खेल के उनके नौकर-चाकरों और टुकड़खोरों ने हमारी मीटिंग रोकना चाहा तो इसमें आश्चर्य की बात क्या थी ? ( 9-8-41)
उन लोगों ने यह किया सो तो किया ही। मगर खास चतुरानन जी के मकान पर भी चढ़ गए और उन्हें तरह-तरह से धमकाया। आखिर वह भी तो महाराजा की ही जमींदारी में बसते थे। उनके घर घेरा डाले वे सब पड़े रहे। नतीजा यह हुआ कि चतुरानन जी मीटिंग का प्रबंध और उसकी सफलता की कोशिश तो क्या करेंगे , खुद मीटिंग में आने की हिम्मत न कर सकते थे। इस प्रकार ज्यादा देर होने पर हम घबराए। जब बार-बार खबर भेजी तो बड़ी मुश्किल से आए। मगर चेहरा फक्क था। सारी आई-बाई हजम थी। जब नेताओं की यह हालत थी तो किसानों का क्या कहना ? बड़ी दिक्कत से कुछी लोग आ सके थे।
मगर जमींदार के दलाल और गुंडे हमारी मीटिंग में भी आ गए और शोरगुल मचाना शुरू कर दिया। कभी ' महाराजा बहादुर की जय ' चिल्लाते , तो कभी मुँह बनाते थे। उनकी खुशकिस्मती से हमारी इस मीटिंग के आठ-दस साल पूर्व उस इलाके में और बीहपुर (भागलपुर) में भी तथा और भी एकाध जगह एक हजरत किसान लीडर बन के किसानों को धोखा दे चुके थे। उनका नाम था असल में मुंशी घरभरनप्रसाद। वे निवासी थे सारन जिले के। मगर अपने को प्रसिद्ध किया था उनने स्वामी विद्यानंद के नाम से। उनने एक तो किसानों को धोखा दे के कौंसिल चुनाव में वोट लिया था। दूसरे उनसे पैसे भी खूब ठगे थे। पीछे तो जमींदारों से भी जगह-जगह उनने काफी रुपए ले के अपना प्रेस मुजफ्फरपुर में चला लिया। फिर लापता हो गए। पीछे सुना , बंबई चले गए। एक बार जब पटना शहर (गुलाब बाग) की सभा में उनका दर्शन अकस्मात मिला था तो सिर पर गुजरातियों की ऊँची टोपी नजर आई थी।
हाँ , तो महाराजा के आदमियों ने चारों ओर और उस मीटिंग में भी हल्ला किया कि एक स्वामी पहले आए तो हमें महाराजा से लड़ाके खुद उनने रुपए ले किए। अब ये दूसरे स्वामी वैसे ही आए हैं। यह भी हमारी लड़ाई महाराजा से कराके अपना उल्लू सीधा करेंगे और पीछे हम पिस जाएँगे आदि-आदि। मुझसे भी वे लोग कुछ इसी तरह के सवाल करते थे। कहते थे कि हम किसान-सभा नहीं चाहते। आप जाइए , हमें यों ही रहने दीजिए। मीटिंग में जितने श्रोता होंगे उतने ये गुलगपाड़ा मचाने वाले थे। जब हम बोलने उठते तो वे बहुत ज्यादा शोर मचाते। यह पहला नजारा था जो हमें देखने को मिला। मगर हम भी तो वैसे ही हठी निकले। वहाँ से भागने के बजाय जैसे-तैसे मीटिंग कर के ही हटना हमने तय किया और यही किया भी। आखिर वे कब तक बोलते रहते ?
इस प्रकार हमने सभा तो कर ली। लेकिन हमें बड़ा कटु अनुभव उन नेताओं के बारे में हुआ जो दिल से किसानों के लिए काम न करते हों , जो उन्हीं के लिए मरने-जीनेवाले न हों। ऐसे लोग मौके पर टिक नहीं सकते और फिसल जाते हैं। इस बात का ताजा नमूना हमें मच्छी में मिल गया। यह ठीक है कि इस मीटिंग के बाद हमने बाबू चतुरानन दास की आशा छोड़ दी। ऐसे लोग तो बीच में ही नाव को डुबा देते हैं। यह भी ठीक है कि जमींदार के आदमी भी दंग रह गए हमारी मुस्तैदी देख के। उनके भी जोश में कुछ ठंडक आई। हालाँकि उसके बाद मधुबनी इलाके की एक मीटिंग में और भी उनकी कोशिश हुई कि वह न हो सके। मगर पहली बात न रही। बहेरा , मधेपुर के इलाकों में भी कई मीटिंगों में उन लोगों ने बाधाएँ डालीं। मगर हम तो आगे बढ़ते ही गए और वे दबते गए। यह सही है कि मच्छी जैसी हालत हमारी मीटिंगों की और कहीं न हुई। (10-8-41)
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सन 1939 ई. की बरसात थी। दरभंगा जिले के मधुबनी इलाके में ही सकरी स्टेशन से दो मील के फासले पर सागरपुर मौजे में किसानों का संघर्ष जारी था। दरभंगा महाराज की ही जमींदारी है। सागरपुर के पास में ही पंडौल में उनका ऑफिस है। वहीं पर हजारों बीघे में ट्रैक्टर की सहायता से उनकी खेती भी होती है। वहाँ चीनी की कई मिले हैं जिनमें महाराजा का भी बड़ा शेयर कुछेक में है। सकरी में ही एक मिल है। इसलिए हजारों बीघे में ऊख की खेती करने से जमींदार को खूब ही लाभ होता है। दूसरी चीजों की भी खेती होती है। इसीलिए जमींदार की इच्छा होती है कि अच्छी-अच्छी जमीनें किसानों के हाथों से निकल जाएँ तो ठीक। लगान दे सकना तो हमेशा मुमकिन नहीं होता। इसीलिए जमीनें नीलाम होई जाती हैं। मगर पहले जमींदार लोग खुद खेती में चसके न थे। इसीलिए घुमा-फिरा के जमीनें फिर किसानों को ही दी जाती थीं। हाँ , चालाकी यह की जाती थी कि जो लगान गल्ले के रूप में या नगद उनसे इन जमीनों की ली जाए उसकी साफ-साफ रसीदें उन्हें न दी जा कर गोल-मोल ही दी जाएँ , ताकि मौके पर जमीनों पर किसान दावा करने पर भी सबूत पेश न कर सकें कि वही जोतते हैं। कारण , सबूत होने पर कानून के अनुसार उन पर उनका कायमी रैयती हक ( occupancy right) हो जाता है। यही बात सागरपुर की जमीनों के बारे में भी थी।
वहाँ की बकाश्त जमीनों को जोतते तो थे किसान ही। इसीलिए उन पर उनका दावा स्वाभाविक था। कोई भी आदमी जरा सी भी अक्ल रखने पर बता सकता था कि बात यही थी भी। गाँव के तीन तरफ करीब-करीब ओलती के पास तक की जमीनें नीलाम हुई बताई जाती थीं। किसानों के बाहर निकलने का भी रास्ता न था। यदि ज़मीनें उनकी न होतीं तो ओलती कहाँ गिरती ? जमींदार अपनी जमीन में ऐसा होने देता थोड़े ही। उनके पशु मवेशी भी आखिर कहाँ जाते ? क्या खाते थे। जो ग्वाले लोग पास के टोले में बसे थे उनकी तो झोंपड़ियाँ उन्हीं जमीनों में थीं। भला इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिए ?
