अवशिष्ट भाग 11-20 / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
सन 1935 ई. की किशनगंजवाली यात्रा के ही सिलसिले में हमें कटिहार के बाद कुरसैला स्टेशन जाना और वहाँ से उतर के नजदीक के ही उमेशपुर या महेशपुर में होनेवाली विराट किसान-सभा में भाषण देना था। वहाँ से फिर टीकापट्टी आश्रम में जाने का प्रोग्राम था। वहीं रात को ठहरना भी था। हम लोग सदल-बल ट्रेन से रवाना हो गए। स्टेशन पर बाजे-गाजे , झंडे और जुलूस की अपार भीड़ थी। लोगों में उमंगें लहरें मार रही थीं। किसान-सभा और किसानों के नारों और आजादी की पुकार से आसमान फटा जा रहा था। स्टेशन के नजदीक ही एक बड़े जमींदार साहब का महल है और सभा-स्थान में जाने का रास्ता भी महल की बगल से ही था। पता नहीं वे वहाँ उस समय थे , या कहीं चले गए थे। यदि थे भी तो उन पर क्या गुजरती थी यह कौन बताए। वे बड़े सख्त जमींदार हैं जो जेठ की दुपहरी के सूर्य की तरह तपते हैं! उनकी जमींदारी में रहनेवाले किसानों का तो खुदा ही हाफिज!
मगर माने जाते हैं वे भी कांग्रेसी। कांग्रेसीजनों में उनकी पूछ है। शायद टीकापट्टी आश्रम तथा कांग्रेस की और संस्थाओं को साल में काफी अन्न और पैसे उनसे मिलते हैं। जिले के कांग्रेसी लीडरों का सत्कार भी उनके यहाँ होता है। लीडरों को तो आखिर स्वराज्य लेना है पहले , और जब तक जमींदारों को साथ न लेंगे तब तक स्वराज्य मिलने में बाधा जो खड़ी होगी। अगर उनके बिना वह भी मिल गया तो शायद लँगड़ा होगा। लेकिन यदि किसानों की तकलीफों का खयाल करें तो ये जमींदार कांग्रेस में आ नहीं सकते। इसीलिए बहरहाल उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सभी को ले के चलना जो ठहरा। यह भी सुना है कि वे जमींदार साहब और उन जैसे दो-एक और भी साल में कांग्रेस के बहुत मेंबर इधर बनाने लगे हैं। बात तो आसान है। जोई किसान लगान देने आए उससे ही लगान के सिवाय चार आना और ले लेना कोई बड़ी बात नहीं है। चार आना दिए बिना बाकी रुपयों की भी रसीद न मिले तो ? तब तो सभी गायब हो जाते हैं। इसीलिए मजबूरन वे गरीब चार आना देते ही हैं। नजराना , शुकराना , रसीदाना , फारख या फरखती वगै़रह के नाम पर जब बहुत कुछ गैर-कानूनी वसूलियाँ उनसे की जाती हैं , तो इस चार आने की क्या गिनती ? खतरा यही है कि जब चवन्नी की वसूली जारी हो जाएगी तो कुछ दिनों के बाद कांग्रेस के नाम की भी जरूरत न रहेगी और ये पैसे जमींदार हमेशा लेते रहेंगे। आखिर नए-नए अबवाब इसी तरह तो बने हैं ? अबवाबों का इतिहास हमें यही सिखाता है। मगर इससे क्या ? इसकी परवाह है किसे ? सुरसंड (मुजफ्फरपुर) के एक जमींदार सर चंद्रेश्वर प्र. न. सिंह यों ही अन्नी के नाम पर न जानें कितने दिनों से गैर कानूनी वसूली किसानों से करते आ रहे हैं! हालाँकि उनके भाई कांग्रेसी हैं श्री राजेश्वर प्र. ना. सिंह और अब तो जेल भी हो आए हैं। यह अन्नी भी इसी तरह बनी होगी।
हाँ , तो हम स्टेशन पर उतरे और सीधे सभा-स्थान की ओर चल पड़े। हमें ठीक याद नहीं कि बैलगाड़ी पर गए या हाथी पर। शायद बैलगाड़ी ही थी। हाथी पर चलना हमें कई कारणों से पसंद नहीं। वह एक तो धनियों के ही यहाँ होता है। दूसरे वह रोबदाब और शानबान की चीज और सवारी है और किसानों की सभा में यह चीज मुझे बुरी तरह खटकती है। इसीलिए बिना किसी मजबूरी के मैं उसे कभी कबूल नहीं करता। किसानों की अपनी चीज होने के कारण मुझे बैलगाड़ी दिल से पसंद है। कभी-कभी पालकी में भी , आदमियों के कंधों पर , चलना ही पड़ता है। मगर जब कोई चारा नहीं होता और कहारों के खाने-वाने तथा उनकी पूरी मजदूरी का पक्का इंतजाम हो लेता है तभी मैं उस पर चढ़ता हूँ। मैं कहारों से खामख्वाह पूछ लेता हूँ कि उन्हें जो कुछ मिला उससे वे पूरे संतुष्ट हैं या नहीं। यदि जरा भी कसर मालूम हुई तो उसे पूरा करवाता हूँ। सभी जगह मैंने देखा है कि कहारों के साथ बड़ी ही लापरवाही और बेमुरव्वती से व्यवहार किया जाता है। इसीलिए मैं उनसे खुद पूछता हूँ। कई जगह तो मारे प्रेम के उनने मुझे अपने कंधों पर खामख्वाह चढ़ा लिया है।
इस प्रकार जोश-खरोश और उछलते उत्साह के साथ हम लोग सभा-स्थान में पहुँचे। बरसात की कड़ी धूप ने हमें रास्ते में काफी तपाया था और दुपहरी का समय भी था। मेघ न होने के कारण सूर्य अपना तेज वैसे ही दिखा रहा था और लोगों को झुलसा रहा जैसे जमींदार किसानों के संबंध में करता है। पेड़ों की छाया में हमें शांति मिली। ठंडे हो के और पानी-वानी पी-पा के हम लोग मीटिंग में पहुँचे। जहाँ मीटिंग थी उसे धर्मपुर का परगना कहते हैं। इसमें पूर्णियाँ जिले का बहुत बड़ा हिस्सा आ जाता है। यहाँ के जमींदार महाराजा दरभंगा हैं। कुरसैला के जमींदार और बिशुनपुर के जमींदार वग़ैरह दो-एक ही और हैं। मगर महाराजा के सामने इनकी हस्ती नहीं के बराबर है। ये लोग महाराजा की हजारों बीघा रैयती जमीनें रखते हैं। खास कर बिशुनपुरवाले तो बीसियों हजार बीघे रैयती जमीनें रखते हैं , जो दर रैयतों( undertenants) या शिकमी किसानों को बँटाई पर जोतने को देते हैं। कहीं-कहीं नगद लगान भी लेते हैं। मगर जब चाहें जमीन छीन लें इसकी पूरी बंदिश कर रखते हैं। इसलिए इस मामले में जमींदारों से भी ये मालदार लोग जो अपने को मौका पड़ने पर किसान भी कह डालते हैं , ज्यादा जालिम और खतरनाक हैं।
महाराजा की जमींदारी के और जुल्म तो हईं , जो आमतौर से सभी जमींदारियों में पाए जाते हैं। उनके सिवाय एक खास जुल्म चरसा महाल वाला पहले ही बताया जा चुका है। लेकिन धर्मपुर में ही पता चला कि सर्वे खतियान में जमीन तो किसान की कायमी रैयती लिखी है। फिर भी उस पर जो पेड़ हैं वह सोलहों आने जमींदार के लिखे हैं। असल में पूर्णियाँ जिले में ज्यों-ज्यों उत्तर जाइए नेपाल की तराई की ओर त्यों-त्यों मधुमक्खियाँ पेड़ों पर शहद के बड़े-बड़े छत्ते लगाती दिखेंगी। वहाँ शहद का खासा व्यापार होता है। इसीलिए जमींदार ने चालाकी से पेड़ों पर अपना अधिकार सर्वे के समय लिखवा लिया। किसानों को तो उस समय इसका ज्ञान था ही नहीं। वे सर्वे का महत्त्व भी ठीक समझ न सके थे , और वही लिखा-पढ़ा आज उनका गला कतर रहा है। वहाँ अक्ल और दलील की गुंजाइश हई नहीं कि किसान की जमीन पर जमींदार के पेड़ कैसे हो गए ? और अगर आज भी शहद उतारनेवालों को किसान कह दे कि खबरदार , मेरी जमीन पर पाँव न देना , नहीं तो हड्डियाँ टूटेंगी। हवाई जहाज से जैसे हो ऊपर ही ऊपर उड़ के पेड़ पर चढ़ जाओ और शहद ले जाओ , तो क्या हो ? आखिर कुछ तो करना ही होगा। नहीं तो काम कैसे चलेगा ? जब वे लोग बातें नहीं सुनते तो जैसे को तैसा जवाब देना ही होगा।
दूसरा जुल्म यह मालूम हुआ कि वहाँ घाट के नाम से एक टैक्स लगता है। यह टैक्स दूसरी जमींदारियों में भी पाया जाता है। एक बार तो ऐसा मौका लगा कि हम अपने साथियों के साथ फार्विसगंज के इलाके में बैलगाड़ी से देहात में जा रहे थे। रास्ते में एकाएक कोई आया और गाड़ी रोक के घाट माँगने लगा। पीछे जब उसे पता चला कि गाड़ी में कौन बैठा है तब सरक गया और हम आगे बढ़े। बात यह है कि कुछ दिन पहले जहाँ-तहाँ पानी की धाराएँ उस जिले में बहुत थीं। नतीजा यह होता था कि लोगों को हाट-बाजार जाने या दूसरे मौकों पर बड़ी दिक्कतें होती थीं। पार करना मुश्किल था। जान पर खतरा था। इसलिए जमींदार लोग अपनी-अपनी जमींदारियों में ऐसी धाराओं के घाटों पर नावों का इंतजाम करते थे , ताकि लोगों को आराम मिले। शुरू-शुरू में यह काम मुफ्त ही होता था। फिर उनने धीरे-धीरे नाव वग़ैरह का खर्च पार होनेवालों से वसूलना शुरू किया। उसके बाद ठीकेदार मुकर्रर कर दिएगए जो अपनी नावें रखते और आर-पार जाने वालों से खेवा ले लेते थे! अंततोगत्वा जमींदारों ने घाटों को नीलाम करना शुरू किया और जोई ज्यादा पैसे देता वही घटवार या घाट के ठेकेदार बनता था। वह अपना खर्च मुनाफे के साथ खेवा के रूप में लोगों से वसूलता था। यही तरीका बराबर चलता रहा। धीरे-धीरे घटवार मौरूसी बन गए। उसके बाद वे धाराएँ सूख गई और नाव की जरूरत ही न रही। मगर घटवार तो रही गए। वे जमींदारों को पैसे देते और लोगों से वसूल लेते। भला यह लूट और अंधेरखाता नहीं है तो और हई क्या ? हमें इसके खिलाफ भी तूफान खड़ा करना पड़ा।
दरभंगा महाराज की जमींदारी में ही हमें सबसे पहले वहीं पर पता चला कि ' टरेस ' के नाम पर गरीबों पर एक बला आई है और जमींदार सबों को परेशान कर रहा है। पहले तो हम समझी न सके कि यह ' टरेस ' कौन सी बला है। मगर बातचीत से पता लगा कि असल में ' ट्रेस पास ' या दूसरे की जमीन पर जबर्दस्ती कब्जा से ही मतलब है। ' पास ' शब्द को तो हटा दिया और ' ट्रेस ' का ' टरेस ' कर दिया है। आखिर अनाड़ी देहाती क्या जानें कि असल शब्द क्या है। बात यों होती है कि इधर कुछ दिनों से , खासकर किसान-सभा के आंदोलन के शुरू होने पर , जमींदार के आदमियों ने किसानों को तंग करने के नए-नए तरीके सोचने शुरू कर दिए हैं। इस प्रकार एक तो महाराजा की आमदनी बढ़ रही है। दूसरे किसान लोग पस्त हो जाते हैं और सिर उठा नहीं सकते। इसी सिलसिले में यह ट्रेस पासवाला हथियार भी ढूँढ़ निकाला गया है।
असल में सर्वे के समय किसानों के मकानों की जमीन खतियान में लिखी गई है। मगर मकान या झोंपड़े दूर-दूर करने से बीच-बीच में खाली जमीनें भी रह गई हैं जिन्हें कहीं-कहीं गैर मजरुआ आम और कहीं-कहीं खास लिखा गया है। मुमकिन है कि समय पा के कुछ ज्यादा जमीन पर किसानों के पशु वग़ैरह बाँधे जाते हों। यह बात तो सर्वे के समय भी होती होगी। आखिर कलकत्ता जैसे श्हार में तो किसान बसते ही नहीं कि इंच-इंच जमीन की खोज हो। मगर सर्वे में इसका जिक्र नहीं हुआ। चौबीसों घंटे पशु घर में ही तो रहते नहीं। बाहर भी बँधते ही हैं। यह भी हो सकता है कि खामख्वाह कहीं किसान ने कुछ जमीन हथिया ली हो। आखिर इफरात जो ठहरी। मगर जमींदार को तो मौका चाहिए तंग करने का। उसके अमले तो घूस और सिफारिश चाहते हैं जो अब किसानों से आमतौर से होना असंभव है। इसलिए रंज हो के खतियान के मुताबिक जमीन नापी जाती है। नापनेवाला वही अमला होता है। कोई सरकारी ओवरसियर या अमीन नहीं आता। और अगर नाप में ज्यादा जमीन कुछ भी निकली तो किसान पर आफत आई। अमले नाप-जोख में गड़बड़ी करके भी ज्यादा जमीन साबित कर देते हैं। इस प्रकार किसान पर ट्रेस पास का केस चलाया जाता है। यदि उसने डर से अमलों की पूजा-प्रतिष्ठा पहले ही कर ली और जमींदार को भी कुछ नजर या सलामी दे दी तब तो खैरियत। नहीं तो लड़ते-लड़ते तबाही की नौबत आती है। इस ' टरेस ' के करते मैंने किसानों में एक प्रकार का आतंक वहाँ देखा। पीछे तो भागलपुर , दरभंगा आदि में भी यही बात मिली।
यों तो सैकड़ों प्रकार की गैर-कानूनी वसूलियाँ समय-समय पर चलती ही रहती हैं। मगर दो-एक तो वहाँ की खास हैं। मवेशियों की खरीद-बिक्री पर खुद किसानों से एक प्रकार का टैक्स लिया जाता था और शायद अब भी हो। और गल्ले की बिक्री पर भी और इस प्रकार उनके नाकों दम थी। मगर पुनाही खर्च के नाम से जो वसूली होती है वह बड़ी ही बुरी है इसी प्रकार कोसी नदी के जंगलों में सूअर या हिरन का शिकार खेलने के लिए जब कभी महाराजा का , उनके दोस्तों का या उनके मैनेजर का कैम्प देहातों में जाता है तो किसानों से बकरी , बकरे , दूध , घी , मुर्गी , मुर्गे वग़ैरह की शकल में सैकड़ों चीजें वसूल की जाती हैं। यों कहने के लिए शायद उन चीजों की कीमत हिसाब में लिखी जाती है। मगर गरीब किसानों को मिलती तो है नहीं। और अगर कहीं कभी एकाध को मिली भी , तो नाममात्र को ही। बाकी तो अमलों के ही पेट में चली जाती है। यह भी होता है कि दो की जगह चार बकरे मँगाए जाते हैं और उनमें कुछ कैंप खर्च में लिखे जाते ही नहीं। उन्हें तो ऊपर ही ऊपर वे अमले उड़ा ही लेते हैं। फिर उनका खर्च मिले तो कैसे ? कुम्हारों से मुफ्त बर्तन और कहारों से बेगार में काम करवाना तो आम बात है। दूसरे गरीब भी इसी प्रकार खटते रहते हैं।
पुनाही की बात यों है कि साल में एक बार महाराजा के हर सर्किल ऑफिस में बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है और हवन-पूजा होती है। खूब खान-पान भी चलता है। बहुत लोग जमा होते हैं। यह उत्सव प्रायः दशहरा (दुर्गापूजा) के समय ही या उसी के आस-पास होता है। बिहार के अन्यान्य जिलों में जो तौजी की प्रथा है वह तो ठीक दशहरे के दिन ही होती है। यह पुनाही उसी तौजी का कुछ विस्तृत रूप है। असल में संस्कृत के पुण्याह शब्द का अर्थ है पवित्र दिन। इसी का अपभ्रंश पुनाह हो गया। पुनाही उसी पुनाह या पुण्याह का सूचक है। इसके मानी हैं पुण्याहवाला। जमींदार अगले साल के लगान की वसूली उसी दिन से शुरू करता है जैसा कि और जगह तौजी के दिन शुरू करता है। हिंदी साल भी तो दशहरे के बाद ही शुरू कार्तिक से ही आरंभ होता है। इसीलिए अगले साल के लगान की वसूली का श्रीगणेश उस दिन ठीक ही है। और जमींदार के लिए इससे पवित्र दिन और क्या होगा कि उसने लगान की वसूली साल शुरू होने के पहले ही जारी कर दी। किसानों के लिए यह दिन भले ही बुरा हो। मगर जमींदार के लिए तो सोना है। इसी से वह उत्सव पुनाही का उत्सव कहा जाता है।
उसके खर्च का एक इस्टिमेट या अंदाज ( Budget) तैयार होता है। वह हर साल की ही तरह होता है। हाँ , कुछ घट-बढ़ तो होती ही है। इसके बाद वह हर तहसीलदार के हिस्से में बाँट दिया जाता है कि कौन कितना वसूल करेगा किसानों से। अब तहसीलदार लोगों को मौका मिलता है कि इसी बहाने कुछ अपने लिए भी वसूल कर लें। इसलिए सर्किल से उनके जिम्मे जितना रुपया या घी वग़ैरह वसूलने को दिया गया था। उसका ड्योढ़ा-दूना करके उसे अपने पटवारी आदि मातहतों के जिम्मे बाँट देते हैं कि कौन कितना वसूल करेगा। फिर वे पटवारी वग़ैरह भी अपना हिस्सा उसी तरह ड्योढ़ा-दूना करके अपने अधीनस्थ नौकरों के हिस्से लगाते हैं जो कुछ बढ़ा-चढ़ा के हर किसान से वसूल करते हैं। इस तरह वसूली के समय असल खर्च कई गुना बन के वसूल होता है और गरीब किसान मारे जाते हैं। जो कुछ उन्हें घी-दूध आदि के रूप में या नगद देना पड़ता है वह ऐसा टैक्स है कि कुछ कहिए मत। उसके बदले में उन्हें मिलता कुछ भी नहीं। वह तो लुट जाते हैं। शायद एकाध मिठाई मिलती हो!
इस प्रकार के जुल्मों और धींगामुश्तियों को कहाँ तक गिनाया जाए ? सिर्फ नमूने के तौर पर कुछेक को दिखला दिया है। असल में जब जमींदार लोग किसानों को आदमी समझते ही नहीं , इन्सान मानते ही नहीं , तो मुसीबतों की गिनती क्या ? वे तो जितनी हैं सब मिलके थोड़ी ही हैं! उनके भार से दबे किसानों का गिरोह उस सभा में हाजिर था। हमने जमींदार और उसके नौकरों कह खिदमत सभा में की तो काफी। जले तो पहले से ही थे। किसानों के करुण-क्रंदन , उनकी चीख-पुकार ने उस पर नमक का काम कर दिया। फिर तो उबल पड़ना स्वाभाविक था। हमने जालिमों को ऐसा ललकारा और उनकी धज्जियाँ इस तरह उड़ाईं कि एक बार मुर्दे किसानों में भी जान आ गई। उनने समझ लिया कि उनकी तकलीफों का खात्मा हो सकता है। पहले तो समझते थे कि “ कोउ नृप होइ हमैं का हानी। चेरि छाँड़ि न होउब रानी! “ पर एक बार उनकी रगों में गर्मी आ गई।
सभा के बाद टीकापट्टी आश्रम में गए जो कुछ दूर है। रात को वहीं ठहरे। सुबह घूम-घाम के आश्रम देखा। वह तो गाँधीवाद का अखाड़ा है। चर्खे , करघे का कार-बार खूब फैला नजर आया। वहाँ के रहनेवाले कभी-कभी जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ पहले आवाज उठाते थे। देहातों में घूम के मीटिंगें भी करते थे। मगर धीरे-धीरे यह बात कम होती गई। अब तो यह बात शायद ही होती है। शायद प्रारंभिक दशा में वहाँ जमना था। इसीलिए किसान जनता की सहायता जरूरी थी। अब तो काफी जम गए! संभवतः अब वह प्रश्न छेड़ने की जरूरत इसीलिए नहीं पड़ती! किसान-सभा का वह जमाना था भी शुरू का ही। लोग समझी न सके थे कि यह किधर जाएगी। वर्ग चेतना किसानों में पैदा करेगी और वर्ग संघर्ष को काफी प्रोत्साहन देगी यह बात तब तक लोगों के दिमाग में आई न थी। इसीलिए मुझे भी उस आश्रम में निमंत्रित किया गया। स्टेशन के पास की सभा का प्रबंध भी उन लोगों ने ही किया था। मगर अब तो किसान-सभा से लोग भय खाते हैं। वर्ग विद्वेष की बात बहुत फैली है। ऐसी हालत में वैसे आश्रम यदि सतर्क हो जाएँ तो कोई ताज्जुब नहीं। असल में ज्यों-ज्यों किसानहित और जमींदारहित के बीचवाली चौड़ी एवं गहरी खाई साफ-साफ दीखने लगी है त्यों-त्यों दुभाषिए लोगों-दोनों तरफ की बातें मौके-मौके से करनेवाले लोगों के लिए इन बातों की गुंजाइश कम होती जाती है। अब तो गाँधीवादी हमारे साथ बैठने से भी डरते हैं कि कहीं लीडर लोग जवाब न तलब करें। ऐसा हुआ भी है। चलो अच्छा ही हुआ। किसानों को सबसे ज्यादा धोखा उन्हीं लोगों से है जो ऊपर से उनके हितू होते हुए भी भीतर से वर्ग सामंजस्य के हामी हैं और चाहते हैं कि किसानों और जमींदारों में कोई समझौता हो जाए। नहीं तो अंततोगत्वा वे कहीं के न रह जाएँगे। क्योंकि आखिर अब तो किसानों के ही हाथों में अन्न देने के सिवाय वोट देने की भी शक्ति है।
टीकापट्टी से हमें बनमनखी जाना था। यह रेलवे जंकशन मुरलीगंज और बिहारीगंज स्टेशनों से , जो पूर्णियाँ और भागलपुर जिलों की सीमा पर पड़ते हैं , आनेवाली लाइनों का है। वहीं से पूर्णियाँ होती कटिहार को लाइन जाती है। हमें बड़हरा स्टेशन पर ट्रेन सवेरे ही पकड़नी थी। अगले दिन रवाना होने की बात तय पाई थी। बड़हरा वहाँ से दूर है। सड़क-वड़क तो कोई है नहीं। सवारी भी सिवाय बैलगाड़ी के दूसरी संभव न थी। अगर दोपहर के बाद रवाना हुआ जाए और रातोंरात चलते जाएँ तो ठीक समय पर शायद पहुँच जाएँ। किसनगंज से जहानपुरवाली यात्रा से यह कठिन थी। वहाँ केवल दिन में ही चलना पड़ा। मगर यहाँ तो रात में बराबर चलना था! मगर करना भी क्या था ? कोई उपाय न था आखिर किसान-आंदोलन की बात जो ठहरी!
