अवशेष पिंड का संस्कार / अशोक कुमार शुक्ला
(१० नवंबर १९९४ श्रीयंत्र टापू की घटना)
मॉ ! तू अपने इस पूत को माफ करना !
जीवन के अनुभव की पिटारी में न मालूम ऐसी कितनी घटनायें सहेजकर रखी होती हैं जो समय बीतने के साथ किसी वस्तु पर पडी धूल की परतों से ओझल हो जाती हैं परन्तु वख्त बीतने के साथ स्वयं का पथ प्रदर्शक बन जाती हैं। धूल की परतों के पीछे भी यह बिलकुल ताजी और मनमोहक होती हैं।ये घटनाये जीवन की थाती होती हैं क्योंकि उन घटनाओं के मूल में ऐसे संस्कार होते हैं जो ऐसी शाश्वत शक्ति के अस्थित्व को प्रमाणित करती है जिन्हें कभी देखा नहीं गया। परन्तु कई बार ऐसी घटनायें व्यक्ति के अंतः स्थल में अमूर्त रूप में इस तरह प्रवेश कर चुकी होती है कि उन्हें अनावृत न करके हम ईश्वरीय सत्ता की प्रमाणिकता के कुछ दुर्लभ साक्ष्यों की जनसाधारण से सहभागिता को बाधित करते हैं । जिसको कागज पर उंडेल देना ही ईश्वरीय आराधना करना जैसा प्रतीत होता है। ऐसा न करके हम भगवान के अस्तित्व को न मानने वाले नास्तिक जैसा बर्ताव कर रहे होते हैं।।
एक ऐसी ही घटना उस समय की है जब उत्तराखंड राज्य निर्माण का आन्दोलन अपनी चरम स्थिति में पहुॅच चुका था । आन्दोलन का ताप और उसका स्वरूप धरती के अंतर में छिपे ऐसे बीज का जैसा बन चुका था जिस पर वर्षा की हलकी सी फुहार पडते ही नन्हें से अंकुर के रूप मंे उसका अवतरण अवश्यंभावी था।
तद्समय पर्वतीय अंचल के एक खूबसूरत संभाग नरेन्द्रनगर में अधीनस्थ प्रशासनिक अधिकारी की हैसियत से कार्यरत था। उत्तराखंड आन्दोलन में अहम् निर्णायक भूमिका निभाने वाली श्रीनगर का श्रीयंत्र टापू की घटना अभी अभी घटित ही हुयी थी जब उत्तराखंड राज्य की स्थापना का सपना संजोये अनेक युवक अपनी बात शासन तक पहुचाने के लिये अलकनंदा नदी के किनारे अनशन पर बैठे थे। श्रीनगर कस्बे से २ कि०मी० दूर स्थित श्रीयन्त्र टापू पर आन्दोलनकारियों ने ७ नवंबर, १९९४ से पृथक उत्तराखण्ड राज्य हेतु आमरण अनशन आरम्भ किया। अनशन कारियो पर जैसे जुनून सवार था । दिन रात बस उत्तराखंड बनाकर रहेंगें का एक नारा घाटियों में गूंजा करता।
अनशन कारियों ने अलकनंदा नदी की धारा के बीच में बने श्रीयंत्र नामक एक टापू को अपना संघर्ष केन्द्र बना लिया था जो बहुत खतरनाक था पर उन्हें क्या वे तो प्राणों की बाजी लगाकर राज्य निर्माण का सपना संजोये थे। स्थानीय प्रशासन को अलकनंदा नदी की धारा के बीच में बने टापू पर बैठे अनशन कारियों की कुशलता तथा स्वास्थ्य की र्पयाप्त चिंता थी इसलिये उन्हे अनशन समाप्त कर धरने से उठाने के लिये सभी संभव वार्तायें की गयी परन्तु सार्थक परिणाम नही निकला ।
इसके बाद स्थानीय प्रशासन को उन जुनूनियों को अनशन स्थल से जबरन उठाये जाने के निर्देश प्राप्त हुये जिसके लिये विशेष आपरेशन संपन्न करने का निर्णय लिया गया । ‘‘आपरेशन’’ को शान्तिपूर्ण तरीके से संपन्न कराने के लिये रात्रि का समय चुना गया १० नवंबर, १९९४ को पुलिस ने इस टापू में पहुँचकर अपना ‘‘आपरेशन’’ संपन्न करने का निर्णय लिया गया जिसमें कई लोगों को गम्भीर चोटें भी आई, लेकिन जुनूनियों ने पुलिस के हाथों गिरिफ्तार होने के स्थान पर नदी में छलांग लगा दी और फिर वही हुआ जो नहीं होना चाहिये था। अनेक अनशन कारियों को बहती धारा से निकाला गया लेकिन दो अनशन कारी अमर शहीद स्व० श्री राजेश रावत। अमर शहीद स्व० श्री यशोधर बेंजवाल अलकनंदा नदी की धारा में समा गये जिनका शरीर कई दिनों तक नदी में तलाश किया गया परन्तु निराशा ही हाथ लगी।