एक बात और थी। महाराजा की खेती ट्रैक्टर से होती है और उसके लिए बड़े-बड़े खेत चाहिए। छोटे-छोटे खेतों में उसका चलना असंभव है। मगर कोई भी देखनेवाला बता सकता था कि अभी तक छोटे-छोटे खेत साफ नजर आ रहे थे। खेतों के बीच की सीमाएँ (मेंड़ें) साफ-साफ नजर आती थीं। बेशक , उन सीमाओं के मिटाने की कोशिश जमींदार ने जबर्दस्ती की थी और सभी खेतों पर ट्रैक्टर चलवा के उन्हें एक करना चाहा था। मगर हमने खुद जाके देखा कि खेत अलग-अलग साफ ही नजर आ रहे थे। असल में एकाध बार के जोतने से ही वे सीमाएँ मिट सकती नहीं हैं। कम-से-कम दस-पाँच बार जोतिए तो मिटेंगी। मगर यहाँ तो कहने के लिए एक बार ट्रैक्टर घुमा दिया गया था। फिर भी इतने से आँख में धूल झोंकी जा सकती न थी।
हाँ , तो सागरपुर में बकाश्त संघर्ष के इस सिलसिले में मुझे दो बार जाना पड़ा था। दोनों बार ऐसी जबर्दस्त मीटिंगें हुईं कि जमींदार के दाँत खट्टे हो गए। एक बार तो भरी सभा में ही जमींदार के आदमी कुछ गड़बड़ी करना चाहते थे। उनने कुछ गुल-गपाड़ा करने या सवाल-जवाब करने की कोशिश की भी। हिम्मत तो भला देखिए कि दस-बीस हजार किसानों के बीच में खड़े होकर कुछ आदमी शोरगुल करें। जोश इतना था कि किसान उन्हें चटनी बना डालते। मगर इसमें तो हमारी ही हानि थी। शत्रु लोग तो मार-पीट चाहते ही थे। उससे उनने दो लाभ सोचा था। एक तो मीटिंग खत्म हो जाती। दूसरे झूठ-सच मुकद्दमों में फँसा के सभी प्रमुख लोगों को परेशान करते। इसलिए हमने यह बात होने न दी और किसानों को शांत रखा। अंत में हार के वे लोग चलते बने जब समूह का रुख बुरा देखा। मीटिंग में मौजूद पुलिस तथा दूसरे सरकारी अफष्सरों से भी हमने कहा कि आखिर दस-बीस ही लोग ऊधम करें और आप लोग चुप्प रहें यह क्या बात है ? इस पर उन लोगों ने भी उन्हें डाँटा। अब वे लोग करते क्या ? मजबूर थे।
मगर दूसरी बार तो उन लोगों ने दूसरा ही रास्ता अख्तियार किया। इस बार पहले ही से सजग थे। ज्योंही हम स्टेशन से उतरे और हमारी सवारी आगे बढ़ी कि एक बड़ा सा दल टुकड़खोरों का बाहर आया। सकरी में ही पुलिस का एक दल पड़ा था। बकाश्त की लड़ाई में धर-पकड़ करने के लिए उसकी तैनाती थी। हम जब सकरी से बाहर डाक बँगले से आगे बढ़े कि शोरगुल मचानेवाले बाहर आ गए। जानें क्या-क्या बकने लगे। ' महाराजा बहादुर की जय ', ' किसान-सभा की क्षय ', ' स्वामी जी लौट जाइए , हम आपके धोखे में न पड़ेंगे ', ' झगड़ा लगानेवालों से सावधान ' आदि पुकारें वे लोग मचाते थे। मजा तो तब आया जब हम आगे बढ़े और हमारे पीछे वे लोग दौड़ते जाते और चिल्लाते भी रहते। अजीब सभा थी। वह तमाशा देखने ही लायक था। वैसी बात हमें और कहीं देखने को न मिली। उनने लगातार हमारा पीछा किया। यहाँ तक कि गाँव के किनारे तक आ गए। मगर जब हम गाँव के भीतर चले तो वे लोग दूसरी ओर मुड़ गए। पता चला कि पास में ही जो महाराजा की कचहरी है वहीं चले गए इस बात का प्रमाण देने कि उनने खूब ही पीछा किया , गाँव तक न छोड़ा। इसलिए उन्हें पूरा मिहनताना मिल जाना चाहिए। जमींदार की खैरखाही जो जरूरी थी ही। हमने यह भी देखा कि कुत्तों की तरह भौंकने और हमारा पीछा करनेवालों में टीका-चंदनधारी ब्राह्मण काफी थे।
हमें हँसी आती थी और उनकी इस नादानी पर तरस भी होता था। मधुबनीवाले उस ब्राह्मण किसान के शब्द हमारे कानों में रह-रह के गूँजते थे। हम सोचते कि आखिर यह भी उसी तरह के गरीब और मजलूम हैं। मगर फर्क यही है कि चाहे उसकी जमीन वगैरह भले ही बिकी हो , मगर आत्मा और इज्जत न बिकी थी। उसने अपना आत्मसम्मान बचा रखा था। मगर इनने तो अपना सब कुछ जमींदार के टुकड़ों पर ही बेच दिया है। इसीलिए जहाँ इनसे कोई आशा नहीं , तहाँ उससे और उसके जैसों से हमें किसानों के उद्धार की आशा है।
हम यह कहना भूली गए कि सागरपुर में उस समय दरभंगा जिला-किसान कॉन्फ्रेंस थी। इसलिए किसानों के सिवाय जिले भर के कार्यकर्ताओं का भी काफी जमाव था। प्रस्ताव तो अनेक पास हुए। स्पीचें भी गर्मागर्म हुईं। यों तो मैं खुद काफी गर्म माना जाता हूँ और मेरी स्पीचें बहुत ही सख्त समझी जाती हैं। मगर जब वहाँ मैंने दो-एक जवाबदेह किसान-सभावादियों की तकरीरें सुनीं तो दंग रह गया। मालूम होता था , उनके हाथ में सभी किसान और सारी शक्तियाँ मौजूद हैं। फलतः वे जोई चाहेंगे कर डालेंगे। इसीलिए महाराजा दरभंगा को रह-रहके ललकारते जाते थे। मानो वह कच्चे धागे हों कि एक झकोरे में ही खत्म हो जाएँगे। दस-बारह साल तक काम कर चुकने के बाद जब कि किसान आंदोलन किसान संघर्ष में जुटा हो , ठीक उसी समय ऐसी गैरजवाबदेही की बातें सुनने को मैं तैयार न था। फलतः अपने भाषण में मैंने इसके लिए फटकार सुना दी और साफ कह दिया कि दरभंगा महाराज ऐसे कमजोर नहीं हैं जैसा आपने समझ लिया है।
मेरे इस कथन पर जब जमींदारों के अखबार ' इंडियन नेशन ' में टीका-टिप्पणी निकली तो मुझे और भी हैरत हुई और हँसी आई , लिखा गया कि स्वामी जी डर गए हैं। सच्ची बात तो यह है कि जमींदार इतने नादान हैं कि मेरी बात का मतलब न समझ सकेंगे , इसके लिए मैं तैयार न था। किस आधार पर मुझे डरा हुआ माना गया मैं आज तक समझ न सका।
(8)
सन 1936 ई. की गर्मियों की बात थी। लखनऊ कांग्रेस से लौटकर मैं मुंगेर जिले के सिमरी बखतियारपुर में मीटिंग करने गया। उसके पहले एक बार भूकंप के बाद वहाँ गया था। सैलाब बड़े जोरों का था। वहाँ तो बाढ़ आती है कोशी की कृपा से और यह नदी ऐसी भयंकर है कि जून में ही तूफान मचाती है। उसने उस इलाके को उजाड़ बना दिया है। पहली यात्रा में बाढ़ का प्रकोप और लोगों की भयंकर दरिद्रता देख के मैं दंग था। मेरा दिल रोया। मेरे कलेजे में वह बात धँस गई। वहाँ के लोगों और कार्यकर्ताओं से जो कुछ मैंने सुना उससे तय कर लिया कि दूसरी बार इस इलाके में घूमना होगा। तभी अपनी आँखों असली हालत देख सकूँगा।
इसीलिए बरसात आने के बहुत पहले सन 1936 ई. की मई में ही , जहाँ तक याद है , मैं वहाँ गया। इस बार खास बखतियारपुर के अलावे धेनुपुरा , केबरा आदि में भी मीटिंगों का प्रबंध था। मगर आसानी से उन जगहों में पहुँच न सकते थे। कड़ाके की गर्मी पड़ रही थी और सभी जगह पानी की पुकार थी। मगर उस इलाके में बिना नाव के घूमना असंभव था। कोसी माई की कृपा से सारी जमीनें पानी के भीतर चली गई हैं। जिधर देखिए उधर ही सिर्फ जल नजर आता था। समुद्र में बने टापुओं की ही तरह गाँव नजर आते थे। गाँव के किनारे थोड़ी-बहुत जमीन नजर आती थी , जहाँ थोड़ी सी खेती हो सकती थी। बाकी तो निरा जल ही था। लोग मछलियों और जल-जंतुओं को खा के ही ज्यादातर गुजर करते हैं। अन्न तो उन्हें नाममात्र को ही कभी-कभी मिल जाता है , सो भी केवल कदन्न , जिसे जमींदारों के कुत्ते सूँघना भी पसंद न करेंगे , खाना तो दूर रहा। उस इलाके में कुछी दूर बैलगाड़ी पर चल के बाकी सर्वत्र केवल नाव पर या पैदल ही यात्रा करनी पड़ी जहाँ पानी न था वहाँ घुटने तक कीचड़ होने के कारण बैलगाड़ी का चलना भी तो असंभव था।
हाँ , यह कहना तो भूली गए कि उस इलाके के सबसे बड़े और चलते-पुर्जे जमींदार हैं बखतियारपुर के चौधरी साहब। उनका पूरा नाम है चौधरी मुहम्मद नजीरुलहसन मुतवली। वहाँ एक दरगाह है बहुत ही प्रसिद्ध और उसी के मुताल्लिक एक खासी जमींदारी है जिसकी आमदनी कुल मिला के उस समय सत्तर अस्सी हजार बताई जाती थी। चौधरी साहब उसी के मुतवली या अधिकारी हैं। इस प्रकार मुसलमानों की धार्मिक संपत्ति के ही वह मालिक हैं और उसी का उपभोग करते हैं। बड़े ठाटबाट वाले शानदार महल बने हैं। हाथी , घोड़े , मोटर वगैरह सभी सवारियाँ हैं। शिकार खेलने में आप बड़े ही कामिल हैं , यहाँ तक कि गरीब किसानों की इज्जत जान और माल का भी शिकार खेलने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं , बशर्त्ते कि उसका मौका मिले। और जालिम जमींदारों को तो ऐसे मौके मिलते ही रहते हैं। उन जैसे जालिम जमींदार मैंने बहुत ही कम पाए हैं , यों तो बिना जुल्म ज्यादती के जमींदारी टिकी नहीं सकती। मेरी तो धारणा है कि किसानों और किसान-हितैषियों को , किसान-सेवकों को मिट्टी के बने जमींदार के पुतले से भी सजग रहना चाहिए। वह भी कम खतरनाक नहीं होता। और नहीं , तो यदि कहीं देह पर गिर जाए तो हाथ-पाँव तोड़ ही देगा।
चौधरी की जमींदारी में मैं बहुत घूमा हूँ। किसानों के झोंपड़े-झोंपड़े में जाके मैंने उनकी विपदा आँखों देखी है और एकांत में उनके भीषण दुख-दर्द की कहानियाँ सुनी हैं। दिल दहलाने वाली घटनाओं को सुनते-सुनते मेरा खून खौल उठा है। जमींदार ने किसानों को दबाने के लिए सैकड़ों तरीके निकाल रखे हैं। कूटनीति के तो वे हजरत गोया अवतार ही ठहरे। भेदनीति से खूब ही काम लेते हैं। सैकड़ों क्या हजारों तो उनके दलाल हैं जो खुफिया का भी काम करते हैं। किसान उनके मारे तो हईं। वे चुपके से क्या बातें करते हैं इसका भी पता बराबर लगाया जाता है। हमारे पीछे भी उनके गुप्तचर काफी लगे थे। इसलिए हमें सतर्क होके बहुत ही एकांत में बातें करने और उनकी हालत जानने की जरूरत हुई। फिर भी गरीब और मजलूम किसान इतने भयभीत थे कि गोया हवा से भी डरते थे। किसी में भी हिम्मत रही नहीं गई है। जरा भी शिकायत की कि न जाने कौन सी भारी बला कब सिर पर आ धमकेगी और चौधरी की जाल में फँस के मरना होगा , सो भी घुल घुल के।
जिन किसानों के झोंपड़े भी उजड़े हैं और जिनसे वृष्टि तथा धूप छन-छन के भीतर आती है , जिनके तन पर वस्त्र तक नदारद , जिनने अपनी लज्जा बचाने का काम हजार टुकड़ों से बने चिथड़ों से ले रखा है , जिन्हें अन्न शायद ही छठे-छमास मयस्सर होता हो प्रायः उन्हीं से साल में पूरे अस्सी हजार रुपए की वसूली मामूली बात नहीं है। बालू से तेल और पत्थर से दूध निकालना भी इसकी अपेक्षा आसान बात है। किन-किन उपायों और तरीकों से ये रुपए वसूल होते हैं यदि इसका ब्योरा लिखा जाय तो पोथा तैयार हो जाएगा। इसलिए नमूने के तौर पर ही कुछ बातें लिखी जाती हैं।
उसी इलाके में मुझे पहले-पहल पता चला कि पहले चौधरी की जमींदारी में चार चीजों की ' मोनोपली ' (monopaly) थी। यानी चार चीजों पर उनका सर्वाधिकार था और उनकी मर्जी के खिलाफ ये चीजें बिक न सकती थीं। नमक , किरासन तेल , नया चमड़ा और सुँगठी मछली यही हैं वे चार चीजें। इनमें सिर्फ नमक की मोनोपली मेरे जाने के समय उठ चुकी थी। बाकी तीन तो थीं ही , जो मेरे आंदोलन के करते खत्म हुईं। अपनी लंबी जमींदारी के भीतर उनने सबों को यह कह रखा था कि बिना उनकी मर्जी के कोई आदमी नमक , किरासन इन दो चीजों की बिक्री कर नहीं सकता। फलतः किसी को हिम्मत न थी। और जमींदार साहब किन्हीं एक-दो मोटे असामियों से दो-चार हजार रुपए ले के उन्हीं को बेचने का हक देते थे। नतीजा यह होता था कि वे ठेकेदार ये दोनों चीजें और जगहों की अपेक्षा महँगी बेचते थे। क्योंकि ठेकेवाला पैसा तो वसूल कर लेते ही थे एकाधिकार होने से दाम और भी चढ़ा देते थे। मैंने पूछा तो पता चला कि जो किरासन तेल और जगह पाँच पैसे में मिलता है वही उस जमींदारी में सात-आठ पैसे में। उफ , यह लूट!