यही हुआ भी। हमारी बैलगाड़ी रवाना हो गई। बदकिस्मती से जो बैलगाड़ी मिली वह छोटी सी थी। उस पर पर्दा भी न था कि धूप या पानी से बच सकें। अकसर उस ओर ऊपर से छाई हुई गाड़ियाँ मिलती हैं। मगर वह तो थी निरी सामान ढोनेवाली। उसमें एक और भी कमी थी। गाड़ियों के दोनों तरफ बाँस की बल्लियाँ लगी रहती हैं जिनमें मज़बूत रस्सी लगा कि गाड़ी के साथ बाँधते हैं। किनारों पर लगे खूँटों पर वह बल्लियाँ लगाई जाती हैं। इस प्रकार गाड़ी में बैठने पर भूल-चूक से नीचे गिरने का खतरा नहीं रहता। सामान भी हिफाजत से रहता है। मगर हमारी गाड़ी में यह एक भी न था। इससे खुद भी गिर पड़ने का डर था और सामान के भी लुढ़क जाने का अंदेशा था। गाड़ीवान के अलावे हम तीन आदमी उस पर बैठे थे। सामान भी था।
हालत यह हुई कि हम सभी दिन में तो पलथी मारे बैठे ही रहे। रात में भी वही करना पड़ा। सोने की बात तो छोड़िए। जरा सा लेटना या झुकना भी गैर-मुमकिन था। यह तकलीफ बर्दाश्त के बाहर थी। जिंदगी में मेरे लिए यह पहला ही मौका था जब सोलह घंटे से ज्यादा बैलगाड़ी पर बैठे-बैठे सारी रात गँवाई। बैलगाड़ी की सवारी तो यों भी बहुत बुरी होती है। उसमें उठाव-पटक तो कदम-कदम पर होता ही रहता है। धक्के ऐसे लगते हैं कि कलेजा दहल जाता है। यदि उस पर पुआल वग़ैरह कोई नर्म चीज न हो तो काफी चोट लगती है। चूतड़ जखमी हो जाते हैं। इतने पर भी यदि लेटने या सोने का जरा भी मौका न मिले तो मौत ही समझिए। मगर वहाँ ये सारे सामान मौजूद थे! मैं मन ही मन हँसता था कि लोग समझते होंगे कि किसान-सभा का काम बहुत ही आराम वाला है। मैं यदि एक दिन भी सारी रात जग जाऊँ तो अगले दिन जरूर ही बीमार पड़ जाऊँ , यह बात जान लेने पर उस रात की तकलीफ का अंदाज लगाया जा सकता है। तिस पर भी डर था कि कहीं ट्रेन न छूट जाए। इसलिए गाड़ीवान को सारी रात ताकीद करते रहे। इस प्रकार गाड़ी आने के पहले ही जैसे-तैसे बड़हरा स्टेशन पहुँची तो गए।
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पूर्णियाँ जिले की ही घटना है। सो भी उसी सन 1935 ई. की। यह सन 1935 किसान-सभा के इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसी साल पहले-पहल बिहार प्रांतीय किसान-सभा ने जमींदारी-प्रथा के मिटाने का निश्चय नवंबर महीने के अंत में हाजीपुर में किया था। प्रांतीय किसान कॉन्फ्रेंस का चौथा अधिवेशन वहीं हुआ था। मैं ही उसका सभापति था। उसी साल उसी नवंबर महीने में ही हाजीपुर के अधिवेशन के पहले ही , जहाँ तक याद है , 11-12 नवंबर को धर्मपुर परगने के राजनीतिक-सम्मेलन और किसान-सम्मेलन बनमनखी में ही हुए थे। पहले सम्मेलन के अध्यक्ष बाबू अनुग्रह नारायण सिंह और दूसरे के बाबू श्रीकृष्ण सिंह थे। यही दोनों सज्जन पीछे कांग्रेसी-मंत्रिमंडल के जमाने में अर्थमंत्री और प्रधानमंत्री बिहार प्रांत में बने थे। इसी भविष्य की तैयारी में जो अनेक बातें होती रहीं उन्हीं में वे दोनों सम्मेलन भी थे। हमें भी वहाँ से निमंत्रण मिला था। यह भी आग्रह किया गया था कि यदि किसी अनिवार्य कारण से कदाचित हम न आ सकें तो किसान-सभा के किसी नामी-गरामी लीडर को ही भेज दें।
मगर हमने जान-बूझ के दो में एक भी न किया। न खुद गए और न किसी को भेजा ही। इसके लिए वहाँ के साथियों से क्षमा माँग ली अपनी मजबूरी दिखा के। बात दरअसल यह थी कि अब किसान-सभा ने जड़ पकड़ ली थी। उसकी आवाज अब कुछ निडर सी होने लगी थी। वह अब किसानों की स्वतंत्र आवाज उठाने का न सिर्फ दावा रखती थी , बल्कि हिम्मत भी। इसीलिए कांग्रेसी लीडरों में उसके खिलाफ कानाफूँसी होने लगी थी। भीतर-भीतर से विरोध भी हो रहा था। लोग समझते थे कि हमारे जैसे कुछ इने-गिने लोग ही यह तूफान खड़ा कर रहे हैं। नहीं तो कांग्रेस के अलावे और किसी संस्था को किसान खुद पसंद नहीं करते। जन-आंदोलन के बारे में ऐसा खयाल कोई नयी बात न थी। यह सनातनधर्म है। आखिर कांग्रेस को भी तो सरकारी अधिकारी और दकियानूस दल के लोग पहले ऐसा ही कहते थे।
इसलिए हमने और हमारे साथियों ने सोचा कि यदि बनमनखी जाएँगे तो कांग्रेस के प्रमुख लीडरों से प्रत्यक्ष संघर्ष हो सकता है। हम जानते थे कि स्वतंत्र किसान-सभा बनाने और जमींदारी मिटाने का सवाल वहाँ उठेगा। खासकर हमारे रहने पर। ऐसी हालत में संघर्ष अनिवार्य है। हमारी मौजूदगी में भी यदि ये प्रश्न न उठे तो राजनीतिक-सम्मेलन से अलग किसान-सम्मेलन करने के कुछ मानी नहीं। और आखिरत में वहाँ के मजलूम किसान समझेंगे क्या ? यही न कि हम भी जमींदारों से डरते हैं , उनके दलाल हैं और सिर्फ इसीलिए किसान-सभा बना रखी है ? यह तो हमारे लिए डूब मरने की बात होगी। इसलिए हर पहलू से सोचने पर यही तय पाया कि वहाँ न जाना ही अच्छा। हमने यह भी सोच लिया कि यदि इतने पर भी वहाँ जमींदारी मिटाने और बिहार प्रांतीय किसान-सभा की छत्र-छाया में उस जिले में किसान संगठन करने के सवाल उठे तो यह हमारी सबसे बड़ी जीत होगी। तब तो हमारे विरोधियों को यह कहने का मौका ही न मिलेगा कि किसान-सभा के नाम पर हमीं लोग खामख्वाह टाँग अड़ाते फिरते हैं ─ किसान यह सब नहीं चाहते। तब तो दुनिया की आँखें खुलने का मौका मिलेगा कि किसानों की जरूरत ने ही किसान-सभा को पैदा किया है। और अगर ये सवाल उठे और बहुमत ने इनके पक्ष में ही राय दी , जैसा कि हमारा दृढ़ विश्वास था , तब तो बेड़ा ही पार समझिए। तब तो हमारी दूनी जीत समझी जाएगी। हम वहाँ रहने पर तो शायद लोगों को दबाएँ और मुरव्वत से काम लें। मगर न रहने पर तो लोग बेखटके अपने विचारों से पूरा काम लेंगे। असल में कभी-कभी नेताओं की दूरंदेशी , उनका दब्बूपन जिसे वे लोग समझदारी कहते हैं , उनकी उदारता ─ ये बातें जनता का बहुत नुकसान करती हैं। इनके चलते उनके दिल , दिमाग पर वाहियात लगाम सी लग जाती है और जनता के विचार का निरबाध प्रवाह रुक जाता है। हमने सोचा कि यह महा पाप हमें न करना चाहिए।
जहाँ तक स्मरण है , हम पटने में बिहार प्रांतीय किसान कौंसिल (कार्यकारिणी) की मीटिंग कर रहे थे। क्योंकि हाजीपुर के संबंध में सारी तैयारी करनी थी , सब बातें सोचनी थीं। बनमनखी के सम्मेलनों के फौरन ही बाद यह मीटिंग थी। वहीं पर जब हमने बनमनखी से लौटे किसी व्यक्ति के मुख से यह सुना कि वहाँ किसान-सम्मेलन में न सिर्फ बिहार प्रांतीय किसान-सभा की मातहती में स्वतंत्र किसान-सभा बनाने का प्रस्ताव पास हुआ , बल्कि जमींदारी-प्रथा मिटाने का भी निश्चय हो गया , तो हम उछल पड़े। हमने यह भी सुना कि प्रायः पंद्रह हजार किसान उपस्थित होंगे। क्योंकि बनमनखी तो घोर देहात है। और लीडरों के हजार कुड़बुड़ाने , सरतोड़ परिश्रम करके विरोध करने पर भी केवल तीन-चार सौ लोगों ने विरोध में राय दी। बाकियों ने ' इन्किलाब जिंदाबाद ', ' जमींदारी-प्रथा नाश हो ', ' किसान राज्य कायम हो ', ' किसान-सभा जिंदाबाद ' आदि नारों के बीच इन प्रस्तावों के पक्ष में राय दी। विरोध करनेवाले न सिर्फ पूर्णियाँ जिले के कांग्रेसी लीडर थे , प्रत्युत बाहरवाले भी। किसी ने खुल के विरोध किया और सारी ताकत लगा दी , तो किसी ने भीतर ही भीतर यही काम किया। मगर विरोध में चूके एक भी नहीं। किसान-सभावादियों पर करारी डाँट भी पड़ी। मगर नतीजा कुछ न हुआ।
इस निराली घटना ने , जो अपने ढंग की पहली ही थी , हममें बहुतों की आँखें खोल दीं , चाहे इससे कांग्रेसी लीडरों की आँखें भले ही न खुली हों। मेरे सामने तो इसके बहुत पहले कुछ ऐसी बातें हो गई थीं जिनसे मेरा विश्वास किसानों में , किसान-सभा में और उसके लक्ष्य में पक्का हो गया था। मगर इस घटना ने हमारे दूसरे साथियों को भी ऐसा विश्वासी बनने का मौका दिया।
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ठीक याद नहीं , किस साल की बात है। शायद सन 1936 ई. की गर्मी के दिन थे। मगर कोसी नदी के इलाके में तो उस समय बरसात शुरू होई जाती है। भागलपुर के मधेपुरा शहर में , जिसे कोसी ने न सिर्फ चारों ओर से घेर रखा है , बल्कि ऊजड़ सा बना दिया है , हमारी एक मीटिंग का प्रबंध किया गया था। भागलपुर जिले के उत्तरी भाग में सुपौल और मधेपुरा ये दो सब-डिविजन पड़ते हैं। सुपौल से दक्षिण मधेपुरा है। मगर कोसी का कोपभाजन होने से वह शहर तबाह , बर्बाद है। अब तो कोसी ने उसका पिंड छोड़ा है। इसलिए शायद पहले जैसा फिर बन जाए।
हाँ , तो हमें उस दिन वहाँ किसानों की सभा करनी थी। उसके पहले दिन , जहाँ तक याद है , सुपौल से बैलगाड़ी में बैठ के रवाना हुए थे। क्योंकि रास्ते में एक और मीटिंग करनी थी। उस स्थान का नाम शायद गमहरिया है। एक बाजार है। जहाँ बनिए लोग भी काफी बसते हैं। वहाँ भी काफी उत्साह था। मीटिंग भी अच्छी हुई थी। वहीं से हम मधेपुरा के लिए सवेरे ही खा-पी के रवाना हुए थे , ताकि तीसरे पहर मीटिंग में पहुँच जाएँ। मगर बैलगाड़ी की सवारी थी। मालूम पड़ता था , रास्ता खत्म ही न होगा। जब तीन-चार बजे तो हमारी घबराहट का ठिकाना न रहा। गाड़ी छोड़ के दौड़ना चाहते थे। पर , आखिर दौड़ के जाते कहाँ ? अकेले तो रास्ता भी मालूम न था। नदी-नालों का प्रदेश ठहरा। यह दूसरी दिक्कत थी। रास्ते में मक्की , अरहर वग़ैरह की फसल खड़ी थी और रास्ता उन्हीं खेतों से हो के था। कहीं उसी जंगल में भटक जाएँ तो और भी बुरा हो। हमारे साथ में वहाँ के प्रमुख कार्यकर्ता श्री महताबलाल यादव थे। वह हमारी दौड़ में साथ दे न सकते थे। जैसे सारन जिले की अर्कपुरवाली सभा से लौटने पर हमारे साथी हिम्मतवाले मिले थे वह बात यहाँ न थी। इसीलिए सिवाय गाड़ीवान को बार-बार ललकारने के कि ' जरा तेज हाँको भई ' और कोई चारा न था।
मगर देहात का बरसाती रास्ता घूम-घुमाववाला था। वह गाड़ीवान बेचारा भी क्या करता ? उसने काफी मुस्तैदी दिखाई। बैल भी काफी परेशान हुए। फिर भी मधुपुरा दूर ही रहा। बड़ी दिक्कत और परेशानी के बाद शाम होते-होते हम कोसी के किनारे पहुँचे। अब हमारे बीच में यह नदी ही खड़ी थी। नहीं तो मीटिंग में दौड़ जाते। झटपट पार होने की कोशिश करने लगे। यह नदी भी बड़ी बुरी है। धारा चौड़ी और तेज है। हमने वहीं देखा कि किसान लोग निराश हो के सभा-स्थान से लौट रहे हैं। कुछ तो नाव से इस पार आ गए हैं। कुछ उस पार किनारे नाव की आशा में खड़े हैं। दूर-दूर से आए थे। अँधेरा हो रहा था। घर न लौटें तो वहाँ पशु-मवेशियों की हिफाजत कौन करेगा , यह विकट प्रश्न था। खाना-वाना भी साथ न लाए थे। मगर जब उन्हें पता लगा कि हमीं स्वामी जी हैं तो बहुतेरे तो ' दर्शन ' से ही संतुष्ट हो के चलते बने। लेकिन कुछ साथ ही नाव पर फिर वापस लौटे। पार होते-होते काफी अँधेरा हो गया। फिर भी हिम्मत थी कि सभा होगी ही। उस पारवाले भी साथ हो लिए। मैं था आगे-आगे। पीछे किसानों का झुंड था। हम लोग बेतहाशा दौड़ रहे थे। खेतों से ही हो के जाना था। फसल खड़ी थी। सभा-स्थान काफी दूर था। हालाँकि हम मधेपुरा में ही दौड़ रहे थे। लोगों ने ' स्वामी जी की जय ', ' लौट चलो ' आदि की आवाजें लगानी शुरू कीं। ताकि जो लोग दूसरे रास्तों से लौटते हों घर की तरफ , वे भी सभा में वापस आएँ। अजीब सभा थी। एक बार तो कुछ देर तक दिशाएँ पुकार से गूँज गईं। जब तक हमारी दौड़ जारी रही पुकार भी होती ही रही। जो जहाँ था वहीं से जय-जय करता लौट पड़ा। सूखती फसल को गोया बारिश मिली। निराश लोगों में खुशी का ठिकाना न रहा। चाहे भूखे भले ही रहें , मगर स्वामी जी का व्याख्यान तो सुन लें , यही खयाल उनके दिलों में उछालें मार रहा था।
खैर , यह पहुँचे , वह पहुँचे , ऐसा करते-कराते हम लोग बेतहाशा दौड़ रहे थे। लोग भी चारों ओर से आवाज सुनते ही दौड़ पड़े थे। जोई सुनता था वही आवाज लगाता था। उस दिन हमने दिखला दिया कि सभा करने और उसे चलाने में ही हम आगे-आगे नहीं रहते , मौका पड़ने पर दौड़ने में भी आगे ही रहते हैं। उस दिन कहाँ से उतनी ताकत हममें आ गई , यह कौन बताए ? मैं सब चीजें बर्दाश्त कर सकता हूँ। मगर एक भी मीटिंग से किसान निराश हो के लौट जाएँ और मैं ठीक समय पर मीटिंग में पहुँच न सकूँ , यह बात मेरे लिए बर्दाश्त के बाहर है , मौत से भी बुरी है। उस समय मेरी मनोवृत्ति कैसी होती है इसे दूसरा समझी नहीं सकता। यदि हमारे कार्यकर्ता भी मेरी उस वेदना को समझ पाते तो भविष्य में ऐसी गलतियाँ न करते। उस मनोवृत्ति के फलस्वरूप मुझमें निराशा के बदले काफी बल आता है ताकि किसी भी प्रकार मीटिंग में पहुँच तो जाऊँ। क्योंकि यदि कुछ भी किसान मुझे वहाँ देख लेंगे तो उनके द्वारा धीरे-धीरे सबों में खबर फैल जायगी कि मैं मीटिंग में पहुँचा था जरूर। देरी का कारण सवारी ही थी।
सभा-स्थान राष्ट्रीय स्कूल और कांग्रेस ऑफिस के पास का मैदान था। मैं भी पहुँचा और लोग भी आए , गोकि बहुतेरे चले गए थे। मैंने उन्हें उपदेश दिया और देरी के लिए माफी माँगी। यह भी तय पाया कि अगले दिन फिर सभा होगी। रातों-रात खबर फिरा दी गई। लोग अगले दिन भी काफी आए। आएँ भी क्यों नहीं ? कोसी ने तो उनकी कचूमर निकाल ही ली है। मगर बचे-बचाए रक्त को जमींदारों ने चूस लिया है। केवल कंकाल खड़ा है। यही हैं जमींदारी-प्रथा के मारे हमारे किसान!
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भागलपुर जिले के उत्तरी हिस्से में कोसी नदी और जमींदारों ने कुछ ऐसी गुटबंदी की है कि किसान लोग पनाह माँगते हैं। दोनों ही निर्दय और किसानों की ओर से ऐसे लापरवाह हैं कि कुछ कहिए मत। कोसी को तो खैर न समझ है और न चेतनता। इसलिए वह जो भी अनर्थ करे समझ में आ सकता है। वह तो अंधी ठहरी। मगर इन्सान और सभ्य कहे जानेवाले ये जमींदार! इन्हें क्या कहा जाए ? जब कोसी से भी बाजी मार ले जाते हुए ये भलेमानस देखे जाते हैं तो आश्चर्य होता है। मालूम होता है , ये लोग नादिरशाह हैं। इन्हें मनुष्यता से कोई नाता ही नहीं। इनके लिए कोई आईन कानून भी नहीं हैं! इन निराले जीवों को कुदरत ने क्यों पैदा किया यह पता ही नहीं चलता!