इस घटना के बाद स्थानीय प्रशासन एवं पुलिस को जनता के गहन आक्रोश का सामना करना पडा । एहतियातन स्थानीय पुलिस अधिकारियो का तबादला कर दिया गया परन्तु इसके बावजूद समीपवर्ती शहर कई दिनों तक कर्फ्यू जैसे हालात में रहे।
धीरे धीरे माहौल शान्त होने लगा था कि १४ नवंबर, १९९४ को एक सुबह यह सूचना मिली कि घटना स्थल से बीस किलोमीटर आगे नदी के घुमाव वाले स्थान बागवान पर दो लाशें नदी के किनारे आकर लगी है। स्थानीय प्रशासन के प्रति जनता के आक्रोश को भॉपकर दूसरे खण्ड के अधिकारियों तथा राजस्व पुलिस को वहॉ भेजे जाने का निर्णय लिया गया। इन दोनों शहीदों के शव के समीप अलकनन्दा में तैरते हुये पाये गये थे।
समीपवर्ती उपखण्ड में तैनात होने के कारण मुझे उस स्थान पर जाकर लाशों का पंचायतनामा करवाते हुये पोस्ट मार्टम करवाने का दायित्व सौपा गया।
राजस्व पुलिस का प्रभारी होने के नाते मैने राजस्व पुलिस क्षेत्रों मंे तैनात पटवारियों का एक दल तैयार किया और एक लोकप्रिय स्थानीय नेता जी से संपर्क साध कर परिस्थिति से अवगत कराते हुये उनसे भी साथ चलने का अनुरोध किया। नेता जी स्थानीय जनता के साथ साथ प्रशासन के भी शुभचिंतक थे सो उन्होने तत्काल मेरे साथ घटना स्थल पर चलने हेतु अपनी सहमति देदी। घटना स्थल तहसील मुख्यालय से लगभग तीन घंटे की दूरी पर था। हम लोग सरकारी जीप से चलकर लगभग तीन घंटे बाद अलकनंदा नदी के किनारे ऐसे स्थान पर पहुॅचे जहॉ सडक पर भारी भीड एकत्रित थी। पास पहुॅच कर देखा तो जहॉ से दूर नदी की घाटी में पार्थिव शरीर दिखलायी पड रहे थे । वह स्थान सडक से लगभग सौ डेढ सौ मीटर की दूरी पर था तथा वहॉ पहुॅचना काफी दुरूह था ।स्थानीय लोगों ने वहॉ तक पहुचने का मार्ग बनाने का प्रयास पहले ही कर लिया था तथापि अपने साथ ले गये रस्सों की सहायता से सुद्वढ मार्ग का निर्माण करने के बाद हम लोग काफी मशक्कत के बाद ही उन शवों तक पहुचने में सफल हो सके।
कई दिन तक नदी के जल मे रहने के कारण उन आन्दोलन कारियों के शव काफी फूल गये थे और फूले हुये शव नदी के कछार में किनारे आकर डूबने उतराने लगे थे। उन नश्वर शरीरो को घेर कर अनेक उत्तराखंड आन्दोलनकारी तथा अन्य स्थानीय जन खडे थे । नेता जी ने मृतकों के पारिवारिक व्यक्तियो से प्रशासनिक अधिकारी के रूप में मेरा परिचय कराया तथा पंचायतनामा कराने का उपक्रम्र प्रारंभ किया। लाशों को नदी से खींचकर रेती तक लाने के दौरान यह पाया गया कि श्रीयंत्र टापू के शहीदो के पार्थिव शरीर के अतिरिक्त एक अधजली वृद्या का पार्थिव शरीर भी डूब और उतरा रहा था विवशतावश उन शहीदो के पार्थिव शरीर के अतिरिक्त उस अधजली वृद्धा का शरीर भी नदी से बाहर निकाला गया अैर अज्ञात नामसे उसका भी पंचायतनामा भरा गया ।
उस स्थान पर हम लोग लगभग चार घंटों तक रूके तथा यह देखा कि पार्थिव शरीर के हाथ पर बंधी घडी इतने दिन पानी में डूबे रहने के बाद भी चल रही थी उसे देखकर ऐसा लग रहा था मानो वह मृत शरीर हमें यह बता रहा हो कि इन्सान के चले जाने से समय खत्म नहीं होता, वह घडी जैसे आगे बढने का मार्ग प्रशस्त कर रही थी। मुझे प्राणवान तथा अप्राणवान वस्तुओं की गति का अंतर समझा रही थी। शहीदों के दर्शनार्थ अनेक महानुभावो का आवागमन प्रारंभ हो चुका था सो लगातार बढती भीड देखकर स्थानीय पुलिस को सतर्क करते हुये हम लोग पार्थिव शरीर लेकर जिला चिकित्सालय नरेन्द्रनगर के लिये निकल पडे। लगभग तीन घंटो के बाद हम वहॉ पहुॅचे जहॉ पोस्ट मार्टम कराना था। अब तक रात हो चुकी थी लेकिन जिलाधिकारी महोदय के निर्देश पर रात्रि में पोस्ट मार्टम संपन्न कराने की व्यवस्था की गयी थी।