अगर कोई आदमी बाहर से यह तेल लाए तो उसकी सख्त सजा होती और जाने उसे क्या-क्या दंड देने पड़ते थे। इसीलिए तो इस बात का पहरा दिया जाता था कि कोई बाहर से ला न सके। दो-चार को सख्त दण्ड देने पड़े तो उसका भी नतीजा कुछ ऐसा होता है कि दूसरों की भी हिम्मत जाती रहती है। यह गैरकानूनी काम सरेआम चलता था। यह भी नहीं कि पुलिस दूर हो। वहीं थाना भी तो है। फिर भी इस सीनाजोरी का पता चलता न था। चले भी क्यों ? आखिर किसी को गर्ज भी तो हो। किसानों को या गरीबों को गर्ज जरूर थी। मगर उनकी कौन सुने ? धनी लोग तो बाहर से ही टिन मँगा लेते थे। और वहाँ धनी हैं भी तो इने-गिने ही। बनिए वगैरह तो डर के मारे चूँ भी नहीं करते थे। चौधरी के रैयत चाहे धनी हों या गरीब उनकी आज्ञा के विरुद्ध जाते तो कैसे ? मगर सरकार को इस धाँधली का पता क्यों न चला जब तक मैं वहाँ न गया , यह ताज्जुब की बात जरूर है।
नमक की बिक्री पर भी पहले चौधरी का एकाधिकार जरूर था। लेकिन सन 1930 ई. वाले नमक सत्याग्रह के चलते वह जाता रहा। जब लोग सरकार की भी बात सुनने को तैयार न थे और कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे थे तो फिर एक जमींदार की परवाह कौन करता ? और अगर कहीं जमींदार साहब इस मामले में टाँग अड़ाते तो उस समय का वायु-मंडल ही ऐसा था कि उन्हें लेने के देने पड़ते। क्योंकि गैरकानूनी हरकत का भंडाफोड़ जो हो जाता। फलतः न सिर्फ नमकवाला उनका एकाधिकार चला जाता , बल्कि किरासन वगैरह के भी मिट जाते। इसीलिए उनने चालाकी की और चुप्पी मार ली। लोग भी नमक की खरीद-बिक्री की स्वतंत्रता से ही संतुष्ट होके आगे न बढ़े। इसीलिए उनकी काली करतूतों का पता बाहरी दुनिया को न चल सका और बाकी चीजों पर उनका एकाधिकार बना ही रह गया।
सुँगठी मछली की भी कुछ ऐसी ही बात है। मैं तो उसके बारे में खुद कुछ जानता नहीं कि वह कैसी चीज है। मगर लोगों ने बताया कि वह कोई उमदा मछली है जिसे खानेवाले बहुत चाव से खाते हैं। इसीलिए बाजार में उसकी बिक्री बहुत होती है। वह तो पानीवाला इलाका है। इसलिए वहाँ मछलियाँ बहुत होती हैं। सुखाकर दूर-दूर जगहों में उनकी चालान भी जाती है। इसीलिए पकड़नेवालों को तो फायदा होता ही है , जमींदार को भी खूब नफा मिलता है। उसकी आमदनी बढ़ती है। मछली वगैरह की आय को ही जल-कर कहते हैं। अब सभी लोग या जोई चाहे वही उन मछलियों को पकड़ नहीं सकता तो खामख्वाह ठीका लेनेवालों में आपस में चढ़ाबढ़ी होगी ही। इसी से जमींदार फायदा उठाता है। और इने-गिने लोगों को ही मछलियों का ठेका देके साल में न जाने कितने हजार रुपए बना लेता है। दूसरी मछलियों की उतनी पूछ न होने से उन पर रोक-टोक नहीं है। फलतः जोई पकड़ेगा वही जल-कर देगा।
जल-कर का भी एक बँधाबँधाया नियम होता है। उस जमींदारी में और उसी प्रकार महाराजा दरभंगा से ले कर दूसरे जमींदारों की जमींदारियों में इस जल-कर के बारे में ऐसा अंधेरखाता है कि कुछ कहिए मत। खासकर कोशी नदी जहाँ-जहाँ बहती है वहीं यह बात ज्यादातर पाई जाती है। वह यह कि जमीन में तो नदी बह रही है और फसल होती ही नहीं। फिर भी लगान तो किसान को देना ही पड़ता है। कानून जो ठहरा। मगर पानी में मछली वगैरह के लिए जल-कर अलग ही देना पड़ता है। एक ही जमीन पर दो टैक्स , दो लगान। जल-कर तो उस जमीन में जमा पानी पर होना चाहिए जिसमें कभी खेती नहीं होती। मगर यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। इसीलिए चौधरी अपनी जमींदारी में यही करते हैं।
अब रही आखिरी बात जो नए चमड़े के एकाधिकार की है। बात यों होती है कि देहातों में जब पशु मरते हैं तो आमतौर से मुर्दार मांस खानेवाले लोग उन्हें उठा ले जाते और उनका चमड़ा निकाल के बेच देते हैं। पशुवालों को ज्यादे से ज्यादा एकाध जोड़े जूते दे दिया करते हैं या कहीं-कहीं बँधे-बँधाए दो-चार आने पैसे। यही तरीका सर्वत्र चालू है। बचपन से ही मेरा ऐसा अनुभव है। मगर उत्तरी बिहार के पूर्वी जिलों में कुछ उलटी बात पाई जाती है। चौधरी के सिवाय महाराजा दरभंगा की जमींदारी में पूर्णियाँ आदि में भी मुझे पता चला है कि बड़े जमींदार इन चमड़ों का एक खासतौर का बंदोबस्त करते हैं। जिसे ' चरसा महाल ' कहा जाता है। उससे होनेवाली आमदनी को चरसा महाल की आमदनी कहते हैं। तरीका यह होता है कि पशुओं से चमड़े निकालने के बाद निकालनेवाला चाहे जिसी के हाथ बेच नहीं सकता। किंतु जमींदार को साल में हजारों रुपए दे के इन चमड़ों की खरीद के ठेकेदार हर इलाके में एक , दो , चार मुकर्रर होते हैं और वही ये चमड़े खरीद सकते हैं। अगर दूसरे लोग खरीदें या दूसरों के यहाँ चमड़ेवाले बेच दें तो दंड के भागी बन जाते हैं। इस प्रकार खरीददार लोग रुपए-दो रुपए के चमड़े को भी दोई-चार आने में पा जाते हैं। बेचनेवाले को तो गर्ज होती ही है और दूसरा खरीदार न होने पर गर्ज का बावला जोई मिले उसी दाम पर बेचता है। इस प्रकार हजारों गरीबों को लूट कर चंद ठेकेदार और जमींदार अपनी जेबें गर्म करते हैं। यही तरीका चौधरी की जमींदारी में भी था।
इस चरसा महाल के खिलाफ हमारा आंदोलन सभी जमींदारियों में हुआ। मगर चौधरी की जमींदारी में हमारे तीन-चार दौरे हुए और बहुत ज्यादे मीटिंगें हुईं। वहाँ किरासन तेल और सुँगठी मछलीवाला सवाल भी था। इसलिए वहाँ का आंदोलन बहुत ही जोरदार हुआ। लोग दबे भी थे सबसे ज्यादा। हमने वैसा या उससे भी दबा इलाका बिहार में एक ही और पाया है। वह है महाराजा दरभंगा की ही जमींदारी में दरभंगा जिले के ही पंडरी परगने का इलाका। वह भी इसी प्रकार बारह महीने पानी में डूबा रहता है और प्रायः तथाकथित छोटी जाति के ही लोग वहाँ बसते हैं। इसीलिए चौधरी की जमींदारी की ही तरह हमारे आंदोलन की गति वहाँ भी खूब तेज थी। दो-तीन बार हम खुद गए। नतीजा हुआ कि वहाँ के गरीब भी उठ खड़े हुए। यही हालत बखतियारपुर की जमींदारी में भी हुई और हमें पता लगा कि किरासन तेल आदि सभी चीजों का एकाधिकार खत्म हो गया।
चौधरी की तेजी ऐसी थी कि वह हमारा वहाँ जाना बर्दाश्त कर नहीं सकता था। सभा के लिए कोई जगह हमें न मिले और न ठहरने ही के लिए यह भी उसने किया। कार्यकर्ताओं ने जो आश्रम बनाया था उसे भी तोड़ डालने की भरपूर कोशिश उसने की। मगर इन कोशिशों में वह सदा विफल रहा। हमें भी वहाँ जाने की एक प्रकार की जिद हो गई। एक बार तो सलखुवा गाँव में हमारी मीटिंग होने को थी। मगर उसने कोशिश कर के नाहक हम पर 144 की नोटिस ऐन मौके पर करवा दी। फिर भी मीटिंग तो हुई ही। उसके पेट में हमारे नाम से गोया ऊँट कूदने लगता था। हिंदू-मुसलिम प्रश्न को भी अपने फायदे के लिए उठाता था , मगर मुसलमानों का दबाने के ही समय। वह चाहता था कि हिंदू उनकी मदद न करें। पर हमने हिंदुओं को सजग कर दिया कि ऐसी भूल वे लोग न करें।
(9)