किसान-सभा के ही आंदोलन के सिलसिले में मैं कई बार उस इलाके में गया जिसे कोसी ने उजाड़ दिया है। उसकी धारा को कोई ठिकाना नहीं है। रहती है रहती है , एकाएक पलट जाती है और आबाद भू-भाग को अपने पेट में बीसियों साल तक लगातार डाल लेती है। यह ठीक है कि जिस जमीन को छोड़ देती है वहाँ पैदावार तो खूब ही हो जाती है। मगर झौआ , खरही , वग़ैरह का ऐसा घोर जंगल हो जाता है कि कुछ पूछिए मत। जंगली सूअर , हिरण और दूसरे जानवरों के अड्डे उस जंगल में बन जाते हैं। फिर तो वे लोग दूर तक धावा मारते हैं। किसानों की फसलें बचने पाती ही नहीं हैं। वे लोग पनाह माँगते फिरते हैं। यह भी नहीं कि वह जंगल कट जाए। किसानों की क्या ताकत कि उसे काट सकें ? हजारों , लाखों बीघे में लगातार जंगल ही जंगल होता है। यदि काटिए भी तो फिर खड़ा हो जाता है। जब तक उसकी जड़ें न खोद डाली जाएँ तब तक कुछ होने जाने का नहीं। और यह काम मामूली नहीं है। इसी से किसान तबाह रहते हैं।
कोसी की धारा जिधर जाती है उधर एक तो लक्ष-लक्ष बीघा जमीन पानी के पेट में समा जाती है। दूसरे जंगल हो जाने से दिक्कत बढ़ती है। तीसरे मलेरिया का प्रकोप ऐसा होता है कि सबों के चेहरे पीले पड़ जाते हैं। यह भी नहीं कि धारा सर्वत्र बनी रहे। लाखों-करोड़ों बीघे में स्थिर पानी पड़ा रहता है। इसी से जंगल तैयार होता है और मच्छरों की फौज पैदा होती है। उस पानी में एक प्रकार का धान बोया जा सकता है। मगर उस पर यह आफत होती है कि जब धान में बालें लगती और पकती हैं तो रात में जलवाले पक्षियों का गिरोह लाखों की तादाद में आ के खा डालता है। यह यम-सेना कहाँ से आती है कौन बताए ? मगर आती है जरूर। एक तो रात में रोज-रोज इनसे फसल की रखवाली आसान नहीं है ─ गैर-मुमकिन है। बिना नाव के काम चलता नहीं। सो भी बहुत ज्यादा नावें हों और सैकड़ों-हजारों आदमी सारी रात जगते तथा हू हू करते रहें , तब कहीं जा के शायद पिंड छूटे। किंतु आश्चर्य तो यह है कि जमींदार उन्हें ऐसा करने भी नहीं देते। उस इलाके में नौगछियाँ के जमींदार हैं बा. भूपेंद्र नारायण सिंह उर्फ लाल साहब। उन्हें चिड़ियों के शिकार का बड़ा शौक है। खुद तो खुद दूर-दूर से अपने दोस्तों को भी बुलाते हैं इसी काम के लिए। सरकारी अफसर भी अक्सर निमंत्रित किए जाते हैं। रात में पानी में चारा डाला जाता है ताकि पक्षियों के दल के दल उसी लोभ से आएँ। अब यदि कहीं किसान ने उन्हें उड़ाना शुरू किया अपनी फसल बचाने के लिए , तो जमींदार साहब और उनके दोस्त शिकार कैसे खेलेंगे ? तब तो उनका सारा मजा ही किरकिरा हो जाएगा। इसीलिए तो खास तौर से चारा फेंका जाता है , ताकि यदि धान के लोभ से पक्षी न भी आएँ तो उस चारे के लोभ से तो आएँगे ही। यही कारण है कि किसानों को सख्त मनाही है कि चिड़ियों को हर्गिज रात में या दिन में उड़ाएँ न। कैसी नवाबी और तानाशाही है! चाहे किसानों के प्राण पखेरू इसके चलते अन्न बिना भले ही उड़ जाएँ। मगर चिड़ियाँ उड़ाई जा नहीं सकती हैं। उनका उड़ना जमींदार को बर्दाश्त नहीं है! खूबी यह है कि यही जमींदार साहब लीडरों की कोशिश से गत असेंबली चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार करीब-करीब बनाए जा चुके थे। बड़ी मुश्किल से रोके जा सके।
उसी इलाके में महाराजा दरभंगा की जमींदारी में दो बड़े गाँव हैं , जैसे शहर हों। उनका नाम है महिषी और बनगाँव। दोनों एक-दूसरे से काफी दूर हैं , जो बीच में तीसरा गाँव है नहीं। फिर भी प्रायः दोनों साथ ही बोले जाते हैं। वहाँ मैथिल ब्राह्मणों की ─ महाराजा दरभंगा के खास भाई-बंधुओं की-बड़ी आबादी है। मधेपुरा के लिए जिस सहरसा स्टेशन से एक छोटी सी लाइन जाती है उसी के पास ही वे दोनों गाँव पड़ते हैं। वहीं उतर के वहाँ जाना पड़ता है। बनगाँव के मजलूम किसानों ने हमारी मीटिंग का प्रबंध कर रखा था। मगर हमें यह भी पता था कि महिषी में भी वैसी ही मीटिंग है। वहाँ भी जाना होगा। जाना तो जरूर था , पर रास्ते में कोसी की जलराशि जो बाधक थी। इसलिए बहुत दूर पैदल जाके नाव पर चलना था। दूसरा रास्ता था ही नहीं। आखिरकार बनगाँव की शानदार सभा को पूरा करके हम लोग महिषी के लिए चल पड़े। यों तो पानी सर्वत्र खेतों में फैला था और बनगाँववाले भी काफी तबाह थे। फिर भी कम पानी होने से छोटी से भी छोटी डोंगी उन खेतों में चल न सकती थी। इसीलिए दूर तक कीचड़ और पानी पार करके हमने डोंगी पकड़ी और चल पड़े।
रास्ते में जो दृश्य देखा वह कभी भूलने का नहीं। जो कभी धान के हरे-भरे खेत थे वही आज अपार जलराशि और जंगल देखा। जहाँ कभी धान लहराते और किसानों के कलेजों को बाँसों उछालते थे वहीं आज कोसी हिलोरें मारती थी ─ वहीं आज जंगल लहराता था। नाव पर चलते-चलते बहुत देर हुई। मगर फिर भी यात्रा का अंत नहीं। उन खेतों वाले किसान कैसे जीते होंगे यह सवाल स्वाभाविक है। हमें पता लगा-किसानों ने खून के आँसू रोके हमें अपनी दुःख-दर्द की गाथा सुनाई-कि गाँव की चौदह आना जमीन पानी के भीतर है। अच्छे से अच्छे विद्वान और कुलीन ब्राह्मण गाँव से दौड़ के बाजे-गाजे के साथ घुटने भर पानी में हमें लेने आए थे। उन्हें आज खुशी की घड़ी मालूम पड़ती थी। उन्हें किसान-सभा से आशा थी। इसलिए चाहते थे कि मैं खुद अपनी आँखों उनकी दुर्दशा देख जाऊँ। उनने अपना किसान सुलभ निर्मल एवं कोमल हृदय मेरे सामने बिछा दिया था। सच्ची बात तो यह है कि वह भयावनी हालत देख के मेरा खून खौलता था , मेरी आँखों से आग निकलती थी। जी चाहता था कि इस राक्षसी जमींदारी को कैसे रसातल भेज दूँ ─ मटियामेट कर दूँ। मैंने दिल भर के वहाँ की सभा में जमींदारी-प्रथा को कोसा! मीटिंग में वहाँ के ब्राह्मणों ने जो अभिनंदन किया वह कभी भूलनेवाला नहीं। उसने मेरा संकल्प और भी दृढ़ कर दिया कि जमींदारी को जहन्नुम में पहुँचा के ही दम लूँगा।
वहीं मुझे पता लगा कि बीसियों साल से जमीन में बारहों मास पानी रहता है। खेती हो पाती नहीं। फिर भी जमींदार का लगान देना ही पड़ता है! वाह रे लगान और वाह रे कानून! न देने पर महाराजा नालिश करते हैं और माल-मवेशी ले जाते हैं। उन्हें तो नालिश करने की भी जरूरत नहीं है। सर्टिफिकेट का अधिकार जो प्राप्त है। जैसे सरकारी पावना बिना नालिश के ही वसूल होता है। क्योंकि जोई चीज मिली जब्त , कुर्क कर ली जाती है। ठीक वैसे ही सर्टिफिकेट के बल पर महाराजाधिराज भी करते हैं। केवल सरकारी माल-मुहकमे के अफसर को बाकायदा सूचना देने से ही उनका काम बन जाता है और खर्र-खर्र रुपए वसूल हो जाते हैं। नहीं तो एक रुपए में पचीस-पचास की चीज नीलाम हो जाती है। इसीलिए किसान जेवर , जमीन बेच के , कर्ज ले के , यहाँ तक कि लड़कियाँ बेच के भी खामख्वाह रुपया अदा करी देते हैं।
सवाल हो सकता है कि जमीन ही क्यों नीलाम हो जाने नहीं देते जब उसमें कुछ होता ही नहीं ? बात तो ठीक है। मगर सर्टिफिकेट में जमीन तो पीछे नीलाम होती है। पहले तो और ही चीजें लुटती हैं। एक बात और। किसान को आशा बनी रहती है कि शायद कोसी की धारा यहाँ से चली जाए तो फिर खेतों में खेती हो सकेगी। तब तो कुछ साल तक वे काफी पैदावार भी पाते रहेंगे! इसीलिए उन्हें नीलाम होने देना वह नहीं चाहता! आशा में ही साल पर साल गुजरता जाता है। वह निराश नहीं होता। असल में उसमें जितनी हिम्मत है उतनी शायद ही किसी ऋषि-मुनियों और पैगंबर औलियों में भी पाई गई हो! एक ही दो साल या एक-दो बार ही घाटा होने पर व्यापारियों का दिवाला बोल जाता है। मगर लगातार पाँच , सात या दस साल तक फसल मारी जाती है , मजदूरी , बीज और दूसरे खर्च भी जाया होते हैं। फिर भी मौसिम आने पर वह खेती किए जाता है। खूबी तो यह कि इतने पर भी इस कदर लुट जाने पर भी , न तो सरकार को और न दूसरों को ही अपराधी ठहराता है! केवल अपनी तकदीर और पूर्व जन्म की कमाई को ही कोस के संतोष कर लेता है।
यह भी बताया गया कि जिनकी जमीनें और जगह हैं वे उन जमीनों से अन्न पैदा कर के इन पानीवाली जमीनों का लगान चुकता करते हैं। ऐसे कई किसानों के नाम भी मुझे बताए गए। यह भी मैंने वहीं जाना कि यदि किसान उन जमीनों में भरे पानी में मछली मार के अपनी जीविका किसी प्रकार चलाना चाहें तो जमींदार को उसके लिए जल-कर जुदा देना पड़ता है। क्या खूब! इसे जले पर नमक डालना कहें या क्या ? पैदावार होती नहीं। फिर भी लगान होता जा रहा है। और अगर उसी जमीनवाले पानी में पैदा होनेवाली मछली किसान मार लेता है या उसमें मखाना पैदा कर लेता है तो उसके लिए अलग जल-कर वसूल किया जाय! यह अंधेरखाता कब तक चलता रहेगा ? उन मजलूमों का कोई पुर्सांहाल आखिर कभी होगा या नहीं ? जो लोग यह समझे बैठे हैं कि वे यों ही इन अन्नदाता किसानों का शिकार करते रहेंगे वे भूलते हैं। वह दिन दूर नहीं जब उनके पाप का घड़ा फूटेगा-उनका पाप सर पर चढ़ के नाचेगा।
खैर , हमने किसानों को जहाँ तक हो सका आश्वासन दिया और वहाँ से फिर उसी डोंगी पर चढ़ के रवाना हो गए। अगले दिन हमारा प्रोग्राम कहीं और जगह था। शायद चौधरी बखतियापुर की जमींदारी में मीटिंग करनी थी जहाँ हमारे ऊपर दफा 144 की पाबंदी लगी थी। पटने पहुँच के अखबारों में हमने वहाँ का सारा कच्चा चिट्ठा छपवा दिया।
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भागलपुर जिले की ही एक और दिलचस्प यात्रा है। वह भी उसी कोसी के इलाके में थी। कोसी की धारा के बराबर बदलते रहने के कारण बहुत सी जमीन भागलपुर और पूर्णियाँ जिलों के बीच में जंगल से घिरी है। मगर बीच-बीच में खेती होती है। वही कोसी का दियारा कहा जाता है। राजपूताने के अपार रेगिस्तान की-सी उसकी हालत है। चलते जाइए , मगर खात्मा नहीं होता। उस दियारे में कदवा नाम का एक गाँव या गाँवों का समूह है। दस-दस , बीस-बीस या अधिक झोंपड़ों के अनेक टोले बसते हैं। कोसों चले जाइए। पर , एक ही गाँव पाइएगा। नदियों के हट जाने पर जो जमीनें नए सिरे से बनती हैं वही हैं दियारे की जमीनें। ऐसी जमीनों में आबादी की यही हालत सर्वत्र पाई जाती है। लगातार मीलों लंबे गाँव तो कहीं शायद ही मिलेंगे। खेती करने की आसानी के खयाल से दो-चार झोंपड़े पड़ गए और काम चालू हो गया। फिर कुछ दूर हट के कुछ छप्पर डाल दिएगए और उन्हीं के इर्द-गिर्द खेती होने लगी। इसी तरह गाँव बसते हैं। कदवा भी ऐसे ही गाँवों में एक है।
भागलपुर जिले के उत्तरी भाग में श्री नागेश्वर सेन जी एक गठीले युवक और लगनवाले किसान-सेवक हैं। कदवा उन्हीं का कार्यक्षेत्र उस समय था। उनने ही वहाँ मीटिंग का प्रबंध किया था। उन्हीं के अनुरोध और आग्रह से हमने भी वहाँ जाना स्वीकार कर लिया था। लेकिन हमें इस बात का पता न था कि कदवा है किधर और वहाँ पहुँचेंगे किस तरहख किस रास्ते से ? कोसी दियारे में कहीं है , सिर्फ इतनी ही जानकारी थी। जब तक वहाँ के लिए हम रवाना न हो गए तब तक जानते थे कि कहीं बैलगाड़ी के रास्ते पर होगा। मगर जब मीटिंग के पहले दिन नौगछिया से रवाना होने की तैयारी हुई और कहा गया कि नाव से रातोंरात चलना है , तब कहीं जा कर हमें अंदाज लगा कि यात्रा विकट जरूर होगी।
शाम का वक्त था। बादल घिरे थे। बूँदा-बाँदी भी हो रही थी। पर वही टिप-टिप-टिप। नौगछिया स्टेशन के पास ही जो नदी की धारा है उसी में एक नाव तैयार खड़ी थी। वह धारा चालू नहीं बताई जाती है। मगर बरसात में तो विकट रूप उसका होई गया था। नाव पर ऊपर से छावनी भी थी ताकि पानी पड़ने पर कपड़े-लत्ते बचाए जा सकें। छोटी-सी डोंगी थी जिस पर ज्यादे से ज्यादे दस-पाँच आदमी ही चल सकते थे। ज्यादा लोग हों तो शायद डूब ही जाए। उस धारा में घड़ियाल वगैरह खतरनाक जानवरों का बाहुल्य बताया जाता है। इसलिए नाव पर भी लोग होशियार हो के यात्रा करते हैं। कहीं वह फँस जाए तो खूँखार जलचर धावा ही बोल दें। तिस पर तुर्रा यह कि रात का समय था। बरसात अलग ही थी। बूँदें भी उसके खतरे को और बढ़ा रही थीं। सारांश यह कि सभी सामान इस बात के मौजूद थे कि चलनेवाले हिम्मत ही हार जाएँ।
हुआ भी ऐसा ही। नागेश्वर सेन तो साथ थे नहीं। वे तो कदवा में ही सभा की तैयारी में लगे थे। मगर और जितने साथी वहाँ चलनेवाले थे एक के अलावे सबने पस्त-हिम्मती दिखाई। मौत के मुँह में जान-बूझ के कौन जाए ? यदि रात में मूसलाधार बारिश हो गई और नाव के ही डूबने की नौबत आ गई तो ? सचमुच ही ऐसा हुआ भी और रास्ते में हमें कई बार नाव किनारे लगा के रोकनी पड़ी। किंतु साथी लोग तो हिसाब लगा रहे थे कि ठेठ घड़ियालों के मुँह में ही चला जाना होगा ; हाँ , यह बात सीधे कहते न थे। किंतु दूसरे दूसरे बहाने कर रहे थे। ' नावक्त है , मौसम बुरा है , न जानें रास्ते में क्या हो जाए , बरसात के चलते मीटिंग भी शायद ही हो सके , यदि हो भी तो ज्यादा किसान शायद ही आ सकें ' आदि दलीलें न चलने के सिलसिले में ज्यों-ज्यों पेश की जाती थीं त्यों-त्यों मेरा खून खौलता था और डर भी लगता था कि अगर इनने अंततोगत्वा न जाने का ही फैसला कर लिया तो बात बुरी होगी। मेरा प्रोग्राम और पूरा न हो। मैं यह बात सोचने को भी तैयार न था इसीलिए साथियों की इस नामर्दी पर भीतर-ही-भीतर कुढ़ता था और तरस भी खाता था। सब के सब किसान-सेवक ही थे। सो भी पुराने। मगर सेवा की ऐन परीक्षा में फेल हो रहे थे।
रेल , मोटर या दूसरी सवारियों से शान से पहुँच के फूल-मालाएँ पहनना , नेता बनना , पुजवाना और गर्मागर्म लेक्चर झाड़ना इसे किसान-सेवा नहीं कहते। यह तो दूकानदारी भी हो सकती है और सेवा भी। इससे तो किसानों को धोखा हो सकता है। दस-बीस मील पैदल चल के , कीचड़-पानी के साथ कुश्ती कर के , जान की बाजी लगा के , दौड़-धूप के और भूखों रह के भी जब अपना प्रोग्राम पूरा किया जाए , किसानों का उत्साह बढ़ाया जाए , उनका संघर्ष चलाया जाए और उन्हें रास्ता दिखाया जाए तभी किसान-सेवा की बात उठ सकती है। यही है उस सेवा की अग्नि-परीक्षा। इसमें बार-बार उत्तीर्ण होने पर ही किसान-सेवक बनने का हक किसी को हो सकता है। दूर-दूर के गाँवों से अपना काम-धाम छोड़ के किसान लोग तो भीगते-भागते और धूप में जलते या जाड़े में काँपते हुए मीटिंग में इस आशा से आए कि अपने काम की बातें सुनेंगे , अँधेरे में अपना रास्ता देखेंगे। मगर बातें सुनाने और रास्ता बतानेवाले नेता ही गैरहाजिर! उनने अपने दिल में पक्की वजह बना ली कि सवारी न मिली , मौसम ही बुरा था वगैरह-वगैरह। मगर किसान को क्या मालूम ? उसे किसने कहा था कि मौसम खराब होने पर सभा न होगी , या उसे ही (हर किसान को ही) सवारी का प्रबंध करना होगा ? ये बातें तो जान-बूझ के उनसे कही जाती हैं नहीं। सिर्फ अन्न-पानी या पैसे उनसे इस काम के लिए माँगे जाते हैं और ये गरीब खुशी-खुशी देते भी हैं। चाहे खुद भूखे रह जाएँ भले ही! ऐसी हालत में उन्हें निराश करने या ऐन मौके पर मीटिंग में न पहुँचने का हक किस किसान-नेता या किसान-सेवक को रह जाता है ? ऐसा करना न सिर्फ गैर-जिम्मेदारी का काम है , बल्कि किसानों के हितों के साथ खिलवाड़ करना है। ऐसी दशा में तो किसान-आंदोलन सिर्फ दूकानदारी हो जाती है।