ज्यों ज्यों रात गहराती जा रही थी वातावरण का ताप भी बढता जा रहा था। उत्तराखंड आन्दोलनकारियो का हुजूम तहसील मुख्यालय पर इकट्ठा होने लगा था। ऐसे में किसी अनहोनी धटना को टालने के उद्देश्य से रात्रि में ही धारा 144 लागू करते हुये अतिरिक्त पुलिस फोर्स मंगाया गया और एक स्थान पर पॉच से अधिक व्यक्तियो के इकट्ठा होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बावजूद वह रात उत्तराखंड आन्दोलनकारियो के नारों से कंपित होती रही।
सुबह का सूरज निकलने से पहले ही प्रशासन शहीदों के पार्थिव शरीर को परिजनों की सुर्पुदगी में देने को आतुर था। शहीदों का अंतिम संस्कार हरिद्वार में कराया जाना था जिसके लिये वहॉ के शासन को भी आवश्यक व्यवस्थाये करने के निर्देश दिये जा चुके थे। पा्रतःकाल ही चिकित्सालय प्रशासन ने शहीदों के पार्थिव शरीर उनके परिजनो की सुर्पुदगी में दे दिये तथा लावारिस वृद्धा का पार्थिव शरीर चिकित्सालय में लाने वाले अर्थात मेरी सुर्पुदगी में दे दिया।
शहीदों के पार्थिव शरीर उनके परिजनो द्वारा ले जाये जाने के बाद सब राहत की सांस ले रहे थे लेकिन मेरे मन में अब नयी चिंता घर बना रही थी। यह चिंता थी लावारिस वृद्धा के पार्थिव शरीर के अंतिम संस्कार की चिंता। उत्तराखंड आन्दोलनकारियो के आहवाहन पर संपूर्ण प्रदेश में उस दिन चक्का जाम था और मुझे ऐसे में अंतिम संस्कार की सभी आवश्यक व्यवस्थाये करनी थीें। ऐक ऐसा दायित्व जो संभबतः पूर्वजन्मों के किसी ऋण को चुकाने के लिये मुझे दिया गया था।
मैने स्थानीय स्तर पर पार्थिव शरीर की अंतिम यात्रा के लिये वाहन की व्यवस्था करनी चाही लेकिन कोई वाहन चालक तैयार नही हुआ। मैने हारकर अपनी प्रशासनिक हैसियत का उपयोग करते हुये नगर पालिका के ट्क को इस कार्य के लिये अनुबंधित किया और राजस्व पुलिस के अपने सहयोगी कारिंदों को लेकर संस्कारों के इस ऋण को निभाने का निश्चय किया।
नरेन्द्रनगर से निकलते निकलते शाम हो चुकी थी। कुछ सूखी लकडियॉ और जलाने की सामग्री हम लोग वहीं से लेकर चले थे ताकि ऋषिकेश मे कोई व्यवस्था न होने पर भी हम लोग उस अनजानी अनचाही मॉ स्वरूप वृद्धा के शरीर का वह संस्कार कर सकंे जिसके लिये यह शरीर मरने के बाद भी बरबस मुझ तक आ पहुचा था। जैसी मुझे आशंका थी ठीक वैसा ही हुआ। ऋषिकेश में चक्का जाम के चलते अतिरिक्त जलावन सामग्री की व्यवस्था नहीं हो सकी और फिर उसी सामग्री से अंतिम संस्कार करना पडा जो हम पहले से तैयार कर ले गये थे।
परिस्थितिजन्य हालातों में जितनी व्यवस्था मैं कर सका मैने किया फिर भी शरीर का एक चौथाई हिस्सा बच गया जिसे अवशेष पिंड के रूप में घाट पर उपस्थित एक अैाघड बाबा के माध्यम से गंगा की मध्य धारा में विसर्जित किया। इसके उपरांत गंगा स्नान कर वापिस नरेन्द्रनगर मुख्यालय के लिये निकल पडे। रास्ते भर मैं सोचता रहा कि इस वृद्धा के प्रति मेरा पूर्वजन्मों का कोई ऋण बाकी रहा होगा जिसको चुकाने के लिये मुझे ईश्वर ने ऐसी परिस्थिति में डाला कि मैं चाहकर भी इस दायित्व को निभाने से इन्कार न कर सकू परन्तु एक टीस आज भी मेरे अन्तरमन में उठती है कि मैं उस पूरे शरीर को आग को समर्पित न कर सका, इसके लिये हे मॉ ! तू अपने इस पूत को माफ करना !