सन 1936 ई. की बरसात के , जहाँ तक याद है , भादों का महीना था। मगर वृष्टि अच्छी नहीं हुई थी और दिन में धूपछाँहीं होती थी ─ बादल के टुकड़े आसमान में पड़े रहते थे। फिर भी धूप ऐसी तेज होती थी कि शरीर का चमड़ा जलने सा लगता था। यों तो बरसात की धूप खुद काफी तेज होती है। मगर भादों में उसकी तेजी और भी बढ़ जाती है। खासकर वर्षा की कमी के समय वह देह को झुलसाने लगती है। ठीक उसी समय सारन (छपरा) जिले के अर्कपुर मौजे में किसानों की एक जबर्दस्त मीटिंग की आयोजना हुई थी। तारीख तो याद नहीं। मगर दैवसंयोग से वह ऐसी पड़ी कि उसी दिन मीटिंग करके रात में सवा दस बजे की ट्रेन पकड़ कर बिहटा के लिए रवाना हो जाना जरूरी था। असल में अगले दिन बिहटा आश्रम में एक सज्जन किसानों के सवाल को लेकर ही आने और बातें करनेवाले थे। यह बात पहले से ही तय थी। खास उनकी ही जमींदारी का सवाल था। जमींदारी तो कोई बड़ी न थी। मगर थे वह सज्जन हमारे पुराने परिचित। डेहरी के नजदीक दरिहट मौजा उनका ही है। वहीं किसानों का आंदोलन तेज हो गया था। उसमें मुझे भी कई बार जाना पड़ा था। किसानों के प्रश्न के सामने परिचित या अपरिचित जमींदार की बात ही मेरे मन में उठ सकती न थी। उन्हें शायद विश्वास रहा हो। इसीलिए उनने दूसरों के द्वारा मुझे उलाहना भी दिया था। पर मुझे उसकी परवाह क्यों होने लगी ? मैं तो अपना काम कर रहा था। ताहम जब उनने उसी के बारे में मेरे पास खुद आ के बातें करनी चाहीं तो मैंने खुशी-खुशी उसकी तारीख तय कर दी।
यह अर्कपुर गाँव बंगालनार्थ वेस्टर्न रेलवे (ओ. टी. रेलवे) के भाटापोखर स्टेशन से 9 मील दक्षिण पड़ता है। बाबू राजेंद्र प्रसाद की जन्मभूमि जीरादेई के पास से ही एक सड़क अर्कपुर चली जाती है। वहाँ जाने के लिए सवेरे की ही ट्रेन से मैं पहुँचा था। मेरे साथ एक आदमी और था। छपरे से श्री लक्ष्मीनारायण सिंह कांग्रेस कर्मी के सिवाय दो और वकील सज्जन थे जिनका घर उसी इलाके में पड़ता है। भाटापोखर स्टेशन से करीब एक मील दक्षिण-पच्छिम बाजार में ही हमारे ठहरने और खाने-पीने का प्रबंध था। हम लोग वहीं गए , स्नान भी किया , भोजन किया और दोपहर के पहले ही अर्कपुर के लिए चल पड़े। हाथी की सवारी थी। मैं तो इसे पसंद नहीं करता। मगर किसानों की सभा ही तो थी। अगर उसमें जाने के लिए सवारी मिली तो यही क्या कम गनीमत की बात थी ? न जाने कितनी सभाओं में मुझे दूर-दूर तक पैदल ही जाना पड़ा है , ताकि मीटिंग ठीक वक्त पर हो ─ उसमें गड़बड़ी न हो। यदि किसी धनी महाशय की मिहरबानी से हाथी ही मिला तो नापसंदी का सवाल ही कहाँ था ? इसलिए सबों के साथ मैं भी उसी पर बैठ के चल पड़ा। मगर रास्ते की धूप ने हमें जला दिया। बड़ी दिक्कत से दोपहर के लगभग अर्कपुर पहुँच सके। मैंने रास्ते में ही तय कर लिया था कि लौटने के समय पैदल ही आऊँगा। सवेरे ही रवाना हो जाऊँगा। रास्ते में तो कोई गड़बड़ी होगी नहीं। वह तो देखा ठहरा ही। लालटेन साथ रहेगी। ताकि अँधेरा हो जाने पर भी दिक्कत न हो। इसीलिए सभी लोग अपना कपड़ा-लत्ता वग़ैरह सामान स्टेशन के पास उसी बाजार में ही रख आए थे , ताकि लौटने में आसानी हो।
सभा तो वहाँ हुई और अच्छी हुई। लोग पीड़ित जो बहुत हैं। सरयूमाई निकट में ही दर्शन देती हैं। बरसात में उनकी बाढ़ से सारा इलाका जलमय होता है , फसल मारी जाती है , घर-बार चौपट हो जाते हैं और किसानों में हाहाकार मच जाता है। फिर भी जमींदार लोग अपनी वसूलियाँ सख्ती के साथ करते ही जाते हैं। मेरे जाने से शायद किसानों को कुछ राहत मिले और उनकी आह बाहरी दुनिया को सुनाई पड़े इसीलिए मैं बुलाया गया था। ऐसी दशा में सभा की सफलता तो होनी ही थी। उसे रोक कौन सकता था ? वहाँ के जमींदार महाराजा दरभंगा या चौधरी बखतियारपुर जैसे शानियल और हिम्मतवर भी न थे कि कोई खास बाधा डालते।
सभा के समय खास जिले के उस इलाके के कई कांग्रेस कर्मी और भी आ गए थे और उन्हीं में थे चैनपुर के एक युवक जमींदार साहब भी , वह थे तो मेरे परिचित। उनके चचा वगैरह से मेरी पुरानी मुलाकात थी। मगर मैं तो चिंहुँका कि यह क्या ? किसानों की सभा में बड़े-बड़े जमींदारों के पदार्पण का क्या अर्थ है ? लोगों ने कहा कि ये तो कांग्रेसी हैं। कांग्रेस में तो सबों की गुंजाइश हुई उसी नाते यहाँ भी आ गए हैं। मैंने बात तो सुन ली। मगर मेरे दिल , दिमाग में किसान-सभा का कांग्रेस से यह नाता कुछ समा न सका। मेरी आँखों के सामने उस समय भारतीय भावी स्वराज्य की एक झलक सी आ गई। मुझे मालूम पड़ा कि इन जमींदारों का भी तो आखिर वही स्वराज्य होगा। इनके लिए वह कोई और तो होगा नहीं। फिर वही स्वराज्य किसानों का भी कैसे होगा यह अजीब बात है। बाघ और बकरी का एक ही स्वराज्य हो तो यह नायाब बात और अघटित घटना होगी। लेकिन मेरे भीतर के इस उथल-पुथल और महाभारत को वे लोग क्या समझें ? फिर मैं अपने काम में लग गया और यह बात तो भूली गया। उस युवक जमींदार के पास एक बहुत अच्छी और नई मोटर भी थी जिस पर चढ़ के वे आए थे।
सभा का काम पूरा होने पर जब हमने दो घंटा दिन रहते ही रवाना होने की बात कही तो वहाँ के कांग्रेसी दोस्त पहले तो अब चलते हैं , तब चलते हैं करते रहे। पीछे उनने कहा कि अभी काफी समय है। जरा ठहर के चलेंगे। असल में वे लोग पैदल नौ मील चलने को तैयार न थे। ठीक ही था। मेरी और उनकी किसान-सभा एक तो थी नहीं। उन्हें तो स्वराज्य की फिक्र ज्यादा थी ─ गोल-मोल स्वराज्य की , जिसमें किसानों का स्थान क्या होगा इस बात का अब तक पता ही नहीं। उसी स्वराज्य की लड़ाई में किसानों को साथ लेने के ही लिए वे लोग आए थे। साथ ही , उन लोगों का स्वराज्य तो फौरन ही असेंबली , डिस्ट्रिक्ट बोर्ड आदि की मेंबरी वगैरह के रूप में आनेवाला था जिसमें किसानों की मदद निहायत जरूरी थी। उसके बिना उन्हें यह स्वराज्य मिल सकता था नहीं। यही तो ठोस बात थी जिसे वे लोग खूब समझते थे। मोटरवाले बाबू साहब की भी कांग्रेस भक्ति का पता मुझे पूरा-पूरा तब लगा जब मैंने उन्हें डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार एक मुसलमान सज्जन के खिलाफ महावीरी झंडावाली मोटर में बैठ के बुरी तरह परेशान देखा!
अंत में जब ज्यादा देर हो गई और मैं घबराया तो उन लोगों ने कहा कि बाबू साहब की मोटर हमने मँगनी कर ली है , आपको उसी से पहुँचा देंगे। इस पर मैं चौंक के बोला कि मैं एक जमींदार की मोटर में चलूँ और फिर भी किसान-सभा करनेवाला बनूँ ? यह नहीं होने का। इस पर वे लोग थोड़ी देर चुप रहे। मैं भी परेशान था। आखिर इंतजाम उन्हें ही करना था। अब देर भी हो चुकी थी। लालटेन बिना चलना गैरमुमकिन था और मेरे पास खुद लालटेन थी नहीं। नहीं तो भाग निकलता। जब फिर मैंने सवाल उठाया तो उनने वही मोटरवाली बात पुनरपि उठाई और बोले कि यह तो हमारा इंतजाम है। इसमें आपका क्या है ? आपने तो मोटर माँगी है नहीं। मैंने उन्हें इसका उत्तर दिया सही। मगर वे तो तुले थे और मैं अब लाचार था। कुछ दिन रहते यदि यह बात उठती तो मैं अकेला ही भाग जाता। पर , तब तो शाम हो रही थी। वे लोग भी मेरे स्वभाव से परिचित थे। इसीलिए पहले तो मोटर का सवाल उनने उठाया नहीं , और पीछे जब देखा कि अब मैं अकेला भाग नहीं सकता , तो उस सवाल पर डट गए। मैंने भी अंत में कमजोरी दिखाई और मोटर से ही जाने की बात ठहरी!