मगर हमें इस दिक्कत का सामना करना न पड़ा और अंत में तय पाया कि खामख्वाह चलना ही होगा। हमें इससे जितनी ही खुशी हुई वह कौन बताएगा ? नाव चल पड़ी। बातें करते-कराते और सोते-जागते हम लोग उस कोयले से भी काली रात में नदी की भयंकर धार में नाव लिए चले जा रहे थे। रास्ते में कई बार किनारे लगे यह तो कही चुके हैं। कोई बता नहीं सकता कि हमें कितने मील तय करने पड़े। मगर जब सुबह हुई तो पता चला कि अभी दूर चलना है। दिक्कत यह थी कि रास्ते में धाराएँ कई मिलीं और कौन कदवा जाएगी यह तय करने में दिक्कतें पेश आईं। तो भी जैसे-तैसे हम ठीक रास्ते से चलते गए। जानवरों का सामना तो कभी हुआ नहीं। मगर रास्ते में कई बार ऐसा हुआ कि पानी बिलकुल ही कम था और हमारी छोटी-सी नाव भी जमीन से टकरा जाती थी। फिर आगे बढ़ें तो कैसे ? तब हर बार हम लोग उससे उतर पड़ते जिससे हल्की हो के ऊपर उठ आती। साथ ही आगे-पीछे लग के ठेलते जाते भी थे। इस तरह इस यात्रा का मजा हमें मिला। इसी ठेला-ठाली ने नाव को ठिकाने लगाया।
एक दिक्कत यह भी थी कि रास्ते में गाँव तो शायद ही कहीं मिले। सिर्फ मक्की आदि के खेत चारों ओर खड़े थे। हाँ , कहीं-कहीं उनकी रखवाली करनेवाले किसान झोंपड़े डाले पड़े थे। उनसे ही रास्ते का पता हमें जरूरत के वक्त लग जाता था। हाँ , उन्हें भी यह देख के हैरत होती थी कि आखिर कैसे पागलों की हमारी टोली थी , जो मस्ती में झूमती चली जाती थी। वे तो समझते थे कि उधर तो उन जैसे सख्ती के बर्दाश्त करनेवाले लोग ही जा सकते हैं और हमें वे समझते थे कोरे बाबू। और बाबुओं की गुजर उधर थी कहाँ ? इससे वे ताज्जुब में पड़ते थे। उन्हें क्या मालूम कि हम बाबुओं को ठीक रास्ते पर लानेवाले हैं ? वे क्या जानते गए कि हमसे बाबू भी खार खाते और डरते हैं ? वे जानते न थे कि हम जन-सेवा के नाम पर होनेवाली दूकानदारी को मिटानेवाले हैं। यदि उन्हें मालूम होता कि हम जमींदारी-प्रथा को उसी घारे में डुबा के घड़ियालों के हवाले करने वाले हैं तो वे बिचारे कितने खुश होते! क्योंकि सभी के सभी जमींदारों के द्वारा बुरी तरह सताएगए थे।
इस प्रकार चक्कर काटते और घूमघुमाव करते-करते हम लोग वहाँ पहुँचे जहाँ नाव लगनी थी और पैदल चलना था। हमें खुशी हुई कि आ तो गए। मगर अभी कई मील पैदल खेतों से हो के गुजरना था। उसी जगह नित्य कर्म , स्नानादि से फुर्सत पा के हम लोग ' क्विक मार्च ' चल पड़े। दौड़ते तो नहीं ही थे। हाँ , खूब तेज चलते थे। रात भर नाव में पड़े-पड़े एक तरह की थकावट आ गई थी। उसे मिटाना और सवेरे टहलना ये दोनों ही काम हमें करने थे। इसीलिए कुछ तेज चलना जरूरी था। रास्ते में पता लगना मुश्किल था कि किधर जा रहे थे। चारों ओर मक्की ही मक्की खड़ी थी। उस इलाके में यह फसल खूब होती है और बरसात शुरू होते ही तैयार भी हो जाती है। जब और जगह देहातों में मक्की का भुट्टा देखने को भी नहीं मिलता तभी वहाँ उसकी फसल पक के तैयार हो जाती है।
इस तरह नौ-दस बजे उस आश्रम पर पहुँचे जहाँ श्री नागेश्वर सेन ने सभा की तैयारी कर रखी थी। वहाँ देखा कि दूध-दही का टाल लगा था। बहुत लोगों के खाने-पीने की तैयारी थी। दूर-दूर से आनेवाले किसानों को भी खिलाने-पिलाने का इंतजाम था। इसीलिए इतना सामान मौजूद था। किसान गाय-भैंसें पालते ही हैं। एक वक्त का दूध दे दिया और काफी हो गया। गरीब और पीड़ित होने पर भी किसान कितना उदार है इसका अनुभव मुझे बहुत ज्यादा है। मगर जो कोई अनजान आदमी भी वहाँ जाता वह यह देख के हैरत में पड़ जाता। या तो धनियों की ही सभा की तैयारी समझता , या किसानों की उदारता पर ही मुग्ध होता।
तीसरे पहर वहाँ बहुत बड़ी मीटिंग हुई। जमींदारों के हाथों किसान वहाँ किस प्रकार सताए जाते हैं और उनकी खास शिकायतें क्या हैं ये सब बातें मुझे मालूम हुईं। मैंने उनका उपाय सुझाया और किसान खुशी-खुशी सुनते रहे। इस प्रकार सभा का कार्य कर चुकने पर दूसरे दिन कहारों के कंधे पर बैठ के मैं नारायणपुर स्टेशन तक गया। वहीं गाड़ी पकड़ के बिहटा लौटा। साथ में आश्रम के लड़कों के लिए एक बोरा भुट्टा भी लेता गया।
(16)
सन 1933 ई. वाला जुलाई का महीना था। जहाँ तक याद है , 15वीं जुलाई की बात है। तारीख इसलिए याद है कि किसान-सभा की तरफ से गया के किसानों की जाँच का काम हमने पहले-पहल शुरू किया था। सो भी ऐन बरसात में। उसकी लंबी रिपोर्ट की दुहरी प्रति तैयार करने में हमें महीनों लग गए थे। असल में अमावाँ टेकारी के जमींदार राजा हरिहरप्रसाद , नारायण सिंह की ही जमींदारी गया जिले में चारों ओर फैली है। इसलिए उनके साठ गाँवों में जा के हमें कच्चे चिट्ठे का पता लगाना जरूरी था। जिले भर के साठ गाँवों से सारी जमींदारी की कलई पूरी तरह खुल जाती थी। इसलिए उतने गाँवों में जाना पड़ा। जब राजा साहब ने हमारी रिपोर्ट माँगी , ताकि हालत जान के कुछ कर सकें , तो हमें मजबूरन दो प्रतियाँ तैयार करनी पड़ीं। बेशक , इस परेशानी का और बाद में बातचीत वग़ैरह में जो वक्त बीता उसका कुछ भी नतीजा नहीं हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि इस समूची घटना ने मेरे दिल पर यह अमिट छाप लगा दी कि जमींदारी मिटाने के सिवाय किसानों को अत्याचार और मुसीबतों से उबारने का और कोई रास्ता हई नहीं। मेरे दिल में जो यह खयाल कभी-कभी हो आता था कि शायद गाँधी जी की बातें सही हों और जमींदार सुधर जाएँ , वह इस घटना के बाद सदा के लिए मिट गया और मैंने दिल से मान लिया कि जमींदारी ला-इलाज मर्ज है। ' गया के किसानों की करुण कहानी ' के नाम से उस रिपोर्ट की प्रधान बातें पुस्तक के रूप में पीछे छापी भी गईं। इन्हीं सब कारणों से और आगे लिखी वजहों से भी वह बरसात की 15वीं जुलाई अभी तक भूली नहीं।
उसी दिन मैं , पं. यमुना कार्यी , पं. यदुनंदन शर्मा और डॉ युगलकिशोर सिंह किसानों की हालत जाँचने के लिए प्रांतीय किसान-सभा की तरफ से जहानाबाद पहुँचे थे। पं. यदुनंदन शर्मा ने गया जिले में हमारा रोज-रोज का प्रोग्राम ठीक किया था। घोर देहातों में वर्षा के दिनों में जाँच का प्रोग्राम पूरा होना , जो अपने ढंग का पहला ही था , आसान न था। दस-दस , पंद्रह-पंद्रह मील और इससे भी ज्यादा दूरी पर हमें ठीक समय पर पहुँचना था। नहीं तो जाँच असंभव हो जाती। फिर किसानों को जमा करना गैर-मुमकिन जो हो जाता अगर हम एक दिन भी चूक जाते। जाँच के काम के बाद हमें उनकी बड़ी-बड़ी सभाओं में उपदेश देना भी जरूरी था। इसलिए शर्मा जी ने ऐसा सुंदर प्रबंध किया था कि एक दिन भी हमारे काम में गड़बड़ी न हो सकी। देहाती रास्तों को तय कर के हम बराबर ही ठीक समय पर सभी जगह पहुँचते गए। एक जगह हमारा काम पूरा भी नहीं हो पाता कि दूसरी जगह से सवारी आ जाती। यह भी था कि सवारी की जहाँ कोई भी आशा न होती वहाँ हम पैदल ही जा धमकते। आखिर मूसलाधार वृष्टि में सवारी कौन मिलती और कैसे ? जो काम बाबुआनी ढंग से कांग्रेस की जाँच कमेटी गर्मियों और जाड़ों में कर न सकी वही हमने मध्य बरसात में इस खूबी से पूरा किया कि हम खुद हैरत में थे कि यह कैसे हो सका! दूसरे लोग तो इसे असंभव ही समझे बैठे रहे। सबसे बड़ी बात यह हुई कि किसानों की मुस्तैदी और तैयारी का हमें विश्वास हो गया , बशर्ते कि पं. यदुनंदन शर्मा जैसे कार्यकर्ता उन्हें मिल जाएँ। हमने मान लिया कि क्षेत्र तैयार है। सिर्फ धुनी किसान-सेवकों और पथ-दर्शकों की जरूरत है। यह हमारा विश्वास , जो उस समय की किसानों की आकस्मिक मुस्तैदी से हुआ था , तब से बराबर मजबूत होता ही गया है।
यह मानी हुई बात है कि किसान-सभा के पास कोई कोष न था। अभी-अभी तो वह पुनजीर्वित हुई थी। और सच्ची बात तो यह है कि सभा में कोष कभी रहा ही नहीं है , हालाँकि मौके पर उसके नाम से हजारों रुपए खर्च होते रहे हैं। असल में जनता की संस्थाओं के पास स्थायी कोष होना भी नहीं चाहिए। यह तो मध्यम वर्ग की संस्थाओं की ही चीज है कि रुपए जमा हों। उनका काम रुपयों के बिना चली नहीं सकता। मगर विपरीत इसके जनता की संस्थाओं का असली कोष है उन पर जनता का पूरा-पूरा विश्वास और प्रेम। फिर तो अन्न-धन की कमी हो सकती नहीं। हाँ , वह मिलता रहता है उतना ही जितने की समय-समय पर जरूरत हो। न ज्यादा मिलता है और न कम। सिर्फ काम चलाऊ मिलता है। ईमानदार संस्थाएँ ज्यादा वसूली खुद ही नहीं करती हैं। अगर कहीं ज्यादा हो गई तो खामख्वाह उसका सदुपयोग होना असंभव हो जाता है। कुछ-न-कुछ ऐसा उपयोग होता ही है जिसकी कोई जरूरत न हो। नतीजा यह होता है कि यह पाप छिपता नहीं और संस्था में घुन लग जाता है। पैसा जमा हो जाने पर सेवा की जगह एक तरह की महंथी ले लेती है और कोढ़ी लोगों का प्रवेश उन संस्थाओं में होने लगता है , जब कि पहले केवल धुनी और परिश्रमी लोग ही आते थे।
हमारी उस जाँच में किसानों ने न सिर्फ सवारी और हमारे खान-पान आदि का ही प्रबंध किया , बल्कि जाँच के हर केंद्र में उनने यथाशक्ति पैसे का भी पूरा प्रबंध किया जो चुपचाप शर्मा जी के हवाले कर दिया करते थे। हमें रेल से भी कभी-कभी जाने का मौका मिला। पटने से तो रेल से ही गए थे। शहर में जाने पर सवारी और खान-पान का भी खर्च जरूरी था , इसीलिए उनने पैसे का प्रबंध किया था। जब एक जाँच खत्म कर के रवाना होने लगते तो पैसे मिल जाते। हमें यह भी पता लगा कि वे पैसे सभी किसानों से थोड़ा-थोड़ा कर के ही वसूल किएगए थे। जाँच के केंद्र में हमारे खान-पान या सवारी के खर्च का प्रबंध कर लेने पर जो बच जाता वही हमें मिलता। वही हमारी जरूरत के लिए काफी होता। जाँच का आखिरी काम हमने फतहपुर थाना , गया के सदर सब-डिविजन में किया था। वह निरा जंगली और पहाड़ी इलाका है। अमावाँ , महंथ गया आदि की जमींदारियाँ हैं। महंथ ने तो किसानों को पस्त और पामाल कर दिया है। अमावाँ के भी जुल्म कम नहीं हैं। पिछड़े हुए इलाके में जुल्म खामख्वाह ज्यादा होते ही हैं। मगर हमें यह जानकर ताज्जुब हुआ कि वहाँ भी हमारी खर्च के लिए काफी पैसे वसूल हो गए थे। असल में वहीं हमें पता चला कि सभी जगह किसान जाँच के बाद शर्माजी को पैसे देते रहे हैं। कोई जाँच-केंद्र नागा नहीं गया है।
बाहरी दुनियाँ को शायद विश्वास न हो और ताज्जुब हो कि किसान-सभा की प्रारंभिक हालत में ही यह बात कैसे हो सकी। मगर मैं बिहार प्रांतीय किसान-सभा के बारे में पक्की-पक्की बात कह सकता हूँ कि मुश्किल से सौ-दो सौ रुपए आज तक हमें हमारे शुभचिंतकों से मिले होंगे , सो भी दस-बीस के ही रूप में , न कि एक बार। ज्यादे से ज्यादा पचास रुपए एक बार एक ने दिए , सो भी यूनाइटेड पार्टी के झमेले के ही समय सन 1933 ई. के शुरू में ही। लेकिन आज तक हमारी सभा ने लाखों रुपए जरूर ही खर्चे होंगे। केवल मेरी सफर में ही , जो महीने में पचीस दिन तो जरूर ही होती रहती है और कभी-कभी ज्यादे दिन भी , साल में कम-से-कम पाँच-छः हजार रुपए खर्च होई जाते होंगे। यह सिलसिला प्रायः दस साल से जारी है। होता है यही कि जहाँ जिसे मुझे बुलाना होता है वहीं से मेरे सफर खर्च का प्रबंध जरूरी है। अंदाज से उतने पैसे या तो पहले ही भेज दिए जाते हैं या वहाँ जाने पर मिल जाते हैं वहाँ के लोग पूछ लेते हैं कि खर्च कितना चाहिए। मैं भी जितने से काम चले उतना बता देता हूँ। कभी दो-चार रुपए ज्यादा भी मिल जाते हैं जब वे लोग खुद देते हैं बिना पूछे ही। दूसरे प्रांतों में दौरा करने पर भी यही होता है। फलतः ' कुआँ खोदो और पानी पियो ' वाला सिद्धांत ही मेरे साथ चलता है। न तो ज्यादा बचता है और न काम रुकता है। यदि बचता भी है तो साल में दस-बीस ही , सो भी एक-दो के हिसाब से ही। ठीक ही है , ' बासी बचे न कुत्ता खाए। ' अब तो यह सभी जानते हैं कि मेरे दौरे का खर्च किसानों को ही करना पड़ता है। इसीलिए पहले से ही जमा कर रखते हैं। हाँ , जमींदारों और उनके दोस्तों को शायद यह मालूम न हो। किंतु हमें उससे गर्ज ही क्या है ? वे मेरे खर्च के बारे में अंदाज लगाते रहें कि कौन देता है। जो किसान उन्हें और दुनियाँ को देता है वही मुझे क्यों न दे यदि मैं उसी का काम करने जाऊँ ? उसे विश्वास होना चाहिए कि मैं उसके लिए मरता हूँ या उसके दुश्मनों के लिए , और यह विश्वास उसे है यह मेरा यकीन है। तब और चाहिए क्या ? और अगर मैं उस किसान की आशा छोड़ पैसे के लिए औरों का , जो प्रायः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके शत्रु ही हो सकते हैं , मुँह देखूँ तो मुझ-सा धोखेबाज और पापी कौन होगा ? यदि किसान-सभा भी ऐसा करे तो वह किसानों की सभा हर्गिज नहीं हो सकती है , ऐसा मैं मानता हूँ।
हाँ , तो जहानाबाद से पहले दिन अलगाना और दूसरे दिन धनगाँवा जाना था। ये दोनों गाँव जहानाबाद से पूर्वोत्तर और पूर्व हैं। कभी हरे-भरे थे। मगर अब वीरान हैं। उन गाँवों में जाँच के सिलसिले में जो बातें मालूम हुईं उनका वर्णन हमें यहाँ नहीं करना है और न दूसरे गाँवों का ही। ' करुण कहानी ' में ये सभी बातें लिखी हैं। मगर दो-एक घटनाएँ ऐसी हैं जिन्हें यहाँ लिख देना है। कहते हैं कि जीव एक दूसरे को खा के ही कायम रह सकते हैं ' जीवो जीवस्य जीवनम। ' अलगाना में टेकारी की जमींदारी के एक पटवारी हमें मिले। वह किसानों के साथ लगान की वसूली में खूब सख्ती करते थे। फिर भी कबूल करने को तैयार न थे। एक दिन बातों बात में वे बोल बैठे कि टेकारी की ही जमींदारी में किसी और मौजे में रहते हैं। बकाया लगान में जमीन नीलाम हो गई , तो यहाँ नौकरी करने लगे। पूछने पर यह बात भी उनने कबूल की कि लगान एक तो ज्यादा था। दूसरे फसल भी मारी गई लगातार। इसीलिए चुकता न कर सके जिससे खेत नीलाम हो गए। मगर अलगाना में वे खुद दूसरों की जमीन नीलाम करवाने में लगे थे और इस तरह अपनी जीविका चलाते थे। असल में जमींदारी की मशीन के लिए तेल का काम ये उजड़े किसान ही करते हैं। वही इसे चलाते हैं। इसका प्रत्यक्ष दृष्टांत हमें वे पटवारी साहब मिले। इसीलिए जान-बूझ के किसानों को तबाह किया जाता है। नहीं तो जमींदार की नौकरी कौन करता , सो भी दस-पाँच रुपए महीने की ? जमींदारी का पौधा पनपता और फूलता-फलता है किसानों के खून से ही!
धनगाँवा में हमें पता चला कि एक तो साग-तरकारी के खेतों को सींचने के लिए पुराने जमाने में जमींदार ने जो चार बड़े कुएँ बनवाए थे वे खराब हो गए और उनकी मरम्मत न हुई। दूसरे चुनाव के जमाने में जमींदार के तहसीलदार या सर्किल अफसर उम्मीदवार होते और मुफ्त ही साग-तरकारी वोटरों को खिलाने के लिए ले जाते हैं। क्योंकि धनगाँवा जहानाबाद से निकट है। इसलिए हार कर कोइरी लोगों ने साग तरकारी की खेती ही बंद कर दी। अब सभी केवल धान की खेती करते हैं। वह भी कभी चौपट होती और कभी कुछ सँभलती है। क्योंकि नदी का बाँध खत्म हो जाने से पानी के बिना धान मर जाता है। जमींदार बाँध की मरम्मत करता नहीं और दस-पाँच हजार रुपए लगाना किसानों के लिए गैर-मुमकिन है।
हमें मझियावाँ जाना था। रात में महमदपुर ठहरे थे ─ वही महमदपुर जहाँ के किसानों ने अपने संगठन और मुस्तैदी से पीछे चलके जमींदारों के नाकों चने चबा दिए और आखिरकार पूरे अस्सी बीघे नीलाम जमीन जमींदारों ने उन्हें ही जोतने-बोने दी। क्योंकि नीलामी के बाद जो जो कांड हुए उसमें जमींदारों को लेने के देने पड़े और काफी घाटा हुआ। जब किसानों ने उनका मद अपनी मुस्तैदी से उतार दिया तो आखिर करते क्या ? इसका पूरा वृत्तांत तो ' किसान कैसे लड़ते हैं ' पुस्तक में मिलेगा। रात में खूब पानी पड़ा था और सुबह भी जारी था। मझियावाँ आठ-नौ मील से कम न था , सो भी बरसात में , यों तो देहाती लोग नजदीक ही कह देते हैं। सवारी का प्रबंध असंभव था। पानी में होता भी क्या ? वहाँ की मिट्टी केवाल की (काली-चिकनी) है। पाँव फिसलते देर नहीं , इतनी सख्त होती है। कहीं-कहीं नर्म भी इतनी होती है कि पाँव को छोड़ना ही नहीं चाहती। घुटने तक जा लिपटती है। रास्ते में एक गहरा नाला भी है। मगर हमें तो प्रोग्राम पूरा करना था। सो भी मझियावाँ बहुत ही मजलूम है। राजा अमावाँ ने उसे भून डाला है। अभी-अभी बकाश्त संघर्ष के बाद कुछ सँभलने लगा है। इसी गाँव ने पं. यदुनंदन शर्मा को जन्म दिया है। उस समय लाखों रुपए लगान के बाकी थे ऐसा कहा जाता था।
ऐसे गाँव में यदि न जाते तो सारा गुड़ गोबर ही हो जाता। वहाँ जल्दी कोई पहुँचता भी नहीं। वहाँ का रास्ता कुछ ऐसा है। इसलिए हम लोग हिम्मत कर के चल पड़े। उछलते-कूदते , गिरते-पड़ते बढ़ते जाते थे। यात्रा बेशक बड़ी भयंकर थी। हमारी उस दिन आग्नि-परीक्षा थी। यदि फेल होते तो कहीं के न रहते। मझियावाँ ने सन 1939 ई. की बरसात के समय जो बहादुरी बकाश्त की लड़ाई में दिखाई और विशेषतः वहाँ की स्त्रियाँ जिस मुस्तैदी से लड़ के विजय पाने में समर्थ हुईं उसका बीज हमने सन 1933 ई. की बरसात में ही उसी जाँचवाली यात्रा में बोया था। वही छः साल के बाद फल-फूल के साथ तैयार हो गया। तब तो साफ ही है कि उस दिन चूकने से काम खराब हो जाता। इसलिए हँसी-खुशी चल पड़े थे। तारीफ की बात यही थी कि हममें कोई भी हिचकनेवाला न दीखा। सभी ने उत्साह के साथ आगे बढ़ना ही पसंद किया। नहीं तो मजा किरकिरा हो जाता। ऐसे समय में दुविधे से काम बिगड़ता है।
नतीजा यह हुआ कि हम दोपहर के पहले ही मझियावाँ ठाकुरबाड़ी पर जा पहुँचे। लोग तो निराश थे कि हम पहुँच न सकेंगे। मगर हमें देख किसानों में बिजली दौड़ गई। जो काम हमारे हजार लेक्चरों और उपदेशों से नहीं होता वही उस दिन की हमारी हिम्मत ने कर दिया। इसे ही कहते हैं मौन या अमली उपदेश। ' कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ ' में ' कर दिखाऊँ ' इसी का नाम है।
मझियावाँ के किसानों की जो दरिद्रता हमने पहले-पहल देखी वह कभी भूलने की नहीं। जमींदार कितने निर्दय और वज्र हृदय हो सकते हैं। यह चित्र हमारी आँखों के सामने पहले-पहल खिंचा वहीं पर। हमने घर-घर घूम के उनकी दशा देखी , उस पर खून के आँसू बहाए और जमींदारी को पेट भर के कोसा।
(17)
सन 1938 ई. की बरसात गुजर चुकी थी। आश्विन या कार्तिक का महीना होगा। अभी तक देहाती सड़कों की मरम्मत न हो सकी थी। किसान रबी की फसल बोने में लगे थे। रास्तों में कीचड़ और पानी की कमी न थी। ठीक उसी समय श्री विश्वनाथ प्रसाद मर्दाना ने बलिया जिले में हमारे दौरे का प्रोग्राम बनाया। हमें युक्तप्रांत के कई जिलों में दौरा करना था। श्री हर्षदेव मालवीय (इलाहाबाद) ने उसका प्रबंध किया था। बदकिस्मती से कहिए या खुश-किस्मती से , बलिया जिले के लिए केवल एक ही दिन का समय मिला था और मर्दाना ने एक ही दिन में एक छोर से दूसरे छोर तक तीन-चार मीटिंगों का प्रबंध किया था। मोटर से चलना था। पर सड़कें तो न मोटर के बस की थीं और न मर्दाना के ही कब्जे की। उन सड़कों के ही बल पर चार मीटिंगों का इंतजाम करना खतरे को मोल लेना था। हुआ भी ऐसा ही। मगर मर्दाना तो मर्दाना ही ठहरे। उनमें जोश और हिम्मत काफी है। उम्र थोड़ी होने से खतरे का सोच-विचार जरा कम करते हैं। जो होगा सो देखा जाएगा , यही खयाल रहता है। इसीलिए खतरे के साथ खेलने में उन्हें मजा आता है। हमारे कार्यकर्ताओं में आमतौर से जवाबदेही का उतना खयाल नहीं है जितना होना चाहिए और यह बात आंदोलन के लिए बहुत बुरी है। देहात की सभाओं के प्रबंध के सिलसिले में बहुत बड़े और जवाबदेह कहे जानेवालों की खतरनाक गैर-जवाबदेही देख के मुझे हैरत में आ जाना पड़ा है , सो भी बार-बार। यह हमारी बहुत बड़ी कमी है जो मुझे रह-रह के बुरी तरह अखरती है।
हाँ , तो बलिया स्टेशन पर आधी रात के बाद ही हम लोग उतरे थे और वेटिंग रूम में ही ठहर गए। सवेरे ही खा-पी के रवाना हो जाने की तैयारी थी। एक ही मोटर थी। उसी पर जितने लोग लद सके लद के रवाना हो गए। रेवती , सहतवार , बाँसडीह और मनियार इन चार स्थानों में सभाएँकर के अगले दिन सुबह के पहले ही प्रायः दो ही बजे बेलथरा रोड स्टेशन पहुँच के बस्ती जाने की ट्रेन पकड़नी थी। जिले के पूर्वी सिरे के करीब पहुँच के पहली मीटिंग थी और उत्तर-पश्चिमी किनारे पर पहुँच के रेलगाड़ी पकड़नी थी। सड़कें तो सब की सब कच्ची ही थीं केवल शुरू में ही थोड़ी सी पक्की मिली। बरसात ने उनकी ऐसी फजीती कर डाली थी कि रास्ते भर मोटर उछाल मारती थी। मुझे तो सबसे ज्यादा ताज्जुब उस मोटर की मजबूती पर था जो टूटी नहीं और अंत तक काम करती ही गई।
दोहपर के करीब हम लोग रेवती पहुँचे। एक बाग में मीटिंग का प्रबंध था। पास में ही एक डिप्टी साहब का खेमा था। शायद तकावी या इसी प्रकार का कर्ज वे बाँट रहे थे गरीब किसानों को। मगर उनने कृपा की और हमारी मीटिंग में बाधा नहीं हुई। हमने अपनी बात किसानों को कह सुनाई और बाँसडीह के लिए चल पड़े। रास्ते में ही सहतवार गाँव पड़ा। जाने के समय भी पड़ा था और वहाँ के लोगों ने हमें रोकने का तय कर लिया था। जब लौटे तो मजबूर होना पड़ा। देहात का यह एक अच्छा बाजार है। लोग जमा हो गए। दूसरे गाँवों के भी लोग थे। पेड़ों के बीच एक ऊँची पक्की जगह पर , जो शायद एक मंदिर की है , हमने उन्हें अपना कर्त्तव्य समझाया और किसानों के लिए क्या करना जरूरी है यह बताया। फिर फौरन ही बाँसडीह का रास्ता लिया।
बाँसडीह में बड़ी तैयारी थी। कोठे पर ठहरे। बहुत लोग वहीं जमा हो गए। उनसे बातें होती रहीं। फिर नीचे काफी भीड़ हुई। हमें मजबूरन कोठे पर ही छत के किनारे से उपदेश देना पड़ा ताकि नीचे और ऊपर के सभी लोग अच्छी तरह सुन सकें। दूसरी जगह जाने में देर होती और हमें अभी मनियर जाना था , जो वहाँ से काफी दूर था। इसीलिए कोठे पर से ही उपदेश देने का प्रबंध किया गया था। हमने वहाँ का काम भी जल्दी-जल्दी में खत्म किया और चटपट मनियर के लिए रवाना हो गए। असल में सबसे बड़ी और तैयारीवाली सभा मनियर में ही थी। खुशी यही थी कि वह सभा रात में होने को थी। यदि दिन में होती तो हम हर्गिज वहाँ पहुँची न सकते। अँधेरा तो हो गया पहुँचते ही पहुँचते। मर्दाना ने रात में उसका प्रबंधकर के दूरंदेशी और जवाबदेही का परिचय जरूर दिया था।
बेशक , जैसी आशा थी नहीं वैसी सभा वहाँ हुई। हमने स्थान की तैयारी वगैरह देखी सो तो देखी ही। हमें उस चीज ने आकृष्ट नहीं किया। हाँ , जब देखा कि सैकड़ों किसान-सेवक (वालंटियर) वर्दी पहने और हाथ में लाठी लिए चारों तरफ तैनात थे और भीड़ को कब्जे में रख रहे थे तो हमें बड़ी ही खुशी हुई। मीटिंग का प्रबंध , बोलने आदि का तरीका ये सभी बातें सराहनीय थीं। वहाँ पर हम घंटों बोलते रहे और किसानों की समस्याओं को खोल के लोगों के सामने रख दिया। असल में उस दिन की चार मीटिंगों में पहली में हम अच्छी तरह बोल सके थे हालाँकि जल्दी में जरूर थे। मगर मनियर में तो निश्चिंत हो के बोलते रहे। लोग भी ऐसे शांत थे कि गोया हमारी बातें मस्त हो के पीते जाते थे। कांग्रेसी मंत्रिमंडल के युग में भी किसानों की तकलीफें पहलें जैसी ही रह गईं यह देख के लोगों में बहुत ही क्षोभ था। लोग अब असलियत समझने लग गए थे। अब तो बातों से नहीं , किंतु कामों से मंत्री लोगों की जाँच कर रहे थे और साफ देख रहे थे कि उनकी बातें डपोरशंखी निकलीं। इसीलिए मुझसे इसका रहस्य सुनने और समझने में उन्हें मजा आ रहा था। किसान-सभा की जरूरत वे लोग अब समझने लगे थे।
खैर , सभा तो खत्म हुई और हम लोग डेरे पर आए। मैंने दूध पिया और साथियों ने खाना खाया। इतने में रात के दस-ग्यारह बज गए। हम चलने की जल्दी में थे। बस्ती जिले का प्रोग्राम बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। असल में वहाँ की यह यात्रा पहली ही थी। बलिया में तो कई बार आ चुके थे। सो भी एक जालिम जमींदारी के किसानों का जमाव था। इसलिए मुझे बड़ी चिंता थी ट्रेन पकड़ने की। मगर मोटर के करते साथी जरा निश्चिंत थे। फलतः खा-पी के रवाना हो गए। मोटर पच्छिम की ओर चल पड़ी। हाँ , यह कहना तो भूली गया कि सरयू नदी की बाढ़ ने लोगों के घरों और उनकी फसलों को बर्बाद कर दिया था। सड़कें भी उसने चौपट कर दी थीं। रास्ते में बर्बाद गाँवों और घरों को देखते चले जा रहे थे। लोग बाहर निकल-निकल के हमें अभिवादन करते थे। उन्हें हमारी खबर तो थी ही। कुछ लोग सभा में लौटे भी थे। इस प्रकार हम आगे जाई रहे थे कि पता लगा कि आगे सड़क टूटी है। मोटर ' पास ' नहीं कर सकती। यदि बगल से जा सकें तो जाएँ। मगर पक्का रास्ता बतानेवाला कोई न था। बस , मैं तो सन्न हो गया और जान पड़ा कि कोई गड़बड़ी होनेवाली है। कलेजा धक-धक कर रहा था।
मोटर रास्ता छोड़ के खेतों से चली। अंदाज से ही ड्राइवर चला रहा था। एक तो रात , दूसरे अनजान रास्ता , तीसरे मोटर और खेतों से उसका चलना! यह गजब की बात थी! हम लोग सचमुच ही मौत के साथ उस समय खेल रहे थे। खेतों से घूमती-घामती और बागों से होती मोटर धीरे-धीरे इस ढंग से चल रही थी कि आगे फिर सड़क मिल जाएगी , जो ठीक होगी। जरूरत होने पर हममें से एकाध उतर के आगे रास्ता देख आते। तब मोटर बढ़ती। ऐसा होते-होते एक बार एकाएक हममें से एक बोल उठा कि “ कुआँ है , कुआँ है! “ ड्राइवर ने मोटर फौरन रोक दी। असल में बहुत ही धीमी चाल से चलती थी तभी हम बच सके। नहीं तो मोटर ही कुएँ में जा गिरती। कुआँ बरसात में घास से छिपा था। जब उसके ऐन किनारे में पहुँचे तभी वह नजर आया और हम लोग बाल-बाल बचे।
फिर आगे बढ़े। मगर सड़क लापता थी। हालाँकि अपने खयाल से हम लोग उसके नजदीक से ही चल रहे थे। असल में तो हमें रास्ता ही नहीं मिला कि सड़क की ओर बढ़ें। सर्वत्र कीचड़-पानी से ही भेंट होती रही। इसी तरह आगे बढ़ते और घूम-घुमाव करते जा रहे थे। नतीजा यह हुआ कि हम लोग सड़क से एक तो बहुत दूर हट गए। दूसरे पच्छिम ओर चलते-चलते पूर्व की ओर हो गए। मोटर के चक्कर और घुमाव के करते ही ड्राइवर को भी और हमें भी पता ही न लगा कि किधर से किधर जा रहे हैं। यों ही चलते-चलाते हालत यह हुई कि जोते खेतों से हम गुजरने लगे। यह थी तो हमारी सरासर नादानी। मोटर की सवारी में अँधेरी रात में ऐसा काम करने की हिम्मत भला कौन रकेगा कि रास्ता छोड़ के खेतों से अनजान दिशा में अंदाज के ही बल चले ? मगर “ आरत करहिं विचार न काऊ “ वाली बात थी। हमें अगले दिन का प्रोग्राम पूरा करना था। और मर्दाना ने पक्का पता सड़क का न लगा के हमें जो यों ही कह दिया कि सड़क ठीक है वह उसी का प्रायश्चित्त हमें किसी प्रकार ठीक समय बेलथरा पहुँचा के करना चाहते थे। इसीलिए उस समय हमें मौत भी भूल गई थी। नहीं तो कुएँवाली घटना के बाद तो खामख्वाह रुक जाते।
इतने में एकाएक एक झील के किनारे हमारी मोटर जा पहुँची। जोते हुए खेतों से चलते-चलते हम समझी न सके कि किधर जा रहे हैं। तब तक पानी के किनारे जा पहुँचे। यह भी अंदाज हुआ कि यह झील लंबी है। अब हम निराश हो गए और घड़ी देखने लगे। पता चला कि दो से ज्यादा समय हो गया है। अब तक हम इस फिराक में थे कि रेल की सीटी सुनें या ट्रेन की आहट पाएँ। खयाल था कि स्टेशन निकट है। मगर अब निराश हो गए। जो तकलीफ उस समय हमें हुई कि आज का प्रोग्राम चौपट हुआ उसे कौन समझ सकता था ? यदि समझनेवाले होते तो अब तक किसान कहाँ-से-कहाँ चले गए होते! अब सोचा गया कि यहीं रुक जाएँ। क्योंकि पता ही न था कि किधर जा रहे हैं। आगे पानी भी तो था। सारी रात जगे थे। पहले दिन चार सभाओं में बोलते-बोलते पस्त भी हो चुके थे। सोने का कोई सामान न था। चिंता अलग प्राण ले रही थी। इतने में फिर देखा कि तीन से भी ज्यादा बज चुके थे।
लाचार , सोचा गया कि सुबह चलेंगे। मगर नींद कहाँ ? वह भी तो तभी आती है जब आराम और मौज के सामान मौजूद रहते हैं। अकेली तो आना जानती नहीं। लाचार किसी प्रकार कुछ घंटे काटे। फिर खयाल आया कि सारे साज-सामान के साथ चलना है। इसलिए बैलगाड़ी तो जरूर ही चाहिए। उसके लिए दो-एक साथी पास के गाँव में गए भी। मगर मेरे साथ तो एक और बला आ लगी। पहले दिन की दौड़-धूप और परेशानी के बाद भी रात में नींद हराम रही। इसलिए मेरी आवाज कतई बंद हो गई। गला ऐसा रुँधा कि ताज्जुब होता था। मेरी जिंदगी में गले की यह हालत पहली ही बार हुई और शायद आखिरी बार भी। जरा भी आवाज निकल न सकती थी। मेरी आवाज बड़ी तेज मानी जाती है। मगर वह एकाएक कहाँ-क्यों चली गई-यह कौन बताए सिवाय डॉक्टरों और वैद्य-हकीमों के ? बुखार भी हो आया। फिर भी जैसे-तैसे बैलगाड़ी पर बैठ के बेलथरा रोड पहुँचना तो था ही। पहुँच भी गए। उसी समय युक्तप्रांत के श्री मोहनलाल सक्सेना कांग्रेसी मंत्रिमंडल का दमामा बजाते बेलथरा पहुँचे थे। उनकी सभा थी। लोगों ने बोलने का हठ मुझसे भी किया। हालाँकि सक्सेना चौंकते थे। मगर यहाँ तो आवाज ही बंद थी। इसलिए बला टली।
स्टेशन पर ही बस्तीवालों को अपनी लाचारी का तार दे के संतोष करना पड़ा। दूसरा चारा था भी नहीं। फिर तय पाया कि बनारस चल के गला ठीक करें। तब दौरा करेंगे। सभी जगह खबर भेज के प्रोग्राम स्थगित किया गया और हम लोग काशी में बाबू बेनीप्रसाद सिंह के यहाँ पहुँचे। वहीं दो या तीन दिनों में गला ठीक कर के फिर दौरा आरंभ किया गया।
(18)
ठीक तारीख और साल याद नहीं। बिहार की ही घटना है। सो भी पटना जिले की ही , बिहटा से दक्षिण मसौढ़ा परगने के नामी जालिम जमींदारों की जमींदारी की। भरतपुरा , धरहरा के जमींदारों से कोई भी जमींदार इस बात की तालीम पा सकता है कि जुल्म कितने प्रकार के और कैसे किए जा सकते हैं। खूबी तो यह कि सरकार और उसके कानूनों की एक न चले और किसान की कचूमर भी निकल आए। अब तो किसान-सभा के प्रताप से जमाना बदल गया है और उन्हीं जमींदारों को वहीं के पस्त किसानों ने नाकों चने चबवा दिए हैं। जो जमींदार भावली लगान की नगदी न करने में आकाश-पाताल एक कर डालते थे , क्योंकि भावली (दानाबंदी) के चलते उन्हें पूरा फायदा था। उससे किसान तबाह भी हो जाते थे। वही आज झखमार के नगदी करने को उतारू हो गए। किसानों ने थोड़ी सी हिम्मत , समझदारी और दूरंदेशी से काम लिया और वे जीत गए। किसानों की सचाई और ईमानदारी से बेजा फायदा उठा के उन्हें ही तंग करनेवाले जमींदारों के साथ कैसा सलूक करना ठीक है यह बात किसानों की समझ में आ गई और काम बन गया। उनने समझ लिया कि सबके साथ युधिष्ठिर और धर्मराज बनना भारी भूल है। इतने ही से पासा पलट गया।
हाँ , तो धरहरा के ही एक जमींदार की कोठी ऐन पक्की सड़क पर ही अछुवा मौजे में बनी है। मौजा उन्हीं हजरत का है। वहाँ के किसान अधिकांश कोइरी हैं। यह एक पक्की किसान जाति है। कोइरी लोग सीधे-सादे , प्रायः अपढ़ और बड़े ही ईमानदार होते हैं। झगड़ा करना तो जानते ही नहीं , सो भी जमींदारों या उनके मामूली अमलों तक के साथ। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि मनुष्यों में यह जाति गौ है। इतनी परिश्रमी और खून को पानी बना के खेती करनेवाली कि कुछ कहिए मत। जेठ की धूप की लपट और धू-धू करती दुपहरी के समय मैदान में साग-तरकारी के खेतों को ये दिन-रात सींचते रहते हैं। तब कहीं जमींदार का कड़े से कड़ा पावना चुका पाते हैं। धान या रबी की पैदावार से काम नहीं चलता। इसीलिए अपने आपको झुलसा डालते हैं। फिर भी जमींदार ऐसा जल्लाद होता है कि हर घड़ी इनके खून का ही प्यासा रहता है। उसका पेट तो कभी भरता नहीं। वह तो कुंभकर्ण ठहरा। फिर पेट भरे तो कैसे ? उसे जितना ही ज्यादा मिलता है उसकी माँगें उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती हैं। इसीलिए स्त्री-पुरुषों , बाल-बच्चों और बूढ़ों तक के बदन को झुलसा के भी जमींदार की माँगों को पूरा करना किसान के लिए गैर-मुम्किन है। इसी से अछुवा के गरीब कोइरी किसान भी जमींदारी जुल्म के शिकार हो चुके थे।
असल में वहाँ के जमींदार सभी किसानों से , खासकर पिछड़ी जातिवालों से , दिन भर मुफ्त काम करवाते रहते थे। बहुत तड़के उनके दरवाजे पर किसानों का पहुँच जाना लाजिमी था। फिर रात होने पर घर जाते थे। और तो क्या मिलेगा , दिन में एक बार भोजन तक मुहाल था यदि खुद घर से खाने के लिए साग-सत्तू न लाते। यदि जमींदार ने भूखे और लावारिस कुत्तों के टुकड़ों की तरह कभी दो-चार पैसे या पाव-आध सेर दे दिया तो गनीमत! फिर भी हिम्मत न थी की चूँ करें या दूसरी बार काम पर न आएँ। चाहे हजार काम बिगड़े तो बिगड़े। मगर जमींदार के यहाँ बेगारी करने जाना ही होगा! एक बार मजबूरन एक किसान नहीं जा सका। इसी के फलस्वरूप न सिर्फ वह , बल्कि सारा गाँव तबाह किया गया। इसीलिए अछुवावाले थर्र मारते रहते थे। जमींदार के नाम पर उनकी रूह काँपती थी।
जमींदार ने तरीका ऐसा निकाला था कि पारी-पारी से हर किसान को उसके यहाँ पहुँचना ही पड़ता था। इसके लिए उसने एक बड़ा ही निराला ढंग निकाला था जिससे किसानों पर खौफ भी छा जाए और काम भी चलता रहे। जमींदार का एक मोटा और लंबा डंडा एक के बाद दीगरे किसानों के दरवाजे पर शाम को ही पहुँच जाया करता था। जिस किसान के घर पर आज पहुँचा वही कल जमींदार के यहाँ जाएगा। फिर कल शाम को उसके घरवाले बगल के पड़ोसी के द्वार पर चुपके से रख आएँगे जिससे अगले दिन उसे जाने की खबर मिल जाए। यही रवैया बराबर जारी था। जहाँ डंडा महाराज पधारे कि उसे हजार काम छोड़ के जाना ही होगा। एक बार अचानक किसी किसान के घर कोई बड़ा बूढ़ा डंडा जी के पदार्पण के बाद रात में मर गया। रिवाज के मुताबिक उस घर के सभी लोग मुर्दे को गंगा-किनारे ले गए। फलतः जमींदार के यहाँ कोई जा न सका। जब यह बात उसे मालूम हुई तो आगबबूला हो गया। किसान की पुकार हुई। वह आया। हाथ जोड़ के भरे हुए गले से उसने सारी कहानी सुनाई और लाचारी के लिए माफी चाही। मगर माफी कौन दे ? फिर तो जमींदार का भारी गुस्सा उसके सिर उतरा और गाँव के लोग उजाड़े गए। न जाने कितने जाल-फरेब कर के किसानों पर तरह-तरह के मुकदमे चलाएगए , मार-पीट कराई गई और इस प्रकार उन्हें रुला मारा गया। यह एक ऐतिहासिक घटना है जिसे उस इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है।
असेंबली के चुनाव में धरहरा के ही एक चलते-पुर्जे जमींदार , जो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन , पुरानी कौंसिल के लगातार मेंबर और अंत में प्रेसिडेंट भी रह चुके थे , बुरी तरह हारे। चुनाव में सभी किसानों ने दिल खोल के हमारा साथ दिया था। जिस जमींदार के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत जल्दी कोई करता न था और करने पर भी बुरी तरह हारता था , यहाँ तक कि एक बार एक कांग्रेसी उम्मीदवार भी स्वराज्य पार्टी के जमाने में अपनी जमानत जब्त करा चुके थे , वही हारा और उसी की जमानत जैसे-तैसे बचते-बचते बची। यदि किसान दिल खोल के हमारा साथ न देते तो यह कब हो सकता था ? इसीलिए हमारा सिर उनकी इस हिम्मत के सामने झुक गया। जमींदार की सारी खूँखारी और धमकी की परवाह न कर के उनने निराली हिम्मत दिखाई। जमींदार के खिलाफ वोट देना क्या था गोया म्याऊँ की ठौर पकड़नी थी चूहों को। मगर उनने ऐसा ही कर के सबको हैरत में डाल दिया। जो लोग यह कह के किसान-संघर्ष से भागना चाहते हैं कि मौके पर वे साथ न देंगे उनके मुँह में करारा तमाचा वहाँ के किसानों ने लगाया और अमली तौर से यह बात सिद्ध कर दी कि यह इल्जाम सरासर झूठा है। मुझे तो उसी बिहटा के इलाके में ऐसे और भी कई मौके मिले हैं जब किसानों ने आशा से हजार गुना ज्यादा कर दिखाया है। इसीलिए मेरा उनमें अटूट विश्वास है। मैं मानता हूँ कि यदि वे कभी हमारा साथ नहीं देते , तो इसमें उनका कसूर न हो के हमारा ही रहता है। जब हमीं में उनके बारे में विश्वास नहीं है , तो फिर हो क्या ? हम खुद ही जब लड़ना नहीं चाहते और आगे-पीछे करते रहते हैं तो किसान क्या करें ? तब वे कैसे पूरा-पूरा साथ दें ? और साथ न देने पर भी वे दोषी क्योंकर बन सकते हैं ? और तो और-जिस महाशय को जमींदार के खिलाफ किसानों ने शान से जिताया , उन्हें खुद किसानों पर यकीन न हुआ। इसका सबूत हमें उसके बाद दो मौकों पर साफ-साफ मिला। पीछे उनने स्वयं माना कि उन्हें विश्वास न था। जब मैं विश्वास रखता था। इसीलिए उनने मेरे खयाल को हार कर सही माना। खूबी तो यह कि वह किसानों के क्रांतिकारी नेता माने जाते हैं , या अपने आपको कम-से-कम ऐसा समझते जरूर हैं। यही है हमारा किसान-नेतृत्व! फिर भी घमंड रखते हैं कि क्रांति करेंगे और किसान-मजदूर राज्य लाएँगे!