रात के आठ बजे हम सबों को लेके मोटर चली। बाबू साहब ही उसे चला रहे थे। मालूम हुआ , नजदीक में ही उनकी ससुराल है। उन्हें वहीं उतार के मोटर हमें स्टेशन ले जाएगी। मोटर में चलने के कारण ही हमने लालटेन साथ में ली ही नहीं। खैर , मोटर उनकी ससुराल में पहुँची। वे उतर गए। ड्राइवर आगे बैठा। उनने ताकीद कर दी कि खूब आराम से ले जाना। रास्ते में गड़बड़ी न हो। बस , वह स्टेशन की ओर चल पड़ी। मगर रास्ता वह न था जिससे हम दिन में आए थे। किंतु सोलहों आने नई सड़क थी। रात के साढ़े आठ बज रहे थे। हमें पता नहीं किधर जा रहे थे। एकाएक कीचड़ में मोटर फँसी। वर्षा के दिन तो थे ही। सड़क भी कच्ची थी। ड्राइवर ने जोर मारा। मगर नतीजा कुछ नहीं। बहुत देर तक मोटर की कुश्ती उस कीचड़ से होती रही। हम घबरा रहे थे। धीरे-धीरे निराशा बढ़ रही थी। हमें शक भी हो रहा था कि ड्राइवर रात में जाना नहीं चाहता है। इसीलिए ईमानदारी से काम नहीं कर रहा है। मगर करते क्या ? बोलते तो बात और भी बिगड़ती। वह इनकार कर देता तो स्टेशन पहुँचना असंभव था। आखिर जब घड़ी में हमने साढ़े आठ देखा तो मोटर से निराश हो के पैदल चलने की सोचने लगे।
परंतु एक तो भादों की अँधेरी रात , दूसरे रास्ता बिलकुल ही अनजान , तीसरे साथ में लालटेन भी नहीं! मोटर के खयाल से हमने लालटेन की जरूरत न समझी और अब “ चौबे गए छब्बे बनने , दूबे बन के लौटे “ वाली बात हो गई! फिर भी मुझे तो चाहे जैसे हो स्टेशन पहुँचना ही था। अगले दिन का प्रोग्राम जो था। आज तक मैंने ऐसा कभी होने न दिया कि मेरा निश्चित प्रोग्राम फेल हो जाए। मैंने हमेशा अपने कार्यकर्ताओं से कहा है कि यकीन रखें , मेरा प्रोग्राम फेल हो नहीं सकता। या तो मैं पहले ही खबर दे दूँगा कि किसी कारण से आ नहीं सकता ; ताकि समय रहते लोग सजग हो जाएँ। नहीं तो मैं खुद ही पहुँच जाऊँगा। और अगर ये दोनों बातें न तो सकीं तो मेरी लाश ही वहाँ जरूर पहुँचेगी! इसका नतीजा यह हुआ है कि मेरे प्रोग्राम के बारे में किसानों को पूरा विश्वास हो गया है कि वह कभी गड़बड़ होने का नहीं।
इसी के मुताबिक मुझे तो सवा दस बजे रात की ट्रेन पकड़नी ही थी। मगर रास्ता मोटे अंदाज से सात मील से कम न था। क्योंकि हम उत्तर ओर मोटर से चल रहे थे और दो मील से ज्यादा चले न थे जब वह खराब हो गई। हमें इतना मालूम था कि जिस सड़क से हम दिन में गए थे वह इस मोटरवाली सड़क से पच्छिम है और कुछ दूर जाने पर शायद यह उसी में मिल जाए। क्योंकि आखिर स्टेशन और पास की जमीन का नक्शा तो आँखों के सामने नाचता ही था। और अब समय था कुल डेढ़ घंटे। इतने ही में उस बाजार में पहुँचना था जहाँ सामान रखा था। फिर वहाँ से एक मील स्टेशन चलना था सामान लेकर। यदि दस बजे बाजार में पहुँच जाते तो आशा थी कि पन्द्रह मिनट में वहाँ से स्टेशन पहुँच के ट्रेन पकड़ लेते।
जब मैंने साथियों से पूछा तो दो ने तो साफ हिम्मत हारी , हालाँकि उन्हें भी छपरा पहुँचना जरूरी था। वे लोग वकील थे और कचहरी में उनका काम था। अब तो मैं और भी घबराया। मगर जब लक्ष्मी बाबू से पूछा तो उनने कहा कि जरूर चलेंगे। फिर क्या था ? मेरा कलेजा बाँसों उछल पड़ा। मैं तो अकेले भी चल पड़ने का निश्चय करी चुका था और अब लक्ष्मी बाबू ने भी साथ देने को कह दिया। इसके बाद तो उन दोनों सज्जनों को भी हिम्मत आई और हम सबने मोटर महारानी को सलाम कर उत्तर का रास्ता पकड़ा।
रास्ता अनजान था। तिस पर तुर्रा यह कि मिट्टी सफेद थी। रास्ते में जहाँ-तहाँ कीचड़ और पानी भी था। हमने कमर में धोती लपेटी। जूते हाथ में लिए। मेरे एक हाथ में मेरा दंड भी था। फिर हमारी ' क्विक मार्च ' शुरू हुई। यदि दौड़ते नहीं , तो समूची परेशानी के बाद भी ट्रेन पकड़ न पाते। इसलिए दौड़ते चलते थे। रास्ते में कहाँ क्या है इसकी परवाह हमें कहाँ थी ? साँप-बिच्छू का तो खयाल ही जाता रहा। सिर्फ रास्ते में समय-समय पर पड़नेवाले झोंपड़ों में आदमी की आहट लेने की फिक्र हमें इसलिए थी कि रास्ते का पता पूछें कि ठीक तो जा रहे हैं ? कहीं दूसरी ओर बहक तो नहीं रहे हैं ? भाटापोखर अभी कितनी दूर है यह जानने की भी तीव्र उत्कंठा थी। मगर झोंपड़ों और गाँवों में तमाम सन्नाटा छाया मिलता था। बहुत दूर जाने पर एक गाँव में एकाध आदमी मिले जिनने फासला दूर बताया। बहुतेरे लोग तो रास्ते में हमें दौड़ते देख या पैरों की आहट सुन सटक जाते थे। उन्हें भय हो जाता था कि इस घोर अँधियाली में चोर-डाकुओं के सिवाय और कौन ऐसी दौड़धूप करेगा। हम भी ताड़ जाते और हँसते-हँसते आगे बढ़ जाते थे ?
रास्ते में एक बड़ी मजेदार बात हुई। हमने महाभारत में पढ़ा था कि मयदानव ने ऐसा सभा भवन बनाया कि दुर्योधन को सूखी जमीन में पानी का और पानी में सूखी जमीन का भ्रम हो जाता था। इससे पांडवों के कुछ आदमी उस पर हँस पड़े थे। इसी का बदला उसने पीछे लड़ाई के मौके पर लिया था। मगर हमें खुद इस भ्रम का शिकार होना पड़ा। अँधेरी रात में आसमान साफ होने के कारण तारे खिले थे। फलतः रास्ता चमकता था। नतीजा यह हुआ कि हम लोगों को सैकड़ों बार सूखी जमीन में पानी का भ्रम हो गया और हमने धोती उठा ली। पर , पाँव सूखी जमीन पर ही पड़ता गया। इसके उलटा पानी को सूखी जमीन समझ हम बेधड़क बढ़े तो घुटने तक डूब गए। जल्दबाजी और दौड़ की हालत में यह गौर करने का तो मौका ही नहीं मिलता था कि पानी है या सूखी जमीन। मगर इसमें हमें खूब मजा आता था। मजा तो अपने दिल में होता है। वह बाहर थोड़े ही होता है। हम लथपथ थे। कीचड़ से सारा बदन लिपटा था। मगर धुन थी ठीक समय पर पहुँच जाने की। इसीलिए सारी तकलीफ भूल गई और हम हँसते-हँसते बढ़ते थे।
कुछ दूर जाकर जब पहली सड़क मिली तब कहीं हमें यकीन हुआ कि ठीक रास्ते जा रहे हैं। मगर अभी प्रायः चार मील चलना था। अतः हमें साँस लेने की फुर्सत भी कहाँ थी। खैर , दौड़ते-दौड़ते दस बजे से पहले ही बाजार में पहुँच ही तो गए। पूछने पर पता चला कि जहाँ सामान है उसे बंद करके हमारे परिचित सज्जन घर सोने चले गए। क्योंकि गाड़ी का समय नजदीक देख उनने मान लिया कि हम अब न आएँगे। उनका घर भी कुछ फासले पर था। यह दूसरी दिक्कत पेश आई। खैर , हममें एक दौड़ के वहाँ गया और जैसे-तैसे उन्हें जगा लाया। उनके आते ही हमने अपने-अपने सामान निकाले। मेरा सामान कुछ ज्यादा था। मगर उस समय स्टेशन तक सामानों को पहुँचानेवाला कहाँ मिलता ? फलतः हमने गधे की तरह अपने-अपने सामान सर पर लादे। मेरी सहायता साथियों ने और साथ के आदमी ने भी की। इस तरह लद-फँद के हमने फिर वही ' क्विक मार्च ' शुरू किया। क्योंकि ट्रेन आ जाने का खतरा था। हमें अपनी घड़ी पर विश्वास होता न था। संकट के समय ऐसा ही होता है। अत्यंत विश्वासों पर से भी विश्वास उठ जाता है।
मगर जब स्टेशन पहुँचे और वहाँ की घड़ी में देखा कि पूरे दस बजे हैं तब हमारी जान में जान आई! फिर तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। निश्चित हो के हमने हाथ-पाँव वगैरह धोए , कपड़े बदले और देह साफ की। इतने खतरे का काम हमने किया , ऐसी लंबी राह , जो आठ मील से कम न थी , हमने डेढ़ घंटे में तय की और बाजार में पंद्रह मिनट ठहरे भी , यह याद करके हमारा आनंद बेहद बढ़ गया। खूबी यह कि हमें न तो कोई थकावट मालूम होती थी और न परेशानी। सख्त-से-सख्त काम और मिहनत के बाद भी यदि सफलता मिल जाए तो सारी हैरानी हवा में मिल जाती है। लेकिन यदि थोड़ी भी परेशानी के बाद विफल होना पड़े तो ऐसी थकावट होती है कि कुछ पूछिए मत। और हम तो इस साहस (adventure) के बाद सफल हो चुके थे। तब थकावट क्यों होती ? कम से कम हमें उसका अनुभव क्यों होता ?