हाँ , तो कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन चुकने के बाद शायद सन 1938 या 39 में उसी अछुवा का एक जवान कोइरी किसान बिहटा आश्रम में मेरे पास एक दिन आया। अठारह , बीस साल की उम्र होगी। गठीला जवान , छरहरा बदन , काला रंग और हँसता चेहरा। उस दिन की घटना कुछ ऐसी थी कि मुझे सारी जिंदगी भूलेगी नहीं। इसलिए उसका चित्र मेरी आँखों के सामने नाचता है। उसे मैं पहचानता भी न था। मगर वह तो मुझे पहचानता था ही।
वह आया था मेरे पास अपनी दुख-गाथा सुनाने। शायद घर में कोई बड़े-बूढ़े न होंगे। पढ़ा-लिखा भी न था। कांग्रेसी मंत्रियों ने लगान कम करवाने और बकाश्त जमीन की वापसी के नाम पर जो बंटाढार किया था और इस तरह कांग्रेस की लुटिया डुबा दी थी , उसी के फलस्वरूप उस गरीब की फरियाद मेरे सामने थी। सारी कोशिश कर के वह थक चुका था। मगर जमींदार के पैसे और कानून की पेचीदगी के सामने उसकी एक भी चल न सकी थी। फलतः उसकी आँखें खुल गई थीं। चुनाव के समय कांग्रेस के नाम से जो डंका पिटा था कि लगान काफी घटाया जाएगा और बकाश्त जमीनें वापस दिलाई जाएँगी , उस पर सीधे-सादे किसानों ने पूरा विश्वास किया था। मगर जब मौका पड़ने पर उन्हें असलियत का पता चला और मालूम हुआ कि बरसनेवाले बादल तो और ही होते हैं ; वे तो सिर्फ गर्जनेवाले थे , तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। एक तो कुछ हुआ भी नहीं! दूसरे जमींदारों और उनके दलालों की धमकियाँ और तानाजनी उन्हें फिर मिलने लगी। इसलिए उनका क्षोभ और क्रोध उचित ही था। वह जवान भी इसी क्षोभ और क्रोध को उतारने के लिए मेरे पास आया था।
सामने आते ही मैंने उससे पूछा कि ' कहो भाई , क्या हुक्म है ?' मैं हमेशा नए या आकस्मिक मिलनेवालों से ' क्या हुक्म है ' ही कहता हूँ। किसानों से खामख्वाह यही कहता हूँ। मैं मानता हूँ कि उन्हें मुझे हुक्म देने का पूरा हक है। जब मौके पर मेरी बातों पर विश्वास कर के वे लोग मेरा कहना मान लेते हैं , तो दूसरे मौके पर मुझे वे हुक्म क्यों न दें ? यदि उन्हें यह अधिकार न हो तो फिर मेरी बातें वे क्यों मानने लगें ? कोई जोर-जुल्म या दबाव तो है नहीं! यहाँ तो परस्पर समझौता ( understanding) ही हो सकता है। यही बात है भी। इसीलिए तो मेरे काम में रुकावट होती नहीं। मैं बराबर माने बैठा हूँ कि किसान मेरा साथ जरूर देगा। क्योंकि मैं उसका साथ जो देता हूँ।
उसने अपनी लंबी दास्तान सुनाई और कहा कि कैसी-कैसी दौड़धूप के बाद भी उसकी एक बात भी न चल सकी। जो खेत उसे मिलना चाहिए खामख्वाह , वह मिल न सका। उसने कई दृष्टांत इस बात के सुनाए कि न तो बकाश्त जमीनें लोगों को मिलीं और न लगान ही घटा। फिर बोला कि “ सुना था , सब कुछ हो जाएगा। वोट भी इसी आशा पर जान पर खेलकर दिया था। मगर यह तो धोखा ही निकला ,” आदि-आदि। उसके मुँह से जो बातें धड़ाके से निकलती थीं मैं उन्हें गौर से सुनता था और उसकी भावभंगी भी देखता जाता था। मालूम होता था किसी बहुत बड़े धोखे से उसकी आँखें खुली हैं और झूठी प्रतिज्ञा करनेवालों को-खासकर कांग्रेस मंत्रियों को-कच्चा ही खा जाना चाहता है। गोकि बाहर से उसके इस भयंकर क्रोध का पता नहीं चलता था। मगर भीतर-ही-भीतर यह आग जल रही थी यह मुझे साफ झलकता था। वह महान विस्मय में गोते लगा रहा था कि ऐसे लोग भी झूठी बातें करते हैं उस समय उसका चेहरा देखने ही लायक था। मुझे इसीलिए वह नहीं भूलता है।
उसकी बातें सुनने के बाद मैंने उससे साफ़-साफ़ कबूल कर लिया कि ' हाँ भई , धोखा तो हुआ। यहाँ तो ऊँची दुकान के फीके पकवान ही नजर आए। ' इसके बाद मैंने ब्योरे के साथ सारी बातें उसे सुनाईं और समझाया कि बकाश्त की वापसी और लगान की कमी के नाम पर जो कानून अभी बने हैं वे कितने कच्चे हैं और केवल रुपएवाले जमींदार किस प्रकार बाजी मार ले जाते हैं। मैंने उसे खासा लेक्चर ही सुना दिया। क्योंकि मेरा भी दिल जला ही था। उसके सामने मैंने इस बात की बहुतेरी मिसालें भी पेश कीं और कहा कि धोखा तो दिया ही जा रहा है।
इस पर उसने चटपट सुना दिया कि "आप ही ने तो कहा था कि कांग्रेस को वोट दीजिए। हम क्या जानते थे कि कौन क्या है ? आपने जैसा कहा हमने वैसा ही किया!" इस पर मैं ठक सा हो गया। मेरे पास इस बात का तो कोई उत्तर था नहीं। वह बातें तो सरासर सच्ची कह रहा था। किसानों ने तो मेरे ही कहने से अपनी मर्जी के खिलाफ कांग्रेस के नाम पर उन नर-पिशाच जमींदारों तक को वोट दिया था जिनके हाथों किसानों की एक भी गत बाकी न रही थी। मुझे याद है कि वोट देने के पहले उसी धरहरा के इलाके के एक किसान ने एक सभा में लेक्चर सुनने के बाद ही मुझसे धीरे से कहा था कि आपकी बातें तो हम मान लेंगे और वोट देंगे जरूर। मगर जिन्हें वोट देने को आप कहते हैं वह भी जमींदार ही तो नहीं है ? इस पर मैंने उसे समझा-बुझा के ठीक किया था। आज उस कोइरी नौजवान की बातें सुन के वह घटना भी आँखों के सामने नाच गई।
मैंने उससे साफ-साफ स्वीकार किया कि “ हाँ जी , यह तो बात सही है। तुम्हारा इल्जाम मैं मानता हूँ। असल में मैं भी धोखे में था। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था की ओर से डंके की चोट जो बातें कही जा रही थीं और जिन्हें बड़े-बड़े महात्मा और लीडर बार-बार लाखों लोगों के सामने दुहरा रहे थे मैं उन पर विश्वास करता कैसे नहीं ? इसी से तो धोखा हुआ। मैं किसानों के सामने अपने आपको इस दृष्टि से अपराधी कबूल करता हूँ। मगर इतना कहे देता हूँ कि इस घटना से मैंने बहुत कुछ सीखा है और किसानों को भी सीखना चाहिए। हाँ , आगे के लिए यही कह सकता हूँ कि फिर ऐसी बात होने न दूँगा। “
मैंने देखा कि मेरी इन साफ बातों से उसे संतोष हो गया। यदि मैं दलीलें दे के अपनी वकालत करने लगता तो उसे शायद ही यह संतोष होता। मगर ईमानदारी से अपनी भूल कबूल कर लेने पर उसने समझ लिया कि गलती तो सभी से होती ही है। स्वामी जी को भी धोखा हो गया था। इनने जान-बूझ के कुछ नहीं किया। वह कोई बड़ा राजनीतिज्ञ तो था नहीं कि मैं उसे राजनीति की पेचीदगियाँ समझाने लगता और कहता कि यदि तुम ऐसा न करते और कांग्रेस को वोट न देते तो जमींदार जीत जाते। फिर तो और भी बुरा होता आदि आदि। इन बारीकियों को भला वह अपढ़ और सीधा-सादा किसान क्या समझने लगा ? मेरा तो यह भी खयाल है कि उन लोगों से ये बातें कहने से वे इन्हें समझ तो पाते नहीं। उल्टे नेताओं को तौलने की जो उनकी सीधी सी कसौटी है कि जो कहें उसे खामख्वाह पूरा करें उसका भी इस्तेमाल करना वे लोग भूल जा सकते हैं। फलतः इसी राजनीति की ओट में धोखेबाज लोग उन्हें बराबर चकमा दे सकते हैं। इसीलिए मैंने सीधी बात की और अपनी गलती मान ली।
मगर इस घटना से मेरे दिल पर इस बात की गहरी छाप पड़ गई कि किसानों ने अपने हित-अहित को पहचानना शुरू कर दिया। वे लोग बड़ी-बड़ी बातें बनानेवाले नेताओं और वोट के भिखारियों के चकमे में आसानी से नहीं आ सकते , यदि उनका नेतृत्व ठीक-ठीक किया जाए। वे भविष्य में वोट माँगनेवालों के नाकों दम कर दे सकते हैं यदि किसान-सभा उस मौके से मुनासिब फायदा उठा के उन्हें पहले ही से आगाह कर दे। जो लोग कहा करते हैं कि किसान बुद्धू हैं और वे आसानी से फाँसे जा सकते हैं वे कितने धोखे में हैं यह बात मैंने उस दिन आँखों देख ली। अत्यंत पिछड़ी भोली-भाली जाति का एक अपढ़ युवक अगर यह बात बेखटके बोल सकता है और मुझे भी मीठे-मीठे सुना दे सकता है तो औरों का क्या कहना ? असल में जनता की मनोवृत्ति का ठीक-ठीक पता लगाना सबका काम नहीं है। यह बड़ा ही मुश्किल मसला है। इसका थाह बिरले ही पाते हैं जिन्होंने अपने आपको जनता के बीच खपा दिया है , दिन-रात उसके हवाले कर दिया है और जो उसी की नींद जागते और सोते हैं। रूसी किसानों की इसी संबंध की घटना मुझे याद आ गई।
श्री लांसलाट ओयन ( Launcelot A. owen) ने अपनी अंग्रेजी किताब ' दी रशियन पेजेंट मूवमेंट 1906-1917 ' में रूस के किसानों की सबसे पहली संगठित मीटिंग का जिक्र किया है जो ता. 31-7-1905 को एलेग्जैंडर बैकुनिन नामक जमींदार की जमींदारी में तोरजोक जिले में हुई थी। उस मीटिंग की कार्यवाही पूरी होने के बाद जो आपस में बातचीत जारी हुई थी उसमें किसानों ने भाग लिया था। सिर्फ सत्रह गाँवों के किसान जमा थे। जिले के सरकारी बोर्ड के मेंबरों को जो यह शक था कि अभी तक किसान उत्तरदायी शासन के लिए तैयार नहीं हैं , अतः उसकी माँग बेकार है , उसका मुँहतोड़ उत्तर वहीं एक किसान ने चट दे दिया कि “ नहीं नहीं , यह बात नहीं है! असल बात तो यह है कि किसान उसके लिए जरूरत से ज्यादा योग्य और तैयार हैं। इसी से सरकार डरती है " “Another (peasant) confuting the Zemstoomen's doubts as to peasant ripeness for responsibility, asserted that the trouble was that they were over ripe."
(19)
सन 1938-39 की घटना है। हरिपुरा कांग्रेस के पहले और उसके बाद भी मुझे गुजरात में दौरा करने का मौका किसान-आंदोलन के सिलसिले में लगा था। हरिपुरा के पहले गुजरात के हमारे प्रमुख किसान कर्मी श्री इंदुलाल याज्ञिक ने अपने सहकर्मियों की सम्मति से तय किया था कि कांग्रेस के अवसर पर किसानों का एक विराट जुलूस निकाला जाए और मीटिंग भी हो। फैजपुर के समय से ही यह प्रथा हमने चलाई थी जो अब तक लगातार जारी रही है। हमने भी उनकी राय मानी थी। इसीलिए निश्चय किया गया था कि उसके पहले मेरा दौरा हो जाए। क्योंकि वहाँ तो अभी किसान-आंदोलन को जन्म देना था। अब तक तो वह वहाँ पनप पाया न था। गाँधी जी का वह प्रांत जो ठहरा। सो भी ठेठ बारदौली के पड़ोस में ही कांग्रेस हो जाने जा रही थी। सरदार बल्लभ भाई का तो हम पर प्रचंड कोप भी था। यह भी खबर अखबारों में छप चुकी थी कि कांग्रेस के अवसर पर ही अखिल भारतीय खेत-मजदूर सम्मेलन श्री बल्लभ भाई की अध्यक्षता में होगा। यह खेत-मजदूर आंदोलन किसान-सभा का विरोधी बनाया जा रहा था। बिहार तथा आंध्र आदि प्रांतों में इस बात की खुली कोशिश पहले ही की जा रही थी कि खेत-मजदूरों को उभाड़ कर या कम-से-कम उनके नाम पर ही कोई आंदोलन खड़ा कर के बढ़ते हुए किसान-आंदोलन को दबाया जाए। खुलेआम जमींदारों के आदमियों और पैसे के द्वारा यह बात की जा रही थी। हमें इसका पता था।
मगर हमें इसकी परवाह जरा भी न थी। हम बखूबी जानते थे कि ये बातें टिक नहीं सकती हैं। फिर भी सजग हो के किसानों का खासा जमावड़ा हरिपुरा में करना जरूरी हो गया। इसीलिए दौरे की जरूरत विशेष रूप से थी। आखिर किसानों को यह पैगाम तो सुनाना ही था कि किसान-सभा की क्यों जरूरत है जबकि कांग्रेस मौजूद ही है। साधारण पढ़े-लिखों से ले कर ऊपर के प्रायः सभी लोग वहाँ किसान-सभा को देख भी न सकते थे। ऐसी-ऐसी दलीलें करते थे कि सुन के दंग हो जाना पड़ता था। बारदौलीवाली जो किसानों के नाम की लड़ाई पहले लड़ी जा चुकी थी उसके करते यह गलतफहमी और भी ज्यादा बढ़ गई थी कि कांग्रेस ही किसान-सभा है और श्री बल्लभ भाई किसानों के असली नेता हैं। श्री इंदुलाल जी की बातें से हमें तो कुछ पता चल गया कि वह लड़ाई असली किसानों की न हो के उनके शोषकों की ही थी जो असली किसानों को हटा के उनकी जगह जा बैठे हैं और जिनकी संख्या मुट्ठी भर ही है। मगर इस बात की पूरी जानकारी तभी हो सकती थी जब वहाँ खुद घूमा जाए। इसीलिए हम बड़े चाव के साथ उस दौरे के लिए रवाना हुए थे। वहाँ जा के हमने खुद अनुभव किया। किसानों की जमीनें करीब-करीब मुफ्त में ही हथिया लेनेवाले जो दस-पंद्रह फीसदी बनिए पारसी या पटेल वग़ैरह हैं वही किसान कहे जाते हैं। वे काफी मालदार हैं और उनके पास बहुत जमीनें हैं। पहले के किसान उन्हीं के हलवाहे और गुलाम हो के नर्क की जिंदगी गुजारते हैं। उन्हीं दस-पंद्रह फीसदी लोगों की मालगुजारी घटाने के लिए बारदौली में लड़ाई लड़ी गई थी , ताकि असली किसानों की छिनी जमीनें उन्हें वापस दिलाने या कम-से-कम उनकी गुलामी मिटाने के लिए।
भुसावल से हमने ताप्ती वैली रेलवे पकड़ी और रवाना हो गए। यह रेलवे बहुत ही धीमी और दुःखद है। पर , मजबूरी थी। मढ़ी स्टेशन , जहाँ से हरिपुरा जाना था , कि वे बहुत पहले ही सोनगढ़ के इलाके में हमें पहली मीटिंग करनी थी और यह सोनगढ़ उसी ताप्त वैली रेलवे में पड़ता है। बड़ौदा का राज्य है। किसान बहुत ही मजलूम और दुखिया हैं। वहीं से श्रीगणेश करने का विचार था। मगर बड़ौदा राज्य के हाकिमों को यह बात बर्दाश्त न हो सकी और वे लोग इस फिक्र में लगे कि किसी प्रकार हमारी सभा होने न दी जाए। उनने इस बारे में अपना काफी दिमाग लगाया। साफ-साफ नोटिस दे के हमारी सभा रोकने में उन्हें शायद खतरा नजर आया। इसलिए एक चाल चली गई। ठीक सभा के दिन बहुत ही सवेरे उस इलाके के सभी गाँवों के पटेलों और मुखियों को राज्य की कचहरी पर पहुँच जाने की खबर ऐन मौके पर दी गई जब हमारे आदमी सभा की तारीख बदल न सकते थे। पटेल और मुखिया लोग होते हैं एक तरह के राज्य के नौकर। इसलिए उसका कचहरी में पहुँच जाना जरूरी हो गया , और जब सभी गाँवों के मुखिया ही चले गए तो फिर सभा में आता कौन ? अभी तक किसान-सभा वहाँ जमी तो थी नहीं। सीधे-सादे खेड़ईत (किसान) उसका महत्त्व क्या जानने गए ? और अगर इतने पर भी गाँव के प्रमुख लोग सभा में चलते , तो दूसरे भी आते। मगर वह तो कचहरी चले गए। फलतः सभा की कोई संभावना रही न गई। इस प्रकार बड़ौदा राज्य का यत्न सफल हो गया।
जब हम स्टेशन पर पहुँचे तो इंदुलाल जी ने सब बातें कहीं। फिर तय पाया कि रात में पास के ही एक गाँव में ठहरना होगा। ठहरने का प्रबंध पहले से ही था। उस इलाके में रानीपरज के नाम से प्रसिद्ध जाति के लोग ज्यादातर बसते हैं। वही वहाँ के असली किसान हैं। उनके नेता श्री जीवन भाई हमारे साथ थे। वे अब कहीं बाहर कारबार कर के गुजर करते हैं। मगर हमारी सहायता के लिए आ गए थे। उन्हीं के साथ हम सभी उस गाँव में गए। जब हमने की दशा पूछी तो उनने सारी दास्तान कह सुनाई। यह भी बताया कि ' रानीपरज प्रगतिमंडल ' के नाम से एक संस्था खुली है जो उन लोगों की उन्नति का यत्न करती है। स्कूल आदि के जरिए उन्हें कुछ पढ़ाया-लिखाया जाता है। चरखा भी सिखाया जाता है। सरदार बल्लभ भाई वगैरह उसमें मदद करते हैं। ' रानी परज ' या किसी ऐसे ही नाम का कोई पत्र भी निकलता है। सारांश , वह ' प्रगति-मंडल ' समाज-सुधार की संस्था है। इसीलिए शराब वगै़रह पीने से लोगों को रोकती है।
मुझे आश्चर्य जरूर हुआ कि यहीं पास में बारदौली में किसानों की लड़ाई हुई ऐसा सभी जानते सुनते हैं। फिर भी रानीपरज के लोग आज बिना जमीन के हैं और दूसरों की गुलामी करते हैं। दुबला के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें जमीन दिलाने या उनकी गुलामी मिटाने की लड़ाई लड़ी न जा कर यह समाज-सुधार ( Social reform) का काम एक निराली बात है। गोया ये लोग जरायम पेशा कौम हैं , जो Criminal Tribes हैं। जैसे जयराम पेशा लोगों को धर्म के नाम पर सुधारने की कोशिश की जाती है और शराब बंदी का प्रचार होता है ठीक वही हालत यहाँ है। मैंने समझ लिया कि असली काम न कर के यह बाहर मरहम-पट्टी लोगों की आँख में धूल झोंकने के ही लिए की जा रही है। जंगल में रहनेवाली बहादुर कौम पेट के लिए मुफ्तखोरों और लुटेरों की गुलामी करे और नेता लोग इसके भीतर समाज-सुधार का प्रचार करें! यह निराली बात निकली। ब्याह-शादी वगै़रह के समय बनिए साहूकार या शराब बेचनेवाले इन सीधे किसानों को चढ़ा के कर्ज देते-दिलाते और शराब पिलवाते हैं , और पीछे उसी कर्ज में न सिर्फ इनकी जमीनें ले लेते बल्कि पुश्त-दर-पुश्त इन्हें गुलाम बना डालते हैं। इस लूट और धोखेबाजी के खिलाफ इनमें बगावत का प्रचार किया जाना चाहता था। इन्हें बताना था कि उस बनावटी कर्ज को साफ कर दें और सुना दें कि अब हम गुलाम किसी के भी नहीं हैं। यही तो इस मर्ज की असली दवा है। मगर नकली नेता लोग दूसरी ही बात करते हैं। असल में इसी बात में उनका भी स्वार्थ है। वह भी या तो साहूकार आदि हैं , या उनके दोस्त और दलाल!