(10)
सन 1935 ई. की मई का महीना था। उसी समय पूर्णियाँ जिले में बरसात शुरू हो जाया करती है। कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ता पं. पुण्यानंद झा पूर्णियाँ जिले के अररिया सब डिविजन के जहानपुर में रहते हैं। उनके ही आग्रह और प्रबंध से उस जिले का पहले-पहल दौरा करने का मौका मिला। कटिहार स्टेशन से ही पहले किशनगंज जाने का प्रोग्राम था। कटिहार में डॉ. किशोरीलाल कुंडू के यहाँ ठहर के किशनगंज की ट्रेन पकड़नी थी। किशनगंज पूर्णियाँ जिले का सब डिविजन और बिहार प्रांत का सबसे आखिरी पूर्वीय इलाका है। यों तो उस जिले में 75 फीसदी मुसलमान ही बाशिंदे माने जाते हैं। मगर किशनगंज में उनकी संख्या 95 प्रतिशत कही जाती है। किसानों के आंदोलन के सिलसिले में ऐसे इलाके में जाने का यह पहला ही अवसर था। मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता थी।
झा जी कटिहार में ही साथ हो लिए और बरसोई होते हम किशनगंज पहुँचे। वहाँ के प्रसिद्ध कांग्रेसकर्मी श्री अनाथकांत बसु के यहाँ हम लोग ठहरे। पहली सभा वहीं शहर में ही होनेवाली थी। सभा हुई भी। मगर वृष्टि के चलते जैसी हम चाहते थे हो न सकी। इसका पश्चाताप सबों को था। मगर मजबूरी थी किशनगंज में दोई दिन ठहरने का हमारा प्रोग्राम था। तो भी अनाथ बाबू ने भीतर-ही-भीतर तय कर लिया कि मुझे एक दिन और ठहरा के शहर में फिर सभा की जाए जो सफल हो। उनने देहात में भी खबर भेज दी और इसका खासा प्रचार किया। जब मैं तीसरे दिन चलने के लिए तैयार था तभी कुछ लोगों के डेप्युटेशन ने हठ करके मुझे रोक लिया और खासी अच्छी सभा कराई। मुझे भी झा जी के साथ देहात में हो के ही उनके घर (जहानपुर) जाना था। इसलिए कोई खास प्रोग्राम न होने के कारण एक दिन रुकने में विशेष बाधा नहीं हुई। यदि कहीं का निश्चित प्रोग्राम होता , तब तो तीसरे दिन रुकना गैर-मुमकिन था।
हाँ , किशनगंज से 6-7 मील उत्तर देहात में दूसरे दिन जाना था। पांजीपाड़ा नामक एक हाट में मीटिंग करनी थी। किशनगंज से जो सड़क उत्तर ओर जाती है उसी के किनारे पांजीपाड़ा बस्ती है। किशनगंज से एक लाइट रेलवे दार्जिलिंग जाती है। मगर वह तो अजीब सी है। मालूम होता है बैलगाड़ी चलती है। हम लोग , जहाँ तक याद है , घोड़ागाड़ी से ही पांजीपाड़ा गए। बाजार का दिन था। जिस जगह बैठ के लोग चीजें बेचते और खरीदते थे उसके पास ही एक फूँस का झोंपड़ा था। हम तो कही चुके हैं कि वह इलाका प्रायः मुसलमानों का ही है। हाट में भी हमें वही नजर आ रहे थे। यह भी देखा कि उस झोंपड़े में उनका एक खासा मजमा है , यों तो उसमें भी आना-जाना लगा ही था। हमें पता लगा कि वह झोंपड़ा ही मस्जिद थी जिसमें दोपहर के बाद की नमाज पढ़ी जा रही थी। घोर देहात में इस प्रकार धार्मिक भावना देख के मैं प्रभावित हुआ। ऐसा देखना पहली ही बार था! मैंने सोचा कि इन्हीं के सामने किसान-समस्याओं पर स्पीच देनी है। कहीं ऐसा न हो कि सारा परिश्रम बेकार जाए।
मगर बात उलटी ही हुई। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि वे सभी बहुत ही गौर से मेरी बातें सुनते थे। मैं जैसे-जैसे बोलता जाता था वैसे-वैसे उनके चेहरे खिलते जाते थे। मेरी बातों की पसंदगी जानने के लिए कितनों के सर हिलते थे। बहुतेरे तो मस्त हो रहे थे और झूमते थे। एक तो मुझे डर यह था कि मुसलमान किसानों में बोलना है। कहीं ऐसा न हो कि गेरुवा वस्त्र देखते ही वे भड़क उठें कि यह कोई हिंदू फकीर अपने धर्म-वर्म की बात बोलने आया है। जमात बाँध के नमाज पढ़ते देख मेरा यह डर और भी बढ़ गया था। दूसरा अंदेशा यह था कि बंगाल की सरहद पर बसनेवाले लोगों में बंगला बोलते हैं और जिनकी रहन-सहन बिलकुल ही बंगालियों की है , मेरी हिंदुस्तानी भाषा कुछ ठीक न होगी। और बंगाली बोलना तो मैं जानता नहीं , गो पढ़ या समझ लेता हूँ। तीसरा खयाल यह था कि उनके खास सवालों को तो मैं जानता नहीं कि उन्हीं के बारे में बोल के उनके खयाल अपनी ओर खींच सकूँ। इसलिए सिर्फ उन्हीं बातों पर बोलता रहा जो सभी किसानों को आमतौर से खलती हैं और जिनसे अपना छुटकारा सभी चाहते हैं। जैसे जमींदारों के जुल्म , लगान की सख्ती , वसूली में ज्यादतियाँ , कर्ज की तकलीफें , बकाश्त जमीन की दिक्कतें वगैरह-वगैरह।
मगर मेरा डर और अंदेशा बेबुनियाद साबित हुआ। उनने मेरी बातें दिल से सुनीं , गोया मैं वही बोलता था जो वह चाहते थे। बोलने में मेरी जबान और भाषा ऐसी होती ही है कि सभी आसानी से समझ लें। गुजरात से लेके पूर्व बंगाल और आसाम तक मैं यही भाषा बोलता रहा हूँ और किसान समझते रहे हैं असल में उनके दिल की बात सीधी-साधी और चुभती भाषा में अपने दिल से बोलिए तो वे खामख्वाह आधी या तीन चौथाई समझते ही हैं और इतने से ही काम चल जाता है। किशनगंजवाले तो सोलह आना समझते खासकर मुसलमान कहीं भी रहें , तो भी हिंदुस्तानी जबान वे समझते ही हैं। यह एक खास बात है।
इसलिए जब मैंने मीटिंग खत्म की तो उनने मुझे घेर लिया और कहने लगे कि आपने तो बड़ी अच्छी बातें कही हैं। ये तो हमें खूब ही पसंद हैं। यह हमारे काम की ही हैं। हमने बहुत से लेक्चर मौलवियों के आज तक सुने हैं। मगर मौलवी लोग तो ऐसी बातें बोलते नहीं। आप तो रोटी का सवाल ही उठाते हैं और उसी की बातें बोलते हैं। आप हमारे पेट भरने और आराम की बातें ही बोलते हैं जिन्हें हम खूब समझते हैं। ये बातें हमें रुचती हैं। सो आप हमारे गाँवों में चलिए। कई चलते-पुर्जे लोगों ने हठ किया कि मैं उनके गाँवों में चल के ये बातें सबों को सुनाऊँ। क्योंकि वे लोग दूर-दूर से आए थे और हर गाँव के एक-दो , चार ही वहाँ थे। बाकी तो खेती-गिरस्ती में ही लगे थे। मगर मैंने उनसे उस समय तो यह कह के छुट्टी ली कि कभी पीछे आऊँगा। इस समय मेरा प्रोग्राम दूसरी जगह तय हो गया है। हालाँकि मैं वह वादा अभी तक पूरा कर न सका , इसका सख्त अफसोस मुझे है।
इस प्रकार उस मीटिंग और मुस्लिम किसानों की मनोवृत्ति का बहुत ही अच्छा असर लेके हम लोग शाम तक किशनगंज वापस आए। किसानों और मजदूरों के आए दिन के जो आर्थिक प्रश्न हैं और जो उनकी रोजमर्रा की मुसीबतें हैं यह ऐसी चीजें हैं कि इन्हीं की बुनियाद पर सभी किसान मजदूर , चाहे उनका धर्म और मजहब कुछ भी क्यों न हो , एक हो सकते हैं। आसानी से एक सूत्र में बेखटके बँध सकते हैं , उनकी जत्थेबंदी हो सकती है , यह बात हमारे दिमाग में उस दिन से अच्छी तरह बैठ गई। हमें वहाँ इसका नमूना ही मिल गया। यह हमारी जिंदगी और उनके जीवन में शायद पहला ही मौका था जब मुसलमान किसानों ने हमारे जैसे हिंदू कहे जानेवाले फकीर को अपना आदमी समझा और हमें अपने घर गाँव में मुहब्बत से ले जाना चाहा। हालाँकि हमारी और उनकी मुलाकात पहले-पहल सिर्फ उसी दिन एक-दो ही घंटे के लिए हुई थी। आखिर आर्थिक प्रश्नों के सिवाय दूसरा कौन जादू था जिसने उन पर ऐसा असर किया ? हमारी बातें के सामने मौलवियों की बातों को जो उनने उतना पसंद नहीं किया इसकी वजह आखिर दूसरी और क्या थी ?
कहते हैं कि सारंगी और सितार के तारों की झनकार जब कहीं दूर से भी आती है तो सभी इन्सान , फिर चाहे वह किसी भी धर्म मजहब के क्यों न हों , मुग्ध होके जबर्दस्ती खिंच आते हैं। सारी बातें , सारे काम भूल के एकटक सुनते रहते हैं। लेकिन अगर खुद उन्हीं को घर के-दिलों के-तार झनक उठें तो ? तब तो और भी मजा आएगा और वे लट्टू होके ही रहेंगे। असल में दुनियाबी विपदाएँ सभी गरीबों की एक ही हैं। वे सभी हिंदू-मुस्लिम को बराबर सताती हैं। इसीलिए एक तरह सभी के दिलों में चुभती हैं। ऐसी हालत में ज्योंही उनकी चर्चा हमने उठाई कि सभी के दिलों के तार साथ ही झनक उठे। फलतः सभी एक ही हाँ में हाँ मिलाते , सुर में सुर मिलाते और एक ही राग गा उठते हैं कि “ कमानेवाला खाएगा , इसके चलते जो कुछ हो “ । इस राग में हिंदू-मुस्लिम भेद खामख्वाह मिट जाता है। इस पवित्र धारा में हिंदू-मुस्लिम कलह की मैल बिना धुले रही नहीं सकती वह पक्की बात है। इसका ताजा-ताजा नमूना हमारी आँखों के सामने उस दिन पांजीपाड़े में नजर आया और हमें भविष्य के लिए पूरी उम्मीद हो गई कि गरीबों के दुख जरूर कटेंगे और उनके अच्छे दिन जरूर आएँगे , सो भी जल्द-से-जल्द , अगर हमने अपना यही रास्ता , यही काम जारी रखा।
खैर , तो किशनगंज लौटने के बाद , जैसा कि पहले कहा है , एक दिन वहाँ ठहर के उस सब डिविजन की देहात का अनुभव करते और मजा लूटते पं. पुण्यानंद जी के गाँव पर पहुँचने की बात तय पाई। उनका गाँव जहानपुर अंदाजन 25-30 मील के फासले पर है। बरसात का समय था। देहात की सड़कें तो यों ही चौपट होती हैं। तिस पर खूबी यह कि वह इलाका सबसे पिछड़ा हुआ है। इसलिए रास्ते का भी ठिकाना न था , सवारी का तो पूछना ही नहीं। बड़ी दिक्कत से बैलगाड़ी मिल सकती थी। मगर रास्ता खराब होने से बैल कैसे गाड़ी खींचेंगे यह पेचीदा सवाल था। एक तो ऐसी दशा में उन्हें गाड़ी में जोतना कसाईपन होगा। दूसरे वे चल सकते नहीं चाहे हम कितने भी निर्दय क्यों न बनें। असल में गाड़ी या हल में जोतने के समय हम लोग बैलों के साथ ठीक वही सलूक करते हैं जो जमींदार हम किसानों के साथ बर्तते हैं। अगर जमींदार उन्हें आदमी न समझ लावारिस पशु मानते हैं , और इसीलिए वे खाएँ-पिएँगे या नहीं इसकी जरा भी फिक्र न कर उनकी सारी कमाई जैसे-तैसे वसूल लेने की फिक्र करते ही रहते हैं , तो किसान अपने बैलों के साथ भी कुछ वैसा ही सलूक करते हैं , हालाँकि किसानों के लिए जमींदारों जैसी निर्दयता गैर-मुमकिन है। वे बैलों के खाने-पीने की कोशिश तो करते हैं। बेशक उनकी कमाई का अन्न पास रख के उन्हें भूसा , पुआल वगैरह वही चीजें खिलाते हैं जो किसानों के लिए प्रायः बेकार सी हैं। बदले में जमींदार भी किसानों की कमाई के गेहूँ , बासमती , घी , मलाई आदि खुद ले के उनके लिए मंड़घवा , खेसरी , मठा आदि ही छोड़ते हैं। मगर जहाँ तक जोतने का सवाल है किसान बैलों के साथ बड़ी निर्दयता से पेश आते हैं।
नतीजा यह हुआ कि मेरी ये बातें कुछ काम न कर सकीं और एक बैलगाड़ी तैयार की गई। अनाथ बाबू को भी साथ ही चलना था। जहानपुर और किशनगंज के बीच में ही कांग्रेस के पुराने सेवक श्री शराफत अली मस्तान का गाँव कटहल बाड़ी चैनपुर पड़ता है। बीच में वहीं एक रात ठहरने और मीटिंग करने की बात तय पाई थी पहले से ही। मस्तान को भी यह बात मालूम थी। मगर ठीक दिन और वक्त का पता न था। हमें भी खुशी थी कि सन 1921 ई. से ही जिसने मुल्क की खिदमत में अपने को बर्बाद कर दिया और जमीन-जाएदाद वगैरह सब कुछ तहस-नहस और नीलाम-तिलाम होने दिया उस शख्स से मिलना होगा , सो भी खांटी किसान से। बर्बादी की परवाह न करने के कारण ही तो उस शख्स का नाम सचमुच मस्तान पड़ा है। ' शराफत अली ' तो शायद ही कोई जानता हो। सिर्फ मस्तान के ही नाम से वह पुराना देश सेवक प्रसिद्ध है। कांग्रेस का आंदोलन शुरू होते ही उसे धुन सवार हुई कि किसान किसी को लगान क्यों देंगे , और खुद क्यों भूखों मरेंगे ? लोगों को उसने यही कहना शुरू किया। खुद भी यही किया। फिर जमीन-जाएदाद बचती तो कैसे ? जमीन थी काफी। मगर सभी यों ही खत्म हो गई और वह बहादुर दर-दर का भिखारी बन गया। उसके परिवार को भूखों मरते रहने की नौबत आई! फिर भी यह धुन बराबर मुद्दत तक बनी रही। आज भी आग वही है , जो भीतर-भीतर दबी पड़ी है। अगर किसान सिर्फ इतना ही समझ लें कि उन्हें भी खाने का हक है। वे भूखे मर नहीं सकते। और अगर इसी के अनुसार यदि वे अपनी कमाई को खाने-पीने लग जाएँ तो बिना किसी की परवाह किए ही , तो उनकी सारी तकलीफें हवा में मिल जाएँ।
जो कुछ हो , हम सवेरे ही खा-पी के बैलगाड़ी पर बैठे और मस्तान के गाँव की ओर चल पड़े। रास्ते में चारों ओर सिर्फ मुसलमान किसानों के ही गाँव पड़ते थे। हिंदुओं की बस्ती तो हमें शायद ही मिली। ऐसी यात्रा मेरी जिंदगी में पहली ही थी। सच बात तो यह है कि हजार जानने-सुनने और समझने-बूझने पर भी मेरे दिल में यह खयाल बना था कि हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमान जनता खामख्वाह सख्त मिजाज झगड़ालू और घमंडीहोती है। इसीलिए रास्ते में पड़नेवाले गाँवों में बराबर इस बात की तलाश में था कि ऐसी बातें मिलेंगी। उनके मकान वगैरह में भी कुछ खास बातें देखना चाहता था। इसीलिए जब मुसलमान मिलते थे तो उनकी ओर मैं निहायत गौर से देखता था। गाँव के बाद गाँव आते गए और एक के बाद दीगरे न जानें , कितने व्यक्ति और कितने गिरोह रास्ते में मिले। हमने बार-बार उनसे मस्तान के गाँव की राह पूछी। उनने बताई भी। मगर हमें कोई खास बात उनमें मालूम न हुई। वही सादगी , वही सीधापन , वही मुलायम बातें और वही रहन-सहन! जरा भी फर्क नहीं! दाढ़ी भी तो सबों को न थी कि फर्क मालूम पड़ता। कपड़े भी वैसे ही थे। मकानों की बनावट में तो कोई अंतर था ही नहीं। मुर्गे-मुर्गियाँ नजर न आएँ तो और कोई फर्क गाँवों में न था। यदि किसी और मुल्क का आदमी ये चीजें देखता तो वह यह समझी नहीं सकता कि ये हिंदू हैं या मुस्लिम! ठीक ही है किसान तो किसान ही है। वह हिंदू या मुस्लिम क्यों बनने लगा। बीमारी , भूख , गरीबी , तबाही वगैरह भी तो न कलमा और नमाज ही पढ़ती है और न गायत्री संध्या ही जानती है और इन्हीं सबों के शिकार सभी किसान हैं ─ इन्हीं की छाप सभी किसानों पर लगी हुई है। फिर उन्हें चाहे आप हिंदू कहें या मुस्लिम! हैं तो दरअसल वे भूखे , गरीब , मजलूम , तबाह , बर्बाद।
यह देख के मेरे दिल पर इस यात्रा में जो अमिट छाप पड़ी वह हमेशा ताजा बनी है। पांजीपाड़े के बाद यह दूसरा अनुभव फौरन ही हुआ जिसने मेरी आँखें सदा के लिए खोल दीं। इससे मेरी आँखों के सामने असलियत नाचने लगी। “ जनता , अवाम ( masses) एक हैं , इनमें कोई भी धर्म , मजहब का फर्क नहीं। वे भीतर से दुरुस्त हैं। “ यह दृश्य मैंने देखा! इसने किसान-सभा के काम में मुझे बहुत बड़ी हिम्मत दी और आज जब कि बड़े-से-बड़े और क्रांतिकारी से भी क्रांतिकारी कहे जानेवाले हिंदू-मुसलमान तनातनी से बुरी तरह घबरा रहे हैं , भविष्य के लिए निराश हो रहे हैं , मैं निश्चिंत हूँ। मैं इनकी बातें सुन के हँसता हूँ। इन्हें इन झगड़ों की दवा मालूम नहीं है। उसे तो मैंने न सिर्फ किताबों में पाया है , बल्कि किशनगंज के इस दौरे में देखा है।