वहाँ से हमें अगले दिन सूरत जाना था। रेल पकड़ के सूरत पहुँचे भी और वहाँ शाम को एक मीटिंग भी की। फिर सीधे पंचमहाल जिले के दाहोद शहर के लिए फ्रांटियर मेल से रवाना हो के अगले दिन सवेरे रात रहते ही पहुँचे। वहाँ एक तो म्युनिसिपैलिटी की ओर से हमें मान-पत्र मिलना था। दूसरे एक सार्वजनिक सभा में भाषण करना था। बांबे , बड़ौदा और सेंत्रल इंडिया रेलवे का वहाँ एक बड़ा कारखाना होने से मजदूरों की सभा में बोलना था। मगर सबसे सुंदर चील थी दाहोद से दूर देहात में भीलों की एक बड़ी सभा। म्युनिसिपैलिटी के अध्यक्ष थे एक बहोरा मुसलमान सज्जन। मगर जो अभिनंदन-पत्र उनने गुजराती में पढ़ा और जो संक्षिप्त भाषण दिया वह मार्के का था मैंने भी उचित उत्तर दिया। संन्यासी हो के किसानों के काम में मैं क्यों पड़ा इस बात का स्पष्टीकरण वहाँ मैंने निराले ढंग से किया। असल में शहरों के लोगों का पेट जैसे-तैसे भरी जाता है। इसलिए उन्हें धर्म की परवाह ज्यादा रहती है। मैंने भी धर्म की ही दृष्टि से उन्हें समझाया। मैंने कहा कि यद्यपि भगवान सभी जगह है , फिर भी उसे विशेषरूप से शोषितों में ही पाता हूँ और वहीं ढूँढ़ने से वह मिलता है। जिस प्रकार फोड़े वाले के सारे शरीर में दवा न लगा के दर्द की ही जगह दवा लगाने से उसे विशेष आनंद मिलता है , क्योंकि उसका मन वहीं केंद्रीभूत है। उसका मन , उसकी आत्मा वहीं मिलती है , पकड़ी जाती है हालाँकि वह है दरअसल सारे शरीर में। वही हालत भगवान की है।
जब हम लोग दूसरे दिन भीलों की मीटिंग में गए तो हमें बड़ा मजा आया। स्थान का नाम भूलता हूँ। मैदान में सभा थी। खासी भीड़ थी। चारों ओर आदमी ही आदमी थे। मर्द भी थे , औरतें भी थीं। थे तो दूसरे लोग भी। मगर भीलों की ही प्रधानता वहाँ थी। बचपन में सुना करता था कि द्वारका की यात्रा करनेवाले यात्री लोग जब डाकोर की ओर चलते हैं तो दाउद गुहरा (दाहोद-गोध्रा) की झाड़ियाँ मिलती हैं। यानी दाहोद और गोध्रा के बीच में लगातार झाड़ियाँ हैं , जंगल हैं जहाँ भील लोग तीर चलाते हैं और यात्री को मार के लूट लेते हैं। मैं समझता था कि बड़े ही खूँखार और भयंकर होंगे। मगर जब उन्हें देखा कि भले आदमियों की सी सूरत-शक्लवाले हैं तो आश्चर्य हुआ। हाँ , अधिकांश के हाथ में धनुष और तीरों के गुच्छे जरूर देखे। इनसे उन्हें अपार प्रेम है। इसीलिए साथ में रखते हैं। उनने कहा कि रास्ते में कहीं चोर-बदमाशों या जंगली जानवरों का खतरा हो तो यही तीर धनुष काम आते हैं। जंगली प्रदेश तो हई। यह दृश्य मैंने पहले-पहल देखा। मगर यह भी देखा कि वे मेरी बातें मस्त होके सुनते और झूमते थे। मेरी भाषा तो उनकी न थी। फिर भी मैं इस तरह बोलता था कि वे समझ जावें। बातें तो उन्हीं के दिल की बोलता था। फिर झूमें क्यों नहीं ?
हमें वहीं पर यह भी पता चला कि उसी इलाके में बहुत पहले से ' भील सेवा-मंडल ' काम कर रहा है। वहाँ जाने का तो हमें मौका न लग सका। क्योंकि शाम तक दाहोद वापस आना जरूरी था। रेलवे मजदूरों की सभा में बोलना जो था। मगर लौटते समय रास्ते में ही हमें दूर से ' सेवा-मंडल ' के मकान दिखाए गए। सेवा-मंडल का काम भीलों के विकास से ताल्लुक रखता था। मंडल के कार्यकर्ताओं में अच्छे से अच्छे त्यागी लोग रहे हैं। हमारे साथी श्री इंदुलाल जी का भी उसमें हाथ रहा है। यह काम उस समय शुरू हुआ जब हमारे देश में राजनीतिक चेतना नाममात्र को ही थी। इसलिए समाज सेवा के नाम पर यह मंडल खुला। मगर आज जब राजनीतिक चेतना की एक बड़ी बाढ़ हमारे देश में आ गई है और उसी के साथ उसका आर्थिक पहलू स्पष्ट हो गया है , तब ऐसे संस्थाओं का खास महत्त्व है या नहीं , यही प्रश्न पैदा होता है। यदि महत्त्व हो भी तो क्या उनके काम का तरीका वही रहे या बदला जाए , यह दूसरा सवाल भी खड़ा होता है। भीलों की वह असभ्यता तो जाती रही। समय ने पलटा खाया और वह सभ्यता की वायु में साँस लेने को बाध्य है। इस झकोरे से वे बच नहीं सकते , यदि हजार चाहें। ऐसी हालत में आर्थिक प्रोग्राम के आधार पर ही उनमें अब काम क्यों न किया जाए ? मेरा तो विश्वास है कि असभ्य और जरायम पेशा कही जानेवाली जातियों में अब भी मर्दानगी औरों से कहीं ज्यादा है। फिर तो आर्थिक प्रोग्राम की बिना पर ज्यों ही उनमें काम शुरू हुआ और इसका महत्त्व उनने समझ लिया कि हक की लड़ाई में जूझने के लिए सबसे आगे वही लोग मिलेंगे।
खैर , शाम तक उस सभा से हम लोग लौटे और मजदूरों की मीटिंग में गए। मीटिंग खासी अच्छी थी। सफेदपोश बाबुओं की एक अच्छी तादाद वहाँ हाजिर थी। मैले और काले कपड़ेवाले भी थे ही। श्रमिकों के क्या हक हैं और उनकी प्राप्ति के लिए उन्हें क्या करना होगा यही बात मैंने उन्हें बताई। सभा के बाद हम अपने स्थान पर वापस आए।
दूसरे दिन गोध्रा के नजदीक , उसके बादवाले बैजलपुर स्टेशन से उत्तर जीतपुरा में हमारी मीटिंग थी। यह खासी देहात की सभा थी! दूर-दूर के किसान उसमें हाजिर थे। बहुत ही उत्साह और उमंग से हमें वे लोग वहाँ ले गए। बाजे-गाजे और तैयारी की कमी न थी। सभा भी पूर्ण सफल हुई। जिस जमीन में सभा हुई उसे किसान ने किसान-आश्रम बनाने के लिए दे दिया। आगे के स्थायी काम के लिए इस प्रकार वहाँ नींव डाली गई , यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी। मुझे इस बात से अत्यंत प्रसन्नता हुई कि मेरी हिंदी भाषा वहाँ के खेड़ईत भी बखूबी समझ लेते थे। बेशक मेरी कुछ ऐसी आदत हो गई है कि किसानों के ही समझने योग्य भाषा बोलता हूँ , सो भी धीरे-धीरे। असल में बातें तो उनके दिल की ही बोलता हूँ। इसीलिए उन्हें समझने में आसानी होती है। हाँ , तो जीतपुरा से लौट के हमने रात में गाड़ी पकड़ी और मढ़ी चल पड़े। मढ़ी से ही हरिपुरा जाना था।
मढ़ी और हरिपुरा के बीच में ही हमारी एक और भी सभा थी खासी देहात में। हमने वह सभा की तीसरे पहर। कांग्रेसी मंत्रिमंडल तो बनी चुका था। पहले-पहल हमने उसी सभा में एक बात कही जिसे हम पीछे चल के कई जगह दुहराते रहे। दरअसल गुजरात और महाराष्ट्र में कर्ज और साहूकारों के जुल्म का ही प्रश्न सबसे पेचीदा और महत्त्वपूर्ण है। कहा जाता है कि वहाँ जमींदारी-प्रथा नहीं है। वहाँ के किसानों का सरकार के साथ सीधा संबंध है। इसे रैयतवारी कहते हैं। मगर बनियों और साहूकारों ने सूद-दर सूद के जाल में फाँस के किसानों की प्रायः सारी जमीनें ले ली हैं और वे खुद जमींदार बन बैठे हैं। अर्द्धभाग या बँटाई पर फिर उन्हीं किसानों को वही जमीनें ये साहूकार जोतने को देते हैं। और अगर फसल मारी जाय तो खामख्वाह नगद मालगुजारी ही वसूल कर लेते हैं। डरा और दबा किसान चूँ भी नहीं करता है। बँटाई की हालत यह है कि मूँगफली जैसी कीमती और किराना चीजों की पैदावार का भी आधा हिस्सा ले लेते हैं। किसानों की गुलामी भी इसी के करते हैं।
इसीलिए उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता अगर इस कर्ज के असह्य भार को उनके सिर से उठा फेंकने की बात की जाए। यदि उनकी छाती से यह चट्टान हटे तो जरा साँस लें। मुझे यह बात मालूम तो थी ही। इसीलिए मैंने कहा कि पड़ोस में ही कांग्रेस हो रही है। उसका दावा भी है कि वह गरीबों और सताएगए लोगों की ही संस्था है। श्री बल्लभ भाई अपने को किसानों का नेता कहते भी हैं। और आज तो इस बंबई प्रांत में कांग्रेस के ही मंत्री शासन चला रहे हैं , ऐसा माना जाता है। उन्हीं की मर्जी से कानून बनते हैं। इसलिए हरिपुरा में लाखों की तादाद में किसान जमा हो के साफ-साफ कह दें कि इस मनहूस कर्ज ने हमारी रीढ़ तोड़ डाली। हमने एक के दस अदा किए। फिर भी साहूकार की बही (चौपड़ी) में घीस बाकी पड़े हैं। हमारी जमीन और इज्जत इसी के चलते चली गईं। हम गुलाम भी बन गए। यहाँ एक नए प्रकार के “ साहूकार जमींदार “ पैदा हो गए। इसलिए कांग्रेस के मंत्री लोग कृपा कर के इन साहूकारों के सभी कागज-पत्र अपने पास मँगवा लें। फिर या तो उन्हें बंबई के पास के ही समुद्र में डुबा दें , या नहीं तो होली जला दें। और अगर हुक्म दें तो हमीं लोग उन्हें ले के ताप्ती नदी में ही डुबा दें। नहीं तो हमारा जो जीवन भार बन गया है वह खत्म हो जाएगा।
हमने देखा कि इन शब्दों के सुनते ही किसानों के चेहरे खिल उठे। उसके बाद सभा का काम पूरा कर के हमने हरिपुरा पहुँचने की सोची। खयाल आया कि मोटर लारियाँ तो बराबर दौड़ रही हैं। हम लोग पल मारते पहुँच जाएँगे। फिर वहाँ से सड़क पर आए और लारियों का इंतजार करने लगे। घंटों यों ही बीता। बीच में बीसियों लारियाँ आईं और चली गईं। हमने हजार कोशिश की कि रुकें , मगर एक भी न रुकी। लाचार जीवन भाई के साथ पैदल ही आगे बढ़े। उनने कहा कि आगे कुछ दूरी पर जो गाँव पक्की सड़क से हट के पड़ता है वहीं से एक बैलगाड़ी ले के उसी पर हरिपुरा चलेंगे। बस , गाँव की ओर चल पड़े। दो-तीन मील चलने पर गाँव आया।
गाँव पहुँचने के पहले ही हमने जीवन भाई से रानीपरज तथा और किसानों की हालत पूछी। वे भी रानीपरज बिरादरी के ही थे। इसीलिए उनकी दशा ठीक- ठीक बता सकते थे। ऊपर से जान पड़ता था कि गाँधी जी और सरदार बल्लभ भाई के बड़े भक्त थे। पहले कांग्रेस में उनने काफी काम भी किया था , मगर उनने जो हृदय विद्रावक वर्णन अपने भाइयों के कष्टों का किया उससे हमारा तो खून उबल पड़ा। उनकी भी भावभंगी अजीब हो गई थी। उनने कहा कि यदि किसी रानीपरज के पास काफी जमीन हो और अपने गरीब भाई से खेती का काम वह कराए तो काम करनेवाले के परिवार को अपने ही मकान के एक भाग में रख के अपने ही परिवार में उस परिवार को शामिल कर लेगा। मगर , अगर साहूकार , पारसी या पटेल वही काम गरीब रानीपरज से कराए तो दिन में ज्वार की रोटी और कोई साग उसे खाने को देगा जिसमें मसाले के नाम पर सिर्फ लाल मिर्च के बीज पड़े होंगे , न कि लाल मिर्च। असल में गुजरात में उन बीजों को निकाल के फेंक देते हैं खाते नहीं। इसीलिए साहूकार उन बेकार चीजों को उन गरीबों के साग में डाल देते हैं। शाम को दो सेर ज्वार या एक-डेढ़ आने पैसे दे देते हैं।
इसके बाद जो कुछ उनने कहा या कहना चाहा वह बड़ा ही बीभत्स था। उनकी आँखें डबडबा आईं। आखिर अपनी ही बिरादरी की प्रतिष्ठा की बात जो ठहरी। उनने कहा कि हमारे जो भाई साहूकारों के ऋण में फँसे हैं उनकी जवान लड़कियों और पुत्र-वधुओं को भी ये राक्षस कभी-कभी जबर्दस्ती काम करवाने के लिए बुलवा लेते हैं। अब आप ही सोच सकते हैं कि उनका धर्म कैसे बचने पाता होगा , आदि-आदि। उनने इस बात पर बहुत ही जोर दिया और कहा कि दुबला के नाम से प्रसिद्ध गरीब किसानों और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत की खैरियत नहीं है।
इस पर हमने कहा कि “ लेकिन हम जो यह किसान-सभा कर रहे हैं उसे सरदार बल्लभ भाई तो पसंद नहीं करते। हालाँकि उन्हें चाहिए तो यह था कि वह खुद दुबला लोगों के लिए यह काम करते और गाँधी जी भी उन्हें इस बात का आदेश देते। यह क्या बात है कि गाँधी जी इस बात पर मौन हैं ? क्या उन्हें भी यह बात पसंद है ?” तब उनने कहा कि “ इसमें गाँधी जी का दोष नहीं है। असल में लीडर लोग गड़बड़ी करते हैं। “ हमने फिर कहा कि “ मगर गाँधी जी भी हमारी किसान-सभा को पसंद नहीं करते , यह पक्की बात है। तब हम कैसे मानें कि केवल लीडरों की ही भूल है , उनकी नहीं ? और अगर ऐसी हालत में आप किसान-सभा में पड़ेंगे , तो गाँधी जी जरूर आप पर रंज होंगे। “ अब क्या था , अब तो वे साफ खुल गए और कहने लगे कि “ गाँधी जी अपना काम करते हैं और हम अपना। हमें किसान-सभा में ही किसानों का उद्धार दीखता है। कांग्रेस से कुछ होने जाने का नहीं। इसलिए यदि गाँधी जी हम पर बिगड़े तों हम क्या करें ? हम तो यह काम करेंगे ही। “ बस , मैंने समझ लिया कि किसान-सभा गुजरात में भी जीती-जागती संस्था बन के ही रहेगी , जब कि शुरू में ही जीवन भाई जैसे किसान इसकी जरूरत और महत्ता को यों ही समझने लगे हैं। क्योंकि सभा का काम तो उनने अभी देखा भी नहीं। इससे स्पष्ट है कि परिस्थिति ( Objective conditions) उसके अनुकूल है। सिर्फ पथदर्शकों और सच्चे कार्यकर्ता ( Subjective conditions) की कमी है।
इतने ही में हम उस गाँव में जा पहुँचे और एक किसान के दरवाजे पर ठहरे। बैलगाड़ी का प्रबंध होने लगा। शाम भी होई रही थी। थोड़ी देर में गाड़ी तैयार हो के आ गई और हम लोग उस पर बैठ के रवाना हो गए। रास्ते में हमने गाड़ी हाँकनेवाले किसान से हरिपुरा की बात चलाई और पूछा कि वहाँ बिट्ठल नगर में काम करने के लिए यहाँ के लोग जाते हैं या नहीं , और अगर जाते हैं तो क्या मजदूरी उन्हें प्रतिदिन मिलती है ? इस पर उसने कहा कि रेलवे या सड़क वग़ैरह में काम करनेवालों को दस आने पैसे मिलते हैं। कांग्रेस में भी पहले कुछी कम पैसे मिलते थे। मगर पीछे जब ज्यादा तादाद में काम करनेवाले जाने लगे तो छः आने ही दिए जाने लगे! इसके लिए हो-हल्ला भी हुआ। मगर सुनता कौन है ? शायद तूफान मचने पर सुनवाई हो। मगर मजदूर तो भूखे हैं इसलिए जोई मिलता है उसी पर संतोष कर लेते हैं। उसने इसी तरह की और भी बातें सुनाईं। मुझे यह सुनके ताज्जुब तो हुआ नहीं। क्योंकि मैं तो कांग्रेसी लीडरों की मनोवृत्ति जानता था। मगर उनकी इस हिम्मत , बेशर्मी और हृदय-हीनता पर क्रोध जरूर हुआ। मैंने दिल में सोचा कि यही लोग गरीबों को स्वराज्य दिलाएँगे। यही देहात की कांग्रेस है जिसमें देहातियों को उतनी भी मजदूरी नहीं मिलती जितनी सरकारी ठेकेदार देते हैं। इसी बूते पर यह दावा गाँधी जी तक कर डालते हैं कि किसानों की सबसे अच्छी संस्था कांग्रेस ही है-- "The Congress is the Kisan organisation parexcellence!" मुझे खुशी इस बात की थी कि न सिर्फ वह गाड़ी हाँकनेवाला , बल्कि उस देहात के सभी लोग इस पोल को बखूबी समझ रहे थे जैसा कि उसकी बातों से साफ झलकता था।
रात में हम बिट्ठल नगर पहुँचे और वहीं ठहरे। पूरे अठारह रुपए में हमने एक झोंपड़ा लिया जिसमें सिर्फ तीन चारपाइयाँ पड़ सकती थीं। यही है गरीबों की कांग्रेस! वहाँ एक रुपए से कम में तो एक दिन में एक आदमी का पेट भरी नहीं सकता था। चीजें इतनी महँगी कि कुछ कहिए मत। जल्लाद की तरह बेमुरव्वती से तो दूकानदारों से सख्त किराया लिया जाता है। देहात में होनेवाली सभी कांग्रेसों की यही हालत होती है। दिन-ब-दिन चीजें महँगी ही मिलती हैं।
खैर , हरिपुरा में हमें तो अपना काम करना था। वहाँ किसानों का लंबा जुलूस निकालना था। मीटिंग भी करनी थी। मगर पता चला कि सरदार बल्लभ भाई का सख्त हुक्म है कि बिना उनकी आज्ञा के बिट्ठल नगर के भीतर कोई भी मीटिंग या प्रदर्शन होने न पाए। हमें यह चीज बुरी लगी। हमने कहा कि सरदार साहब या उनकी स्वागत समिति को यह हक हर्गिज नहीं है कि आम सड़क पर जुलूस रोक दें। जब तक पुलिस या मजिस्ट्रेट की ऐसी मुनादी न हो तब तक तो हमें कोई रोक सकता नहीं। हाँ , मुनादी हो जाने पर कानून तोड़ने की नौबत आएगी। मगर सरदार या उनके साथियों को न तो पुलिस का अधिकार प्राप्त है और न मजिस्ट्रेट का ही। फिर उनकी नादिरशाही के सामने हम क्यों सिर झुकाएँ।