इस प्रकार कुछ दूर जाने के बाद बैलगाड़ी छोड़ देने की नौबत आई। असल में बैल थे तो कमजोर और रास्ता ऐसा बेढंगा था कि न सिर्फ बैलगाड़ी के पहिये कीचड़ में डूब जाते थे , बल्कि बैलों की टाँगें भी। जब वे चल न पाते तो गाड़ीवान उन्हें पीटता था। यह दृश्य बर्दाश्त के बाहर था। मगर इतने पर भी बैल आगे बढ़ पाते न थे। बढ़ते भी आखिर कैसे ? रास्ता वैसा हो तब न ? इसलिए तय हुआ कि गाड़ी छोड़ के पैदल चलें। नहीं तो रास्ते में ही रह जाएँगे और मस्तान के गाँव तक भी आज पहुँच न सकेंगे। फलतः कपड़ा-लत्ता एक आदमी के सर पर गट्ठर बाँध के रख दिया गया और जूते हाथ में ले के हम सभी उत्तर-पच्छिम रुख पैदल ही बढ़े। कीचड़ में फँसते , पानी पार करते , गिरते-पड़ते हम लोग बराबर बढ़ते जाते थे। यह भी मजेदार यात्रा थी। हममें जरा भी मनहूसी नजर न आई। हँसते हुए चल रहे थे। यह कितना सुंदर ' प्लेजर ट्रिप ' था , सैर-सपाटा था। आखिर कीचड़ पानी से लथपथ और वृष्टि से भी भीगते-भागते शाम होते न होते हम लोग मस्तान के गाँव पर पहुँची तो गए।
मस्तान साहब खबर पाते ही दौड़े-दौड़ाए हाजिर आए और हम सभी गले मिले। शाम का तो वक्त था ही। हम लोग थके-माँदे भी थे। मैं तो रात में कुछ खाता-पीता न था , सिवाय गाय के दूध के और वह अचानक मिल सकता न था। अगर पहले से खबर होती तो उसका इंतजाम शायद हुआ रहता। मस्तान और उनके साथी कोशिश करके थक गए। मगर दूध न मिला। बाकी लोगों ने खाना-वाना खाया। रात में थकावट के चलते हम सभी सो रहे। तय पाया कि बहुत तड़के लोग जमा हों और हमारी मीटिंग हो। उसी दिन जल्द-से-जल्द सभा करके और खा-पी के हमें जहानपुर पहुँचने के लिए आगे चल पड़ना भी था। हाँ , मस्तान साहब इधर-उधर खबरें भेजते रहे उस दिन शाम से ही , कि कल तड़के लोग जुट जाएँ। पता लगा कि उनने हमारे बारे में पहले से ही लोगों में प्रचार भी कर रखा था।
दूसरे दिन नित्यक्रिया स्नानादि के बाद हमारी सभा की तैयारी हुई। लोग जमा हुए। हमने उन्हें घंटों समझाया। हम तो सिर्फ उनकी भूख और गरीबी की बातें ही करना जानते थे और वे बातें उन्हें रुचती भी थीं। मस्तान साहब शेर (कविता) के प्रेमी हैं। बहुत से पद मौके-मौके के वे जानते भी हैं। हमारे बारे में भी उनका यही खयाल था। उनने हमें भी कहा कि बीच-बीच में कुछ चुभते हुए पद सुनाते चलेंगे तो अच्छा असर होगा। जहाँ तक हो सका हमने उनकी मर्जी को पूरा किया। मगर हमें खुशी थी कि एक सच्चे जन-सेवक के घर पर ठेठ देहात में मरते-जीते जा पहुँचे थे , जैसे लोग तीर्थ और हज की यात्रा में पैदल ही जाते हैं! जहीं सच्चे और मस्ताने जनसेवक हों असल तीर्थ तो वही है। पुराने लोगों ने तो कहा भी है कि सत्पुरुष और जनसेवक तीर्थों तक को पवित्र कर देते हैं अपने पाँवों की धूलों से ─ ' स्वयं हि तीर्थानि पुनंति संत। ' तीर्थ बने भी तो हैं आखिर सत्पुरुषों के रहने के ही कारण। इस युग में किसानों के तीर्थ कुछ और ही ढंग के होंगे।
जहानपुर चलने के लिए भी एक बैलगाड़ी का इंतजाम हुआ , हालाँकि पहले दिन के अनुभव से हम डरते थे कि फिर वही हालत होगी। कुछ तो पहले दिन की थकावट और कुछ लोगों के हठ के करते बैलगाड़ी फिर भी ठीक होई गई और उसी पर लद-फँद के हम लोग दोपहर के पहले ही चल पड़े। शाम तक जैसे-तैसे झा जी के घर पर पहुँचना जो था। लेकिन हमारा डर सही निकला। आगे का रास्ता और भी विकट था। नदी-नाले भी काफी थे। आखिरकार जहाँ तक जाते बना हम लोग गए। मगर जब गाड़ी का आगे जाना गैर-मुमकिन हो गया तो उसे लौटा के हम आगे बढ़े। नदियों में गाड़ी पार करने में दिक्कत भी काफी थी। इसलिए हमने पैदल ही चलना ठीक समझा। नहीं तो शाम तक रास्ते में ही पड़े रह जाते और जहानपुर पहुँची न पाते। आज की यात्रा गुजरे दिन की यात्रा से भी मज़ेदार थी। हमें इन घोर देहातों का अनुभव करना जरूरी था। यह भी जाँच करनी थी कि हम खुद कहाँ तक पार पा सकते हैं। क्योंकि बिना ऐसा किए और ऐसी तकलीफें बर्दाश्त किए किसान-आंदोलन चलाया जा सकता नहीं। यह मजदूर सभा थोड़े ही है कि शहरों में ही मोटर दौड़ा के और रेलगाड़ियों से ही चल के कर लेंगे। इसीलिए सैकड़ों बार हमने छोटी-मोटी ऐसी यात्राएँ जान-बूझ के की हैं।
आखिर दूसरे दिन की हमारी यात्रा भी पूरी हुई और जहानपुर पहुँच गए। पं. पुण्यानंद झा एक लगन के आदमी हैं। हमने देखा कि गाँव बीच में सबसे ऊँची जमीन पर बने झोंपड़े को उनने आश्रम बना रखा है। चरखे वगैरह का काम वहाँ बराबर होता था। कुछ लड़के पढ़ते भी थे। पंडित जी के एक ही लड़का है। मगर उसे उनने कहीं और जगह जा के पढ़ने न दिया! सरकारी स्कूलों का बायकाट जो किया था! इसीलिए उसे अंत तक निभाया। हमने प्रायः सभी लीडरों को देखा है कि सन 1921 ई. के बायकाट के बाद फिर उनके लड़के वगैरह उन्हीं सरकारी स्कूलों में भर्त्ती हुए हैं। मगर झा जी ने ऐसा करना पाप समझ अपने लड़के को घर पर ही रखा और पढ़ने के बदले लोगों की जो भी सेवा वह अपने ढंग से उस देहात में कर सके उसे ही पसंद किया। उनका आश्रम बहुत ही साफ-सुथरा और रमणीय था। तबीअत खूब ही रमी , गोया अपने घर पहुँच आए। खासकर मैं सफाई बहुत ही पसंद करता हूँ। जरा भी गंदगी हो तो मुझे नींद ही नहीं आती। बेचैन हो जाता हूँ। स्नानादि के बाद दूध पी के रात में सो गए। अगले दिन सभा होगी यही निश्चय हुआ था।
किसानों की सभा भी अगले दिन बहुत ही अच्छी हुई। हमने अपने दिल का बुखार निकाल लिया। उन्हें उनके मसले बहुत ही अच्छी तरह समझाए। उनकी आँखों के समक्ष न सिर्फ उनकी हालत की नंगी तसवीर खींची , बल्कि उसके कारण भी साफ-साफ बता दिए। उन्हें यह झलका दिया कि उनकी नासमझी और कमजोरी से ही उनकी यह अबतर हालत है और दूसरे तरीके से यह दूर भी नहीं हो सकती जब तक वे खुद तैयार न होंगे , अपने में हिम्मत न लाएँगे और अपने हकों को न समझेंगे। उनका सबसे पहला हक है कि भर पेट खाएँ-पिएँ , दवादारू का पूरा इंतजाम करें , जरूरत भर कपड़े पहनें-ओढ़ें और स्वास्थ्य के लिए जरूरी सामान तथा मकान वगैरह बनाएँ। दुनिया की कोई सरकार और कोई ताकत इस बात से इनकार कर नहीं सकती अगर डँट के वे इस हक का अमली तौर से दावा करने लगें। जब वे खुद कमा के अपने आप खाना और अपनों को खिलाना चाहते हैं , और बाकी दुनियाँ को भी , तो फिर किसे हिम्मत है कि वे खुद भूखे रहें और दुनिया को खिलाएँ ऐसा दावा पेश करें ? आखिर जिस गाय से दूध चाहते हैं उसे पहले खूब खिलाते-पिलाते और आराम से रखते ही हैं। नहीं तो दूध के बजाय लात ही देती है।
अब किसी प्रकार अररिया चल के रेलगाड़ी पकड़ना और कटिहार पहुँचना था। बरसात के दिन और रास्ते में छोटी-बड़ी नदियाँ थीं। फिर वही बैलगाड़ी हमारी मददगार बनी। मगर इस बार दो गाड़ियाँ लाई गईं। ऊपर वे छाई भी गई थीं। पहले की गाड़ियाँ तो मामूली ही थीं। मगर इस बार जरा देखभाल के गाड़ी और बैल लाएगए। एक में मैं खुद अपने सामान के साथ बैठा और दूसरी में झा जी और अनाथ बाबू। रात में ही रवाना हुए। नहीं तो अगले दिन कहीं राह में ही रह जाना पड़ता। किस हैरानी और परेशानी के साथ यह बाकी यात्रा पूरी हुई वह वही समझ सकता है जिसे उधर ऐसे समय में जाने का मौका मिला हो। इसका यह मतलब नहीं कि हममें मनहूसी थी , या हमने इस दिक्कत को अपने दिल में जरा भी स्थान दिया। देते भी क्यों ? हमने खुद जान-बूझ के ही यह यात्रा की थी। उन विकट देहातों का अनुभव जो लेना था। हमें खुद इस सख्त इम्तहान में पास जो होना था। और हमें खुशी है कि अच्छी तरह उत्तीर्ण हुए।
अररिया में पहुँच के सीधे स्टेशन चले गए। स्टेशन शहर से दूर पड़ता है। वहीं ठहरे , स्नानादि किया , कुछ खाया-पिया। फिर ट्रेन आई और हमें ले के उसने कटिहार पहुँचाया।