नतीजा यह हुआ कि हम और हमारे साथी श्री इंदुलाल याज्ञिक वगैरह किसी से भी पूछने न गए और जुलूस निकला खूब ठाट के साथ। पचीस-तीस हजार से कम लोगों का जुलूस नहीं था। साहूकारों से त्राण दिलाने और हाली प्रथा मिटाने आदि के नारे मुख्य थे। हाली और दुबला या गुलाम ये सब एक ही हैं। मीटिंग भी बहुत ही जम के हुई। मैं ही अध्यक्ष था। मेरे सिवाय याज्ञिक , डॉ सुमंत मेहता आदि अनेक सज्जन बोले।
सरदार बल्लभ भाई यह बात देख के भीतर ही भीतर आगबबूला हो गए सही। मगर मजबूर थे। इसीलिए किसी न किसी बहाने से अपने दिल का बुखार निकालते रहे। रह-रह के बिना मौके के ही हम लोगों पर तानाजनी करते रहे। एक बार तो वहाँ पली गायों के बारे में यों ही लेक्चर देते हुए बोल बैठे कि हम तो इन गायों को पसंद करते हैं जो न तो प्रस्ताव करती हैं और न उनमें सुधार पेश करती हैं। ये तो क्रांति और जमींदारी या पूँजीवाद मिटाने की भी बातें नहीं करती हैं। किंतु दूध दिए चली जाती हैं। जिससे हमारा काम चलता है। इसी तरह के अनेक मौके आए।
एक बार तो खास विषय समिति में ही बिना वजह और बिना किसी प्रसंग के ही विशेषतः मुझे और साधारणतः सभी वामपक्षियों को लक्ष्य कर के न जाने वह क्या-क्या बक गए। यहाँ तक हो गया कि सभी लोग जल के खाक हो गए। फलतः हमने बहुत ही शोर किया और सभापति श्री सुभाष बाबू पर जोर दिया कि उन्हें रोकें। पहले तो सभापति जी हिचकते रहे और सरदार साहब भी लापरवाह हो के बकते जाते थे। मगर जब परिस्थिति बेढब हो गई और शोर बहुत बढ़ा तो उनने रोका , जिससे वे एकाएक अपना सा मुँह ले के बैठ गए। इस प्रकार बारदौली की भूमि में ही उनकी नाक कट गई सिंह अपनी माँद में ही सर हो गया।
हरिपुरा के पीछे कुछ महीने गुजर जाने पर फिर गुजरात में दौरा करने का मौका आया। इस बार श्री इंदुलाल याज्ञिक और उनके साथियों ने संगठित किसानों की सभाएँ प्रायः गुजरात के हर जिले में कीं। अहमदाबाद शहर में ही नहीं , किंतु देहात में भी एक सभा हुई। हरिपुरा के बाद किसानों की कई संगठित लड़ाइयाँ भी हो चुकी थीं और विशेष-रूप से बड़ौदा राज्य के घोर दमन का शिकार उन्हें तथा हमारे प्रमुख किसान सेवकों को होना पड़ा था। उनकी कितनी ही मीटिंगें दफा 144 की नोटिस और पुलिस की मुस्तैदी के करते रोकी गईं। फिर भी लड़ाई चलती रही। यद्यपि बड़ौदा सरकार का कानून है कि किसान से नगद लगान ही लेना होगा , न कि बँटाई। फिर भी साहूकार जमींदार यह बात मानते न थे। खूबी तो यह कि यदि साल में दो फसलें हों तो दोनों में ही आधा हिस्सा लेते थे। फलतः किसानों ने बँटाई देने से इनकार कर दिया। सरकार को इस पर उनका और किसान-सभा का कृतज्ञ होना चाहता था। मगर उल्टे दमन-चक्र चालू हो गया। असल में सरकारें तो मालदारों की ही होती हैं। इसलिए उनका फर्ज हर हालत में यही होता है कि धनियों की रक्षा करें। वे कानून तोड़ते हैं तो बला से। शोषित जनता को सिर उठाने नहीं देते। असली चीज कानून नहीं है , किंतु कमानेवाली , पर लुटी जानेवाली , जनता को चाहे जैसे हो सके दबा रखना ही असल चीज है। कानून भी इसी गर्ज से बनाए जाते हैं। मगर अगर कहीं कानून की पाबंदी के चलते ही जनता सिर उठा ले तो उसकी पाबंदी से बढ़ के भूल और क्या हो सकती है ? यही कारण है कि जमींदारों और मालदारों के कानून तोड़ने पर भी सरकार तरह दे जाती है। उनके रुपए और प्रभाव के चलते इसके लिए बहाने तो सरकार को मिली जाते हैं। पुलिस उसकी रिपोर्ट करती ही नहीं। फिर सरकार क्या करे ? और अगर कहीं एक-दो जगह किसान सिर उठाने पाए तो फिर गजब हो जाने का डर जो रहता है। क्योंकि “ बुढ़िया के मरने का उतना डर नहीं , जितना यम का रास्ता खुल जाने का रहता है! “ बड़ौदा राज्य में किसानों की उन लड़ाइयों ने यह बात साफ कर दी।
अहमदाबाद की सभा के बाद हमारा दौरा था खेड़ा जिले में ─ उसी खेड़ा जिले में जो न सिर्फ श्री इंदुलाल जी का जिला है , बल्कि सरदार बल्लभ भाई का भी जन्म उसी जिले में हुआ है। हमारी मीटिंगें ठेठ देहातों में थीं। स्टेशन से उतर के हमें कई दिन देहात-देहात ही घूमते रहने और इस तरह डाकोर के पास रेलवे लाइन पकड़ने का मौका मिला। कुछ दूर लारी से और बाकी ज्यादा जगहें बैलगाड़ी से ही तय करनी पड़ीं। इस बार हम ऐसे इलाके में गए जहाँ आज तक कांग्रेस का कोई खास असर होई न पाया है। इसलिए हमें इस बात से बड़ी प्रसन्नता हुई। अनुभव भी बहुत ही मजेदार हुए।
असल में खेड़ा जिले के बहुत बड़े हिस्से में क्षत्रियों की एक बहादुर कौम बसती है जिसे धाराला कहते हैं। ये लोग अहमदाबाद जिले में भी खासी तादाद में पाए जाते हैं। हमें इस बात से बड़ी तकलीफ हुई कि सरकार ने इस दिलेर कौम को जरायम पेशा करार दे रखा है। असल में विदेशी सरकार की तो सदा से यही नीति रही है कि लोगों में मर्दानगी का माद्दा रहने ही न दिया जाए। पर अफसोस है कि कांग्रेसी मंत्रियों ने भी इस कलंक को मिटाने की कोशिश न की , जिससे धाराला लोग अब भी वैसे ही माने जाते हैं। पहले गाँधी जी के ' नवजीवन ' और ' यंग इंडिया ' में पढ़ के हमें भी इनके बारे में यही गलत धारणा थी। परंतु दौरा करने पर हमें पता चला कि सारी बातें गलत हैं। ये लोग अपने पास लंबे-लंबे दाव लाठी में लगा के रखते हैं जिसे धारिया कहते हैं। धाराला नाम इसी धारिया के रखने से पड़ा है। जंगल में लकड़ी वगैरह काटने में इससे बड़ी आसानी होती है। हमें इस बात से खुशी हुई कि इन लोगों ने , जो सदा कांग्रेस के विरोधी रहे , न सिर्फ हमारी किसान-सभा को अपनाया , बल्कि इस काम में बड़ी मुस्तैदी दिखाई। उनने इसे अपनी चीज मान ली। इसका प्रमाण हमें उसी यात्रा में प्रत्यक्ष मिला। साहूकारों ने जो उन्हें आज तक बेखटके लूटा था उससे बचने का रास्ता उन्हें किसान-सभा में ही दीखा। क्योंकि सभा की नीति इस मामले में साफ है। यही कारण है कि वे इस ओर झुके , गो कांग्रेस से अलग रहे। उसकी नीति गोल-मोल जो ठहरी।
खेड़ा जिले के गाँवों में घूमते-घामते हम डाकोर से सात ही आठ मील के फासलेवाले रेलवे स्टेशन कालोल पहुँचे। यह एक अच्छा शहर है। यहाँ व्यापारी और साहूकार बहुत ज्यादा बसते हैं। हमारे दौरे से इनके भीतर एक प्रकार की हड़कंप मच चुकी थी , गोकि हमें इसका पूरा पता न था। सरदार बल्लभ भाई के गण लोग भी चुपचाप बैठे न थे। हम उनके गढ़ पर ही धावा जो बोल रहे थे। जो गुजरात आज तक गाँधीवाद का किला माना जाता था वहीं किसान-सभा की प्रखर प्रगति उन नेताओं को बुरी तरह खल रही थी। इसीलिए हमारे खिलाफ अंट-संट प्रचार कर के और हमें कांग्रेस-विरोधी करार देके उनके गण मध्यमवर्गीय लोगों को हमारे विरुद्ध खूब ही उभाड़ रहे थे। और कालोल शहर तो मध्यवर्गीय लोगों का अड्डा ही ठहरा।
एक बात और भी हो गई थी। उसके पूर्व देहातों में जो हमारे कई लेक्चर हो चुके थे उनमें साहूकारों और सूदखोरों की लूट का हमने खासा भंडाफोड़ किया था। हमने कहा था कि किसानों के सभी कर्ज मंसूख कर दिए जाएँ। इससे साहूकारों में खलबली मचना स्वाभाविक था। उनने समझा कि यह तो हमारा भारी दुश्मन खड़ा हो गया। वे मानते थे कि यदि ऐसे लेक्चर किसानों में होने लग जाएँ तो वे हमारी एक न सुनेंगे , निडर हो जाएँगे और हमारा दिवाला ही बुलवा देंगे। पंचमहाल जिले के गुसर मौजे में पीछे चल के श्री जबेर भाई नामक किसान ने ऐसा किया भी। और जगह भी ऐसी घटनाएँ हुईं। इसीलिए उनका डरना और सतर्क होना जरूरी था।
जिस दिन हम कालोल पहुँचे उसके ठीक पहले दिन एक गाँव में एक साहूकार से कुछ बातें भी ऐसी हो गईं कि वह चौंक पड़ा , और बहुत संभव है कि उसने भी कालोल में सनसनी पैदा की हो। बात यों हुई कि उसने किसानों की फिजूलखर्ची की शिकायत करते हुए यह कह डाला कि ये लोग शहरों जा के सैलूनों में बाल कटवाया करते हैं। सैलून अंग्रेजी ढंग की जगहें होती हैं जहाँ बाबू आनी ढंग से नाऊ लोग हजामत बनाते और ज्यादा पैसे मजदूरी में लेते हैं। साहूकार को खटकता था कि ये लोग मेरा कर्ज और सूद चुकता न कर के फिजूल पैसे खर्च डालते हैं। इसी से उसने मुझसे उनकी शिकायत की।
मगर मैंने झल्ला के कहा कि क्या ऐसा बराबर होता है या कभी-कभी ? उसने उत्तर दिया कि केवल कभी-कभी। इस पर मैंने उसे डाँटा कि यही चीज तुम्हें चुभ गई ? आखिर किसान लोग पत्थर तो हैं नहीं। ये भी मनुष्य हैं। इन्हें भी अभिलाषाएँ और वासनाएँ हैं। इसीलिए कभी-कभी उन्हें पूरा कर लेते हैं। जो लोग इन्हीं की कमाई के पैसे सूद , कर्ज , लगान आदि के रूप में लूट के बराबर ही सैलूनों में जाते और गुलछर्रे उड़ाते हैं उन्हें शर्म होनी चाहिए , न कि इन किसानों को। ये तो अपने ही कमाई के पैसे से कभी-कभी ऐसा करते हैं और यह अनिवार्य है। मगर आपको अमीरों की बात नहीं खटक के इनकी ही क्यों खटकती है ? ये किसे लूट के सैलून में जाते हैं ? इस पर वह साहूकार हक्का-बक्का हो गया। उसे यह आशा न थी कि मैं ऐसा कहूँगा। वह तो मुझे गाँधीवादियों की तरह समाज-सुधारक समझता था। फलतः मेरी बात सुन के उसे अचंभा हुआ। शायद उसी ने कालोल में ज्यादा सनसनी फैलाई।
हाँ , तो कालोल में पहुँचने पर शहर से बाहर एक बाग में जो रेलवे स्टेशन के पास ही है , हम जा ठहरे। हमारे ठहरने का प्रबंध पहले से ही वहीं था। बाग में पहले एक कारखाना था तो तहस-नहस की हालत में पड़ा रो रहा था। शहर के दो एक प्रतिष्ठित और पढ़े-लिखे लोग हमसे वहाँ मिलने आए। यह भी पता चला कि उन्हें लोगों ने हमारी सभा का भी प्रबंध किया है। श्री इंदुलाल जी से उनका पुराना परिचय था। हमें खुशी इस बात की थी कि मध्यमवर्गीय पढ़े-लिखे लोग हमारे भी साथ हैं। उन्हीं के नाम से सभा की नोटिसें भी बँटी थीं। सभा का समय शाम होने पर था जब कि चिराग जल जाएँ। हम भी निश्चिंत थे। क्योंकि भीतरी सनसनी और हमारे खिलाफ की गई तैयारी का हमें पता न था। दूसरों को भी शायद न था। नहीं तो हमें बता तो देते ताकि हम पहले से ही सजग हो जाएँ। मगर विरोधियों ने गुपचुप अपनी तैयारी कर ली थी जरूर।
जब शाम होने के बाद हम सभा में चले तो शहर के बीच में जाना पड़ा। हमें ताज्जुब हुआ कि यह क्या बात है ? घने मकानों के बीच कहाँ जा रहे हैं यह समझना असंभव था। इतने में हम ऐसी जगह जा पहुँचे जो चारों ओर ऊँचे मकानों से घिरी थी। बीच में जो जगह खाली थी वहीं देखा कि बहुत से सफेद-पोश लोग जमा हैं। सब के सब खड़े थे। बैठने के लिए कोई दरी-वरी या बिछावन भी वहाँ न दीखा। हमने समझा कि यों ही किसी काम से ये लोग खड़े हैं और आगे चलने लगे। लेकिन हमें बताया गया कि यही सभा-स्थान है। हमें ताज्जुब हुआ कि शहर की सभा और उसकी ऐसी तैयारी! हम समझी न सके कि क्या बात है। इतने में किसी ने इशारा कर दिया कि यही स्वामी जी हैं। इशारे का पता हमें तो न लगा। मगर विरोधियों की तैयारी ऐसी थी कि वे किसी के इशारे से समझ जा सकते थे।
बस , फिर कुछ कहिये मत। हमें कोई बैठने को भी कहनेवाला न दीखा। यहाँ तक कि किसी ने बात भी न की और चारों ओर से एक अजीब ' सी सी ' की आवाज आने लगी। वह आवाज हमें पहले ही पहल सुनने को मिली। हमने हजारों किसान-सभाएँ कीं। विरोधियों के मजमे में हमने व्याख्यान दिए यहाँ तक कि हरिपुरा के पहले सूरत जिले में बिलिमोड़ा स्टेशन से एक दूर बसे शहर में भी हमारी सभा हुई जिसमें गाँधीवादी भरे पड़े थे। मगर ऐसी हालत वहाँ न देखी। उनने सभ्यता से आदरपूर्वक हमसे सवाल जरूर किए जिनके उत्तर हमने दिए। मगर ऐसा न किया। यहाँ तो कोई सुननेवाला ही न था। मालूम होता था कि यों ही ' सी सी ' और ' हू हू ' कर के या ताने मार के हमें ये लोग भगा देने पर तुले बैठे थे। तानेजनी की बातें भी बोली जा रही थीं। कोई-कोई हमें संन्यासी का धर्म सिखा रहे थे। मगर अप्रत्यक्ष रूप से जैसा कि हुआ करता है।
पहले तो हम और याज्ञिक दोनों ही अकचका गए। मगर पीछे खयाल किया कि यहाँ तो जैसे हो निपटना ही होगा। हम मार भले ही खा जाएँ। मगर सभा तो कर के ही हटेंगे। इतने में एक दीवार के बगलवाले चबूतरे पर हम दोनों जा खड़े हुए और याज्ञिक ने बोलने की कोशिश की। पहले तो वे लोग सुनने को रवादार थे ही नहीं। इसीलिए उनकी सिसकारी चलती रही। मगर हम या याज्ञिक भी बच्चे या थकनेवाले तो थे नहीं। इसलिए याज्ञिक ने बोलने की कोशिश बराबर जारी रखी। नतीजा यह हुआ कि बाधा डालनेवाले थक के सुनने को बाध्य हुए। आखिर कब तक ऐसा करते रहते ? उनका थकना जरूरी था। हमारा तो एक पवित्र लक्ष्य है जिसमें मस्त होने से हम थकना क्या जानें ? वह लक्ष्य भी महान है। शोषितों एवं पीड़ितों का उद्धार ही हमारा लक्ष्य है। उसमें हमारा अटल विश्वास भी है। फिर हम क्यों थकते ? बल्कि ऐसी बाधाओं से तो उल्टे हमारी हिम्मत और भी बढ़ती है। मगर उन लोगों का तो कोई महान और पवित्र लक्ष्य था नहीं। फिर थकते क्यों नहीं ?
जब वे चुप हो गए तो हमें और भी हिम्मत हुई। फिर तो श्री इंदुलाल ने अपना लेक्चर तेज किया और धीरे-धीरे उन लोगों को ऐसा बनाया कि कुछ कहिए मत। आखिर वह भी उसी खेड़ा जिले के ही रहनेवाले ठहरे। कालोल के बहुतेरे लोग उनके त्याग और उनकी जन-सेवा को खूब ही जानते हैं। वे गाँधी जी के प्राइवेट सेक्रेटरी बहुत दिनों तक रह चुके हैं। पढ़-लिख के और वकालत पास कर के उनने अपने को दलितों की सेवा के लिए समर्पित किया। यहाँ तक कि शादी भी न की। यह बात खेड़ावालों से ही छिपी रहे यह कब संभव था ? यही वजह थी कि उनने विरोधियों की मीठे-मीठे खूब ही मरम्मत की।
फिर मेरा मौका आया। मैं खड़ा हुआ और भाषण का प्रवाह चला। मैंने देखा कि इन्हें कांग्रेस के ही मंतव्यों और प्रस्तावों के द्वारा पानी-पानी करना ठीक होगा। इसलिए कांग्रेस की चुनाव घोषणा , फैजपुर के प्रस्ताव और लखनऊ के प्रस्ताव का उल्लेख कर के मैंने उन्हें बताया कि यदि वे कांग्रेस के भक्त हैं तो फौरन ही किसानों को कर्ज से और जमींदारों के जुल्मों तथा बढ़े हुए लगान के बोझ से मुक्त करना होगा। वे बेचारे क्या जानने गए कि प्रस्ताव क्या हैं और लीडर लोग कांग्रेस के मंतव्यों के ही विरुद्ध काम कर रहे हैं ? उन्हें तो जैसा समझाया गया वैसा ही उनने मान के मुझे कांग्रेस का बागी करार दे दिया! मैंने उनसे कहा कि गुनाह कोई करे और अपराधी कोई बने ? मैंने उन्हें ललकारा कि मेरी एक बात का भी उत्तर दे दें तो मैं हार जाने को तैयार हूँ। मैं तो घंटों बोलता रहा और वहाँ ऐसी शांति रही कि कुछ पूछिए मत। अब तो कोई चूँ भी नहीं करता था। मेरे बाद स्थानीय एक सज्जन भी बोले और सभा बर्खास्त की गई।
पीछे तो ' सी सी ' करनेवालों को खूब ही पता चला कि वे धोखे में थे। जब मैंने न सिर्फ उनकी बल्कि उनके बड़े-से-बड़े लीडरों की भी खासी खबर ली तो आखिर वे करते भी क्या ? दरअसल मध्यमवर्गीय लोगों को तो यों ही भटका के गुरुघंटाल लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। वहीं मैंने प्रत्यक्ष देखा कि मध्यमवर्गीय लोग कितने खतरनाक और किस तरह बेपेंदी के लोटे की तरह इधर-से-उधर ढुलकते हैं। पहले तो मेरे दुश्मन थे। मगर पीछे ऐसे सरके कि कुछ कहिए मत। चाहे जो हो पर उनके करते हमारी किसान-सभा की धाक खूब ही जमी।